Book Title: Chatvar Karmgranth
Author(s): Chandraguptasuri
Publisher: Jain Atmanand Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागच्छनायक-श्रीमद्देवेन्द्रसूरिविरचित चत्वारः कर्मग्रन्थाः संयोजकः आचार्यविजयचन्द्रगुप्तसूरिः / आर्थिकसहकारः __ श्री जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक तपगच्छ संघ ट्रस्ट, राजकोट हजुरपेलेस प्लॉट वर्धमाननगर राजकोट (सौराष्ट्र) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्तपागच्छनायक-श्रीमद्देवेन्द्रसूरिविरचित चत्वारः कर्मग्रन्थाः संयोजकः पू. परमशासनप्रभावकपूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयरामचन्द्रसूरीश्वरपट्टालङ्कारपूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयमुक्तिचन्द्रसूरीश्वरशिष्यरत्न पूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद्विजयामरगुप्तसूरीश्वर शिष्याचार्यविजयचन्द्रगुप्तसूरिः / आर्थिकसहकारः श्री जैन श्वेतांबर मूर्तिपूजक तपगच्छ संघ ट्रस्ट, राजकोट हजुरपेलेस प्लॉट वर्धमाननगर राजकोट (सौराष्ट्र) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्वारः कर्मग्रन्थाः * आवृत्तिः प्रथमा * वि.सं. 2053 प्रतयः-१००० ***** **** * प्राप्तिस्थानम् * प्रकाश अ. दोशी जतीनभाई हेमचंद शाह नूतनजैन उपाश्रय : वर्धमाननगर 'कोमल' कबूतरखाना सामे, हजुरपेलेसप्लॉट, छापरीयाशेरी : महीधरपुरा राजकोट सुरत - 3. TI ॐ मुद्रक कुमार ग्राफिक १३८/बी, चंदावाडी, दूसरा माला, सी.पी. टेंक रोड, मुंबई-४०० 004. (c) : 388 6320/387 9659 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआत्मानन्द-जैनग्रन्थरत्नमालायाः पञ्चाशीतितम रत्नम् (85) बृहत्तपागच्छनायकश्रीमद्-देवेन्द्रसूरिविरचिताः चत्वारः कर्मग्रन्थाः। DEROI. प्रथम-द्वितीय-चतुर्थाः खोपज्ञविवरणोपेताः तृतीयः पुनरन्याचार्यविरचितयाऽवचूरिरूपटीकया समलङ्कृतः। एतेषां सम्पादक:अनेकान्तदर्शननिष्णातबुद्धि-बृहत्तपागच्छान्तर्गतसंविग्नशाखीयआद्याचार्य-न्यायाम्भोनिधि-श्रीमद्विजयानन्दसूरीश ( प्रसिद्धनाम श्रीआत्मारामजी महाराज ) शिष्यरत्न-प्रवर्तक-श्रीमत्कान्तिविजयमुनिप्रवरपदपङ्कजसेवाहेवाकः चतुरविजयो मुनिः। प्रकाशकस्तु भावनगरस्थ-श्रीजैन-आत्मानन्दसभायाः कार्याधिकारी गान्धी इत्यु पाधिधारकः श्रेष्ठि-त्रिभुवनदासात्मजो वल्लभदासः / विक्रम संवत् 1990 / इस्विसन् 1934 प्रतयः 500 मूल्यं रूप्यकद्वयम्। वीरसंवत् 2460 आत्मसंवत् 30 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव्यकर्मग्रन्थचतुष्टयरूप आ विभागनुं संशोधन करती वखते सङ्ग्रह करेली प्रतोना सङ्केतो। कपुस्तक-पाटणना संघवीना पाडाना ताडपत्रीय पुस्तक भण्डारनुं छे. खपुस्तक-पण उपरोक्त भण्डारनुं ज छे.. गपुस्तक-पाटणनिवासी शा. मलुकचंद दोलाचंद हस्तकनुं छे. घपुस्तक-पाटणना बृहत्तपागच्छीय पुस्तक भण्डारनुं छे. उपुस्तक-पूज्यपाद प्रवर्तक श्रीमत्कान्तिविजयजी महाराजे वडोदरामा संग्रह करेल पुस्तक भण्डारनुं छे. टीकाकारे टीकामां उद्धरेल शास्त्रीय प्रमाणोना स्थानदर्शक संकेतो। अनु० / अनुयो। अनुयोगद्वारसूत्र. अनु० चू० अनुयोगद्वारसूत्र चूर्णी. अनु० हा० टी० अनुयोगद्वारसूत्र हारिभद्री टीका. आ० प्र० श्रु० द्वि० अ० आचारागसूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध द्वितीय अध्ययन. आ० नि० आवश्यकनियुक्ति. आ० नि० गा० / आवश्यक नियुक्ति गाथा. आव० नि० गा० आव० सं० गा० आवश्यक संग्रहणी गाथा. उप० मा० गा० उपदेशमाला गाथा. उपयो० पद प्रज्ञापनासूत्रोपाङ्ग उपयोगपद. कर्मस्त० गा० कर्मस्तव गाथा. जम्बू० जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र. जीवस० गा० जीवसमास गाथा. तत्त्वा० अ० सू० तत्त्वार्थाधिगम अध्याय सूत्र. तत्त्वार्थ० अ० सू० सिद्ध० टीका तत्त्वार्थाधिगम अध्याय सूत्र सिद्धसेनीया टीका. धर्मसं० गा० धर्मसङ्ग्रहणी गाथा. नन्दी० नन्दीसूत्रटीका. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चव० गा० पञ्चसं० गा० पञ्चसं० ल० वृ०प० पञ्चाश० गा० पञ्चवस्तुक गाथा. पञ्चसङ्घह गाथा. पञ्चसह लघुवृत्ति पत्र. पञ्चाशक गाथा. प्रज्ञापनासूत्रोपाङ्ग. प्रज्ञापनासूत्रोपाङ्ग पद. प्रज्ञापनासूत्रोपाङ्ग समुद्धात पद. प्रवचनसारोद्धार गाथा. प्रशमरति कारिका. बृहत्कर्मविपाक गाथा. प्रज्ञा प्रज्ञाप० प्रज्ञापना पद / प्रज्ञा० पद प्रज्ञा० समु० पद प्रव० गा० / प्रवच० गा० प्रश० का० ) प्रशम० का प्रशम० पद्य बृ० कर्मवि० गा० / बृ० क० वि० गा० बृहत्कर्मवि० गा० / बृ० क० स्त० गा० वृ० क० स्त० भा० गा० वृ० द्रव्यसं० गा० बृह० क्षे० गा० वृ० सं० बृ० सं० गा० वृ० संग्र० गा० बृहत्सं० गा० ) भग० श० उ० भ० श० उ० / भ० श० उ०प० योगशा० टी० विशे० आ० गा० विशे० गा० विशेषा० गा० बृहत्कर्मस्तव गाथा. बृहत्कर्मस्तव भाष्य गाथा. बृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा. बृहत्क्षेत्रसमास गाथा. बृहत्सवहणी गाथा. भगवतीसूत्र शतक उद्देश. भगवतीसूत्र शतक उद्देश पत्र. योगशास्त्रखोपज्ञटीका. विशेषावश्यक भाष्य गाथा. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतीसूत्र शतक उद्देश. शास्त्रवार्तासमुच्चय स्तबक श्लोक. श्रावकप्रज्ञप्ति गाथा. श० उ० शास्त्र० स्त० श्लो० श्रावकप्र० गा० / श्राव० प्र० गा० सि० ) सिद्धहेम० समु० 50 सिद्धहेमशब्दानुशासन. प्रज्ञापनासूत्रोपाङ्ग समुद्धात पद. मुद्रित धया पछी जडी आवेल प्रमाणोना स्थानदर्शक संकेतो। शास्त्र० स्त० श्लो० 90 पत्र. 2 पति 9 शास्त्र० स्त० श्लो० 91 . पत्र. 2 पति 27 बृ० सं० गा० 349 पत्र. 113 पति 21 पञ्चसं० ल० वृ० प० 32 पत्र. 119 पति 2 भ० श० उ०प० 345 पत्र. 119 पति 21 विशेषा० गा० 3000 पत्र. 123 पति 22 पत्र 10 पङ्क्ति 24 मां गाथा अङ्क 85 ने बदले 855 समजवो. प्रमाण तरीके उद्धरेल प्रमाणग्रन्थोनी स्थानदर्शक सूची। अनुयोगद्वारचूर्णी __ रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था. अनुयोगद्वारमलयगिरीया टीका शेठ देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. अनुयोगद्वारहारिभद्री टीका रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था. आचाराङ्गसूत्रटीका आगमोदय समिति प्रकाशित. . आवश्यकचूर्णी रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था. आवश्यक हारिभद्री टीका आगमोदय समिति प्रकाशित. आवश्यकनियुक्ति आगमोदय समिति प्रकाशित हारिभद्री टीकागत. आवश्यकसमहणी आगमोदय समिति प्रकाशित हारिभद्री टीकागत. उपदेशमाला श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा प्रकाशित. कर्मप्रकृति रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था प्रकाशित पञ्चाशकादि दशशास्त्रीयगत. कर्मस्तव श्रीजैन-आत्मानंद सभा प्रकाशित नव्यकर्मग्रन्थचतुष्कगत. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थाधिगमटीका कल्पभाष्य श्रीजैन-आत्मानन्दसभा प्रकाशित बृहत्कल्पवृत्तिगत. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. जीतकल्पभाष्य हस्तलिखित. जीवसमास रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था प्रकाशित पञ्चाशकादि दशशास्त्रीयगत. तत्त्वार्थाधिगम पुना शेठ. मोतीचंद लाधा प्रकाशित. शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. धर्मसङ्घहणीटीका शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. नन्द्यध्ययनचूर्णी रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था नन्द्यध्ययनमलयगिरीया टीका शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. नन्द्यध्ययनहारिभद्री टीका रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था. पञ्चवस्तुकटीका शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. पञ्चसङ्ग्रह रतलाम श्रीऋषभदेवजी केसरीमलजी जैनश्वेताम्बर संस्था प्रकाशित पञ्चाशकादि दश शास्त्रीयगत. पञ्चसङ्ग्रहमूलटीका / (पञ्चसङ्घहलघुटीका) शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. पञ्चाशकटीका श्रीजैनधर्मप्रसारकसमा प्रकाशित. प्रज्ञापनासूत्र / प्रज्ञापनासूत्रटीका आगमोदय समिति प्रकाशित. प्रवचनसारोद्धारटीका शेठ. देवचंद लालभाई जैनपुस्तकोद्धारफण्ड प्रकाशित. प्रशमरतिटीका श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा प्रकाशित. बृहत्कर्मविपाक श्रीजैन-आत्मानन्दसमा प्रकाशित प्राचीन कर्मग्रन्थचतु __ष्टयटीकागत. बृहत्कर्मस्तवभाष्य श्रीजैन-आत्मानन्दसभा प्रकाशित प्राचीन कर्मग्रन्थचतुष्टय टीकागत. बृहत्कर्मस्तवसूत्र श्रीजैन-आत्मानन्दसभा प्रकाशित प्राचीन कर्मग्रन्थ चतुष्क टीकागत. बृहत्क्षेत्रसमासटीका श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा प्रकाशित. बृहद्र्व्य सङ्ग्रह बृहद्बन्धखामित्व श्रीजैन-आत्मानन्दसभा प्रकाशित प्राचीन कर्मग्रन्थचतुष्क टीकागत. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत् शतकटीका ? शतक अमदावादस्थ श्रीवीरसमाज प्रकाशित. बृहत्सङ्ग्रहणीटीका श्रीजैन-आत्मानन्दसमा प्रकाशित. भगवतीसूत्रटीका / आगमोदय समिति प्रकाशित. पञ्चमाज योगशास्त्रखोपज्ञटीका श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा प्रकाशित. विशेषावश्यकभाष्य बनारस श्रीयशोविजय जैन पाठशाळा प्रकाशित. शास्त्रवार्तासमुच्चयलघुटीका गोडीजी, कारखानुं मुंबई. श्रावकमज्ञप्तिटीका केशवलाल प्रेमचंद मोदी प्रकाशित. षडशीतिक श्रीजैन-आत्मानन्दसमा प्रकाशित प्राचीन कर्मग्रन्थचतुष्क . टीकागत. सिद्धहेमशब्दानुशासनलघुवृत्ति श्रीयशोविजय जैन पाठशाळा बनारस प्रकाशित. सप्ततिकाटीका श्रीजैनधर्मप्रसारकसभा प्रकाशित कर्मग्रन्थद्वितीयविभागगत. ' Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आभार प्रदर्शन. rc995 आजे अमे विद्वानोना करकमलमां, छेल्लामां छेल्ली ढबे तैयार करेल बृहत्तपागच्छनायक श्रीदेवेन्द्रसूरिकृत खोपज्ञटीकायुक्त नव्यकर्मग्रन्थचतुष्टयनी आवृत्ति अर्पण करवा भाग्यशाळी थईए छीए ए माटे पूज्यपाद श्रीमान् 108 श्रीचतुरविजयजी महाराजनो अत्यन्त आभार मानीए छीए. तेम ज पूज्य श्रीचतुरविजयजी महाराजना विद्वान् शिप्य श्रीमान् पुण्यविजयजी महाराजे प्रस्तुत ग्रन्थने सुधारवामाटे तेम ज सम्पादनने लगता कार्यमा जे किम्मती हिस्सो आप्यो छे तेमाटे तेओश्रीनो पण आ ठेकाणे अमे अन्तःकरणथी आभार मानीए छीए. __ प्रस्तुत आवृत्तिनुं सम्पादन तेओश्रीए जे प्रकारनी योग्यताथी कर्यु छे तेने विद्वानो स्वयं समजी शके तेम छे, तथापि अमे तेनो टुंकमां परिचय आपवो उचित समजीए छीए-आ आवृत्तिना सम्पादन अने संशोधनमां पूज्य श्रीचतुरविजयजी महाराजे प्राचीन ताडपत्रीय तेम ज कागळनी हस्तलिखित अनेक प्रतोनो उपयोग कर्यो छे. तेम ज टीकाकारे प्रमाण तरीके उद्धृत करेल पाठोनां स्थळोनो उल्लेख पण तेओश्रीए ते ते स्थळे कयों छे. अने ग्रन्थना अन्तमा अनेक विषयनां परिशिष्टो आपीने तो तेओश्रीए प्रस्तुत आवृत्तिनी महत्तामा अनेक गणो उमेरो ज को छे. __ कर्मग्रन्थनी प्रस्तुत आवृत्तिना प्रकाशन माटे उपयोगी द्रव्यनी मदद पूज्य श्रीचतुरविजयजी महाराजना सदुपदेशथी अमने जे धर्मात्मा बहेनो तरफथी मळी छे ते सौनो हार्दिक आभार मानवा साथे तेमनां पवित्र नामोनो उल्लेख अमे आनीचे करी दईए छीए रू० 125 पाटणनिवासी झवेरी मोहनलाल मोतीचन्दनी सुपुत्री बहेन केसरबहेन तरफथी. रू० 125 पाटणनिवासी झवेरी हेमचन्द मोहनलालनी सुपत्नी बहेन हीराबहेन तरफथी. . रू० 100 पाटणनिवासी झवेरी भोगीलाल मोहनलालनी सुपत्नी बहेन मणीवहेन तरफथी. रू० 100 पालनपुरनिवासी परीख मणीलाल सूरजमलनी सुपत्नी बहेन ताराबहेन तरफथी. रू० 100 पाटणनिवासी शा. भीखाभाई त्रिभुवनदासनी विधवा बाई मणीना ट्रस्टीओ तरफथी हस्ते शा० भीखाचंद साकरचंद सोनी. रू० 50 पालनपुरनिवासी परीख. डाह्याभाई सूरजमलनी सुपत्नी बहेन जासुदबहेन तरफथी. रू० 50 अमदावादनिवासी झवेरी मणीलाल मोहनलालनी सुपत्नी बहेन गुलाबबहेन. रू० 50 पाटणनिवासी झवेरी भोगीलाल लहेरचन्दनी सुपत्नी बहेन चम्पावहेन तरफथी. उपर अमे जेमनां पवित्र नामोनो उल्लेख कर्यों छे ते सौनो धन्यवादपूर्वक पुनः एक वार आभार मानीए छीए. निवेदकवल्लभदास त्रिभुवनदास गांधी. सेक्रेटरी श्रीजैन आत्मानंद सभा, भावनगर. Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। कर्मग्रन्थोनुं प्रकाशन. अमारूं नवीन संस्करण-प्रस्तुत सटीक चार कर्मग्रन्थोनी बे आवृत्तिओ थई चूकी छे. प्रथम आवृत्ति भावनगर जैनधर्मप्रसारकसभाए. मुंबई निर्णयसागर प्रेसमां प्रत आकारे छपावीने प्रसिद्ध करी हती. तेनुं संपादन पं० श्रीमान आनन्दसागरगणिए कर्यु हतुं. अने तेम करी कर्मग्रन्थना जिज्ञासुओनी जिज्ञासाने सो पहेलां तेओश्रीए ज पूर्ण करी हती. त्यार बाद केटलांएक वर्प वीत्या पछी प्रथम आवृत्तिनी नक्कलो न मळवाने लीधे वीजी आवृत्तिनुं संपादन प्रत आकारे ज पं० श्रीयुत प्रतापविजयजीए मुक्तिकमलमोहनजैनग्रन्थमाला तरफथी कर्यु हतुं. आ रीते आ कर्मग्रन्थोनी वे आवृत्तिओ थई जवा छतां आजे तेनी एक पण नक्कल नहि मळी शकवाने कारणे, तेम ज केटलाएक कर्मग्रन्थना अभ्यासीओनी नवीन संस्करणमाटेनी सूचनाने ध्यानमा लई अमे आ त्रीनुं संस्करण हाथ धयु छे. __ अमारा संस्करणनी विशेषता-पहेली आवृत्तिना संपादनमां शुद्धिपत्रक आपवा छतां तेमां घणीए विशिष्ट अशुद्धिओ रही गयेली, जेनुं शुद्धिपत्रक केटलाक समय पहेलां भावनगर जैनधर्मप्रसारकसभाए ज बहार पाडेलु, तेम छतां य केटलीए विशिष्ट अशुद्धिओ रही जवा पामी हती. वीजा संस्करणमां पण उपरोक्त अशुद्धिओर्नु संशोधन थई शक्युं नथी. ए बधीए अशुद्धिओनुं संशोधन अमे अमारी प्रस्तुत आवृत्तिमा सावधानपणे करवा बनतो प्रयत्न कर्यो छे. __ 2 प्रस्तुत ग्रन्थना संपादनमां अमे वे प्राचीन ताडपत्रीय प्रतो अने त्रण प्राचीन कागळनी प्रतोनो उपयोग करी एजें संशोधन घणी ज प्रामाणिक रीते कयु छे, अने साथे साथे केटलाक विशिष्ट पाठभेदो पण आप्या छे. 3 प्रथमनी वे आवृत्तिओमां टीकाने सळंग रीते छापवामां आवी छे, ज्यारे आ आवृत्तिमां ठेकठेकाणे पेरेग्राफ पाडी ते ते विषयोने छूटा पाडवामां आव्या छे.' 4 टीकाकारे ठेकटेकाणे प्रमाण तरीके जे अनेक शास्त्रीय पाठो उद्धर्या छे ए वधा कया ग्रन्थना छे ए शोधीने ज्यां सुधी मेळवी शक्या त्यां सुधी ते ते ग्रन्थनां मूळ स्थळोने नोंधवा यत्न कयों छे. अने ते ते मूळ ग्रन्थ साथे सरखावतां जे पाठभेदो जणाया छे तेने अमे टिप्पणमा आप्या छे. आथी अमे कर्मग्रन्थना अभ्यासीओने ते ते ग्रन्थमां रहेला . कर्मग्रन्थविपयक विविध विचारोने अवगाहवानी सुगमता करी आपी छे. __5 टीकामां जे ग्रन्थ अने ग्रन्थकार विगेरेनां नामो आवे छे ए वाचकोना लक्ष्यमां एकदम आवे ते माटे ते नामो अमे स्थूलाक्षर( ब्लॅक टाइप )मा आप्यां छे. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 प्रस्तुत संपादनमां ग्रन्थने अन्ते छ परिशिष्टो आपवामां आव्यां छे. जेमांना पहेला परिशिष्ठमां टीकाकारे प्रमाण तरीके उद्धरेल शास्त्रीय पाठो, गाथाओ अने श्लोक विगेरे अकारादि क्रमथी स्थलनिर्देशपूर्वक आपवामां आव्या छे. बीजा अने त्रीजा परिशिष्टमां अनुक्रमे कर्मग्रन्थनी टीकामां आवता ग्रन्थ अने ग्रन्थकारोनां नामोनो क्रम आपवामां आव्यो छे. चोथा परिशिष्टमां प्रस्तुत कर्मग्रन्थ अने तेनी टीकामां आवता कर्मग्रन्थविषयक पारिभाषिकशब्दो के जेनी व्याख्या मूळमां तेम ज टीकामां आपवामां आवी छे तेनो स्थलनिर्देशपूर्वक कोश आपवामां आव्यो छे. पांचमा परिशिष्टमां कर्मग्रन्थनी टीकामां आवता पिण्डप्रकृतिसूचक शब्दोनो कोष आपवामां आव्यो छे. अने छट्ठा परिशिष्टमां वर्तमानमा उपलब्ध थता श्वेताम्बर-दिगम्बर संप्रदायना कर्मविषयक समग्र साहित्यनी नोंध आपवामां आवी छे. कर्मग्रन्थोन महत्व। जैन साहित्यमां कर्मग्रन्थोनु केटलं उच्च स्थान छे ए माटे आ ठेकाणे एटलुं ज कहेवू बस थशे के-जैन दर्शन ए काल स्वभाव आदि पांचे कारणोने मानवा छतां एणे अमुक वस्तुस्थिति अने दर्शनान्तरोनी मान्यताओने ध्यानमा लई कर्मवाद उपर कांइक वधारे भार मूक्यो छे. एटले जैनदर्शन अने जैन आगमोनुं यथार्थ अने संपूर्ण ज्ञान कर्मतत्त्वने जाण्या सिवाय कोई पण रीते थई शकतुं नथी. अने ए विशिष्ट ज्ञान मेळववा माटेनुं प्रारम्भिक मुख्य साधन कर्मग्रन्थो सिवाय बीजं एक पण नथी. कर्मप्रकृति, पञ्चसंग्रह आदि कर्मसाहित्यविषयक विशाल अने दरिया जेवा ग्रन्थोमां प्रवेश करवामाटे कर्मग्रन्थोनो .. अभ्यास अतिआवश्यक होई कर्मग्रन्थोनुं स्थान जैन साहित्यमां अतिगौरवभयुं छे. कर्मग्रन्थोनो परिचय। आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पांच कर्मग्रन्थोनी रचना करी छे, ते पैकीना चार कर्मप्रन्थोने आ विभागमा प्रकाशित करवामां आवे छे, तेम छतां आ ठेकाणे आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना पांचे कर्मग्रन्थोनो परिचय आपवामां आवे छे. नाम-आचार्य श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए जे पांच कर्मग्रन्थोनी रचना करी छे तेनां नाम अनुक्रमे आ प्रमाणे छे-कर्मविपाक, कर्मस्तव, बन्धस्वामित्व, पडशीति अने शतक. आ नामो ग्रन्थनो विषय अने तेनी गाथासंख्याने लक्ष्यमा राखीने ग्रन्थकारे पाडेलां छे. पहेलो त्रण नामो ग्रन्थना विषयने ध्यानमा राखीने पाडवामां आव्यां छे, ज्यारे षडशीति अने शतक ए बे नाम ते ते कर्मग्रन्थनी गाथासंख्याने अनुलक्षीने पाडवामां आव्यां छे. चोथा कर्मग्रन्थनी गाथा 86 छे माटे तेनुं नाम षडशीति राखवामां आव्युं छे अने पांचमा कर्मग्रन्थनी गाथा 100 छे माटे तेनुं नाम शतक राखवामां आव्युं छे. आ रीते पांचे कर्मग्रन्थनां जुदां जुदां नाम होवा छतां अत्यारे सामान्य जनता आ कर्मग्रन्थोने पहेलो कर्मग्रन्थ, बीजो कर्मग्रन्थ, श्रीजो कर्मग्रन्थ ए नामथी ज ओळखे छे. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11 भाषा अने छन्द-सामान्य रीते जैन संस्कृतिए प्राकृतभाषा अने आर्याछन्दने मुख्य स्थान आप्यु छे एटले ते संस्कृतिना अनुयायिओए पोतानी मौलिक अने महत्त्वभरी दरेक कृतिओने प्राकृतभापामां अने आर्याछन्दमां ज बद्ध करी छे. ते ज रीते आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोनीरचना पण प्राकृतभाषामां अने आर्याछन्दमांज करी छे. विषय-१ पहेला कर्मग्रन्थ तरीके ओळखाता कर्मविपाक नामना कर्मग्रन्थमा ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय आदि आठ कर्मो, तेना भेद-प्रभेदो अने तेनुं स्वरूप अर्थात् विपाक अथवा फळनुं वर्णन दृष्टान्त पूर्वक करवामां आव्युं छे. 2 बीजा कर्मस्तव नामना कर्मग्रन्थमां श्रमण भगवान् महावीरनी स्तुति करवा द्वारा चौद गुणस्थानोनुं स्वरूप अने ए गुणस्थानोमां प्रथम कर्मग्रन्थमां वर्णवेल कर्मोनी प्रकृतिओ पैकी कई कई कर्मप्रकृतिओनो बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता होय छे एनुं निरूपण करवामां आव्युं छे. 3 त्रीजा बन्धस्वामित्व नामना कर्मग्रन्थमां गत्यादिमार्गणास्थानोने आश्री जीवोना कर्मप्रकृतिविषयक बन्धस्वामित्वनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. बीजा कर्मग्रन्थमा गुणस्थानोने आश्रीने बन्धनुं वर्णन करवामां आव्युं छे ज्यारे आ कर्मग्रन्थमां गत्यादिमार्गणास्थानोने ध्यानमा राखी बन्धस्वामित्वनो विचार करवामां आव्यो छे. ____4 चोथा पडशीति नामना कर्मग्रन्थमां जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, भाव अने सङ्ख्या ए पांच विभाग पाडीने तेनुं विस्तारथी विवेचन करवामां आव्युं छे. आ पांच विभाग पैकी त्रण विभाग साथे बीजा विषयो पण वर्णववामां आव्या छे. (क) जीवस्थानमा गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता आ आठ विषयो चर्चवामां आव्या छे. (ख) मार्गणास्थानमां जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या अने अल्पवहुत्व ए छ विषयो वर्णव्या छे. अने (ग) गुणस्थानमा जीवस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता आ नव विषयो वर्णव्या छे. पाछला बे विभागो अर्थात् भाव अने सङ्ख्यानुं वर्णन कोई विषयथी मिश्रित नथी. 5 पांचमो शतक नामनो कर्मग्रन्थ जो के आ विभागमा प्रकाशित करवामां नथी आव्यो तेम छतां प्रसङ्गोपात तेना विषयनो निर्देश करी देवो.अनुचित नहि ज गणाय. आ कर्मग्रन्थमां, पहेला कर्मग्रन्थमा वर्णवेल कर्मप्रकृतिओ पैकीनी कई कई प्रकृतिओ ध्रुवबन्धिनी, अध्रुवबन्धिनी, ध्रुवोदया, अध्रुवोदया, ध्रुवसत्ताका, अध्रुवसत्ताका, सर्व-देशघाती, अघाती, पुण्यप्रकृति, पापप्रकृति, परावर्त्तमानप्रकृति अने अपरावर्तमान प्रकृतिओ छे एनुं निरूपण करवामां आव्युं छे. ते पछी उपरोक्त प्रकृतिओ पैकीनी कई कई कर्मप्रकृतिओ क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी, भवविपाकी अने पुद्गलविपाकी छे एनुं विभागवार वर्णन करवामां आव्युं छे. आ पछी उपरोक्त कर्मप्रकृतिओना प्रकृतिवन्ध, स्थितिवन्ध, रसबन्ध अने प्रदेशबन्ध ए चार प्रकारना बन्धनुं स्वरूप अने ते समजमां आवे ते माटे Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 मोदकनुं दृष्टान्त कहेवामां आव्यु छे. आटलं कह्या बाद कयो जीव कई कई जातना वन्धनो स्वामी होय छे ए कहेवामां आव्युं छे अने छेवटे उपशमश्रेणि अने क्षपकश्रेणिनुं विस्तृत स्वरूप वर्णववामां आव्युं छे. आ मुख्य विषयो सिवाय आ कर्मग्रन्थमां ध्रुवबन्धिनी आदि प्रकृतिओने आश्रीने साद्यनादि भांगाओनुं निरूपण विगेरे अवान्तर अनेक विषयो प्रन्थकारे वर्णवेला छे. __ आधार-आचार्य श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए पांच कर्मग्रन्थनी रचना करी ते पहेलां आचार्य श्रीशिवशर्म-श्रीचन्द्रर्पिमहत्तर विगेरे जुदा जुदा पूर्वाचार्यों द्वारा जुदे जुदे समये मळी कर्मविपयक छ प्रकरणोनी अथवा बीजा शब्दोमां कहीए तो छ कर्मग्रन्थोनी रचना थई चूकी हती. ए ज छ कर्मग्रन्थो पैकीना पांच कर्मग्रन्थोने आधाररूपे पोतानी नजर सामे राखी आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोनी रचना करी छे अने तेथी आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना कर्मग्रन्थोने "नव्यकर्मग्रन्थ" तरीके ओळखवामां आवे छे. __नव्यकर्मग्रन्थोनी प्राचीनकर्मग्रन्थो साथे तुलना-आचार्य श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए जे नव्यकर्मग्रन्थोनी रचना करी छे ए उपर जणाववामां आव्युं तेम स्वतन्त्र नथी पण प्राचीनकर्मग्रन्थोने आधारे करवामां आवी छे. ए रचनामां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए मात्र प्राचीन कर्मग्रन्थोना आशयने ज लीधो छे एम नी पण नाम, विषय, वस्तुने वर्णववानो क्रम विगेरे दरेके दरेक वावतमाटे तेमणे तेना आदर्शने पोतानी नजर सामे राख्यो छे ए आपणे एमना कर्मग्रन्थो अने प्राचीनकर्मग्रन्थोना तुलनात्मक निरीक्षण द्वारा समजी शकीए छीए. ... नाम अने विषय-प्राचीन कर्मग्रन्थोनां नामो. अने आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थोनां नामोमां लगभग समानता ज छे. जेम आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना प्रथम कर्ममन्थने कर्मविपाक नामथी ओळखवामां आवे छे तेम ते ज विपयने चर्चता प्राचीन कर्मग्रन्थविषयक प्रकरणने कर्मविपाक नामथी ज ओळखवामां आवे छे. आ रीते आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना नव्य कर्मग्रन्थोनां जे नामो आप्यां छे ते प्राचीन कर्मविषयक प्रकरणो, जेने आधारे तेमणे पोताना नव्य कर्मग्रन्थोनी रचना करी छे, तेने आधारे ज आप्यां छे. प्राचीन कर्मग्रन्थो पैकी बीजा अने चोथा कर्मग्रन्थना नाममा दृश्य रीते सहज फरक नजरे आवे छे, तेम छतां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोने जे नामथी ओळखावेल छे ते नामथी एटले के कर्मस्तव अने षडशीति ए नामथी प्राचीन वीजा अने चोथा कर्मग्रन्थने ओळखवामां आवता तो हता ज.. प्राचीन बीजा कर्मग्रन्थने तेना कर्ताए मङ्गलाचरणमां बन्धोदयसयुक्तस्तव एवं नाम , नमिऊण जिणवरिंदे तिहुयणवरनाणदंसणपईवे / बंधुदयसंतजुत्तं वोच्छामि थयं निसामेह // Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आप्युं छे तेम छतां टीकाकार श्रीगोविन्दाचार्ये पोतानी टीकाना प्रारंभमां अने अन्तमां एनुं नाम कर्मस्तव ज लीधुं छे. आ उपरथी एम लागे छे के मूळग्रन्थकारे पोताना प्रकरणमां बन्धोदयसद्युक्तस्तव एवं नाम आपवा छतां ए नाम बोलवू के याद राखq जनसामान्यने अगवडकर्ता थई पडे ते माटे उपरोक्त नामने टुंकावी कर्मस्तव एबुं बीजं नाम आप्युं होय अथवा टीकाकारे ए नाम टुंकाव्यु होय. गमे तेम हो, पण वीजा कर्मग्रन्थy कर्मस्तव ए नाम पहेलेथी रूढ तो हतुं ज. आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरि तो पोताना जीजा कर्मग्रन्थना अन्तमा वीजा कर्मग्रन्थने कर्मस्तव ए नामथी ज ओळखावे छे.. प्राचीन चोथा कर्मग्रन्थने पडशीति अने आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरण ए बे नामथी ओळखवामां आवे छे. मूळ प्रकरणकारे मूळमां प्रकरणना नामनो उल्लेख कर्यो नथी एटले वर्तमानमा प्रचलित उपरोक्त के नाम ग्रन्थकारनी कल्पनामां हशे के केम ? ए कही शकाय नहि; तेम छतां आ कर्मग्रन्थना टीकाकार आचार्य श्रीमान् मलयगिरि अने वृद्धगच्छीय आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिए चोथा कर्मग्रन्थनी गाथासङ्ख्या अने विषयने ध्यानमां लई उपरोक्त वन्ने य नामोनो निर्देश को छे. एटले ए नामो आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरि पहेला हतां ज एम मानवाने प्रबल कारण छे. आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरि तो पोताना नव्य चतुर्थ कर्मग्रन्थने पडशीति ए नामथी ज ओळखावे छे. __ जेम प्राचीन कर्मग्रन्थोनां नाम गाथानी सङ्ख्या तेम ज विषयने लक्ष्यमा राखीने पाडवामां आव्यां छे तेम आचार्य श्रीदेवेन्द्रसरिए पोताना कर्मग्रन्थोने माटे ए ज पद्धति स्वीकारी छे. चोथो अने पांचमो कर्मग्रन्थ तेमनी संक्षेप रचनापद्धति अनुसार टुंकाई जवा छतां नवीन विपयो उमेरीने पण गाथासङ्ख्यानुसार पाडेलां प्राचीन नामोने कायम राखवा तेमणे यत्न कर्यो छे जे आपणे आगळ उपर जोईशं. विषय अने वस्तुवर्णननो क्रम-प्राचीन कर्मग्रन्थकारे पोताना कर्मग्रन्थोमा जे जे विपयो वर्णव्या छे अने तेना वर्णननो जे क्रम राख्यो छे, लगभग ते ज विपयो अने तेना वर्णननो क्रम आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोमा राख्यो छे. . कर्मग्रन्थोनो क्रम-उपर जणाववामां आव्यु तेम आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए नव्य कर्मग्रन्थोनी रचना करी ते अगाउ आचार्य श्रीशिवशर्म विगेरे जुदा जुदा आचार्यो द्वारा छ कर्मग्रन्थोनी रचना थई चूकी हती. तेम छतां अत्यारे छ कर्मग्रन्थोने कर्मविपाक कर्मस्तव विगेरे जे क्रममां गोठववामां आवे छे ए क्रम प्राचीन नथी पण अर्वाचीन छे. अर्वाचीन एटले आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए नव्य कर्मग्रन्थोनी रचना करी त्यारनो. प्राचीन , कर्मबन्धोदयोदीर्यासत्तावैचित्र्यवेदिनम् / कर्मस्तवस्य टीकेयं नत्वा वीरं विरच्यते // 2 इति श्वेतपटाचार्यगोविन्दगणिना कृता / कर्मस्तवस्य टीकेयं देवनागगुरोगिरा // 3 देविंदसूरिलिहियं नेयं कम्मत्थयं सोउं // 4 प्रणम्य सिद्धिशास्तारं कर्मवैचित्र्यवेदिनम् / जिनेशं विदधे वृति पडशीतेर्यथागमम् // . 5 नत्वा जिनं विधास्ये विवृति जिनवल्लभप्रणीतस्य / आगमिकवस्तुविस्तरविचारसारप्रकरणस्य / / Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 कर्मग्रन्थोनी रचना कोई एक आचार्यनी कृति के समकाले थयेल आचार्योनी कृति नथी, पण सैकाओने गाळे थयेल जुदा जुदा आचार्योनी ए कृतियो छे. एटले अत्यारे कर्मग्रन्थोने जे क्रमथी अर्थात् कर्मविपाक पहेलो कर्मग्रन्थ, कर्मस्तव बीजो कर्मग्रन्थ एम छए कर्मग्रन्थोने नम्बर वार गोठवायेला आपणे जोईए छीए ए क्रम कर्मविषयने लगता ज्ञाननी सगवडताने लक्षीने आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए गोठवेलो लागे छे, मौलिक नथी. प्राचीन कर्मग्रन्थो पैकीनो शतक कर्मग्रन्थ आचार्य श्रीशिवशर्मसूरिनी कृति छे ज्यारे सप्ततिका कर्मग्रन्थ श्रीचन्द्रर्षिमहत्तरनी रचना छे, कर्मविपाक ए श्रीगर्गर्षिमहर्षिनी कृति छे त्यारे आगमिकवस्तुविचारसार उर्फे पडशीति कर्मग्रन्थ ए श्रीमान् जिनवल्लभगणिनी रचना छे. वीजा जीजा कर्मग्रन्थना प्रणेता कोण ? ए संबंधे कशो उल्लेख मळी शकतो नथी, तेम छतां अमने एम लागे छे के-कर्म विपाकनी रचना थया पछी आ वे कर्मग्रन्थोनी रचना थई होवी जोईए. आ रीते एकंदर जोतां विक्रमना त्रीजा के चोथा सैकाथी लई विक्रमनी बारमी सदी सुधीमां थयेल जुदा जुदा आचार्यों द्वारा आ कर्मग्रन्थोनी रचना उत्क्रमथी ज करायेल होई अत्यारे चालतो कर्मग्रन्थोनो क्रम आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना नव्यकर्मग्रन्थो रचाया पछी ज रूढ थवानो संभव वधारे छे. अने अमारी मान्यता मुजब कर्मग्रन्थोनो अत्यारे प्रचलित क्रम आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिथी ज चालु थयो होवो जोईए. नव्य कर्मग्रन्थोनी विशेषता-प्राचीन कर्मग्रन्थकार आचार्योए पोताना कर्मअन्थोमां जे विषयो वर्णवेला छे ते ज विषयो नव्यकर्मग्रन्थकार आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोमां वर्णवेला छे. तेम छतां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना कर्मग्रन्थोमां विशेषता ए छे के प्राचीन कर्मग्रन्थकारोए जे विषयोने अतिस्पष्ट रीते, परन्तु एटला लांबा करी वर्णव्या छे, जे सामान्य रीते कण्ठस्थ करनार अभ्यासीओने अतिकंटाळो आपे; त्यारे ते ज विषयोने आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोमां एक पण विषयने पडतो मूक्या सिवाय, एटलुं ज नहि पण बीजा अनेक विषयोने उमेरीने, दरेक अभ्यासी सहजमां समजी शके एवी स्पष्ट भाषापद्धतिए अतिसंक्षेपथी प्रतिपादन कर्या छे, जेनो अभ्यास करवामां अने याद करवामां तेना अभ्यासीओने अतिश्रम के कंटाळो न लागे. प्राचीन कर्मग्रन्थोनी गाथासङ्ख्या अनुक्रमे 168, 57, 54, 86 अने 102 नी छे ज्यारे नव्य कर्मग्रन्थोनी गाथासङ्ख्या अनुक्रमे 60, 34, 24, 86 अने 100 नी छे. चोथा अने पांचमा कर्मग्रन्थोनी गाथासङ्ख्या प्राचीन कर्मग्रन्थोना जेटली जोई कोईए एम न मानी लेवु के-'प्राचीन चोथा अने पांचमा कर्मग्रन्थ करतां नव्य चतुर्थ पञ्चम कर्मप्रन्थोमा शाब्दिक फरक सिवाय बीजं कांइ ज नहि होय.' किन्तु आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना नव्य कर्मग्रन्थोमां प्राचीन कर्मग्रन्थोना विषयोने जेटला टुंकावी शकाय तेटला टुंकाव्या पछी, तेना षडशीति अने शतक ए वे प्राचीन नामोने अमर राखवाना इरादाथी कर्मग्रन्थना अभ्यासीओने अति मददगार थई शके एवा विषयो उमेरीने छयासी अने Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 सो गाथा पूर्ण करी छे. चोथा कर्मग्रन्थमा आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए भेद-प्रभेदो साथे छ भावोनुं स्वरूप अने भेद-प्रभेदना वर्णन साथे सङ्ख्यात, असङ्ख्यात अने अनन्त ए त्रण प्रकारनी सङ्ख्याओनुं स्वरूप वर्णव्युं छे. अने पांचमा कर्मग्रन्थमा उद्धार, अद्धा अने क्षेत्र एत्रण प्रकारना पल्योपमोनुं स्वरूप, द्रव्य, क्षेत्र, काल अने भाव ए चार प्रकारना सूक्ष्म अने बादर पुद्गलपरावर्तोतुं स्वरूप तेम ज उपशमश्रेणि अने क्षपकश्रेणिनुं स्वरूप विगेरे अनेक नवीन विषयो उमेर्या छे. आ रीते प्राचीन कर्मग्रन्थो करतां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिकृत नव्य कर्मग्रन्थोमां खास विशेषता ए रहेली छे के-प्रस्तुत प्रकाशित कराता कर्मग्रन्थोमां प्राचीन कर्मग्रन्थोना प्रत्येक विषयनो समावेश होवा छतां तेनुं प्रमाण अति नानुं छे अने ते साथे एमां नवा अनेक विषयो संघरवामां आव्या छे. कर्मग्रन्थो-उपर अमे जणावी आव्या ते मुजब प्राचीन अने नवीन एम बे प्रकारना कर्मग्रन्थो सिवाय विक्रमनी पंदरमी शताब्दीमां थयेल आगमिक आचार्य श्रीजयतिलकसूरिए संस्कृत कर्मग्रन्थोनी पण रचना करी छे. तेम छतां आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना नव्य कर्मग्रन्थोनुं ज जनसाधारणमां गौरव अने ग्राह्यता वधी पड्यां छे, अने आज सुधी जनतामां ए ज अव्यवछिन्न रीते प्रचार पामी रह्या छे. आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना कर्मग्रन्थोए एटले सुधी काम कर्यु छे के अत्यारे थोडा एक गण्या गांठ्या विद्वानो सिवाय भाग्ये ज कोई जाणतुं हशे के-आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना कर्मग्रन्थो सिवाय बीजा प्राचीन कर्मग्रन्थो पण छे जेने आधारे आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोनी रचना करी छे. __नव्य कर्मग्रन्थोनी टीका-आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना नव्य पांचे कर्मग्रन्थो उपर स्वोपज्ञ टीका रची हती तेम छतां त्रीजा कर्मग्रन्थनी टीका आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिना समय पछी तरत ज गमे ते कारणे नाश पामी गई होवाथी ते पछीना आचार्योने मळी शकी नथी; एटले तेनी पूरवणी करवा माटे कोई विद्वान् आचार्यश्रीए नवीन अवचूरिरूप टीको रची छे जेमनुं नाम टीकामां निर्दिष्ट नथी. अमारा प्रस्तुत विभागमां नव्य. पांच कर्मग्रंथ पैकीना पहेला चार कर्मग्रंथो सटीक, अर्थात् पहेलो बीजो अने चोथो स्वोपज्ञ टीका साथे अने त्रीजो उपरोक्त अन्यआचार्यकृत अवचूरी साथे, प्रसिद्ध करवामां आवे छे. टीकानी रचनाशैली-आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिनी टीका रचवानी शैली एवी मनोरंजक छे के-मूळ गाथाना कोई पण पद के वाक्यतुं विवेचन रही जवा पाम्युं नथी, एटलुं ज नहि पण जे पदार्थने विस्तारपूर्वक समजाववानी जरूरत होय तेनुं ते प्रमाणे निरूपण करवामां आव्युं छे. आ सिवाय प्रस्तुत टीकामां एक ए. पण विशेषता जोवामां आवे छे के 1 जुओ शतक गाथा 25 मीनु अवतरण-"मार्गणास्थानकान्याश्रित्य पुनः स्वोपज्ञबन्धस्वामित्वटीकाय विस्तरेण निरूपितस्तत अवधारणीय इति / " 2 जुओ ए टीकार्नु अन्तिम पद्य "एतद्वन्थस्य टीकाऽभूत्, परं वापि न साऽऽप्यते / स्थानस्याशून्यताहेतोरतोऽलेख्यवचूरिका // Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीकाकार जे पदार्थ- विवेचन करे छे ते पदार्थने वधारे स्पष्ट अने मजबूत करवामाटे आगम, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी, टीका अने पूर्वमहर्षिविरचित प्रकरणग्रन्थोमाथी ते से विषयने लगतां प्रमाणो टांकी दे छे. कोई कोई ठेकाणे तो दिगंबर, पुराण बौद्ध अने आयुर्वेदविषयक शास्त्रोनां प्रमाणो मूकी ते ते पदार्थोने सप्रमाण सिद्ध कर्या छे. आ प्रमाणे नव्य कर्मप्रन्थोनी आ टीका एटली तो विशद, सप्रमाण अने कर्मतत्त्वना विषयथी भरपूर छे के एने जोया पछी प्राचीन कर्मग्रन्थो अने तेनी टीका टिप्पणी विगेरे जोवानी जिज्ञासा लगभग शांत थई जाय छे. टीकानी भाषा सरळ, सुबोध अने हृदयंगम होवाथी पठन पाठन करनार सरलताथी कर्मतत्त्वना विपयने प्राप्त करी शके छे. जो के आ टीकामां घणे ठेकाणे अनुयोगद्वार, नंदी अने प्राचीन कर्मग्रन्थ विगेरेनी टीकाना अक्षरशः संदर्भोना संदर्भो नजरे पडे छे पण तेटला मात्रथी अद्भुत अने अपूर्व संग्रह तरीके आ टीकार्नु गौरव कोई पण रीते खंडित थतुं नथी. आ विभागमा आवेल सदीक चार कर्मग्रंथोनुं प्रमाण 5938 श्लोक अने 28 अक्षर छे. कर्मविषयक साहित्य-जैनधर्म मुख्यपणे कर्मसिद्धान्तने माननार होई तेनी श्वेतांबर अने दिगंबर ए बन्ने य शाखामां थयेल स्थविरोए अने विद्वान् आचार्यवोए जे विधविध प्रकारना विपुल ग्रन्थोनी रचना करी छे ए समग्र साहित्यनो अध्ययन दृष्टिए तेम ज तुलनात्मक पद्धतिए अभ्यास करवा इच्छनारने उपयोगी थाय ते माटे प्रस्तुत प्रकाशनने अंते उपलभ्यमान समग्र कर्मविषयक साहित्यनो परिचय आपनार एक परिशिष्ट आप्युं छे. आ परिशिष्ट जोवाथी दरेकने ए पण ख्यालमां आवशे के–अगाध प्रतिभाशाली जैनाचार्योए कर्मविषयक साहित्यने विधविध रीते केटला विशाळ प्रमाणमां खेड्युं छे ?. ग्रन्थकारनो परिचय. . 1 ग्रन्थकर्ता-खोपज्ञटीकायुक्त नव्य पांच कर्मग्रन्थना प्रणेता बृहत्तपागच्छीय श्रीमान् जगचंद्रसूरिजीना शिष्य श्रीदेवेन्द्रसूरि छे, ए वात प्रत्येक कर्मग्रन्थनी प्रशस्ति गुर्वावली गुरुगुणरत्नाकरकाव्य आदि अनेक ग्रन्थोना आधारे निर्विवाद रीते सिद्ध छे. 2 समय-श्रीदेवेन्द्रसूरिनो स्वर्गवास विक्रमसंवत् 1327 मां थयानो उल्लेख गुर्वावलीमा स्पष्ट रीते मळे छे. ए उपरथी एमनो समय लगभग विक्रमनी तेरमी शताब्दी- उत्तरार्द्ध अने चौदमी शताब्दीनो प्रारंभ कही शकाय. एमना जन्म, दीक्षा, सूरिपदप्रतिष्ठा आदिना समयनो उल्लेख कोई पण स्थळेथी मळी शकतो नथी, तेम छतां श्रीमान् जगच्चन्द्रसूरिए क्रियाउद्धार कर्यो ते समये तेओश्री दीक्षित अवस्थामां होवानो संभव छे. श्रीमान् जगच्चन्द्रसूरिए तपागच्छनी स्थापना करी त्यार बाद श्रीदेवेन्द्रसूरि अने श्रीविजयचन्द्रसूरिने सूरिपद समर्पण कर्यानुं वर्णन गुर्वावलीमां आवे छे. / पत्र-१२ श्लोक-११७ जुओ. 2 पत्र-८ श्लोक-४० जुओ. 3 पत्र 16 श्लोक 147 जुओ. 4 पत्र. "झोक 100 जुमओ. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए उपरथी ए संभावना थई शके के-संवत् 1285 पछीना कोई पण संवतमां तेमने सूरिपद अपायुं हशे. सूरिपद ग्रहण समये श्रीदेवेन्द्रसूरि वय, श्रुत, संयम आदि दरेक बायतमां अतिप्रौढ अने परिणत होवा जोईए. नहि तो अत्यन्त जोखमदार सूरिपदवी अने खास करीने ताजेतरमा ज क्रियाउद्धार करनार तथा उग्र तपश्चर्या करी तपाबिरुद मेळवनार श्रीमान् जगचन्द्रसूरिगुरुना गच्छनायक पदना भारने तेओ शी रीते संभाळी शके ?. श्रीदेवेन्द्रसूरिने गच्छना कार्यमा सहायभूत थाय तथा गच्छर्नु संरक्षण थई शके एवा हेतुथी अने श्रीमान देवभद्रगणिना उपरोधथी श्रीमान् जगचन्द्रसूरिए श्रीविजयचन्द्रने सूरिपद अर्पण कर्यु हतुं ए वर्णन गुर्वावलीमा छे. आ उपरथी ए वात तरी आवे छे केश्रीदेवेन्द्रसूरिनी आचार्यपदवी थया बाद श्री विजयचन्द्रने सूरिपदवी आपवामां आवी हती. श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए उज्जयिनीनगरीना रहेवासी श्रेष्ठी जिनचन्द्रना पुत्र वीरधवलने जे वखते तेना लग्न निमित्त महोत्सव थई रह्यो हतो अने लग्न करवानी तैयारी चालती हती ते वखते प्रतिबोध करी तेना पिता जिनचन्द्रनी सम्मति लई संवत् 1302 मां दीक्षा आपी हती. त्यार बाद तेमने गुजरात देशना प्रह्लादनपुर (पालनपुर) नामना नगरमां महोत्सवपूर्वक संवत् 1323 मां सूरिपदवी अर्पण करी हती, जेओ श्रीविद्यानन्दसूरि ए नामथी प्रसिद्ध थया. श्रीदेवेन्द्रसूरिना जन्म, दीक्षा अने सूरिपदवी विगेरेना समयनो निश्चय नथी तो पण तेओश्री तेरमी शताब्दीना पश्चार्द्धमां अने चौदमी शताब्दीना प्रारंभमां विद्यमान हता ए निर्विवाद छे. 3 जन्मभूमि जाति आदि-श्रीदेवेन्द्रसूरिनो जन्म कया देशमां अने कयी जातिमा थयो हतो ए विगेरेमाटेना उल्लेखो के प्रमाण आज सुधीमां उपलब्ध थयां नथी. गुर्वावलीमां तेओश्रीनुं जे जीवनवृत्तान्त छे ते घणुं संक्षिप्त अने अपूर्ण छे. एमां मात्र सूरिपद ग्रहण कर्या पछीनी केटलीएक बीनाओनुं ज वर्णन करेलुं छे नहि के संपूर्ण. तेम ज तेओश्रीनुं जीवनवृत्तांत ज्या ज्यां आवे छे ए बधुंये अधुरं ज देखाय छे. एटले तेओश्रीना जन्मस्थान, जाति, माता पिता आदि माटे आपणे कशुं ज कही शकता नथी. मात्र गुर्वावली विगेरेना आधारे एटलुं जोई शकाय छे के-तेओश्रीनो विहार मोटे भागे माळवा अने गुजरातमां ज थयो छे. आ उपरथी कदाच संभावना करी शकाय के-तेओश्रीनो जन्म गुजरात के माळवा आ बे देशोमांथी कोई पण एक देशमां थयो होय. आथी आगळ . वधी जन्म, जाति, माता पिता विगेरे माटे कशुं ज कही शकाय तेम नथी. 4 विद्वत्ता-श्रीमान् देवेन्द्रसूरिना प्राकृत अने संस्कृत भाषाना ग्रंथो जोतां तेओश्री एक असाधारण प्रतिभाशाळी अने जैनसिद्धान्तना तेम ज दर्शनशास्त्रना पारंगत विद्वान पत्र 11 श्लोक 107 जुओ. 2 पत्र-१२ श्लोक-१२४-१२५ जुओ. 3 गुर्वावली पत्र-१५सोक 153 थी 156 जुओ. 3 गुर्वावली पत्र-१६ श्लोक-१६४ जुओ. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 हता एमां सहज पण संदेह नथी. ए बाबतनी साक्षी तेओश्रीना निर्माण करेला ग्रंथो ज पूरी पाडे छे. तेओश्री अद्भुत व्याख्यानशक्ति धरावता होवाथी तेमना धर्मोपदेशने प्रति भासंपन्न वस्तुपाल जेवा मंत्रिओ अने अनेक ब्राह्मण पण्डितो घणा ज रसपूर्वक श्रवण करता हता ए बाबतनो उल्लेख गुर्वावलीमा स्पष्ट पणे मळे छे. - 5 चारित्र-श्रीमान् देवेन्द्रसूरि केवळ विद्वान ज हता एम नहि परन्तु तेओश्री उत्कृष्ट चारित्रधर्मनुं पालन करवामां पण अत्यंत प्रतिज्ञानिष्ठ हता. श्रीमान जगच्चन्द्रसूरिए अपूर्व पुरुषार्थ खेडी तथा असाधारण त्याग धारण करी जे क्रिया उद्धार को हतो एनो निर्वाह श्रीमान् देवेन्द्रसूरि अने श्री विजयचन्द्रसूरि ए बन्ने आचार्योए साथे मळी करवानो हतो; तेम छतां श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए एकलाए ज तत्कालीन शिथिलाचारी आचार्योना प्रभावनी असर पोता उपर कोई पण रीते न पडवा देतां श्रीजगञ्चन्द्राचार्यना करेला क्रियाउद्धारने बराबर रीते संभाळी राख्यो अने श्रीविजयचन्द्रसूरि विद्वान् होवा छतां शिथिलाचारी आचार्योना प्रभावमा दबाई जई शिथिल थइ गया. श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए लेमने समसा माटे पूरतो प्रयत्न कर्णे परलु ज्यारे तेओ कोई रीते समज्या नहीं त्यारे पोते शुद्धक्रियारुचि होवाथी एमनाथी जुदा थई गया. श्रीमान् देवेन्द्रसूरिनुं चित्त चारित्रधर्मथी एलुं तो संस्कारी हतुं के तेमने शुद्धक्रियामां परायण जोई अनेक संविग्नपाक्षिक अने आत्मार्थी मुमुक्षुओए ए महापुरुषनो आश्रय लीधो हतो. 6 गुरु-श्रीमान् देवेन्द्रसूरिना गुरु वृद्धगच्छीय (क्रियाउद्धार कर्या पछी बृहत् तपागच्छीय) श्रीमान् जगचन्द्रसूरि हता. जेमणे पोताना गच्छमां शिथिलता जोई चैत्रवालगच्छीय श्रीमान् देवभद्रउपाध्यायनी मददथी क्रियाउद्धारना कार्यनो आरंभ कर्यो हतो. आ कार्य माटे तेओश्रीए असाधारण त्यागवृत्ति अने आगमानुसारी शुद्धक्रियाने स्वीकार्या. शरुआतमा तेमणे छ विकृतिओनो त्याग करी जींदगी सुधी आंबेल तप करवानो नियम स्वीकार्यो अने पोताना शरीर प्रत्येना ममत्वनो सदंतर त्याग कर्यो. आ प्रमाणे अतिकदिन आचाम्ल (आंबेल ) तपनी तपस्या करतां बार वर्ष व्यतीत थया बाद तेमने “तपा" ए बिरुद मळ्युं हतुं अने त्यारथी वृद्धगच्छ ए नामने बदले “तपागच्छ” ए नाम प्रवत्यु अने तेओश्री तपगच्छना आद्य पुरुष तरीके प्रसिद्धि पाम्या. गच्छनी परावृत्ति प्रसंगे मंत्रीश्वर वस्तुपाल विगेरेए हार्दिक भक्तिपूर्वक आ महापुरुषनी सत्कार-सम्मानरूप पूजा करी हती. श्रीमान् जगचन्द्रसूरि मात्र तपस्वी ज हता एम नहीं परन्तु अप्रतिम प्रतिभाशाली असाधारण विद्वान् पण हता. जेओए मेदपाट (मेवाड) नी राज्यधानी आघाटमा बत्रीस दिगंबर वादिओनी साथे वाद को हतो. ए वादमां हीरानी जेम अभेद्य रहेवाथी चितोडनरेश तरफथी तेमने “हीरला जगचन्द्रसूरि" एq विरुद मल्युं हतुं. ए महापुरुषने उप्र तपश्चर्या, निर्मलबुद्धि, असाधारण विद्वत्ता अने विशुद्ध चारित्र ए ज अद्भुत विभूति 1 पत्र-१२ श्लोक-११५-११६ जुओ. 2 गुर्वा० पत्र-१२ श्लोक-१२२ यी आगळ एमनुं जीवन जुओ. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हता. अने एज विभूतिना प्रभावंथी ए महापुरुषस्थापित गच्छमां आज सुधी अनेकानेक प्रभावशाली आचार्यों अने श्रावको थई गया छे. 7 परिवार-श्रीमान् देवेन्द्रसूरिना परिवारनुं प्रमाण केटलुं हतुं एनो सत्तावार खुलासो कोई पण ठेकाणेथी मळी आवतो नथी. परन्तु परंपरानी रीति प्रमाणे ते कालमा तेओश्रीनी आज्ञामां विचरतो समग्र यतिसमुदाय एमनोज परिवार गणाय. गुर्वावलीनो उल्लेख जोता उपाध्याय श्रीहेमकलशगणि प्रमुख संविमपाक्षिक मुनिओ पण तेओश्रीना परिवारमा हता. वीरधवल अने भीमसिंह आ बन्ने भाइओने प्रतिबोधी पोताना शिष्यो कर्यानो उल्लेख पण गुर्वावलीमां मळे छे. तेमां प्रथम शिष्यनुं नाम श्रीविद्यानंदसूरि छे, जेओ जैन आगमना विद्वान् हता एटलं ज नहीं पण तेओश्रीए विद्यानंद नामनुं नवीन व्याकरण बनावेलुं हतुं ते जोतां तेओ साहित्यादि विविध विषथोमां पण निष्णात हता. तेओश्रीनुं व्याकरण कोई पण ठेकाणे मळी आवतुं नथी एटले अत्यारे तो ते नामशेष थई गया जेवं छे. श्रीमान् देवेन्द्रसूरिना बीजा शिष्य आचार्य श्रीधर्मघोपसूरि हता तेओश्री प्रतिभाशील, विद्वान् , विशुद्धचारित्री अने विशिष्ट प्रभावक पुरुष हता. तेमना रचेला संघाचारभाष्य यमकस्तुतिओ विगेरे अनेकानेक ग्रंथो विद्यमान छे. पोताना गुरु आचार्य श्रीमान् देवेन्द्रसूरिना रचेला स्वोपज्ञटीकायुक्त नव्य पंच कर्मग्रंथ आदि ग्रन्थोने तेओश्रीए शुद्ध कर्या छे ए उपरथी तेओश्रीनी विद्वत्तानो अने जैनागम विषयक तेमना विशाळ ज्ञाननो पूर्ण परिचय मळी रहे छे. तेओश्रीने एक वखत साप करड्यो हतो तेथी श्रावक वर्गमां असाधारण गभराट फेलायो. तेने उतारवा माटे श्रावकोनो आग्रह थवाथी तेओश्रीए श्रावको आगळ वनस्पतिनुं नाम जणावी सापर्नु झेर उतराव्यु ए अनिवार्य दशामां करावेल वनस्पतिकायना अतिअल्प आरंभने निमित्ते तेओश्रीए जीवन पर्यंत छ ए विकृतिओनो त्याग कर्यो ए उपरथी एमनी जीवनचर्या अने चारित्र केटलां उग्र हतां ए स्पष्ट रीते जणाई आवे छे. आ महापुरुष- सविस्तर वर्णन जोवा इच्छनारे श्रीमुनिसुंदरसूरि तथा उपाध्याय श्रीधर्मसागरगणिकृत गुर्वावलीओ अने जैनतत्त्वादर्श जोवां. 8 ग्रंथरचना-श्रीमान् देवेन्द्रसूरिए प्राकृत-संस्कृत भाषामां बनावेला जे ग्रंथो अत्यारे जोवामां आवे छे तेनी नामावली आ नीचे आपवामां आवे छे. 1 श्राद्धदिनकृत्यवृत्ति. 2 सटीक पांच नव्य कर्मग्रंथ. 3 सिद्धपश्चाशिकासूत्रवृत्ति. 4 धर्मरत्नप्रकरण वृहद्वृत्ति. 5 सुदर्शनाचरित्र. 6 चैत्यवन्दनादि भाष्यत्रय. 7 वन्दारुवृत्ति(वंदित्तासूत्रटीका). 8 सिरिउसहवद्धमाणप्रमुखस्तव. 9 सिद्धदण्डिका. 10 चत्तारि अह दस गाथाविवरण. उपरोक्त ग्रंथोमां 2-3-4-5-6-7-9 अंकोवाळा ग्रंथो जुदी जुदी संस्थाओ तरफथी छपाईने प्रसिद्धिमां आवी गया छे. आ सिवाय जैन ग्रंथावलीमां श्रीदेवेन्द्रसूरिना नामे Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 बीजा घणा ग्रंथो चढेला छे. परंतु ते जुदा जुदा गच्छोमां थयेल बीजा बीजा श्रीदेवेन्द्रसूरि नामना आचार्योए बनावेला छे. प्रतिओनो परिचय. प्रस्तुत विभागनुं संशोधन करवामां अमे पांच प्रतिओनो संग्रह कर्यो छे. ए प्रतिओनी अनुक्रमे क-ख-ग-ध-ङ एवी संज्ञा राखवामां आवी छे. तेमां कई प्रतिनी कई संज्ञा छे ? ते कोनी छे ? केवा प्रकारनी छे ? विगेरेनो परिचय वाचकोनी जाण खातर आ ठेकाणे कराववो ए सर्वथा उचित लेखाशे. __क अने ख संज्ञकपुस्तको-आ पुस्तको पाटण-संघवीना पाडाना ताडपत्रीय पुस्तकभंडारनां छे. ए भंडार अत्यारे शा. पन्नालाल छोटालाल पटवानी देखरेख नीचे छे. तेमां क-पुस्तक ताडपत्र उपर लखेलुं छे अने ते सटीक छ कर्मग्रंथोनुं छे तेनां पत्र 351 छे. पुस्तकनी लंबाई 35 // इंच अने पहोलाई 2 // इंचनी छे. पुस्तकनी दरेक पुंठीमां वधारेमां वधारे 6 पंक्तिओ अने ओछामा ओछी 4 पंक्तिओ छे. प्रतिनी स्थिति घणी सारी छे. ते प्रतिना अंतमां नीचे प्रमाणेनो उल्लेख छे___"इति श्रीमलयगिरिविरचिता सप्ततिटीका समाप्ता // 7 // ग्रंथानम्-३८८०॥॥ संवत् 1462 वर्षे माघशुदि 6 भौमे अद्येह श्रीपत्तने लिखितम् / / // शुभं भवतु // ऊकेशवंशसम्भूतः, प्रभूतसुकृतादरः। वीसीसाण्डउसीग्रामे, सुश्रेष्ठी महुणाभिधः // 1 // मोघीकृताघसङ्घाता, मोघीरप्रतिघोदया। नानापुण्यक्रियानिष्ठा, जाता तस्य सधर्मिणी // 2 // तयोः पत्री पवित्राशा, प्रशस्या गणसम्पदा / हार्दूरीकृता दोपैर्धर्मकर्मैककर्मठा // 3 // शुद्धसम्यक्त्वमाणिक्यालङ्कृतः सुकृतोद्यतः / एतस्या भागिनेयोऽभूदाकाकः श्रावकोत्तमः // 4 // श्रीजैनशासननभोङ्गणभास्कराणां श्रीमत्तपागणपयोधिसुधाकराणाम् / विश्वाद्भुतातिशयराशियुगोत्तमानां श्रीदेवसुन्दरगुरुप्रथिताभिधानाम् // 5 // पुण्योपदेशमथ पेशलसन्निवेशं तत्त्वप्रकाशविशदं विनिशम्य सम्यक् / / एतत्सुपुस्तकमलेखयदुत्तमाशा सा श्राविका विपुलबोधसमृद्धिहेतोः // 6 // बाणाङ्गवेदेन्दुमिते 1465 प्रवृत्ते, संवत्सरे विक्रमभूपतीये / श्रीपत्तनाह्वानपुरे वरेण्ये, श्रीज्ञानकोशे निहितं तयेदम् // 7 // यावद् व्योमारविन्दे कनकगिरिमहाकर्णिकाकीर्णमध्ये विस्तीर्णोदीर्णकाष्ठातुलदलकलिते सर्वदोजृम्भमाणे / पक्षद्वन्द्वावदातौ वरतरगतितः खेलतो राजहंसौ तावज्जीयादजस्रं कृतियतिभिरिदं पुस्तकं वाच्यमानम् // 8 // शुभं भवतु" - तावजाचार Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खसंज्ञक पुस्तक ताडपत्र उपर लखायेलुं छे अने ते सटीक पांच कर्मग्रंथतुं छे. तेनां पत्र 2 थी 306 छे. प्रति अंतमां कांइक त्रुटक छे. तेनी लंबाई 22 / इंच अने पहोलाई 2 / इंचनी छे. पुस्तकनी दरेक पुंठीमां वधारेमां वधारे 7 अने ओछामा ओछी 6 पंक्तिओ छे. प्रतिनो अंत्यभाग नहि होवाथी लेखनकाल आदिने लगती पुष्पिका विगेरे कांइ पण आ ठेकाणे आपी शकवू अशक्य छे. तो पण लिपि जोतां चौदमी शताब्दीना अंउमां आ प्रति लखायानो संभव छे. पुस्तकनी स्थिति साधारण छे. क-खसंज्ञक पुस्तकमां पंक्तिओ एक सरखी नहि होवाना कारणे पंक्तिना अक्षरोनी नोंध अहीं आपी नथी. गसंज्ञक पुस्तक-आ पुस्तक पाटणना रहेवासी शा. मलुकचंद दोलाचंद हस्तकनुं छे अने ते कागल उपर लखायेलुं छे. आ प्रतिमां सटीक छए कर्मग्रंथ छे. एनां पानां 282 छे. प्रतिनी लंबाई 10 // इंच अने पहोलाई 4 // इंचनी छे. आ प्रतिनी दरेक पुंठीमा 15 पंक्तिओ छे. पंक्तिदीठ ओछामा ओछा 50 अने वधारेमां वधारे 62 अक्षरो छे. आ प्रतिना अंतमां लेखन काल आदीनो कशोय उल्लेख नथी तेम छतां लिपि जोतां प्रति 17 मी शताब्दीना प्रारंभमां लखायानो संभव छे. पुस्तकनी स्थिति सारी छे. घसंज्ञक पुस्तक-आ पुस्तक पाटण फोफलीया वाडानी आगली शेरीना तपागच्छीय पुस्तकभंडारनुं छे. आ पुस्तकभंडार तेना ट्रस्टीओ पैकी हाल शा० मलुकचंद दोलाचंदनी देखरेख नीचे छे. प्रति कागल उपर त्रिपाठमां लखाएली छे अने तेमां सटीक छ कर्मग्रंथो छे. तेनां पत्र 119 छे. प्रतनी लंबाई 10 // इंच अने पहो. लाई 4 // इंचथी कांइक ओछी छे. आ प्रतिनी कोई पुठीमा 24 तो कोईमा 25-26 अने 27 एम ओछी वत्ती पंक्तिओ छे. पंक्तिदीठ कममां कम 63 अने अधिकमां अधिक 81 अक्षरो छे. प्रतिनी स्थिति घणी ज सारी छे. प्रतिना अंतमां नीचे प्रमाणे पुष्पिका छे. "संवत् 1606 वर्षे कार्तिकशुद 4 गुरौ दिने लिखितम् / / शुभं भवतु // " ङसंज्ञक पुस्तक-आ पुस्तक वडोदराना आत्मानन्द जैनज्ञानमन्दिरमा पूज्य प्रवर्तक श्रीमत्कान्तिविजयजी महाराजनो पुस्तकसंग्रह छे तेमांनुं छे. ए भंडार आत्मानन्द जैनज्ञानमन्दिरना सेक्रेटरी शा० जीवणलाल किशोरदास कापडीयानी देखरेख नीचे छे. आ प्रति कागल उपर लखायेली छे अने तेमां सटीक पांच कर्मग्रंथ छे. तेनां पत्र 154 छे. प्रतिनी लंबाई 13 इंचथी कांइक कम अने पहोलाई 5 / इंचनी छे. आ प्रतिनी प्रत्येक पुंठीमां 17 पंक्तिओ छे अने पंक्तिदीठ कोई पंक्तिमा कममां कम 64 अने अधिकमां अधिक 67 अक्षरो छे. आ प्रतिना अंतमा लेखनकाल विगेरेनो उल्लेख नथी. लिपि जोतां ए प्रति 17 भी शताब्दीमां लखायानो संभव छे. प्रतिनी स्थिति घणी सारी छे. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिओनी शुद्धाशुद्धिनो विचार--क-ख-ग-घ अने संज्ञक प्रतिओमां थोडे घणे अंशे अशुद्धिओ तो दरेकमा छे ज, तो पण परस्पर तारतम्यतानो विचार करतां बधीये प्रतिओमां क अने घ आ बे प्रतिओ सौ करतां सारामां सारी छे. बाकीनी खग अने ङ आ त्रण प्रतिओमां ख प्रति सारी छे अने ग ऊ आ बे प्रतिओमांथी ग प्रति सारी छे. अर्थात् एक बीजाथी उत्तरोत्तर अधिक अशुद्ध छे. __ आभार-आ विभागर्नु संपादन करती वखते उपरनी पांच प्रतिओनो उपयोग करवामां आव्यो छे. ए पांचे प्रतिओना जुदा जुदा मालिकोए प्रतिओ आपी अमारा संशोधनना कार्यमा जे सुगमता करी आपी छे ते बदल ए महाशयोना उपकारने कोई रोते पण भूली काय तेम नथी. बळी आ भागनुं संपादन करती वखते पं. सुखलालजीए हिंदी भाषामा करेला नवीन चार कर्मग्रंथना अनुवादनो अने तेनी प्रस्तावनानो कोई कोई ठेकाणे आश्रय लीधेलो होवाथी तेमनो पण उपकार मानुं छु. अने छेवटमां मारा विद्वान शिष्य मुनि श्रीपुण्यविजयजीए आ विभागना प्रत्येक फॉर्मनुं अंतिम प्रुफ तपासी आपी अमे संपादनने लगता बीजा कार्यने अंगे जोइती मदद आपी मारा कार्यने जे सरल करी आप्युं छे ते माटे तेओनो पण आ ठेकाणे उपकार मार्नु छु ए सर्वथा उचित लेखाशे. उपरोक पांचे प्रतिओना आधारे बहु ज सावधानता पूर्वक आ विभागनुं संशोधन कषु छे तो पण कोइक ठेकाणे दृष्टिदोष आदिना कारणे त्रुटि रहेवा पामी होय तो वाचक महाशयो सुधारी बांचे ए अंतिम प्रार्थना साथे विरसुं छु. . मुनि चतुरविजय. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामना प्रथमकर्मग्रन्थनी विषयसूची। F बाथा विषय कर्मग्रन्थोनुं संशोधन करती वखते संग्रह करेली प्रतोना सङ्केतो टीकाकारे टीकामां उद्धरेल शास्त्रीय प्रमाणोना स्थानदर्शक सद्देदो मुद्रित थया पछी जडी आवेल प्रमाणोना स्थानदर्शक सतो प्रमाण तरीके उद्धरेल प्रमाणपन्थोनी स्थानदर्शक सूची आभार प्रदर्शन प्रस्तावना कर्मग्रन्थोनी विषयानुक्रम सूची 1 मङ्गलाचरण, प्रन्थनो विषय अने संबन्ध आदिनुं कथन 'कर्म'शब्दनी व्युत्पत्ति जीवनुं लक्षण अने कर्मनी सिद्धि कर्म अने जीवनो अनादिसम्बन्ध जीवनी साथे कर्मनो अनादिसम्बन्ध होय तो वियोग केम सम्मवे? ए शक्कार्नु समाधान 2 सामान्य रीते कर्मना प्रकृति, स्थिति, रस अने प्रदेश ए चार प्रकारे अने तेनी मोदकना दृष्टान्त द्वारा समज कर्मना मूल अने उत्तर भेदोनी समुच्चय सङ्ख्या 3 कर्मनी मूलप्रकृतिनां नाम तथा ते दरेकना उत्तर भेदोनी सङ्ख्या . मूळकर्मप्रकृतिओने ज्ञानावरणीयादिक्रमथी राखवा, कारण अने उपयोगर्नु स्वरूप 4 ज्ञानना पांच प्रकार अने व्यञ्जनावग्रहना चार प्रकार पांच ज्ञान- सामान्य स्वरूप केवलज्ञानमा मतिज्ञान आदिना अभावनी चर्चा पांच ज्ञानने मतिज्ञानादिक्रमथी राखवानां कारणो श्रुतनिश्रित अने अश्रुतनिश्रित मतिज्ञानतुं स्वरूप अश्रुतनिश्रित मतिज्ञानना औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा अने पारिणामिकी बुद्धिने आश्री चार प्रकारो अवग्रहना भेदो व्यञ्जनावग्रहना चार भेदो व्यञ्जनावग्रहमा मन अने चक्षुनुं वर्जन शामाटे / शङ्कानुं समाधान व्यञ्जनावप्रहनो काल ossvom or on arm mo mao to s wwg voor or our . . Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा विषय 5 मतिज्ञानना अर्थावग्रह आदि 24 भेदो अने श्रुतज्ञानना उत्तरभेदोनी सङ्ख्या 12 मतिज्ञानना श्रुतनिश्रित 12 भेदो तथा 336 अने 340 भेदोनुं स्वरूप 13 6 श्रुतज्ञानना अक्षरश्रुत आदि 14 भेदो अने तेनुं सविशेष स्वरूप अढार लिपिनां नाम 14 दीर्घकालीकी, हेतुवादोपदेशिकी अने दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञाओनुं स्वरूप 15 मिथ्यादृष्टिने सम्यक्श्रुतना अभावनी चर्चा आचाराङ्ग आदि 11 अङ्गनां नाम अने पदनी सङ्ख्या दृष्टिवादना पांच भेदो चौदपूर्वनां नाम अने प्रत्येकनी पदसङ्ख्या 7 श्रुतज्ञानना पर्याय आदि 20 भेदो अने तेनुं स्वरूप 8 अवधि, मनःपर्यव अने केवल ज्ञानना भेदो अवधिज्ञानना आनुगामिक आदि छ भेदोनुं सप्रमाण वर्णन हीयमान अने प्रतिपाति अवधिज्ञानमा फरक अवधिज्ञाननी द्रव्यादि चार प्रकारे प्ररूपणा ऋजुमति अने विपुलमति मनःपर्यवज्ञान- स्वरूप मनःपर्यवनी द्रव्यादिभेदोथी प्ररूपणा छप्पन अन्तरद्वीपोनुं सविशेष वर्णन छप्पन अन्तरद्वीपना नामो . केवलज्ञानतुं स्वरूप 9 दृष्टान्तपूर्वक पांच ज्ञानावरण अने नव दर्शनावरणर्नु स्वरूप 10 चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन अने केवलदर्शनना आवरण- स्वरूप 27 11-12 निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला अने स्त्यानधि निद्रानुं स्वरूप 12 वेदनीयकर्मना सातावेदनीय अने असातावेदनीय भेदोनुं स्वरूप 13 चारगतिमां साता असातानो विभाग अने मोहनीयकर्मनी व्याख्या तथा मोहनीयकर्मना बे भेद 14 दर्शनमोहनीयना त्रण भेद सम्यक्त्वने दर्शनमोहनीय केम कही शकाय ? ए शङ्कानुं समाधान 15 तत्त्वोनी सङ्ख्या अने सम्यक्त्वमोहनीयनी व्याख्या नवतत्त्वस्वरूपनिरूपण गाथाओ क्षायिकादिसम्यक्त्वनुं सामान्य स्वरूप 16 मिश्रमोहनीय अने मिथ्यात्वमोहनीयतुं स्वरूप Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा विषय 17 चारित्रमोहनीयकर्मना बे भेदो अने तेना उत्तरभेदो कषायना सोळ भेदोनुं स्वरूप 18 चार कषायनी स्थिति, गति अने तेनी विद्यमानतामा सम्यस्त्व आदिना अभावनुं वर्णन 19 जलरेखा आदि दृष्टान्तद्वारा चार प्रकारना क्रोधनुं अने तिनिशलता आदि दृष्टान्तद्वारा चार प्रकारना मानतुं वर्णन 20 अवलेहिका आदि दृष्टान्तद्वारा चार प्रकारनी मायानुं अने हरिद्रादि दृष्टान्तद्वारा चार प्रकारना लोभनुं वर्णन 21 नोकषायमोहनीयकर्मना हास्यादि छ भेदोन स्वरूप भयमोहनीयना सात भेदोनां नाम 22 नोकषायमोहनीयकर्मना स्त्रीवेद आदि त्रण वेदोनुं स्वरूप 23 चारप्रकारना आयुष्कर्मनुं स्वरूप अने नामकर्मना 42, 93, 103 अने 67 उत्तरभेदोनी सङ्ख्या 24-27 नामकर्मनी बेतालीस प्रकृतियो चौद पिण्डप्रकृति, आठ प्रत्येकप्रकृति, सदशक अने स्थावरदशकनुं स्वरूप 39-41 28 सचतुष्क स्थावरषटू आदि प्रकृतिबोधक शास्त्रीय संज्ञाओ 29 चौद पिण्डप्रकृतिना 65 उत्तरभेदो 30 नामकर्मनी 93, 103 अने 67 प्रकृतियोनुं निरूपण 31 बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्तामा केटली केटली प्रकृतियो होय? तेनी सङ्ख्या 32 पिण्डप्रकृतियोनुं विशेष व्याख्यान गतिनामकर्मना चार भेदोनुं स्वरूप जातिनामकर्मना पांच भेदोनुं स्वरूप जातिनामकर्मने मानवानुं प्रयोजन तनुनामकर्मना पांच भेदोनुं स्वरूप कार्मणशरीरसहित जीव गत्यंतरमा जाय छे तो ते जीव जतो आवतो केम देखातो नथी ? ए शङ्कानुं समाधान 33 अङ्ग-उपाङ्गना भेदो अने अङ्गोपाङ्गनामकर्मना त्रण भेदोनुं स्वरूप 46 34 बन्धननामकर्मना औदारिकबन्धन आदि पांच भेदोनुं दृष्टान्तपूर्वक स्वरूप 46 35 सनातननामकर्मना औदारिकसङ्घातन आदि पांच भेदोनुं दृष्टान्तपूर्वक स्वरूप 46 45 . Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 - गाथा विषय . 36 बन्धननामकर्मना औदारिकौदारिकबन्धन आदि पंदर मेदोनें खरूप .. 47 पांच शरीरना द्विकादिसंयोगोनी अपेक्षाए बन्धन छनीस थाय तो पंदर पंधन केम कहां 1 ए शङ्कानुं समाधान बन्धननी पेठे पंदर सङ्घातन केम न थाय? ए शङ्कानुं समाधान 37-38 संहनननामकर्मना वर्षभनाराच आदि छ भेदोनुं वर्णन 39 संस्थाननामकर्मना समचतुरस्र आदि छ भेदोनुं स्वरूप अने . वर्णनामकर्मना वर्णादि पांच भेदोनुं स्वरूप 40 गन्ध, रस अने स्पर्शनामकर्मना अनुक्रमे वे पांच अने आट भेदो अने तेनुं स्वरूप .41 वर्णादि चारना वीस उत्तरभेदो पैकी शुभ-अशुभ प्रकृतियोनो विभाग। 42 आनुपूर्वीचतुष्क, नरकद्विकादि शास्त्रीय संज्ञाओ अने विहायोगतिनामकर्मना भेदोनुं स्वरूप 43 आठ प्रत्येकप्रकृतियो पैकी पराघातनामकर्म अने उच्छासनाम कर्मनुं स्वरूप 44 आतपनामकर्मनुं स्वरूप 45 उझ्योतनामकर्मनुं स्वरूप 46 अगुरुलघु अने तीर्थकरनामकर्मनुं स्वरूप . 47 निर्माणनामकर्म अने उपघातनामकर्मन स्वरूप 48 सदशक पैकी त्रसनाम, बादरनाम अने पर्याप्तनामकर्मनुं खरूप पर्याप्तिशब्दनी व्याख्या, पर्याप्तिनां नाम अने एना प्रत्येक भेदतुं स्वरूप लब्धिपर्याप्त अने करणपर्याप्तनुं स्वरूप शरीरपर्याप्तिथी ज शरीरनी उत्पत्ति बचे तो शरीरनामकर्मनुं शुं प्रयोजन छे ? ए शङ्कानुं निवारण उच्छवासनामकर्मथी ज श्वास लेवानुं काम थई शके तो उच्छ्रासपर्याप्ति निरर्थक केम नहि ? ए शानुं समाधान 49 प्रत्येकनाम, स्थिरनाम, शुभनाम अने सुभगनामकर्मनुं स्वरूप 50 सुखरनाम, आदेयनाम अने यश कीर्तिनामकर्मनुं स्वरूप तथा प्रस दशकथी स्थावरदशकना विपरीतपणानो निर्देश अने सावरदशक खरूप 57 लन्धिअपर्याप्त अने करणअपर्याप्तनुं खरूप 3 56 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाया विषय 51 गोत्रकर्मना उच्चगोत्र अने नीचगोत्र ए के भेदोमुं दधान्तद्वारा स्वरूप __अने अन्तरायकर्मना दानान्तराय आदि पांच भेदोनुं स्वरूप 52 अन्तरायकर्मनुं दृष्टान्तद्वारा स्वरूप 53 ज्ञानावरण अने दर्शनावरणकर्मना बन्धहेतुओ 54 सातावेदनीय अने असातावेदनीयकर्मना बन्धनां कारणो 55 दर्शनमोहनीयकर्मना बन्धनां कारणो 56 कषाय अने नोकषायरूप से प्रकारना चारित्रमोहनीय कर्म अने नरकायुकर्मना बन्धहेतुओ 57 तिर्यगायुकर्म अने मनुष्यायुकर्मना बन्धनां कारणो 58 देवायु अने शुभ-अशुभनामकर्मना बन्धहेतुओ 59 उच्च-नीचगोत्रकर्मना बन्धहेतुओ 60 अन्तरायकर्मना बन्धहेतुओ तथा ग्रन्थनो उपसंहार प्रन्थकारनी प्रशस्ति. कर्मस्तवनामक बीजा कर्मग्रन्थनी विषयसूची / 000000000 -- गाथा पत्र S 68 विषय 1 मङ्गलाचरण आदि बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्तार्नु लक्षण 2 चौद गुणस्थाननां नामो 'गुणस्थान' शब्दनी व्याख्या मिथ्यादृष्टिगुणस्थान- स्वरूप मिथ्यादृष्टिने गुणस्थाननो संभव केम होइ शके 1 ए शङ्का समापन जो गुणस्थान होय तो तेने मिध्यादृष्टि केम कही : शकाय? ए शानुं समाधान सास्वादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थाननुं अने प्रन्थिभेदतुं स्वरूप मिश्रगुणस्थाननुं अने त्रणपुञ्जनुं स्वरूप अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाननु स्वरूप, तेने लमा आठ भको अने ए भलोनी स्थापना देशस्तिगुणस्थान- स्वरूप 68 *7. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 'गाथा विषय प्रमत्तगुणस्थाननुं स्वरूप अप्रमत्तगुणस्थाननु स्वरूप अपूर्वगुणस्थाननुं स्वरूप अने एना भेदोनुं कथन अपूर्वगुणस्थानना त्रण कालनी अपेक्षाये असङ्ख्यात. लोकाकाशप्रदेशप्रमाण अध्यवसायो अपूर्वगुणस्थानना त्रणकालनी अपेक्षाए अनन्त अध्यवसाय केम न थाय ? ए शङ्कानुं निवारण अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थान, स्वरूप अने तेना बे भेदो सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान, स्वरूप उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान- स्वरूप उपशमश्रेणिर्नु स्वरूप अने तेनी स्थापना एक जीव एकभवमा उपशमश्रेणि केटली वार प्राप्त करे ? तेनुं अने तद्विषयक मतान्तरतुं कथन क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थगुणस्थान- स्वरूप क्षपकश्रेणिर्नु स्वरूप क्षपकश्रेणिनी स्थापना सयोगिकेवलिगुणस्थान- स्वरूप अयोगिकेवलिगुणस्थाननुं अने अयोगित्व केवी रीते थाय ? तेनुं स्वरूप 75 केवलिसमुद्धात कोण करे? अने कोण न करे ? तेनुं स्वरूप योगनिरोध अने शैलेशीकरण- संक्षिप्त स्वरूप बन्धाधिकार। 3 बन्धनुं लक्षण तथा ओघथी 120 अने मिध्यादृष्टिगुणस्थानमा 117 प्रकृतिना बन्धन स्वरूप 4-5 सास्वादनगुणस्थानमा 101 अने मिश्रगुणस्थानमा 74 प्रकृतिना बन्धन स्वरूप 6-7 अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमा 77 अने देशविरतिगुण. . स्थानमा 67 प्रकृतिना बन्धनुं स्वरूप 7-8 प्रमत्तगुणस्थानमा 63 अने अप्रमत्तगुणस्थानमा 59-58 प्रकृतिना बन्धनुं स्वरूप 9-10 अपूर्वकरणगुणस्थानना सात भागमाथी पहेला भागमा 58 अने ते पछीना पांच भागमा 56-56 अने अन्त्य भागमा 26 प्रकृतिना बन्धनुं स्वरूप 82 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. 29 মাখা विषय 10-11 अनिवृत्तिबादरना पांच भागमां क्रमथी 22, 21, 20, 19 अने 18 प्रकृतिना बन्धनुं स्वरूप 11 सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानमा 17 प्रकृतिना बन्धनुं स्वरूप 12 उपशान्तमोह आदि त्रण गुणस्थानमां 1-1-1 प्रकृतिना बन्धनुं अने अयोगिगुणस्थानमा बन्धना अभावतुं स्वरूप बन्धाधिकारनी समाप्ति उदयाधिकार / 13 उदय अने उदीरणानुं लक्षण तथा ओपथी 122 अने मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमा 117 प्रकृतिना उदयतुं वर्णन 14 सासादनगुणस्थानमां 111 प्रकृतिना उदयनुं वर्णन 14-15 मिश्रगुणस्थानमा 100 प्रकृतिना उदयनुं वर्णन 84-85 15 अविरतगुणस्थानमां 104 प्रकृतिना उदयतुं वर्णन 85-86 15-16 देशविरतिगुणस्थानमा 87 प्रकृतिना उदयतुं वर्णन 85-86 16-17 प्रमत्तगुणस्थानमा 81 प्रकृतिना उदयतुं वर्णन 17 अप्रमत्तगुणस्थानमा 76 प्रकृतिना उदयनुं वर्णन 18 अपूर्वकरणगुणस्थानमा 72 प्रकृतिना उदयनुं वर्णन 18 अनिवृत्तिगुणस्थानमा 66 प्रकृतिना उदयनुं वर्णन 18-19 सूक्ष्मसम्पराय अने उपशान्तमोहगुणस्थानमा अनुक्रमथी 60-59 प्रकृतिना उदयतुं वर्णन 19-20 क्षीणमोहगुणस्थानमा 57-55 प्रकृतिना उदयनुं वर्णन . 20-21 सयोगिकेवलिगुणस्थानमा 42 प्रकृतिना उदयतुं वर्णन .88-89 21-23 अयोगिकेवलिगुणस्थानमा 12 प्रकृतिना उदयनुं वर्णन उदयाधिकारनी समाप्ति. उदीरणाधिकार / . 13-24 ओघमा 120 अने मिथ्यादृष्टि आदि छ गुणस्थानमा क्रमथी 117, 111, 100, 104, 87 अने 81 प्रकृतिनी उदीरणार्नु कथन 24 अप्रमत्तादि सात गुणस्थानोमां क्रमथी 73, 69, 63, 57, 56, 54 अने 39 प्रकृतिनी उदीरणा 88 90 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा विषय अयोगिकेवलिगुणस्थानमा योगनो अभाव होवाथी उदीरजानो अभाव 91 उदीरणाधिकारनी समाप्ति. सत्ताधिकार। 25 सत्तानु लक्षण तथा प्रथमथी अगीयार गुणस्थानपर्यन्त 148 प्रकृतिनी सत्ता, निरूपण 25 सासादन अने मिश्रगुणस्थानमा 147 प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण 91 26 अनन्तानुबंधिचतुष्कनुं जेणे विसंयोजन कर्यु होय, देव-मनुष्यना आयुनो बन्ध को होय अने उपशमश्रेणि उपर आरूढ थयो होय तेनी अपेक्षाए अपूर्वकरण आदि चार गुणस्थानमा 142 प्रकृतिनी सत्तानुं वर्णन 92 26 अविरतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानमा अनन्तानुबन्धि आदिसप्तक क्षयनी अपेक्षाए 141 प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण 92. 27 अविरतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानमां नरक, तियेच अने सुरायुना क्षयनी अपेक्षाये 145 प्रकृतिनी सत्तार्नु निरूपण 27 अनन्तानुबन्धि 4 मिथ्यात्व 5 मिश्र 6 अने सम्यक्त्व 7 आ सात प्रकृतिना क्षयनी अपेक्षाए अविरतसम्यग्दृष्टिथी लईने अनिवृत्तिबादर गुणस्थानना प्रथम भाग सुधी 138 प्रकृतिनी सत्ता, निरूपण 28-29 क्षपकश्रेणिने आश्री अनिवृत्तिबादरगुणस्थानना बीजा भागथी नवमा भाग सुधी क्रमथी 122, 114, 113, 112, . 106, 105, 104 अने 103 प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण 93-91 30 सूक्ष्मसम्परायमां 102 अने क्षीणमोहमा 101 अने 99 प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण 30-31 सयोगिकेवलिगुणस्थानमा 85 प्रकृतिनी सत्ता निरूपण 31-33 अयोगिकेवलिगुणस्थानमा 13 प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण 94-95 - 34 अयोगिकेवलिगुणस्थानमा मतान्तरे 19 प्रकृतिनी सत्तानुं निरूपण 34 महावीरस्वामिना दीक्षाग्रहणादिनुं संक्षिप्त वर्णन महावीरस्वामिने नमस्कार करवानो ओताने उपदेश आवि वर्णन सत्ताधिकारनी समाप्ति साथे ग्रन्थनी समाप्ति . . . प्रन्थकारनी प्रशस्ति 6 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धखामित्वनामका त्रीजा कर्मग्रन्थनी विषयसूची। गाथा विषय 1 मङ्गल अने विषयादिकनु कथन बन्धखामित्वनुं लक्षण चौद मार्गणास्थान अने तेना उत्तरभेदोनी सङ्ख्या 2-3 बन्धस्वामित्वमा उपयोगी पंचावन प्रकृतियोनो संग्रह 4-5 सामान्यथी नरकगतिमां तथा रत्नप्रभा आदि त्रण नरकना नारकोना ओपथी 101 अने आयनां चार गुणस्थानमा क्रमथी 100, 96, 70 अने 72 प्रकृतिना बन्धस्वामित्व, कथन 5 पहप्रभा आदि त्रण नरकना नारकोना ओपथी 100 अने पहेलां चार गुणस्थानमा क्रमथी 100, 96, 70 अने 71 प्रकृतिना बन्धखामित्वनुं कथन 6-7 सातमी नारकीमा ओघथी 99, अने आदिना चार गुणस्थानमा ___क्रमथी 96, 91, 70 अने 70 प्रकृतिना बन्धस्वामित्व, कथन / 7-8 तिर्यग्गतिमां पर्याप्ततिर्यञ्चोना ओपथी 117 अने आविना . पांच गुणस्थानमा क्रमथी 117, 101, 69, 70 अने 66 प्रकृतिना बन्धखामित्वनुं कथन 9 मनुष्यगतिमा पर्याप्तमनुष्योना ओपथी 120 अने आदिथी तेर गुणस्थानमा क्रमथी 117, 101, 69, 71, 67, 63, 5958, 58-56-56-26, 22-21-20-19-18, 17, 1, 1, अने 1 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वर्नु कथन 9 लब्धिअपर्याप्त तिर्यन अने मनुष्योना ओपथी तथा मिध्या दृष्टिमा 109 प्रकृतिना बन्धखामित्वनुं कथन 10 सामान्यथी देवगतिमां तथा आदिना बे देवलोकमां देवोना ओपथी 104 अने आदिना चार गुणस्थानमा क्रमयी 103, 96, 70, अने 72 प्रकृतिना बन्धखामित्वनुं कथन 1. ज्योतिष्क, भवनपति, व्यन्तर अने तेनी देवीयोना ओपथी 103 तया आदिना चार गुणस्थानमा क्रमयी 103, 96, 7. अने 71 प्रकृतिना बन्धखामित्व, कथन Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 गाथा 104 विषय पत्र 11 सनत्कुमार आदि छ कल्पना देवोना ओपथी 101 अने आदिना चार गुणस्थानमा क्रमथी 100, 96, 70 अने 72 प्रकृतिना बन्धवामित्वनुं कथन 103 11 आनतादि चार कल्पना तथा नव प्रैवेयकना देवोना ओपथी 97, अने आदिना चार गुणस्थानमा 96, 92, 70, अने 72 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन 103 11 पांच अनुत्तरना देवोना ओघथी अने अविरतसम्यग्दृष्टि * गुणस्थानमा 72 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन 11-12 एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पृथ्वी, जल अने वनस्पतिना ओपथी 109 तथा आदिना बे गुणस्थानमा क्रमथी 109, 96 अने मतान्तरे 94 प्रकृतिना बन्धखामित्वकथन 104 13 पश्चेन्द्रिय तथा त्रसकायिकोना ओघथी 120 अने प्रथमथी तेर गुणस्थानमा क्रमथी 117, 101, 74, 77, 67, 63, 59-58, 58-56-26, 22-21-20-1918, 17, 1, 1 अने 1 प्रकृतिना बन्धस्वामित्व- कथन 104 13 अनिकाय अने वायुकायिकोना ओघथी तथा मिध्यादृष्टि गुणस्थानमा 105 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वन कथन - 13 योगमार्गणामां मनयोग 4 तथा वचयोग 4 मां ओपथी अने आदिथी तेर गुणस्थानमा पञ्चेन्द्रिय प्रमाणे प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन . 13 सत्यादिमनोयोग 4 अने वचनयोग 4 नुं स्वरूप 13 औदारिककाययोगमा ओघथी अने प्रथमथी तेर गुणस्थानमा पर्याप्तमनुष्यनी पेठे प्रकृतिना बन्धस्वामित्व- कथन 13-15 औदारिकमिश्रकाययोगमा ओघथी 114 अने पहेला, वीजा, चोथा अने तेरमा गुणस्थानमा क्रमथी 109, 94, 75 अने 1 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन 15 कार्मणकाययोगमा ओघथी 112 अने पहेला, बीजा, चोथा अने तेरमा गुणस्थानमा क्रमथी 107, 94, 75 अने 1 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन 15 आहारककाययोग अने आहारकमिश्रकाययोगमा ओपथी अने छहा गुणस्थानमा 63 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन .. 105 105 106 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय 16 वैक्रियकाययोगा ओपथी अने प्रथमनां चार गुणस्थानमा सा मान्य देवगतिप्रमाणे प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन 16 क्रियमिश्रकाययोगमा ओपथी 102 अने पहेला, बीजा अने: - ... चोथा गुणस्थानमा क्रमथी 101, 94 अने 71 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वतुं कथन 16 त्रीवेद आदि त्रण वेदमा ओपथी. 120 अने आदिनां नव गुणस्थानमा क्रमथी 117, 101, 74, 77, 67, 63, 59-58, 58-56-26 अने 22 प्रकृतिना बन्धस्वामि स्वर्नु कथन . 16 कषायमार्गणामां अनन्तानुबन्धिचतुष्कमां ओपथी 117 अने पहेला, बीजा गुणस्थानमा 117 अने 101 प्रकृतिना बन्ध खामित्वनुं कथन 16 अप्रत्याख्यानावरणचतुष्कमा ओपथी 118 अने आदिनां चार गुणस्थानमा क्रमथी 117, 101, 74 अने 77 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वन कथन 16 प्रत्याख्यानावरणचतुष्कमा ओघथी 118 अने आदिना पांच गुणस्थानमा क्रमथी 117, 101,74, 77 अने 67 प्रक विना बन्धवामित्वनुं कथन 17 संज्वलनक्रोध, मान अने मायामां ओपथी 120 अने आदिनां.. नव गुणस्थानमा क्रमथी 117, 101, 74, 77, 67, 63, 59-58, 58-56-26, 22-21-20-19 अने 18 प्रकृतिना बन्धस्वामित्व कथन 17 संज्वलनलोभमां ओपथी 120 अने आदिनां दश गुणस्थानमा क्रमथी 117, 101, 74, 77, 67, 63, 59-58, 58-56-26, 22-21-20-19-18 अने 17 प्रकृतिना बन्धस्वामित्व, कथन 1. संयममार्गणामां असंयतना ओपथी 118 अने आदिना चार गुणस्थानमां क्रमथी 117, 101, 74 अने 77 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वन कथन 1. ज्ञानमार्गणामां मतिअज्ञान आदि त्रण अज्ञानमां ओपथी 117 अने आदिनां त्रण गुणस्थानमा क्रमथी 117, 101 अने 74 . प्रकृतिना बन्धवामित्व- कथन Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. गाथा विषय 17 दर्शनमार्गणामां पक्षु भने अचक्षुदर्शनना मोपथी 120 तवा आदिनां बार गुणस्थानमा क्रमथी 117, 101, 74, 77, 67, 63, 59, 58, 22, 17, 1 अने 1 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वर्नु कथन 17 यथाख्यातचारित्रमा ओपथी 1 अने उपशान्तमोह आदि चार गुणस्थानमा क्रमथी 1, 1, 1 अने 0 प्रकृतिना बन्धस्वामि त्वन कथन 18 मनःपर्यवज्ञानमां ओधथी 65 अने प्रमत्तादि सात गुणस्था- . नमा क्रमथी 63, 59, 58, 22, 17, 1 अने 1 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वर्नु कथन 18 सामायिक अने छेदोपस्थापनीयमां ओपथी 65 अने प्रमत्तादि - चार गुणस्थानमा क्रमथी 63, 59, 58 अने 22 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वन कथन 18 परिहारविशुद्धिमां ओपथी 65 अने छट्ठा तथा सातमा गुण स्थानमा 63 अने 59, 58 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वर्नु कथन 18 केवलज्ञान अने केवलदर्शनमा ओपथी तथा तेरमा गुणस्थानमा 1 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वर्नु कथन 18 मति, श्रुत, अवधिज्ञान अने अवधिदर्शनमा ओपथी 79 अने अविरतसम्यग्दृष्टि आदि नव गुणस्थाना क्रमथी 75, 67, 63, 59, 58, 22, 17, 1 अने 1 प्रकृतिना बन्ध स्वामित्वनुं कथन - 19 औपशमिकसम्यक्त्वमा पोषथी 75 अने अविरतसम्यग्दृष्टि आदि आठ गुणस्थानमा क्रमथी 75, 66, 62, 58, 58, 12, 17 अने 1 प्रकृतिना बन्धखामित्वर्नु कथन 19 क्षायीपशमिकसम्यक्त्वा ओपथी 79 अने अविरतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानमा क्रमथी 77, 67, 63 अने 59 58 प्रकृतिना बन्धखामित्वन कथन . 19 क्षायिकसम्यक्त्वमा ओपथी 79 अने अविरतसम्यग्दृष्टि बादि 11 गुणस्थानमा क्रमथी 77, 67, 63, 59-58, 58, 22, 17, 1, 1, 1 अने * प्रकृतिना बन्धस्वामित्वकथन 19 मिध्यादृष्टि, सासादन, मिश्र, देशविरति अने सूक्ष्मसम्पराय Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा विषय गुणस्थानमां ओपथी अने व स्व गुणस्थानमा क्रमथी 117, 101, 74, 67, अने 17 प्रकृतिना बन्धवामित्वनुं कथन .109 19 आहारकमार्गणामां आहारकनुं ओपथी 120 अने प्रथमथी तेर गुणस्थानमा क्रमथी 117,101, 74, 77, 67, 63, 59, 58,22, 17, 1, 1 अने 1 प्रकृतिना बन्धवामित्वनुं कथन ... 109 20 औपशमिकसम्यक्त्वमां कांइक विशेष कथन 109 20 औपशमिक अने क्षायोपशमिकसम्यक्त्वमा फरक 109 21 कृष्ण, नील अने कापोत लेश्याम ओपथी 118 अने भादिना चार गुणस्थानमा क्रमथी 117, 101, 74 अने 77 प्रकृ. तिना बन्धस्वामित्वन कथन 22 तेजोलेश्यामां ओपथी 111 अने आदिना सात गुणस्थानमा क्रमथी 108, 101, 74, 77, 67, 63, अने 59 प्रकृ. तिना बन्धखामित्व- कथन 22 शुक्ललेश्यामां ओपथी 104 अने आदिथी तेर गुणस्थानमा क्रमथी 101, 97, 74, 77, 67, 63, 59, 58, 22, 17, 1, 1 अने 1 प्रकृतिना बन्धवामित्वनुं कथन 22 पनलेश्यामां ओपथी 108 अने आदिथी सात गुणस्थानमा क्रमथी 105, 101, 74, 77, 67, 63 अने 59 प्रक तिना बन्धवामित्वनुं कथन .. . 23 भव्य अने संज्ञिमा ओघथी 120 अने आदिथी तेर गुणस्था नमा क्रमथी 117, 101, 74, 77, 67, 63, 59,58, . . 22, 17, 1,1 अने 1 प्रकृतिना बन्धवामित्वन कथन 23 अभव्यमा ओघथी अने प्रथम गुणस्थानमा 117 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वनुं कथन 23 असंझिमा ओघथी 117 अने पहेला तथा बीजा गुणस्थानमा क्रमथी 117, अने 101 प्रकृतिना बन्धवामित्वर्नु कथन ... 23 अनाहारकमां ओपथी 112 अने पहेला, बीजा, चोथा अने तेरमा गुणस्थानमा क्रमथी 107, 94, 95 अने 1 प्रकृतिना बन्धस्वामित्वर्नु कथन 110 24 लेश्यामां गुणस्थाननी सख्या 24 मतान्तरथी कृष्णादि त्रय लेश्यामा छ गुणस्थामनुं कयन 111 24 मन्थनी समाप्ति 110 111 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामक चोथा कर्मग्रन्थनी विषयसूची। गाथा 112 118 विषय 1 मङ्गल अने अभिधेयादि 1 द्रव्यादि चार प्रकारथी नमस्कार 1 जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, उपयोग, योग, लेश्या, बन्ध, अल्पबहुत्व, भाव अने सयादि दश मुख्य विषयोनी व्याख्या तेमां लेश्यानुं सविशेषनिरूपण 1 दश विषयोने जीवस्थानादि क्रमथी स्थापवामां कारण 1 चौद जीवस्थानमा गुणस्थानादि आठ, चौद मार्गणास्थानमा जीवावि छ अने चौदगुणस्थानमां जीवादि दश पदार्थोनुं निरूपण प्रथम जीवस्थानअधिकार. 2 चौद जीवस्थाननुं स्वरूप 2 पर्याप्तिनां छ नाम अने तेनुं स्वरूप 2 लब्धि अने करण अपर्याप्तनुं स्वरूप 3 चौद जीवस्थानमा गुणस्थान 3 चौद गुणस्थाननां नामो अने तेना साधारण अर्थनुं निरूपण करती गाथाओ ... 3 कया कया जीवस्थानमां कयां कयां गुणस्थान होय? तेनुं निरूपण 3 सयोगिअयोगिरूप वे गुणस्थानो संझिने केवी रीते होय? ए शङ्कानुं समाधान . 3 योगनां पन्दर नाम 3 औदारिकादि सात योगोनो क्या क्या सम्भव होय ? तेनुं वर्णन 120 4-5 चौद जीवस्थान पैकी कया कया जीवस्थानमां कया कया योग होय ? तेनुं सविस्तर वर्णन . 120-121 5-6 उपयोगनां नामो अने चौद जीवस्थान पैकी कया कया जीव.. स्थानमा कया कया उपयोगो होय ? तेनुं वर्णन 121-122 6 एकेन्द्रियने श्रुतज्ञान केम घटे ? एनुं निरूपण . चौद जीवस्थान पैकी कया कया जीवस्थानमां कई कई लेश्या होय ? तेनुं स्वरूप 11 : '119 120 123 124 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 س 0... س 0 س गाथा विषय 7-8 चौद जीवस्थान पैकी कया कया जीवस्थानमा कर्मनी मूल आठ प्रकृतियोमाथी केटली केटली प्रकृतिनो बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता होय ? तेनुं स्वरूप / 124-125 द्वितीय मार्गणास्थानअधिकार 9 चौद मार्गणानां नाम अने तेनुं स्वरूप 127 10 गति, इन्द्रिय, काय अने योग आ चार मार्गणाना उत्तर भेदोनी .. सख्या अने तेनी व्याख्या 128 11 वेद, कषाय, अने ज्ञान आ त्रण मार्गणाना उत्तर भेदोनी सङ्ख्या अने तेनुं सविस्तर व्याख्यान 12 संयम अने दर्शन आ बे मार्गणाना उत्तर भेदोनी सङ्ख्या 12 संयममार्गणाना उत्तर भेदो पैकी सामायिक अने छेदोपस्थाप नीय चारित्रनुं स्वरूप 12 छेदोपस्थापनीयचारित्रना बे भेद 12 संयममार्गणाना उत्तर भेदो पैकी परिहारविशुद्धिकंचारित्रनी व्या. ख्या तथा तेना बे भेद अने तपस्या आदिना स्वरूपनी गाथाओ 12 परिहारविशुद्धिक चारित्रनी प्ररूपणा माटे क्षेत्रादि वीस द्वारो क्षेत्रद्वारमा परिहारविशुद्धिकचारित्री भरतादिक्षेत्रो पैकी कया क्षेत्रमा होय ? तेनुं स्वरूप कालद्वारमा परिहारविशुद्धिक अवसर्पिण्यादिकाळ पैकी कया काळमां होय ? तेनुं स्वरूप चारित्रद्वारमा परिहारविशुद्धिक सामायिकादि पांच चारित्र पैकी कया चारित्रमा होय ? तेनुं स्वरूप तीर्थद्वारमा परिहारविशुद्धिक तीर्थमां होय के अतीर्थमा होय ?" तेनुं स्वरूप पर्यायद्वारमा परिहारविशुद्धिकने गृहस्थ अने यति पणानो जघन्य तथा उत्कृष्ट केटलो पर्याय होय ? तेनुं स्वरूप आगमद्वारमा परिहारविशुद्धिक नवीन आगमनुं अध्ययन करे के न करे ? तेनुं स्वरूप वेदद्वारमा परिहारविशुद्धिनी प्रवृत्ति वखते स्त्रीवेदादि पैकी कया वेदमा होय ? तेनुं स्वरूप س 0 س س 132 س 133 س 133 شد 133 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा पत्र 134 134 134 135 125 135 135 विषय कल्पद्वारमा परिहारविशुद्धिक स्थितकल्प अने अस्थितकल्प पैकी कया कल्पमा होय ? तेनुं स्वरूप लिङ्गद्वारमा परिहारविशुद्धिक द्रव्यलिङ्ग अने भावलिङ्ग पैकी कया लिङ्गमां होय तेनुं स्वरूप लेण्याद्वारमा परिहारविशुद्धिकने कृष्णादि छ लेश्या पैकी कई लेश्याओ होय? तेनुं स्वरूप ध्यानद्वारमा परिहारविशुद्धिकने आादि चार ध्यान पैकी कयां होय? तेनुं स्वरूप गणद्वारमा परिहारविशुद्धिकनी जघन्य अने उत्कृष्टथी गणसङ्ख्या अने पुरुषसङ्ख्या केटली होय? तेनुं स्वरूप अभिप्रहद्वारमा परिहारविशुद्धिकने द्रव्यादि चार अभिग्रह पैकी कोई पण अभिग्रह होय के न होय ? तेनुं स्वरूप प्रव्रज्याद्वारमा परिहारविशुद्धिक कोईने प्रव्रज्या आपे के न आपे? तेनुं स्वरूप मुण्डापनद्वारमा परिहारविशुद्धिक कोईने मुण्डे के न मुण्डे ? तेनुं स्वरूप प्रायश्चित्तद्वारमा परिहारविशुद्धिकने कयां प्रायश्चित्त होय ? तेनुं स्वरूप कारणद्वारमा परिहारविशुद्धिकने कारण एटले आलम्बन होय के म होय? तेनुं स्वरूप निष्प्रतिकर्मताद्वारमा परिहारविशुद्धिक निष्प्रतिकर्म होय के अ. निष्प्रतिकर्म होय? तेनुं स्वरूप भिक्षाद्वारमा परिहारविशुद्धिकना भिक्षा अने विहार कया कालमां होय ? तेनुं स्वरूप परिहारविशुद्धिकना इत्वर अने यावत्कथिक बे भेदो आदिनुं स्वरूप 12 संयममार्गणाना उत्तरभेदोमांथी सूक्ष्मसम्पराय, यथाख्यात, देशविरत अने अविरतसम्यग्दृष्टिनी व्याख्या 12 दर्शनमार्गणाना चक्षुदर्शन आदि चार उत्तर भेदोनी व्याख्या 13 लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व अने संझिरूप मार्गणाना उत्तर मेदो 13 लेश्यामार्गणामा छ लेश्यानां नाम 128 136 136 136 136 137 137 138 138 Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथा विषय ...13 भव्यमार्गणामां भव्य अभव्यनी व्याख्या 13 सम्यक्त्वमार्गणाना उत्तरभेदो पैकी वेदकसम्यक्त्वनी व्याख्या "138 13 सम्यक्त्वमार्गणाना उत्तरभेदो पैकी क्षायिकसम्यक्त्वनुं स्वरूप रूप .138 13 सम्यक्त्वमार्गणाना उत्तरभेदो पैकी औपशमिकसम्यक्त्व, तेना बे भेदो अने प्रन्थिभेदतुं स्वरूप .:139 13 सम्यक्त्वमार्गणाना उत्तरभेदो पैकी मिथ्यात्व, मिश्र, त्रण पुञ्ज अने सासादनहुँ स्वरूप ...141 '13 संज्ञिमार्गणामां संज्ञि असंझिनी व्याख्या 142 14 आहारकमार्गणाना भेद अने मार्गणस्थानमा जीवस्थान .142 14 आहारक अनाहारकनी व्याख्या अने चौदमूलमार्गणाना बासठ - उत्तरभेदोनां नाम 142 14-18 मार्गणस्थानना उत्तरभेदो पैकी कया कया भेदमां कयां कयां जीवस्थान होय ? तेनुं स्वरूप 142-46 अपर्याप्तसंझिने औपशमिक सम्यक्त्व न होवाना अने। होवाना मतनुं निरूपण 142-43 सम्मूच्छिममनुष्यनी उत्पत्तिना स्थानो... 144 बादर अपर्याप्तने तेजोलेश्या केम सम्भवे ? ए शङ्कानुं निवारण - 19-23 चौदमार्गणास्थानना उत्तरभेदोमां कयां कयां गुणस्थान होय ? .... - तेनुं स्वरूप 147-49 24 योगोनी सङ्ख्या अने मार्गणास्थानमा योग .. 150 24 सत्यमनोयोग आदि पंदर योगोनुं सप्रमाण खरूपनिरूपण . 150 24 कार्मणशरीर गत्यंतरमा साथे जाय छे तो केम देखातुं नथी ? ए शङ्कानुं समाधान तेजसने शरीर मान्यु छ तो तेने योगमां केम गण्युं नथी ? एनुं समाधान 24-29 चौद मार्गणास्थानना उत्तरभेदोमां कया कया योगो होय ? तेनुं स्वरूप 154-60 29 वैक्रियलब्धिवाळा अने मिश्रगुणस्थानवाळा मनुष्यतिर्यश्चोने वैक्रियना भारंभनो सम्भव होका छतां वैक्रियमिभ केम न 'होय ? ए शङ्कानुं समाधान :154 158 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 ..गाथा पत्र विषय. ... 29 केवलिसमुद्धातनुं सविस्तर वरूपनिरूपण ... . .159-64 ... 29 बधाए केवलियो समुद्धात करे के न करे ? ए शङ्कानुं समाधान 160 / 30 उपयोगनां नाम अने मार्गणास्थानना उत्तरभेदोमां उपयोग 164 30 बार उपयोगमां साकार अने अनाकार विभाग 30-34 चौद मार्गणास्थानना उत्तरभेदोमां कया कया उपयोगो होय ? तेनुं स्वरूप 165-66 35 योगनी अन्दर जीवस्थान, गुणस्थान, योग अने उपयोगने आश्री ... मतान्तरतुं निरूपण 36 चौदमार्गणास्थानना उत्तरभेदोमां कई कई लेश्याओ होय ? तेनुं खरूप . . 37 मार्गणास्थानमा स्वस्थाननी अपेक्षाए गतिनुं गतिसाथे परस्पर अल्पबहुत्व अने मनुष्यादिनी सङ्ख्याप्रमाण विगेरे सविशेष ... .स्वरूपनिरूपण 38 मार्गणास्थानमा इन्द्रियनुं इन्द्रियसाथे अने कायर्नु काय साथे परस्पर अल्पबहुत्व 172 39 मार्गणास्थानमा योगर्नु योगसाथे अने वेदतुं वेद साथे परस्पर अल्पबहुत्व .40-42 मार्गणास्थानमां कषायनी साथे कषाय, ज्ञाननी साथे ज्ञान, संय मनी साथे संयमतुं अने दर्शननी साथे दर्शन, परस्पर अल्पबहुत्व 175-76 43-44 मार्गणास्थानमा लेश्यानी साथे लेश्यानु, भव्याभन्यनु, सम्यक्त्वनी :- साथे सम्यक्त्वनु संज्ञि-असंज्ञिनुं अने आहारक-अनाहारकनुं परस्पर अल्पबहुत्व 177-78 . 44 सिद्ध करतां संसारी जीवो अनन्तगुणा छे अने ते बधाए प्रायः आहारी छे तो अनाहारीथी आहारी असङ्ख्यातगुणा केम सम्भवे ? ए शङ्कानुं समाधान 179 तृतीय गुणस्थानाधिकार. .... 45 गुणस्थानमां चौद जीवस्थान- स्वरूप 46-47 गुणस्थानमां पंदर योगोनुं स्वरूप 179-80 48-49 गुणस्थानमां बार उपयोगनुं स्वरूप अने ते विषयमा कार्मः . 5. : प्रन्थिक करतां सिद्धान्तनुं जुईं मन्तव्य 180-82 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 गाथा विषय पत्र 50 गुणस्थानमा छ लेश्यानुं स्वरूप 182 50 मिथ्यात्वादि मूलबन्धहेतुर्नु कथन 183 50 अहीं प्रमादने वन्धहेतु तरीके केम न जणाव्यो ? तेनुं समाधान 183 51 मिथ्यात्व अने अविरतिरूप मूलबन्धहेतुना उत्तरभेदोनुं स्वरूप 183 52 कषाय अने योगरूप मूलबन्धहेतुना उत्तरभेदोनुं स्वरूप 283 52 गुणस्थानमा चार मूलबन्धहेतुनुं स्वरूप / 184 53 प्रसङ्गोपाव मूलबन्धहेतुनो कर्मनी उत्तरप्रकृति आश्री विचार 184 54 गुणस्थानमा सामान्यथी बन्धहेतुना उत्तर भेदोनी सङ्ख्या 185 55-58 गुणस्थानमा बन्धहेतुना उत्तरभेदोनुं सविशेष स्वरूप. 185-87 59 गुणस्थानमा कर्मनी मूलप्रकृतिना बन्धनुं स्वरूप 60 गुणस्थानमा कर्मनी मूलप्रकृतिनी सत्ता अने उदयनुं खरूप 188 61-62 गुणस्थानमा कर्मनी मूलप्रकृतिनी उदीरणानुं स्वरूप 62-63 गुणस्थानमा वर्तमान जीवोना अल्पबहुत्वनुं स्वरूप चतुर्थ भावाधिकार. 64 छ भावनां नाम तेनी व्याख्या अने उत्तरभेदोनी सङ्ख्या 64 औपशमिक भावना बे भेदोनुं स्वरूप / 65 क्षायिक अने क्षायोपशमिकभावना क्रमथी नव अने अढार . भेदोनुं स्वरूप 65 दानादि पांच लब्धियो प्रथम क्षायिकभावनी जाणावी अहीं क्षायो पशमिक भावनी कही तो विरोध केम नहिं ? ए शङ्कानु समाधान 66 औदयिक अने पारिणामिकभावना क्रमथी अढार अने त्रण भेदोनुं स्वरूप 66 कर्मना उदयथी उत्पन्नथनारा निद्रापञ्चक आदि घणा भावो होइ शके छे तो छ भावो ज केम कह्या ? ए शङ्कानुं समाधान 66 छट्ठा सानिपातिक भावना छवीस भेदो . 67-68 सान्निपातिक भावना संभवी शकता छ भेदोमांथी गत्यादि आश्री केटला होय अने केटला न होय ? तेनुं स्वरूप 192. 68 सान्निपातिक भावना पूर्व छवीस भेदो बताव्या छे आ ठेकाणे वीस अने पंदर मलीने पांत्रीस थाय छे तो विरोध केम नहि ? ए शङ्कानुं समाधान 69 जीवआश्रित आठ कर्मोमां औपशमिकादि पांच भावोनुं स्वरूप : 69 धर्मास्तिकायादि पांच अजीवनुं स्वरूप 193 191 191 191 193. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42 गाथा पत्र 196 विषय 69 अतीतादि भेदथी कालना पण त्रण भेदो थई शके छे वो वे अहीं केम बताव्या नहिं ? ए शङ्का समाधान 194 69 समयथी लईने शीर्षप्रहेलिका पर्यन्त कालनुं स्वरूप 194 69 धर्मास्तिकायादि पांच अजीवमा कया कया भावो होय ? तेनुं स्वरूप 196 69 कर्मस्कन्धाश्रित औपशमिकादि भावो अजीवोने पण संभवे के तो ते कहेवा जोइए ? ए बाबतनो निर्णय 70. प्रत्येक गुणस्थानमां औपशमिकादि पांच भावोमांथी कया कया . भावो होय ? तेनुं स्वरूप 196 70 क्षायोपशमिक, औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, पारिणामिक अने सान्निपातिक भावना उचरभेदो जेटला जे गुणस्थानमा होय ? तेनुं स्वरूप 197 7. उपरोक्त अर्थने प्रतिपादन करनारी सङ्ग्रह गाथाओ 198 पञ्चम सङ्ख्याधिकार. 71 सङ्ख्यातना त्रण, असङ्ख्यावना नव अने अनन्तना नव मळी संख्याना एकवीस भेदोन कथन 199 72 जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्टसङ्ख्यात तथा पल्य(पाला) अने ... परिधिनुं स्वरूप 200 73 चार पल्योनां (पालानां) नाम तेनी उंडाइ, वेदिका वगैरेनु स्वरूप 201 74-77 पल्योने (पालाओने) भरवा अने खाली करवाथी केवी रीते उत्कृष्टसङ्ख्यातुं थाय ! तेनुं सविस्तर स्वरूप / 202-206 78-79 नवप्रकारना असङ्ख्यातनुं अने नवप्रकारना अनन्तनुं स्वरूप 207 79 जघन्यसङ्ख्यातादि संख्याना एकवीस भेदोनी स्थापना 208 80 अनुयोगद्वारसूत्रना अभिप्राय प्रमाणे उपरोक्त भेदोनुं कथन अने ते सूत्रनो पाठ 80-86 मतान्तरथी असङ्ख्यात अने अनन्तनुं सविस्तर स्वरूप 211-213 86 प्रस्तुत प्रकरणनी समाप्ति 213 प्रन्थकारनी प्रशस्ति प्रथम परिशिष्ट द्वितीय परिशिष्ट तृतीय परिशिष्ट चतुर्थ परिशिष्ट पंचम परिशिष्ट 16 षष्ठ परिशिष्ट 209 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहत्पागच्छनायक-श्रीमद्-देवेन्द्रसुरिविनिर्मिताः चत्वारः कर्मग्रन्थाः। प्रथम-द्वितीय-चतुर्थाः स्वोपज्ञविवरणोपेताः तृतीयः पुनरन्याचार्यविरचितयाऽवरिरूपटीकया समलङ्कृतः Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // // श्रीमद्विजयवल्लभसूरिभ्यो नमः // पूज्यश्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः। // नमः श्रीप्रवचनाय // दिनेशवद्ध्यानवरप्रतापैरनन्तकालप्रचितं समन्तात् / योऽशोषयत् कर्मविपाकपकं, देवो मुदे वोऽस्तु स वर्धमानः // 1 // ज्ञानादिगुणगुरूणां, धर्मगुरूणां प्रणम्य पदकमलम् / कर्मविपाके विवृति, स्मृतिबीजविवृद्धये विदधे // 2 // * तत्राऽऽदावेवाभीष्टदेवतानुत्यादिप्रतिपादिकामिमां गाथामाह सिरिवीरजिणं वंदिय, कम्मविवागं समासओ वुच्छं। कीरइ जिएण हेऊहिं जेण तो भण्णए कम्मं // 1 // श्रिया सकलत्रिभुवनजनमनश्चमत्कारिमनोहारिपरमार्हन्त्यमहामहिमाविस्तारि____ "अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टिर्दिव्यो ध्वनिश्चामरमासनं च / .. भामण्डलं दुन्दुभिरातपत्रं, सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् // " इतिस्पष्टाष्टप्रातिहार्यशोभया चतुस्त्रिंशदतिशयविभूत्या वा समन्वितो वीरः श्रीवीरः, स चासौ रागद्वेषमोहप्रभृतिवैरिवारपराजयाद् जिनश्च श्रीवीरजिनस्तं श्रीवीरजिनं-श्रीमद्वर्धमानखामिनं 'वन्दित्वा' विशुद्धमानसप्रणिधानसमन्वितेन वाग्योगेन स्तुत्वा, काययोगेन च प्रणम्य, "वदुङ् स्तुत्यभिवादनयोः" इति वचनात् / एतेन मङ्गलार्थमभीष्टदेवतायाः स्तुतिरुक्ता / क्त्वाप्रत्ययस्य चोत्तरक्रियासापेक्षत्वादुत्तरक्रियामाह-'कर्मविपाकं वक्ष्ये' तत्र कर्मणां-ज्ञानावरणादीनां विपाकः-अनुभवः कर्मविपाकस्तं कर्मविपाकं 'वक्ष्ये' अभिधास्ये / अनेनाभिधेयमाह / कथम् ! इत्याह-'समासतः' सङ्केपेण, न विस्तरेण, दुष्षमानुभावापचीयमानमेघाऽऽयुर्बलादिगुणानामैदंयुगीनजनानां विस्तराभिधाने सत्युपकारासम्भवात् , तदुपकारार्थ चैष शास्त्रारम्भप्रयासः / एतेन सङ्क्षिप्तरुचिसत्त्वानाश्रित्य प्रयोजनमाचष्टे / सम्बन्धस्त्वर्थापत्तिगम्यः, स चोपायोपेयलक्षणः साध्यसाधनलक्षणो गुरुपर्वक्रमलक्षणो वा खयमभ्यूह्य इति / अथ 'कर्मविपाकं वक्ष्ये' इत्युक्तं तत्र कर्मशब्दं व्युत्पादयन्नाह–क्रियते' विधीयतेऽञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्गकवद् निरन्तरपुद्गलनिचिते लोके क्षीरनीरन्यायेन वययःपिण्डवद्वा कर्मवर्गणाद्रव्यमात्मस Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः _[गाथा म्बद्धं येन' कारणेन 'ततः' तस्मात् कारणात् कर्म भण्यत इति सम्बन्धः / केन क्रियते ! इत्याह-'जीवन' जन्तुना, तत्र जीवति-इन्द्रियपञ्चकमनोवाकायबलत्रयोच्छासनिःश्वासाऽऽयुर्लक्षणान् दश प्राणान् यथायोगं धारयतीति जीवः / क इत्थम्भूतः ? इति चेद् उच्यतेयो मिथ्यात्वादिकलुषितरूपतया सातादिवेदनीयादिकर्मणामभिनिर्वर्तकः, तत्फलस्य च विशिष्टसातादेरुपभोक्ता, नरकादिभवेषु च यथाकर्मविपाकोदयं संसर्ता, सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रासप. स्वरत्नत्रयाभ्यासप्रकर्षवशाच निःशेषकर्माशापगमतः परिनिर्वाता स जीवः सत्त्वः प्राणी आत्मेत्यादिपर्यायः / उक्तं च यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च / संसर्ता परिनिर्वाता, स ह्यात्मा नान्यलक्षणः // इति / कैः कृत्वा जीवेन क्रियते ? इत्याह—'हेतुभिः' मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगलक्षणैश्चतुर्भिः सामान्यरूपैः, "पडिणीयत्तण निन्हव, पओस उवघाय अंतराएण / अच्चासायणयाए, आवरणदुर्ग जिओ जयइ // " इत्यादिभिर्विशेषप्रकारैरिहैव (गा० 53) वक्ष्यमाणैः / तदयमत्र तात्पर्यार्थः-क्रियते जीवेन हेतुभिर्येन कारणेन ततः कर्म भण्यत इति / कथमेतत्सिद्धिः ? इति चेदै उच्यते-इहात्मत्वेनाविशिष्टानामात्मनां यदिदं देवासुरमनुजतिर्यगादिरूपं मापतिद्रमकमनीषिमन्दमहर्द्धिदरिद्रादिरूपं वा वैचित्र्यं तन्न निर्हेतुकमेष्टव्यम् , मा प्रापत् सदा भावाभावदोषप्रसङ्गः, “नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वाऽहेतोरन्यानपेक्षणात्" / सहेतुकत्वाभ्युपगमे च यदेवास्य हेतुस्तदेव चास्माकं कर्मेति मतमिति तत्सिद्धिः / यदवोचाम श्रीदिनकृत्यटीकायां जीवस्थापनाधिकार एनमेवार्थम् क्ष्माभृद्रककयोर्मनीषिजडयोः सद्रूपनीरूपयोः, श्रीमदुर्गतयोर्बलाबलवतोनीरोगरोगायोः / सौभाग्यासुभगत्वसङ्गमजुषोस्तुल्येऽपि नृत्वेऽन्तरं, यत् तत् कर्मनिबन्धनं तदपि नो जीवं विना युक्तिमत् // अन्यत्राप्युक्तम् आत्मत्वेनाविशिष्टस्य, वैचित्र्यं तस्य यद्वशात् / नरादिरूपं तच्चित्रमदृष्टं कर्मसंज्ञितम् / / पौराणिका अपि कर्मसिद्धि प्रतिपद्यन्ते / तथा च ते पाहुः यथा यथा पूर्वकृतस्य कर्मणः, फलं निधानस्थमिवावतिष्ठते / तथा तथा तत्प्रतिपादनोद्यता, प्रदीपहस्तेव मतिः प्रवर्तते // यत्तत्पुराकृतं कर्म, न स्मरन्तीह मानवाः। ___ तदिदं पाण्डवज्येष्ठ !, दैवमित्यभिधीयते // १पर्यायाः क० ख० घ०। 2 °कारश्चैहै ग०। 3 चेद्-इहा ख० ग०। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-2] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / मुदितान्यपि मित्राणि, सुक्रुद्धाश्चैव शत्रवः / न हीमे तत् करिष्यन्ति, यन्न पूर्व कृतं त्वया // बौद्धा अप्याहुः इत एकनवतौ कल्पे, शक्त्या में पुरुषो हतः। तेन कर्मविपाकेन, पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः / / तदपि च कर्म पुद्गलखरूपं प्रतिपत्तव्यम् , नामूर्तम् , अमूर्त्तत्वे हि कर्मणः सकाशादात्मनामनुग्रहोपघातासम्भवात् , आकाशादिवत् / यदाह अन्ने उ अमुवं चिय, कम्मं मन्नंति वासणास्वं / तं तु न जुज्जइ ततो, उवघायाणुग्गहाभावा // - नागासं उवघायं, अणुग्गहं वा वि कुणइ सत्ताणं // इत्यादि / तच्च कर्म प्रवाहतोऽनादि, "अणाइयं तं पवाहेण" इति वचनात् / यदि प्रवाहापेक्षयाऽपि सादि स्यात् तदा जीवानां पूर्व कर्मवियुक्तत्वमासीत् पश्चादकर्मकस्य जीवस्य कर्मणा सह संयोगः सञ्जातः, एवं सति मुक्तानामपि कर्मयोगः स्यात् , अकर्मकत्वाविशेषात् , ततश्च मुक्ता अमुक्ताः स्युः, न चेदमिष्टम् , तस्मादनादिर्जीवस्य कर्मणा सह संयोगः / नन्वनादिसंयोगे कथं वियोगो जीवस्य कर्मणा सह ! उच्यते-अनादिसंयोगेऽपि वियोगो दृष्टः काञ्च. नोपलवत् / तथाहि-काश्चनोपलानां यद्यप्यनादिसंयोगस्तथापि तथाविधसामग्रीसद्भावे धमनादिना किट्टिवियोगो दृष्टः; एवं जीवस्यापि ज्ञानदर्शनचारित्रध्यानानलादिनाऽनादिकर्मणा सह वियोगः सिद्धो भवति / यदाह भगवान् भाष्यसुधाम्भोनिधिः जैर्ह इह य कंचणोवलसंयोगोऽणाइसंतइगओ वि / वुच्छिज्जइ सोवाय, तह जोगो जीवकम्माणं // (विशे० गा० 1819) इत्यलं विस्तरेण // 1 // अथ कतिभेदं कर्म ? इत्याशङ्कयाह पयइठिइरसपएसा, तं चउहा मोयगस्स दिटुंता / मूलपगइह उत्तरपगईअडवन्नसयभेयं // 2 // तत् कर्म पूर्वव्यावर्णितशब्दार्थ 'चतुर्धा' चतुष्पकारं चतुर्भदं भवतीति शेषः / कथम् ! इत्याह-“पयइठिइरसपएस" ति, इह “गम्ययपः कर्माघारे" (सिद्धहेम० 2-2-74) इति पञ्चमी, यथा प्रासादात् प्रेक्षत इति / ततश्च प्रकृतिस्थितिरसप्रदेशानाश्रित्य, प्रकृतिबन्धस्थितिबन्धरसबन्धप्रदेशबन्धतयेत्यर्थः / तत्र स्थित्यनुभागप्रदेशबन्धानां यः समुदायः स प्रकृतिबन्धः, अध्य-:वसायविशेषगृहीतस्य कर्मदलिकस्य यत् स्थितिकालनियमनं स स्थितिबन्धः, कर्मपुद्गलानामेव शुभोऽशुभो वा घात्यघाती वा यो रसः सोऽनुभागबन्धो रसबन्ध इत्यर्थः, कर्मपुद्गलानामेव यद् ग्रहणं स्थितिरसनिरपेक्षदलिकसङ्ख्याप्राधान्येनैव करोति स प्रदेशबन्धः / उक्तं च 1 अन्ये तु अमूर्तमेव कर्म मन्यन्ते वासनारूपम् / तत् तु न युज्यते तत उपघातानुग्रहाभावात् // नाकाशमुपघातमनुग्रहं वाऽपि कुरुते सत्त्वानाम् // 2 अनादिकं तत् प्रवाहेण // 3 यथेह च काश्चनोपलसंयोगोऽनादिसन्ततिगतोऽपि / व्युच्छिद्यते सोपायं तथा योगो जीवकर्मणोः // 4 ह व इह ख०॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा ठिईबंधु दलस्स ठिई, पएसबंधो पएसगहणं जं / ताण रसो अणुभागो, तस्समुदाओ पगइबंधो॥ (पञ्चसं० गा० 432) अन्यत्राप्युक्तम् प्रकृतिः समुदायः स्यात् , स्थितिः कालावधारणम् / अनुभागो रसः प्रोक्तः, प्रदेशो दलसञ्चयः // इदं च प्रकृतिस्थितिरसप्रदेशानां खरूपं 'मोदकस्य' कणिक्कादिमयलड्डुकस्य 'दृष्टान्तात्' दृष्टान्तेन भावनीयम् / दृष्टान्तादित्यत्र तृतीयार्थे पञ्चमी / यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे"व्यत्ययोऽप्यासाम्" इति / यथा वातविनाशिद्रव्यनिष्पन्नो मोदकः प्रकृत्या वातमुपशमयति, पित्तोपशमकद्रव्यनिवृत्तः पित्तम् , कफापहारिद्रव्यसमुद्भूतः कफमित्येवंखभावा प्रकृतिः / स्थितिस्तु तस्यैव कस्यचिदिनमेकम् , अपरस्य तु दिनद्वयम् , एवं यावत् कस्यचिन्मासादिकमपि कालं मवति ततः परं विनाशादिति / रसः पुनः स्निग्धमधुरादिरूपस्तस्यैव कस्यचिदेकगुणः, अपरस्य द्विगुणः, अन्यस्य त्रिगुण इत्यादिकः / प्रदेशाश्च कणिकादिरूपास्तस्यैव कस्यचिदेकप्रसूतिप्रमाणाः, अन्यस्य तु प्रसूतिद्वयप्रमाणाः, यावदपरस्य सेतिकादिप्रमाणाः। एवं कर्मणोऽपि कस्यचिद् ज्ञानाच्छादनखभावा प्रकृतिः, अपरस्य दर्शनावरणरूपा, अन्यस्याऽऽहादादिप्रदानलक्षणा, कस्यचित् सम्यग्दर्शनादिविघातजननखभावेत्यादि / स्थितिश्च तस्यैव कस्यचित् त्रिंशसागरोपमकोटीकोटीरूपा, अपरस्य तु सप्ततिसागरोपमकोटाकोटिलक्षणेत्यादि / रसस्त्वनुभागशब्दवाच्यस्तस्यैवैकस्थानद्विस्थानत्रिस्थानादिरूपः / प्रदेशा अल्पबहुबहुतरबहुतमादिरूपा इति / पुनः किंविशिष्टं तत् कर्म भवति ? इत्याह—"मूलपगइऽ? उत्तरपगईअडवन्नसयभेयं" ति मूलप्रकृतयः सामान्यरूपाः 'अष्टौ' अष्टसङ्ख्या यत्र तन्मूलप्रकृत्यष्ट, उत्तरप्रकृतीनां-मूलप्रकतिविशेषरूपाणामष्टपञ्चाशच्छतभेदा यस्य तदुत्तरप्रकृत्यष्टपञ्चाशच्छतभेदमिति // 2 // __ अधुना मूलप्रकृतिभेदतस्तस्यैवाष्टविधत्वमुत्तरप्रकृतिभेदतोऽष्टपञ्चाशच्छतभेदत्वं च प्रदर्शयन् खनामग्राहमष्टौ मूलभेदान् एकैकस्य च भेदस्य यस्य यावन्त उत्तरमेदास्तांश्च वक्तुमाह इह नाणदंसणावरणवेयमोहाऽऽउनामगोयाणि / विग्धं च पणनवदुअट्ठवीसचंउतिसयदुपणविहं // 3 // 'इह' प्रवचने कर्मोच्यते इति शेषः / “नाणदसणावरण"ति ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानम् , ज्ञातिर्वा ज्ञानम् , सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोष इत्यर्थः / तथा दृश्यतेनेनेति दर्शनम् , दृष्टिा दर्शनम् , सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि सामान्यग्रहणात्मको बोधः / आत्रियते-आच्छाद्यतेऽनेनेत्यावरणम् , यद्वा आवृणोति-आच्छादयति "रम्यादिभ्यः कर्तरि" (सि० 5-3-126) अनटि प्रत्यये आवरणं-मिथ्यात्वादिसचिवजीवव्यापाराहृतकर्मवर्गणान्तःपाती विशिष्टपुद्गलसमूहः / ततो ज्ञानं च दर्शनं च ज्ञानदर्शने तयोरावरणं ज्ञानदर्शनावरणं ज्ञानावरणं दर्शनावरणं चेत्यर्थः / तथा वेद्यते-सुखदुःखरूपत 1 स्थितिबन्धो दलस्य स्थितिः, प्रदेशबन्धः प्रदेशग्रहणं यत् / तेषां ( कर्मपुद्रलानां ) रसोऽनुभागस्तत्समुदायः प्रकृतिबन्धः // 2 बंध ग०॥ 3 °ऽनेनेति दृष्टिक० ख० ग० घ०॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / याऽनुभूयते यत् तद् वेद्यम् , “य एचातः" (सि० 5-1-28) इति यप्रत्यये वेदनीयम् / यद्यपि सर्व कर्म वेद्यते तथापि पङ्कजादिशब्दवद् वेद्यशब्दस्य रूढिविषयत्वात् सातासातरूपमेव कर्म वेद्यमित्युच्यते न शेषम् / तथा मोहयति-जानानमपि प्राणिनं सदसद्विवेकविकलं करोतीति मोहः, लिहादित्वादच्प्रत्ययः, मोहनीयमित्यर्थः / तथा एति-गच्छत्यनेन गत्यन्तरमित्यायुः, यद्वा एति-आगच्छति प्रतिबन्धकतां खकृतकर्मावाप्तनरकादिदैर्गतेर्निर्गन्तुमनसोऽपि जन्तोरित्यायुः, उभयत्रापि औणादिको गुस्पत्ययः, यद्वा आयाति-भवाद् भवान्तरं सङ्कामतां जन्तूनां निश्चयेनोदयमागच्छति "पृषोदरादयः” (सि० 3-2-155) इत्यायुःशब्दसिद्धिः / यद्यपि च सर्व कर्म उदयमायाति तथाप्यस्त्यायुषो विशेषः, यतः शेषं कर्म बद्धं सत् किञ्चित्तस्मिन्नेव भवे उदयमायाति, किञ्चित्तु प्रदेशोदयमुक्तं जन्मान्तरेऽपि खविपाकत उदयं नायात्येव इत्युभयथाऽपि व्यभिचारः आयुषि त्वयं नास्ति, बद्धस्य तस्मिन्नेव भवेऽवेदनात् , जन्मान्तरसङ्क्रान्तौ तु खविपाकतोऽवश्यं वेदनादिति विशिष्टस्यैवोदयागमनस्य विवक्षितत्वात् तस्य चायुष्येव सद्भावात् तस्यैवैतन्नाम / अथवा आयान्त्युपभोगाय तमिन्नुदिते सति तद्भवप्रायोग्याणि सर्वाण्यपि शेषकर्माणीत्यायुः / तथा नामयति-गतिजातिप्रभृतिपर्यायानुभवनं प्रति प्रवणयति जीवमिति नाम / तथा 'गुङ शब्दे' गूयतेशब्द्यत उच्चावचैः शब्दैरात्मा यस्मात् तद गोत्रम् / ततो ज्ञानदर्शनावरणं च वेद्यं च मोहश्चायुश्च नाम च गोत्रं च ज्ञानदर्शनावरणवेद्यमोहायुर्नामगोत्राणि / तथा विशेषेण हन्यन्ते-दानादिलब्धयो विनाश्यन्तेऽनेनेति "स्थास्नायुधिव्याधिहनिभ्यः कः" इति कप्रत्यये 'विघ्नम्' अन्तरायम् / 'चः' समुच्चये / “पणनवदुअट्ठवीस"इत्यादि / अत्र द्वन्द्वगों बहुव्रीहिसमासः / भावार्थः पुनर' यम्-पञ्चविधं ज्ञानावरणम् , नवविधं दर्शनावरणम् , द्विविधं वेद्यम् , अष्टाविंशतिविधो मोहः, चतुर्विधमायुः, त्रिशतविधं नाम, त्रिभिरधिकं शतं त्रिशतं-व्युत्तरशतविधमित्यर्थः, द्विविध गोत्रम् , पञ्चविधं विघ्नमिति / / - अत्राह-नन्वित्थं ज्ञानावरणाद्युपन्यासे किश्चिदस्ति प्रयोजनम् ? उत यथाकथञ्चिदेष प्रवृत्तः ? इति, अस्तीति ब्रूमः / किं तद् ! इति चेद् उच्यते-इह ज्ञानं दर्शनं च जीवस्य खतत्त्वभूतम् , तदभावे जीवत्वस्यैवायोगात्, चेतनालक्षणो हि जीवः, ततः स कथं ज्ञानदर्शनाभावे भवेत् ?; ज्ञानदर्शनयोरपि च मध्ये प्रधानं ज्ञानम् , तद्वशादेव सकलशास्त्रादिविचारसन्ततिप्रवृत्तेः / अपि च–सर्वा अपि लब्धयो जीवस्य साकारोपयोगोपयुक्तस्योपजायन्ते, न दर्शनोपयोगोपयुक्तस्य, “सेवाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स, नो अणागारोवओगोवउ. तस्स" इति वचनप्रामाण्यात् / अन्यच्च यस्मिन् समये सकलकर्मविनिर्मुक्तो जीवः सञ्जायते तस्मिन् समये ज्ञानोपयोगोपयुक्त एव, न दर्शनोपयोगोपयुक्तः, दर्शनोपयोगस्य द्वितीयसमये भावात् , ततो ज्ञानं प्रधानम् , तदावारकं च ज्ञानावरणं कर्म, ततस्तत् प्रथममुक्तम् / तदनन्तरं च दर्शनावरणम् , ज्ञानोपयोगाच्युतस्य दर्शनोपयोगेऽवस्थानात् / एते च ज्ञानदर्शनावरणे खवि 1 ज्ञानिनमपि ग० // 2 दुर्गतेर्निष्क्रमितुम ख०॥ 3 सर्वा लन्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्य नोऽनाकारोपयोगोपयुक्तस्य // Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञदीकोपैतः . [गाथा पाकमुपदर्शयन्ती यथायोगमवश्यं सुखदुःखरूपवेदनीयकर्मविपाकोदयनिमित्ते भवतः। तथाहि-ज्ञानावरणमुपचयोत्कर्षप्राप्तं विपाकतोऽनुभवन् सूक्ष्मसूक्ष्मतरवस्तुविचारासमर्थमात्मानं जानानः खिद्यते भूरिलोकः, ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमपाटवोपेतश्च सूक्ष्मसूक्ष्मतराणि वस्तूनि निजप्रज्ञयाऽभिजानानो बहुजनातिशायिनमात्मानं पश्यन् सुखं वेदयते; तथाऽतिनिबिडदर्शनावरण. विपाकोदये जात्यन्धादिरनुभबति दुःखसन्दोहं वचनगोचरातिक्रान्तम् , दर्शनावरणक्षयोपशमपटिष्ठतापरिकरितश्च स्पष्टचक्षुराद्युपेतो यथावद् वस्तुनिकुरम्बं सम्यगवलोकमानो वेदयतेऽमन्दमानन्दसन्दोहम् , तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थ दर्शनावरणानन्तरं वेदनीयग्रहणम् / वेदनीयं च सुखदुःखे जनयति, अभीष्टानभीष्टविषयसम्बन्धे चावश्यं संसारिणां रागद्वेषौ, तौ च मोहनीयहेतुकौ, तत एतदर्थप्रतिपत्तये वेदनीयानन्तरं मोहनीयग्रहणम् / मोहनीयमूढाश्च जन्तवो बहारम्भपरिग्रहप्रभृतिकर्मादानासक्ता नरकाद्यायुष्कमारचयन्ति, ततो मोहनीयानन्तरमायुम्रहणम् / नरकाद्यायुष्कोदये चावश्यं नरकगत्यादीनि नामान्युदयमायान्ति, तत आयुरनन्तरं नामग्रहणम् / नामकर्मोदये च नियमादुच्चनीचान्यतरगोत्रकर्मविपाकोदयेन भवितव्यम् , अतो नामग्रहणानन्तरं गोत्रग्रहणम् / गोत्रोदये चोचैःकुलोत्पन्नस्य प्रायो दानलाभान्तरायादिक्षयो भवति, राजप्रभृतीनां प्राचुर्येण दानलाभादिदर्शनात् ; नीचैःकुलोत्पन्नस्य तु दानलाभान्तरायाधुदयः, नीचजातीनां तथादर्शनात् ; तत एतदर्थप्रतिपत्त्यर्थ गोत्रानन्तरमन्तरायग्रहणमिति // 3 // अथ 'यथोद्देशं निर्देशः' इति न्यायात् प्रथमं तावत् पञ्चधा ज्ञानावरणं व्याचिख्यासुराह महसुयओहीमणकेवलाणि नाणाणि तत्थ मइनाणं / वंजणवग्गहु चउहा, मणनयणविणिंदियचउक्का // 4 // . इह ज्ञानशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद् मतिज्ञानम् , श्रुतज्ञानम् , अवधिज्ञानम् , “मण ति" पदैकदेशे पदसमुदायोपचारात् मनःपर्थवज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं वा, केवलज्ञानम् / तत्र "बुधिं मनिंच ज्ञाने" मननं मतिः, यद्वा मन्यते-इन्द्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तु. परिच्छिद्यतेऽनयेति मतिः-योग्यदेशावस्थितवस्तुविषय इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेषः, मतिश्च . सा ज्ञानं च मतिज्ञानम् / इदं चाऽऽगमे आमिनिबोधिकज्ञानमुच्यते / यदाह भगवान् देवर्द्धिक्षमाश्रमणःनाणं पंचविहं पन्नतं, तं जहा-आभिणिबोहियनाणं सुयनाणं ओहिनाणं मणपज्जवनाणं केवलनाणं / (नन्दी पत्र 65-1) / __तत्र चायमाभिनिबोधिकज्ञानशब्दार्थः—अभि-इत्याभिमुख्ये, नि-इति नैयत्ये, ततश्चाभिमुखः-वस्तुयोग्यदेशावस्थानापेक्षी नियतः-इन्द्रियमनः समाश्रित्य खखविषयापेक्षी बोधनं बोधोऽभिनिबोधः, स एवाऽऽभिनिबोधिकम् , विनयादेराकृतिगणत्वादिकण्प्रत्ययः, अभिनिबुध्यत इत्यभिनिबोध इति कर्तरि लिहादित्वादच् वा, यद्वाऽभिनिबुध्यते आत्मना स इत्यभिनिबोध इति, कर्मणि घ, स एवाऽऽभिनिबोधिकमिति तथैव, आभिनिबोधिकं च तद् 1 ज्ञानं पश्वविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-आमिनिबोधकज्ञानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं केवलज्ञानम् // Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / ज्ञानं चाऽऽभिनिबोधिकज्ञानम् / तथा श्रवणं श्रुतम्-अमिलापप्लावितार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिवि- . शेषः, एवमाकारं वस्तु घटशब्दाभिलाप्यं जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमवि. शेष इत्यर्थः, श्रुतं च तद् ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् / तथाऽवधानमवधिः-इन्द्रियाद्यनपेक्षमात्मनः साक्षादर्थग्रहणम् , अत एवेदं प्रत्यक्षज्ञानम् / यदुक्तं नन्द्यध्ययने 'नोइंदियपच्चक्खं तिविहं पन्नतं, तं जहा-ओहिनाणपञ्चक्खं मणपज्जवनाणपञ्चक्खं केवलनाणपञ्चक्खं (नन्दी पत्र 76-2) / __ अथवा अवशब्दोऽधःशब्दार्थः, अव-अघोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः, यद्वा अवधिः-मर्यादा रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा, तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः,, अवधिश्च तद् ज्ञानं चावधिज्ञानम् / तथा परिः-सर्वतोभावे, अवनम् अवः, "तुदादिभ्योऽन्कौ" इत्यधिकारेऽकितौ चेत्यनेन औणादिकोऽकारप्रत्ययः, अवनं गमनं वेदनमिति पर्यायाः, परि अवः पर्यवः, मनसि मनसो वा पर्यवो मनःपर्यवः-सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, मनःपर्यवश्च स ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञानम् / यद्वा मनःपर्यायज्ञानम्, तत्र संज्ञिभिजीवैः काययोगेन गृहीतानि मनःप्रायोग्यवर्गणाद्रव्याणि चिन्तनीयवस्तुचिन्तनव्याहतेन मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्यमानानि मनांसीत्युच्यन्ते, तेषां मनसां पर्यायाःश्चिन्तनानुगताः परिणामा मनःपर्यायाः, तेषु तेषां वा संबन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् / यद्वा आत्मभिर्वस्तुचिन्तने व्यापारितानि मनांसि पति-अवगच्छतीति मनःपर्यायम् , “कर्मणोऽण्" (सि० 5-1-72 ) इति अण्प्रत्ययः, मनःपर्यायं च तद् ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् / तथा केवलम्-एकं मत्यादिज्ञानरहितत्वात् "नेहम्मि उ छाउमथिए नाणे" (आव०नि० गा० 539) इति वचनप्रामाण्यात् / आह-यदि मत्यादीनि ज्ञानानि खखावरणक्षयोपशमभावेऽपि प्रादुःषन्ति ततो निःशेषतः खखावरणक्षये सुतरां भवेयुश्चारित्रपरिणामवत् , तत् कथं तेषां तदानीमभावः!, आह च आवरणदेसविगमे, जाइं विजंति मइसुयाईणि / आवरणसवविगमे, कह ताइँ न हुंति जीवस्स ! // इति / - उच्यते-इह यथा सहस्रभानोरतिसमुन्नतघनाघनघनपटलान्तरितस्यापान्तरालावस्थितकटकुट्याद्यावरणविवरप्रविष्ट[:] प्रकाशो घटपटादीन् प्रकाशयति, तथा केवलज्ञानावरणावृतस्य केवलज्ञानस्यापान्तरालमतिज्ञानावरणादिक्षयोपशमरूपविवरविनिर्गतः प्रकाशो जीवादीन् प्रकाशयति, स च तथा प्रकाशयन् मतिज्ञानमित्यादिलक्षणं तत्तत्क्षयोपशमानुरूपमभिधानमुद्वहति ततो यथा सकलघनपटलकटकुट्याद्यावरणापगमे स तथाविधः प्रकाशः सहस्रमानोरस्पष्टरूपो न भवति किन्तु सर्वात्मना स्फुटरूपोऽन्य एव, तथेहापि सकलकेवलज्ञानावरणमतिज्ञानाद्या १नोइन्द्रियप्रत्यक्षं त्रिविधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-अवधिज्ञानप्रत्यक्षं मनःपर्यवज्ञानप्रत्यक्षं केवलज्ञानप्रत्यक्षम् // 2 नष्टे तु छानस्थिके ज्ञाने // 3 आवरणदेशविगमे, यानि विद्यन्ते मतिश्रुतादीनि / आवरणसर्व( सर्वावरण) विगमे, कथं तानि न भवन्ति जीवस्य // Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा वरणविलये न तथाविधो मतिज्ञानादिसंज्ञितः केवलज्ञानस्य प्रकाशो भवति, किन्तु सर्वात्मना / यथावस्थितं वस्तु परिच्छिन्दन् परिस्फुटरूपोऽन्य एवेत्यदोषः / उक्तं च श्रीपूज्यैः कटविवरागयकिरणा, मेहंतरियस्स जह दिणेसस्स / ते कडमेहावगमे, न हुँति जह तह इमाई पि // अन्यैरपि न्यगादि मलविद्धमणेर्व्यक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः / कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथाऽनेकप्रकारतः // यथा जात्यस्य रत्नस्य, निःशेषमलहानितः। स्फुटैकरूपाऽभिव्यक्तिर्विज्ञप्तिस्तद्वदात्मनः // अन्ये पुनराहुः-सन्त्येव मतिज्ञानादीन्यपि सयोगिकेवल्यादौ, केवलमफलत्वात् सन्त्यपि तदानीं न विवक्ष्यन्ते, यथा सूर्योदये नक्षत्रादीनि / उक्तं च- . _ अन्ने आभिणिबोहियणाणाईणि वि जिणस्स विजंति / अफलाणि य सूरुदए, जहेव नक्खत्तमाईणि // शुद्धं वा केवलम् , तदावरणमलकलङ्कपकापगमात् / सकलं वा केवलम् , तत्पथमतयैव निःशेषतदावरणविगमतः संपूर्णोत्पत्तेः / असाधारणं वा केवलम् , अनन्यसदृशत्वात् / अनन्तं वा केवलम् , ज्ञेयानन्तत्वात् अपर्यवसितानन्तकालावस्थायित्वाद्वा / निर्व्याघातं वा केवलम् , लोकेऽलोके वा कापि व्याघाताभावात् / केवलं च तद् ज्ञानं च केवलज्ञानं यथावस्थितसमस्तभूतभवद्भाविभावखभावावभासि ज्ञानमिति भावना / ___ आह-नन्वेतेषां पञ्चानां ज्ञानानामित्थं क्रमोपन्यासे किं कारणम् ! उच्यते-इह मतिश्रुते तावदेकत्र वक्तव्ये, परस्परमनयोः स्वामिकालकारण विषयपरोक्षत्वसाधर्म्यात् / तथाहिय एव मतिज्ञानस्य स्वामी स एव श्रुतज्ञानस्य य एव श्रुतज्ञानस्य स्वामी स एव मतिज्ञानस्यापि “जैत्य मइनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ मइनाणं" (नन्दी पत्र 140-1) इत्यादिवचनप्रामाण्यात् , ततः खामिसाधर्म्यम् / तथा यावानेव मतिज्ञानस्य स्थितिकालस्तावानेव श्रुतज्ञानस्यापि, तत्र प्रवाहापेक्षयाऽतीतानागतवर्तमानरूपः सर्वकालः, अप्रतिपतितैकजीवापेक्षया षट्षष्टिसागरोपमाणि समधिकानि, उक्तं च दो वारे विजयाइसु, गयम्स तिन्नऽचुए अहव ताई। अइरेगं नरभवियं, नाणाजीवाण सधद्धा // (विशे० गा० 2762) इति कालसाधर्म्यम् / यथा चेन्द्रियनिमित्तं मतिज्ञानं तथा श्रुतज्ञानमपीति कारणसाध१ कटविवरागतकिरणाः, मेघान्तरितस्य यथा दिनेशस्य / ते कटमेघापगमे, न भवन्ति यथा तथेमान्यपि // 2 अन्ये आमिनिवोधिकज्ञानादीन्यपि जिनस्य विद्यन्ते / अफलानि च सूर्योदये यथैव नक्षत्रादीनि // 3 यत्र मतिज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानं यत्र श्रुतज्ञानं तत्र मतिज्ञानम् // 4 द्वौ वारौ विजयादिषु, गतस्य त्रीन् (वारान् ) अच्युतेऽथवा तानि ( सागराणि 66) / अतिरेकं नरभविक नानाजीवानां सर्वाद्धा॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / य॑म् / तथा यथा मतिज्ञानमादेशतः सर्वव्यादिविषयमेवं श्रुतज्ञानमपि इति विषयसाधर्म्यम् / यथा च मतिज्ञानं परोक्षं तथा श्रुतज्ञानमपि इति परोक्षत्वसाधर्म्यम् / तत इत्यं खाम्यादिसाधादेते मतिश्रुते नियमादेका वक्तव्ये, ते चावध्यादिज्ञानेभ्यः प्रागेव, तद्भाव एवाऽवध्यादिसद्भावात् / उक्तं च जं सामिकालकारणविसयपरोक्खत्तणेहि तुल्लाई / सब्भावे सेसाणि य, तेणाऽऽईए महसुयाइं // (विशे० गा० 85) ननु भवतामेकत्र मतिश्रुते, प्रागेव चावध्यादिभ्यः, परमेतयोरेव मतिश्रुतयोर्मध्ये पूर्व मतिः पश्चात् श्रुतमित्येव तत् कथम् ! उच्यते-मतिपूर्वत्वात् श्रुतज्ञानस्य, तथाहि-सर्वत्रापि पूर्वमवग्रहादिरूपं मतिज्ञानमुदयते पश्चात् श्रुतम् / यदाह निविडजडिमसम्भारतिरस्कारतरणिः श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण: मइपुवं सुयमुत्तं, न मई सुयपुखिया विसेसोऽयं / पुर्व पालणपूरणभावाओ 5 मई तस्स // (विशे० गा० 105) नन्यध्ययनचूर्णावप्युक्तम्तेसै वि य मइपुवयं सुयं ति किचा पुर्व मइनाणं कयं, तप्पिट्टओ सुयं ति // (पत्र 11) __ आह-यदि खामित्वादिभिरनयोरभेदस्तहि द्वयोरप्येकत्वमस्तु, मैदहेत्वमावाद् अभेदहेतूना चाभिहितत्वात् , तदयुक्तम् , भेदहेत्वभावस्यासिद्धत्वात् / तथाहि-खाम्यादिभिर मेदे सत्यपि लक्षणभेदादनयोर्भेदः, तथाहि-मन्यते योग्योऽर्थोऽनयेति मतिः, श्रवणं श्रुतमित्यादि / तथा हेतुफलभावाद् भेदः, तथाहि-मतिज्ञानं श्रुतस्य कारणम् , श्रुतं तु कार्यम् / यञ्च यदुत्कर्षापकर्षवशादुत्कर्षापकर्षभाक् तत् तस्य कारणम् , यथा घटस्य मृत्पिण्डः, तथाहि-श्रुतेष्वपि बहुषु अन्थेषु यद्विषयं स्मरणमीहाऽपोहादि वाऽधिकतरं प्रवर्तते स ग्रन्थः स्फुटतरः प्रतिमाति न शेषः / तथा भेदभेदाद् भेदः, तथाहि-मतिज्ञानमष्टाविंशत्यादिभेदम्, श्रुतज्ञानं तु चतुर्दशादिभेदम् / तथा इन्द्रियविभागाद् भेदः, तत्प्रतिपादिका चेयं पूर्वान्तर्गता गाथा सोइंदिओवलद्धी, होइ सुयं सेसयं तु मइनाणं / मुसूणं दबसुयं, अक्खरलंभो य सेसेसु // (विशे० गा० 117) .. तथा वेस्कसमं मतिज्ञानं कारणत्वात् , शुम्बसमं श्रुतज्ञानं तत्कार्यत्वादित्यप्यनयोमेंदनिबन्धनम् / तथा इतश्च भेदः- मतिज्ञानमनक्षरं साक्षरंच, तथाहि-अवग्रहज्ञानमनक्षरम् , तस्यानिदेश्यसामान्यमात्रप्रतिभासात्मकतया निर्विकल्पत्वात् ; ईहादिज्ञानं तु साक्षरम् , तस्य परामर्शादिलपतयाऽवश्यं वर्णाऽऽरुषितत्वात् ; श्रुतज्ञानं पुनः साक्षरमेव, अक्षरमन्तरेण शब्दार्थपर्यालोघनस्यानुपपत्तेः / तथा इतश्च भेदः-मूककल्यं मतिज्ञानम् , खमात्रप्रत्यायकत्वात् ; अमककल्प 1 यत् खामिकालकारणावेषयपरोक्षत्वैस्तुल्ये / तद्भावे शेषाणि च तेनाऽऽदौ मतिश्रुते // 2 मतिपूर्व श्रुत. मुकं नमतिः श्रुतपूर्विका विशेषोऽयम् / पूर्व पालनपूरणभावात् यन्मविस्वस्य (श्रुतस्य)॥३तयोरपि च मति. पूर्वकं श्रुतमिति कृत्वा पूर्व मतिज्ञानं कृतं तत्पृष्ठतः श्रुतमिति // 4 श्रोत्रेन्द्रियोपलन्धिः भवति श्रुतं शेषकंतु मतिज्ञानम् / मुक्त्वा द्रव्यश्रुतमक्षरलाभश्च शेषेषु // 5 बक्सहशम् // 6 रजुसहशम् // 7 मिश्रितलात् // क०२ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपटीकोपेतः [गाया श्रुतज्ञानम् , खपरप्रत्यायकत्वात् / तथा चामूनेव हेतून् संगृहीतवान् भाष्यसुधाम्भोनिधिः लक्खणभेया हेउफलभावओ मेयइंदियविभागा। वागक्खरमूयेयरभेया मेओ मइसुयाणं // (विशे० गा० 97) तथा कालविपर्ययखामित्वलाभसाधर्म्यान्मतिश्रुतज्ञानानन्तरमवधिज्ञानम् , तथाहि-अप्रतिपतितैकसत्त्वाधारापेक्षयाऽवस्थितिकालोऽवधिज्ञानस्य षट्षष्टिसागरोपमाणि / तथा यथैव मतिश्रुतज्ञाने मिथ्यात्वोदयतो विपर्ययतामासादयतस्तथाऽवधिज्ञानमपि, तथाहि-मिथ्यादृष्टेः सतस्तान्येव मतिश्रुतावधिज्ञानानि मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभनशानानि भवन्ति / उक्तं च आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम् // (प्रशम० पद्य 227) इति / तथा य एव मतिश्रुतयोः स्वामी स एवावधिज्ञानस्यापि / तथा विभङ्गज्ञानिनस्त्रिदशादेः सम्यग्दर्शनावाप्तौ युगपदेव मतिश्रुतावधिज्ञानानां लाभसंभवततो लामसाधर्म्यम् / अवधिज्ञानानन्तरं च छद्मस्थविषयभावप्रत्यक्षत्वसाधान्मनःपर्यायज्ञानमुक्तम् , तथाहि-यथाऽवधिज्ञानं छद्मस्थस्य भवति तथा मनःपर्यायज्ञानमपि इति छद्मस्थसाधर्म्यम् / तथा यथाऽवधिज्ञानं रूपिद्रव्यविषयं तथा मनःपर्यायज्ञानमपि, तस्य मनःपुद्गलाऽऽलम्बनत्वाद् इति विषयसाधर्म्यम् / तथा यथाऽवधिज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्तते तथा मनःपर्यायज्ञानमपि इति भावसाधर्म्यम् / तथा यथाऽवधिज्ञानं प्रत्यक्षं तथा मनःपर्यायज्ञानमपि इति प्रत्यक्षत्वसाधर्म्यम् / उक्तं च कालविवज्जयसामित्तलामसाहम्मओऽवही तत्तो / माणसमित्तो छउमत्थविसयभावाइसाहम्मा // (विशे० गा० 87) तथा मनःपर्यायज्ञानानन्तरं केवलज्ञानस्योपन्यासः, सर्वोत्तमत्वाद् अप्रमत्तयतिखामिसापउत् सर्वावसाने लाभाच / तथाहि-सर्वाण्यपि मतिज्ञानादीनि ज्ञानानि देशतः परिच्छेदकानि, केवलज्ञानं तु सकलवस्तुस्तोमपरिच्छेदकं सर्वोत्तमम् , सर्वोत्तमत्वाच्चान्ते सर्वशिरःशेखरकल्पमुपन्यस्तम् / तथा यथा मनःपर्यवज्ञानमप्रमत्तयतेरेवोत्पद्यते तथा केवलज्ञानमपि इत्यप्रमत्तयतिखामिसाधर्म्यम् / तथा यः सर्वाण्यपि ज्ञानानि समासादयितुं योग्यः स नियमात् सर्वज्ञानावसाने केवलज्ञानमवामोति, ततः सर्वान्ते केवलमुक्तम् / उक्तं च 'अंते केवलमुत्तमजइसामित्तावसाणलामाओ // (धर्मसं० गा० 85) इति // व्याख्यातानि नामसंस्कारमात्रेण पञ्चापि ज्ञानानि / अथामून्येव सविस्तरं . व्यारिल्यामुः प्रथमं मतिज्ञानं प्रकटयन्नाह-"तत्य मइनाणं" इत्यादि / 'तत्र' तेषु पञ्चसु ज्ञानेषु मतिज्ञानमष्टाविंशतिभेदं भवतीत्युत्तरगाथायां सम्बन्धः / इह किल द्वेधा मतिज्ञानम्-श्रुतनिश्रितमश्रुतनिश्रितं च / तत्र च यत् प्रायः श्रुताभ्यासमन्तरेणापि सहजविशिष्टक्षयोपशमवशादुत्पद्यते तद् अश्रुतनिश्रितमौत्पत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयम् , यदाह श्रीदेवर्द्धिवाचक: 1 लक्षणमेदाद् हेतुफलभावतो भेदेन्द्रियविभागात् / वल्काक्षरमूकेतरमेदाढ़ेदो मतिश्रुतयोः // २°लो मतिश्रुतयोरिवावधि ग०3०॥३ कालविपर्ययखामित्वलाभसाधर्म्यतोऽवधिः ततः। मानसं (मनःपर्याय) इतः छद्मस्थविषयभावादिसाधर्म्यात् // 4 °कल्पे उप° क० घ००॥ 5 अन्ते केवलमुत्तमयतिखा. मित्वानसानलाभात् // Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा.प्रथमः कर्मग्रन्थः / ___ 'से किं तं मइनाणं ! मइनाणं दुविहं पन्नतं, तं जहा-सुयनिस्सियं च अस्सुयनिस्सियं च / से किं तं अस्सुयनिस्सियं ! अस्सुयनिस्सियं चउविहं पन्नतं, तं जहा उप्पत्तिया वेणइया, कम्मिया परिणामिया / बुद्धी चउबिहा वुत्ता, पंचमा नोवलब्भई // (नन्दी पत्र.१४४-१) तत्रौत्पत्तिकी बुद्धिर्यथा रोहकस्य / वैनयिकी बुद्धिः पददर्शनात्करिण्यादिज्ञायकच्छात्रस्येव / कर्मजा कर्षकस्येव / पारिणामिकी श्रीवज्रस्वामिन इव / यत्तु पूर्व श्रुतपरिकर्मितमतेर्व्यवहारकाले पुनरश्रुतानुसारितया समुत्पद्यते तत् श्रुतनिश्रितम् / यदुक्तं श्रीविशेषावश्यके पुँवं सुयपरिकम्मियमइस्स जं संपयं सुयाईयं / तं निस्सियमियरं पुण अणिस्सियं मइचउक्कं तं // (विशे० गा० 169) तञ्चतुर्धा भवति, तद्यथा-अवग्रह ईहा अपायः धारणा / यदाह "से किं तं सुयनिस्सियं मइनाणं ! सुयनिस्सियं मइनाणं चउव्विहं पन्नतं, तं जहाउग्गहो ईहा अवाए धारणा // (नन्दी पत्र 168-1) पुनरवग्रहो द्वेधा-व्यञ्जनावग्रहः अर्थावग्रहश्च / आह च से किं तं उग्गहे ? उग्गहे दुविहे पर्नते, तं जहा-वंजणुग्गहे अत्युग्गहे य // (नन्दी पत्र 168-2) तत्र व्यज्यते-प्रकटीक्रियतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनम् / आह च जिजइ जेणत्यो घडु व दीवेण वंजणं तं च / (विशे० गा० 194) तच्चोपकरणेन्द्रियं कदम्बपुष्पातिमुक्तकपुष्पक्षुरप्रनानाकृतिसंस्थितश्रोत्रघ्राणरसनस्पर्शनलक्षणं शब्दगन्धरसस्पर्शपरिणतद्रव्यसङ्घातो वा / ततश्च व्यञ्जनेनोपकरणेन्द्रियेण व्यञ्जनानां शब्दा. दिपरिणतद्रव्याणामवग्रहणं परिच्छेदनमेकस्य व्यञ्जनशब्दस्य लोपाव्यञ्जनावग्रहः,, किमपीदमित्यव्यक्तज्ञानरूपार्थावग्रहादधोऽव्यक्ततरं ज्ञानमित्यर्थः / अयं चतुर्धा / यदाह सूत्रकृत्"वंजणवग्गहु चउह" ति स्पष्टम् / चातुर्विध्यमेव भावयति-"मणनयणविणिंदियचउक्क"ति मनश्च मानसं नयनं च लोचनं मनोनयने, मनोनयने विना मनोनयनविना, "नाम नाम्नैकायें समासो बहुलम्" (सि० 3-1-18) इति समासः / इन्द्रियाणां चतुष्कमिन्द्रियचतुष्कं तस्माद् इन्द्रियचतुष्कात्, अत्र “गम्ययपः कर्माधारे" (सि० 2-2-71) इति पञ्चमी / मनोनयनवर्जमिन्द्रियचतुष्कमाश्रित्य व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्धा भवतीति भावार्थः। अथ किं तद् मतिज्ञानम् , मतिज्ञानं द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-श्रुतनिधितं चाश्रुतनिश्रितं च / अब कि तदश्रुतनिधितम् ? अश्रुतनिधितं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-औत्पत्तिकी वैनयिकी, कर्मजा पारिणामिकी। बुदिचतुर्विधा प्रोका, पश्चमी नोपलभ्यते ॥२°पारि० ख० ग०॥ 3 पूर्व श्रुतपरिकर्मितमतेर्यत् साम्प्रतं श्रुतातीतं / तद् निश्रितमितरत् पुनरनिश्रितं मतिचतुष्कं तत् // 4 अथ किं तत् श्रुतनिधितं मविज्ञानम् / श्रुतनित्रितं मतिज्ञानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-अवग्रह ईहा अपायः धारणा // 5 अथ कोऽसाववप्रहः? अवअहो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-व्यञ्जनावग्रहोऽर्थावग्रहश्च // ६°चत्ते वंजक०ग०॥७व्यज्यते येनार्यः घट इस दीपेन व्यजनं तच // 8 कचन्द्रक्षुक० / कपुष्पचन्द्रक्षु घ०3०॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा उक्तं च नन्यध्ययने से किं तं वंजणुग्गहे ! वंजणुग्गहे चउबिहे पन्न, तं जहा-सोइंदियवंजणुग्गहे पाणिदियवंजणुग्गहे रसणिंदियवंजणुग्गहे फासिंदियवंजणुग्गहे // (नन्दी पत्र 169-2) मनोनयनयोर्वर्जनं किमर्थम् ! इति चेद् उच्यते-मनोनयनयोरप्राधकारित्वात् , अप्राप्तकारित्वं च विषयकृतानुग्रहोपघातशून्यत्वात् , प्राप्तकारित्वे पुनरनलजलशल्यादीनां चिन्तनेडवलोकने च दहनक्लेदनपाटनादयः स्युः / अत्र च विषयदेशं गत्वा न पश्यति, प्राप्तं चार्थ नालम्बत इत्येतावनियम्यते, मूर्तिमता पुनः प्राप्तेन भवत एवानुग्रहोपघातौ दिनकरकिरणादिनेति / __ अन्यस्त्वाह-व्यवहितार्थानुपलब्धेरनुमानात् प्राप्तकारित्वं लोचनस्येति, एतदयुक्तम् , अनैकान्तिकत्वात् , काचाम्रपटलस्फटिकान्तरितस्याप्युपलब्धेः / स्यादेतत् , नायना रश्मयो निर्गत्य तमर्थ गृहन्तीति दर्शनरश्मीनां तैजसत्वात् तेजोद्रव्यैरप्रतिस्खलनाददोष इति, एतदप्ययुक्तम्, महाज्वालादौ प्रतिस्खलनोपलब्धेरित्यत्र बहु वक्तव्यम् तत्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनताप्रसन्नात् / व्यञ्जनावग्रहस्य च कालो जघन्य आवलिकासख्येयभागतुल्यः, उत्कृष्ट आनप्राणपृथक्त्वम् / उक्तं च वणवग्गहकालो, आवलियअसंखभागतुल्लो उ / थोवो उक्कोसो पुण, आणापाणप्पहुत्तं ति // इति // 4 // उक्तश्चतुर्धा व्यञ्जनावग्रहः / अथार्थावग्रहादीन् व्याचिख्यासुराह अत्थुग्गहइंहावायधारणा करणमाणसहि छहा / . इय अहवीसभेयं, चउदसहा वीसहा व सुयं // 5 // अर्यत इत्यर्थस्तस्य शब्दरूपादिभेदानामन्यतरेणापि भेदेनानिर्धारितस्य सामान्यरूपस्सावनहणमर्थावग्रहः, किमपीदमित्यव्यक्तज्ञानमित्यर्थः / स च करणमानसैः षोढा भवति, तत्र करणानि चेन्द्रियाणि पञ्च मानसं च मनः करणमानसानि तैः करणमानसैः कृत्वा / इदमुक्त भवति-श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः 1 चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रहः 2 प्राणेन्द्रियार्थावग्रहः 3 रसनेन्द्रियार्थावग्रहः 4 स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रहः 5 मानसार्थावग्रहः 6 इति पोदाऽर्थावग्रहः / तथाऽवगृहीतस्यैव वस्तुनः 'किमयं भवेत् स्थाणुरेव ! न तु पुरुषः' इत्यादिवस्तुधर्मान्वेषणात्मकं ज्ञानचेष्टनमीहा, ईहनमीहेति कृत्वा।। अरण्यमेतत् सविताऽस्तमागतो, न चाधुना सम्भवतीह मानवः / प्रायस्तदेतेन खगादिभाजा, भाव्यं सरारातिसमाननाम्ना // इत्याचन्वयधर्मघटनव्यतिरेकघर्मनिराकरणाभिमुखतालिजितो ज्ञानविशेष ईहेति हृदयम् / साऽपि करणमानसैः षोदैव / तथा ईहितस्यैव वस्तुनः स्थाणुरेवायमिति निश्चयात्मको बोधविशेषोऽपायः, अयमपि करणमानसैः षोढा / तथा निश्चितस्यैवाविच्युतिस्मृतिवासनारूपं धरणं - 1 अथ कोऽसौ व्यजनावग्रहः? व्यञ्जनावग्रहश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-श्रोत्रेन्द्रियव्यजनावप्रहो घ्राणेन्द्रियव्यजनावग्रहो रसनेन्द्रियव्यजनावग्रहः सर्गेन्द्रियव्यजनावग्रहः // 2 व्यजनावग्रहकाल आवलिकासयभागतुत्यस्तु / खोक उत्कृष्टः पुनरानप्राणपृथक्त्वमिति // 3 स्थाणुनानेत्यर्थः॥. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * 5] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्यः / धारणा / साऽपि करणमानसैः षोढैव / अर्थावग्रहादीनां च कालप्रमाणमिदम् उंग्गह एक समय, ईहाऽवाया मुहुत्तमद्धं तु / ___ कालमसंखं संखं, च धारणा होइ नायवा // (आ० नि० गा० 1) इति / पूर्वोक्तप्रकारेणार्थावग्रहादीनां चतुणों प्रत्येकं षड्डियत्वात् व्यञ्जनावग्रह मेदचतुष्टयेन सह श्रुतनिश्रितं मतिज्ञानमष्टाविंशतिभेदं भवति / अश्रुतनिश्रितेन त्वौत्सत्तिक्यादिबुद्धिचतुष्टयेन सह द्वात्रिंशद्भेदं भवति / जातिसरणमपि समतिक्रान्तसङ्ख्यातभवावगमखरूपं मतिज्ञानभेद एव / तथा चाचाराङ्गटीका जातिसरणं त्वामिनिबोधिकविशेषः // (पत्र 20-1) अथवा "बहुश्बहुविधर क्षिप्रा३ऽनिश्रिताऽसन्दिग्ध५६वाणां 6 सेतराणाम्" (तत्त्वा० अ० 1 0 16) इति वचनादष्टाविंशतिरपि द्वादशधा भिद्यते / तथाहि-बहूनामपि श्रोतणामविशेषेण प्राप्तिविषयस्थेऽपि शङ्खभेर्यादितूर्यसमुदाये क्षयोपशमवैचित्र्यात् कश्चिदवग्रहादिभिर्बहु गृह्णाति, एकहेलास्फालितानामपि शङ्खमेर्यादितूर्याणां पृथक् पृथक् शब्दं गृहातीत्यर्थः 1 / अपरस्त्वबहु गृहाति, अव्यक्ततूर्यध्वनिमेवोपलभत इत्यर्थः 2 / अन्यस्तु योषिदादिवाद्यमानतामधुरमन्द्रत्वादिबहुपर्यायोपेतान् शङ्खादिध्वनीन् पृथक् पृथग् जानातीति बहुविधग्राहीत्युच्यते 3 / एकद्विपर्यायोपेतांस्तु तानेव जानानोऽबहुविधग्राही 4 / अन्यस्तु क्षिप्रमचिरेणार्थ जानाति 5 / अन्यस्तु विमृश्य चिरेणेति 6 / अन्यस्त्वनिश्रितमलिङ्गं गृह्णाति न पुनः पताकयेव देवकुलम् 7 / अपरस्तु पताकया देवकुलमिव लिननिश्रया गृह्णाति 8 / यद् असंशयं गृह्णाति तद् असन्दिग्धम् 9 / संशयोपेतं तु यद् गृहाति तत् सन्दिग्धम् 10 / यद् एकदा गृहीतं तत् सर्वदैवावश्यं गृहाति न पुनः कालान्तरे तद्हणे परोपदेशादिकमपेक्षते तद् ध्रुवम् 11 / यत् पुनः कदाचिदेव गृहाति न सर्वदा तद् अध्रुवम् 12 / एवमेतै‘दशभिर्भेदैरवग्रहादयः पूर्वोक्तभेदयुक्ता वस्तु गृहन्तीत्यष्टाविंशत्या द्वादशभिर्गुणितया त्रीणि शतानि षट्त्रिंशदधिकानि भवन्ति / यदाह भाष्यपीयूषपयोधिः जं बहुबहुविहखिप्पानिस्सियनिच्छियधुवेयरविभत्ता / पुणरुग्गहादओ तो, तं छत्तीसं तिसयमेयं // नाणासद्दसमूह, बहुं पिहं मुणइ भिन्नजाईयं / बहुविहमणेगभेयं, इक्विकं निद्धमहुराई // खिप्पमचिरेण तं चिय, सरूवओ तं अणिस्सियमलिंगं / . निच्छियमसंसयंज, धुवमचंतं न य कयाई / / (विशे० गा० 307-9) १भवग्रह एकं समयमीहाऽपायौ मुहूर्तमध्यं (मिन्नमुहूर्त) तु / कालमसङ्ख्यातं सद्ध्यातं च धारणा भवति ज्ञातव्या // 2 °न् पृथग जाक० ख० ग००३ °श्य विमृश्य चि० ख० घ०७०॥ 4 यद् बहुबहुविधक्षिप्रानिधितनिश्चितध्वेतरविभक्काः। पुनरवग्रहादयोऽतवत् षत्रिंशत्रिशतमेदम् // 5 नानाशब्दसमूहं बहं पृथग जानाति भिन्नजातिकम् / बहुविधमनेकमेदमेकैकं स्निग्धमधुरादिं॥ नाणं सरक० ख००० रु०॥ क्षिप्रमचिरेण तचैव खरूपतः तदनिश्रितमलिगम् / निश्चितमसंशयं यद् ध्रुवमत्सन्तं न च कदाचित् // Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा अश्रुतनिश्रितबुद्धिचतुष्टयेन सह चत्वारिंशदधिकानि त्रीणि शतानि मतिज्ञानस्य मेदानां भवन्ति / यद्वा मतिज्ञानं चतुर्विधं द्रव्यक्षेत्रकालभावभेदात् / यदाहुर्निर्दलिताज्ञानसम्भारप्रसराः श्रीदेवर्द्धिवाचकवराः 'त समासओ चउविहं पन्न, तं जहा-दव्वओ खेतओ कालओ भावओ / दवओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सबदवाई जाणइ न पासइ / खिचओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सवं खितं जाणइ न पासइ / कालओणं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सबकालं जाणइ न पासइ / भावओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सबभावे जाणइ न पासइ / (नन्दी पत्र 183-2) इति / व्याख्यातं सप्रपञ्चं मतिज्ञानम् / साम्प्रतं श्रुतज्ञानं व्याचिख्यासुराह-"चउदसहा वीसहा व सुयं"ति 'श्रुतं' श्रुतज्ञानं 'चतुर्दशधा' चतुर्दशमेदं 'विंशतिधा' विंशतिप्रकारं वा भवतीति // 5 // तत्र प्रथमं श्रुतस्य चतुर्दश मेदान् व्याख्यानयनाह __ अक्खर सन्नी सम्म, साईअं खलु सपज्जवसियं च / गमियं अंगपविटं, सत्त वि एए सपडिवक्खा // 6 // इह श्रुतशब्दः पूर्वगाथातः सम्बध्यते / ततोऽक्षरश्रुतं 1 संज्ञिश्रुतं 2 सम्यक्श्रुतं 3 सादिश्रुतं 4 सपर्यवसितश्रुतं 5 गमिकश्रुतम् 6 अङ्गप्रविष्टश्रुतम् 7 इत्येते सप्त भेदाः सपतिपक्षाः श्रुतस्य चतुर्दश मेदा भवन्ति / तथाहि-अक्षरश्रुतप्रतिपक्षम् अनक्षरश्रुतम् 1 एवमसंज्ञिश्रुतं 2 मिथ्याश्रुतम् 3 अनादिश्रुतम् 4 अपर्यवसितश्रुतम् 5 अगमिकश्रुतम् 6 अङ्ग- . बाह्यश्रुतम् 7 इति / तत्राक्षरं विधा-संज्ञाव्यञ्जनलब्धिभेदात् / उक्तं च "तं सन्नावंजणलद्धिसन्नियं तिविहमक्खरं भणियं / सुबहुलिविभेयनिययं, सन्नक्खरमक्खरागारो // (विशे० गा० 464) सुबहयो या एता अष्टादश लिपयः श्रूयन्ते, तथाहिहंसेलिवी 1 भूयलिवी 2, जक्खी 3 तह रक्खसी 4 य बोधवा / . उड्डी 5 जवणि 6 तुरुक्की 7, कीरी 8 दविडी 9 य सिंघविया 10 // . मालविणी 11 नडि 12 नागरि 13, लाडलिवी 14 पारसी 15 य बोधवा / तह अनिमित्तीय 16 लिवी, चाणक्की 17 मूलदेवी य 18 // १°ववाचक क० उ०॥ 2 तत् समासतश्चतुर्विध प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः। द्रव्यतः णमिति वाक्यालङ्कारे (एवं सर्वत्र) आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन सर्वद्रव्याणि जानाति न पश्यति / क्षेत्रतः आभिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन सर्व क्षेत्रं जानाति न पश्यति / कालतः आमिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन सर्व कालं जानाति न पश्यति / भावतः आमिनिबोधिकज्ञानी आदेशेन सर्वान् भावान् जानाति न पश्यति॥. 3 °कार भवक०ख०ग०॥४तत् संज्ञाव्यजनलब्धिसंज्ञिक त्रिविधमक्षरं भणितम् / सुबहुलिपिमेदनियतं संज्ञाक्षरमक्षराकारः॥५ हंसलिपिभूतलिपियक्षी तथा राक्षसी च बोद्धव्या। औड़ी यवनी तुरुष्की कीरी द्राविडी च सिन्धविका // 6 पुरुक्की क०ख०ग०3०॥ मालविनी नटी नागरी लाटलिपिः पारसी च बोदव्या / तथाऽनिमित्तिका लिपिचाणक्या मूलदेवी च // Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / 15 ___ व्यञ्जनाक्षरमकारादि हकारपर्यन्तमुच्यते / तदेतवितयमईनात्माकमपि श्रुतकारणत्वादुपचा- . रेण श्रुतम् / लब्ध्यक्षरं तु शब्दश्रवणरूपदर्शनादेरर्थप्रत्यायनगर्भाऽक्षरोपलब्धिः / यदाह जो अक्खरोवलंभो, सा लद्धी तं च होइ विनाणं / / इंदियमणोनिमितं, जो आवरणक्खओवसमो // (विशे० गा० 466) ततोऽक्षरैरभिलाप्यभावानां प्रतिपादनप्रधानं श्रुतमक्षरश्रुतम् 1 / नन्वनभिलाप्या अपि किं केचिद्भावाः सन्ति, येनैक्मुच्यतेऽमिलाप्यभावानां प्रतिपादनप्रधानं श्रुतम् ! इति, उच्यतेसन्त्येव / यदाहुः श्रीपूज्याः पेण्णवणिज्जा भावा, अणंतभागो उ अणमिलप्पाणं / पण्णवणिज्जाणं पुण, अणंतमागो सुयनिबद्धो॥ जं चउदसपुवधरा, छट्ठाणगया परुप्परं हुंति / तेण उ अणंतभागो, पण्णवणिज्जाण जं सुकं // अक्खरलंभेण समा, ऊणहिया हुंति मइविसेसेणं / / ते वि हु मईविसेसा, सुयनाणमंतरे जाण (विशे० गा० 141-13) अनक्षरश्रुतं श्वेडितशिरःकम्पनादिनिमित्तं मामाह्वयति वारयति वेत्यादिरूपमभिप्रायपरिज्ञानम् 21 तथा संज्ञिश्रुतं तत्र संज्ञानं संज्ञा "उपसर्गादातः" (सि० 5-3-110) इत्यप्रत्ययः / सा च त्रिविधा-दीर्घकालिकी हेतुवादोपदेशिकी दृष्टिवादोपदेशिकी। यदाह भाष्यसुधाम्भोनिधिः ईंह दीहकालिगी कालिगि त्ति सन्ना जया सुदीहं पि। संभरइ भूयमिस्स, चिंतेइ य किह णु कायवं // (विशे० गा० 508) "जे पुण संचिंतेडे, इट्टाणिढेसु विसयवत्थूसु / वर्द्दति नियत्तंति य, सदेहपरिवालणाहेउं / पाएण संपयं चिय, कालम्मि न यावि दीहकालंजा / ते हेउवायसन्नी, निचिट्ठा हुंति अस्सण्णी // सम्मदिही सन्नी, संते नाणे खओवसमियम्मि। अस्सण्णी मिच्छत्तम्मि दिट्ठिवाओवएसेणं // (विशे० गा० 515-17) योऽक्षरोपलम्भः सा लब्धिस्तच भवति विज्ञानम् / इन्द्रियमनोनिमित्तं य आवरणक्षयोपशमः // 2 प्रज्ञापनीया भावा अनन्तभागस्वनमिलाप्यानाम् / प्रज्ञापनीयानां पुनरनन्तभागः श्रुतनिबद्धः // 3 यच्चतुर्दशपूर्वधराः षट्स्थानगताः परस्परं भवन्ति / तेन खनन्तभागः प्रज्ञापनीयानां यत् सूत्रम् // 4 वृत्तं क०१०॥ 5 अक्षरलम्मेन समा ऊनाधिका भवन्ति मतिविशेषैः / तानपि तु मतिविशेषान् श्रुतज्ञानाभ्यन्तरे जानीहि // ह दीर्घकालिकी कालिकीति संज्ञा यया सुदीर्घमपि / संस्मरति भूतमेष्यत् चिन्तयति च कथं नु कत. ध्यम // 7 ये पुनः सञ्चिन्य इष्टानिष्टेषु विषयवस्तुषु / वर्तन्ते निवर्तन्ते च खदेहपरिपालनाहेतोः॥ 8 प्रायेण साम्प्रतमेव काले न चापि दीर्घकालज्ञाः। ते हेतुवादसंझिनः निश्चेष्य भवन्ति असंज्ञिनः // 9 कालनाक०॥१.सम्यग्दृष्टिः संज्ञी सति ज्ञाने क्षायोपशमिके। मसंही मिथ्यात्वे दृष्टिवादोपदेशेन.॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपैतः [गाथा ततश्च संज्ञा विद्यते येषां ते संज्ञिनः, परं सर्वत्राप्यागमे ये दीर्घकालिक्या संज्ञया संज्ञिनस्ते संज्ञिन उच्यन्ते, ततः संज्ञिनां श्रुतं संज्ञिश्रुतम् समनस्कानां मनःसहितैरिन्द्रियैर्जनितं / श्रुतं संज्ञिश्रुतमिति भावः 3 / मनोरहितेन्द्रियजं श्रुतमसंज्ञिश्रुतम् 4 / तथा सम्यग्दृष्टरर्हत्यणीतं मिथ्यादृष्टिप्रणीतं वा यथाखरूपमवगमात् सम्यक्श्रुतम् 5 / मिथ्यादृष्टेः पुनरर्हप्रणीतमितरद्वा मिथ्याश्रुतं, यथाखरूपमनवगमात् 6 / __ आह-मिथ्यादृष्टेरपि मतिश्रुते सम्यग्दृष्टेरिव तदावरणकर्मक्षयोपशमसमुद्भवे सम्यग्दृष्टेरिव पृथुबुध्नोदराद्याकारं घटादिकं च संविदाते, तत् कथं मिथ्यादृष्टेरज्ञाने ?. उच्यते-सदसद्विवेकपरिज्ञानाभावात् / तथाहि-मिथ्यादृष्टिः सर्वमप्येकान्तपुरःसरं प्रतिपद्यते, न भगवदुतस्याद्वादनीत्या; ततो घट एवायमिति यदा ब्रूते तदा तस्मिन् घटे घटपर्यायव्यतिरेकेण शेषान् सत्त्वज्ञेयत्वप्रमेयत्वादीन् सतोऽपि धर्मानपलपति, अन्यथा घट एवायमित्येकान्तेनावधारणानुपपत्तेः; घटः सन्नेवेति ब्रुवाणः पररूपेण नास्तित्वस्यानभ्युपगमात् पररूपतामसतीमपि तत्र प्रतिपद्यते; ततः सन्तमसन्तं प्रतिपद्यतेऽसन्तं च सन्तमिति सदसद्विशेषपरिज्ञानाभावादज्ञाने मिथ्यादृष्टेमतिश्रुते / इतश्च ते मिथ्यादृष्टेरज्ञाने, भवहेतुत्वात् / तथाहि-मिथ्यादृष्टीनां मतिश्रुते पशुवधमैथुनादीनां धर्मसाधकत्वेन परिच्छेदके, ततो दीर्घतरसंसारपथप्रवर्तिनी / तथा यदृच्छोपलम्भादुन्मत्तकविकल्पवत् / तथाहि-उन्मत्तकविकल्पा वस्त्वनपेक्ष्यैव यथाकथञ्चित् प्रवर्तन्ते; यद्यपि च ते कचिद्यथावस्थितवस्तुसंवादिनस्तथापि सम्यग्यथावस्थितवस्तुतत्त्वपर्यालोचनाविरहेण प्रवर्तमानत्वात् परमार्थतोऽपारमार्थिकाः; तथा मिथ्यादृष्टीनां मतिश्रुते यथावद्वस्त्वविचार्यैव प्रवर्तेते, ततो यद्यपि ते कचिद्रसोऽयं स्पर्शोऽयमित्यादाववधारणाध्यवसायाभावे संवादिनी तथापि न ते स्याद्वादमुद्रापरिभावनातस्तथाप्रवृत्ते, किन्तु यथाकथञ्चित्, अतस्ते अज्ञाने / तथा ज्ञानफलाभावात् , ज्ञानस्य हि फलं हेयस्य हानिरुपादेयस्य चोपादानम् , न च संसारात् परं किञ्चन हेयमस्ति, न च मोक्षात् परं किञ्चिदुपादेयम्, ततो भवमोक्षावेकान्तेन हेयोपादेयौ, भवमोक्षयोश्च हान्युपादाने सर्वसङ्गविरतेर्भवतः, ततः साऽवश्यं तत्त्ववेदिना कर्तव्या, सैव च तत्त्वतो ज्ञानस्य फलम् / तथा चाह भगवानुमाखातिवाचक: ज्ञानस्य फलं विरतिः, (प्रशम० पद्य० 72) इति / सा च मिथ्यादृष्टेर्नास्तीति ज्ञानफलाभावावज्ञाने मिथ्यादृष्टेर्मतिश्रुते / यदाह भाष्यसुधाम्भोनिधिः सदसदविसेसणाओ, भवहेउ जहिच्छिओवलंभाओ। नाणफलाभावाओ, मिच्छदिद्विस्स अन्नाणं // (विशे० गा० 115) इति / तथा "साईयं 7 सपज्जवसिय 8 अणाईयं 9 अपज्जवसिय 10 इच्चेयं दुवालसंग वुच्छित्तिनयट्ठयाए साईयं सपज्जवसियं, अवुच्छित्तिनयट्टयाए अणाईयं अपज्जवसियं, तं समासओ चउ सदसदविशेषणाद्भवहेतुतो यहच्छोपलम्भात् / ज्ञानफलाभावान्मिथ्यादृष्टरज्ञानम् // 2 सादिकं 7 सपर्यबसितम् 8 अनादिकम् 9 अपर्यवसितम् 10 इत्येतत् द्वादशाहं व्युच्छित्तिनयार्थतया सादिकं सपर्यवसितम्, भम्युच्छित्तिनयार्थतयाऽनादिकमपर्यवसितम्, तत् समासतश्चतुर्विध प्रजप्तम् , तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः- कालतो Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / 17 विहं पन्नतं, तं जहा-दबओ खित्तओ कालो भावओ। दवओणं सम्मसुयं एगं पुरिसं पडुच्च साईयं सपज्जवसियं, बहवे पुरिसे पडुच अणाईयं अपज्जवसियं / खित्तओ णं पंच भरहाई पंच एरवयाइं पडुच्च साईयं सपज्जवसियं, पंच महाविदेहाई पडुच्च अणाईयं अपजवसियं / कालओ णं उस्सप्पिणि अवसप्पिणिं च पडुच्च साईयं सपज्जवसियं, नोउस्सप्पिणिं नोअवसप्पिणिं च पडुच्च अणाईयं अपज्जवसियं"। नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी चेति कालो महाविदेहेषु ज्ञेयः, तत्रोत्सर्पिण्यवसर्पिणीलक्षणकालाभावात् / "भावओ णं जे जया जिणपन्नचा भावा आधविज्जति पण्णविजंति परूविजंति दंसिज्जति निदंसिज्जंति ते वया पडुच्च साईयं सपजवसियं, खाओवसमियं पुण भावं पडुच्च अणाईयं अपजवसियं, अहवा भवसिद्धियस्स सुयं साईयं सपज्जवसियं"। केवलज्ञानोत्पत्तौ तदभावात् , "नट्ठम्मि उ छाउमच्छिए नाणे" (आ० नि० गा० 539) इति वचनात् / “अभवसिद्धियस्स सुयं अणाईयं अपज्जवसियं"। (नन्दी पत्र 195-1) / इह च सामान्यतः श्रुतशब्देन श्रुतज्ञानं श्रुताज्ञानं चोच्यते / यदाह अविसेसियं सुयं सुयनाणं सुयअन्नाणं च / / तथा गमाः-सदृशपाठास्ते विद्यन्ते यत्र तद् गमिकम् , “अतोऽनेकखरात्" (सि०७-२-६) इति इक्प्रत्ययः, तत् प्रायो दृष्टिवादगतम् 11 / अगमिकम्-असदृशाक्षरालापकम् , तत् मायः कालिकश्रुतगतम् 12 / अङ्गप्रविष्टं द्वादशाङ्गीरूपम् 13 / तथाहि अट्ठारस पयसहसा, आयारे 1. दुगुण दुगुण सेसेसु / सूयगड 2 ठाण 3 समवाय 4 भगवई.५ नायधम्मकहा 6 // अंग उवासगदसा 7, अंतगड 8 अणुत्तरोववाइदसा 9 / / पन्हावागरणं तह 10, विवायसुयमिगदसं अंगं 11 // . परिकम्म 1 सुत्त 2 पुधाणुओग 3 पुवगय 4 चूलिया 5 एवं / पण दिट्टिवायभेया, चउदस पुवाइं पुषगयं // उप्पाए 1 पयकोडी, अग्गाणीयम्मि छन्नवइलक्खा / विरियपवाए 3 अस्थिप्पवाइ 1 लक्खा सयरि सट्ठी // भावतः / द्रव्यतः सम्यक्श्रुतं एक पुरुषं प्रतीत्य सादिकं सपर्यवसितम् , बहून् पुरुषान् प्रतीत्यानादिकमपर्यबसितम् / क्षेत्रतः पञ्च भरतानि पररवतानि प्रतीत्य सादिकं सपर्यवसितम्, पञ्च महाविदेहानि प्रतीत्यानादिकमपर्यवसितम् / कालत उत्सर्पिणीमवसर्पिणी च प्रतीत्य सादिकं सपर्यवसितम् , नोउत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी च प्रतीत्यानादिकमपर्यवसितम् / भावतो ये यदा जिनप्रज्ञप्ता भावा आख्यायन्ते प्रज्ञाप्यन्ते प्ररुप्यन्ते दयन्ते निदर्श्यन्ते, तान् तदा प्रतीत्य सादिकं सपर्यवसितम् , क्षायोपशमिकं पुनर्भावं प्रतीत्यानादिकमपर्यवसितम् / अथवा भवसिद्धिकस्य श्रुतं सादिकं सपर्यवसितम् / नष्टे तु छानस्थिके ज्ञाने / अभवसिद्धिकस्य श्रुतमनादिकमपर्यवसितम् // 1 अविशेषितं श्रुतं श्रुतज्ञानं श्रुताशानं च // 2 अष्टादश पदसहस्राणि आचारे 1 द्विगुणद्विगुणानि शेषेषु / सूत्रकृतरस्थान ३समवाय भगवती५शाताधर्मकथाः 6 // मामुपासकदशाऽन्तकृअनुत्तरोपपातिकदशाः 9 / प्रश्नव्याकरणं 10 तथा विपाकश्रुतमेकादशमनम् 11 // परिकर्मीसूत्ररपूर्वानुयोग३पूर्वगतचूलिका 5 एवम् / पञ्च दृष्टिवादमेदाश्चतुर्दश पूर्वाणि पूर्वगतम् // उत्पादे 1 पदकोटी अप्राणीये 2 षण्णवविलक्षाः। वीर्यप्रवादे 3 अस्तिप्रवादे 4 लक्षाः सप्ततिः षधिः॥३ अग्गेणीय°क० ख० ग०॥ क०३ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा ऐगपऊणा कोडी, पयाण नाणप्पवायपुवम्मि 5 / सच्चप्पवायपुबे 6, एगा पयकोडि छच्च पया // छवीसं पयकोडी, पुवे आयप्पवायनामम्मि 7 / कम्मप्पवायपुवे 8, पयकोडी असिइलक्खजुया // पञ्चक्खाणभिहाणे 9, पुवे चुलसीइ पयसयसहस्सा / दसपयसहसजुया पयकोडी विजापवायम्मि 10 // कल्लाणनामधिजे 11, पुवम्मि पयाण कोडि छवीसा। छप्पन्नलक्खकोडी, पयाण पाणाउपुबम्मि 12 // किरियाविसालपुवे 13, नव पयकोडीउ बिति समयविऊ / सिरिलोकबिन्दुसारे 14, सट्टदुवालस य पयलक्खा // अङ्गबाह्यश्रुतम् आवश्यकदशवैकालिकादि 14 इति // 6 // व्याख्यातं चतुर्दशधा श्रुतम् / सम्प्रति विंशतिधा श्रुतं व्याख्यानयन्नाह पजयअक्खर २पय३संघाया४ पडिवत्ति५ तह य अणुओगो। ' पाहुडपाहुडपाहुड८वत्थूपुवा१० य ससमासा // 7 // पर्यायश्च अक्षरं च पदं च सङ्घातश्च पर्यायाक्षरपदसङ्घाताः / “पडिवत्ति" ति प्रतिपत्तिः, प्राकृतत्वात् लुप्तविभक्तिको निर्देशः / तथा च 'अनुयोगः' अनुगद्वारलक्षणः / प्राभृत• . प्राभृतं च प्राभृतं च वस्तु च पूर्वं च प्राभृतप्रामृतप्राभृतवस्तुपूर्वाणि / प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययः / यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे-“लिङ्गं व्यभिचार्यपि" / 'चः' समुच्चये। एते पर्यायादयः श्रुतस्य दश भेदाः कथम्भूताः ? इत्याह-"ससमास"त्ति समासः-संक्षेपो मीलक इत्यर्थः, सह समासेन वर्तन्ते ससमासास्ततश्च प्रत्येकं सम्बन्धः / तथाहि-पर्यायः पर्यायसमासः, अक्षरम् अक्षरसमासः, पदं पदसमासः, सङ्घातः सङ्घातसमासः, प्रतिपत्तिः प्रतिपत्तिसमासः, अनुयोगः अनुयोगसमासः, प्राभृतप्राभृतं प्राभृतप्राभृतसमासः, प्राभृतं प्राभृतसमासः, वस्तु वस्तुसमासः, पूर्व पूर्वसमास इति विंशतिधा श्रुतं भवतीति गाथाक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्पर्यायो ज्ञानस्यांशो विभागः पलिच्छेद इति पर्यायाः / तत्रैको ज्ञानांशः पर्यायः, अनेके तु ज्ञानांशाः पर्यायसमासः / एतदुक्तं भवति-लब्ध्यपर्याप्तस्य सूक्ष्मनिगोदजीवस्य यत् सर्वजघन्यं श्रुतमात्रं तस्मादन्यत्र जीवान्तरे य एकः श्रुतज्ञानांशोऽविभागपलिच्छेदरूपो वर्धते स पर्यायः 1 / ये तु यादयः श्रुतज्ञानाविभागपलिच्छेदा नानाजीवेषु वृद्धा लभ्यन्ते ते समुदिताः पर्यायसमासः 2 / अकारादिलब्ध्यक्षराणामन्यतरदक्षरम् 3 / तेषामेव धादिसमुदायोऽक्षरसमासः 4 / पदं 1 एकपदोना कोटी पदानां ज्ञानप्रवादपूर्वे 5 / सत्यप्रवादपूर्वे 6 एका पदकोटी षट् च पदानि // षडिंशतिः पदकोटी पूर्वे आत्मप्रवादनामनि / कर्मप्रवादपूर्वे 8 पदकोटी अशीतिलक्षयता // प्रत्याख्यानाभिधाने 1 पूर्वे चतुरशीतिः पदशतसहस्राणि / दशपदसहस्रयुका पदकोटी विद्याप्रवादे 10 // कल्याणनामधेये 11 पूर्वे पदानां कोटिः षडिंशतिः / षट्पञ्चाशल्लक्षकोटी पदानां प्राणायुःपूर्वे 12 // क्रियाविशालपूर्वे 13 नव पदकोव्यो झुवते समयविदः / श्रीलोकबिन्दुसारे 14 सार्धद्वादश च पदलक्षम् // Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ے۔ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / तु 'अर्थपरिसमाप्तिः पदम्' इत्याधुक्तिसद्भावेऽपि येन केनचित्पदेनाऽष्टादशपदसहस्रादिप्रमाणा आचारादिग्रन्था गीयन्ते तदिह गृह्यते, तस्यैव द्वादशाजश्रुतपरिमाणेऽधिकृतत्वात् , श्रुतभे दानामेव चेह प्रस्तुतत्वात् / तस्य च पदस्य तथाविधानायाभावात् प्रमाणं न ज्ञायते। तत्रै पर्द पदमुच्यते 5 / यादिपदसमुदायस्तु पदसमासः 6 / “गइ इंदिए य काए" (आ० नि० गा० 11) इत्यादिगाथाप्रतिपादितद्वारकलापस्यैकदेशो यो गत्यादिकस्तस्याप्येकदेशो यो नरकगत्यादिखत्र जीवादिमार्गणा यका क्रियते स सङ्घातः 7 / धादिगत्याद्यवयवमार्गणा सङ्घातसमासः 8 / गत्यादिद्वाराणामन्यतरैकपरिपूर्णगत्यादिद्वारेण जीवादिमार्गणा प्रतिपत्ति 9 / द्वारद्वयादिमार्गणा तु प्रतिपत्तिसमासः 10 / "संतपयपरूवणया दषपमाणं च" (आ० नि० गा.० 13) इत्यादि अनुयोगद्वाराणामन्यतरदेकमनुयोगद्वारमुच्यते 11 / तद्द्यादिसमुदायः पुनरनुयोगद्वारसमासः 12 / प्राभृतान्तर्वी अधिकारविशेषः प्राभृतप्राभृतम् 13 / तद्व्यादिसमुदायस्तु प्राभृतप्राभृतसमासः 14 / वस्त्वन्तर्वर्ती अधिकारविशेषः प्राभृतम् 15 / तयादिसंयोगस्तु प्राभृतसमासः 16 / पूर्वान्तर्वर्ती अधिकारविशेषो वस्तु 17 / तद्व्यादिसं. योगस्तु वस्तुसमासः 18 / पूर्वमुत्पादपूर्वादि पूर्वोक्तखरूपम् 19 / तयादिसंयोगस्तु पूर्वसमासः 20 / एवमेते संक्षेपतः श्रुतज्ञानस्य विंशतिर्भदा दर्शिताः, विस्तरार्थिना तु बृहत्कर्मप्रकृतिरन्वेषणीया / एते च पर्यायादयः श्रुतभेदा यथोतरं तीव्रतीव्रतरादिक्षयोपशमलभ्यत्वादित्यं निर्दिष्टा इति परिमावनीयमिति / अथवा चतुर्विषं श्रुतज्ञानम् , तथाहि-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च / तत्र द्रव्यतः श्रुतज्ञानी सर्वद्रव्याण्यादेशेन जानाति, क्षेत्रतः सर्वक्षेत्रमादेशेन शुतज्ञानी जानाति, कालतः सर्व कालमादेशेन श्रुतज्ञानी जानाति, भावतः सर्वान् भावान् आदेशेन श्रुतज्ञानी जानातीति // 7 // व्याख्यातं सविस्तरं श्रुतज्ञानम् / सम्प्रत्यवधिज्ञानं व्याख्यायते, तच्च द्वेधा-भवप्रत्ययं देवनारकाणाम् , गुणप्रत्ययं मनुष्यतिरश्चाम्, तच षोढा, तथा चाह सूत्रम् अणुगामिवड्डमाणयपडिवाईयरविहा छहा ओही। रिउमइविउलमई मणनाणं केवलमिगविहाणं // 8 // आनुगामि च वर्धमानकं च प्रतिपाति च इतराणि च-अनानुगामिहीयमानकाप्रतिपातीनि आनुगामिवर्धमानकप्रतिपातीतराणि, विधानानि विधाः-भेदाः, तत आनुगामिवर्धमानकप्रतिपातीतराणि विधा यस्य तत्तथा तस्माद् आनुगामिवर्धमानकप्रतिपातीतरविधात् षड्धा 'अवघिः' अवधिज्ञानं भवति / उक्तं च नन्यध्ययने "तं समासओ छविहं पन्नतं, तं जहा-आणुगामियं अणाणुगामियं वड्डमाणयं हीयमाणयं पडिवाई अपडिवाई / ( नन्दी पत्र 81-1) तत्र गच्छन्तं पुरुषम् आ-समन्तादनुगच्छतीत्येवंशीलमानुगामि, यद्देशान्तरगतमपि ज्ञानिनमनुगच्छति लोचनवत् तद् अवधिज्ञानमानुगामीति भावः 1 / तथा न आनुगामि अनानु. 1 गतिः इन्द्रियं कायः // 2 सत्पदप्ररूपणता द्रव्यप्रमाणं च // 3 अनुगामि क० ख० ग० एवमप्रेऽपि / 4 तत् समासतःषधिं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-आनुगामिकमनानुगामिकं वर्धमानक हीयमानकं प्रतिपात्यप्रतिपाति॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 देवेन्द्ररिक्रिषितखोपटीकोपतः [गाथा गामि, शृङ्गलपक्षप्रदीप इव यद् म गच्छन्तं ज्ञानिनमनुगच्छति, यत् किल तद्देशस्थस्यैव भवति, तद्देशनिबन्धनक्षयोपशमजत्वात् , देशान्तरगतस्य त्वति, तद् अवविज्ञानमनानुगामीति भावः 2 / यदाह भगवान् श्रीदेवर्द्धिक्षमाश्रमण: से' किं तं अणाणुगामियं ओहिनाणं : अणाणुगामियं ओहिनाणं से जहानामए के पुरिसे एग महं जोइहाणं काउं तस्सेव जोइट्ठाणस्स परिपेरतेसु परिपेरतेसु परिहिंडमाणे परिहिंडमाणे परिषोलमाणे परिघोलमाणे तमेव जोइट्ठाणं पासह अनत्य गए न पासइ, एवमेव अणाणुगामियं ओहिनाणं जत्थेव समुप्पजइ तत्थेव संखिज्जाणि वा असंखिज्जाणि वा जोयणाई पासह न अन्नत्य / (नन्दी पत्र 89-1) भाष्यकारोऽप्याह अणु!मि उ अणुगच्छइ, गच्छंतं लोयणं जहा पुरिस / इयरो उ नाणुगच्छइ, ठियप्पईवु छ गच्छंतं // (विशे० गा० 715) तथा वर्धत इति वर्धमानम्, ततः संज्ञायां कन्प्रत्ययः, बहुबहुतरेन्धनप्रक्षेपादमिवर्षमानज्वलनज्वालाकलाप इव पूर्वावस्थातो यथायोगं प्रशस्तप्रशस्ततराध्यवसायतो वर्धमानमवविज्ञानं वर्षमानकम् / एतत् किलाङ्गुलासख्येयभागादिविषयमुत्पद्य पुनर्वृद्धिं विषयविस्तरणात्मिकां याति यावदलोके लोकप्रमाणान्यसत्येयानि खण्डानीति 3 / तथा हीयते-तयाविध. सामग्र्यमावतो हानिमुपगच्छतीति हीयमानम्, कर्मकर्तृविवक्षायाम् अनदप्रत्ययः, हीयमानमेव हीयमानकम् , "कुत्सिताल्पाज्ञाते" (सि० 7-3-33) कप्रत्ययः, पूर्वावस्थातो यदधोऽधो हासमुपगच्छति तद् हीयमानकमवधिज्ञानमिति 4 / उक्तं च नन्दिचूर्णी हीयमाणं पुवावस्थाओ अहोऽहो हस्समाणं (पत्र 14) इति / . तथा प्रतिपततीत्येवंशीलं प्रतिपाति 5 / यदाह से किं तं पडिवाई ! पडिवाई जन्नं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखिजभागं वा संखिजभागं वा वालग्गं वा वालग्गपुहत्तं वा एवं लिक्खं वा जूयं वा जवं वा जवपुहत्तं वा अंगुलं वा अंगुलपुहत्तं वा, एवं एएणं अहिलावणं विहत्थि वा हत्थं वा कुच्छि वा कुक्षिहस्तद्वयमुच्यते धणुं वा गाउयं वा जोयणं वा जोयणसयं वा जोयणसहस्सं वा संखिज्जाणि वा असंखिज्जाणि वा जोयणसहस्साई, उक्कोसेणं लोगं पासित्ताणं परिवडिज्जा, से तं पडिवाई / (नन्दी पत्र 96-2) अप किं तदनानुगामिकमवधिज्ञानम् ? अनानुगामिकमवधिज्ञानं स यथानामकः कश्चित्पुरुष एक महज्योविःस्थानं कृला तस्यैव ज्योतिःस्थानस्य परिपर्यन्तेषु परिपर्यन्तेषु परिहिण्डमानः परिहिण्डमानः परिघोलयमान: परिघोलयमानः तदेव ज्योतिःस्थानं पश्यति अन्यत्र गतो न पश्यति, एवमेव अनानुगामिकमवधिज्ञानं यत्रैव समुत्पद्यते तत्रैव सहयेयानि वाऽसहययानि वा योजनानि पश्यति नान्यत्र // 2 वामेव ख०॥ 3 अनुगामि खनुगच्छति गच्छन्तं लोचनं यथा पुरुषम् / इतरत्तु नानुगच्छति स्थितप्रदीप इव गच्छन्तम् // 4 गामि. भोऽणुग०॥ 5 हीयमानं पूर्वावस्थातोऽधोऽधो हस्यमानं // अथ किं तत् प्रतिपाति ! प्रतिपाति यद अपन्येनालस्थासङ्ख्ययभागं वा सयभागं वा वालाग्रं वा वालाप्रपृथक्त्वं वा एवं लिक्षा वा यूको वा यवं वा यवस्थक्त्वं वा भलं वा अङ्गुलपृथक्वं वा, एवमेवेनामिलापेन वितस्विं वा हस्तं वा कुझिं वा धनुर्वा कोर्श वा योजनं वा योजनशतं वा योजनसहस्र वा सहयेयानि वा असहययानि वा योजनसहस्राणि, उत्कर्षेण लोकं हवा प्रतिपतेव, एतत्तत् प्रतिपाति // Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / / .. तथा न प्रतिपाति अप्रेतिपाति, यत् किलाऽलोकल प्रदेशमेकमपि पश्यति तद् अप्रतिपातीति भावः 6 / हीयमानकप्रतिपातिनोः कः प्रतिविशेषः / इति चेद् उच्यते-हीयमानकं पूर्वावस्थातोऽधोऽधो हासमुपगच्छदभिधीयते, यत् पुनः प्रदीप इव निर्मूलमेककालमपगच्छति तत् प्रतिपातीति। यद्वाऽनन्तद्रव्यभावविषयत्वात् तत्तारतम्यविवक्षयाऽनन्तभेदम् , असयक्षेत्रकालविषयत्वात्तु तत्तारतम्यविवक्षयाऽसङ्ख्येय मैदमवधिज्ञानम् / यद्वा चतुर्विधमवधिज्ञानं द्रव्यक्षेत्रकालभावात् / तथा चाह 'तं समासओ चउविहं पन्नतं, तं जहा-दवओ खेतो कालओ भावओ / दबओ णं ओहिनाणी जहन्नेणं अणंताई रूविदवाई जाणइ पासइ, उक्कोसेणं सवरूविदवाई जाणइ पासइ / खित्तओ णं ओहिनाणी जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजहभागं, उक्कोसेणं असंखेजाई अलोए लोयप्पमाणमित्ताई खंडाइं जाणइ पासह / कालओ णं ओहिनाणी जहन्नेणं आवलियाए असंखिजइभाग, उक्कोसेणं असंखिज्जाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ तीयं च अणागयं च कालं जाणइ पासइ / भावओ णं ओहिनाणी जहन्नण वि अणंते भावे जाणइ पासइ, उक्कोसेण वि अणते भावे जाणइ पासइ सबभावाणं अणंतभागं / (नन्दी पत्र 97-1) इति / / उक्तमवधिज्ञानम् / इदानीं मनःपर्यवज्ञानं व्याख्यानयन्नाह-"रिउमइ विउलमई मणनाणं"ति। मनोज्ञानं' मनःपर्यायज्ञानमित्यर्थः, ऋजुमतिविपुलमतिमैदाविविधम् / तत्र ऋज्वीसामान्यप्राहिणी मतिः ऋजुमतिः, घटोऽनेन चिन्तित इत्यध्यवसायनिबन्धना मनोद्रव्यपरिच्छितिरित्यर्थः / यदाह रिउ सामन्नं तम्मत्तगाहिणी रिउमई मणोनाणं / पायं विसेसविमुहं, घडमित्तं चिंतियं मुणइ // (विशे० गा० 784) ... तथा विपुला-विशेषग्राहिणी मतिर्विपुलमतिः, घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महानित्याद्यध्यवसायहेतुभूता मनोद्रव्यविज्ञप्तिरिति भावार्थः, अस्यां व्युत्पत्ती खतनं ज्ञानमेव गृह्यत इति / अथवा ऋज्वी-सामान्यग्राहिणी मतिरस्यासौ ऋजुमतिः / विपुलाविशेषग्राहिणी मतिरस्य स विपुलमतिः, अस्यां व्युत्पत्तौ तद्वान् गृह्यते / यद्वा मनःपर्यायज्ञानं चतुर्विधम्-द्रव्यक्षेत्रकालभाव भेदात् / उक्तं च तं समासओ चउबिहं पन्नतं, तं जहा–दवओ खित्तओ कालओ भावओ / दवओ णं १तत् समासतश्चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-व्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतः / द्रव्यतोऽवधिज्ञानी जघन्येनामम्तानि सपिदव्याणि जानाति पश्यति, उत्कर्षेण सर्वकपिद्रव्याणि जानाति पश्यति / क्षेत्रतोऽवधिज्ञानी जघन्येमाहुलस्थासङ्ग्येयभागम् , उत्कर्षेणाऽसहययानि अलोके लोकप्रमाणमात्राणि खण्डानि जानाति पश्यति / कालतो. बधिज्ञानी जघन्येनाऽऽवलिकाया असलयेयभागम् , उत्कर्षेणाऽसोया उत्सर्पिण्यवसर्पिणीः अतीतं चानागतं च कालं जानाति पश्यति / भावतोऽवधिज्ञानी जघन्येनाप्यनन्तान् भावान् जानाति पश्यति, उत्कर्षेणापि अनम्तान् भावान् जानाति पश्यति सर्वभावानामनम्तभागम् // 2 ऋजु सामान्य तन्मात्रप्राहिणी ऋजुमतिर्मनोज्ञानम् / प्रायो विशेषविमुखं, घटमात्र चिन्तितं जानाति // 3 तत् समासतश्चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रत: कालतो भाक्तः। द्रव्यत ऋजुमतिरनन्ताननन्तप्रदेशिकान् स्कन्धान जानाति पश्यति / तानेव विपुलमतिरभ्य. धिकतरान् विमलतरान् जानाति पश्यति // Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा उजुमई अणंते अणंतपएसिए बंधे जाणइ पासइ / ते चेव विउलमई अब्भहियतराए विमलतराए जाणइ पासइ (नन्दी पत्र 107-2) ति | .. क्षेत्रतः पुनर्ऋजुमतिरधो यावदधोलौकिकामान् जानाति / यदाहुश्चतुर्दशप्रकरणशतप्रासादसूत्रधारकल्पप्रभुश्रीहरिभद्रसूरिपादा नन्दिवृत्ती इहाधोलौकिकान् प्रामान्, तिर्यग्लोकविवर्तिनः / मनोगतांस्त्वसौ भावान् , वेत्ति तद्वर्तिनामपि // (पत्र 47) ऊवं यावद् ज्योतिश्चक्रस्योपरितलम् / तिरियं जाव अंतो मणुस्सखित्ते अड्डाइजेसु दीवेसु दोसु य समुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवेसु सन्नीणं पंचिंदियाणं पजत्तगाणं मणोगए भावे जाणइ पासइ / तं चेव विउलमई अड्डाइजेहिं अंगुलेहिं अब्भहियतरयं विसुद्धतरयं खेतं जाणइ पासइ / (नन्दी पत्र.१०८-१)। ___ इह व्याख्या-'अन्तः' मध्ये मनुष्यक्षेत्रस्य 'अर्घतृतीयद्वीपेषु' जम्बूद्वीपधातकीखण्डपुष्करवरद्वीपार्थेषु 'द्वयोः समुद्रयोः' लवणसमुद्रकालोदसमुद्रयोः 'पञ्चदशसु कर्मभूमिषु' भरतपञ्चकैरवतपञ्चकमहाविदेहपञ्चकलक्षणासु 'त्रिंशत्यकर्मभूमिषु' हैमवतपञ्चकहरिवर्षपञ्चकदेवकुरुपश्चकोत्तरकुरुपञ्चकरम्यकपञ्चकहैरण्यवतपञ्चकरूपासु / तथा लवणसमुद्रस्यान्तर्मध्ये भवा द्वीपा आन्तरद्वीपास्ते च षट्पञ्चाशत्सङ्ख्याः / तथाहि-इह जम्बूद्वीपे भरतस्य हैमवतस्य च क्षेत्रस्य सीमाकारी भूमिनिममपञ्चविंशतियोजनो योजनशतोच्छ्यपरिमाणो भरतक्षेत्रापेक्षया द्विगुणविष्कम्भो हेममयश्वीनपट्टवर्णो नानावर्णविशिष्टद्युतिमणिनिकरपरिमण्डितोभयपार्श्वः सर्वत्र तुल्यविस्तरो गगनमण्डलोल्लेखिरत्नमयैकादशकूटोपशोभितो वज्रमयतलविविधमणिकनकमण्डितभूमिभागदशयोजनावगाढपूर्वपश्चिमयोजनसहसायामदक्षिणोत्तरपञ्चयोजनशतविस्तारपद्महदशोभितशिरोमध्यविभागः सर्वतः कल्पपादपश्रेणिरमणीयः पूर्वापरपर्यन्ताभ्यां लवणोदार्णवजलसंस्पर्शी हिमवनाम पर्वतः, तस्य लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य पूर्वस्यां पश्चिमायां च दिशि प्रत्येकं द्वे द्वे गजदन्ताकारे दंष्ट्रे विनिर्गते, तत्रैशान्यां दिशि या विनिर्गता दंष्ट्रा तस्यां हिमवतः पर्यन्तादारभ्य त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्यात्रान्तरे योजनशतत्रयायामविष्कम्भः किञ्चिन्न्यूनैकोनपञ्चाशदधिकनवयोजनशतपरिरय एकोरुकनामा द्वीपो वर्तते, अयं च पञ्चधनुःशतप्रमाणविष्कम्भया द्विगव्यूतोच्छूितया पद्मवरवेदिकया सर्वतः परिमण्डितः, साऽपि च पद्मवरवेदिका सर्वतो वनखण्डपरिक्षिप्ता, तस्य च वनखण्डस्य चक्रवालतया विष्कम्भो देशोने द्वे योजने परिक्षेपः पद्मवरवेदिकाप्रमाणः / तथा तस्यैव हिमवतः पर्वतस्य पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपूर्वस्यां दिशि त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य द्वितीयदंष्ट्राया उपरि एकोरुकद्वीपप्रमाण आमासिकनामा द्वीपो वर्तते / तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादारभ्य दक्षिणपश्चिमायां त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य दंष्ट्राया उपरि यथोक्तपमाणो वैषा. णिकनामा द्वीपः / तथा तस्यैव हिमवतः पश्चिमायां दिशि पर्यन्तादारभ्य पश्चिमोत्तरस्यां दिशि 1 एतद् वृत्तं नन्दिचूर्णावप्यस्ति // Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / 23 त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य दंष्ट्राया उपरि पूर्वोक्तप्रमाणो नाङ्गोलिकनामा द्वीपः / एवमेते चत्वारो द्वीपा हिमवतश्चतसृष्वपि विदिक्षु तुल्यप्रमाणा अवतिष्ठन्ते / तत एषामेकोरुकादीनां चतुर्णो द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोचरादिविदिक्षु प्रत्येकं चत्वारि चत्वारि योजनशतान्यतिक्रम्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भाः किञ्चिन्न्यूनपञ्चषष्टिसहितद्वादशयोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकातश्चतुर्योजनशतप्रमाणान्तरा हयकर्णगजकर्णगोकर्णशष्कुलीकर्णनामानश्चत्वारो द्वीपाः / तद्यथा-एकोरुकस्य परतो हयकर्णः, आभासिकस्य परतो गजकर्णः, वैषाणिकस्य परतो गोकर्णः, नाङ्गोलिकस्य परतः शष्कुलीकर्णः, एवमग्रेऽपि भावना कार्या / तत एतेषामपि हयकर्णादीनां चतुर्णामपि द्वीपानां परतः पुनरपि यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं पञ्च पञ्च योजनशतान्यतिक्रम्य पञ्चयोजनशतायाम विष्कम्भा एकाशीत्यधिकपञ्चदशयोजनशतपरिक्षेपाः पूर्वोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितबाह्यप्रदेशा जम्बूद्वीपवेदिकातः पञ्चयोजनशतप्रमाणान्तरा आदर्शमुखमेण्दमुखाऽयोमुखगोमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः। एतेषामप्यादर्शमुखादीनां चतुणों द्वीपानां परतो भूयोऽपि यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं षट् षड् योजनशतान्यतिक्रम्य षड्योजनशतायामविष्कम्भाः सप्तनवत्यधिकाष्टादशयोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकातः षड्योजनशतप्रमाणान्तरा अश्वमुखहस्तिमुखसिंहमुखव्याघ्रमुखनामानश्चत्वारो द्वीपाः / एतेषामप्यश्वमुखादीनां चतुणों द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येक सप्त सप्त योजनशतान्यतिक्रम्य सप्तयोजनशतायामविष्कम्भास्त्रयोदशाधिकद्वाविंशतियोजनशतपरिरयाः पूर्वोक्तपमाणपद्मवरवे. दिकावनखण्डसमवगूढा जम्बूद्वीपवेदिकातः सप्तयोजनशतप्रमाणान्तरा अश्वकर्णहयकर्णाकर्णकर्णप्रावरणनामानश्चत्वारो द्वीपाः। तत एतेषामश्वकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकमष्टावष्टौ योजनशतान्यतिक्रम्याष्टयोजनशतायामविष्कम्भा एकोनत्रिंशदधिकपञ्चविंशतियोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकातोऽष्टयोजनशतप्रमाणान्तरा उल्कामुखमेघमुखविद्युन्मुख विद्युद्दन्ताभिधानाश्चत्वारो द्वीपाः / ततोऽमीषामप्युल्कामुखादीनां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमं पूर्वोत्तरादिविदिक्षु प्रत्येकं नव नव योजनशतान्यतिक्रम्य नवयोजनशतायामविष्कम्भाः पञ्चचत्वारिंशदधिकाष्टाविंशतियोजनशतपरिक्षेपा यथोक्तप्रमाणपद्मवरवेदिकावनखण्डमण्डितपरिसरा जम्बूद्वीपवेदिकातो नवयोजनशतप्रमाणान्तरा घनदन्तलष्टदन्तगूढदन्तशुद्धदन्तनामानश्चत्वारो द्वीपाः / एवमेते सप्त चतुष्का हिमवति पर्वते चतसृष्वपि विदिक्षु व्यवस्थिताः, सर्वसश्ययाऽष्टाविंशतिः / एवं हिमवत्तुल्यवर्णप्रमाणे पाहूदप्रमाणायाम विष्कम्भावगाहपुण्डरीकहूदोपशोभिते शिखरिण्यपि लवणोदार्णवजलसंस्पर्शादारभ्य यथोक्तप्रमाणान्तराश्चतसृषु विदिक्षु व्यवस्थिता एकोरुकादिनामानोऽक्षुण्णापान्तरालायामविष्कम्भा अष्टाविंशतिसङ्ख्या द्वीपा वक्तव्याः, सर्वसङ्ख्यया षट्पञ्चाशदन्तरद्वीपाः / एतद्गता मनुष्या अप्येतन्नामान उपचारात् , भवति च तात्स्थ्यात् तद्व्यपदेशः, यथा पञ्चालदेशनिवासिनः पुरुषाः पञ्चाला इति / ते च मनुष्या वज्रऋषभनाराचसंहनिनः समचतुरससंस्थानाः सांगोपाङ्गसुन्दराः कमण्डलुकलशयूपस्तूपवापीध्वजपताकासौवस्तिकयवमत्स्यमक Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपनटीकोपेतः [गाथा रकूर्मरथवरस्थालांशुकाष्टापदानुशसुप्रतिष्ठकमयूरश्रीदामाभिषेकतोरणमेदिनीजलधिवरभवनादर्शपर्वतगजवृषभसिंहचामररूपप्रशस्तोत्तमद्वात्रिंशल्लक्षणधराः खभावत एव सुरभिवदनाः प्रतनुक्रोधमानमायालोमाः सन्तोषिणो निरौत्सुक्या मार्दवार्जवसम्पन्नाः सत्यपि मनोहारिणि मणिकनकमौक्तिकादौ ममत्वकारणे ममत्वाभिनिवेशरहिताः सर्वथाऽपगतवैरानुबन्धा हस्त्यश्वकरभगोमहिपादिसद्भावेऽपि तत्परिभोगपराङ्मुखाः पादविहारिणो ज्वरादिरोगयक्षभूतपिशाचादिग्रहमारिव्य. सनोपनिपातविकलाः परस्परप्रेष्यप्रेषकभावरहितत्वादहमिन्द्राः। तेषां पृष्ठकरण्डकानि चतुःषष्टिसझ्याकानि, चतुर्थातिक्रमे चाहारग्रहणम् , आहारोऽपि च न शाल्यादिधान्यनिष्पन्नः किन्तु पृथिवीमृत्तिका कल्पद्रुमाणां पुष्पफलानि च / तथाहि-जायन्ते खलु तत्रापि विससात एवं शालिगोधूममुद्गमाषादीनि धान्यानि परं न तानि मनुष्याणामुपभोगं गच्छन्ति, या तु पृथिवी सा शर्करातोऽप्यनन्तगुणमाधुर्या, यश्च कल्पद्रुमफलानामाखादः स चक्रवर्तिभोजनादप्यधिकगुणः / यदुक्तम् 'तेसिं णं भंते ! पुप्फफलाणं केरिसए आसाए पन्नते ? गोयमा ! से जहानामए रणो चाउरतचक्कवट्टिस्स कल्लाणे भोयणजाए सयसहस्सनिप्फन्ने वन्नोववेए गंधोववेए रसोववेए फासोववेए आसायणिज्जे विस्सायणिजे दप्पणिजे मयणिजे विहणिज्जे सबिंदियगायपल्हायणिज्जे आसाएणं पन्नते, इत्तो इट्टतराए चेव पन्नते / (जम्बू० पत्र 118-1) ततः पृथिवी कल्पपादपपुष्पफलानि च तेषामाहारः / तथाभूतं चाहारमाहार्य प्रासादादिसंस्थाना ये गृहाकाराः कल्पद्रुमास्तेषु यथासुखमवतिष्ठन्ते / न च तत्र क्षेत्रे दंशमशकयूकामस्कुणमक्षिकादयः शरीरोपद्रवकारिणो जन्तव उपजायन्ते / येऽपि जायन्ते भुजगव्याघ्रसिंहादयस्तेऽपि मनुष्याणां न बाधायै प्रभवन्ति, नापि ते परस्परं हिंस्यहिंसकभावे वर्तन्ते, क्षेत्रानुभावतो रौद्रभावरहितत्वात् / मनुष्ययुगलानि च पर्यवसानसमये युगलं प्रसुवते, तत् पुनर्युगलमेकोनाशीतिदिनानि पालयन्ति / तेषां शरीरोच्छ्योऽष्टौ धनुःशतानि, पल्योपमासङ्ख्येयभागप्रमाणमायुः, स्तोककषायतया स्तोकप्रेमानुबन्धतया च ते मृत्वा दिवमुपसर्पन्ति / मरणं च तेषां जृम्भिकाकाशक्षुतादिमात्रव्यापारपुरस्सरं भवति, न शरीरपीडारम्भपुरस्सरमिति / अत्र गाथा:-. हिमगिरिनिग्गयपुवावरदाढा विदिसि संठिया लवणे। . जोयणतिसए गंतुं, तिन्नि सए वित्थराऽऽयामा // वेइयवणसंडजुया, चउ अंतरदीव तेसि नामाई / एगोरुग 1 आभासिय 2, वेसाणियनाम 3 नंगूली 4 // 1 तेषां भगवन् ! पुष्यफलानां कीदृश आखादः प्रज्ञप्तः! गौतम / स यथानामकः राज्ञश्चातुरन्तचक्रवर्तिनः कल्याणं भोजनजातं शतसहस्रनिष्पन्नं वर्णोपपेतं गन्धोपपेतं रसोपपेतं स्पर्शोपपेतं आखादनीयं विखादनीय दर्पणीय मदनीयं बृहणीयं सर्वेन्द्रियगात्रप्रसादनीयमाखादेन प्रज्ञप्तम्, इत इष्टतरश्चैव प्रज्ञप्तः // 2 हिममि. रिनिर्गतपूर्वापरदाढा विदिशि संस्थिता लवणे / योजनत्रिशतं गला त्रीणि शतानि विस्तराऽऽयामाः॥ वेदिका. बनखण्डयुताश्चत्वार अन्तरद्वीपास्तेषां नामानि / एकोरुका आभासिकः 2 वैषाणिकनामा 3 नाहोलिः 4 // Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / ऐसिं परओ चउपणछसत्तअडनवयजोयणसएसु / हयकन्ना 5 गयकन्ना 6, गोकन्ना 7 सक्कुलीकन्ना 8 // आयंसग 9 मिंढमुहा१०,अओमुहा११गोमुहा१२चउर दीवा / / अस्समुहा 13 हत्थिमुहा१४, सिंहमुहा 15 तह य वग्धमुहा 16 // ततो य अस्सकन्ना 17, हत्थि 18 अकन्ना य 19 कन्नपावरणा 20 / उक्कामुह 21 मेहमुहा 22, विजुमुहा 23 विजुदंता य 24 // घणदंत२५ लट्ठदंता 26, निगूढदंता य 27 सुद्धदंता य 28 / इय सिहरिम्मि वि सेले, अट्ठावीसंतरद्दीवा // उभयेऽपि मिलिताः षट्पञ्चाशत्सङ्ख्याः / एएसु जुगलधम्मी, धणुसय अट्टसिया परमरूवा / पल्लअसंखिज्जाऊ, गुणसीदिणऽवच्चपालणया / चउसट्ठीपिट्टिकरंडमंडियंगा चउत्थभोई य / कप्पतरुपूरियासा, सुरगइगामी तणुकसाया // शेषं सूत्रं स्पष्टम् / / कालओ णं उजुमई जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखिजइभागं, उक्कोसेण वि पलिओवमस्स असंखिज्जइभागं तीयं अणागयं च कालं जाणइ पासइ / तं चेव विउलमई अब्भहियतरागं जाणइ पासइ / ( नन्दी पत्र 108-2) जीवकल्पभाष्येऽप्युक्तम् कालओ उज्जुमई उ, जहन्नउक्कोसए वि पलियस्स / भागमसंखिजइमं, अतीय ऐस्से व कालदुगे / जाणइ पासइ ते ऊ, मणिज्जमाणे उ सन्निजीवाणं / ते चेव य विउलमई, वितिमिरसुद्धे उ जाणेइ // (गा० 82-83) भावतस्तु तत्पर्यायाश्चिन्तनानुगुणपरिणतिरूपा ऋजुमतेविषय इति / चिन्तनीयं तु मूर्तम 1 एषां परतश्चतुःपञ्चषट्सप्ताष्टनवकयोजनशतेषु / हयकर्णः 5 गजकर्णः 6 गोकर्णः 7 शष्कुलीकर्णः 8 // आदर्शमुखसमेण्ढमुखौ१. अयोमुखः 11 गोमुखः 12 चत्वारो द्वीपाः / अश्वमुखः 13 हस्तिमुखः 14 सिंहमुखः 15 तथा च व्याघ्रमुखः 16 // ततश्चाश्वकर्णः 17 हस्तिकर्णा१८ऽकर्णी च 19 कर्णप्रावरणः 20 / उल्कामुखः 21 मेघमुखः 22 विद्युन्मुखः 23 विद्युद्दन्तश्च 24 // घनदन्तः 25 लष्टदन्तः 26 निगूढदन्तश्च 27 शुद्धदन्तश्च 28 / इति शिखरिण्यपि शैलेऽष्टाविंशतिरन्तरद्वीपाः // २एतेषु युगलधर्माणो धनुःशतान्यष्टोच्छिताः परमरूपाः। पल्यासयेयायुष एकोनाशीतिदिनापत्यपालनकाः॥ चतुःषष्टिपृष्ठकरण्डकमण्डिताङ्गाश्चतुर्थभोजिनश्च / कल्पतरुपूरिताशाः सुरगतिगामिनस्तनुकषायाः॥ 3 कालत ऋजुमतिर्जघन्येन पल्योपमस्यासङ्ख्ययभागम् , उत्कर्षेणापि पल्योपमस्थासङ्ख्येयभागमतीतमनागतं च कालं जानाति पश्यति / तदेव विपुलमतिरभ्यधिकतरकं जानाति पश्यति // 4 कालत ऋजुमतिस्तु जघन्यत उत्कर्षतोऽपि पल्यस्य / भागमसङ्ख्येयमतीते एष्यति वा कालद्विके // जानाति पश्यति तांस्तु मन्यमानांस्तु संज्ञिजीवानाम् / तानेव च विपुलमतिर्वितिमिरशुद्धांस्तु जानाति // 5 एसे व क० ख०ग घ० उ०॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा मूर्त वा त्रिकालगोचरमपि बाबमर्थमनुमानादवैति, “जाणइ बज्झेऽणुमाणाओ" (विशे० गा० 814) इति वचनात् / यत एतत्परिणतान्येतानि मनोद्रव्याणि इत्येतदन्यथानुपपत्तेरमुकोऽर्थोऽनेन चिन्तित इति लेखाक्षरदर्शनात् तदुक्तार्थमिव प्रत्यक्षं मनोद्रव्यदर्शनाश्चिन्त्यमर्थमनुमिमीते / स चैष बाह्याभ्यन्तररूपो द्विविधोऽपि विषयः स्फुटतरबहुतरविशेषाध्यासितत्वेन विपुलमतेविमलतरोऽवसेय इति / निरूपितं मनःपर्यायज्ञानम् // अथ केवलज्ञानं व्याचिख्यासुराह-"केवलमिगविहाणं" ति 'केवलं केवलज्ञानम् 'एकविधानम्' एकविधम् , प्रथमत एव सर्वद्रव्यक्षेत्रकालभावग्राहकत्वादिति भाव इति // 8 // अभिहितं केवलज्ञानं तदभिधाने च व्याख्यातानि पञ्चापि ज्ञानानि / इदानीमेतेषामावरणमाह एसिं जं आवरणं, पडु व्व चक्खुस्स तं तयावरणं / दसणचउ पणनिदा, वित्तिसमं दसणावरणं // 9 // 'एषां' मतिज्ञानादीनां पञ्चानां ज्ञानानां यद् 'आवरणम्' आच्छादकम् , 'पट इव' सूत्रादिनिष्पन्नशाटक इव 'चक्षुषः' लोचनस्य, तत् तेषां मतिज्ञानादीनामावरणं तदावरणमुच्यते / इदमत्र हृदयम्-यथा घनघनतरघनतमेन पटेनावृतं सत् निर्मलमपि चक्षुर्मन्दमन्दतरमन्दतमदर्शनं भवति, तथा ज्ञानावरणेन कर्मणा घनघनतरघनतमेनावृतोऽयं जीवः शारदशशधरकरनिकरनिर्मलतरोऽपि मन्दमन्दतरमन्दतमज्ञानो भवति, तेन पटोपमं ज्ञानावरणं कर्मोच्यते। तत्रावरणस्य सामान्यत एकरूपत्वेऽपि यत् पूर्वोक्तानेकभेदभिन्नस्य मतिज्ञानस्यानेकभेदमेवाऽऽवरणखभावं कर्म तद् मतिज्ञानावरणमेकग्रहणेन गृह्यते चक्षुषः पटलमिव 1 / तथा पूर्वाभिहितभेदसन्दोहस्य श्रुतज्ञानस्य यद् आवरणखभावं कर्म तत् श्रुतज्ञानावरणम् 2 / तथा प्राक्प्र. पश्चितभेदकदम्बकस्यावधिज्ञानस्य यद् आवरणखभावं कर्म तद् अवधिज्ञानावरणम् 3 / तथा प्राग्निीतभेदद्वयस्य मनःपर्यायज्ञानस्य यद् आवरणखभावं कर्म तद् मनःपर्यायज्ञानावरणम् / तथा पूर्वप्ररूपितखरूपस्य केवलज्ञानस्य यद् आवरणखभावं कर्म तत् केवलज्ञानावरणम् 5 / उक्तं च बृहत्कर्मविपाके सैरउग्गयससिनिम्मलतरस्स जीवस्स छायणं जमिह / नाणावरणं कम्म, पडोवमं होह एवं तु // जह निम्मला वि चक्खू, पडेण केणावि छाईया संती। मंदं मंदतरागं, पिच्छइ सा निम्मला जइ वि // तह मइसुयनाणावरण अवहिमणकेवलाण आवरणं / जीवं निम्मलरूवं, आवरइ इमेहिं भेएहिं // (गा० 10-12) तदेवमेतानि पञ्चावरणान्युत्तरप्रकृतयः, तनिष्पन्नं तु सामान्येन ज्ञानावरणं मूलप्रकृतिः / १जानाति बाह्याननुमानात् // 2 शरदुद्तशशिनिर्मलतरस्य जीवस्य च्छादनं यदिह / ज्ञानावरणं कर्म पटोपमं भवति एवं तु // यथा निर्मलमपि चक्षुः पटेन केनापि च्छादितं सत् / मन्दं मन्दतरकं प्रेक्षते सद निर्मलं यद्यपि // तथा मतिश्रुतज्ञानावरणमवधिमनःकेवलानामावरणम् / जीवं निर्मलरूपमावणोत्येभिभेदैः॥ "तहमइसुयनाणाणं ओहीमणकेवलाण आवरणं / " इति बृहत्कर्मविपाके॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9-10 कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः। 27 ययाऽगुलीपञ्चकनिष्पन्नो मुष्टिः, मूलत्वपत्रशाखादिसमुदयनिष्पन्नो वा वृक्षः, धृतगुडकणिकादिनिष्पन्नो वा मोदक इति / एवमुत्तरत्रापि भावनीयम् / व्याख्यातं पञ्चविषं ज्ञानावरणं कर्म॥ __इदानीं नवविध दर्शनावरणं कर्म व्याख्यानयनाह-"दसणचउ पणनिदा वितिसमं दसणावरणं" ति / इह मीमो भीमसेन इति न्यायात् पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद्वा "दंसणचउ" इति शब्देन दर्शनावरणचतुष्कं गृह्यते / तत्र दृष्टिदर्शनम् , दृश्यते-परिच्छिद्यते सामान्यरूपं वस्त्वनेनेति वा दर्शनम् , तस्यावरणानि-आच्छादनानि दर्शनावरणानि तेषां चतुष्कं दर्शनावरणचतुष्कम् / तथा "पणनिद्द" ति द्रांक कुत्सितगती, नितरां द्राति-कुत्सितत्वमविस्पष्टत्वं गच्छति चैतन्यं यासु ता निद्रा, "मिदादयः" (सि० 5-3-108) इति अङ्प्रत्ययः, 'पञ्च' इति पञ्चसङ्ख्याः-निद्रा१निद्रानिद्रारप्रचलाइप्रचलाप्रचलाशस्त्यानद्धि५रूपा निद्राः पञ्चनिद्रा निद्रापञ्चकम् / ततो दर्शनावरणचतुष्कं निद्रापञ्चकमिति नवधा दर्शनावरणं भवति / किंविशिष्टम् ! इत्याह-"विचिसमं" ति वेत्रिणा-प्रतीहारेण सम-तुल्यं वेत्रिसमम् / यथा राजानं द्रष्टुकामस्याप्यनभिप्रेतस्य लोकस्य वेत्रिणा स्खलितस्य राज्ञो दर्शनं नोपजायते, तथा दर्शनखभावस्याप्यात्मनो येनाऽऽवृतस्य स्तम्भकुम्भाम्भोरुहादिपदार्थसार्थस्य न दर्शनमुपजायते तद् वेत्रिसमं दर्शनावरणम् / उक्तं च दसणसीले जीवे, दंसणघायं करेह जं कम्मं / तं पडिहारसमाणं, दसणवरणं भवे कम्मं // जह रन्नो पडिहारो, अणभिप्पेयस्स सो उ लोगस्स / रन्नो तहि दरिसावं, न देइ दर्दु पि कामस्स // जह राया तह जीवो, पडिहारसमं तु दंसणावरणं / तेणिह विबंधएणं, न पेच्छए सो घडाईयं // (बृहत्कर्मवि० गा० 19-21) // 9 // अथ दर्शनावरणचतुष्कं व्याचिख्यासुराह चक्खूदिटिअपक्खूसेसिंदियओहिकेवलेहिं च। दसणमिह सामन्नं, तस्सावरणं तयं चउहा // 10 // - इह चक्षुःशब्देन दृष्टिगुंह्यते, अचक्षुःशब्देन "सेसिंदिय" ति चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियाणि गृह्यन्ते, ततश्चक्षुश्च अचक्षुश्च अवधिश्च केवलं च चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानि तैः चक्षुरचक्षुरवधिकेवलैः / चशब्दः "अचक्खूसेसेंदिय" इत्यत्र मनसः संसूचकः / दर्शनम् 'इह' प्रवचने 'सामान्य सामान्योपयोग उच्यते, यदुक्तम् जं सामन्नग्गहणं, भावाणं नेव कट्ठ आगारं / अविसेसिऊण अत्थे, दंसणमिय वुच्चए समए / / (वृ० द्रव्यसं० गा०४३) 1 दर्शनशीले जीवे दर्शनघातं करोति यत् कर्म / तत् प्रतिहारसमानं दर्शनावरणं भवेत्कर्म // यथा राज्ञः प्रतिहारोऽनभिप्रेतस्य स तु लोकस्य / राजतत्र दर्शनं न ददाति द्रामपि कामस्य // यथा राजा तथा जीव: प्रतिहारसमंत दर्शनावरणम् / तेनेह विबन्धकेन न प्रेक्षते सघटादिकम् // 2 यत् सामान्यग्रहण भावानां नैव कृलाकारम् / अविशेषयिताऽर्थाम् दर्शनमित्युच्यते समये // Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा 'तस्यावरणं' दर्शनावरणम् , तत् चतुर्धा भवति–चक्षुर्दर्शनावरणम् 1 अचक्षुर्दर्शनावरणम् 2 अवधिदर्शनावरणम् 3 केवलदर्शनावरणम् 4 इति गाथाक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयम्-इह चक्षुर्दर्शनं नाम यत् चक्षुषा रूपसामान्यग्रहणं तस्यावरणं चक्षुर्दर्शनावरणं चक्षुःसामान्योपयोगावरणमिति यावत् 1 / अचक्षुषा चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा च यद् दर्शनं खखविषयसामान्यपरिच्छेदोऽचक्षुर्दर्शनं तस्यावरणमचक्षुर्दर्शनावरणम् 2 / अवधिना रूपिद्रव्यमर्यादया दर्शनं सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनं तस्यावरणमवधिदर्शनावरणम् 3 / केवलेन सम्पूर्णवस्तुतत्त्वग्राहकबोधविशेषरूपेण यद् दर्शनं वस्तुसामान्यांशग्रहणं तत् केवलदर्शनं तस्यावरणं केवलदर्शनावरणम् 4 / . अत्राह-ननु यथाऽवधिदर्शनावरणं कर्मोच्यते तथा मनःपर्यायज्ञानस्यापि दर्शनावरण कर्म किमिति नोच्यते ?, उच्यते-मनःपर्यायज्ञानं तथाविधक्षयोपशमपाटवात् सर्वदा विशेपानेव गृहदुत्पद्यते, न सामान्यम् , अतस्तद्दर्शनाभावात्तदावरणं कर्मापि न भवति / अत्र च चक्षुर्दर्शनावरणोदये एकद्वित्रीन्द्रियाणां मूलत एव चक्षुर्न भवति, चतुःपञ्चेन्द्रियाणां तु भूतमपि चक्षुस्तथाविधे तदुदये विनश्यति तिमिरादिना वाऽस्पष्टं भवति / चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियमनसां पुनर्यथासम्भवमभवनमस्पष्टभवनं वाऽचक्षुर्दर्शनावरणोदयादिति // 10 // अभिहितं दर्शनावरणचतुष्कम् , सम्प्रति निद्रापञ्चकमभिधित्सुराह सुहपडिबोहा निद्दा 1, निद्दानिद्दा 2 य दुक्खपडिबोहा। पयला 3 ठिओवविट्ठस्स पयलपयला 4 उ चंकमओ // 11 // सुखेन-अकृच्छ्रेण नखच्छोटिकामात्रेणापि प्रतिबोधः-जागरणं खप्तुर्यस्यां खापावस्थायां सा सुखप्रतिबोधा निद्रा, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि कारणे कार्योपचारात् निद्रेत्युच्यते 1 / निद्रातोऽतिशायिनी निद्रा निद्रानिद्रा, मयूरव्यंसकादित्वान्मध्यपदलोपी समासः, 'चः' समुच्चये, दुःखेन-कष्टेन बहुभिर्घोलनाप्रकारैरत्यर्थमस्फुटतरीभूतचैतन्यत्वेन खप्तः प्रतिबोधो यस्यां सा दुःखप्रतिबोधा, अत एव सुखप्रतिबोधनिद्रापेक्षयाऽस्या अतिशायिनीत्वम् , तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निद्रानिद्रा 2 / प्रचलति-विघूर्णते यस्यां खापावस्थायां प्राणी सा प्रचला, सा च स्थितस्योर्ध्वस्थानेन उपविष्टस्य-आसीनस्य भवति, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि प्रचला 3 / प्रचलातोऽतिशायिनी प्रचला प्रचलाप्रचला, इयं 'तुः' पुनरर्थे 'चक्रमतः' चक्रमणमपि कुर्वतो जन्तोरुपतिष्ठते, अतः स्थानस्थितखप्तप्रभवप्रचलामपेक्ष्याऽतिशायिनीत्वमस्याः, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि प्रचलाप्रचला 4 / सूत्रे च “पयलपयला" इति हखत्वं “दीर्घहखौ मिथो वृत्तौ" (सि० 8-1-4) इति सूत्रेण / इति // 11 // दिणचिंतियत्थकरणी, थीणद्धी 5 अद्धचकिअबला। महुलित्तखग्गधारालिहणं व दुहा उ वेयणियं // 12 // स्त्याना-बहुत्वेन सङ्घातमापन्ना गृद्धिः-अभिकासा जाग्रदवस्थाध्यवसितार्थसाधनविषया खापावस्थायां सा स्त्यानगृद्धिः / “गौणादयः” (सि०८-२-१७४) इति प्राकृतसूत्रेण १°नमचक्षुर्द° क० ख० ग० घ० ङ०॥ 2 °स्यापि भ° ग०॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11-13) कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / "थीणद्धी" इति निपात्यते / अस्यां हि जाग्दवस्थाध्यवसितमर्थमुत्थाय साधयति / श्रूयते ह्येतदागमे कथानकम् - क्वचित् प्रदेशे कोऽपि क्षुल्लको द्विरदेन दिवा स्खलीकृतः स्त्यानर्युदये वर्तमानस्तस्मिन्नेव द्विरदे बद्धाभिनिवेशो रजन्यामुत्थाय तद्दन्तयुगलमुत्पाट्य खोपाश्रयद्वारे क्षिप्त्वा पुनः सुप्तवान् इत्यादि। __इमां च व्युत्पत्तिमाश्रित्याह-"दिणचिंतियत्थकरणी थीणद्धी" इति दिने-दिवसे चिन्तितमुपलक्षणत्वान्निशायामपि चिन्तितम्-अध्यवसितमर्थ करोति-साधयति निद्रानिद्रावतोरभेदोपचारादिनचिन्तितार्थकरणी, "रम्यादिभ्यः" (सि०५-३-१२६) कर्तर्यनद्प्रत्ययः / यद्वा स्त्याना-पिण्डीभूता ऋद्धिः-आत्मशक्तिरस्यामिति स्त्यानर्द्धिः, एतत्सद्भावे हि प्रथमसंहननस्य केशवार्धवलसदृशी शक्तिः / एनां च व्युत्पत्तिमाश्रित्याह-"अद्धचक्किअद्धबल" ति अर्धचक्रिणः-वासुदेवस्य बलापेक्षया अर्धं बलं-स्थाम यस्या उदये जन्तोर्भवति साऽर्धचयर्धबला, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि थीणद्धीति 5 / अत्र चक्षुर्दर्शनावरणादिचतुष्कं मूलत एव दर्शनलब्धिमुपहन्ति, निद्रापञ्चकं तु प्राप्ताया दर्शनलब्धेरुपघातकृत् / आह च गन्धहस्ती निद्रादयः समधिगताया एव दर्शनलब्धेरुपघाते वर्तन्ते, दर्शनावरणचतुष्टयं तूद्गमोच्छेदित्वात् समूलघातं हन्ति दर्शनलब्धिमिति (तत्त्वार्थ अ० 8 सू० 8 सिद्ध० टीका)। ___ अभिहितं द्वितीयं नवविधं दर्शनावरणम् / साम्प्रतं तृतीयं कर्म वेद्यं वेदनीयापर. पर्यायं व्याचिख्यासुराह-"महुलित" इत्यादि / मधुना-मधुररसेन लिप्ता-खरण्टिता खड्गस्य करवालस्य धारा-तीक्ष्णाग्ररूपा तस्या जिह्वया लेहनमिव-आखादनसदृशं 'द्विधैव' द्विप्रकारमेव सातासातभेदात् , तुशब्द एवकारार्थः, 'वेदनीय' वेद्यं कर्म भवति / इह च मधुलेहनसन्निभं सातवेदनीयम् , खड्गधाराच्छेदनसममसातवेदनीयम् / उक्तं च महुआसायणसरिसो, सायावेयस्स होइ हु विवागो / जं असिणा तहि छिज्जइ, सो उ विवागो असायस्स // (बृ० कर्मवि० गा० 29) // 12 // अथ गतिचतुष्टये सातासातखरूपमाह ओसन्नं सुरमणुए, सायमसायं तु तिरियनरएसु। मजं व मोहणीयं, दुविहं दंसणचरणमोहा // 13 // ओसन्नशब्दो देशीवचनो बाहुल्यवाचकः, यथा-"ओसन्नं देवा सायं. वेयणं वेयंति / " तत्र 'ओसन्नं' बाहुल्येन प्रायेणेत्यर्थः, सुराश्च-देवा मनुजाश्च-मनुष्याः सुरमनुजं समाहारद्वन्द्वः, तस्मिन् सुरमनुजे सुरेषु मनुजेष्वित्यर्थः 'सातं' सातवेदनीयं भवति / ओसन्नग्रहणात् च्यवनकालेऽन्यदाऽपि सुराणामसातोदयोऽप्यस्ति, चारकनिरोघवधबन्धनशीतातपादिभिर्मनुजानामप्यसातमिति / नरकभवाः प्राणिनोऽप्युपचारात् नरकाः, ततस्तिर्यञ्चश्च नरकाश्च तिर्यमरकास्तेषु १°समानम ख० ग० उ०॥ 2 मध्वाखादनसदृशः सातवेद्यस्य भवति खलु विपाकः / यदसिना तत्र छिद्यते स तु विपाकोऽसातस्य // ३हुख०ग०॥ बाहुल्येन देवाः सातं वेदनं वेदयन्ति / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा तिर्यक्षु नरकेष्वित्यर्थः, ओसन्नशब्दस्येहापि सम्बन्धादसातम्, 'तुः' पुनरर्थे व्यवहितसम्बन्धश्च, स चैवं योज्यते-तिर्यमरकेषु पुनरसातं प्रायो भवति / ओसन्नग्रहणात् केषाञ्चित् पट्टहस्तितुरगादीनां तिरश्चां नारकाणामपि जिनजन्मकल्याणकादिषु सातमप्यस्तीति / उक्त द्विविधं वेदनीयं तृतीयं कर्म // ___ इदानीमष्टाविंशतिविधं मोहनीयं चतुर्थ कर्माभिधित्सुराह-"मजं व मोहणीय" इत्यादि / 'मद्यमिव' मदिरासदृशं मोहयतीति मोहनीयं कर्म / “प्रवचनीयादयः" (सि० 5-1-8) इति कर्तर्यनीयप्रत्ययः / यथा हि मद्यपानमूढः प्राणी सदसद्विवेकविकलो भवति, तथा मोहनीयेनापि कर्मणा मूढो जन्तुः सदसद्विवेकविकलो भवतीति / तच 'द्विविधं द्विमैदम्, कथम् ! इत्याह-"दंसणचरणमोह"त्ति दर्शनमोहाच्चरणमोहादित्यर्थः / तत्र दृष्टिदर्शनं-यथावस्थितवस्तुपरिच्छेदस्तद् मोहयतीति “कर्मणोऽण्” (सि० 5-1-72) इत्यण्प्रत्यये दर्शनमोहम् / चरन्ति-परमपदं गच्छन्ति जीवा अनेनेति चरणं चारित्रं तद् मोहयतीति चरणमोहमिति // 13 // अथ दर्शनमोहं व्याख्यानयनाह दसणमोहं तिविहं, सम्मं मीसं तहेव मिच्छत्तं / सुद्धं अद्धविसुद्धं, अविसुद्धं तं हवह कमसो // 14 // दर्शनमोहं पूर्वोक्तशब्दार्थ 'त्रिविधं त्रिप्रकारं भवति / “सम्म"ति सम्यक्त्वं 'मिथ' सम्यग्मिथ्यात्वं तथैव मिथ्यात्वम् / एतदेव खरूपत आह-शुद्धमर्धविशुद्धमविशुद्धं तद् भवति 'क्रमशः' क्रमेणेति / अयमत्रार्थ:-मिथ्यात्वपुद्गलकदम्बकं मदनकोद्रवन्यायेन शोषितं सद् विकाराजनकत्वेन शुद्धं सम्यक्त्वं भवति, तदेव किञ्चिद्विकारजनकत्वेनापविशुद्धं मिश्रम् , तदेव सर्वथाप्यविशुद्धं मिथ्यात्वमिति / उक्तं च तद्यथेह प्रदीपस्य, खच्छाभ्रपटलैर्गृहम् / न करोत्यावृति काञ्चिदेवमेतद्रुचेरपि // .. एकपुञ्जी द्विपुञ्जी च, त्रिपुञ्जी वा ननु क्रमात् / दर्शन्युभयवांश्चैव, मिथ्यादृष्टिः प्रकीर्तितः // अत्राह-सम्यक्त्वं कथं दर्शनमोहनीयं स्यात् !, न हि तद् दर्शनं मोहयति, तस्यैव दर्शमत्वात् , उच्यते-मिथ्यात्वप्रकृतित्वेनातिचारसम्मवाद् औपशमिकादिमोहत्वांश्च दर्शनमोहनीयमिति // 14 // इत्युक्तं सङ्घ्रपतस्त्रिविधं दर्शनमोहम् / सम्प्रत्येतदेव व्याचिख्यांसुः प्रथम सम्यक्त्वखरूपमाह जियअजियपुन्नपावाऽऽसवसंवरबंधमुक्खनिजरणा / जेणं सहहह तयं, सम्म खहगाइबहुभेयं // 15 // . जीवश्च अजीवश्च पुण्यं च पापं च आश्रवश्व संवरश्च बन्धश्च मोक्षश्च निर्जरणं च निर्जरा, . एतानि नव तत्त्वानि 'येन' कर्मणा 'श्रद्दधाति' प्रत्येति तत् सम्यक्त्वमुच्यते / तत्र नव तत्त्वान्यमूनि जीवाश्ऽजीवा 2 पु+३, पावाऽऽसव 5 संवरो 6 य निजरणा / १°नां मारक० ख०म०प०3०॥ २जीवाजीवो पुण्यं पापमाश्रयः संवरथ निर्जरणा बन्धो मोक्षव तथा नव तत्त्वानि भवन्ति इति झेयानि ॥१॥एकविधद्विविधत्रिविधाचतुर्धा पचविधषद्विधा जीवा। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 14-15] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / बंधो 8 मुक्खो 9 य तहा, नव तत्ता हुंति इय नेया // 1 // एगविहदुविहतिविहा, चउहा पंचविहछबिहा जीवा / चेयण१तसइयरेहिं 2, वेय३गईश्करण५काएहिं६ // 2 // एगिदिय सुहुमियरा, बितिचउसनीअसन्निपंचिंदी। अपजत्ता पजचा, चउदसभेया अहव जीवा // 3 // पण थावर सुहुमियरा, परित्तवणसन्नऽसन्निविगलतिगं / इय सोलस अपजत्ता, पज्जता जीव बत्तीसा // 1 // धम्माऽधम्माऽऽगासा, य दवदेसप्पएसओ तिविहा / गइठाणऽवगाहगुणा, कालो य अरूविणो दसहा // 5 // खंधा देस पएसा, परमाणू पुग्गला चउह रूवी / जीवं विणा अचेयण, अकिरिया सबगय वोमं // 6 // कालो माणुसलोए, जियधम्माऽधम्म लोयपरिमाणा / सधे दवं इट्ठा, काल विणा अस्थिकाया य // 7 // घम्माऽधम्माऽऽगासा, कालो परिणामिए इहं भावे / उदयपरिणामिए पुग्गला उ सधेसु पुण जीवा // 8 // जीवाजीवतत्त्वे // तिरिनरसुराउ उच्चं, सायं परघायआयवुजोयं / जिणऊसासनिमाणं, पणिदिवइरुसभचउरंसं // 9 // तसदस चउवन्नाई, सुरमणुदुग पंचतणु उवंगतिगं / अगुरुलहु पढमखगई, बायाला पुन्नपगईओ // 10 // पुण्यतत्त्वम् // नाणंतराय पण पण, नव बीए नियअसायमिच्छतं / थावरदस नरयतिगं, कसायपणवीस तिरियदुगं // 11 // चउजाई उवघायं, अपढमसंघयणखगइसंठाणा / वन्नाइअसुभचउरो, बासीई पावपगडीओ // 12 // पापतत्त्वम् / / चेतनत्रसेतरेर्वेदगतिकरणकायैः // 2 // एकेन्द्रियाः सूक्ष्मेतरा द्वित्रिचतुःसंश्यसविपचिन्द्रियाः / अपर्याप्ताः पर्याप्तायतुर्दशमेदा अथवा जीवाः॥३॥ पश्च स्थावराः सूक्ष्मेतराः प्रत्येकवनसंश्यसशिविकलत्रिकम् / इति षोडशापर्याप्ताः पर्याप्ता जीवा द्वात्रिंशत् ॥४॥धर्माधर्माकाशाथ द्रव्यदेशप्रदेशतविविधाः / गतिस्थानावकाश. गुणाः कालचारूपिणो दशधा // 5 // स्कन्धा देशाः प्रदेशाः परमाणवः पुद्रलावतुर्षा रूपिणः। जीवं विनाऽचे. तना भक्रियाः सर्वगतं व्योम ॥६॥कालो मनुष्यलोके जीवधर्माऽधर्मा लोकपरिमाणाः / सर्वाणि व्याणीयानि का विनाऽस्तिकायाय // 7 // धर्माऽधर्माऽकाशाः कालः पारिणामिके इह मावे। उदयपारिणामिके पुदलातु सर्वेषु पुनर्जीवाः // 8 // तिर्यमरसुरायुरुचैः (गोत्र) सातं पराघाताऽऽतपोद्योतम् / जिनोच्छासनिर्माण, पञ्चेन्द्रियवर्षभचतुरस्रम् ॥९॥त्रसदशकं चत्वारो वर्णादयः सुरमनुष्यदिकं पञ्च तनव उपात्रिकम् / भगुरुनधु प्रथमखगतिर्दिचलारिंशत्पुण्यप्रकृतयः ॥१०॥ज्ञानान्तरायाः पच पर नव द्वितीये नीचासातमिथ्यात्वम् / स्थावरदशर्क नरकत्रिक कषायपश्चविंशतिविर्यद्विकम् // 11 // चतस्रो जातय उपपातमप्रथमसंहननखगतिसंस्थानानि / वर्णायशुभचतुष्कं सशीतिः पापप्रकृतयः॥ 12 // Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा 'इंदिय कसाय अवय, किरिया पण चउर पंच पणवीसा / जोगतिगं बायाला, आसवभेया इमा किरिया // 13 // काइय 1 अहिगरणीयार, पाउसिया 3 पारितावणी किरिया / पाणइवाया५ऽऽरंभिय६, परिगहिया 7 मायवती य 8 // 14 // मिच्छादसणवत्ती 9, अप्पचक्खाण 10 दिट्टि 11 पुट्टी य१२ / पाडुच्चिय 13 सामंतोवणीय 14 नेसत्थि 15 साहत्थी 16 // 15 // आणवणि 17 वियारणिया 18, अणभोगा 19 अणवकंखपच्चइया 20 / अन्नापओग 21 समुदाण२२, पिज२३दोसे२४रियावहिया२५ // 16 // आश्रवतत्त्वम् // भावण चरण परीसह, समिई जइधम्म गुत्ति बारस उ / पंच दुवीसा पण दस, तिय संवरभेय सगवन्ना // 17 // संवरतत्त्वम् // बारसविहं तवो निज्जरा उ अहवा अकामसक्कामा / / पयइठिईअणुभागप्पएसभेया चउह बंधो // 18 // निर्जराबन्धतत्त्वे // संतपयपरूवणया१, दवपमाणं च 2 खित्त 3 फुसणा य 4 / कालो 5 अंतर 6 भागा 7, भाव ८ऽप्पबहू 9 नवह मुक्खो // 19 // जिण१अजिणरतित्थ३तित्था४, गिह५अन्नक्षसलिंग थीटनर९नपुंसा१०। पत्तेय११संयबुद्धा१२, वि बुद्धबोहि १३क१४ऽणिक्का य१५॥ 20 // इति मोक्षतत्त्वम् // इत्युक्तं सझेपतो नवतत्त्वखरूपम् , विस्तरतस्तु श्रीधर्मरत्नटीकातोऽवसेयम् / तदेवं येन कर्मणाऽमूनि नव तत्त्वानि श्रद्दधाति तत् सम्यक्त्वम्, किंविशिष्टं ? "खइयाइबहुभेयं" ति क्षायिकमादौ येषां ते क्षायिकादयः, क्षायिकादयो बहवो भेदाः प्रकारा यस्य तत् क्षायिकादिबहुभेदम् / इहादिशब्दावेदकौपशमिकसाखादनक्षायोपशमिकग्रहणम् / एतयाख्यानगाथा 1 इन्द्रियाणि कषायाः अव्रतानि कियाः पञ्च चलारः पञ्च पञ्चविंशतिः। योगत्रिकं द्वाचवारिंशदाश्रवमेदा इमाः क्रियाः // 13 // कायित्यधिकरणिकी प्रादेषिकी पारितापनिकी क्रिया / प्राणातिपातिक्यारम्भिकी पारिग्र. हिकी मायाप्रत्ययिकी च // 14 // मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी अप्रत्याख्यानिकी दृष्टिकी स्पृष्टिकी च / प्रातित्यकी . सामन्तोपनिपातिकी नैःश त्रिकी खाहस्तिकी // 15 // आनयनिकी विदारणिकाऽनाभोगिकी अनवकालाप्रत्ययिकी / अन्यप्रायोगिकी समुदानिकी प्रेमिकी दैषिकी ऐर्यापथिकी // 16 // भावनाः चरणानि परीषहाः समितयः यतिधर्माः गुप्तयः द्वादश तु / पञ्च द्वाविंशतिः पञ्च दश त्रिकं संवरमेदाः सप्तपञ्चाशत् // 17 // द्वादश विधं तपो निर्जरा तु अथवा अकामसकामा। प्रकृतिस्थितिअनुभागप्रदेशभेदाच्चतुर्धा बन्धः // 18 // सत्पदप्ररूपणता द्रव्यप्रमाणं च क्षेत्रं स्पर्शना च / कालोऽन्तरभागौ भावाल्पबहुत्वे नवधा मोक्षः // 19 // जिनाजिनतीर्थातीर्थी गृहान्यखलिंगस्त्रीनरनपुंसकाः। प्रत्येकवयंवुद्धा अपि बुद्धबोधितकानेके (सिद्धाः) च // 20 // Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 16] 33 कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः। खीणे दंसणमोहे, तिविहम्मि वि खाइयं भवे सम्मं / वेयगमिह सबोइयचरमिल्लयपुग्गलग्गासं // (धर्मसं० 801) उवसमसेढिगयस्स उ, होइ हु उवसामियं तु सम्मत्तं / जो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं // उवसमसम्मत्ताओ, चयओ मिच्छं अपावमाणस्स / सासायणसम्मत्तं, तयंतरालम्मि छावलियं // मिच्छत्तं जमुइन्नं, तं खीणं अणुइयं च उवसंतं / मीसीभावपरिणयं, वेइज्जंतं खओवसमं // (विशे० आ० गा० 529-31-32) इति // 15 // उक्तं सम्यक्त्वम् / अथ मिश्रमाह__ मीसा न रागदोसो, जिणधम्मे अंतमुहु जहा अन्ने / नालियरदीवमणुणो, मिच्छं जिणधम्मविवरीयं // 16 // "मिश्रात्' मिश्रोदयाद् जीवस्य 'जिनधर्मे जिनधर्मस्योपरि न रागः-मतिदौर्बल्यादिना एकान्तनिश्चयात्मकश्रद्धानरूपः प्रीतिविशेषः, न च द्वेषः-एकान्तविप्रतिपत्तिपरिणामोपजातनिन्दा मकोप्रीतिरूपः / मिश्रोदयश्च "अंतमुहु" त्ति 'अन्तर्मुहूर्त' भिन्नमुहूर्तकालं यावद् भवती. त्यर्थः / अथ कथं मिश्रोदयाज्जिनधर्मे न रागो न द्वेषः ! इत्याशक्य दृष्टान्तमाह-"जहा अन्ने" इत्यादि / 'यथा' इत्युदाहरणोपन्यासे 'अन्ने कुराधोदने 'नालिकेरद्वीपमनुजस्य' नालिकेरद्वीपवासिपुरुषस्य न रागो न च द्वेषोऽदृष्टाऽश्रुतत्वेन / उक्तं च बृहच्छतकबृहचूर्णी जैहा नालिकेरदीववासिस्स अइछुहाइयस्स वि पुरुसस्स इत्थ ओयणाइए अणेगविहे - वि ढोइए तस्स आहारस्स उवरिं न रुई न य निंदा, जेण कारणेण सो ओयणाइओ आहारो न कयाइ दिट्ठो नावि सुओ / एवं सम्मामिच्छदिद्विस्स वि जीवाइपयत्थाणं उवरिं न रुई न य निंदा // इत्यादि। उक्तं मिश्रम् / सम्प्रति मिथ्यात्वमाह-"मिच्छं जिणधम्मविवरीयं" ति / "मिच्छं" ति मिथ्यात्वं जिनधर्माद् विपरीतं-विपर्यसं ज्ञेयमिति शेषः / अत्रायमाशयः-रागद्वेषमोहादिकलवाकितेऽदेवेऽपि देवबुद्धिः, "धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मपरायणः / सत्त्वानां धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते // " १क्षीणे दर्शनमोहे त्रिविधेऽपि क्षायिकं भवेत्सम्यक्त्वम् / वेदकमिह सर्वोदितचरमपुदलप्रासम् // उपशमश्रेणिगतस्य तु भवति खलु औपशमिकं तु सम्यक्त्वम् / यो वाऽकृतत्रिपुजोऽक्षपितमिथ्यात्वो लभते सम्यक्वम् // उपशमसम्यक्त्वाच्यवमानस्य मिथ्यालमप्राप्नुवतः / साखादनसम्यक्त्वं तदन्तराले षडावलिकम् // मिथ्यात्वं यदुदीर्ण तत्क्षीणमनुदितं चोपशान्तम् / मिश्रीभावपरिणतं वेद्यमानं क्षायोपशमिकम् // 2 उवसामगसेढिगयस्स होइ उव इति भाष्ये // 3 यथा नालिकेरदीपवासिनोऽतिक्षुधादितस्यापि पुरुषस्येहौदनादिकेऽनेकविधेऽपि दौकिते तस्याहारस्योपरि न रुचिर्न च निन्दा, येन कारणेन स ओदनादिक आहारो न कदाचिद् दृष्टो नापि श्रुतः। एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टेरपि जीवादिपदार्थानामुपरिन रुचिर्न च निन्दा // क०५ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 31 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा इत्यादिप्रतिपादितगुरुलक्षणविलक्षणेऽगुरावपि गुरुबुद्धिः, संयमसूनृतशौचब्रमसत्यादि(ब्रह्माकिश्चन्यादि)खरूपधर्मप्रतिपक्षेऽधर्मेऽपि धर्मबुद्धिरिति मिथ्यात्वम् // 16 // उकं मिथ्यात्वम् , तगणने चाभिहितं त्रिविधमपि दर्शनमोहनीयम् / इदानीं चारित्रमोहनीयमभिघित्सुराह सोलस कसाय नव नोकसाय दुविहं चरित्तमोहणियं / अण अप्पच्चक्खाणा, पञ्चक्खाणा य संजलणा // 17 // 'द्विविघं' द्विमेदं चारित्रमोहनीयं भवति, वद्यथा-"सोलस कसाय" ति कष्यन्ते-हिंस्यन्ते परस्परमस्मिन् प्राणिन इति कषः-संसारः, कषमयन्ते-गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषायाः। यद्वा कषस्याऽऽयः-लामो येभ्यस्ते कषायाः क्रोधमानमायालोमाः। तत्र क्रोधोऽक्षान्तिपरिणतिरूपः, मानो जात्यादिसमुत्थोऽहकारः, माया परवञ्चनाद्यामिका, लोभोऽसन्तोषात्मको गृद्धिपरिणामः / ततः षोडशसङ्ख्याः कषायाः कषायमोहनीयमुच्यते / विभक्तिलोपश्च प्राकृतत्वात् , एवमुत्तरत्रापि / “नव नोकसाय" ति कषायैः सहचरा नोकषायाः, ते च नव-हास्यादयः षट् त्रयो वेदाः / अत्र नोशब्दः साहचर्यवाची / एषां हि केवलानां न प्राधान्यमस्ति, किन्तु कषायैरनन्तानुबन्ध्यादिभिः सहोदयं यान्ति, तद्विपाकसदृशमेव विपाकं दर्शयन्ति, बुधग्रहवदन्यसं. सर्गमनुवर्तन्ते इति भावः / कषायोद्दीपनाद्वा नोकषायाः / उक्तं च कषायसहवर्तित्वात् , कषायप्रेरणादपि / हास्यादिनवकस्योक्ता, नोकषायकषायता // ततो नवसङ्ख्या नोकषाया नोकषायमोहनीयमुच्यते / अथ “यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायात् प्रथमं कषायमोहनीयं व्याख्यानयन्नाह-"अण अप्पञ्चक्खाणा" इत्यादि / “अण" वि अनन्तानुबन्धिनः / तत्रानन्तं संसारमनुबधन्तीत्येवंशीला अनन्तानुवन्धिनः / यदवाचि यस्मादनन्तं संसारमनुबन्ति देहिनाम् / ततोऽनन्तानुबन्धीति, संज्ञाऽऽद्येषु निवेशिता // ते चत्वारः क्रोधमानमायालोमाः / यद्यपि चैतेषां शेषकषायोदयरहितानामुदयो नास्ति, तथाप्यवश्यमनन्तसंसारमौलकारणमिथ्यात्वोदयाक्षेपकत्वादेषामेवानन्तानुबन्धित्वव्यपदेशः। शेषकपाया हि नावश्यं मिथ्यात्वोदयमाक्षिपन्ति, अतस्तेषामुदययोगपद्ये सत्यपि नायं व्यपदेश इत्यसाधारणमेतेषामेवैतन्नामेति / तथा न वेद्यते खल्पमपि प्रत्याख्यानं येषामुदयादतोऽप्रत्याख्यानाः। यदभाणि नाल्पमप्युत्सहेयेषां, प्रत्याख्यानमिहोदयात् / अप्रत्याख्यानसंज्ञाऽतो, द्वितीयेषु निवेशिता // ते चत्वारः क्रोधमानमायालोमाः। तथा प्रत्याख्यानं सर्वविरतिरूपमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः / यन्यगादि सर्वसावद्यविरतिः, प्रत्याख्यानमिहोच्यते / तदावरणसंज्ञाऽतस्तृतीयेषु निवेशिता // १भायाः कषायाः। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17-18] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मप्रन्धः / ते चत्वारः क्रोधमानमायालोमाः / तथा परीषहोपसर्गोपनिपाते सति चारित्रिणमपि 'संशब्द ईषदर्थे' सम्-ईषद ज्वलयन्ति-दीपयन्तीति संज्वलनाः / यदभ्यधायि परीषहोपसर्गोपनिपाते यतिमप्यमी / ___ समीषद् ज्वलयन्त्येव, तेन संज्वलनाः स्मृताः // ते चत्वारः क्रोधमानमायालोमाः / तदेवं चत्वारश्चतुष्ककाः षोडश भवन्तीति // 17 // उक्काः षोडश कषायाः, सम्प्रत्येतेषामेव विशेषतः किञ्चित् खरूपं प्रतिपिपादयिषुराह जाजीववरिसचउमासपक्खगा नरयतिरियनरअमरा। सम्माणुसव्वविरईअहखायचरित्तघायकरा // 18 // "जाजीव" ति "यावत्वावजीवितावर्तमानावटमावारकदेवकुलैवमेवे वः" (सि०८-१२७१) इति प्राकृतसूत्रेण वकारलोपे यावजीवं च वर्ष च चतुर्मासं च पक्षश्च यावज्जीववर्षचतुर्मासपक्षास्तान् गच्छन्तीति यावज्जीववर्षचतुर्मासपक्षगाः / “नाम्नो गमः खड्डौ च विहायसस्तु विहः" (सि०५-१-१३१) इति डप्रत्ययः / इदमुक्तं भवति-यावज्जीवानुगा अनन्तानुबन्धिनः, वर्षगा अप्रत्याख्यानावरणाः, चतुर्मासगाः प्रत्याख्यानावरणाः, पक्षगाः संज्वलनाः / इदं च फरुसवयणेण दिणतवं, अहिक्खिवंतो य हणइ मासतवं / वरिसतवं सवमाणो, हणइ हणंतो यं सामन्नं // (उप० मा० गा० 134) इत्यादिवद् व्यवहारनयमाश्रित्योच्यते; अन्यथा हि बाहुबलिप्रभृतीनां पक्षादिपरतोऽपि संज्वलनाद्यवस्थितिः श्रूयते, अन्येषां च संयतादीनामाकर्षादिकाले प्रत्याख्यानावरणानामप्रत्याख्यानावरणानामनन्तानुबन्धिनां चान्तर्मुहूर्तादिकं कालमुदयः श्रूयत इति / तथा नरकगतिकारणत्वांदनन्तानुबन्धिनः कषाया अपि नरकाः, भवति च कारणे कार्योपचारः, यथा-"आयुधृतम् , नडलोदकं पादरोगः" इति / एवं तिग्गतिकारणत्वात् तिर्यञ्चोऽप्रत्याख्यानावरणाः, नरगतिकारणत्वान्नराः प्रत्याख्यानावरणाः, अमरगतिकारणत्वादमराः संज्वलनाः / एतदुक्तं भवति–अनन्तानुबन्ध्युदये मृतो नरकगतावेव गच्छति, अप्रत्याख्यानावरणोदये मृतस्तिर्यक्षु, प्रत्याख्यानावरणोदये मृतो मनुष्येषु, संज्वलनोदये पुनर्पतोऽमरेष्वेव गच्छति / उक्तश्चायमर्थः पश्चानुपूर्व्याऽन्यत्रापि पैक्खचउमासवच्छरजावज्जीवाणुगामिणो भणिया / देवनरतिरियनारयगइसाहणहेयवो नेया // (विशे० गा० 2992) - इंदमपि व्यवहारनयमधिकृत्योच्यते; अन्यथा हि अनन्तानुबन्ध्युदयवतामपि मिथ्याशा केषाञ्चिदुपरितनौवेयकेषत्पत्तिः श्रूयते, प्रत्याख्यानावरणोदयवतां देशविरतानां देवगतिः, अप्रत्याख्यानावरणोदयवतां च सम्यग्दृष्टिदेवानां मनुष्यगतिः / तथा “सम्म" ति सम्यक्त्वं च "अणुसबविरइ"ति विरतिशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद् अणुविरतिश्च-देशविरतिः सर्वविर.१ परुषवचनेन दिनतपोऽधिक्षिपंश्च हन्ति मासतपः / वर्षतपः शपमानः हन्ति ग्रंथ श्रामण्यम् // 2 पक्षचतुर्मासवत्सरयावज्जीवानुगामिनो भणिताः / देवनरतिर्यमारकगतिसाधनहेतवो ज्ञेयाः॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा तिश्च यथाख्यातचारित्रं च सम्यक्त्वाणुसर्वविरतियथाख्यातचारित्राणि तेषां पात:-विनाशः सम्यक्त्वाणुसर्वविरतियथाख्यातचारित्रघातस्खं कुर्वन्तीत्येवंशीलाः सम्यक्त्वाणुसर्वविरतियथाख्यातचारित्रघातकराः / एतदुक्तं भवति–अनन्तानुबन्धिनः कषायाः मम्यक्त्वघातकाः। यदाहुः श्रीभद्रबाहुखामिपादाः पंढमिल्ल्याण उदए, नियमा संजोयणाकसायाणं / सम्मइंसणलंभं, भवसिद्धीया विन लहंति // (आ०नि० गा० 108) अप्रत्याख्यानावरणा देशविरतर्घातकाः, न सम्यक्त्वस्येत्याल्लब्धम् / यदाहुः पूज्यपादाः बीयकसायाणुदये, अप्पञ्चक्खाणनामधिज्जाणं / सम्मइंसणलंभ, विरयाविरयं न उ लहंति // (आ० नि० गा० 109) प्रत्याख्यानावरणास्तु सर्वविरतर्घातकाः, सामर्थ्यान्न देशविरतेः / उक्तं च तैइयकसायाणुदए, पञ्चक्खाणावरणनामधिजाणं / / देसिकदेसविरई, चरित्तलंभं न उ लहंति // (आ० नि० गा० 110) - संज्वलनाः पुनर्यथाख्यातचारित्रस्य घातकाः, न सामान्यतः सर्वविरतेः / उक्तं च श्रीमदाराध्यपादैः मूलगुणाणं लंभ, न लहइ मूलगुणघाइणं उदए / संजलणाणं उदए, न लहइ चरणं अहक्खायं // (आ० नि० गा० 111) इति // 18 // अथ जलरेखादिदृष्टान्तेन किश्चित्सविशेष कोषादिकषायाणां खरूपं व्याचिख्यासुराह जलरेणुपुढविपव्वयराईसरिसो चउव्विहो कोहो। . तिणिसलयाकट्ठडियसेलत्थंभोवमो माणो // 19 // इह राजिशब्दः सदृशशब्दश्च प्रत्येकं सम्बध्यते / ततो जलराजिसदृशस्तावत् संज्वलन क्रोधः, यथा यट्यादिभिर्जलमध्ये राजी-रेखा क्रियमाणा शीघ्रमेव निवर्तते, तथा यः कथमप्युदयप्राप्तोऽपि सत्वरमेव व्यावर्तते स संज्वलनः क्रोधोऽभिधीयते 1 / रेणुराजिसदृशः प्रत्याख्यानावरणः क्रोधः, अयं हि संज्वलनक्रोधापेक्षया तीव्रत्वा रेणुमध्यविहितरेखावत् चिरेण निवर्तत इति भावः 2 / पृथिवीराजिसशस्त्वप्रत्याख्यानावरणः, यथा स्फुटितपृथिवीसम्बधिनी राजी कचवरादिभिः पूरिता कष्टेनापनीयते, एवमेषोऽपि प्रत्याख्यानावरणापेक्षया कष्टेन निवर्तत इति भावः 3 / विदलितपर्वतराजिसदृशः पुनरनन्तानुबन्धी क्रोधः, कथमपि निवर्तयितुमशक्य इत्यर्थः 1 / उक्तश्चतुर्विधः क्रोधः // ___ इदानीं मानोऽभिधीयते--तत्र तिनिसलतोपमः संज्वलनो मानः, यथा तिनिशः-वनस्पति प्राथमिकानामुदये नियमात्संयोजनाकषायाणाम् / सम्यग्दर्शनलाभं भवसिद्धिका अपि न लभन्ते // 2 द्वितीयकषायाणामुदयेऽप्रत्याख्याननामधेयानाम् / सम्यग्दर्शनलाभं विरताविरतं न तु लभन्ते // 3 तृतीयकषायाणामुदये प्रत्याख्यानावरणनामधेयानाम् / देशैकदेशविरतिं चरित्रलाभं न तु लभन्ते // 4 मूलगुणानां काम न लभते मूलगुणधाविनामुदये / संज्वलनानामुदये न लभते चरणं यथाख्यातम् // Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19-21] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / विशेषस्तत्सम्बन्धिनी लता सुखेनैव नमति, एवं यस्य मानस्सोदये जीवः खाग्रहं मुक्त्वा सुखेनैव नमति स संज्वलनमानः 1 / यथा स्तब्धं किमपि काष्ठममिखेदादिबहूपायैः कष्टेन नमति, एवं यस्य मानस्योदये जीवोऽपि कष्टेन नमति स काष्ठोपमः प्रत्याख्यानावरणो मानः 2 / यथाऽस्थि-हड्डु बहुतरैरुपायैरतितरां महता कष्टेन नमति, एवं यस्य मानस्योदये जीवोऽप्यतितरां महता कष्टेन नमति सोऽस्थ्युपमोऽप्रत्याख्यानावरणो मानः 3 / शिलायां घटितः शैलः शैलश्चासौ स्तम्भश्च शैलस्तम्भस्तदुपमस्त्वनन्तानुबन्धी मानः, कथमप्यनमनीय इत्यर्थः // 19 // उक्तश्चतुर्विधो मानः। अथ मायालोभी व्याख्यानयन्नाह- मायाऽवलेहिगोमुत्तिमिंदसिंगघणवंसिमूलसमा / लोहो हलिदखंजणकदमकिमिरागसामाणो // 20 // मायाऽवलेखिकासमा संज्वलनी, धनुरादीनामुल्लिख्यमानानां याऽवलेखिका वक्रत्वग्रूपा पतति, यथाऽसौ कोमलत्वात् सुखेनैव प्राञ्जलीक्रियते, एवं यस्या उदये समुत्पन्नाऽपि हृदये कुटिलता. सुखेनैव निवर्तते सा संज्वलनी माया 1 / गौः-बलीवर्दस्तस्य मार्गे गच्छतो वक्रतया पतिता मूत्रधारा गोमूत्रिकाऽभिधीयते, यथाऽसौ शुष्का पवनादिभिः किमपि कष्टेन नीयते, एवं यजनिता कुटिलता कष्टेनापगच्छति सा गोमूत्रिकासमा प्रत्याख्यानावरणी माया 2 / एवं मेषशृङ्गसमायामप्यप्रत्याख्यानावरणमायायां भावना कार्या, नवरमेषा कष्टतरनिवर्तनीया 3 / धनवंशीमूलसमा त्वनन्तानुबन्धिनी माया, यथा निबिडवंशीमूलस्य कुटिलता किल वहिनाऽपि न दह्यते, एवं यजनिता मनःकुटिलता कथमपि न निवर्तते साऽनन्तानुबन्धिनी माये. त्यर्थः 4 / तथा लोभो हरिदारागसमानः संज्वलनः, यथा वाससि हरिदारागः सूर्यातपस्पर्शादिमात्रादेव निवर्तते तथाऽयमपीत्यर्थः 1 / कष्टनिवर्तनीयो वस्त्रविलमप्रदीपादिखञ्जनसमानः प्रत्याख्यानावरणलोभः 2 / कष्टतरापनेयो वस्त्रलमनिबिडकर्दमसमानोऽप्रत्याख्यानावरणलोमः 3 / कृमिरागरक्तपट्टसूत्ररागसमानः कथमप्यपनेतुमशक्योऽनन्तानुबन्धी लोभ 4 इति // 20 // उक्तं कषायमोहनीयम् / अथ नोकषायमोहनीयं व्याख्यायते, तच्च द्विविधम्-हास्यादिषट्कं वेदत्रिकं च / तत्र हास्यादिषट्कं व्याख्यानयन्नाह जस्सुदया होइ जिए, हास रई अरइ सोग भय कुच्छा। सनिमित्तमन्नहा वा, तं इह हासाइमोहणियं // 21 // . यस्य 'उदयाद्' विपाकात् 'भवति' जायते 'जीवे' जीवस्य हासो रतिः अरतिः शोको भयं "कुच्छ"ति जुगुप्सा, हासादिशब्देषु सिलोपः प्राकृतत्वात् , 'सनिमित्तं' सकारणम् 'अन्यथा' अनिमित्तं निष्कारणम् , वाशब्दः पक्षान्तरद्योतकः, तद् इह' प्रवचने हास्यादिमोहनीयम् / आदिशब्दाद् रतिमोहनीयम् अरतिमोहनीयं शोकमोहनीयं भयमोहनीयं जुगुप्सामोहनीयं मण्यत इति शेषः, इति गाथाक्षरार्थः / भावार्थः पुनरयम्-यदुदयात् सनिमित्तमनिमिचं वा जीवस्य हासः-हास्वं भवति तद् हासमोहनीयम् 1 / यदुदयात् सनिमित्तमनिमित्रं वा बाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु जीवस्य रतिः-प्रमोदो भवति तद् रतिमोहनीयम् 2 / यदुदयात् सनिमिच१ कष्टेनापनीय ग० घ०॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपाटीकोपेतः - गाथा मनिमित्तं वा जीवस्य बाधाभ्यन्तरेषु वस्तुष्वरतिः-अप्रीतिर्भवति तद् अरतिमोहनीयम् 3 / यदुदयात् सनिमित्तमन्यथा वा जीवस्योरस्ताडनक्रन्दनपरिदेवनदीर्घनिःश्वसनभूलुठनरूपः शोको भवति तत् शोकमोहनीयम् 4 / यदुदयात् सनिमितमनिमितं वा तथारूपखसङ्कल्पतो जीवस्य "इहपरलोयारऽऽदाण३मकम्हा४आजीव५मरणक्ष्मसिलोए 7 / " (आव०सं०गा० पत्र 615-2) इति गाथाधोक्तं सप्तविधं भयं भवति तद् भयमोहनीयम् 5 / यदुदयात् सनिमित्तमनिमित्तं वा जीवस्याशुभवस्तुविषया जुगुप्सा-व्यलीकं भवति तद् जुगुप्सामोहनीयम् 6 // 21 // उक्तं हास्यादिषट्कं, सम्प्रति वेदत्रिकमाह पुरिसित्थि तदुभयं पह, अहिलासो जव्वसा हवह सोउ। थीनरनपुवउदओ, फुफुमतणनगरदाहसमो॥२२॥ प्रतिशब्दः प्रत्येकं योज्यते, पुरुष प्रति स्त्रियं प्रति तदुभयं प्रति-स्त्रीपुरुषं प्रतीत्यर्थः 'यद्वशात्' यत्पारतध्याद् 'अभिलाषः' वान्छा भवति' जायते, तुशब्दः परस्परापेक्षया पुनरर्थे, सी-योषित् नरः-पुरुषः "नपु"त्ति नपुंसकं तैवेद्यते-अनुभूयते स्त्रीनरनपुंवेदस्तस्योदयः स्त्रीनरनपुंवेदोदयो ज्ञेय इति शेषः / पुम्फुमा-करीषम् तृणानि-प्रतीतानि नगर-पुरम् फुस्फुमातृणनगराणि तेषां दाहस्तेन समः-तुल्य इति गाथाक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्-यद्वशात् स्त्रियाः पुरुषं प्रत्यमिलापो भवति, यथा पित्तवशाद् मधुरद्रव्यं प्रति, स फुस्फुमादाहसमः, [* यथा यथा चाल्यते तथा तथा ज्वलति "बृंहति च, एवमबलाऽपि यथा यथा संस्पृश्यते पुरुषेण तथा तथाऽस्या अधिकतरोऽभिलाषो जायते, अभुज्यमानायां तु च्छन्नकरीषदाहतुल्योऽभिलाषो मन्दइत्यर्थः, इति *] स्त्रीवेदोदयः 1 / यद्वशात् पुरुषस्य स्त्रियं प्रत्यभिलाषो भवति, यथा श्लेष्मवशादम्लं प्रति, स पुनस्तृणदाहसमः, [* यथा तृणानां दाहे ज्वलनं झटिति विध्यापनं च भवति, एवं पुंवेदोदये स्त्रियाः सेवनं प्रत्युत्सुकोऽभिलाषो भवति, निवर्तते च तत्सेवने शीघ्रमिति *] नरवेदोदयः 2 / यद्वशाद् नपुंसकस्य तदुभयं प्रत्यभिलाषो भवति, यथा पित्तश्लेष्मपश्चात् मज्जिका प्रति, स पुनर्नगरदाहसमः, [* यथा नगरं दह्यमानं महता कालेन दह्यते विध्याति च महतैव, एवं नपुंसकवेदोदयेऽपि स्त्रीपुरुषयोः सेवनं प्रत्यभिलाषातिरेको महताऽपि कालेन न निवर्तते, नापि सेवने तृप्तिरिति *] नपुंवेदोदयः 3 / अभिहितं वेदत्रिकम् , तदभिधाने चाभिहितं नवधा नोकषायमोहनीयम् , तदमिधाने च समर्थितं चारित्रमोहनीयमिति // 22 // उक्तमष्टाविंशतिविधं चतुर्थे मोहनीयं कर्म, इदानीं पश्चममायुष्कर्म व्याचिख्यासुराह सुरनरतिरिनरयाऊ, हडिसरिसं नामकम्म चित्तिसमं / बायालतिनवइविहं, तिउत्तरसयं च सत्तही // 23 // आयुःशब्दः प्रत्येकं योज्यते, ततश्च सुष्ठु राजन्त इति सुराः, यद्वा "सुरत् ऐश्वर्यदीप्त्योः" 1 इहपरलोकादानमकस्मादाजीविकामरणमश्लोकः // 2 [* *-एताहकू सफुल्लिककोष्ठकान्तःपाती सन्दर्भः क पुस्तके मास्ति, एवमप्रेऽपि // ३°था फुम्फुमा चाख०॥ 4 दहति च ख० गळ म.१०॥ ५°वमानाऽपि ख०॥ 6 दाघे ख०म० 0 // Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22-24] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / सुरन्ति-विशिष्टमैश्वर्यमनुभवन्ति दिव्याभरणकान्त्या सहजशरीरकान्त्या च दीप्यन्त इति सुराः, यदि वा सुष्टु रान्ति-ददति प्रणतानामीप्सितमर्थ लवणाधिपसुस्थित इव लवणजलधौ मार्ग जनार्दनस्येति सुराः-देवाः तेषामायुः सुरायुर्येन तेष्ववस्थितिर्भवति 1 / नृणन्वि-निश्चिन्बन्ति वस्तुतत्त्वमिति नराः-मनुष्याः तेषामायुर्नरायुस्तद्भवावस्थितिहेतुः 2 / “तिरि" ति प्राकृतस्वात् तिरोऽञ्चन्ति-गच्छन्तीति तिर्यञ्चः, व्युत्पतिनिमित्तं चैतत् , प्रवृत्तिनिमित्तं तु तिर्यग्गतिनाम, एते चैकेन्द्रियादयः, ततस्तिरब्धामायुस्तिर्यगायुर्येनैतेषु स्थीयते 3 / नरान् उपलक्षणत्वात् तिरथोऽपि प्रभूतपापकारिणः कायन्तीव-आहृयन्तीवेति' नरकाः-नरकावासास्तत्रोत्पन्ना जन्तवोऽपि नरकाः, नरको वा विद्यते येषां ते "अादिभ्यः" (सि०७-२-४६) इति अप्रत्यये नरकास्तेषामायुर्नरकायुर्येन ते तेषु ध्रियन्ते / एतच्चायुर्हडिसहशं भवति / तत्र हडि:-खोडकस्तेन सरशं तत्तुल्यम् , यथा हि राजादिना हडौ क्षिप्तः कश्चिञ्चौरादिस्ततो निर्गमनमनोरथं कुर्वाणोऽपि विवक्षितं कालं यावत् तया ध्रियते, तथा नारकादिस्ततो निष्क्रमितुमना अपि तदायुषा प्रियत इति हडिसदृशमायुः / व्याख्यातं चतुर्विधं पञ्चममायुष्कर्म // सम्प्रति षष्ठं नामकर्माभिघित्सुराह-"नामकम्म चित्तिसमं" इत्यादि / नामकर्म भवति 'चित्रिसम' चित्रं कर्म तत् कर्तव्यतया विद्यते यस्य स चित्री-चित्रकरतेन समम्-सदृशं चित्रिसमम् / यथा हि चित्री चित्रं चित्रप्रकारं विविधवर्णकैः करोति, तथा नामकर्मापि जीवं नारकोऽयं तिर्यग्जातिकोऽयमेकेन्द्रियोऽयं द्वीन्द्रियोऽयमित्यादिव्यपदेशैरनेकधा करोतीति चित्रिसममिदमिति / एतच्चानेकभेदम् , कथम् ! इत्याह-"बायालतिनवइविहं तिउत्तरसयं च सत्तही" ति / अत्र विधाशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् द्विचत्वारिंशद्विधम् , यद्वा त्रिनवतिविधम् , यदि वा व्युत्तरशतविधम् , अथवा सप्तषष्टिविधम् / चशब्दः समुच्चये व्यवहितसम्बन्धश्च, स च तथैव योजितः // 23 // अथ नामकर्मणो द्विचत्वारिंशतं मैदान् प्रचिकटयिषुराह गइजाइतणुउवंगा, बंधणसंघायणाणि संघयणा। संठाणवन्नगंधरसफासअणुपुग्विविहगगई // 24 // इह नाम्नः प्रस्तावात् सर्वत्र गत्यादिषु नामेत्युपस्कारः कार्यः / तथाहि-गतिनाम जातिनाम तनुनाम उपाङ्गनाम (ग्रन्थानम् 1000) बन्धननाम सङ्घातननाम संहनननाम संस्थाननाम वर्णनाम गन्धनाम रसनाम स्पर्शनाम आनुपूर्वीनाम विहायोगतिनामेति / तत्र गम्यतेतथाविधकर्मसचिवैींवैः प्राप्यत इति गतिः-नारकादिपर्यायपरिणतिः, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि गतिः, सैव नाम गतिनाम 1 / जननं जातिः-एकेन्द्रियादिशब्दव्यपदेश्येन. पर्यायेण जीवानामुत्पतिः, तद्भावनिबन्धनभूतं नाम जातिनाम 2 / तनोति-जन्तुरात्मप्रदेशान् विस्तारयति यस्यां सा तनुः, तज्जनकं कर्मापि तनुः, सैव नाम तनुनाम, शरीरनामेत्यर्थः 3 / "उवंग' ति उपलक्षणत्वाद् अङ्गोपाङ्गनाम, तत्र “अौप व्यक्तिम्रक्षणगतिषु" इति धातोः अज्यन्ते-गर्भोत्पत्तेरारभ्य व्यक्तीभवन्ति जन्मप्रभृतेर्मक्ष्यन्ते चेत्यानि शिरउरउदरादीनि वक्ष्यमाणखरूपाणि, तदवयवभूतान्यगुल्यादीन्युपानानि, शेषाणि तु तत्पत्यवयवभूतान्यङ्गुलिषु १°ति नरकावासास्त ख० ग० 0 // Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा पर्वरेखादीन्योपानानि, ततश्चानानि चोपानानि च अनोपानानि चेति द्वन्द्वे "स्यादावसध्येयः" (सि० 3-1-119) इत्येकशेषे च कृते अनोपानीति, तत्र यदुदयात् शरीरतयोपाचा अपि पुद्गला अनोपानविभागेन परिणमन्ति तत् कर्मापि अनोपाङ्गनाम 4 / बध्यन्तेगृधमाणपुद्गलाः पूर्वगृहीतपुद्गलैः सह श्लिष्टाः क्रियन्ते येन तद् बन्धनं तदेव नाम बन्धननाम 5 / खत एव संघ्नन्ति-सङ्घावमापद्यन्ते, ततस्ते संमन्तः सन्तः सङ्घात्यन्ते-प्रत्येकं शरीरपञ्चकप्रायोग्याः पुद्गलाः पिण्ड्यन्ते येन तत् सङ्घातनं तदेव नाम सङ्घातननाम 6 / संहन्यन्तेधातूनामनेकार्थत्वाद् दृढीक्रियन्ते शरीरपुद्गलाः कपाटादयो लोहपट्टिकादिनेव येन तत् संहननं तदेव नाम संहनननाम 7 / सन्तिष्ठन्ते-विशिष्टावयवरचनात्मिकया शरीराकृत्या जन्तवो भवन्ति येन तत् संस्थानं तदेव नाम संस्थाननाम 8 / वर्ण्यते-अलकियतेऽनेनेति वर्ण: कृष्णादिः, जन्तुशरीरे कृष्णादिवर्णहेतुकं नामकर्मापि वर्णनाम 9 / गन्ध्यते-आघायत इति गन्धः, तद्धेतुत्वान्नामकर्मापि गन्धनाम 10 / रस्यते-आखाद्यत इति रसस्तिक्तादिः, जन्तुशरीरे तिकादिरसहेतुकं कर्मापि रसनाम 11 / स्पृश्यत इति स्पर्शः कर्कशादिः, तद्धेतुत्वात् कर्मापि स्पर्शनाम 12 / द्विसमयादिना विग्रहेण भवान्तरं गच्छतो जन्तोरनुश्रेणिनियता गमनपरिपाटी आनुपूर्वी, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरप्यानुपूर्वी 13 / गमनं गतिः, सा पुनरत्र पादादिविहरणात्मिका देशान्तरप्राप्तिहेतुर्दीन्द्रियादीनां प्रवृचिरभिधीयते, नैकेन्द्रियाणां पादादेरभावात् , ततो विहायसा-नभसा गतिर्विहायोगतिः, तद्धेतुत्वात् कर्मापि विहायोगतिनाम 14 / ननु विहायसः सर्वगतत्वेन ततोऽन्यत्र गमनाभावाद् व्यवच्छेद्याभावेन विहायसेति विशेषणस्य वैयर्थ्यम्, सत्यम् , किन्तु यदि गतिरित्येवोच्येत तदा नाम्नः प्रथमप्रकृतिरपि गतिरस्त्रीति पौनरुक्त्याशक्षा स्यात् , तयवच्छेदार्थ विहायोग्रहणमकारि, विहायसा गतिः प्रवृत्तिर्न तु भवगतिर्नारकादिकेति // 24 // अथ प्रदर्शितानां गत्यादिप्रकृतीनामभिधानसझ्याकथनपूर्वकमष्टौ प्रत्येकप्रकृतीराह पिंडपयडि त्ति चउदस, परघाउस्सासआयवुज्जोयं / ___ अगुरुलहुतित्थनिमिणोवधायमिय अह पत्तेया // 25 // एतैर्गतिनामादिभिः पदैर्वक्ष्यमाणचतुरादिभेदानां पिण्डितानां प्रतिपादनात् पिण्डप्रकृतय उच्यन्ते / काः ! 'इति' इति एता गत्यादयोऽनन्तरगाथोद्दिष्टाः प्रकृतयः / कियन्त्यः पुनस्ताः! इत्याह-चतुर्दशसहयाः / तथा प्रक्रमानामशब्दः पराघातादिष्वप्यध्याहार्यः, तद्यथापराघातनाम उच्छासनाम आतपनाम उक्ष्योतनाम अगुरुलघुनाम "तित्थ" ति तीर्थकरनाम "निमिण" ति निर्माणनाम उपघातनाम 'इति' एताः पराघातादयः 'अष्टौ' अष्टसङ्ख्याः प्रत्येकप्रकृतयो ज्ञेयाः, आसां पिण्डप्रकृतिवदन्यमेदाभावादिति // 25 // तस बायर पजत्तं, पत्तय थिरं सुभं च सुभगं च / सुसराइज जसं तसदसगं थावरदसं तु इमं // 26 // _नामशब्दस्बेहापि सम्बन्धात् सनाम बादरनाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम स्थिरनाम शुभनाम सुभगनाम 'चशब्दौ' समुच्चये सुखरनाम आदेयनाम "जसं'. ति यशःकीर्तिनाम इत्येवं Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25-29] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / / असशब्देनोपलक्षितं प्रकृतिदशकं त्रसदशकमिदमुच्यते इति शेषः / तथा स्थावरेण स्थावरशब्देनोपलक्षितं त्रसदशकस्य विपक्षभूतं "दस" ति प्राकृतत्वाद् दशकं स्थावरदशकम् , तत् पुनरिदं वक्ष्यमाणामिति // 26 // तदेकह थावर सुहुम अपन, साहारणअथिरअसुभदुभगाणि / दुस्सरणाइजाजस, इय नामे सेयरा वीसं // 27 // इहापि नामशब्दस्य सम्बन्धात् स्थावरनाम सूक्ष्मनाम अपर्याप्तनाम साधारणनाम अस्थिरनाम अशुभनाम दुर्भगनाम दुःखरनाम अनादेयनाम "अजस" ति अयशःकीर्तिनाम / प्ररूपितं दशकद्वयमपि, अधुना दशकद्वयमीलने यथाभूता सतीयं विंशतिर्यद्विषयोच्यते तदाह"इय" ति 'इति' अमुना प्रसादिप्रदर्शितप्रकारेण "नामे" ति नामकर्मणि 'सेतरा' सप्रतिपक्षा प्रत्येकसंज्ञिता विंशतिर्विज्ञेया / तथाहि-त्रसनानः स्थावरनाम प्रतिपक्षभूतम्, एवं बादरसूक्ष्मप्रकृतीनामपि सेतरत्वं सुप्रतीतमेवेति // 27 // अथानन्तरोद्दिष्टत्रसादिविंशतिमध्ये यासां प्रकृतीनामाद्यपदनिर्देशेन याः संज्ञा भवन्ति ताः कथयन्नाह... तसचउथिरछकं अथिरछक्कसुहमतिगथावरचउक। सुभगतिगाइविभासा, तदाइसंखाहिँ पयडीहिं // 28 // त्रसप्रकृत्योपलक्षितं चतुष्कं त्रसचतुष्कम्, एतदनुसारतः समासोऽन्यत्रापि कार्यः, ततो यथासम्भवं पुनरपि समाहारद्वन्द्वश्च / तत्र त्रसचतुष्कं यथा-वसं बादरं पर्याप्तं प्रत्येकमिति / स्थिरषट्कम्-स्थिरं शुभं सुभगं सुखरम् आदेयं यशःकीर्तिश्चेति / अस्थिरषट्कम्-अस्थिराऽशुभदुर्भगदुःखराऽनादेयाऽयशःकीर्तिखरूपम् / सूक्ष्मत्रिकम्-सूक्ष्माऽपर्याप्तसाधारणलक्षणम् / सावरचतुष्कम्-स्थावरसूक्ष्माऽपर्याप्तसाधारणाख्यम् / सुभगत्रिकम्-सुमगसुखराऽऽदेयाभिधम् / आदिशब्दाद् दुर्भगत्रिकम् -दुर्भगदुःखराऽनादेयखरूपं गृह्यते / ततः सूत्रपदे समासो यथा-सुभगत्रिकमादिर्यस्य दुर्भगत्रिकस्य तत् सुभगत्रिकादि तस्य विभाषा-प्ररूपणा कर्तव्येति शेषः / काभिः कृत्वा पुनस्वसचतुष्कादिका विभाषा कर्तव्या ! इत्याह-'तदादिसझ्याभिः प्रकृतिभिः' सा-निर्दिष्टा प्रकृतिरादिर्यस्याः सङ्ख्यायाः सा तदादिः, तदादिः सङ्ख्या यासां प्रकृतीनां तास्तदादिसङ्ख्यास्ताभिस्तदादिसङ्ख्यामिः प्रकृतिभिः, कोऽर्थः: याऽसौ प्रकृतिस्त्रसादिका निर्दिष्टा तामादौ कृत्वा निर्दिष्ट सङ्ख्या पूरणीयेति / एताश्च संज्ञाः प्रकृतिपिण्डकसङ्ग्राहिण्यो यथास्थानमुपयोगमायास्यन्तीति कृत्वा प्ररूपिता इति // 28 // उक्ता नामकर्मणो द्वाचत्वारिंशद् भेदाः / अथ तस्यैव विनवतिभेदान् प्ररूपयितुकामो गत्यादिपदानां पिण्डप्रकृतिसंज्ञिकानां मध्ये केस पदेन यावन्तो भेदाः पिण्डिता वर्तन्ते तान् मेदान् तेषामाह गइयाईण उ कमसो, चउपणपणतिपणपंचछच्छक्कं / पणदुगपणऽढचउदुग, इय उत्तरभेयपणसट्ठी // 29 // 'गत्यादीनां' पिण्डप्रकृतीनां पूर्वप्रदर्शितखतपाणां पुनः 'क्रमशः' क्रमेण यथासङ्ग्यमिति १०कं त्रसंक०ग०॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः ( স্মথ यावत् चतुरादयो भेदा भवन्तीति वाक्यार्थः / तथाहि-गतिनाम चतुर्धा, जातिनाम पञ्चघा, तनुनाम पञ्चधा, उपाङ्गनाम त्रिघा, बन्धननाम पञ्चधा, सङ्घातननाम पञ्चधा, संहनननाम पोढा, संस्थाननाम षोढा, वर्णनाम पञ्चधा, गन्धनाम द्विघा, रसनाम पञ्चधा, स्पर्शनामाऽष्टधा, आनुपूर्वानाम चतुर्धा, विहायोगतिनाम द्वेषा / एतेषां सर्वमीलने मेदाप्रमाह"इय" ति 'इति' अमुना चतुरादिभेदमीलनप्रकारेणोत्तरभेदानां पञ्चषष्टिरिति // 29 // अडवीसजुया तिनवइ, संते वा पनरबंधणे तिसयं / बंधणसंघायगहो, तणूसु सामन्नवन्नचऊ // 30 // ___ एषा पूर्वोक्ता पञ्चषष्टिः 'अष्टाविंशतियुता' प्रत्येकप्रकृत्यष्टाविंशत्या सह मीलने त्रिभिरधिका नवतिस्त्रिनवतिर्भवति / सा च कोपयुज्यते ? इत्याह-"संते" ति प्राकृतत्वात् सत्तायां सत्कर्म प्रतीत्य बोद्धव्येत्यर्थः / वाशब्दो विकल्पाओं व्यवहितसंबन्धश्च, स चैवं योज्यते'पञ्चदशबन्धनैस्त्रिशतं वा' पञ्चदशसयैर्वक्ष्यमाणखरूपैर्बन्धनैः प्रदर्शितत्रिनबतिमध्ये प्रक्षिप्तैलिभिरधिकं शतं त्रिशतं वा सत्तायामधिक्रियते इति शेषः / अथ त्रिनवतिमध्ये पञ्चदशानां प्रकृतीनां प्रक्षेपेऽष्टोत्तरं शतं भवतीति चेद् उच्यते-या वक्ष्यमाणाः पञ्चदश बन्धननामप्र-. कृतयस्तासु मध्यात् सामान्यत औदारिकादिबन्धनपञ्चकस्य त्रिनवतिमध्ये पूर्व प्रक्षिप्तत्वात् शेषाणां दशानां प्रक्षेपे त्रिशतमेव भवतीति न कश्चिद्विरोधः / सूत्रे च "पनरबंधणे" इत्यत्र विभक्तिवचनव्यत्ययः प्राकृतत्वादिति / उक्ता नामकर्मणस्त्रिनवतिरुयुत्तरशतं च मेदानाम् / अथ सप्तषष्टिभेदानाह-"बंधणसंघायगहो तणूसु" ति / बन्धनानि च पञ्चदश, सङ्घाताश्चसङ्घातनानि पञ्च, बन्धनसङ्घातास्तेषां ग्रहणं ग्रहो बन्धनसङ्घातग्रहः / 'तनुषु' शरीरेषु, तनुग्रहणेनैव बन्धनसङ्घाता गृह्यन्ते न पृथग् विवक्ष्यन्त इत्यर्थः / तथा “सामन्नवनचऊ" चि सामान्यं-कृष्णनीलाद्यविशेषितं वर्णेनोपलक्षितं चतुष्कं सामान्यवर्णचतुष्कं गृह्यत इति शेषः / अयमत्राशयः-इह सप्तषष्टिमध्ये औदारिकादितनुपञ्चकमेव गृह्यते, न तद्वन्धनानि सत्सवातनानि च, यत औदारिकतन्वा खजातीयत्वाद् औदारिकतनुसदृशानि बन्धनानि तत्सङ्घाताश्च गृहीताः; एवं वैक्रियादितन्वाऽपि निर्जनिजबन्धनसङ्घाता गृहीता इति न पृथगेते पञ्चदश बन्धनानि पञ्च सङ्घाता गण्यन्ते / तथा वर्णगन्धरसस्पर्शानां यथासङ्ग्यं पञ्चद्विपञ्चाऽष्टमेदैर्निष्पन्नां विंशतिमपनीय तेषामेव सामान्यं वर्णगन्धरसस्पर्शलक्षणं चतुष्कं गृह्यते, ततश्चानन्तरोदितात् त्र्युत्तरशताद् वर्णादिषोडशकबन्धनपञ्चदशकसङ्घातपञ्चकलक्षणानां षट्त्रिंशत्प्रकृतीनामपसारणे सति सप्तषष्टिर्भवतीति // 30 // एतदेवाह इय सत्तट्ठी बंधोदए य न य सम्ममीसया बंधे। बंधुदए सत्ताए, वीसदुवीसऽट्ठवन्नसयं // 31 // 'इति' पूर्वोक्तप्रकारेण सप्तषष्टिर्नामकर्मप्रकृतीनां भवति / सा च कोपयुज्यते ! इत्याह"बंधोदए य" ति बन्धश्च उदयश्च बन्धोदयं तस्मिन् 'बन्धोदये' बन्धे च उदये च सप्तषष्टिर्भवति, चशब्दाद् उदीरणायां च सप्तषष्टिः / अथ बन्धनसङ्घातनवर्णादिविशेषाणां विवक्षा१जा निजा बख० ग०3०॥ HEHHHHHH Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-32] कर्मविपाकवामा प्रथमः कर्मग्रन्थः।। 43 वशादेव बन्धे नाधिकार इत्युक्तम् , सम्प्रति ययोः प्रकृत्योः सर्वथैव बन्धो न भवति ते माह-"न य सम्ममीसया बंधे" ति 'न च' नैव सम्यक्त्वमिश्रके बन्धेऽधिक्रियेते / अयमभिप्रायः-सम्यक्त्वमिश्रयोर्बन्ध एव न भवति, किन्तु मिथ्यात्वपुद्गलानामेव जीवः सम्यक्त्वगुणेन मिथ्यात्वरूपतामपनीय केषाश्चिदत्यन्तविशुद्धिमापादयति, अपरेषां त्वीषद्विशुद्धिम् , केचित् पुनर्मिथ्यात्वरूपा एवावतिष्ठन्ते; तत्र येऽत्यन्तविशुद्धास्ते सम्यक्त्वव्यपदेशभाजः, ईद्विशुद्धा मिश्रव्यपदेशभाजः, शेषा मिथ्यात्वमिति / उक्तं च सम्यक्त्वगुणेन ततो, विशोधयति कर्म तत् स मिथ्यात्वम् / यद्वच्छगणप्रमुखैः, शोध्यन्ते कोद्रवा मदनाः / / . यत् सर्वथाऽपि तत्र विशुद्धं तद् भवति कर्म सम्यक्त्वम् / मिश्रं तु दरविशुद्धं, भवत्यशुद्धं तु मिथ्यात्वम् // उदयोदीरणासत्तासु पुनः सम्यक्त्वमिश्रके अप्यधिक्रियेते / एवं च सति ज्ञानावरणे पञ्च, दर्शनावरणे नव, वेदनीये द्वे, मोहे सम्यक्त्वमिश्रवर्जाः षड्विंशतिः, आयुषि चतस्रः, नाम्नि मेदान्तरसम्भवेऽपि प्रदर्शितयुक्त्या सप्तषष्टिः, गोत्रे द्वे, अन्तराये पञ्च इत्येतविंशत्युत्तरं प्रकृतिशतं बन्धेऽधिक्रियते / एतदेव सम्यक्त्वमिश्रसहितं द्वाविंशत्युत्तरप्रकृतिशतमुदये उदीरणायां च / सत्तायां पुनः शेषकर्मणां पञ्चपञ्चाशत् नाम्नस्त्रिनवतिरित्यष्टाचत्वारिंशं शतम् , यद्वा शेषकर्मणां पञ्चपञ्चाशत् नाम्नत्युत्तरशतमित्यष्टापश्चाशं शतमधिक्रियत इति / एतदेव मनसिकृत्याह- "बंधुदए सत्ताए" इत्यादि / इह शतशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् यथासङ्ख्यं बन्धे विशं शतम् , उदये उपलक्षणत्वाद् उदीरणायां च द्वाविंशं शतम् , सचायामष्टपञ्चाशं शतम् उपलक्षणत्वादष्टाचत्वारिंशं शतमिति, भावना सुकरैव // 31 // अब पूर्वनिर्दिष्टान् गतिजातिप्रभृतीनां पिण्डप्रकृतीनां चतुरादिभेदान् व्याचिख्यासुराह- मिरयतिरिनरसुरगई, इगबियतियचउपणिदिजाईओ। ओरालियवेउबियाहारगतेयकम्मइगा // 32 // निरयाश्च तिर्यञ्चश्च नराश्च सुराश्च तेषु गतिरिति विग्रहः / भावार्थोऽयम्-आतिशब्दः प्रत्येकं योज्यते, ततश्च "अयमिष्टफलं दैवम्" इति वचनाद् निर्गतम् अयम्-इष्टफलं सातवेदनीयादिरूपं येभ्यस्ते निरयाः-सीमन्तकादयो नरकावासाः, ततो निरयेषु विषये गतिरिति गतिनाम निरयगतिनाम, तद्विपाकवेद्या कर्मप्रकृतिरपि निरयगतिनाम, नारकशब्दव्यपदेश्यपायनिबन्धनं निरयगतिनामेति हृदयम् / एवं तिर्यगनरसुरगतिनामापि वाच्यम् / अत्राह-ननु सर्वेऽपि पर्याया जीवेन गम्यन्ते प्राप्यन्त इति सर्वेषामपि तेषां गतित्वप्रसनः, तथा च प्राग्गतिशब्दस्येयमेव व्युत्पतिर्दर्शितेति, नैवम् , यतोऽविशेषेण व्युत्पादिता अपि वादा रूढितो गोशब्दवत् प्रतिनियतमेवार्थ विषयीकुर्वन्तीत्यदोषः / उक्तं गतिनाम पतुर्विधम् 1 / तथा सूचकत्वात् सूत्रस्य एकेन्द्रियाश्च द्वीन्द्रियाश्च त्रीन्द्रियाश्च चतुरिन्द्रियाश्च पञ्चेन्द्रियाश्च भोरालविवाहारगतेयकम्मण पण सरीरा घ०॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपजुटीकोपेतः [गाथा तेषां जातय इति विग्रहः / भावार्थोऽयम्-एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियजातिनामभेदात् पञ्चधा जातिनाम / तत्र एकस्य स्पर्शनेन्द्रियज्ञानस्यावरणक्षयोपशमाद् एकविज्ञानभाज एकेन्द्रियाः, द्वयोः स्पर्शनरसनज्ञानयोरावरणक्षयोपशमाद् द्विविज्ञानभाजो द्वीन्द्रियाः, त्रयाणां स्पर्शनरसनघ्राणज्ञानानामावरणक्षयोपशमात् त्रिविज्ञानभाजस्त्रीन्द्रियाः, चतुर्णा स्पर्शनरसनघाणचक्षुर्ज्ञानानामावरणक्षयोपशमात् चतुर्विज्ञानभाजश्चतुरिन्द्रियाः, पश्चानां स्पर्शनरसनघाणचक्षुःश्रोत्रज्ञानानामावरणक्षयोपशमात् पञ्चविज्ञानभाजः पञ्चेन्द्रियाः / तत एकेन्द्रियाणां जातिनाम एकेन्द्रियजातिनाम, एवं यावत् पञ्चेन्द्रियजातिनाम / अत्राह-ननु एतेन जातिनाम्ना किं भावेन्द्रियमेकादिकं जन्यते ! उत द्रव्येन्दिर ! आहोखिदेकेन्द्रियोऽयमित्यादिव्यपदेशः ? इति त्रयी गतिः / तत्र यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः, मावेन्द्रियस्य श्रोत्रादीन्द्रियज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यत्वात् "क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि" इति वचनात् / अथ द्रव्येन्द्रियं जन्यते तदप्ययुक्तम् , द्रव्येन्द्रियस्येन्द्रियपर्याप्तिनामोदयजन्यत्वात् / एकेन्द्रियादिव्यपदेशस्त्वेकादीन्द्रियज्ञानावरणक्षयोपशमपर्याप्तिनामभ्यामेव सेत्स्यति किसन्तर्गडुना जातिनाना , अत्रोच्यते-आद्यविकल्पयुगलं तावद् अनभ्युपगमादेव निरस्तम् / यत् पुनरुक्तम् 'एकेन्द्रियादिव्यपदेशस्तु' इत्यादि तदयुक्तम् , यत इन्द्रियज्ञानावरणक्षयोपशम इन्द्रियपर्याप्तिश्च यथाक्रमं भावेन्द्रियजनने द्रव्येन्द्रियजनने च कृतार्था कथमेकेन्द्रियादिव्यपदेशनिबन्धनपरिणतिलक्षणं कार्यान्तरं जनयितुमलम् !, न धन्यसाध्यं कार्यमन्यः साधयति, अतिप्रसङ्गात्, तस्माद् एकेन्द्रियादीनां समानजातीयजीवान्तरेण सह समाना बाद्या काचित् परिणतिरेकेन्द्रियादिशब्दवाच्या अवश्य जातिनामकोंदयत एवाभ्युपगन्तव्या / उकं च अव्यभिचारिणा सादृश्येन एकीकृतोऽर्थात्मा जातिः इति / तथाहि-वकुलादीनामनुमानादिसिद्धे इन्द्रियपञ्चकक्षयोपशमे सत्यपि पञ्चेन्द्रियशब्दज्यपदेश्यपञ्चेन्द्रियजातिनामकमोदयजन्यविशिष्टबाह्यपरिणत्यमावात् न पञ्चेन्द्रियव्यपदेशो भवति / यद्येवं गोतुरगभुजगमातङ्गादिक्रमे सत्यपि पञ्चेन्द्रियव्यपदेश्यस्यापि पर्यायस्य कारणं किञ्चित् कर्माभ्युपगन्तव्यम् ! इति चेद् नैवम् , जातिनामकर्मवैचित्र्यादेव तत्सिद्धेः / न चात्रैकान्तेन युक्त्युपन्यास एवाग्रहः कार्यः, आगमोपपतिगम्यत्वात् तत्त्वस्य / यदवादि- . आगमश्चोपपत्तिश्च, सम्पूर्ण दृष्टिलक्षणम् / अतीन्द्रियाणामर्थाना, सद्भावप्रतिपत्तये // इति / उक्तं जातिनाम पञ्चधा 2 / तथा औदारिकं च वैक्रियं च आहारकं च तैजसं च कार्मिक चेति द्वन्द्वः / भावार्थोऽयम्-औदारिकवैक्रियाऽऽहारकतैजसकार्मणनामभेदात् पञ्चधा शरीरनाम / तत्र उदारं-प्रधानम् , प्राधान्यं चास्य तीर्थकरगणधरशरीरापेक्षया, ततोऽन्यस्यानुचरसुरशरीरस्यापि अनन्तगुणहीनत्वात् , यद्वा उदारं-सातिरेकयोजनसहस्रमानत्वात् शेषशरीरापेक्षया बृहत्प्रमाणम् , बृहत्ता चास्य वैक्रिय प्रति भवधारणीयसहजशरीरापेक्षया द्रष्टव्या, अन्यथोचरवैक्रियं योजनलक्षमानमपि लभ्यते, उदारमेवौदारिकम् , “विनयादिभ्यः" (सि०७-२१ विदि ल° ख०॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 32] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / 169) इतीकण्प्रत्ययः, तन्निबन्वनं नाम औदारिकनाम, यदुदयवशाद् औदारिकशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय औदारिकशरीररूपतया परिणमयति, परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया सम्बन्धयति, तद् औदारिकशरीरनामेत्यर्थः 1 / तथा विविधा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियम् / तथाहि-तदेकं भूत्वा अनेकं भवति, अनेकं भूत्वा एकम् , अणु भूत्वा महद् भवति, महच्च भूत्वा अणु, खेचरं भूत्वा भूमिचरं भवति, भूमिचरं भूत्वा खेचरं भवति, दृश्य भूत्वा अदृश्यं भवति, अदृश्यं भूत्वा दृश्यमित्यादि / तच द्विधा-औपपातिकं लब्धिप्रत्ययं च / तत्रौपपातिकम्-उपपातजन्मनिमित्तम् , तच देवनारकाणाम् / लब्धिप्रत्ययं तिर्यमनुष्या. णाम् / वैक्रियनिबन्धनं नाम वैक्रियनाम, यदुदयाद वैक्रियशरीरप्रायोग्यान पुद्गलानादाय वैकियशरीररूपतया परिणमयति, परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया सम्बन्धयतीति 2 / तथा चतुर्दशपूर्व विदा तीर्थकरस्फातिदर्शनादिकतथाविधप्रयोजनोत्पत्तौ सत्यां विशिष्टलब्धिवशाद् आह्रियते-निवर्त्यत इत्याहारकम् , “बहुलम्" (सि०५-१-२) इति वचनात् कर्मणि णक्प्रत्ययः, यथा पादहारक इत्यादौ, तच्च वैक्रियापेक्षयाऽत्यन्तशुभं खच्छस्फटिकशिलेव शुभ्रपुद्गलसमूहघटनात्मकम् , आहारकनिबन्धनं नाम आहारकनाम, यदुवयवशाद् आहारकशरीरप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय आहारकशरीररूपतया परिणमयति, परिणमथ्य च जीवप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया सम्बन्धयतीति 3 / तथा तेजसा तेजःपुद्गलैर्निर्वृत्तं तैजसम्, यद् भुक्ताहारपरिणमनहेतुर्यद्वशाच विशिष्टतपःसमुत्थलब्धिविशेषस्य पुंसस्तेजोलेश्याविनिर्गमः, तेजोनिबन्धनं नाम तैजसनाम, यदुदयवशात् तैजसशरीरमायोग्यान् पुद्गलानादाय तैजसशरीररूपतया परिणमयति, परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया सम्बन्धयतीति / तथा कर्मपरमाणुषु भवं कार्मिकं कार्मणशरीरमित्यर्थः / कर्मपरमाणव एवामप्रदेशैः सह क्षीरनीरवदन्योऽन्यानुगताः सन्तः कार्मणशरीरम् , कर्मणो विकारः कार्मणमिति ध्युत्पत्तेः / तदुक्तम् कैम्मविगारो कम्मणमट्टविह विचित्तकम्मनिष्फनं / . सबेसि सरीराणं, कारणभूयं मुणेयवं // अत्र "सोर्सि" ति सर्वेषामौदारिकादिशरीराणां 'कारणभूतं' बीजभूतं कार्मणशरीरम् / ने खल्वामूलमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चप्ररोहबीजभूते कार्मणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावसम्भवः / इदं च कार्मणशरीर जन्तोर्गत्यन्तरसान्तौ साधकतमं कारणम् / तथाहि-कार्मणेनैव वपुषा परिकरितो जन्तुर्मरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशममिसर्पति / ननु यदि कार्मणवपुःपरिकरितो गत्यन्तरं सङ्कामति तर्हि स गच्छन्नागच्छन् वा कस्मात् नोपलक्ष्यते / उच्यते-कर्मपुद्गलानामतिसूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियाऽगोचरत्वात् / आह च प्रज्ञाकरगुप्तोऽपि---- अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वान्नोपलक्ष्यते। निष्कामन् प्रविशन् वाऽपि, नाभावोऽनीक्षणादपि // १कार्मणं शक० ख० ग० घ०॥ 2 कर्मविकारः कार्मणमष्ठविधविचित्रकर्मनिष्पनम् / सर्वेर्षा घरीराणां कारणभूतं सातव्यम् // Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरक्तिखोपज्ञटीकोपेतः [गाया - कार्मणनिबन्धनं नाम कार्मणनाम, यदुदयात् कार्मणप्रायोग्यान् पुद्गलानादाय कार्मणशरीररूपतया परिणमयति, परिणमय्य च जीवप्रदेशैः सहान्योऽन्यानुगमरूपतया सम्बन्धयतीति 5 // 32 // उक्तं तनुनाम पञ्चधा 3, इदानीमङ्गोपाङ्गनाम त्रिधा प्राह पाहरु पिढि सिर उर, उयरंग उवंग अंगुलीपमुहा। सेसा अंगोवंगा, पढमतणुतिगस्सुवंगाणि // 33 // 'बाई' भुजद्वयम् 'ऊरू' ऊरुद्वयम् 'पृष्ठिः' प्रतीता 'शिरः' मस्तकम् 'उरः' वक्षः 'उदर' पोट्टमित्यष्टावनान्युच्यन्ते / इह विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् , एवमन्यत्रापि / उपानानि अङ्गुलीप्रमुखाणि, इह पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् / 'शेषाणि' तत्प्रत्यवयवभूतान्यङ्गुलपर्वरेखादीनि अङ्गोपाक्रानि, इहापि पुंस्त्वं प्राकृतत्वात् / प्राकृते हि लिङ्गमतन्त्रम् / यदाहुः प्रभुश्रीहेमचन्द्रसरिपादाः खप्राकृतलक्षणे-"लिङ्गमतन्त्रम्" (सि०८-४-४४५) इति / इमानि च उपाङ्गानि "पढमतणुतिगस्स" ति प्रथमाः-आधा यातनवः-शरीराणि तासां त्रिकं-त्रितयमौदारिकवैक्रियाऽऽहारकखरूपम् तस्य प्रथमतनुत्रिकस्य भवन्ति / ततः प्रथमतनुत्रिकद्वारेणानोपाङ्गनामापि त्रिविध मन्तव्यम् / तथाहि-औदारिकाङ्गोपाङ्गनाम वैक्रियाजोपाङनाम आहारकाजोपाननाम / तत्र यदुदयाद् औदारिकशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गोपाङ्गविभागपरिणतिरुपजायते तद् औदारिकालोपाङ्गनाम 1 / यदुदयाद् वैक्रियशरीरत्वेन परिणतानां पुद्गलानामङ्गोपाङ्गविभागपरिणतिरुपजायते तद् वैक्रियानोपानाम 2 / यदुदयाद् आहारकशरीरत्वेन परिणताना पुद्गलानामनोपानविभागपरिणतिरुपजायते तद् आहारकाङ्गोपाङ्गनाम 3 / तैजसकार्मणयोस्तु बीवप्रदेशसंस्थानानुरोपित्वात् नास्त्यनोपाइसम्भव इति // 33 // . उक्तं त्रिविघमनोपाङ्गनाम / साम्प्रतं बन्धननामखरूपमाह... उरलाइपुग्गलाणं, निबद्धबझतयाण संबंधं / जं कुणइ जउसमं तं, उरलाईबंधणं नेयं // 34 // औदारिकादिपुद्गलानाम् आदिशब्दाद् वैक्रियपुद्गलानाम् आहारकपुद्गलानां तैजसपुद्गलानां कार्मणपुद्गलानाम् , किंविशिष्टानाम् ? इत्याह-"निबद्धबझंतयाण"ति निबद्धाश्च बध्यमानाश्च निबद्धवष्यमानास्तेषां 'निबद्धबध्यमानानां' पूर्ववद्धानां बध्यमानानां च यत् कर्म सम्बन्ध' परस्परं मीलनं करोति दारूणामिव जतु, अत एव जतुसमं तद् औदारिकादिबन्धनम् , आदिशब्दाद् वैक्रियबन्धनम् आहारकबन्धनं तैजसबन्धनं कार्मणबन्धनं 'ज्ञेयं ज्ञातव्यमिति गाथाक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयम्-इह पूर्वगृहीतैरौदारिकपुद्गलैः सह परस्परं गृह्यमाणान् औदारिकपुद्गकान् उदितेन येन कर्मणा बन्नाति-आत्मा अन्योऽन्यसंयुक्तान् करोति तद् औदारिकशरीरबन्धन नाम दारुपाषाणादीनां जतुरालाप्रमृतिश्लेषद्रव्यतुल्यम् 1 / पूर्वगृहीतैर्वैक्रियपुद्गलैः सह परस्पर गृह्यमाणान् वैक्रियपुद्गलान् उदितेन येन कर्मणा बध्नाति-आत्माऽन्योऽन्यसंयुक्कान् करोति तद् जतुसमं वैक्रियशरीरबन्धननाम २।पूर्वगृहीतैराहारकशरीरपुद्गलैः सह परस्परं गृह्यमाणान् आहारकपुद्गलान् उदितेन येन कर्मणा बध्नाति-आत्माऽन्योऽन्यसंयुक्तान् करोति तद् जतुसममाहा १पुहिक० ख० गऊ॥ 2 पेट्टमि घ०॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः। 17 रकशरीरबन्धननाम 3 / पूर्वगृहीतैस्तैजसपुद्गलैः सह परस्परं गृह्यमाणांढजसपुद्गलान् उदितेन येन कर्मणा बध्नाति-आत्माऽन्योऽन्यसंयुक्तान् करोति तद् जतुसमं तैजसशरीरबन्धननाम / पूर्वगृहीतैः कार्मणपुद्गलैः सह परस्परं गृह्यमाणान् कार्मणपुद्गलान् उदितेन येन कर्मणा बध्नातिआत्माऽन्योऽन्यसंयुक्तान् करोति तद् जतुसमं कार्मणशरीरबन्धननाम 5 / यदि पुनरिद शरीरपञ्चकपुद्गलानामौदारिकादिशरीरनाम्नः सामर्थ्यावहीवानामन्योऽन्यसम्बन्धकारि बन्धनपञ्चकं न स्यात् ततस्तेषां शरीरपरिणतौ सत्यामप्यसम्बन्धत्वात् पवनाहतकुण्डस्थितास्तीमितसक्तूनामिवैकत्र स्थैर्य न स्यादिति // 34 // उक्तं बन्धनखरूपम् / इदं च बन्धननाम असंहवानां पुद्गलानां न सम्भवति, अतोऽन्योऽन्यसन्निधानलक्षणपुद्गलसंहतेः कारणं सङ्घातनमाह जं संघाय उरलाइपुग्गले तणगणं व दंताली। तं संघायं बन्धणमिव तणुनामेण पंचविहं // 35 // यत् कर्म 'सङ्घातयति' पिण्डीकरोति औदारिकादिपुद्गलान् आदिशब्दाद् वैक्रियपुद्गलान् आहारकपुद्गलान् तैजसपुद्गलान् कार्मणपुद्गलान् , तत्र दृष्टान्तमाह-'तृणगणमिव' तृणोत्करमिवेतश्चेतश्च विक्षिप्तं 'दन्ताली' काष्ठमयी मरुमण्डलपसिद्धा, तत् 'सङ्घातं' सङ्घातननाम, तच्च पूर्वोक्तं बन्धननामापि 'तनुनाम्ना' शरीराभिधानेन पञ्चविधं भवतीति / तत्र बन्धननाम पूर्वमेव भावितम् / अथ सङ्घातनाम भाव्यते-औदारिकसङ्घातनाम वैक्रियसङ्घातनाम आहारकसङ्घातनाम तैजससङ्घातनाम कार्मणसङ्घातनाम / तत्र यदुदयाद् औदारिकशरीरत्वपरिणवान् पुद्गलानात्मा सङ्घातयति-अन्योऽन्यसन्निधानेन व्यवस्थापयति तद् औदारिकसङ्घातननाम 1 / यदुदयाद् वैक्रियशरीरत्वपरिणतान् पुद्गलानात्मा सङ्घातयति-अन्योऽन्यसन्निधानेन व्यवस्थापयति तद् वैक्रियसङ्घातननाम 2 / यदुदयाद् आहारकशरीरत्वपरिणवान् पुद्गलानात्मा सङ्घातयति-अन्योऽन्यसन्निधानेन व्यवस्थापयति तद् आहारकसङ्घातननाम 3 / यदुदयात् तेजसशरीरत्वपरिणतान् पुद्गलानात्मा सङ्घातयति-अन्योऽन्यसन्निधानेन व्यवस्थापयति तत् तैजससङ्घातननाम 4 / यदुदयात् कार्मणशरीरत्वपरिणतान् पुद्गलानात्मा सङ्घातयति-अन्योऽन्यसनिधानेन व्यवस्थापयति तत् कार्मणसङ्घातननाम 5 इति // 35 // उकं पञ्चधा बन्धननाम पञ्चधा सङ्घातननाम / सम्प्रति "संते वा पनरबंधणे तिसयं" इति (30) गाथासूचितं बन्धनपञ्चदशकं व्याचिख्यासुराह ओरालविउव्वाहारयाण सगतेयकम्मजुत्ताणं। नव बंधणाणि इयरदुसहियाणं तिनि तेसिं च // 36 // औदारिकवैक्रियाऽऽहारकशरीराणां नव बन्धनानीति योगः। कीदृशानां सताम् : इत्याह'खकतैजसकार्मणयुक्तानाम्' प्रत्येकं खकतैजसकार्मणानां मध्यादन्यतरेण युक्तानामित्यर्थः / "नव" ति नवसङ्ख्यानि बन्धनानि बन्धनप्रकृतयो भवन्तीति / औदारिकवैक्रियाहारकाणां त्रयाणामपि प्रत्येकं खनाम्ना तैजसेन कार्मणेन च योगाद् द्विकसंयोगनिष्पन्नान्येकैकस्य औदारिकादेस्त्रीणि त्रीणि बन्धनानि भवन्ति, तेषां च त्रयाणां त्रिकाणां मीलने नव बन्धनानीति / 1 णमवि त° क०॥ 2 खस्खते का घ०॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा तथाहि-औदारिकऔदारिकबन्धननाम 1 औदारिकतैजसबन्धननाम 2 औदारिककार्मणबन्धननाम 3, वैक्रियवैक्रियबन्धननाम 1 वैक्रियतैजसबन्धननाम 2 वैक्रियकार्मणबन्धननाम 3, आहारकाऽऽहारकबन्धननाम 1 आहारकतैजसबन्धननाम 2 आहारककार्मणबन्धननाम 3 / तत्र पूर्वगृहीतैरौदारिकशरीरपुद्गलैः सह गृह्यमाणौदारिकपुद्गलानां बन्धो येन क्रियते तद् औदारिकौदारिकबन्धननाम 1 / येनौदारिकपुद्गलानां तैजसशरीरपुद्गलैः सह सम्बन्धो विधीयते तद् औदारिकतैजसबन्धननाम 2 / येनौदारिकपुद्गलानां कार्मणशरीरपुगलैः सह सम्बन्धो विधीयते तद् औदारिककामणबन्धननाम 3 / एवमनेन न्यायेनान्यान्यपि बन्धनानि वाच्यानि / शेषबन्धननिरूपणायाह-"इयरदुसहियाणं तिनि" ति इतरे-खकीयनामापेक्षयाऽन्ये तैजसकार्मणशरीरे, ततः प्राकृतत्वादन्यथोपन्यासेऽपि द्वे च ते इतरे च द्वीतरे ताभ्यां सहितानि-युक्तानि द्वीतरसहितानि, यद्वा "दु" ति द्विकं तत इतरञ्च तहिकं चेतरद्विकं तेन सहितानि इतरद्विकसहितानि तेषां द्वीतरसहितानाम् इतरद्विकसहितानां वा, औदारिकवैक्रियाहारकाणामत्रापि योज्यम् , त्रीणि बन्धनानि भवन्ति / अयमाशयः-प्रत्येकमौदारिकवैक्रियाहारकाणां तैजसकार्मणाभ्यां युगपत् संयोगे त्रिकसंयोगरूपाणि त्रीणि बन्धनानि भवन्ति / तथाहि-औदारिकतैजसकार्मणबन्धननाम 1 वैक्रियतैजसकार्मणबन्धननाम 2 आहारकतैजसकार्मणबन्धननाम 3 / अर्थः पूर्वोक्त एव / न केवलमेषामौदारिकादीनामितरद्विकसहितानामेव त्रीणि बन्धनानि भवन्ति, किन्तु "तेसिं च" ति त्रीणीति शब्दो डमरुकमणिन्यायादत्रापि योज्यः / ततोऽयमर्थः-तयोश्चेतरशब्दवाच्ययोस्तैजसकार्मणयोः खनाना इतरेण च योगे त्रीणि बन्धनानि भवन्ति / यथा-तैजसतैजसबन्धननाम 1 तैजसकार्मणबन्धननाम 2 कार्मणकार्मणबन्धननाम 3 / तदेवं नव त्रीणि त्रीणि च मिलितानि पञ्चदश बन्धनानीति / अत्राह–पञ्चानां शरीराणां द्विकादियोगप्रकारेण षडिंशतिः संयोगा भवन्ति, तत्तुल्यबन्धनानि च कस्मात् न भवन्ति ! उच्यते-औदारिकवैक्रियाहारकाणां परस्परविरुद्धाऽन्योsन्यसम्बन्धाभावात् पञ्चदशैव भवन्ति, नाधिकानि / / आह-यथा पञ्चदश बन्धनानि भवन्ति, एवमनेनैव क्रमेण पञ्चदश सङ्घाता अपि कस्मात् नाभिधीयन्ते / सङ्घातितानामेव बन्धनभावात् , तथाहि-पाषाणयुग्मस्य कृतसङ्घातस्यैवोत्तरकालं वज्रलेपरालादिना बन्धनं क्रियते, तदसत्, यतो लोके ये खजातौ संयोगा भवन्ति त एव शुमाः, एवमिहापि खशरीरपुद्गलानां खशरीरपुद्गलैः सह ये संयोगरूपाः सङ्घातास्ते शुभा इति प्राधान्यख्यापनाय पञ्चैव सङ्घाता अभिहिता इति // 36 // . व्याख्यातानि पञ्चदशापि बन्धनानि। सम्प्रति संहनननाम पडिएमभिघित्सुर्गाथायुगलमाह संघयणमहिनिचओ, तं छद्धा बजरिसहनारायं / तह रिसहनारायं, नारायं अद्धनारायं // 37 // कीलिय छेवढं इह, रिसहो पहो य कीलिया वनं / उभओ मक्कडबंधो, नारायं इममुरालंगे // 38 // 1-2 °ह बन्धो ख० ग० अ०॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 37-39] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / संहन्यन्ते-दृढीक्रियन्ते शरीरपुद्गला येन तत् संहननम् , तच्च 'अस्थिनिचयः कीलिकादिरूपाणामस्मां निचयः-रचनाविशेषोऽस्थिनिचयः / तत् संहननं 'षड्धा' षट्प्रकारैर्भवति / तद्यथा-वज्रऋषभनाराचं 1 तथा ऋषभनाराचम् 2 इहानुखारोऽलाक्षणिकः, नाराचम् 3 अर्धनाराचं 4 कीलिका 5 सेवार्तम् 6 / 'इह' प्रवचने 'ऋषभः' ऋषमशब्देन परिवेष्टनपट्ट उच्यते, 'वज्र वज्रशब्देन कीलिकाऽभिधीयते, 'नाराचं' नाराचशब्देनोभयतो मर्कटबन्धो भण्यते / 'इदम्' अस्थिनिचयात्मकं संहननम् 'औदारिकाङ्गे औदारिकशरीर एव, नान्येषु शरीरेषु, तेषामस्थिरहितत्वात् / इति गाथायुगलाक्षरार्थः / भावार्थः पुनरयम्-इह द्वयोरस्मोरुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेन अस्था परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रयभेदि कीलिकाख्यं वज्रनामकमस्थि यत्र भवति तद् वज्रऋषभनाराचम् , तन्निबन्धनं नाम वजऋषभनाराचनाम 1 / यत् पुनः कीलिकारहितं संहननं तद् ऋषभनाराचम् , तन्निबन्धनं नाम ऋषभनाराचनाम 2 / यत्र पुनर्मर्कटबन्धः केवलो भवति न पुनः कीलिका ऋषभसंज्ञः पट्टश्च तदू नाराचम् , तन्निबन्धनं नाम नाराचनाम 3 / यत्र स्वेकपोधेन मर्कटबन्धो द्वितीयपार्थेन च कीलिका भवति तद् अर्धनाराचम्, तन्निबन्धनं नामाऽर्धनाराचनाम 4 / यत्र पुनरस्थीनि कीलिकामात्रबद्धान्येव भवन्ति तत् कीलिकासंहननम् , तन्निबन्धनं नाम कीलिकानाम 5 / यत्र तु परस्परं पर्यन्तस्पर्शलक्षणां सेवामागतान्यस्थीनि भवन्ति नेहाभ्यवहारतैलाभ्यङ्गविश्रामणादिरूपां च परिशीलनां नित्यमपेक्षन्ते तत् सेवार्तम् , तन्निबन्धनं नाम सेवातनाम 6 / यद्वा “छेवटुं" ति दकारस्य लुप्तस्येह दर्शनात् छेदानाम्-अस्थिपर्यन्तानां वृत्तं-परस्परसम्बन्धघटनालक्षणं वर्तनं वृत्तियत्र तत् छेदवृत्तम् , कीलिकापट्टमर्कटबन्धरहितमस्थिपर्यन्तमात्रसंस्पर्शि षष्ठमित्यर्थः / ततो यदुदयात् शरीरे वज्रऋषभनाराचसंहननं भवति तद् वज्रऋषभनाराचसंहनननामकर्मेति / एवमृषभनाराचादिष्वपि वाच्यमिति // 37 // 38 // . व्याख्यानं षडिधं संहनननाम / सम्प्रति षोढा संस्थाननाम विवक्षुराह समचउरंसं निग्गोहसाइखुज्जाइँ वामणं हुंडं / संठाणा वन्ना किण्हनीललोहियहलिद्दसिया // 39 // समचतुरस्रम् 1 "निग्गोह" ति पदैकदेशेऽपि पदप्रयोगदर्शनात् न्यग्रोधपरिमण्डलम् 2 सौदि 3 कुजम् 4 वामनम् 5 हुण्डम् 6 इति षट् ‘संस्थानानि' अवयवरचनात्मकशरीराकृतिखरूपाणि शरीरे भवन्तीति शेषः / तत्र समाः-शास्त्रोक्तलक्षणाऽविसंवादिन्यश्चतस्रोऽसयःपर्यङ्कासनोपविष्टस्य जानुनोरन्तरम् , आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरम् , दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरम् , वामस्कन्धस्य दक्षिणजानुनश्चान्तरमिति चतुर्दिग्विभागोपलक्षिताः शरीरावयवा यत्र तत् समचतुरस्रम्, "सुप्रातसुश्वसुदिवशारिकुक्षचतुरसैणीपदाऽजपदप्रोष्ठपदभद्रपदम्" (सि० 7-3-129) इति सूत्रेण समासान्तोऽप्रत्ययः, समचतुरस्रं च तत् संस्थानं च समचतुरस्रसंस्थानम् / तुल्यारोहपरिणाहः सम्पूर्णलक्षणोपेतानोपानावयवः खाङ्गुलाष्टाधिकश.१°कार भ० ख० ग० रु०॥ 2 पार्वे मक० ग० / एवमप्रेऽपि // 3 सादि 3 वामनम् 4 कुन्जम् 5 हु° ख० ग० ङ०॥ क०७ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाश तोच्छ्यः सर्वसंस्थानप्रधानः पञ्चेन्द्रियजीवशरीराकारविशेषः समचतुरस्रसंस्थान निबन्धनं नाम समचतुरस्रनाम 1 / न्यग्रोधवत् परिमण्डलं यस्य तद् न्यग्रोधपरिमण्डलम्, यथा न्यग्रोधःवटवृक्ष उपरि सम्पूर्णावयवोऽधस्तु हीनस्तथा यत् संस्थानं नाभेरुपरि सम्पूर्णावयवम् अधस्तु ने तथा तद् न्यग्रोधपरिमण्डलम् , तन्निबन्धनं नाम न्यग्रोधपरिमण्डलनाम 2 / सह आदिनानामेरधस्तनभागरूपेण यथोक्तप्रमाणयुक्तेन वर्तत इति सादि / सर्वमपि हि शरीरं सादि, तत! सादित्वविशेषणान्यथानुपपत्तेरादिरिह विशिष्टो ज्ञातव्यः / ततो यत्र नामेरघो यथोक्तप्रमाणयुसमुपरि च हीनं तत् सादि संस्थानम् , तन्निबन्धनं नाम सादिनाम 3 / यत्र पाणिपादशिरोग्रीवं यथोक्तप्रमाणोपपन्नम् उरउदरादि च मडभं तत् कुन्नसंस्थानम्, तन्निबन्धनं नाम कुअनाम 4 / यत्र पुनरुरउदरादि यथोक्तप्रमाणोपेतं हस्तपादादिकं च हीनं तद् वामनसँस्थानम् , तन्निबन्धनं नाम वाममनाम 5 / अन्ये तु कुलवामनयोर्विपरीतं लक्षणमाहुः / यत्र सर्वेऽप्यवयवाः शास्त्रोक्तप्रमाणहीनास्तत् सर्वत्रासंस्थितं हुण्डसंस्थानम् , तन्निबन्धनं नाम हुण्डनाम 6 / ततो यदुदयाद् जन्तुशरीरं समचतुरस्रसंस्थानं भवति तत्कर्मापि समचतुरस्रसंस्थाननामेति / एवं न्यग्रोधपरिमण्डलादिष्वपि योज्यम् / उक्तं षोढा संस्थाननाम / / ___ इदानीं पञ्चधा वर्णनामाऽऽह-वर्णाः पञ्च भवन्ति कृष्णपनीलरलोहित३हरिदश्सिताः 5 / तत्र यदुदयाद् जन्तुशरीरं कृष्णं भवति राजपट्टादिवत् तत्कर्मापि कृष्णनाम 1 / यदुदयाद्जन्तुशरीरं मरकतादिवद् नीलं भवति तद् नीलनाम 2 / यदुदयाद् जन्तुशरीरं लोहितं-रक्तं हिमुलादिवद् भवति तद् लोहितनाम 3 / यदुदयाद् जन्तुशरीरं-हारिद-पीतं हरिद्रावद् भवति तद् हारिद्रनाम 4 / यदुदयाद् जन्तुशरीरं सितं-श्वेतं शङ्खादिवद् भवति तत् सितनाम 5 / कपिशादयस्त्वेतत्संयोगेनैवोत्पद्यन्ते, न पुनः सर्वथैतद्विलक्षणा इति न दर्शिताः // 39 // उक्तं वर्णनाम पञ्चधा / अथ गन्धनाम द्विधाऽऽह सुरहिदुरही रसा पण, तित्तकडुकसायअंबिला महुरा। __फासा गुरुलघुमिउखरसीउण्हसिणिद्धरुक्खऽढ // 40 // इह गन्धशब्दः प्रक्रमाद् गम्यते, ततः सुरभिगन्धो दुरभिगन्धश्च द्वेधा गन्धः / तत्र सौमुख्यकृत् सुरभिगन्धः, यदुदयाद् जन्तुशरीरं कर्पूरादिवत् सुरभिगन्धं भवति तत् सुरभिगन्धनाम 1 / वैमुख्यकृत् दुरभिगन्धः, यदुदयाद् जन्तुशरीरं लशुनादिवद् दुरभिगन्धं भवति तद् दुरभिगन्धनाम 2 / अत्राप्युभयसंयोगजाः पृथग् नोक्ताः एतत्संसर्गजत्वादेव मेदाविवक्षणात् / उक्तं द्विधा गन्धनाम // ___ अथ पञ्चधा रसनामाऽऽह-रसाः पूर्वोक्तशब्दार्थाः पञ्च भवन्ति / तथाहि-तिक्तकटुकषायाऽम्लाश्चत्वारो मधुरश्च पञ्चमः / तत्र श्लेष्मादिदोषहन्ता निम्बाद्याश्रितस्तिको रसः / तथा च भिषक्शास्त्रम् श्लेष्माणमरुचिं पित्तं, तृषं कुष्ठं विषं ज्वरम् / हन्यात् तिक्तो रसो बुद्धेः, कर्ता मात्रोपसेवितः // इति / 1 हुण्डं सं° ख० ग०॥ २°हुलकादि ख० ग० ङ० // Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / 51 ' यदुदयाद् जीवशरीरं निम्बादिवत् तिकं भवति तत् तितनाम 1 / गलामयादिप्रशमनो मरिचनागराद्याश्रितः कटुः / यदवादि-- कटुर्गलामयं शोफं, हन्ति युक्त्योपसेवितः / दीपनः पाचको रुच्यो, बृंहणोऽतिकफापहः // यदुदयाद् जन्तुशरीरं मरिचादिवत् कटु भवति तत् कटुनाम 2 / रक्तदोषाद्यपहर्ता विभीतकाऽऽमलककपित्थाधाश्रितः कषायः / यदभाणि रक्तदोषं कर्फ पितं, कषायो हन्ति सेवितः। रूक्षः शीतो गुरुग्राही, रोषणश्व खरूपतः // यदुदयाद् जन्तुशरीरं बिभीतकादिवत् कषायं भवति तत् कषायनाम 3 / अमिदीपनादिकृद् अम्लीकाद्याश्रितोऽम्लः / यदभ्यधायि अम्लोऽमिदीप्तिकृत् स्निग्धः, शोफपित्तकफापहः। छेदनः पाचनो रुच्यो, मूढवातानुलोमकः / / यदुदंयाद् जीवशरीरमम्लीकादिवद् अम्लं भवति तद् अम्लनाम 4 / पिचादिप्रशमकः खण्डशर्कराद्यानितो मधुरः / यदवाचि--- पित्तं वातं कर्फ हन्ति, धातुवृद्धिकरो गुरुः। . - जीवनः केशकृद् बालवृद्धक्षीणौजसां हितः // यदुदयाद जन्तुशरीरमिक्ष्वादिवद् मधुरं भवति तद् मधुरनाम 5 / स्थानान्तरे स्तम्भिता. हारविध्वंसादिकर्ता सिन्धुलवणाद्याश्रितो लवणोऽपि रसः पठ्यते, स चेह नोपातः, मधुरादिसंसर्गजत्वात् तदभेदेन विवक्षणात् / सम्भाव्यते च तत्र माधुर्यादिसंसर्गः, सर्वरसानां लवणप्रक्षेप एव खादुत्वोपपवेरिति / अभिहितं पञ्चधा रसनाम // . अधुना स्पर्शनाम अष्टधा प्राह-स्पृश्यन्त इति स्पर्शाः 'अष्टौ' अष्टसङ्ख्याका भवन्ति / तथाहि-गुरु१लघुरमृदु३खर४ शीत५उष्ण स्निग्ध रूक्षाः 8 इति / तत्राघोगमनहेतुरयोगोलकादिगतो गुरुः 1 / प्रायस्तिर्यगूर्ध्वगमनहेतुरर्कतूलादिनिश्रितो लघुः 2 / सन्नतिकारणं तिनिसलतादिगतो मृदुः 3 / स्तब्धतादिकारणं दृषदादिगतः खरः 4 / देहस्तम्भादिहेतुः पालेयाद्याग्नितः शीतः 5 / आहारपाकादिकारणं ज्वलनाद्यनुगत उष्णः 6 / पुद्गलद्रव्याणां मिथः संयुज्यमानानां बन्धनिबन्धनं तैलादिस्थितः स्निग्धः 7 / पुद्गलद्रव्याणां मिथोऽसंयुज्यमानानामबन्धनिबन्धनं भस्माद्याधारो रूक्षः 8 / एतत्संसर्गजास्तु नोक्ताः, एण्वेवान्तर्भामादिति / ततो यदुदयाद् जन्तुशरीरं गुरु भवति वज्रादिवद् तद् गुरुस्पर्शनाम 1 / यदुदयाद् जन्तुशरीरमर्कतूलादिवद् लघु भवति तद् लघुस्पर्शनाम 2 / यदुदयाद् जन्तुशरीरं हंसरूतादिवद् मृदु भवति तद् मृदुस्पर्शनाम 3 / यदुदयाद् जन्तुशरीरं खरं-कर्कशं पाषाणादिवद् भवति तत् खरस्पर्शनाम 4 / यदुदयाद् जन्तुशरीरं शीतं-शीतलं मृणालादिवद् भवति तत् शीतस्पर्शनाम 5 / यदुदयाद् जन्तुशरीरं हुतभुजादिवद् उष्णं भवति तद् उष्णस्पर्शनाम 6 / यदुदयाद् जन्तुशरीरं घृतादिवत् स्निग्धं भवति तत् स्निग्धस्पर्शनाम 7 / यदुदयाद् जन्तुशरीरं Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा मूत्यादिवद् रूक्षं भवति तद् रूक्षस्पर्शनाम 8 // 10 // उक्तमष्टधा स्पर्शनाम / इदानीं वर्णादिचतुष्कोतरविंशतिभेदानां शुभाशुभत्वयोरभिधित्सया प्राह नीलकसिणं दुगंधं, तित्तं कडुयं गुरुं खरं रुक्खं / सीयं च असुहनवगं, इकारसगं सुभं सेसं // 41 // . 'नीलकृष्णं' नीलकृष्णाख्ये कर्मणी अशुमे, दुर्गन्धनाम, "तितं कडुयं" इति तिक्तकटुके रसनानी, गुरु खरं रूक्षं शीतं चेति चत्वारि स्पर्शनामानि / एतानि च सर्वाण्यपि समुदितानि किमुच्यते ! इत्याह-'अशुभनवकं' नव प्रकृतयः परिमाणमस्य प्रकृतिवृन्दस्य तद् नवकम् , अशुभं च तद् नवकं च अशुभनवकम् / 'एकादशकम्' एकादर्शप्रकृतिसमूहरूपं, यथा रक्तपीतश्वेतवर्णाः, सुरभिगन्धः, मधुराऽम्लकषायरसाः, लघुमृदुस्निग्धोष्णस्पर्शा इति 'शुभं' शुभविपाकवेद्यत्वात् शुभखरूपम् / कीदृशं तत् ? इत्याह-शेष' कुवर्णनवकाद् अवशिष्टम् , कोऽर्थः ! कुवर्णनवकात् शेषा एकादश वर्णादिभेदाः शुभवर्णैकादशकमुच्यत इति // 11 // अधुना गतिनामातिदेशेनाऽऽनुपूर्वीचतुष्टयम्, आनुपूर्वीसम्बन्धेनोत्तरत्रोपयोगिप्रकृतिसमुदायसङ्घाहिनरकद्विकादिरूपं संज्ञान्तरं, विहायोगतिद्विकं चाभिधातुमाह घउह गइ व्वष्णुपुव्वी, गइपुव्विदुगं तिगं नियाउजुयं / पुव्वीउदओ वक्के, सुह असुह वसुट्ट विहगगई // 42 // . चतुर्धा गतिरिवाऽऽनुपूर्वी प्रागुक्तरूपा भवति / कोऽर्थः! -गत्यभिधानव्यपदेश्यमानुपूनाम, ततो निरयानुपूर्वीतिर्यगानुपूर्वीमनुष्यानुपूर्वीदेवानुपूर्वीभेदत आनुपूर्वीनाम चतुर्धति तात्पर्यम् / तत्र नरकगत्या नामकर्मप्रकृत्या सहचरिताऽऽनुपूर्वी नरकगत्यानुपूर्वी, तत्समकालं चास्या वेद्यमानत्वात् तत्सहचरितत्वम् / एवं तिर्यग्मनुप्यदेवाऽऽनुपूर्दोऽपि वाच्याः। “गइपुषिदुगं" ति इह पूर्वीशब्देनाऽऽनुपूर्वी मण्यते, आनुशब्दलोपः “ते लुग्वा" (सि०. 3-2108) इति सूत्रेण, यथा देवदत्तः देवः दत्तः इति / ततो नरकादिगतिनरकाद्यानुपूर्वीखरूपं नरकादिद्विकमुच्यते / तदेव त्रिकमभिधीयते-गतिपूर्वी द्विकमिह काकाक्षिगोलकन्यायेन सम्बध्यते / कीदृक्षं तद् ! इत्याह-निजायुयुतं' नरकाघायुष्कसमन्वितं नरकादित्रिकमुच्यत इति हृदयम् / उपलक्षणत्वाद् वैक्रियषट्कं विकलत्रिकम् औदारिकद्विकं वैक्रियद्विकम् आहारकद्विकम् अगुरुलघुचतुष्कं वैक्रियाष्टकमित्याद्यनुक्तं संज्ञान्तरं ग्राह्यम् / तत्र देवगतिर्देवानुपूर्वी नरकगतिर्नरकानुपूर्वी वैक्रियशरीरं वैक्रियानोपानमिति वैक्रियषट्कम् / द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणां जातयो विकलत्रिकम् / औदारिकशरीरं औदारिकाङ्गोपाङ्गमित्यौदारिकद्विकम् / वैक्रियशरीरं वैक्रियाङ्गोपाङ्गमिति वैक्रियद्विकम् / आहारकशरीरम् आहा- . रकाङ्गोपाङ्गमित्याहारकद्विकम् / देवगतिर्देवानुपूर्वी देवायुर्नरकगतिर्नरकानुपूर्वी नरकायु(क्रियशरीरं वैक्रियाङ्गोपाङ्गमिति वैक्रियाष्टकम् / अगुरुलघु१उपघात२पराघात३उच्छ्वास४लक्षणमगुरुलघुचतुष्कमिति / ननु आनुपूर्व्या उदयो नरकादिषु किमृजुगत्या गच्छत आहोखिद् वक्रगत्या ? इत्याशङ्कयाह- "पुबीउदओ वक्के" ति पूर्व्या:-आनुपूर्व्या वृषभस्य नासिकारज्जु१°शसङ्ख्याप्रकृ० ख० ग० ऊ०॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11-44] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / 53 कल्पाया उदयः-विपाको वक्र एव भवति / अयमर्थः-नरके द्विसमयादिवक्रेण गच्छतो जीवस्य नरकानुपूर्व्या उदयः, तिर्यक्षु द्विसमयादिवक्रेण जीवस्य गच्छतस्तिर्यगानुपूर्व्या उदयः, मनुष्येषु द्विसमयादिवक्रेण गच्छतो जीवस्य मनुष्यानुपूर्व्या उदयः, देवेषु द्विसमयादिवक्रेण गच्छतो जीवस्य देवानुपूर्व्या उदयः / उक्तं च बृहत्कर्मविपाके नंग्याउयस्स उदए, नरए वक्केण गच्छमाणस्स / नरयाणुपुबियाए, तहिँ उदओ अन्नहिं नस्थि // (गा० 122) एवं तिरिमणुदेवे, तेसु वि वक्केण गच्छमाणस्स / तेसिमणुपुखियाणं, तहिं उदओ अन्नहिं नत्थि // (गा० 123) तथा विहायसा-आकाशेन गतिविहायोगतिः, सा द्विधा-'शुभा' प्रशस्ता 'अशुभा' अप्रशस्ता / क्रमेणोदाहरणमाह-"वसुदृ" ति वृषः-वृषभः सौरमेयो बलीवर्द इति यावत् , ततो वृषस्य उपलक्षणत्वाद् गजकलभराजहंसादीनां प्रशस्ता विहायोगतिः / उष्ट्र:-करभः क्रमेलक इति यावत् , तत उष्ट्रस्य उपलक्षणत्वात् खरतिड्डादीनामप्रशस्ता विहायोगतिरिति // 42 // व्याख्याताः पिण्डप्रकृतीनामुत्तरभेदाः, साम्प्रतमष्टौ प्रत्येकप्रकृतीरभिधित्सुराह-: . परघाउदया पाणी, परेसि बलिणं पि होइ दुद्धरिसो। ऊससणलद्धिजुत्तो, हवेइ ऊसासनामवसा // 43 // परान् आहन्ति-परिभवति परैर्वा न हन्यते-नाभिभूयत इति पराघातम्, तन्निबन्धनं नाम पराघातनाम / ततः 'पराघातोदयात्' पराघातनामकर्मविपाकात् 'प्राणी' जन्तुः 'परेषाम्' अन्येषां 'बलिनामपि बलवतामपि आस्तां दुर्बलानामित्यपिशब्दार्थः, 'भवति' जायते 'दुर्धर्षः' अनभिभवनीयमूर्तिः / अयमर्थः-यदुदयात् परेषां दुष्प्रधर्षः-महौजखी दर्शनमात्रेण वाक्सौष्ठवेन वा महाभूपसभामपि गतः सभ्यानामपि क्षोभमुत्पादयति प्रतिपक्षप्रतिभाप्रतिघातं च करोति तत् पराघातनामेत्यर्थः 1 / 'उच्छासनामवशाद्' उच्छासनामकोंदयेन 'उच्छ्सनलब्धियुक्तो भवति' उच्छ्वासैलब्धिसमन्वितो जायते, यदुदयाद् उच्छ्सनलब्धिरात्मनो भवति तद् उच्छ्वासनाम 2 / सर्वलब्धीनां क्षायोपशमिकत्वाद् औदयिकी लब्धिर्न सम्भवतीति चेत्, नैतदस्ति, वैक्रियाहारकलब्धीनामौदयिकीनामपि सम्भवाद्, वीर्यान्तरायक्षयोपशमोऽपि चात्र निमित्तीभवतीति सत्यप्यौदयिकत्वे क्षायोपशमिकव्यपदेशोऽपि न विरुध्यते // 13 // रविबिंये उ जियंगं, तावजुयं आयवाउ न उ जलणे। जमुसिणफासस्स तर्हि, लोहियवन्नस्स उदउ त्ति // 44 // . 'आतपाद्' आतपनामोदयाद् जीवानामङ्गं-शरीरं 'तापयुतं' स्वयमनुष्णमप्युष्णप्रकाशयुक्त भवति / आतपस्य पुनरुदयो रविबिम्ब एव, तुशब्द एवकारार्थः / कोऽर्थः !-भानुमण्डलादिपार्थिवशरीरेण्वेव 'न तु' न पुनः 'ज्वलने' हुतभुजि / अत्र युक्तिमाह-'यद्' यस्मात् कारणात् 'तत्र' ज्वलने-ज्वलनजन्तुशरीरे तेजस्कायशरीर इत्यर्थः उष्णस्पर्शस्योदयस्तथा 1 नरकायुष उदये नरके वक्रेण गच्छतः / नरकानुपूर्व्यास्तत्रोदयोऽन्यत्र नास्ति // एवं तिर्यग्मनुष्यदेवेषु तेष्वपि बक्रेण गच्छतः। तेषामानुपूर्वीणां तत्रोदयोऽन्यत्र नाति॥२°सनिःश्वासल' ख०म०3०॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः - [गाथा कोहितवर्णस्योदय इति, तेजस्कायशरीराण्येवोष्णस्पर्शोदयेनोष्णानि लोहितवर्णनामोदयात्तु प्रकाशयुक्तानि भवन्ति, न स्वातपोदयादिति भावः / यदुदयाद् जन्तुशरीराण्यात्मनाऽनुष्णाम्यप्युष्णप्रकाशरूपमातपं कुर्वन्ति तद् आतपनामेत्यर्थः 3 // 14 // . अणुसिणपयासरुवं, जियंगमुज्जोयए इहुजोया। जइदेवुत्तरविक्कियजोइसखजोयमाइ व्व // 45 // इह 'उद्योताद्' उद्योतनामोदयेन ‘जीवा' जन्तुशरीरम् 'उद्योतते' उद्योतं करोति, कथम् ! इत्याह-अनुष्णप्रकाशरूपम् , उष्णप्रकाशरूपं हि वहिरप्युद्योतत इति तद्व्यवच्छेदार्थमनुष्णप्रकाशरूपमित्युक्तम् / आह क इवोद्योतोदयाद् जन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाशरूपमुद्योतं कुर्वन्ति ? इत्याह-'यतिदेवोत्तरवैक्रियज्योतिष्कखद्योतादय इव' तत्र यतयश्च-साधवः देवाश्च-सुराः यतिदेवाः, यतिदेवैर्मूलशरीरापेक्षयोचरकालं क्रियमाणं वैक्रियं यतिदेवोचरवैक्रियम् , ज्योतिकाः-चन्द्रग्रहनक्षत्रताराः, खद्योताः-प्रतीताः, ततो यतिदेवोत्तरवैक्रियं च ज्योतिष्काश्च खद्योताश्च ते आदिर्येषां रत्नौषधीप्रभृतीनां ते यतिदेवोत्तरवैक्रियज्योतिष्कखद्योतादयस्त. इव / अत्र मकारोऽलाक्षणिकः / अयमर्थः-यथा यतिदेवोचरवैक्रियं चन्द्रग्रहादिज्योतिष्काः खद्योता रनौषधीप्रभृतयश्चानुष्णप्रकाशात्मकमुद्योतं विदधति तथा यदुदयाद् जन्तुशरीराण्यनुष्णप्रकाशरूपमुद्योतमातन्वन्ति तद् उद्योतनामेत्यर्थः 4 // 45 // अंगं न गुरु न लहुयं, जायइ जीवस्स अगुरुलहुउदया। तित्थेण तिहुयणस्स वि, पुज्जो से उदओ केवलिणो // 46 // - 'अगुरुलघूदयाद्' अगुरुलघुनामोदयेन जीवस्य 'अहं' शरीरं न गुरु न लघु 'जायते' भवति किन्तु अगुरुलघु / यत एकान्तगुरुत्वे हि वोढुमशक्यं स्यात् , एकान्तलघुत्वे तु वायुमाऽपह्रियमाणं धारयितुं न पार्येत / यदुदयाद् जन्तुशरीरं न गुरु न लघु नापि गुरुलघु किन्त्वगुरुलघुपरिणामपरिणतं भवति तद् अगुरुलधुनामेत्यर्थः 5 / 'तीर्थेन' तीर्थकरनामकर्मवशात् 'त्रिभुवनस्यापि' देवमानवदानवलक्षणत्रिलोकलोकस्यापि 'पूज्यः' अर्यचनीयो भवति / 'से' तस्य तीर्थकरनामकर्मणः 'उदयः' विपाकः 'केवलिनः' उत्पन्नकेवलज्ञानस्यैव / यदुदयाद् जीवः सदेवमनुजासुरलोकपूज्यमुत्तमोत्तमं "तित्थं भंते! तित्थं ? तित्थयरे तित्थं ! गोयमा! अरिहा ताव नियमा तित्थंकरे, तित्थं पुण चाउवन्ने समणसंघे पढमगणहरे वा // " (भग० श०२० उ० 8 पत्र 792-2) इति परममुनिप्रणीतधर्मतीर्थस्य प्रवर्तयितृपदमवामोति सत् तीर्थकरनामेत्यर्थः 6 // 46 // अंगोवंगनियमणं, निम्माणं कुणइ सुत्तहारसमं / उवधाया उवहम्मइ, सतणुवयवलंबिगाईहिं // 47 // 'निर्माण' निर्माणनाम 'अङ्गोपाङ्गनियमनम्' अङ्गप्रत्यङ्गानां नियतप्रदेशव्यवस्थापनं 'करोति' विदधाति, अंत एवेदं 'सूत्रधारसम' सूत्रभृत्कल्पम् / यदुदयाद् जन्तुशरीरेष्वङ्गोपाङ्गानां 1 तीर्थ भदन्त ! तीर्थम् ? तीर्थकरस्तीर्थम् ? गौतम। अर्हस्तावन्नियमात तीर्थङ्करः, तीर्थ पुनश्चतुर्वर्णः श्रमसजः प्रथमगणधरो वा // ततः सू० ख०॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 35-18] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / प्रतिनियतस्थानवृत्तिता भवति तत् सूत्रधारकल्प निर्माणनामेत्यर्थः / तदभावे हि तहतककल्पैरनोपाननामादिभिर्निर्वर्तितानामपि शिरउदरादीनां स्थानवृत्तेरनियमः स्यात् 7 / 'उपधाता' उपघातनामोदयाद् 'उपन्यते' विनाश्यते जन्तुः, कैः? इत्याह-खा-खकीया तनुः-शरीरं खतनुस्तस्या अवयवाः-अंशा ये लम्बिकादयः, आदिशब्दात् प्रतिजिह्वाचौरदन्तादिपरिग्रहस्तैः, "सतणुवयव" इत्यत्र अकारलोपः प्राकृतत्वात् / यदुदयात् खशरीरान्तःप्रवर्धमानैर्लम्बिकाप्रतिजिहाचौरदन्तादिभिर्जन्तुरुपहन्यते तद् उपघातनामेत्यर्थः 8 // 47 // व्याख्याता अष्टौ प्रत्येकप्रकृतयः / साम्प्रतं त्रसदशकं व्याख्यानयत्नाह बितिचउपणिदिय तसा, बायरओ बायरा जिया थूला। . नियनियपजत्तिजुया, पत्ता लद्धिकरणेहिं // 48 // त्रस्यन्ति-उप्णाद्यभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानाद् उद्विजन्ते गच्छन्ति च छायाद्यासेवनार्थ स्थानान्तरमिति त्रसाः, तत्पर्यायविपाकवेद्यं कर्मापि त्रसनाम / ततः 'त्रसात्' सनामोदयाद जीवाः "बितिचउपणिदिय" ति इन्द्रियशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् द्वे इन्द्रिये स्पर्शनरसनलक्षणे येषां ते द्वीन्द्रियाः, शङ्खचान्दनककपर्दजलूकाकृमिगण्डोलकपूतरकादयो भवन्ति / त्रीणि स्पर्शमरसनघ्राणलक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः, यूकामत्कुणगर्दमेन्द्रगोपककुन्थुमस्कोटकादयः / चत्वारि स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुर्लक्षणानीन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः, मक्षिकाभ्रमरमशकवृश्चिकादयः / पञ्च स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुःश्रोत्ररूपाणीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः, मत्स्यमकरहरिहरिणसारसराजहंसनरसुरनारकादयो भवन्तीति / यदुदयाद् जीवास्त्रसा द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रिया भवन्ति तत् त्रसनामेत्यर्थः 1 / 'बादराद्' बादरनामोदयाद् 'जीवाः' जन्तवो बादराः-स्थूला भवन्ति / . बादरत्वं चेह न चक्षुद्यत्वमिष्टम् , बादरस्याप्येकैकस्य पृथिव्यादिशरीरस्य चक्षुर्माहत्यामावात् / तस्माद् जीवविपाकित्वेन जीवस्यैव कश्चिद् बादरपरिणामं जनयति एतद्, न पुद्गलेषु, किन्तु जीवविपाक्यप्येतत् शरीरपुद्गलेष्वपि काञ्चिदप्यभिव्यक्तिं दर्शयति / तेन बादराणां बहुतरसमुदितपृथिव्यादीनां चक्षुषा ग्रहणं भवति, न सूक्ष्माणाम् / जीव विपाकिकर्मणः शरीरे खशक्तिप्रकटनमयुक्तमिति चेत्, नैवम् , जीवविपाक्यपि क्रोधो भ्रूभनत्रिवलीतरङ्गितालिकफलकक्षरत्वेदजलकणनेत्राद्याताम्रत्वपरुषवचनवेपथुप्रभृतिविकारं कुपितनरशरीरेऽपि दर्शयति, विचित्रत्वात् कर्मशक्तेरिति / / ___ यदुदयाद् जीवा बादरा भवन्ति तद् बादरनामेत्यर्थः 2 / 'पर्याप्तात्' पर्याप्तमामोदयाद जीवा निजनिजपर्याप्तियुता भवन्ति / तत्र पर्याप्तिर्नाम पुद्गलोपचयजः पुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुः शक्तिविशेषः, सा च विषयभेदात् पोढा-आहारपर्याप्तिः 1 शरीरपर्याप्तिः 2 इन्द्रियपर्याप्तिः 3 उच्छ्वासपर्याप्तिः 4 भाषापर्याप्तिः 5 मनःपर्याप्तिः 6 चेति / तत्र यया बाह्यमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति सा आहारपर्याप्तिः 1 / यया रसीभूतमाहारं रसासूग्मांसमेदोऽखिमज्जाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याप्तिः 2 / यया धातुरूपतया परिण १°मर्कोटका ख०१०ङ०॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा मितमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः 3 / यया पुनरुच्छ्वासप्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय उच्छ्वासरूपतया परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा उच्छासपर्याप्तिः / यया तु भाषाप्रायोग्यवर्गणाद्रव्यं गृहीत्वा भाषात्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुश्चति सा भाषापर्याप्तिः 5 / यया पुनर्मनोयोग्यवर्गणादलिकं गृहीत्वा मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः 6 / एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणां द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाऽर्सज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां च चतुःपञ्चषट्सङ्ख्या भवन्ति / तथा वैक्रियशरीरिणां शरीरपर्याप्तिरेवैका आन्तर्मोहूर्तिकी, शेषाः पञ्चाप्येकसामयिक्यः / औदारिकशरीरिणां पुनराहारपर्याप्तिरेवैका एकसामयिकी, शेषाः पुनरान्तमॊहूर्तिक्यः / आह च वेउवियपज्जती, सरीर अंतमुहु सेस इगसमया / / ___ आहारे इगसमया, सेसा अंतमुहु ओराले // - ततः पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां "अभ्रादिभ्यः" (सि०७-२-४६) इति अप्रत्यये ते पर्याप्ताः, तद्विपाकवेद्यं कर्मापि पर्याप्तनाम / यदुदयात् खपर्याप्तियुक्ता भवन्ति जीवास्तत् पर्याप्तनामेत्यर्थः 3 / ते च पर्याप्ता द्विधा- लब्ध्या करणैश्च / तत्र ये खयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थ्य नियन्ते नावाक् ते लब्धिपर्याप्ताः; ये च पुनः करणानि-शरीरेन्द्रियादीनि निर्वर्तितवन्तस्ते करणपर्याप्ता इति / ननु च शरीरपर्याप्त्यैव शरीरं भविष्यति, किं प्रागभिहितेन शरीरनाम्ना :, नैतदस्ति, साध्यभेदात् / तथाहि-शरीरनाम्नो जीवेन गृहीतानां पुद्गलानामौदारिकादिशरीरत्वेन परिणतिः साध्या, शरीरपर्याप्तेः पुनरारब्धशरीरस्य परिसमाप्तिरिति / अथ प्रागुक्तेनोच्छासनाम्नैवोच्छ्सनस्य सिद्धत्वाद् इहोच्छासपर्याप्तिनिर्विषयेति, नैवम् , सतीमप्युच्छासनामोदयेन जनितामुच्छ्सनलब्धिमात्मा शक्तिविशेषरूपामुच्छ्रासपर्याप्तिमन्तरेण व्यापारयितुं न शक्नुयात् / यथा हि शरीरनामोदयेन गृहीता अप्यौदारिकादिशरीरपुद्गलाः शक्तिविशेषरूपां शरीरपर्याप्ति विना शरीररूपतया परिणमयितुं न शक्यन्त इति शरीरनाम्नः पृथग् इप्यते शरीरपर्याप्तिः, एवमत्राप्युच्छासनानः पृथगुच्छासपर्याप्तिरेष्टव्या, तुल्ययुक्तित्वादिति // 48 // पत्तेय तणू पत्तेउदयेणं दंतअट्टिमाइ थिरं। नाभुवरि सिराइ सुह, सुभगाओ सव्वजणइहो // 49 // / ___ 'प्रत्येकोदयेन' प्रत्येकनामकर्मोदयवशाद् जन्तूनां 'प्रत्येकं तनुः' पृथक् पृथक् शरीरं भवति, यदुदयाद् एकैकस्य जन्तोरेकैकं शरीरमौदारिकं वैक्रियं वा भवति तत् प्रत्येकनामेत्यर्थः 4 / 'स्थिरं' स्थिरनामोदयेन दन्ताऽस्थ्यादि निश्चलं भवति, यदुदयात् शिरोऽस्थिग्रीवादीनामवयवानां स्थिरता भवति तत् स्थिरनामेत्यर्थः 5 / 'शुभं' शुभनामोदयात् नाभ्युपरि शिरआदिर्भवति, यदुदयाद् नाभेरुपर्यवयवाः शुभा भवन्ति तत् शुभनाम, शिरःप्रभृतिभिः स्पृष्टः परो हृष्यतीति तेषां शुभत्वम् 6 / 'सुभगात्' सुभगनामोदयेन सर्वजनेष्टो भवति, 1 वैक्रियपर्याप्तिः शरीरे आन्तर्मोहूर्तिकी शेषा एकसामयिक्यः / आहारे (पर्याप्तिः) एकसामयिकी शेषा भान्तर्मोहूर्तिक्य औदारिके // Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19-50] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / यदुदयाद् अनुपकार्यपि सर्वस्य मनःप्रियो भवति तत् सुभगनामेत्यर्थः 7 / तदभ्यधायि अणुवकए वि बहूणं, होइ पिओ तस्स सुभगनामुदओ ति / सुभगुदए वि हु कोई, कंची आसज दूभगो जइ वि। जायऍ तद्दोसाओ, जहा अभवाण तित्थयरों // // 19 // सुसरा महुरसुहझुणी, आइना सव्वलोयगज्झवओ। जसओ जसकित्ति इओ, थावरदसगं विववत्थं // 50 // 'सुखरात्' सुखरनामोदयेन मधुरः-माधुर्यगुणालङ्कृतः सुखयतीति सुखः-सुखदो ध्वनिःखरो भवति, यदुदयाद् जीवस्य खरः श्रोत्रप्रीतिहेतुर्भवति तत् सुखरनामेत्यर्थः 8 / 'आदेयाद्' आदेयनामोदयेन सर्वलोकेन समस्तजनेन ग्राह्यम्-आदेयं वचः-वचनं यस्य स तथा, यदुदयाद् यत्किञ्चिदपि ब्रुवाणो जीवः सर्वस्योपादेयवचनो भवति, दर्शनसमनन्तरमेव तस्याभ्युत्यानादि समाचरति तद् आदेयनामेत्यर्थः 9 / “जसउ" तिं यशःकीर्तिनामोदयाद् यशःकीर्तिर्भवति / तत्र सामान्यतस्तपःशौर्यत्यागादिसमुपार्जितयशसा कीर्तन-संशब्दनं श्लाघनं यशःकीर्तिरुच्यते / यद्वा . दानपुण्यकृता कीर्तिः, पराक्रमकृतं यशः / अथवा एकदिग्गामिनी कीर्तिः, सर्वदिग्गामुकं यशः / 10 इति / व्याख्यातं त्रसदशकम् / सम्प्रति स्थावरदशकं व्याचिख्यासुरतिदिशति-'इतः' सदशकात् स्थावरदशकं 'विपर्यस्तं' विपरीतार्थ भवति / तथाहि-तिष्ठन्तीत्येवंशीला उष्णाद्यमितापेऽपि तत्परिहाराऽसमर्थाः स्थावराः, “स्थेशभासपिसकसो वरः” (सि०५-२-८२) इति वरप्रत्ययः, पृथिवीकायिका अप्कायिकास्तेजस्कायिका वायुकायिका वनस्पतिकायिका एकेन्द्रियाः, वद्विपाकवेद्यं कर्मापि स्थावरनाम / तेजोवायूनां तु स्थावरनामोदयेऽपि चलनं खामाविकमेव, न पुनरुष्णाद्यभिवापेन द्वीन्द्रियादीनामिव विशिष्टम् 1 इति / यदुदयात् सूक्ष्माः पृथिवीकायिकादयः पञ्च भवन्ति तदपि जीवविपाकि सूक्ष्मनामकर्म 2 इति / यदुदयात् पूर्वोक्तखयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकला जन्तवो भवन्ति तद् अपर्याप्तनाम, अपर्याप्तयो विद्यन्ते येषां तेऽपर्याप्ता इति कृत्वा, तन्निबन्धनं नाम अपर्याप्तनाम / तत्र द्वेषा अपर्याप्ताः-लब्ध्या करणैश्च / तत्र येऽपर्याप्तका एव सन्तो प्रियन्ते, न पुनः खयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ति ते लब्ध्यपर्याप्ताः। ये पुनः करणानि-शरीरेन्द्रियादीनि न तावत् निर्वर्तयन्ति, अथ चावश्यं पुरस्वाद् निर्वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्ताः / इह चैवमागमः-लब्ध्यपर्याप्ता अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव प्रियन्ते नार्वाक्, यस्मादागामिभवायुर्बदा प्रियन्ते सर्व एव देहिनः, तच्चाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानामेव बध्यत इति 3 / यदुदयाद् अनन्तानां जीवानां साधारणम्-एकं शरीरं भवति तत् साधारणनाम 1 / यदुदयात् कर्णधूजिहाद्यवयवा अनुपट्टतेऽपि बहूनां भवति प्रियस्वस्य सुभगनामोदयः॥ सुभगोदयेऽपि खलु कश्चित् कश्चिदासाथ दुर्भगो यद्यपि / जायते तद्दोषातू यथाऽभव्याजां तीर्थकरः॥ २त्ति यशसः यशोनामकर्मोदयेन ययःकी ग०॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाया अस्थिराः-चपला भवन्ति तद् अस्थिरनाम 5 / यदुदयाद् नाभेरधः पादादीनामवयवानामशुभता भवति तद् अशुभनाम, पादादिना हि स्पृष्टः परो रुष्यतीति तेषामशुभत्वम् / कामिनीव्यवहारेण व्यभिचार इति चेत् , नैवम् , तस्य मोहनिबन्धनत्वात् , वस्तुस्थितिश्चेह चिन्त्यत इति 6 / यदुदयवशाद् उपकारकृदपि जनस्याऽप्रियो भवति तद् दुर्भगनाम / उक्तं च उवगारकारगो वि हु, न रुचई दूभगो उ जस्सुदए / 7 इति / यदुदयात् खरभिन्नहीनखरो भवति तद् दुःखरनाम 8 / यदुदयवशाद् युक्तियुक्तमपि ब्रुवाणो नाऽऽदेयवचनो भवति न च लोकोऽभ्युत्थानादि तस्य करोति तद् अनादेयनाम 9 / यदुदयात् पूर्वप्रदर्शिते यशःकीर्ती न भवतस्तद् अयशःकीर्तिनाम 10 इति // 50 // व्याख्यातं द्विचत्वारिंशद्भेदं त्रिनवति मेदं त्र्युत्तरशतमेदं सप्तपष्टिमेदं षष्ठं नाम / सम्प्रति द्विभेदं गोत्रकर्माभिधित्सुराह गोयं दुहुच्चनीयं, कुलाल इव सुघडभुंभलाईयं। विग्धं दाणे लाभे, भोगुवभोगेसु विरिए य // 51 // ___ गोत्रं प्राग्वर्णितशब्दार्थ 'द्विधा' द्विभेदम् , कथम् ? इत्याह-'उच्चनीचं' उच्चं च नीचं च उच्चनीचम् , उच्चैर्गोत्रं नीचैर्गोत्रमित्यर्थः / एतच्च 'कुलाल इव' कुम्भकारतुल्यम् / शोभनो घटः सुघटः-पूर्णकलशः, भुम्भलं-मद्यस्थानम् , सुघटभुम्भले आदी यस्य तत्कृतोपकरणस्य तत् सुघटभुम्भलादि करोतीति शेषः / अयमत्र भावः—यथा हि कुलालः पृथिव्यास्तादृशं पूर्णकलशादिरूपं करोति यादृशं लोकात् कुसुमचन्दनाक्षतादिभिः पूजां लभते, स एव भुम्भलादि तादृशं विदधाति यादृशमप्रक्षिप्तमद्यमपि लोकाद् निन्दा लभते; तथा यदुदयाद् निर्धनः कुरूपो बुद्ध्यादिपरिहीणोऽपि पुरुषः सुकुलजन्ममात्रादेव लोकात् पूजां लभते तद् उच्चै!त्रम् 1; यदुदयात् पुनर्महाधनोऽप्रतिरूपरूपो बुद्ध्यादिसमन्वितोऽपि पुमान् विशिष्टकुलाsभावाद् लोकाद् निन्दां प्राप्नोति तद् नीचैर्गोत्रम् 2 इति / उक्तं द्विविधं गोत्रकर्म // ___ अथ विघ्नकर्म पञ्चधा व्याख्यानयन्नाह-"विग्धं दाणे लाभे" इत्यादि। विशेषेण हन्यन्तेतदानादिलब्धयो विनाश्यन्तेऽनेनेति विघ्नम्-अन्तरायकर्म / तच्च विषयभेदात् पञ्चधेति दर्शयति-दीयत इति दानं तस्मिन् , लभ्यत इति लाभस्तसिन्, भुज्यते-सकृदुपभुज्यत इति भोगः पुष्पाहारादिः, उपेति-पुनः पुनर्भुज्यत इति उपभोगो भवेनाऽऽसनाऽजनादि / उक्तं च__ सइ भुज्जइ ति भोगो, सो पुण आहारपुप्फमाईसु / . उवभोगो उ पुणो पुण, उवभुज्जइ भवणवणियाई / / (वृ०क०वि० गा० 165) ततो भोगश्च उपभोगश्च भोगोपभोगौ तयोः, प्राकृतवशाच द्विवचनस्थाने बहुवचनं भवति, यदाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः स्वप्राकृतलक्षणे-"द्विवचनस्य बहुवचनम्" ( सि०८-३१३०) इति / विशेषेण ईर्यते-चेश्यतेऽनेनेति वीर्यम् , यद्वा विविधम्-अनेकप्रकारमीरयति यत् प्राणिनं क्रियासु तद् वीर्य सामर्थ्य शक्तिरिति पर्यायास्तस्मिन् 'चः' समुच्चये, सर्वत्र विन. 1 उपकारकारकोऽपि हि न रोचते दुर्भगस्तु यस्योदये // 2 °वनवसना ग० 0 // 3 सकृभुज्यते इति भोगः स पुनराहारपुष्पादिषु / उपभोगस्तु पुनः पुनरुपभुज्यते भवननितादि // Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51-53] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / मिति योज्यम् / विषयसप्तमी चेयं सर्वत्र / ततो दानादिविषयभेदतो दानादिविषयं पञ्चधा विनं कर्म भवतीति वाक्याक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्-सत्यपि दातव्ये वस्तुनि, आगते च गुणवति पात्रे,जानन्नपि दानफलं, यदुदयाद दातुं नोत्सहते तद दानान्तरायम् / यदुदयाद विशिष्टेऽपि दातरि, विद्यमानेऽपि देये वस्तुनि, याच्नाकुशलोऽपि याचको न लभते तद् लाभान्तरायम् 2 / यदुदयात् सति विभवादौ सम्पद्यमाने चाहारमाल्यादौ विरतिहीनोऽपि न मुझे तद् भोगान्तरायम् 3 / यदुदयाद् विद्यमानमपि वस्त्रालङ्कारादि नोपभुढे तद् उपभोगान्तरायम् 4 / यदुदयवशाद् बलवान् नीरुजो वयःस्थोऽपि च तृणकुमीकरणेऽप्यसमर्थस्तद् वीर्यान्तरायम् 5 इति // 51 // एतच्च भाण्डागारिकसममिति दर्शयन्नाह. सिरिहरियसमं एयं, जह पडिकूलेण तेण रायाई। न कुणइ दाणाईयं, एवं विग्घेण जीवो वि॥५२॥ - श्रियो गृहं श्रीगृहं-भाण्डागारं तद् विद्यते यस्य स श्रीगृहिकः-भाण्डागारिकतेन समंतुल्यमेतदन्तरायकर्म / यथा 'तेन' श्रीगृहिकेण 'प्रतिकूलेन' अननुकूलेन 'राजादिः' राजानृपतिः, आदिशब्दात् श्रेष्ठीश्वरतलवरादिपरिग्रहः 'न करोति' कर्तुं न पारयति दानादि, आदिशब्दाद् लामभोगोपभोगादिग्रहणम् / एवम्' अमुना श्रीगृहिकदृष्टान्तेन 'विघ्नेन' अन्तरायकर्मणा 'जीवोऽपि' जन्तुरपि दानादि कर्तुं न पारयतीति // 52 // व्याख्यातं पञ्चविधमन्तरायं कर्म, तद्व्याख्याने च समर्थिता "इह नाणदंसणावरणवेय" (गा०३) इत्यादिमूलगाथा / अथ "कीरइ जिएण हेऊहिँ जेण तो भन्नए कम्मं" (गा०१) इत्यादौ यदुक्तं तद्व्याख्यानार्थ यस्य कर्मणो ये बन्धहेतवस्तान् कचन हेतुद्वारेण काऽपि च हेतुमवारेण दिदर्शयिषुराह पडिणीयत्तण निन्हव, उवघाय पओस अंतराएणं / अचासायणयाए, आवरणदुर्ग जिओ जयइ // 53 // 'आवरणद्विकं' ज्ञानावरणदर्शनावरणरूपं जीवः 'जयति' धातूनामनेकार्थत्वाद् बध्नातीति सम्बन्धः / तत्र ज्ञानस्य-मत्यादेर्शानिनां-साध्वादीनां ज्ञानसाधनस्य-पुस्तकादेः 'प्रत्यनीकत्वेन' तदनिष्टाचरणलक्षणेन 'निहवेन' न मया तत्समीपेऽधीतमित्यादिखरूपेण 'उपघातेन' मूलतो विनाशखरूपेण 'प्रद्वेषेण' आन्तराप्रीतिरूपेण 'अन्तरायेण' भक्तपानवसनोपायलाभनिवारणलक्षणेन 'अत्याशातनया' च जात्यायुद्धट्टनादिहीलारूपया ज्ञानावरणं कर्म जयतीति सर्वत्र द्रष्टव्यम् / एतच्चोपलक्षणम् , अतो ज्ञान्यवर्णवादेन आचार्योपाध्यायाधविनयेनाऽकालखाध्यायकरणेन काले च खाध्यायाऽविधानेन प्राणिवधाऽनृतभाषणस्तैन्याऽब्रह्मपरिग्रहरात्रिभोजनाऽविरमणादिभिश्च ज्ञानावरणं जयतीत्याद्यपि वक्तव्यमिति / एवं दर्शनावरणेऽपि वाच्यम् , नवरं दर्शनाभिलापो वक्तव्यः / तथाहि-दर्शनस्य-चक्षुर्दर्शनादेर्दर्शनिनां-साध्वादीनां दर्शनसासाधनस्य-श्रोत्रनयननासिकादेः सम्मत्यनेकान्तजयपताकादिप्रमाणशास्त्रपुस्तकादेर्वा प्रत्यनीकत्वेन तदनिष्टाचरणलक्षणेन, निहवेन-न मया तत्समीपेऽधीतमित्यादिखरूपेण, उपघातेन१°ऽथ च ख० ग० अ०॥ 2 °कखनिहवोपघातान्तरायायाशातनादिभिर्दर्शक० घ० पुस्तकयोरेवं पाठः // Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोतः [गाथा मूलतो विनाशेन, प्रद्वेषेण-आन्तराप्रीत्यात्मकेन, अन्तरायेण-मक्तपानवसनोपायलामनिवराणेन, अत्याशातनया च-जात्यादिहीलया दर्शनावरणं कर्म जयतीति सर्वत्र द्रष्टव्यम् / उपलक्षणमिदम् , अतो दर्शनिनां दूषणग्रहणेन श्रवणकर्तननेत्रोत्पाटननासाछेदजिहाविकर्तनादिना प्राणिवधाऽनृतभाषणस्तैन्याऽब्रह्मपरिग्रहरात्रिभोजनाऽविरमणादिभिश्च दर्शनावरणं जयतीत्याद्यपि वक्तव्यम् / यदवादि श्रीहेमचन्द्रसूरिप्रभुपादैः ज्ञानदर्शनयोस्तद्वत् , तद्धेतूनां च ये किल / विघ्ननिहवपैशून्याऽऽशातनाघातमत्सराः॥ ते ज्ञानदर्शनावारकर्महेतव आश्रवाः / (योगशा० टी० पत्र 306-2) // 53 // उक्ता ज्ञानावरणदर्शनावरणबन्धहेतवः / इदानीं वेदनीयस्य द्विविधस्यापि तानाह गुरुभत्तिखंतिकरुणावयजोगकसायविजयदाणजुओ। दढधम्माई अजइ, सायमसायं विवजयओ॥५४॥ इह युतशब्दस्य प्रत्येकं योगः, ततो गुरवः-मातापितृधर्माचार्यादयस्तेषां भक्तिः-आसनादिप्रतिपत्तिर्गुरुभक्तिस्तया युतो गुरुभक्तियुतः-गुरुभक्तिसमन्वितो जन्तुः 'सातं' सातवेदनीयम् 'अर्जयति' समुपार्जयतीति सम्बन्धः / 'क्षान्तियुतः' क्षमान्वितः 'करुणायुतः' दयापरीतचेताः 'व्रतयुतः' महाव्रताऽणुव्रतादिसमन्वितः 'योगयुतः' दशविधचक्रवालसामाचार्याद्याचरणप्रगुणः 'कषायविजययुतः' क्रोधादिकषायपरिभवनशीलः 'दानयुतः' दानरुचिः 'दृढधर्मः' आपत्खपि निश्चलधर्मः, आदिशब्दाद् बालवृद्धग्लानादिवैयावृत्त्यकरणशीलो जिनचैत्यपूजापरायणश्च सातम् 'अर्जयति' बध्नाति / यदवाचि देवपूजागुरूपास्तिपात्रदानदयाक्षमाः। (योगशा० टी० पत्र 306-2) सरागसंयमो देशसंयमोऽकामनिर्जरा / शौचं बालतपश्चेति, सद्वेद्यस्य स्युराश्रवाः // (योगशा० टी० पत्र 306-2) तथा 'विपर्ययतः' सातबन्धविपर्ययेण असातमर्जयति, तथाहि-गुरूणामवज्ञायकः क्रोधनो निर्दयो व्रतयोगविकल उत्कटकषायः कार्पण्यवान् सद्धर्मकृत्यप्रमत्तः हस्त्यश्वबलीवर्दादिनिर्दयदमनवाहनलाञ्छनादिकरणप्रवणः खपरदुःखशोकवधतापक्रन्दनपरिदेवनादिकारकश्चेति / यदभ्यघायिदुःखशोकवधास्तापक्रन्दने परिदेवनम् / खान्योभयस्थाः स्युरसद्वेद्यस्यामी इहाश्रवाः // (योगशा० टी० पत्र 306-2) // 54 // उक्ता वेदनीयस्य बन्धहेतवः / साम्प्रतं मोहनीयस्य द्विविधस्यापि तानाह उम्मग्गदेसणामग्गनासणादेवदव्वहरणेहिं / ___दसणमोहं जिणमुणिचेइयसंघाइपडिणीओ // 55 // उन्मार्गस्य-भवहेतोर्मोक्षहेतुत्वेन देशना-कथनमुन्मार्गदेशना, मार्गस्य-ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणस्य मुक्तिपथस्य नाशना-अपलपनं मार्गनाशना, देवद्रव्यस्य-चैत्यद्रव्यस्य हरणं-भक्षणोपेक्षणप्रज्ञाहीनत्वलक्षणम्, तत उन्मार्गदेशना च मार्गनाशना च देवद्रव्यहरणं चे तैहेतुभिर्जीवः 1 देवपूजा गुरूपास्तिः पात्रदानं दया क्षमा / इति योगशाले॥ 2 च इति हेतु क० ग० 10 // Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 51-56] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / 'दर्शनमोहं' मिथ्यात्वमोहनीयमर्जयति / तथा 'जिनमुनिचैत्यसङ्घादिपत्यनीक:' तत्र जिना:तीर्थकराः, मुनयः-साधवः, चैत्यानि-प्रतिमारूपाणि, सङ्घः-साधुसाध्वीश्रावकश्राविकालक्षणः, आदिशब्दात् सिद्धगुरुश्रुतादिपरिग्रहः, तेषां प्रत्यनीकः-अवर्णवादाशातनाद्यनिष्टनिर्वतको दर्शनमोहमर्जयति / यदभाणि वीतरागे श्रुते सङ्घ, धर्मे सर्वसुरेषु च / अवर्णवादिता तीव्रमिथ्यात्वपरिणामिता // सर्वज्ञसिद्धदेवापहवो धार्मिकदूषणम् / उन्मार्गदेशनानग्रहोऽसंयतपूजनम् // असमीक्षितकारित्वं, गुर्वादिष्ववमानना / इत्यादयो दृष्टिमोहस्याश्रवाः परिकीर्तिताः // (योगशा० टी० पत्र 307-1) // 55 // दुविहं पि चरणमोहं, कसायहासाइविसयविवसमणो। बंधइ नरयाउ महारंभपरिग्गहरओ रुद्दो॥५६॥ 'द्विविधमपि' द्विभेदमपि 'चरणमोहं' चारित्रमोहनीयं-कषायमोहनीयनोकषायमोहनीयरूपं जीवो बनातीति सम्बन्धः / किंविशिष्टः? इत्याह-'कषायहास्यादिविषयविवशमनाः' तत्र कषायाः-क्रोधादय उक्तखरूपाः षोडश, हास्यादयः-हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सा इति गृह्यन्ते, विषयाः-शब्दरूपरसगन्धस्पर्शाख्याः पञ्च, ततः कषायाश्च हास्यादयश्च विषयाश्च कषायहास्यादिविषयास्तैर्विवशं-विसंस्थुलं पराधीनं मनः-मानसं यस्य स कषायहास्यादिविषयविवशमनाः / इदमत्र हृदयम्-कपायविवशमनाः कषायमोहनीयं बध्नाति, हास्यादिविवशम. नास्तु हास्यादिमोहनीयं-हास्यमोहनीयरतिमोहनीयाऽरतिमोहनीयशोकमोहनीयभयमोहनीयजुगुप्सामोहनीयाख्यं नोकषायमोहनीयं बध्नाति, विषयविवशमनाः पुनर्वेदत्रयाख्यं नोकषायमोहनीयं बध्नाति / सामान्यतः सर्वेऽपि कषायहास्यादिविषया द्विविधस्यापि चारित्रमोहनीयस्य बन्धहेतवो भवन्ति / यत्प्रत्यपादि कषायोदयतस्तीत्रः, परिणामो य आत्मनः / चारित्रमोहनीयस्य, स आश्रव उदीरितः // उत्पासनं सकन्दर्पोपहासो हासशीलता / बहुप्रलापो दैन्योक्तिहस्स्यस्यामी स्युराश्रवाः // देशादिदर्शनौत्सुक्य, चित्रे रमणखेलने / परचित्तावर्जना चेत्याश्रवाः कीर्तिता रतेः // असूया पापशीलत्वं, परेषां रतिनाशनम् / अकुशलप्रोत्साहनं, चारतेराश्रवा अमी // वयं भयपरीणामः, परेषामथ भापनम् / त्रासनं निर्दयत्वं च, भयं प्रत्याश्रवा अमी॥ परशोकाविष्करणं, खशोकोत्पादशोचने / रोदनादिप्रसक्तिश्च, शोकस्यैते स्युराश्रवाः // चतुर्वर्णस्य सङ्घस्य, परिवादजुगुप्सने / सदाचारजुगुप्सा च, जुगुप्सायां स्युराश्रवाः // ईर्ष्या विषादगाबें च, मृषावादोऽतिवक्रता / परदाररतासक्तिः, स्त्रीवेदस्याभवा इमे // खदारमात्रसन्तोषोऽनीर्ष्या मन्दकषायता / अवक्राचारशीलत्वं, पुंवेदस्याश्रवा इति // स्त्रीपुंसानङ्गसेवोग्राः, कषायास्तीवकामता / पाखण्डिस्त्रीव्रतंभक्तः, षण्ढवेदाश्रवा अमी॥ साधूनां गर्हणा धोन्मुखानां विघ्नकारिता / मधुमांसविरतानामविरत्यभिवर्णनम् // विरताविरतानां चान्तरायकरणं मुहुः / अचारित्रगुणाख्यानं, तथा चारित्रदूषणम् // १°वर्जनं योगशास्त्रे // 2 °तभ्रंशः योगशास्त्रे॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा कषायनोकषायाणामन्यस्थानामुदीरणम् / चारित्रमोहनीयस्य, सामान्येनाश्रवा अमी // (योगशा० टी० पत्र 307-1) अभिहिता मोहनीयस्य बन्धहेतवः / सम्प्रति चतुर्विधस्याप्यायुषस्तानाह-"बंधइ नरयाउ" इत्यादि / 'बध्नाति' अर्जयति 'नरकायुः' नारकायुष्कं जीवः / किंविशिष्टः इत्याह-'महारम्भपरिग्रहरतः' महारम्भरतो महापरिग्रहरतश्चेत्यर्थः / 'रौद्रः' रौद्रपरिणामो गिरिभेदसमानकषायरौद्रध्यानाऽऽरूषितचेतोवृत्तिरित्यर्थः / उपलक्षणत्वात् पञ्चेन्द्रियवधादिपरिग्रहः / यन्यगादिपञ्चेन्द्रियप्राणिवधो, बहारम्भपरिग्रहौ / निरनुग्रहता मांसभोजनं स्थिरवैरता / रौद्रध्यानं मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिकषायता / कृष्णनीलकापोताश्च, लेश्या अनृतभाषणम् // परद्रव्यापहरणं, मुहुर्मैथुन सेवनम् / अवशेन्द्रियता चेति, नरकायुष आश्रवाः // (योगशा० टी० पत्र 307-1) // 56 // उक्ता नरकायुषो बन्धहेतवः / इदानी तिर्यगायुषस्तानाह तिरियाउ गूढहियओ, सढो ससल्लो तहा मणुस्साउं / पयईइ तणुकसाओ, दाणरुई मज्झिमगुणो य // 7 // तिर्यगायुर्बध्नाति जीवः, किंविशिष्टः ? इत्याह-'गूढहृदयः' उदायिनृपमारकादिवत् तथा आत्माभिप्रायं सर्वथैव निगृहति यथा नापरः कश्चिद् वेत्ति, 'शठः' वचसा मधुरः परिणामे तु दारुणः, 'सशल्यः' रागादिवशाऽऽचीर्णाऽनेकव्रतनियमाऽतिचारस्फुरदन्तःशल्योऽनालोचिताऽप्रतिक्रान्तः, तथाशब्दाद् उन्मार्गदेशनादिपरिग्रहः / उक्तं च उन्मार्गदेशना मार्गप्रणाशो गूढ चित्तता। आर्तध्यानं सशल्यत्वं, मायारम्भपरिग्रहौ। शीलवते सातिचारो, नीलकापोतलेश्यता / अप्रत्याख्यानकषायास्तिर्यगायुष आश्रवाः // (योगशा० टी० पत्र 307-2) उक्तास्तिर्यगायुर्बन्धहेतवः। अथ मनुष्यायुषस्तानाह-"मणुस्साउं" इत्यादि / मनुष्यायुजीवो बध्नाति, किंविशिष्टः! इत्याह-प्रकृत्या' खभावेनैव 'तनुकषायः' रेणुराजिसमानकषायः, 'दानरुचिः' यत्र तत्र वा दानशीलः, मध्यमास्तदुचिताः केचिद् गुणाः-क्षमामार्दवाऽऽर्जवादयो यस्य स मध्यमगुणः, अधमगुणस्य हि नरकायुःसम्भवाद्, उत्तमगुणस्य तु सिद्धेः सुरलोकायुषो वा सम्भवादिति भावः / चशब्दाद् अल्पपरिग्रहाऽल्पारम्भादिपरिग्रहः / आह च अल्पौ परिग्रहारम्भौ, सहजे मार्दवाऽऽर्जवे / कापोतपीतलेश्यात्वं, धर्मध्यानानुरागिता // प्रत्याख्यानकषायत्वं, परिणामश्च मध्यमः / संविभागविधायित्वं, देवतागुरुपूजनम् // पूर्वालापप्रियालापौ, सुखप्रज्ञापनीयता / लोकयात्रासु माध्यस्थ्यं, मानुषायुष आश्रवाः // (योगशा० टी० पत्र० 307-2) उक्ता मनुष्यायुषो बन्धहेतवः / सम्प्रति देवायुषस्तानाह-- अविरयमाइ सुराउं, बालतवोऽकामनिज्जरो जयइ। 1 °प्रहाः ख० ग०७०॥ 2 °नाः क योगशास्त्रे // 3 °णुस्याउ 60 ख० घ० 0 // ४°तवाऽकाक०ख०ग०१०॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 57-58] कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / 63 ___सरलो अगारविल्लो, सुहनामं अन्नहा असुहं // 58 // 'अविरतः' अविरतसम्यग्दृष्टिः 'सुरायुः' देवायुष्कं 'जयति' बध्नाति, आदिशब्दाद् देशविरतसरागसंयतपरिग्रहः / वीतरागसंयतस्त्वतिविशुद्धत्वादायुन बध्नाति, घोलनापरिणाम एव वस्य बध्यमानत्वात् / बालं तपो यस्य सः 'बालतपाः' अनधिगतपरमार्थखभावो दुःखगर्ममोहगर्भवैराग्योऽज्ञानपूर्वकनिर्वर्तिततपःप्रभृतिकष्टविशेषो मिथ्यादृष्टिः, सोऽप्यात्मगुणानुरूपं किश्चिदसुरादिकायुर्बध्नाति / यदाह भगवान् भाष्यकार:. बोलतवे पडिबद्धा, उक्कडरोसा तवेण गारविया / वेरेण य पडिबद्धा, मरिउं असुरेसु उववाओ // (60 ग्र० गा० 160) अकामस्य-अनिच्छतो निर्जरा-कर्मविचटनलक्षणा यस्यासावकामनिर्जरः / इदमुक्तं भवति-"अकामतण्हाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकामसीयायवदंसमसगअण्हाणगसेयजल्लमलपंकपरिग्गहेणं दीहरोगचारगनिरोहबंधणयाए गिरितरुसिहरनिवडणयाए जलजलणपवेसअणसणाईहिं" उदकराजिसमानकषायस्तदुचितशुभपरिणामः किञ्चिद् व्यन्तरादिकायुर्बध्नाति / उपलक्षणत्वात् कल्याणमित्रसम्पर्कमानसो धर्मश्रवणशील इत्यादिपरिग्रहः। यदाहुः सरागसंयमो देशसंयमोऽकामनिर्जरा / कल्याणमित्रसम्पकों, धर्मश्रवणशीलता // पात्रे दानं तपः श्रद्धा, रत्नत्रयाऽविराधना / मृत्युकाले परीणामो, लेश्ययोः पद्मपीतयोः / बालतपोऽमितोयादिसाधनोल्लम्बनानि च / अव्यक्तसामायिकता, देवस्यायुष आश्रवाः // (योगशा० टी० पत्र 307-2) उक्ता देवायुषो बन्धहेतवः / सम्प्रति नामकर्म यद्यपि द्विचत्वारिंशदादिभेदादनेकधा तथापि शुभाशुभविवक्षया द्विविधमित्यस्य द्विविधस्यापि बन्धहेतूनाह--"सरलो" इत्यादि / 'सरलः' सर्वत्र मायारहितः, गौरवाणि-ऋद्धिरससातलक्षणानि विद्यन्ते यस्य स गौरववान् , न गौरववान् अगौरववान् “आल्विल्लोल्लालवन्तमन्तेचेरमणा मतोः" (सि० 8-2-159) इति प्राकृतसूत्रेण मतोः स्थान इल्लादेशः / उपलक्षणत्वात् संसारमीरु:-क्षमामार्दवार्जवादिगुणयुक्तः शुभंदेवगतियशःकीर्तिपञ्चेन्द्रियजात्यादिरूपं नामकर्म बध्नाति / 'अन्यथा' उक्तविपरीतखभावः, तथाहि-मायावी गौरववान् उत्कटक्रोधादिपरिणामः 'अशुभं' नरकगत्ययशःकीत्येकेन्द्रियादिजातिलक्षणं नामकर्मार्जयतीति / उक्तं च मनोवाक्कायवक्रत्वं, परेषां विप्रतारणम् / मायाप्रयोगो मिथ्यात्वं, पैशून्यं चलचितता / / सुवर्णादिप्रतिच्छन्दःकरणं कूटसाक्षिता / वर्णगन्धरसस्पर्शान्यथोपपादनानि च // अङ्गोपाङ्गच्यावनानि, यन्त्रपञ्जरकर्म च / कूटमानतुलाकर्माऽन्यनिन्दात्मप्रशंसनम् // हिंसानृतस्तेयाऽब्रह्ममहारम्भपरिग्रहाः / परुषाऽसभ्यवचनं, शुचिवेषादिना मदः॥ १बालतपसि प्रतिबद्धा उत्कटरोषास्तपसा गर्विताः। वैरेण च प्रतिबद्धाः (तेषां) मृला असुरेषु उपपातः // 2 अकामतृष्णया अकामक्षुधया अकामब्रह्मचर्यवासेन अकामशीतातपदंशमशकानानकखेदजल्लमलपपरिग्रहेण दीर्घरोगचारकनिरोधबन्धनतया गिरितरुशिखरनिपतनतया जलज्वलनप्रवेशानशनादिभिः॥ ३ाद्यन्यथामादनानि च / ग० 0 योगशास्त्रे च॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'देवेन्द्रसरिविरक्तिखोपज्ञटीकोपेतः मम मौखर्याकोशौ सौभाग्योपघाताः कार्मणक्रिया / परकौतूहलोत्पादः, परहास्यविडम्बने / धेश्यादीनामलङ्कारदानं दावामिदीपनम् / देवादिव्याजाद्गन्धादिचौर्य तीव्रकषायता // चैत्यप्रतिश्रयाऽऽरामप्रतिमानां विनाशनम् / अकारादिक्रिया चेत्यशुभस्य नाम्न आश्रवाः / / एत एवान्यथारूपास्तथा संसारमीरुता / प्रमादहानं सद्भावार्पणं क्षान्त्यादयोऽपि च // दर्शने धार्मिकाणां च, सम्प्रमः खागतक्रिया / परोपकारसारत्वमाश्रवाः शुभनामनि / / (योगशा० टी० पत्र 307-2) // 58 // उक्ता नानो बन्धहेतवः / सम्प्रति गोत्रस्य द्विविधस्यापि तानाह गुणपेही मयरहिओ, अज्झयणऽज्झावणारई निचं / पकुणइ जिणाइभत्तो, उच्चं नीयं इयरहा उ॥ 59 // 'गुणप्रेक्षी' यस्य यावन्तं गुणं पश्यति तस्य तमेव प्रेक्षते पुरस्करोति, दोषेषु सत्खप्युदास्त इत्यर्थः / 'मदरहितः' विशिष्टजातिलाभकुलैश्वर्यबलरूपतपःशुवादिसम्पत्समन्वितोऽपि निरहचारः, 'नित्यं' सर्वदा 'अध्ययनाध्यापनारुचिः' खयं पठति इतरांश्च पाठयति, अर्थतश्च खयममीक्ष्णं विमृशति परेषां च व्याख्यानयति, असत्यां वा पठनादिशक्तौ तीव्रबहुमानः परानध्ययनाध्यापनापरायणान् अनुमोदते, तथा 'जिनादिभक्तः जिनानां-तीर्थनाथानाम् आदिशब्दात सिद्धाऽऽचार्योपाध्यायसाधुचैत्यानामन्येषां च गुणगरिष्ठानां भक्तः-बहुमानपरः 'प्रकरोति' प्रकर्षण समुपार्जयति 'उच्चम्' उच्चैर्गोत्रम् / 'नीच' नीचेोत्रम् 'इतरथा तु' मणितविपरीतखमावः / उक्तं चपरस्य निन्दावज्ञोपहासाः सद्गुणलोपनम् / सदसद्दोषकथनमात्मनस्तु प्रशंसनम् // सदसद्गुणशंसा च, खदोषाच्छादनं तथा / जात्यादिभिर्मदश्चेति, नीचैर्गोत्राश्रवा अमी॥ नीचैगोत्रावविपर्यासो विगतगर्वता / वाकायचितैर्विनयः, उच्चैगोत्राश्रवा अमी॥ (योगशा० टी० पत्र 308-1) // 59 // उक्ता गोत्रस्य बन्धहेतवः / साम्प्रतमन्तरायस्य ये बन्धहेतवस्तानभिषित्सुः शास्त्रमिदं समर्थयन्नाह जिणपूयाविग्घकरो, हिंसाइपरायणो जयह विग्धं / / इय कम्मविवागोऽयं, लिहिओ देविंदसूरीहिं॥६०॥ 'जिनपूजाविघ्नकरः' सावद्यदोषोपेतत्वाद् गृहिणामप्येषा अविधेया इत्यादिकुदेशनादिभिः समयान्तस्तत्त्वदूरीकृतो जिनपूजानिषेधक इत्यर्थः। हिंसा-जीववध आदिशब्दाद् अनृतभाषणस्तैन्याऽब्रमपरिग्रहरात्रिभोजनाऽविरमणादिपरिग्रहस्तेषु परायणः-तत्परः, उपलक्षणत्वात् मोक्षमार्गस्य ज्ञानदर्शनचारित्रादेतदोषग्रहणादिना विघ्नं करोति, साधुभ्यो वा भक्तपानोपायोपकरणभैषजादिकं दीयमानं निवारयति, तेन चैतद् विदधता मोक्षमार्गः सर्वोऽपि विनितो भवति, अपरेषामपि सत्त्वानां दानलाभभोगपरिभोगविघ्नं करोति, मन्त्रादिप्रयोगेण च परस्य वीर्यमपहरति, हठाच्च वधबन्धनिरोधादिभिः परं निश्चेष्टं करोति, छेदनभेदनादिभिश्च परस्येन्द्रियश१भाश्रवाः शुभनानोऽथ तीर्थकृतान्न आश्रवाः // इति योगशास्त्रे // २ज्ञानचा ख ग घ०॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60] . कर्मविपाकनामा प्रथमः कर्मग्रन्थः / क्तिमुपहन्ति / स किम् ! इत्याह-'जयति' धातूनामनेकार्थत्वाद् अर्जयति 'विघ्नं' पञ्चप्रकारमप्यन्तरायकर्म / इति' पूर्वोक्तप्रकारेण 'कर्मविपाकः' कर्मविपाकनामकं शास्त्रम् 'अयं' सम्प्रत्येव निगदितखरूपः ‘लिखितः' अक्षरविन्यासीकृतः देवेन्द्रसरिभिः करालकलिकालपातालतलावमज्जद्विशुद्धधर्मधुरोद्धरणधुरीणश्रीमजगच्चन्द्रमरिचरणसरसीरुहचञ्चरीकैरिति // 6 // // इति श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचिता खोपज्ञकर्मविपाकटीका समाप्ता // - [ग्रन्थकारप्रशस्तिः] विष्णोरिव यस्य विभोः, पदत्रयी व्यानशे जगन्निखिलम् / कर्ममलपटलजलदः, स श्रीवीरो जिनो जयतु // 1 // कुन्दोज्वलकीर्तिभरैः, सुरभीकृतसकलविष्टपाभोगः / शतमखशतविनतपदः, श्रीगौतमगणधरः पातु // 2 // . तदनु सुधर्मखामी, जम्बूप्रभवादयो मुनिवरिष्ठाः / श्रुतजलनिधिपारीणा, भूयांसः श्रेयसे सन्तु // 3 // ततः प्राप्ततपाचार्येत्यभिख्या भिक्षुनायकाः / समभूवन् कुले चान्द्रे, श्रीजगचन्द्रसूरयः // 7 // जगजनितबोधानां, तेषां शुद्धचरित्रिणाम् / विनेयाः समजायन्त, श्रीमद्देवेन्द्रसूरयः // 5 // खान्ययोरुपकाराय, श्रीमद्देवेन्द्रसरिणा / टीका कर्मविपाकस्य, सुबोधेयं विनिर्ममे // 6 // विबुधवरधर्मकीर्तिश्रीविद्यानन्दसूरिमुख्यबुधैः / खपरसमयैककुशलैस्तदैव संशोधिता चेयम् // 7 // यद्गदितमल्पमतिना, सिद्धान्तविरुद्धमिह किमपि शास्त्रे / विद्वद्भिस्तत्त्वज्ञैः, प्रसादमाधाय तच्छोध्यम् // 8 // कर्मविपाके विवृति, वितन्वता यन्मयाऽर्जितं सुकृतम् / कर्मविपाकविमुक्तः, समस्तु सर्वोऽपि तेन जनः // 9 // ग्रन्थाप्रेम्-१८८२ // समाप्तोऽयं सटीका कर्मविपाक १°भरः ख० रु०॥ २°प्रम्-१७८२ क० घ०॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अर्हम् // पूज्यश्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः। ॥नमः श्रीप्रवचनाय // बन्धोदयोदीरणसत्पदस्थ, निःशेषकर्मारिवलं निहत्य / यः सिद्धिसाम्राज्यमलश्चकार, श्रिये स वः श्रीजिनवीरनाथः // नत्वा गुरुपदकमलं, गुरूपदेशाद्यथाश्रुतं किञ्चित् / कर्मस्तक्स्य विवृति, विदधे खपरोपकाराय // तत्राऽऽदावेव मङ्गलार्थमभीष्टदेवतास्तुतिमाह तह थुणिमो वीरजिणं, जह गुणठाणेसु सयलकम्माई। बंधुदओदीरणयासत्तापत्ताणि खवियाणि // 1 // 'तथा' तेन प्रकारेण 'स्तुमः' असाधारणसद्भूतसकलकर्मनिर्मूलक्षपणलक्षणगुणोत्कीर्तनेन स्तवनगोचरीकुर्मः, कम् ! 'वीरजिनं' तत्र विशेषेण-अपुनर्भावेन ईते-ईरिक् गतिकम्पनयोः' इति वचनाद् याति शिवं, कम्पयति-आस्फोटयति अपनयति कर्म वेति वीरः, यदि वा 'शूर वीरणि विक्रान्तौ' वीरयति स्म-कषायोपसर्गपरीषहादिशत्रुगणमभिभवति स्म वीरः, उभयत्र लिहादित्वाद् अच् , यद्वा ईरणमीरः, “भावाकत्रोंः” (सि० 5-3-18) इति घञ्, ततश्च विशिष्ट ईरः-गमनं 'सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्थाः' इति वचनाद् ज्ञानं यस्य स वीर इति, अनेन व्युत्पत्तित्रयेण भगवतश्वरमजिनेश्वरस्य स्वार्थसम्पदमाह / अथवा विशिष्टा-सकलभुवनाद्भुता यका खर्गापवर्गादिका ईः-लक्ष्मीस्तां राति-भव्येभ्यः प्रयच्छति 'राक् दाने' इति वचनाद् वीरः, "आतो डोऽहावामः" (सि०५-१-७६) इति डप्रत्ययः, राति च भगवान् सुरासुरनरोरगतिर्यक्साधारण्या वाण्या निःश्रेयसाभ्युदयसाधनोपायोपदेशेन भव्यानां भुवनाद्भुतां श्रियम् , तथा चोक्तम् अरहंता भगवंतो, अहियं च हियं च न वि इहं किंचि / वारंति कारवंति य, घेत्तूण जणं बला हत्थे / / ( उप० मा० गा० 448) उवएसं पुण तं देंति जेण चरिएण कित्तिनिलयाणं / देवाण वि हुंति पहू, किमंग पुण मणुयमित्राणं? // (उप० मा० 449) इति / ___ इत्यनया व्युत्पत्त्या च प्रसिद्धसिद्धार्थपार्थिवविपुलकुलविमलनभस्तलनिशीथिनीनाथस्य जिन 1 अर्हन्तो भगवन्तोऽहितं च हितं च नापि इह किञ्चित् / वारयन्ति कारयन्ति च गृहीला जनं बलाद् हस्ते // उपदेशं पुनस्त्रं ददति येन चरितेन कीर्तिनिलयानाम् / देवानामपि भवन्ति प्रभवः किमङ्ग पुनर्मनुजमात्राणाम् // Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2-2] कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / नाथस्य परार्थसम्पदमाह / वीरश्चासौ जिनश्च कषायादिप्रत्यर्थिसार्थजयाद् वीरजिनस्तं वीरजिनम् / 'यथा' येन प्रकारेण अभिनवकम्मग्गहणं, बंधो ओहेण तत्थ वीससयं / तित्थयराहारगदुगवजं मिच्छम्मि सतरसयं // (गा० 3) इत्यादिवक्ष्यमाणेषु 'गुणस्थानेषु' परमपदप्रासादशिखरारोहणसोपानकल्पेषु व्याख्यास्यमानखरूपेषु मिथ्यादृष्ट्यादिषु सकलानि-समस्तानि मतिज्ञानावरणप्रभृत्युत्तरप्रकृतिकदम्बकसहितानि कर्माणि-ज्ञानावरणीयादिमूलप्रकृतिरूपाण्यष्टौ कर्माणि च खोपज्ञकर्मविपाके विस्तरेण व्याख्यातानि / कथम्भूतानि ! "बंधुदओदीरणयासत्तापत्चाणि" ति / तत्र मिथ्यात्वादिभिर्बन्ध. हेतुमिरञ्जनचूर्णपूर्णसमुद्कवद् निरन्तर पुद्गलनिचिते लोके कर्मयोग्यवर्गणापुद्गलैरात्मनः क्षीरनीरवद् वययःपिण्डवद्वाऽन्योऽन्यानुगमाभेदात्मकः सम्बन्धो बन्धः 1, तेषां च यथाख. स्थितिबद्धानां कर्मपुद्गलानामपवर्तनादिकरणविशेषकृते खाभाविके वा स्थित्यपचये सति उदयसमयप्राप्तानां विपाकवेदनमुदयः 2, तेषामेव कर्मपुद्गलानामकालप्राप्तानां जीवसामर्थ्यविशेषाद् उदयावलिकायां प्रवेशनमुदीरणा 3, तेषामेव कर्मपुद्गलानां बन्धसङ्कमाभ्यां लब्धात्मलाभानां निर्जरणसङ्क्रमणकृतखरूपप्रच्युत्यभावे सद्भावः सत्ता 4, बन्धश्च उदयश्च उदीरणा च सचा च बन्धोदयोदीरणासत्तास्ताः प्राप्तानि-गतानि / सूत्रे च "उदीरणया" इत्यत्र कप्र. त्ययः खार्थिकः, 'क्षपितानि' निर्मूलोच्छेदेनाभावत्वमापादितानीति // 1 // गुणस्थानेषु कर्माणि क्षपितानीत्युक्तम् / ततो गुणस्थानान्येव तावत् खरूपतो निर्दिशति मिच्छे 1 सासण 2 मीसे 3, ___ अविरय 4 देसे 5 पमत्त 6 अपमत्ते 7 / नियहि 8 अनियहि 9 सुहमु 10. घसम 11 खीण 12 सजोगि 13 अजोगि 14 गुणाः॥२॥ - "गुण" ति गुणस्थानानि ततः "सूचनात् सूत्रम्" इति न्यायात् पदैकदेशेऽपि पदसमुदायोपचाराद् वा इहैवं गुणस्थानकनिर्देशो द्रष्टव्यः / तद्यथा-मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं 1 साखादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं 2 सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् 3 अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं 4 देशविरतिगुणस्थानं 5 प्रमत्तसंयतगुणस्थानम् 6 अप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् 7 अपूर्वकरणगुणस्थानम् 8 अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानं 9 सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् 10 उपशान्तकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानं 11 क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानं 12 सयोगिकेवलिगुणस्थानम् 13 अयोगिकेवलिगुणस्थानम् 14 इति / ___ तत्र गुणाः-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा जीवखभावविशेषाः, स्थानम्-पुनरत्र तेषां शुद्ध्यविशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः खरूपभेदः, तिष्ठन्त्यस्मिन् गुणा इति कृत्वा, गुणानां स्थानं गुणस्थानम् , मिथ्या-विपर्यस्ता दृष्टिः-अर्हत्प्रणीतजीवाजीवादिवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य भक्षितहृत्पूरपुरुषस्य सिते पीतप्रतिपत्तिवत् स मिथ्यादृष्टिः, तस्य गुणस्थानं-ज्ञानादिगुणानामविशुद्धिप्रकर्षविशुद्ध्यापकर्षकृतः खरूपविशेषो मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् / / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा ननु यदि मिथ्यादृष्टिः ततः कथं तस्य गुणस्थानसम्भवः ! गुणा हि ज्ञानादिरूपाः, तत् कर्ष ते दृष्टौ विपर्यस्तायां भवेयुः ! इति, उच्यते-इह यद्यपि सर्वथाऽतिप्रबलमिथ्यात्वमोहनी. योदयाद् अर्हत्मणीतजीवाजीवादिवस्तुप्रतिपचिरूपा दृष्टिरसुमतो विपर्यस्ता भवति तथापि काचिद् मनुष्यपश्चादिप्रतिपत्तिरविपर्यस्ता, ततो निगोदावस्थायामपि तथाभूताऽव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपचिरविपर्यस्ताऽपि भवति, अन्यथाऽजीवत्वप्रसङ्गात् / यदागमः संघजीवाणं पि य णं अक्खरस्स अणंतभागो निचुग्याडिओ चिट्ठइ, जइ पुण सो वि आवरिजिज्जा ता णं जीवो अजीवचणं पाविज्जा / (नन्दीपत्र 195-2) इति / ___ तथाहि-समुन्नताऽतिबहलजीमूतपटलेन दिनकररजनिकरकरनिकरतिरस्कारेऽपि नैकान्तेन तत्प्रभानाशः सम्पद्यते, प्रतिप्राणिप्रसिद्धदिनरजनिविभागाऽभावप्रसङ्गात् / उक्तं च सुट्ट वि मेहसमुदए, होइ पहा चंदसूराणं / (नन्दीपत्र०१९५-२) इति / एवमिहापि प्रबलमिथ्यात्वोदयेऽपि काचिदविपर्यस्ताऽपि दृष्टिर्भवतीति तदपेक्षया मिथ्यादृष्टेरपि गुणस्थानसम्भवः। __ यद्येवं ततः कथमसौ मिथ्यादृष्टिरेव ! मनुष्यपश्चादिपतिपत्त्यपेक्षया अन्ततो निगोदावस्थायामपि तथाभूताऽव्यक्तस्पर्शमात्रप्रतिपत्त्य पेक्षया वा सम्यग्दृष्टित्वादपि, नैष दोषः, यतो भगवदहप्रणीतं सकलमपि द्वादशानार्थमभिरोचयमानोऽपि यदि तद्गदितमेकमप्यक्षरं न रोय. यति तदानीमप्येष मिथ्यादृष्टिरेवोच्यते, तस्य भगवति सर्वज्ञे प्रत्ययनाशात् / तदुक्तम् __ पैयमक्सर पि इकं, पि जो न रोएइ सुत्तनिद्दिष्ठं / . सेसं रोयंतो वि हु, मिच्छट्टिी जमालि व // (बृहत्सं० गा० 167) इति / किं पुनर्भगवदर्हदभिहितसकलजीवाजीवादिवस्तुतत्त्वप्रतिपत्तिविकलः / इति 1 / / __ आयम्-औपशमिकसम्यक्त्वलाभलक्षणं सादयति-अपनयतीत्यायसादनम् , अनन्तानुबन्धिकषायवेदनम् / अत्र पृषोदरादित्वाद् यशब्दलोपः, कृढ़हुलमिति कर्तर्यनद्, सति पसिन् परमानन्दरूपानन्तसुखफलदो निःश्रेयसतरुबीजभूत औपशमिकसम्यक्त्वलाभो जघन्यतः समयमात्रेण उत्कर्षतः षड्भिरावलिकाभिरपगच्छतीति / ततः सह आसादनेन वर्तत इति सासादनः, सम्यग्-अविपर्यस्ता दृष्टिः-जिनप्रणीतवस्तुप्रतिपत्तिर्यस्य स सम्यग्दृष्टिः, सासादनश्चासौ सम्य. ग्दृष्टिश्च सासादनसम्यग्दृष्टिः, तस्य गुणस्थानं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् / साखादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानमिति वा पाठः, तत्र सह सम्यक्त्वलक्षणरसाखादनेन वर्तत इति साखादनः। यथा हि मुक्तक्षीरानविषयव्यलीकचित्तः पुरुषस्तद्वमनकाले क्षीरानरसमाखादयति, तथैषोऽपि मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरि व्यलीकचित्तः सम्यक्त्वमुद्रमंस्तद्रसमाखादयति / ततः स चासौ सम्यग्दृष्टिश्च तस्य गुणस्थानं साखादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् / एतचैवं भवति-बह गम्मीरापारसंसारसागरमध्यमध्यासीनो जन्तुर्मिथ्यात्वप्रत्ययमनन्तान् पुद्गलपरावर्ताननन्तदुःख सर्वजीवानामपि च भक्षरस्यानन्तभागो नित्योद्धोटितस्तिष्ठति, यदि पुनः सोऽपि भाब्रियेत ततो जीवो. जीवलं प्राप्नुयात् // 2 मुष्ठपि मेघसमुदये भवति प्रभा चन्द्रसूर्ययोः॥ 3 पदमक्षरमप्येकमपि योन रोचयति सूत्रनिर्दिष्टम् / शेषं रोचयमानोऽपि हि मिथ्यारष्टिजमालिरिव॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मसवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः। लक्षाण्यनुभूय कथमपि तथाभव्यत्वपरिपाकवशतो गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पेनाऽनामोगनिर्वतितयथाप्रवृत्तकरणेन "करणं परिणामोऽत्र" इति वचनाद् अध्यवसायविशेषरूपेणाऽऽयुर्वर्जानि ज्ञानावरणीयादिकर्माणि सर्वाण्यपि पल्योपमासङ्ख्येयमागन्यूनैकसागरोपमकोटाकोटीस्थितिकानि करोति / अत्र चान्तरे जीवस्य कर्मजनितो धनरागद्वेषपरिणामः कर्कशनिबिडचिरपरूढगुपिलवक्रग्रन्थिवद् दुर्भेदोऽभिन्नपूर्वो अन्थिर्भवति / तदुक्तम् तीए वि थोवमित्ते, खविए इत्यंतरम्मि जीवस्स / हवा हु अभिन्नपुरो, गंठी एवं जिणा बिंति // . (धर्मसं० गा० 752, श्राव० प्र० गा० 32) गंठि ति सुदुब्भेओ, कक्खडघणरूढगूढगंठि छ / जीवस्स कम्मजणिओ, घणरागद्दोसपरिणामो // (विशेषा० गा० 1195) इति / इमं च अन्थि यावदभव्या अपि यथाप्रवृत्तिकरणेन कर्म क्षपयित्वाऽनन्तशः समागच्छन्ति / उक्तं चाऽऽवश्यकटीकायाम् अभव्यस्यापि कस्यचिद् यथाप्रवृत्तिकरणतो ग्रन्थिमासाद्याऽईदादिविभूतिदर्शनतः प्रयोजना. न्तरतो वा प्रवर्तमानस्य श्रुतसामायिकलाभो भवति न शेषलाभ इति / / - एतदनन्तरं कश्चिदेव महात्माऽऽसन्नपरमनिवृतिसुखः समुल्लसितप्रचुरदुर्निवारवीर्यप्रसरो निशितकुठारधारयेव परम विशुद्ध्या यथोक्तखरूपस्य अन्थेभेदं विधाय मिथ्यात्वस्थितेरन्तर्मुहूर्तमुदयक्षणाद् उपर्यतिक्रम्यापूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणलक्षणविशुद्धिजनितसामर्याद् अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाणं तत्प्रदेशवेद्यदलिकामावरूपमन्तरकरणं करोति / अत्र यथाप्रवृत्तिकरणाऽपूर्वकरणाऽनिवृत्तिकरणानामयं क्रमः __जो गंठी ता पढम, गंठिं समहच्छओ भवे वीयं / अनियट्टीकरणं पुण, सम्मत्तपुरक्खडे जीवे // (विशे० आ० गा० 1203) - "गठिं समइच्छओ" ति प्रन्थि समतिकामतः-मिन्दानस्येति, "सम्मतपुरक्खड" ति सम्यक्त्वं पुरस्कृतं येन तस्मिन् आसन्नसम्यक्त्वे जीवेऽनिवृत्तिकरणं भवतीत्यर्थः / / एतस्मिंश्चान्तरकरणे कृते सति तस्य मिथ्यात्वकर्मणः स्थितिद्वयं भवति / अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमा स्थितिरन्तर्मुहूर्तप्रमाणा, तस्मादेवान्तरकरणाद् उपरितनी शेषा द्वितीया / स्थापना तत्र प्रथमस्थितौ मिथ्यात्वदलिकवेदनादसौ मिथ्यादृष्टिरेव, अन्तर्मुहूर्तेन पुनस्तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एवापशमिकसम्यक्त्वमामोति, मिथ्यात्वदलिकवेदनाऽभावात् / यथा हि वनदावानलः पूर्वदग्धेन्धनमूषरं वा देशमवाप्य विध्यायति, तथा मिथ्यात्ववेदनवनदवोऽप्यन्तरकरणमवाप्य विध्यायति / तथा च सति तस्यौपशमिकसम्यक्त्वलामः / उक्तं च 1 तस्या अपि खोकमात्रे क्षपित अत्रान्तरे जीवस्य / भवति हि अमित्रपूर्वो प्रन्धिरेवं जिना युवन्ति // प्रन्थिरिति सुदुर्भेदः कर्कशषनरूढगूढप्रन्थिरिव / जीवस्य कर्मजनितो धनरागद्वेषपरिणामः // २र्थोऽन्त क०ग०॥ 3 यावद् प्रन्थिः तावत् प्रथम प्रन्थि समतिकामतो भवेद्वितीयम् / अनिवृत्तिकरणं पुनः सम्यक्खपुरस्कृते जीवे // 4 अपुग्वं तु विशेषावश्यकभाष्ये। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 . देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [ गाथा ऊसरदेसं दडिल्लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प / इय मिच्छस्स अणुदए, उवसमसम्मं लहइ जीवो // (विशेषा० गा० 2734) तस्यां चान्तौहूर्तिक्यामुपशान्ताद्धायां परमनिधिलाभकल्पायां जघन्यतः समयशेषायामुस्कृष्टतः षडावलिकाशेषायां सत्यां कस्यचिन्महाविभीषिकोत्थानकल्पोऽनन्तानुबन्ध्युदयो भवति, तदुदये चासौ साखादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने वर्तते, उपशमश्रेणिप्रतिपतितो वा कश्चित् सासादनत्वं याति, तदुत्तरकालं चावश्यं मिथ्यात्वोदयादसौ मिथ्यादृष्टिर्भवतीति 2 / / ___ तथा सम्यक् च मिथ्या च दृष्टिर्यस्यासौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिः, तस्य गुणस्थानं सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् / इहानन्तराभिहितविधिना लब्धेनौपशमिकसम्यक्त्वेन औषधविशेषकल्पेन मदनकोद्रवस्थानीयं मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म शोधयित्वा त्रिधा करोति / तद्यथा-शुद्धमर्धविशुद्धमविशुद्ध चेति / स्थापना AA तत्र त्रयाणां पुञ्जानां मध्ये यदाऽर्धविशुद्धः पुञ्ज उदेति तदा तदुदयाद् जीवस्यार्धविशुद्धं जिनप्रणीततत्त्वश्रद्धानं भवति, तेन तदाऽसौ सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमन्तर्मुहूर्त कालं स्पृशति, तत ऊर्ध्वमवश्यं सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा गच्छतीति.३। __ तथा विरतिर्विरतं क्लीबे क्तप्रत्ययः, तत्पुनः सावद्ययोगप्रत्याख्यानं तद् न जानाति नाभ्यु- . पगच्छति न तत्पालनाय यतत इति त्रयाणां पदानामष्टौ भङ्गाः / स्थापना-न |ना | न | तत्र प्रथमेषु चतुषु भनेषु मिथ्यादृष्टिरज्ञानित्वात्, शेषेषु सम्यग्दृष्टिीनित्वात् , न ना पा सप्तसु भङ्गेषु नास्य विरतमस्तीत्यविरतः, "अनादिभ्यः" (सि०७-२-४६) न ज न इति अप्रत्ययः, चरमभङ्गे तु विरतिरस्तीति / यद्वा विरमति स्म-सावद्ययोगेभ्यो - "जा ना न निवर्तते सेति विरतः, “गत्यर्थाऽकर्मकपिबभुजेः" (सि०५-१-११) इति क-जाना पा तरिक्तप्रत्यये विरतः, न विरतोऽविरतः, स चासौ सम्यग्दृष्टिश्चाविरतसम्य-जान ग्दृष्टिः / इदमुक्तं भवति–यः पूर्ववर्णितौपशमिकसम्यग्दृष्टिः शुद्धदर्शनमोहपुञ्जो-जा 5 पा| दयवर्ती क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिा क्षीणदर्शनसप्तकः क्षायिकसम्यग्दृष्टिा परममुनिप्रणीता सावद्ययोगविरतिं सिद्धिसौधाध्यारोहणनिःश्रेणिकल्पां जानन् अप्रत्याख्यानकषायोदयविनितत्वात् नाभ्युपगच्छति, न च तत्पालनाय यतत इत्यसावविरतसम्यग्दृष्टिरुच्यते, तस्य गुणस्थानमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानम् / उक्तं च 'बंधं अविरइहेउं, जाणतो रागदोसदुक्खं च / विरइसुहं इच्छंतो, विरई काउं च असमत्थो / एस असंजयसम्मो, निंदतो पावकम्मकरणं च / अहिगयजीवाजीवो, अचलियदिट्ठी चलियमोहो॥ तथा सर्वसावद्ययोगस्य देशे-एकव्रतविषये स्थूलसावद्ययोगादौ सर्वव्रतविषयानुमतिवर्ज१ऊपरदेशं दग्धं च विध्यायति वनदवः प्राप्य / इति मिथ्याखस्यानुदये उपशमसम्यक्त्वं लभते जीवः॥ २बन्धमविरति हेतुं जानानो रागद्वेषदुःखं च / विरतिसुखमिच्छन् विरतिं कर्तुं चासमर्थः // एषोऽसंयतसम्यम्हष्टिः निन्दन पापकर्मकरणं च / अधिगतजीवाजीवोऽचलितदृष्टिश्चलितमोहः // 3 छलियमोहो क०ख० घ०॥ ४°षयस्थूलक० घ०॥ n . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2] कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / सावद्ययोगान्ते विरतं विरतिर्यस्यासौ देशविरतः। सर्वसावद्यविरतिः पुनरस नास्ति, प्रत्याख्यानावरणकषायोदयात् , सर्वविरतिरूपं प्रत्याख्यानमावृण्वन्तीति प्रत्याख्यानावरणाः / उक्तं च संम्मइंसणसहिओ, गिण्हंतो विरइमप्पसत्तीए / एगधयाइचरिमो, अणुमइमित्त ति देसजई / / देशविरतस्य गुणस्थानं देशविरतगुणस्थानम् 5 / ___ तथा संयच्छति स्म-सम्यग् उपरमति स्म संयतः, “गत्यर्थाऽकर्म०" (5-1-11) इति क्तः, प्रमाद्यति स्म-संयमयोगेषु सीदति स्म, प्राग्वत् कर्तरि क्तः प्रमत्तः, यद्वा प्रमदनं प्रमप्रमादः, स च मदिराविषयकषायनिद्राविकथानामन्यतमः सर्वे वा / प्रमत्तमस्यास्तीति प्रमत्तःप्रमादवान् / “अनादिभ्यः" (सि०७-२-४६) इति अप्रत्ययः, प्रमत्तश्चासौ संयतश्च प्रमत्तसंयतः, तस्य गुणस्थानं प्रमत्तसंयतगुणस्थानम् , विशुद्ध्यविशुद्धिप्रकर्षाऽपकर्षकृतः खरूपभेदः / तथाहि-देशविरतिगुणापेक्षया एतद्गुणानां विशुद्धिप्रकर्षोऽविशुद्यपकर्षश्च, अप्रमत्त. संयतापेक्षया तु विपर्ययः / एवमन्येष्वपि गुणस्थानेषु पूर्वोत्तरापेक्षया विशुधविशुद्धिप्रकर्षाऽपकर्षयोजना द्रष्टव्या 6 / / ___ न प्रमत्तोऽप्रमत्तः / यद्वा नास्ति प्रमत्तमस्यासावप्रमत्तः, स चासौ संयतश्च, तस्य गुणस्थानम् अप्रमत्तसंयतगुणस्थानम् 7 / - अपूर्वम्-अभिनवं प्रथममित्यर्थः करणं-स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसक्रमस्थितिबन्धानां पञ्चानामर्थानां निर्वर्तनं यस्यासावपूर्वकरणः / तथाहि—बृहत्प्रमाणाया ज्ञानावरणीयादिकर्मस्थितेरपवर्तनाकरणेन खण्डनम्-अल्पीकरणं स्थितिघात उच्यते / रसस्यापि प्रचुरीभूतस्य सतोऽपवर्तनाकरणेन खण्डनम्-अल्पीकरणं रसघात उच्यते / एतौ द्वावपि पूर्वगुणस्थानेषु विशुद्धेरल्पत्वादल्पावेव कृतवान् , अत्र पुनर्विशुद्धेः प्रकृष्टत्वाद् बृहत्प्रमाणतया अपूर्वाविमौ करोति / तथा उपरितनस्थितेर्विशुद्धिवशादपवर्तनाकरणेनाऽवतारितस्य दलिकस्यान्तर्मुर्तप्रमाणमुदयक्षणादुपरि क्षिप्रतरक्षपणाय प्रतिक्षणमसङ्ख्येयगुणवृद्ध्या विरचनं गुणश्रेणिः / स्थापना पकिर / एतां च पूर्वगुणस्थानेष्वविशुद्धत्वात् कालतो द्राघीयसी दलिकरचनामाश्रित्याप्रथीर्यसीमल्पदलिकस्यापवर्तनाद् विरचितवान् इह तु तामेव विशुद्धत्वादपूर्वा कालतो इखतरां दलिकरचनामाश्रित्य पुनः पृथुतरां बहुतरदलिकस्यापवर्तनाद् विरचयतीति / तथा बध्यमानशुभप्रकृतिष्वबध्यमानाशुभप्रकृतिदलिकस्य प्रतिक्षणमसङ्ख्येयगुणवृद्ध्या विशुद्धिवशाद् नयनं गुणसङ्कमः, तमप्यसाविहापूर्व करोति / तथा स्थितिं कर्मणामशुद्धत्वात् प्राग् द्राधीयसीं बद्धवान्, इह तु तामपूर्वो विशुद्धत्वादेव हूसीयसीं बध्नातीति [स्थितिबन्धः] / ___ अयं चापूर्वकरणो द्विधा-क्षपक उपशमकश्च, क्षपणोपशमनार्हत्वात् चैवमुच्यते, राज्याईकुमारराजवत्, न पुनरसौ क्षपयत्युपशमयति वा, तस्य गुणस्थानम् अपूर्वकरणगुणस्थानम् / / एतच्च गुणस्थानं प्रपन्नानां कालत्रयवर्तिनो नानाजीवानपेक्ष्य सामान्यतोऽसख्येयलोकाकाश१ सम्यग्दर्शनसहितः गृह्णन् विरतिमात्मशक्त्या / एकव्रतादिचरिमः अनुमतिमात्रं इति देशयतिः // 2 °यसी दलिकस्याल्पस्याप ख०॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा प्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्ति / कथं पुनस्तानि भवन्ति ! इति विनेयजनानुग्रहार्थ विशेषतोऽपि प्ररूप्यन्ते-इह तावदिदं गुणस्थानकमन्तर्मुहूर्तकालप्रमाणं भवति / तत्र च प्रथमसमयेऽपि ये प्रपन्नाः प्रपद्यन्ते प्रपत्स्यन्ते च तदपेक्षया जघन्यादीन्युत्कृष्टान्तान्यसयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते, प्रतिपत्तॄणां बहुत्वादध्यवसायानां च विचित्रत्वादिति भावनीयम् / ननु यदि कालत्रयापेक्षा क्रियते तदैतद्गुणस्थानकं प्रतिपन्नानामनन्तान्यध्यवसायस्थानानि कस्माद् न भवन्ति ! अनन्तजीवरस्य प्रतिपन्नत्वाद् अनन्तैरेव च प्रतिपत्स्यमानत्वादिति, सत्यम् , स्यादेवं यदि तत्प्रतिपत्तॄणां सर्वेषां पृथक् पृथग्मिन्नान्येवाध्यवसायस्थानानि स्युः, तच्च नास्ति, बहूनामेकाध्यवसायस्थानवर्तित्वादपीति / ततो द्वितीयसमये तदन्यान्यधिकतराण्यध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते, तृतीयसमये तदन्यान्यधिकतराणि, चतुर्थसमये तदन्यान्यधिकतराणीत्येवं तावन्नेयं यावत् चरमसमयः / एतानि च स्थाप्यमानानि विषमचतुरस्र क्षेत्रमभिव्यामुवन्ति / तद्यथा|४०.....०] अत्र प्रथमसमयजघन्याध्यवसायस्थानात् प्रथमसमयोत्कृष्टमध्यवसायस्थानमनन्त३०००.०० गुणविशुद्धम् , तस्माच द्वितीयसमयजघन्यमनन्तगुणविशुद्धम् , ततोऽपि द्विती२०.... यसमयजघन्यात् तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धम् , तस्माच्च तृतीयसमयजघन्यमन न्तगुणविशुद्धम् , ततोऽपि तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धमित्येवं तावन्नेयं यावद् द्विचरमसमयोत्कृष्टात् चरमसमयजघन्यमनन्तगुणविशुद्धम् , ततोऽपि तदुत्कृष्टमनन्तगुणविशुद्धमिति / एकसमयगतानि चामून्यध्यवसायस्थानानि परस्परमनन्तभागवृद्ध्यसङ्ख्यातभागवृद्धिसङ्ख्यातभागवृद्धिसङ्येयगुणवृद्ध्यसङ्ख्येयगुणवृद्ध्यनन्तगुणवृद्धिरूपषट्स्थानकपतितानि / युगपदेतगुणस्थानप्रविष्टानां च परस्परमध्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिलक्षणा निवृत्तिरप्यस्तीति निवृत्तिगुणस्थानकमप्येतदुच्यते, अत एवोक्तं सूत्रे "नियट्टि अनियट्टी" इत्यादि 8 / __ तथा युगपदेतद्गुणस्थानकं प्रतिपन्नानां बहूनामपि जीवानामन्योऽन्यमध्यवसायस्थानस्य व्यावृत्तिः-निवृचिर्नास्त्यस्येति अनिवृत्तिः समकालमेतद्गुणस्थानकमारूढस्यापरस्य यदध्यवसायस्थानं विवक्षितोऽन्योऽपि कश्चित्चद्वत्येवेत्यर्थः / सम्परैति-पर्यटति संसारमनेनेति सम्परायः-कषायो. दयः, बादरः-सूक्ष्मकिट्टीकृतसम्परायापेक्षया स्थूरः सम्परायो यस्य स बादरसम्परायः, अनिवृतिश्चासौ बादरसम्परायश्च अनिवृत्तिबादरसम्परायः, तस्य गुणस्थानमनिवृतिबादरसम्परायगुणस्थानम् / इदमप्यन्तर्मुहूर्तप्रमाणमेव / तत्र चान्तर्मुहर्ते यावन्तः समयास्तत्पविष्टानां तावन्त्येवाध्यवसायस्थानानि भवन्ति, एकसमयप्रविष्टानामेकस्यैवाध्यवसायस्थानस्यानुवर्तनादिति / स्थापना B | प्रथमसमयादारभ्य प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धं यथोत्तरमध्यवसायस्थानं भवतीति वेदिB| तव्यम् / स चानिवृत्तिबादरो द्विधा-क्षपक उपशमकश्च 9 / तथा सूक्ष्मः सम्परायः किट्टीकृतलोभकषायोदयरूपो यस्य सोऽयं सूक्ष्मसम्परायः / सोऽपि द्विधा-क्षपक उपशमको वा, क्षपयति उपशमयति वा लोभमेकमिति कृत्वा, तस्य गुणस्थानं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् 10 / १°स्थानिखानविवत्तिलाक० घ०॥ 2 ततोऽपि तदुत्कृ°क० ख० ग० घ०॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / 73 * तथा छाद्यते केवलज्ञानं केवलदर्शनं चात्मनोऽनेनेति च्छद्म-ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायकर्मोदयः / सति तस्मिन् केवलस्यानुत्पादात्, तदपगमानन्तरं चोत्पादात् / छद्मनि तिष्ठतीति च्छद्मस्थः / स च सरागोऽपि भवति इत्यतस्तव्यवच्छेदार्थ वीतरागग्रहणम् / वीतःविगतो रागः-मायालोभकषायोदयरूपो यस्य स वीतरागः, स चासौ छद्मस्थश्च वीतरागच्छद्मस्थः / स च क्षीणकषायोऽपि भवति, तस्यापि यथोक्तरागापगमाद् अतस्तव्यवच्छेदार्थम् उपशान्तकषायग्रहणम् / “कष शिष" इत्यादिदण्डकघातुर्हिसार्थः, कषन्ति कण्यन्ते च परस्परमसिन् प्राणिन इति कषः-संसारः, कषमयन्ते-गच्छन्त्येभिर्जन्तव इति कषायाः-क्रोधादयः; उपशान्ताः-उपशमिता विद्यमाना एव सङ्क्रमणोद्वर्तनादिकरणोदयायोग्यत्वेन व्यवस्थापिताः कषाया येन स उपशान्तकषायः, स चासौ वीतरागच्छद्मस्थश्चेति उपशान्तकषायवीतरागच्छअस्थः, तस्य गुणस्थानमिति प्राग्वत् / तत्राविरतसम्यग्दृष्टेः प्रभृत्यनन्तानुबन्धिनः कषाया उपशान्ताः सम्भवन्ति / उपशमश्रेण्यारम्भे धनन्तानुबन्धिकषायान् अविरतो देशविरतः प्रमत्तोऽप्रमत्तो वा सन् उपशमय्य दर्शनमोहत्रितयमुपशमयति / तदुपशमानन्तरं प्रमत्ताऽप्रमत्तगुणस्थानपरिवृत्तिशतानि कृत्वा ततोऽपूर्वकरणगुणस्थानोत्तरकालमनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थाने चारित्रमोहनीयस्य प्रथमं नपुंसकवेदमुपशमयति, ततः स्त्रीवेदम् , ततो हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सारूपं युगपत् षट्कम् , ततः पुरुषवेदम्, ततो युगपद् अप्रत्याख्यानावरणप्रत्याख्यानावरणौ क्रोधौ, ततः संज्वलनक्रोधम् , ततो युगपद् द्वितीयतृतीयौ मानौ, ततः संज्वलनमानम्, ततो युगपद् द्वितीयतृतीये माये, ततः संज्वलनमायाम् , ततो युगपद् द्वितीयतृतीयौ लोभौ, ततः सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने संज्वलनलोभमुपशमयति इत्युपशमश्रेणिः / स्थापना चेयम् / वि. सं.लो. स्तरतस्तूपशेमश्रेणिः खोपज्ञशतकटीकायां व्याम.लो.प्र.लो. ख्याता ततः परिभावनीया / तदेवमन्येष्वपि सं.मा. गुणस्थानकेषु कापि कियतामपि कषायाणामुपशाअ.मा.प्र.मा. न्तत्वसम्भवाद् उपशान्तकषायव्यपदेशः सम्भवति, सं.मा.. अ.मा.प्र.मा. अतस्तव्यवच्छेदार्थ वीतरागग्रहणम् / उपशान्तसं.को. कषायवीतराग इत्येतावताऽपीष्टसिद्धौ छद्मस्थग्रहणं अ.क्रो.प्र.को. खरूपकथनार्थ, व्यवच्छेद्याभावात् / न पच्छमस्थ उपशान्तकषायवीतरागः सम्भवति यस्य च्छद्महास्य | रति [अरति | शोक | भय | जुगु.] स्थग्रहणेन व्यवच्छेदः स्यादिति / असिंश्च गुणबीवे. न.व. स्थानेऽष्टाविंशतिरपि मोहनीयप्रकृतय उपशान्ता मि.मो. मि.मो.स.मो. __ ज्ञातव्याः / उपशान्तकषायश्च जघन्येनैकं समयं अ.को. |अ.मा.अ.मा. अ.लो. भवति, उत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्त कालं यावत् , तत ऊर्ध्वं नियमादसौ प्रतिपतति / प्रतिपातश्च द्वेषा-भवक्षयेणाऽद्धाक्षयेण च / तत्र भवक्षयो प्रियमाणस्य, अद्धाक्षय उपशान्ताद्धायां समाधायाम् / अद्धाक्षयेण च प्रतिपतन् यथैवारूढस्तथैव प्रतिपतति, यत्र यत्र बन्धोदयोदीरणा व्यवच्छिन्नास्तत्र तत्र प्रतिपतता सता ते आरभ्यन्त इति क . . Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितसोपज्ञटीकोफ्तः [गाथा यावत् / प्रतिपतंश्च तावत् प्रतिपतति यावत् प्रमत्तगुणस्थानम् / कश्चित्तु ततोऽप्यघस्तनं गुणस्थानकद्विकं याति, कोऽपि सासादनभावमपि / यः पुनर्भवक्षयेण प्रतिपतति स प्रथमसमय एव सर्वाण्यपि बन्धनादीनि करणानि प्रवर्तयतीति विशेषः / उत्कर्षतश्चैकस्मिन् भवे द्वौ वारावुपशमआणि प्रतिपद्यते / यश्च द्वौ वारावुपशमश्रेणि प्रतिपद्यते तस्य नियमात् तस्मिन् भवे क्षपकश्रेण्यभावः / यः पुनरेकं वारं प्रतिपद्यते तस्य क्षपकश्रेणिर्भवेदपीति / उक्तं च सप्ततिकाचूरें जो दुवे वारे उवसमसेटिं पडिवज्जइ तस्स नियमा तम्मि भवे खवगसेदी नत्थि, जो इकसिं उक्समसेढी पडिवज्जइ तस्स खवगसेढी चि हुज ति // ___ एष कार्मग्रन्थिकाभिप्रायः / आगमाभिप्रायेण त्वेकस्मिन् भव एकामेव श्रेणि प्रतिपद्यते, पदुकं कल्पमाष्ये एवं अप्परिवडिए, सम्मत्ते देवमणुयजम्मेसु / भन्नयरसेढिवजं, एगभवेणं च सवाई // (गा० 107) सर्वाणि देशविरत्यादीनि / अन्यत्राप्युक्तम् मोहोपशम एकस्मिन् , भवे द्विः स्यादसन्ततम् / यस्मिन् भवे तूपशमः, क्षयो मोहस्य तत्र न // इति / तथा क्षीणाः-अभावमापन्नः कषाया यस्य स क्षीणकषायः / तत्रानन्तानुबन्धिकषायान् प्रथममविरतसम्यग्दृष्ट्याचप्रमत्तान्तेषु गुणस्थानेषु क्षपयितुमारभते, ततो मिथ्यात्वं मिश्रं सम्यक्त्वम्, ततोऽप्रत्याख्यानावरणान् प्रत्याख्यानावरणान् कषायानष्टौ क्षपयितुमारभते, तेषु चार्षक्षपितेष्वेवातिविशुद्धिवशादन्तराल एव स्त्यानदित्रिकं नरकद्विकं तिर्यग्द्विकम् एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियजातयः आतपम् उद्योतं स्थावरं सूक्ष्मं साधारणमिति प्रकृतिषोडशकं क्षपयति / तसिंश्च क्षीणे कषायाष्टकस्य क्षपितशेष क्षपयति / ततो नपुंसकवेदं स्त्रीवेदं हास्यादिषट्कं पुंवेदं संज्वलनं क्रोषं मानं मायां क्षपयति, एताश्च प्रकृतीरनिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थाने शफ्यति, संज्वलनलोभ सूक्ष्मसम्परायगुणस्थान इति क्षपकश्रेणिः / स्थापना चेयम् / विस्तरसस्तु क्षपकश्रेणिखरूपं खोपज्ञशतकटीकायां निरूपितं तत एव परिभावनीयम् / सदेवमन्येष्वपि गुणस्थानेषु क्षीणकामव्यपदेशः सम्भवति, कापि कियतामपि कषायांणां क्षीणस्वात् , अतस्तव्यवच्छेदार्थ वीतरामग्रहणम् / क्षीणकषायवीतरागत्वं च केवलिनोऽप्यस्ति इति तयवच्छेदार्थ छद्मस्थग्रहणम् / छद्मस्थग्रहणे च कृते सरामव्यवच्छेदार्थ वीतरागग्रहणम् / वीतरागश्चासौ छद्मस्थश्च वीतरागच्छद्मस्थः / स चोपशान्तकषायोऽप्यस्ति इति तद्यवच्छेदार्थ क्षीणकपायग्रहणम् / क्षीणकषायश्चासौ वीतरागच्छद्मस्थश्च क्षीणकनायवीतरागच्छद्मस्थः, तस्य गुणस्थानं क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानम् 12 इति / योतीबारौ उपशमणि प्रतिपद्यते तस्य नियमात्तस्मिन् भवे क्षपकश्रेणिर्नास्ति, य एकवार उपशम. श्रेणिं प्रतिपद्यते तस्य 'क्षपकश्रेणिपि भवेदिति // 2 एवमप्रतिपतिते सम्यक्त्वे देवमनुजजन्मसु / अन्यतरश्रेणिवर्जम् एपभवेन च सर्वाणि-॥ ३°ततःक० ख० ग० घ००। ४°णाः क्षयमा ख०॥ ५°सान्तगु° ख० ग०6०॥ स्थापनाऽमेतनपृष्ठे न्यस्ताऽस्ति / Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मप्रन्यः / सं.मा. सं. मा. सं.को. पु. वे. | हास्य | रति | अरति | शोक | भय जुगुप्सा स्त्री. वे. | न. वे. अ. को. | प्र.को. | अ. मा. प्र.मा. अ. मा. | प्र. मा. | अ. लो. प्र. लो. / स.मो. मि.मो. (मि.मो. अ. क्रो. अ.मा. अ. मा. अ.लो. तथा योगो वीर्य शक्तिः उत्साहः पराक्रम इति पर्यायाः, स च मनोवाकायलक्षणकरणमेदा तिसः संज्ञा लभते, मनोयोगो वाग्योगः काययोगश्चेति / तथा चोक्तं कर्मप्रकृती परिणामालंबणगहणकारणं तेण लद्धनामतिगं / कजब्भासान्नुन्नप्पवेसविसमीकयपएसं // (गा० 4) तत्र भगवतो मनोयोगो मनःपर्यायज्ञानिभिरनुत्तरसुरादिमिर्वा मनसा पृष्टस्य सतो मनरे देशनात् , ते हि भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि मनःपर्यायज्ञानेनाऽवधिज्ञानेन वा पश्यन्ति, हा च ते विवक्षितवस्त्वाकारान्यथानुपपत्त्या लोकखरूपादिबाह्यमर्थमवगच्छन्तीति / वाग्यो धर्मदेशनादौ / काययोगो निमेषोन्मेषचक्रमणादौ / ततोऽनेन योगत्रयेण सह वर्तत इति सयो “सर्वादेरिन्" (सि०७-२-५९) इतीन् प्रत्ययः / केवलं केवलज्ञानं केवलदर्शनं च विद यस्य स केवली, सयोगी चासौ केवली च सयोगिकेवली, तस्य गुणस्थानं सयोगिकेवलिगु स्थानम् 13 / तथा न विद्यन्ते योगाः पूर्वोक्ता यस्यासावयोगी / कथमयोगित्वमसावुपगच्छति ! 3 चेद् उच्यते-स, भगवान् सयोगिकेवली जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तम् उत्कृष्टतो देशोनां पूर्वको विहृत्य कश्चित् कर्मणां समीकरणाथै समुद्धातं करोति, यस्य वेदनीयादिकमायुषः सकाशा धिकतरं भवति, अन्यस्तु न करोति / यदाहुः श्रीआर्यश्यामपादा: सधे वि णं भंते ! केवली समुग्घायं गच्छंति ? गोयमा ! नो इणढे समढे / १°णत्रयमें ख०॥ 2 परिणामालम्बनप्रहणकारणं तेन लन्धनामत्रिकम् / कार्याभ्यासान्योऽन्यप्र विषमीकृतप्रदेशम् // 3 सर्वेऽपि खलु भन्दत। केवलिनः समुद्धातं गच्छन्ति / गौतम / नायमर्थः समः यस्य आयुषा तुल्यानि बन्धनैः स्थिविभिध / भवोपप्राहिकर्माणि न समुद्धातं स गच्छति // अगला समुद्र अनन्ताः केवलिनो जिनाः / जरामरणविप्रमुकाः सिद्धिं वरगतिं गताः // Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा जस्साउएण तुल्लाई, बंधणेहिं ठिईहि य / भवोवग्गाहिकम्माई, न समुग्घायं स गच्छइ // अगंतूणं समुग्घायं, अणंता केवली जिणा / जरमरण विप्पमुक्का, सिद्धिं वरगई गया // (प्रज्ञा० पत्र 601-1) अत्र "बंधणेहिं"ति बध्यन्त इति बन्धनानि "भुजिपत्यादिभ्यः कर्मोपादाने" (सि० 53-128) इति कर्मण्यनट् , कर्मपरमाणवस्तैः, शेषं सुगमम् / गत्वा वोऽगत्वा वा समुद्धातम् / समुद्धातखरूपं च स्वोपज्ञपडशीतिकटीकायां विस्तरतः प्ररूपितं तत एवावधारणी. यम् / भवोपग्राहिकर्मक्षपणाय लेश्यातीतमत्यन्ताप्रकम्पं परमनिर्जराकारणं ध्यानं प्रतिपित्सुर्योगनिरोधार्थमुपक्रमते / तत्र पूर्व बादरकाययोगेन बादरमनोयोगं निरुणद्धि, ततो वाग्योगम् , ततः सूक्ष्मकाययोगेन बादरकाययोगम् ; तेनैव सूक्ष्ममनोयोगं सूक्ष्मवाग्योगं च; सूक्ष्मकाययोगं तु सूक्ष्मक्रियमनिवर्तिशुक्लध्यानं. ध्यायन् खावष्टम्भेनैव निरुणद्धि, अन्यस्यावष्टम्भनीयस्य योगान्तरस्य तदाऽसत्त्वात् / तद्ध्यानसामर्थ्याच्च वदनोदरादिविवरपूरणेन सङ्कुचितदेहत्रिभागवर्तिप्रदेशो भवति / तदनन्तरं समुच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति शुक्लध्यानं ध्यायन् मध्यमप्रतिपत्त्या हखपञ्चाक्षरोगिरणमात्रं कालं शैलेशीकरणं प्रविशति / तत्र शैलेशः-मेरुः तस्येयं स्थिरता-साम्यावस्था शैलेशी, यद्वा सर्वसंवरः शीलं तस्य य ईशः शीलेशः तस्येयं योगनिरोधावस्था शैलेशी, तस्यां करणं-पूर्वविरचितशैलेशीसमयसमानगुणश्रेणीकस्य वेदनीयनामगोत्राख्याऽघातिकर्मत्रितयस्याऽ. सङ्ख्येयगुणया श्रेण्या आयुःशेषस्य तु यथाखरूपस्थितया श्रेण्या निर्जरणं शैलेशीकरणम् / तच्चासौ प्रविष्टोऽयोगी स चासौ केवली च अयोगिकेवली / अयं च शैलेशीकरणघरमसमयानन्तरमुच्छि. नचतुर्विधकर्मबन्धनत्वाद् अष्टमृत्तिकालेपलिप्ताऽधोनिममक्रमाऽपनीतमृत्तिकालेपजलतलमर्यादो र्ध्वगामितथाविधाऽलाबुवद् ऊर्ध्व लोकान्ते गच्छति, न परतोऽपि, मत्स्यस्य जलकल्पगत्युपष्टम्भिधर्मास्तिकायाऽभावात् / स चोर्ध्व गच्छन् ऋजुश्रेण्या यावत्वाकाशप्रदेशेष्विहावगाढस्तावत एव प्रदेशानूर्ध्वमप्यवगाहमानो विवक्षितसमयाच्च समयान्तरमसंस्पृशन् गच्छति / - तदुक्तमावश्यकचूर्णी त्तिए जीवो अवगाढो तावइयाए ओगाहणाए उड्ढे उज्जुगं गच्छइ न वंक, बीयं च समयं न फुसइ // (पूर्वार्द्ध पत्र 582) इति // . दुःषमान्धकारनिममजिनप्रवचनप्रदीपप्रतिमाः श्रीजिनभद्रगणिपूज्या अप्याहुः पज्जतमित्तसन्निस्स जतियाई जहन्नजोगिस्स / हुंति मणोदघाई, तबावारो य जम्मतो // (विशेषा० गा० 3059) तदसंखगुणविहीणं, समए समए निरंभमाणो सो। . मणसो सबनिरोह, कुणइ असंखिजसमएहिं // (विशेषा० गा० 3060). 1 समुत्सन क० ख० ग० घ० 0 // 2 यावत्यां जीवोऽवगाढस्तावत्याऽवगाहनया ऊर्ध्वमृजुकं गच्छति न वक्रम् , द्वितीयं च समयं न स्पृशति // 3 पर्याप्तमात्रसंझिनो यावन्ति जघन्ययोगिनः / भवन्ति मनोद्रव्याणि तद्यापारश्च यन्मात्रः॥ तदसङ्ख्यगुणविहीन समये समये निहन्धानः सः / मनसः सर्वनिरोध करोत्यसयेयसमयैः॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2-3] कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / पंजतमित्तबिंदियजहन्नवइजोगपज्जया जे उ / तदसंखगुणविहीणे, समए समए निरंभंतो // (विशे० गा० 3061) सव्ववइजोगरोह, संखाईएहिं कुणइ समएहिं / तत्तो य सुहुमपणयस्स पढमसमओववन्नस्स // (विशेषा० गा. 3062) जो किर जहन्नजोगो, तदसंखिज्जगुणहीणमिकेके / समए निरंभमाणो, देहतिभागं च मुंचंतो // (विशेषा० गा० 3063) रुंभइ स कायजोगं, संखाईएहिं चेव समएहिं / तो कयजोगनिरोहो, सेलेसीभावणामेइ // (विशेषा० गा० 3064 ) हस्सक्खराई मज्झेण जेण कालेण पंच भन्नंति / अच्छइ सेलेसिगओ, तत्तियमेतं तओ कालं // (विशेषा० गा० 3068) तणुरोहारंभाओ, झायइ सुहुमकिरियानियहिं सो। वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई सेलेसिकालम्मि // (विशेषा० गा० 3069) तदसंखेजगुणाए, गुणसेढीइ रइयं पुरा कम्मं / समए समए खैविउं, कमेण सवं तहिं कम्मं // (विशेषा० गा० 3082) उजुसेढीपडिवन्नो, समयपएसंतरं अफुसमाणो। एगसमएण सिज्झइ, अह सागारोवउत्तो सो // (विशेषागा०३०८८) इति तस्य गुणस्थानमयोगिकेवलिगुणस्थानम् 14 इति // 2 // .. व्याख्यातानि सभावार्थानि चतुर्दशापि गुणस्थानानीति / अथ यथैतेष्वेव गुणस्थानेषु भगवता बन्धमुदयमुदीरणां सत्तां चाऽऽश्रित्य कर्माणि क्षपितानि तथा बिभणिषुः प्रथमं तावद् बन्धमाश्रित्य क गुणस्थाने कियत्यः कर्मप्रकृतयो व्यवच्छिन्नाः ? इत्येतद् बन्धलक्षणकथनपूर्वकं प्रचिकटयिषुराह अभिनवकम्मरगहणं, बंधो ओहेण तत्थ वीस सयं / तित्थयराहारगदुगवजं मिच्छम्मि सतरसयं // 3 // मिथ्यात्वादिभिहेंतुभिरभिनवस्य-नूतनस्य कर्मणः-ज्ञानावरणादेर्ग्रहणम्-उपादानं बन्ध इत्युच्यते / 'ओघेन' सामान्येनैकं किश्चिद्गुणस्थानकमनाश्रित्येत्यर्थः / “तत्थ" ति तत्र १पर्याप्तमात्रद्वीन्द्रियजघन्यवचोयोगपर्यया ये तु / तदसङ्ख्यगुणविहीनान् समये समये निरुन्धानः // सर्ववचोयोगरोधं सङ्ख्यातीतैः करोति समयैः / ततश्च सूक्ष्मपनकस्य प्रथमसमयोपपन्नस्य // यः किल जघन्ययोगस्तदसङ्ख्येयगुणहीनमेकैकस्मिन् / समये निरुन्धानो देहत्रिभागं च मुन्थन् // रुणद्धि स काययोग सङ्ख्यातीतैरेव समयैः / ततः कृतयोगनिरोधः शैलेशीभावनामेति // ह्रखाक्षराणि मध्येन येन कालेन पञ्च भण्यन्ते / आस्ते शैलेशीगतः तावन्मानं सकः कालम् // तनुरोधारम्भाद् ध्यायति सूक्ष्म क्रियानिवृत्तिं सः। व्युच्छिन्नक्रियमप्रतिपाति शैलेशीकाले // तदसङ्ख्येयगुणायां गुणश्रेणी रचितं पुरा कर्म / समये समये क्षपयिखा क्रमेण सर्व तत्र कर्म // ऋजुश्रेणिप्रतिपन्नः समयप्रदेशान्तरमस्पृशन् / एकसमयेन सिध्यति अथ साकारोपयुक्तः सः॥ 2 खवियं कमसो सेलेसिकालेणं // इति भाप्ये पाठः॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेता [गाथा बन्धे 'विशं शतं' विंशत्युत्तरं शतं कर्मप्रकृतीनां भवतीति शेषः / तथाहि-मतिज्ञानावरणं श्रुतज्ञानावरणम् अवधिज्ञानावरणं मनःपर्यायज्ञानावरणं केवलज्ञानावरणमिति पञ्चधा ज्ञानावरणम् / निद्रा निद्रानिद्रा प्रचला प्रचलाप्रचला स्त्यानर्द्धिः चक्षुर्दर्शनावरणम् अचक्षुर्दर्शनावरणम् अवधिदर्शनावरणं केवलदर्शनावरणमिति नवविधं दर्शनावरणम् / वेदनीयं द्विधासातवेदनीयम् असातवेदनीयं च / मोहनीयमष्टाविंशतिभेदम् , तद्यथा-मिथ्यात्वं सम्यग्मिध्यात्वं सम्यक्त्वमिति दर्शनत्रिकम् , अनन्तानुबन्धी क्रोधो मानो माया लोभः 4 अप्रत्याख्यानावरणः क्रोधो मानो माया लोभः 4 प्रत्याख्यानावरणः क्रोधो मानो माया लोभः 4 संज्वलनः क्रोधो मानो माया लोभः 4 इति षोडश कषायाः, स्त्री पुमान् नपुंसकमिति वेदप्रयम् , हास्यं रतिः अरतिः शोको भयं जुगुप्सेति हास्यषट्कम् , मिलितं नव नोकषायाः / आयुश्चतुर्धा-नरकायुः तिर्यगायुः मनुष्यायुः देवायुरिति / अथ नामकर्म द्विचत्वारिंशद्विधम् , तद्यथा-चतुर्दश पिण्डप्रकृतयः अष्टौ प्रत्येकप्रकृतयः त्रसदशकं स्थावरदशकं चेति / तत्र पिण्डप्रकृतय इमाःगतिनाम जातिनाम शरीरनाम अङ्गोपाङ्गनाम बन्धननाम सङ्घातननाम संहनननाम संस्थाननाम वर्णनाम गन्धनाम रसनाम स्पर्शनाम आनुपूर्वीनाम विहायोगतिनामेति / आसां मेदा दर्श्यन्ते-नरकतिर्यङ्मनुष्यदेवगतिनामभेदात् चतुर्धा गतिनाम, एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियजातिनामेति पञ्चधा जातिनाम, औदारिकवैक्रियाऽऽहारकतैजसकार्मणशरीरनामेति पञ्चधा शरीरनाम, औदारिकाङ्गोपाङ्गं वैक्रियाङ्गोपाङ्गम् आहारकाङ्गोपाङ्गनामेति त्रिधाऽङ्गोपाङ्गनाम, बन्धननाम पञ्चधा औदारिकबन्धनादि शरीरवत्, एवं सङ्घातनमपि, संहनननाम षड्भेदम्-वज्रऋषभनाराचम् ऋषभनाराचं नाराचम् अर्धनाराचं कीलिका सेवात चेति, संस्थाननाम षडिधं-समचतुरस्र न्यग्रोधपरिमण्डलं सादि वामनं कुछ हुण्डं चेति, वर्णनाम पञ्चधा-कृष्णं नीलं लोहितं हारिद्रं शुक्लं चेति, गन्धनाम द्विधा-सुरेभिगन्धनाम दुरभिगन्धनामेति, रसनाम पञ्चधा-तिक्तं कटुकं कषायम् अम्लं मधुरं चेति, स्पर्शनाम अष्टधा-कर्कशं मृदु लघु गुरु शीतम् उष्णं स्निग्धं रूक्षं च, आनुपूर्वी चतुर्धा-नरकानुपूर्वी तिर्यगानुपूर्वी मनुष्यानुपूर्वी देवानुपूर्वीति, विहायोगतिर्द्विधा-प्रशस्तविहायोगतिः अप्रशस्तविहायोगतिरिति आसां चतुर्दशपिण्डप्रकृतीनामुत्तरभेदा अमी पञ्चषष्टिः / प्रत्येकप्रकृतयस्त्विमाः-पराघातनाम उपघातनाम उच्छासनाम आतपनाम उद्योतनाम अगुरुलघुनाम तीर्थकरनाम निर्माणनामेति / त्रसदशकमिदम्-सनाम बादरनाम पर्याप्तनाम प्रत्येकनाम स्थिरनाम शुभनाम सुभगनाम सुखरनाम आदेयनाम यशःकीर्तिनामेति / स्थावरदशकं पुनरिदम्-स्थावरनाम सूक्ष्मनाम अपर्याप्तनाम साधारणनाम अस्थिरनाम अशुभनाम दुर्भगनाम दुःखरनाम अनादेयनाम अयशःकीर्तिनामेति / पिण्डप्रकृत्युत्तरभेदाः पञ्चषष्टिः प्रत्येकप्रकृतयोऽष्टौ त्रसदशकं स्थावरदशकं च सर्वमीलने त्रिनवतिः / गोत्रं द्विधा उच्चैगों नीचैर्गोत्रं च / अन्तरायं पञ्चधा-दानान्तरायं लाभान्तरायं भोगान्तरायम् उपभोगान्तरायं वीर्यान्तरायं चेति / एवं च कृत्वा ज्ञानावरणे कर्मप्रकृतयः पञ्च 5 दर्शनावरणे नव 9 वेदनीये द्वे 2 मोहनीयेऽष्टा१°पामिति ख० ग०॥ 2 °भिनाम असुरभिना क० ख० ग०॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / विंशतिः 28 आयुषि चतसः 4 नानि त्रिनवतिः 93 गोत्रे द्वे 2 अन्तराये पञ्च 5 सर्वपिण्डेऽ. टाचत्वारिंशं शतं भवति, तेन च सत्तायामधिकारः / उदयोदीरणयोः पुनरौदारिकादिवन्धनानां पञ्चानामौदारिकादिसङ्घातनानां च पञ्चानां यथाखमौदारिकादिषु पञ्चसु शरीरेष्वन्तर्भावः / वर्णगन्धरसस्पर्शानां यथासङ्घयं पञ्चद्विपञ्चाऽष्ट भेदानां तद्भेदकृतां विंशतिमपनीय तेषामेव चतुर्णामभिन्नानां ग्रहणे षोडशकमिदं बन्धनसङ्घातनसहितमष्टचत्वारिंशशता अपनीयते, शेषेण द्वाविंशेन शतेनाधिकारः / बन्धे तु सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वयोः सङ्कमेणैव निष्पाद्यमानत्वाद् बन्धो न सम्भवतीति तयोविंशतिशताद् अपनीतयोः शेषेण विंशत्युत्तरशतेनाऽधिकार इति प्रकृतिसमुत्कीर्तना कृता / प्रकृत्यर्थः स्वोपज्ञकर्मविपाकटीकायां विस्तरेण निरूपितस्तत एवावधार्य इत्यलं प्रसङ्गेन / प्रकृतं प्रस्तुमः / तत्र बन्धे सामान्येन विशं शतं भवतीति प्रकृतम् / तदेव च विशं शतं 'तीर्थकराहारकद्विकवर्ज' तीर्थकराहारकद्विकरहितं सत् "मिच्छम्मि" ति मीमसेनो भीम इत्यादिवत् पदवाच्यस्यार्थस्य पदैकदेशेनाऽप्यभिधानदर्शनात् मिथ्यात्वे मिथ्यादृष्टिगुणस्थान इत्यर्थः / एवमुत्तरेष्वपि पदवाच्येषु पदैकदेशप्रयोगो द्रष्टव्यः / "सतरसंयं" ति सप्तदशाधिकं शतं सप्तदशशतं बन्धे भवतीति / अयमत्राभिप्रायः-तीर्थकर नाम तावत् सम्यक्त्वगुणनिमित्तमेव बध्यते, आहारकशरीराऽऽहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणमाहारकद्विकं स्वप्रमत्तयतिसम्बन्धिना संयमेनैव / यदुक्तं श्रीशिवशर्मसूरिपादैः शतके सम्मत्तगुणनिमित्तं, तित्थयरं संजमेण आहारं / (गा० 44 ) इति / मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने एतत्प्रकृतित्रयवर्जनं कृतम् , शेषं पुनः सप्तदशशतं मिथ्यात्वादिभिहेंतुभिर्वध्यत इति मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने तद्वन्ध इति // 3 // नन्वेता मिथ्यादृष्टिप्रायोग्याः सप्तदशशतसङ्ख्याः सर्वा अपि प्रकृतय उत्तरगुणस्थानेषु गच्छन्त्युत काश्चिदेव ! इत्याशङ्कयाह... नरयतिग जाइथावरचउ हुंडायवछिवट्ठनपुमिच्छं। . - सोलंतो इगहियसउ, सासणि तिरिथीणदुहगतिगं // 4 // . 'नरकत्रिक' नरकगतिनरकानुपूर्वीनरकायुर्लक्षणम् “जाइथावरचउ" ति चतुःशब्दस्य प्रत्ये. कमभिसम्बन्धाद् ‘जातिचतुष्कम्' एकेन्द्रियजातिद्वीन्द्रियजातित्रीन्द्रियजातिचतुरिन्द्रियजातिखरूपं 'स्थावरचतुष्कं' स्थावरसूक्ष्माऽपर्याप्तसाधारणलक्षणं, हुण्डम् आतपं छेदपृष्ठं "नपु" ति नपुंसकवेदः "मिच्छं" ति मिथ्यात्वमित्येतासां "सोलंतु" ति षोडशानां प्रकृतीनां मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने 'तत्र भाव उत्तरत्राभावः' इत्येवंलक्षणोऽन्तो विनाशः क्षयो भेदो व्यवच्छेद उच्छेद इति पर्यायाः / इयमत्र भावना-एता हि षोडश प्रकृतयो मिथ्याष्टिगुणस्थान एव बन्धमायान्ति, मिथ्यात्वप्रत्ययत्वादेतासाम् ; नोचरत्र साखादनादिषु, मिथ्यात्वाभावादेव / यत एताः प्रायो नारकैकेन्द्रियविकलेन्द्रिययोग्यत्वाद् अत्यन्ताऽशुभत्वाच मिथ्याडष्टिरेव बनातीति सप्तदशशतात् पूर्वोक्ताद् एतदपगमे शेषमेकोचरं प्रकृतिशतमेवाविरत्यादिहेतुभिः साखादने बन्धमायाति, अत एवाह-"इगहियसय सासणि" ति एकाधिकशतं साखादने बध्यते / "इगहियसय" इत्यत्र विभक्तिलोपः प्राकृतत्वात् / एवमन्यत्रापि विभक्तिलोपः प्राकृतलक्षण१ सम्यक्लगुणनिमित्तं तीर्थकर संयमेनाहारम् // Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा वशादवसेयः / “तिरिथीणदुहगतिगं" ति। त्रिकशब्दः प्रत्येकं सम्बध्यते, 'तिर्यत्रिक तिर्यगतितिर्यगानुपूर्वीतिर्यगायुर्लक्षणं 'स्त्यानर्द्धित्रिक' निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानद्धिखरूपं 'दुर्भगत्रिकं' दुर्भगदुःखराऽनादेयखरूपमिति // 4 // अणमज्झागिइसंघयणचउ निउज्जोयकुखगइत्थि त्ति। पणवीसंतो मीसे, चउसयरि दुआउयअबंधा // 5 // - चतुःशब्दस्य प्रत्येकं योजनात् “अण" ति अनन्तानुबन्धिचतुष्कम् अनन्तानुबन्धिको. पमानमायालोभाख्यम्, मध्याः-मध्यमा आद्यन्तवर्जा आकृतयः-संस्थानानि मध्याकृतयः तासां चतुष्कं न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थानं सादिसंस्थानं वामनसंस्थानं कुजसंस्थानमिति, तथा काकाक्षिगोलकन्यायात् मध्यशब्दस्यात्रापि योगः, ततो मध्यानि-मध्यमानि प्रथमान्तिमवर्जानि संहननानि-अस्थिनिचयात्मकानि तेषां चतुकम्-ऋषभनाराचसंहननं नाराचसंहननम् अर्धनाराचसंहननं कीलिकासंहननमिति, "निउ" ति नीचैर्गोत्रम्, उद्योतम् , कु-कुत्सिताऽप्र. शस्ता खगतिः-विहायोगतिः कुखगतिः अप्रशस्तविहायोगतिरित्यर्थः, “त्थि" ति स्त्रीवेद इत्येतासां पञ्चविंशतिपकृतीनां साखादनेऽन्तः, अत्र बध्यन्ते नोचरत्रेत्यर्थः, यतोऽनन्तानुबन्धिप्रत्ययो ह्यासां बन्धः, स चोत्तरत्र नास्तीति / ततश्चैकाधिकशतात् पञ्चविंशत्यपगमे "मीसि" ति 'मिश्रे' सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने षट्सप्ततिबन्धे भवति / ततोऽपि “दुआउयअबंध" ति द्वयोमनुष्यायुर्देवायुषोरबन्धो व्यायुरबन्धस्तस्माद् द्यायुरबन्धादिति हेतोश्चतुःसप्ततिर्भवति / इदमुक्तं भवति-इह नारकतिर्यगायुषी यथासङ्ख्यं मिथ्यादृष्टिसाखादनगुणस्थानयोर्व्यवच्छिन्ने, शेषं तुमनुष्यायुर्दैवायुद्धयमवतिष्ठते तदपि मिश्रो न बध्नाति, मिश्रस्य सर्वथाऽऽयुर्बन्धप्रतिषेधात् / उक्तं च ___ सम्मामिच्छद्दिट्ठी, आउयबंधं पि न करेइ / ति। ततः षट्सप्ततेरायुयापगमे चतुःसप्ततिर्भवतीति // 5 // सम्मे सगसयरि जिणाउबंधि वइर नरतिग बियकसाया। - उरलदुगंतो देसे, सत्तट्ठी तिअकसायंतो // 6 // ___ "सम्मि" ति अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने "सगसयरि" ति सप्तसप्ततिप्रकृतीनां बन्धो भवति / कथम् / इति चेद् उच्यते-पूर्वोक्तैव: चतुःसप्ततिः “जिणाउबंधि" चि तीर्थकरनाममनुष्यायुर्देवायुयबन्धे सति सप्तसप्ततिर्भवति / एतदुक्तं भवति-तीर्थकरनाम तावत् सम्यक्त्वप्रत्ययादेवात्र बन्धमायाति, ये च तिर्यग्मनुष्या अविरतसम्यग्दृशस्ते देवायुवन्ति, ये तु नारकदेवास्ते मनुष्या॑युर्वघ्नन्ति, ततोऽत्रेयं प्रकृतित्रयी समधिका लभ्यते, सा च पूर्वोक्तायां 'चतुःसप्ततौ क्षिप्यते जाता सप्तसप्ततिरिति / “वइर" ति वर्षभनाराचसंहननं "नरतिय" ति . नरत्रिक नरगतिनरानुपूर्वीनरायुर्लक्षणं "बियकसाय" ति द्वितीयकषायाः-अप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधमानमायालोमाः "उरलदुग" ति औदारिकद्विकम्-औदारिकशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्गलक्षणमित्येतासां दशप्रकृतीनामविरतसम्यग्दृष्टावन्तो भवति, एता अत्र बध्यन्ते नोचरत्रेत्यर्थः / अय 1 मध्याकृतिचतुष्कं-न्य ख०॥ 2 क संहननचतुष्कम्-ऋ० क० ख० घ. ऊ० // सिम्यग्मिध्यादृष्टिरायुर्वन्धमपि न करोति // 4 युनिवर्तयन्ति, क०ख०॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5-8] कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / मत्रामिपाय:-द्वितीयकषायांस्तावत् तदुदयाभावान्न बध्नाति देशविरतादिः कषाया घनन्तानुबन्धिवर्जा वेद्यमाना एव बध्यन्ते, ""जे वेएइ ते बंधइ" इति वचनात् ; अनन्तानुबन्धिनस्तु चतुर्विशतिसत्कर्माऽनन्तवियोजको मिथ्यात्वं गतो बन्धावलिकामात्रं कालमनुदितान् बध्नाति / यदाहुः सप्ततिकाटीकायां मोहनीयचतुर्विशतिकावसरे श्रीमलयगिरिपादा: इह सम्यग्दृष्टिना सता केनचित् प्रथमतोऽनन्तानुबन्धिनो विसंयोजिताः, एतावतैव स विश्रान्तो न मिथ्यात्वादिक्षयाय उद्युक्तवान् , तथाविधसामग्र्यभावात् / ततः कालान्तरेण मिथ्यात्वं गतः सन् मिथ्यात्वप्रत्ययतो भूयोऽप्यनन्तानुबन्धिनो बध्नाति / ततो बन्धावलिका यावत् नावाप्यतिकामति तावत् तेषामुदयं विना बन्ध इति / (पत्र 135-2) नरत्रिकं पुनरेकान्तेन मनुष्यवेद्यम् , औदारिकद्विकं वज्रऋषभनाराचसंहननं च मनुष्यतिर्यगेकान्तवेद्यम् , देशविरतादिषु देवगतिवेद्यमेव बध्नाति नान्यत् , तेनासां दशप्रकृतीनामविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानेऽन्तः / तत एतत् प्रकृतिदशकं पूर्वोक्तसप्तसप्ततेरपनीयते, ततः "देसे सहि" ति 'देशे' देशविरतगुणस्थाने सप्तषष्टिर्बध्यते "तियकसायंतु" ति तृतीयकषायाणांप्रत्याख्यानावरणक्रोधमानमायालोमानां देशविरतेऽन्तः, तदुत्तरेषु तेषामुदयाभावाद् अनुदितानां चाबन्धात् “जे वेयइ ते बंधइ" इति वचनाद् इति भावः / एतच्च प्रकृतिचतुष्कं पूर्वोकसप्तपष्टेरपनीयते // 6 // ततः तेवट्टि पमत्ते सोग अरइ अथिरदुग अजस अस्सायं। वुच्छिन्न छच्च सत्त व, नेइ सुराउं जया निटं // 7 // "तेवहि पमत्ति" ति त्रिषष्टिः प्रमत्ते बध्यते / शोकः अतिः "अथिरदुग" ति अस्थिरद्विकम्-अस्थिराऽशुभरूपम् "अजस" ति अयशःकीर्तिनाम असातमित्येताः षट् प्रकृतयः प्रमते "च्छिज" ति प्राकृतत्वादादेशस्य व्यवच्छिद्यन्ते-क्षीयन्ते बन्धमाश्रित्येति भावः / यद्वा सप्त वा व्यवच्छिद्यन्ते / कथम् ! इत्याह-"नेइ सुराउं जया निटें" ति यदा कश्चित् प्रमत्रः सन् सुरायुर्वन्द्धमारभते निष्ठां च नयति सुरायुबन्धं समापयतीत्यर्थः तदा पूर्वोक्ताः षट् मुरायुःसहिताः सप्त व्यवच्छिद्यन्त इति // 7 // गुणसहि अप्पमत्ते, सुराउबंधं तु जइ इहागच्छे / अन्नह अट्ठावन्ना, जं आहारगदुगं बंधे // 8 // "गुणसहि" चि एकोनषष्टिरप्रमचे बध्यत इति शेषः / कथम् ! इत्याह-'सुरायुर्वनन्' देवायुर्बन्धं कुर्वन् यदि चेद् 'इह' अप्रमचगुणस्थान आगच्छेत् / इयमत्र भावना-सुरा. युर्बन्धं हि प्रमत्त एवारभते नाऽप्रमचादिः, तस्यातिविशुद्धत्वात् , आयुष्कस्य तु घोलनापरिणामेनैव बन्धनात् , परं सुरायुर्बधन् प्रमते किञ्चित् सावशेष सुरायुर्वन्धेऽप्रमत्तेऽप्यागच्छेत् , अत्र च सावशेष सुरायुर्निष्ठां नयति तत एकोनषष्टिरप्रमत्ते भवति "देवाउयं च इक्कं, नायवं अप्पमत्तम्मि / " इति वचनात् / “अन्नह अट्ठावन्न" ति अन्यथा यदि सुरायुर्बन्धः प्रमचेनारब्धः प्रमत्तेनैव निष्ठां नीतस्ततोऽष्टापञ्चाशदप्रमत्ते भवतीति / 1-1 यान् वेदयते तान् बध्नाति // ३°तुष्टयं ख० ग०॥ 4 देवायुष्कं चैकं ज्ञातव्यमप्रमत्ते॥ क.११ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा . ननु यदि पूर्वोक्तत्रिषष्टेः शोकाऽरत्यस्थिरद्विकाऽयशोऽसातलक्षणं प्रकृतिषट्कमपनीयते तर्हि सा सप्तपञ्चाशद् भवति, अथ सुरायुःसहितं पूर्वोक्तप्रकृतिषद्कमपनीयते तर्हि षट्पञ्चाशत्, ततः कथमुक्तमेकोनषष्टिरष्टपञ्चाशद्वाऽप्रमते ! इत्याशक्याह-"जं आहारगदुगं बंधे" ति 'यद्' यस्मात् कारणाद् आहारकद्विकं बन्धे भवतीति शेषः / अयमत्राशयः-अप्रमत्तयतिसम्बन्धिना संयमविशेषेणाऽऽहारकद्विकं बध्यते, तच्चेह लभ्यत इति पूर्वापनीतमप्यत्र क्षिप्यते, ततः षट्पञ्चाशद् आहारकद्विकक्षेपेऽष्टापश्चाशद्भवति, सप्तपञ्चाशत् पुनराहारकद्विकक्षेप एकोनषष्टिरिति // 8 // अडवन्न अपुव्वाइमि, निद्ददुगंतो छपन्न पणभागे। सुरदुग पणिदि सुखगइ, तसनव उरलविणु तणुवंगा // 9 // समचउर निमिण जिण वनअगुरुलघुचउ छलंसि तीसंतो। चरमे छवीसयंधो, हासरईकुच्छभयभेओ // 10 // "अडवन्न अपुधाइमि" ति / इह किलाऽपूर्वकरणाद्धायाः सप्त भागाः क्रियन्ते। तत्राऽपूर्वस्यअपूर्वकरणस्यादिमे-प्रथमे सप्तभागेऽष्टापञ्चाशत् पूर्वोक्ता भवति / तत्र चाये सप्तभागे निद्राद्विकस्य-निद्राप्रचलालक्षणस्यान्तो भवति, अत्र बध्यते नोत्तरत्रापि, उत्तरत्र तहन्धाध्यवसाय. स्थानाभावात् , उत्तरेष्वप्ययमेव हेतुरनुसरणीयः / ततः परं षट्पञ्चाशद् भवति / कथम् ! इत्याह-"पणभागि" ति पञ्चानां भागानां समाहारः पञ्चभागं तस्मिन् पञ्चभागे, पञ्चसु भागेस्वित्यर्थः / इदमुक्तं भवति–अपूर्वकरणाद्धायाः सप्तसु भागेषु विवक्षितेषु प्रथमे सप्तभागेsष्टपञ्चाशत् , तत्र च व्यवच्छिन्ननिद्राप्रचलापनयने षट्पञ्चाशत् , सा च द्वितीये सप्तभागे तृतीये सप्तभागे चतुर्थे सप्तभागे पञ्चमे सप्तभागे षष्ठे सप्तभागे भवतीत्यर्थः / तत्र च षष्ठे सप्तभागे आसां त्रिंशत्प्रकृतीनामन्तो भवति इत्याह-"सुरदुग" इत्यादि / सुरद्विकं-सुरगतिसुरानुपूर्वीरूपं "पणिदि" ति पञ्चेन्द्रियजातिः, सुखगतिः-प्रशस्तविहायोगतिः "तसनव" ति असनवर्क-त्रसबादरपर्याप्तप्रत्येकस्थिरशुभसुभगसुखराऽऽदेयलक्षणं "उरल विणु"ति औदारिकशरीरं विना औदारिकाङ्गोपाङ्गं च विनेत्यर्थः "तणु" ति तनवः-शरीराणि "उवंग" ति उपाङ्गे / इदमुक्तं भवति–वैक्रियशरीरम् आहारकशरीरं तैजसशरीरं कार्मणशरीरं वैक्रियाजोपानम् आहारकाङ्गोपाङ्गं चेति / "समचउर" ति समचतुरस्रसंस्थानं "निमिण" ति निर्माणं "जिण" ति जिननाम-तीर्थकरनामेत्यर्थः “वन्नअगुरुलहुचउ" ति चतुःशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धाद् वर्णचतुष्कं-वर्णगन्धरसस्पर्शरूपम् , अगुरुलघुचतुष्कम्-अगुरुलघूपघातपराधातोच्छासलक्षणमित्येतासां त्रिंशत्प्रकृतीनां “छलंसि" ति षष्ठोंऽश:-भागः षडंशः; मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, यथा-तृतीयो भागस्त्रिभाग इति / अत्र डकारस्य लकारो "डो लः". (सि० 8-1-202 ) इति प्राकृतसूत्रेण तस्मिन् षडंशे / ततः पूर्वोक्तषट्पञ्चाशत इमास्त्रिंशत् प्रकृतयोऽपनीयन्ते शेषाः षडिशतिप्रकृतयोऽपूर्वकरणस्य "चरमि" ति चरमे अन्तिमे सप्तमे सप्तभागे बन्धे लभ्यन्त इत्यर्थः / चरमे च सप्तभागे हास्यं च रतिश्च "कुच्छ” ति कुत्सा च-जुगुप्सा भयं च हास्यरतिकुत्साभयानि तेषां भेदः-व्यवच्छेदो हास्यरतिकुत्साभयभेदो भवतीति / एताश्चतस्रः प्रकृतयः पूर्वोक्तषड्डियतेरपनीयन्ते, शेषा द्वाविंशतिः, सा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9-12] कमेखवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / चाऽनिवृत्तिबादरप्रथमभागे भवतीति // 9-10 // एतदेवाह__ अनियहिभागपणगे, इगेगहीणो दुवीसविहबंधो। पुमसंजलणचउण्हं, कमेण छेओ सतर सुहुमे // 11 // 'अनिवृत्तिभागपश्चके' अनिवृत्तिबादराद्धायाः पञ्चसु भागेष्वित्यर्थः / स पूर्वोक्को द्वाविं. शतिबन्ध एकैकहीनो वाच्यः, एकैकसिन् भागे एकैकस्याः प्रकृतेर्बन्धव्यवच्छेद इत्यर्थः / कथम् ! इत्याह-"पुमसंजलणचउण्हं कमेण छेउ" ति क्रमेणाऽऽनुपूर्व्या प्रथमे भागे पुंवेदस्य च्छेदखत एकविंशतेर्बन्धः, द्वितीये भागे संज्वलनक्रोधस्य च्छेदस्ततो विंशतेर्बन्धः, तृतीये भागे संज्वलनमानस्य च्छेदस्तत एकोनविंशतेर्बन्धः, चतुर्थे भागे संज्वलनमायायाश्छेदस्ततोऽ. ष्टादशानां बन्धः, पञ्चमभागे संज्वलनलोभस्य च्छेदः, उत्तरत्र तहन्धाध्यवसायस्थानाभावः छेदहेतुः, संज्वलनलोभस्य तु बादरसम्परायप्रत्ययो बन्धः, स चोत्तरत्र नास्त्रीत्यतश्छेदस्ततः सूक्ष्मसम्पराये सप्तदशप्रकृतीनां बन्धो भवतीत्यत आह-"सतर सुहुमि" ति स्पष्टम् // 11 // चउदंसणुच्चजसनाणविग्घदसगं ति सोलसुच्छेओ। 'तिसु सायबंध छेओ, सजोगि बंधंतुणंतो अ॥१२॥ बंधो सम्मत्तो। "चउदसण" ति चतुर्णा दर्शनानां समाहारश्चतुर्दर्शनं-चक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनाऽवधिदर्यनकेवलदर्शनरूपम् "उच्च" ति उच्चैर्गोत्रम् "जस" ति यशःकीर्तिनाम "नाणविग्घदसगं" ति ज्ञानावरणपश्चकं विघ्नपञ्चकम्-अन्तरायपञ्चकमुभयमीलने ज्ञानविघ्नदशकमित्येतासां षोडशप्रकृतीनां सूक्ष्मसम्पराये बन्धस्योच्छेदो भवति, एतद्वन्धस्य साम्परायिकत्वाद् उत्तरेषु च साम्परायिकस्य कषायोदयलक्षणस्याऽभावादिति / "तिसु सायबंध" ति त्रिषु-उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिगुणस्थानेषु सातबन्धः सातस्य केवलयोगप्रत्ययस्य द्विसामयिकस्य तृतीयसमयेऽवस्थानाभावादिति भावः, न साम्परायिकस्य, तस्य कषायप्रत्ययत्वात् / आह च भाष्यसुधाम्भोनिधिः उवसंतखीणमोहा, केवलिणो एगविहबंधों / ते पुंण दुसमयठिइयस्स बंधगा न उण संपरायसे / इति / "छेओ सजोगि" ति डमरुकमणिन्यायात् सातबन्धशब्दस्येह सम्बन्धस्ततः सयोगिकेवलिगुणस्थाने सातबन्धस्य च्छेदः-व्यवच्छेदः / इह सातबन्धोऽस्ति, योगसद्भावात् / नोत्तरत्राऽयोगिकेवलिगुणस्थाने, योगाभावात् / ततोऽवन्धका अयोगिकेवलिनः / उक्तं च . सेलेसी पडिवन्ना, अबन्धगा हुंति नायाँ / "बंधंतुणंतो अ" ति बन्धस्यान्तोऽनन्तश्च बन्धशब्दस्याऽमे षष्ठीलोपः प्राकृतत्वात् / तत इदमुक्कं भवति—यत्र हि गुणस्थाने यासां प्रकृतीनां बन्धहेतुव्यवच्छेदस्तत्र तासां बन्ध उपशान्तक्षीणमोहा केवलिन एकविधबन्धाः॥३ ते पुनर्बिसमयस्थितिकस्य बन्धका न पुनः सम्परायस // 5 शैलेशी प्रतिपन्ना अबन्धका भवन्ति ज्ञातव्याः // 2-4-6 षोडशे पञ्चाशके क्रमेण 41 गाथाया उत्तरार्ध 42 गाथायाः पूर्वार्द्धमुत्तरार्द्ध चोपलभ्यते // Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [बोध स्यान्तः, यथा मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने व्यवच्छिन्नबन्धानां षोडशानां प्रकृतीनाम् , मिथ्यात्वादिरतिकषाययोगा बन्धहेतवस्तेषु मिथ्यात्वं तत्रैव व्यवच्छिन्नम् , ततश्च मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने तासां बन्धस्यान्तः, तत उत्तरेषु कारणवैकल्येन बन्धाभावात् ; इतरासां बन्धस्यानन्तः, तत उत्तरेष्वपि तद्वन्धकारणसाकल्येन बन्धभावादिति / एवमन्येष्वपि गुणस्थानेषु प्रकृतीनां खखबन्धहेतुव्य. वच्छेदान्यवच्छेदाभ्यां साकल्यवैकल्यवशाद् बन्धस्यान्तोऽनन्तश्च भावनीय इति // 12 // // इति श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितायां खोपज्ञकर्मस्तवटीकायां बन्धाधिकारः समाप्तः // बन्धाधिकारमेनं, विवृण्वता यन्मयाऽर्जितं पुण्यम् / इह कर्मबन्धमुक्तो, लोकः सर्वोऽपि तेनास्तु // साम्प्रतमुदयस्य प्रायस्तत्समानत्वाद् उदीरणायाश्च लक्षणकथनपूर्वकं कस्मिन् गुणस्थाने कियत्यः प्रकृतयस्तस्य भगवतः क्षीणाः ! इत्येतन्निर्दिदिक्षुराह उदओ विवागवेयणमुदीरण अपत्ति इह दुवीससयं / सतरसय मिच्छे मीससम्मआहारजिणऽणुदया // 13 // इह कर्मपुद्गलानां यथाखस्थितिबद्धानामुदयसमयप्राप्तानां यद् विपाकेन-अनुभवनेन वेदनं स उदय उच्यते / “उदीरण अपत्ति" ति कर्मपुद्गलानां यथाखस्थितिबद्धानां यद् अप्राप्तकालं वेदनमुदीरणा भण्यते / "इह" ति 'इह' उदये उदीरणायां च "दुवीससयं" ति 'द्विविंशशतं' द्वाभ्यामधिकं विशं शतं द्विविंशशतं मयूरव्यंसकादित्वात् समासः, तत् सामान्यतोऽधिक्रियत इति शेषः / सप्तदशशतं "मिच्छे" ति मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने उदये भवति / कथम् ! इत्याह-"मीससम्मआहारजिणणुदय" त्ति, मिश्रं च "सम्म" ति सम्यक्वं च "आहार" ति इहाऽऽहारकशब्देन सर्वत्राऽऽहारकशरीराऽऽहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणमाहारकद्विक गृह्यते तत आहारकं च "जिण" ति जिननाम च मिश्रसम्यक्त्वाहारजिनास्तेषामनुदयात् / इदमत्र हृदयम्-मिश्रोदयस्तावत् सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थान एव भवति, सम्यक्त्वोदयस्त्वविरतसम्यग्दृष्ट्यादौ, आहारकद्विकोदयः प्रमत्तादौ, जिननामोदयः सयोगिकेवल्यादौ भवति / तत इदं प्रकृतिपञ्चकं द्वाविंशतिशताद् अपनीयते ततो मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने सप्तदशशतं भवतीति // 13 // सुहुमतिगायवमिच्छं, मिच्छंतं सासणे इगारसयं / निरयाणुपुग्विणुदया, अणथावरइगविगलअंतो // 14 // सूक्ष्मत्रिकं च-सूक्ष्माऽपर्याप्तसाधारणरूपम् आतपं च मिथ्यात्वं च सूक्ष्मत्रिकातपमिथ्यात्वं मिथ्यात्वे-मिथ्यादृष्टावन्तो यस्य तद् मिथ्यात्वान्तम् , एतत्प्रकृतिपञ्चकस्य मिथ्यात्वेऽन्तो भवतीत्यर्थः / अयमत्राशयः-सूक्ष्मनाम्न उदयः सूक्ष्मैकेन्द्रियेषु, अपर्याप्तनाम्नस्तु सर्वेध्वप्यपर्याप्तकेषु, साधारणनानोऽनन्तवनस्पतिषु, आतपनामोदयस्तु बादरपृथिवीकायिकेष्वेव; न चैतेषु स्थितो जीवः साखादनादित्वं लभते, नापि पूर्वप्रतिपन्नस्तेषूत्पद्यते, साखादनस्तु १°केषु च क० घ०॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13-15] कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / यथति बादरपर्याप्कैकेन्द्रियेपूत्पद्यते तथापि न तस्यातपनामोदयः, तत्रोत्पन्नमात्रस्यासमातशरीर. खैव साखादनस्ववमनात्, समा च शरीरे तत्राऽऽतपनामोदयो भवति, मिथ्यात्वोदयः पुनर्मिथ्यादृष्टावेव, तेनैतासां पञ्चप्रकृतीनां मिथ्यादृष्टावुदयस्यान्तः / तत इदं प्रकृतिपञ्चक पूर्वोक्तसप्तदशशताद् अपनीयते शेषं द्वादशशतं साखादने उदयं प्रतीत्य भवति, नरकानुपूर्व्यपनयने चैकादशशतं भवतीत्येतदेवाह-"सासणे इगारसयं नरयाणुपुषिणुदय" ति साखादन एकादशशतमुदये भवति, नरकानुपूर्व्यनुदयात्, नरकानुपूया उदयो हि नरके वक्रेण गच्छतो जीवस्य भवति, न च साखादनो नरकं गच्छति / यदुक्तं बृहत्कर्मस्तवमाष्ये * नेरयाणुपुधियाए, सासणसम्मम्मि होइ न हु उदओ। नरयम्मि जं न गच्छइ, अवणिज्जइ तेण सा तस्स // (गा० 8) ततो नरकानुपूर्वी मिथ्यादृष्टिव्यवच्छिन्नसूक्ष्मत्रिकातपमिथ्यात्वलक्षणप्रकृतिपञ्चकं च सप्तदशशताद् अपनीयते शेषं सासादने एकादशशतं भवतीति / "अणथावरहगविगल अंतु" ति “अण" ति अनन्तानुबन्धिनश्चत्वारः क्रोधमानमायालोमाः स्थावरनाम "ग" ति एकेन्द्रियजातिः विकलाः–पञ्चेन्द्रियजात्यपेक्षयाऽसम्पूर्णा द्वीन्द्रियजातित्रीन्द्रियजातिचतुरिन्द्रियजातय इत्यर्थः, इत्येतासां नवानां प्रकृतीनां साखादनेऽन्त उदयमाश्रित्य भवति / इयमत्र भावना-अनन्तानुबन्धिनामुदये हि सम्यक्त्वलाभ एव न भवति / यदाहुः श्रीभद्रबाहुखामिपादाः . पैढमिल्लयाण उदए, नियमा संजोयणाकसायाणं / सम्मइंसणलं , भवसिद्धीया वि न लहंति // (आ० नि० गा० 108) * नापि सम्यग्मिथ्यात्वं कोऽप्यनन्तानुबन्ध्युदये गच्छति, योऽपि पूर्वपतिपन्नसम्यक्त्वोऽ. नन्तानुबन्धिनामुदयं करोति सोऽपि साखादन एव भवतीत्युत्तरेष्वासामुदयाभावः / स्थावरैकेन्द्रियजातिविकलेन्द्रियजातयस्तु यथाखमेकेन्द्रियविकलेन्द्रियवेद्या एव / उत्तरगुणस्थानानि तु संज्ञिाश्चेन्द्रिय एव प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नोऽपि पञ्चेन्द्रियेष्वेव गच्छतीत्युत्तरेष्वासामुदया. भाव इति // 14 // मीसे सयमणुपुव्वीणुदया मीसोदएण मीसंतो। चउसयमजए सम्माणुपुग्विखेवा बियकसाया // 15 // "मिश्रे' सम्यग्मिध्यादृष्टौ शतमुदये भवति, कथम् ! इत्याह-"अणुपुषीणुदय" ति, इहानुपूर्वाशब्देन तिर्यगानुपूर्वीमनुजानुपूर्वीदेवानुपूर्वीलक्षणा आनुपूर्वीत्रयी गृह्यते तस्या अनुद. यात् मिश्रोदयेन च / अयमत्र भावः-नरकानुपूर्वी तावद् उदयमाश्रित्य साखादने व्यवच्छिन्ना, इह सा न गृह्यते; शेषमानुपूर्वी त्रिकं मिश्रदृष्टेनोंदेति, तस्य मरणाभावात् "ने सम्म १°व्युद° स्व० ग०॥ 2 नरकानुपूर्व्याः सासादनसम्यक्त्वे भवति न घुदयः / नरकं यत्र गच्छति अपनीयते तेन सा तस्य // 3 प्रथमानामुदये नियमात् संयोजनाकषायाणाम् / सम्यग्दर्शनलाभं भवपिदिका अपि न लभन्ते // 4 न सम्यग्मिश्रः करोति कालम् // Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपैतः - [गाथा मीसो कुणइ कालं" इति वचनात् ; मिश्रप्रकृतिः पुनरोदये प्राप्यते, ततः साखादनव्यबच्छिन्नं प्रकृतिनवकमानुपूर्वीत्रिकं च पूर्वोकैकादशशताद अपनीयते शेषा तिष्ठति प्रकृतीनां नवनवतिः, तत्र मिश्रप्रकृतिप्रक्षेपे जातं शतमिति / "मीसंतु" ति मिश्रगुणस्थाने मिश्रप्रकृतेरन्तो भवति, एतदुदये हि मिश्रदृष्टिरेव भवति नान्य इति / “चउसयमजए सम्माणुपुचिखेव" ति चतुर्भिरधिकं शतं चतुःशतमुदये भवति, क! इत्याह-'अयते' अविरतसम्यग्दृष्टौ, कथम् ! इत्याह-"सम्म" ति सम्यक्त्वं "अणुपुवि" ति आनुपूर्व्यश्चतस्रस्तासां क्षेपात्-प्रक्षेपात् / इदमुक्तं भवति-पूर्वोक्तशताद् मिश्रगुणस्थानव्यवच्छिन्नैका मिश्रप्रकृतिरपनीयते, शेषा नवनवतिः, तत्र सम्यक्त्वानुपूर्वीचतुष्कलक्षणं प्रकृतिपञ्चकं क्षिप्यते जातं चतुःशतम् , यतः सम्यक्त्वमत्र गुणे उदयत एव, तथाऽविरतसम्यग्दृशां यथाखं चतस्रोऽप्यानुपूर्व्य इति / "वियकसाय" ति द्वितीयकषायाः-अप्रत्याख्यानावरणाश्चत्वारः क्रोध. मानमायालोमाः // 15 // . मणुतिरिणुपुव्वि विउवाढ दुहग अणइजदुग सतरछेओ। . सगसीह देसि तिरिगइआउ निउज्जोय तिकसाया // 16 // "मणुतिरिणुपुति" ति आनुपूर्वीशब्दस्य प्रत्येकं योजनाद् मनुजानुपूर्वी तिर्यगानुपूर्वी "विउवऽg" ति वैक्रियाष्टक-वैक्रियशरीरवैक्रियाङ्गोपाङ्गदेवगतिदेवानुपूर्वीदेवायुर्नरकगतिनरकानुपूर्वीनरकायुर्लक्षणं दुर्भगम् अनादेयद्विकम्-अनादेयाऽयश कीर्तिरूपम् इत्येतासां सप्तदशप्रकृतीनामविरतसम्यग्दृष्टावुदयं प्रतीत्य च्छेदो भवति / तत इमाः सप्तदश प्रकृतयः पूर्वोक्तचतुःशताद् अपनीयन्ते शेषा “सगसीइ देसि" ति सप्ताशीतिः "देसि" ति देशविरते उदये भवति / इदमत्र तात्पर्यम्-द्वितीयकषायोदये हि देशविराम आगमे निषिद्धः; यदागमः बीयकसायाणुदए, अप्पञ्चक्खाणनामधिज्जाणं / . सम्मइंसणलंभ, विरयाविरयं न उ लहंति // (आ० नि० गा० 109) नापि पूर्वप्रतिपन्नदेशविरत्यादेर्जीवस्य तदुदयसम्भवस्तेनोत्तरेषु तदुदयाभावः; मनुजानुपूर्वीतिर्यगानुपूर्योस्तु परभवादिसमयेषु त्रिष्वपान्तरालगतावुदयसम्भवः, स च यथायोगं मनुजतिरश्या वर्षाष्टकाद् उपरिष्टात् सम्भविषु देशविरत्यादिगुणस्थानेषु न सम्भवति, देवत्रिक नारकत्रिकं च देवनारकवेद्यमेव, न च तेषु देशविरत्यादेः सम्भवः, वैक्रियशरीरवैकि. यानोपाननाम्नोस्तु देवनारकेषूदयः, तिर्यग्मनुष्येषु तु प्राचुर्येणाऽविरतसम्यग्दृश्यन्तेषु; यस्तू. चरगुणस्थानेष्वपि केषाश्चिदागमे विष्णुकुमारस्थूलभद्रादीनां वैक्रियद्विकस्योदयः श्रूयते स प्रविरलतरत्वादिना केनापि कारणेन पूर्वाचाने विवक्षित इत्यस्माभिरपि न विवक्षित इति; दुर्भगमनादेयद्विकमित्येतास्तु तिस्रः प्रकृतयो देशविरत्यादिषु गुणप्रत्ययाद् नोदयन्त इत्येता अविरते व्यवच्छिन्ना इति / “तिरिगइआउ" ति तिर्यक्शब्दस्य प्रत्येक योगात् तिर्यग्गतिस्तिर्यगायुः "निउज्जोय" ति नीचैर्गोत्रमुद्योतं च "तिकसाय" ति तृतीयाः कषाया 1 द्वितीयकषायाणामुदये अप्रत्याख्याननामधेयानाम् / सम्यग्दर्शनलाभं विरताविरतं न तु लभन्ते // २°त इति / दुर्भ० क० घ० 0 // Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16-18] कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / स्त्रिकषाया मयूरव्यंसकादित्वात् पूरणप्रत्ययलोपी समासः, प्रत्याख्यानावरणाश्चत्वारः क्रोधमानमायालोमाः // 16 // ____ अच्छेओ इगसी, पमत्ति आहारजुगलपक्खेवा। थीणतिगाहारगदुगछेओ छस्सयरि अपमत्ते // 17 // - पूर्वोक्ताष्टप्रकृतीनां देशविरते उदयमाश्रित्य च्छेदो भवति, ततः प्रमत्ते एकाशीतिर्भवति, आहारकयुगलप्रक्षेपात् / इदमत्र हृदयम्-तिर्यग्गतितिर्यगायुषी तिर्यग्वेद्य एव, तेषु च देशविरतान्तान्येव गुणस्थानानि घटन्ते नोत्तराणीत्युत्तरेषु तदुदयाभावः; नीचैर्गोत्रं तु तिर्यग्गतिखाभाव्याद् ध्रुवोदयिकं न परावर्तते, ततश्च देशविरतस्यापि तिरश्चो नीचेर्गोत्रोदयोऽस्त्येव, मनुजेषु पुनः सर्वस्य देशविरतादेर्गुणिनो गुणप्रत्ययाद् उच्चैर्गोत्रमेवोदेतीत्युत्तरत्र नीचैर्गोत्रोदयाभावः, उद्योतनाम खभावतस्तिर्यग्वेद्यम् , तेषु च देशविरतान्तान्येव गुणस्थानानि नोत्तराणीत्युत्तरेषु तदुदयाभावः, यद्यपि यतिवैक्रियेऽप्युद्योतनामोदेति "उत्तरदेहे च देवजई" इति वचनात् तथापि स्वल्पत्वादिना केनापि कारणेन पूर्वाचार्यैर्न विवक्षितमित्यस्माभिरपि न विवक्षितम् ; तृतीयकषायोदये हि चारित्रलाम एव न भवति, उक्तं च पूज्यैः तेइयकसायाणुदए, पञ्चक्खाणावरणनामधिज्जाणं / देसिक्कदेसविरई, चरित्तलंभं न उ लहंति // (आ० नि० गा० 110) न च पूर्वप्रतिपन्नचारित्रस्य तदुदयसम्भव इत्युत्तरेषु तदुदयाभाव इत्येता अष्टौ प्रकृतयः पूर्वोक्तसप्ताशीतरपनीयन्ते शेषा एकोनाशीतिः, तत आहारकयुगलं क्षिप्यते, यतः प्रमत्तयतेराहारकयुगलस्योदयो भवतीत्येकाशीतिः / “थीणतिग" ति स्त्यानचित्रिकं-निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानर्द्धिरूपम् आहारकद्विकम्-आहारकशरीराहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणमिति प्रकृतिपञ्चकस्य प्रमत्ते छेदो भवति, ततः पूर्वोक्तकाशीतेरिदं प्रकृतिपञ्चकमपनीयते शेषा षट्सप्ततिरप्रमते उदये भवति / अयमत्राशयः-स्त्यानद्धित्रिकोदयः प्रमादरूपत्वाद् अप्रमते न सम्भवति, आहारकद्विकं च विकुर्वाणो यतिरौत्सुक्याद् अवश्यं प्रमादवशगो भवत्यत इदमप्यप्रमते उदयमाश्रित्य न जाघटीति, यत्पुनरिदमन्यत्र श्रूयते-प्रमत्तयतिराहारकं विकृत्य पश्चाद् विशुद्धिवशात् तत्रस्थ एवाप्रमत्तां यातीति तत् केनापि खल्पत्वादिना कारणेन पूर्वाचार्यैर्न विवक्षितमित्यस्माभिरपि न विवक्षितमिति // 17 // सम्मत्तंतिमसंघयणतिगच्छेओ विसत्तरि अपुव्वे / 'हासाइछक्कतो, छसहि अनियहि वेयतिगं // 18 // सम्यक्त्वम् अन्तिमसंहननत्रिकम्-अर्धनाराचसंहननकीलिकासंहननसेवार्तसंहननरूपमिस्येतत्प्रकृतिचतुष्टयस्याप्रमचे छेदो भवति, तत इदं प्रकृतिचतुष्कं पूर्वोक्तषट्सप्ततेरपनीयते शेषा द्वासप्ततिः “अपुधि" ति अपूर्वकरणे उदये भवतीति / अयमत्राशयः-सम्यक्त्वे क्षपिते उपशमिते वा श्रेणिद्वयमारुह्यत इत्यपूर्वकरणादौ तदुदयाभावः, अन्तिमसंहननत्रयो 1 उत्तरदेहे च देवयती // 2 तृतीयकषायाणामुदये प्रत्याख्यानावरणनामधेयानाम् / देशैकदेशविरतिं चारित्रलाभं न तु लभन्ते // . हा Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः ( শাখা दये तु श्रेणिमारोढुमेव न शक्यते तथाविधशुद्धेरभावाद् इत्युत्तरेषु तदुदयाभावः / "हासाइछक्कअंतु" चि हास्यमादौ यस्य षट्कस्य तद् हास्यादिषट्कं-हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्साख्यं तस्यान्तोऽपूर्वकरणे भवति, संक्लिष्टतरपरिणामत्वाद् एतस्य, उत्तरेषां च विशुद्धतरपरिणामत्वात् तेषु तदुदयाभाव इति / उत्तरेष्वप्ययमुदयव्यवच्छेदहेतुरनुसरणीयः / तत इदं प्रकृति. षट्कं पूर्वोक्तद्विसप्ततेरपनीयते शेषा "छसहि अनियट्टि" ति षट्षष्टिरनिवृत्तिवादरे भवति, उदयमाश्रित्येति शेषः / “वेयतिगं" ति वेदत्रिकं-स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकवेदाख्यम् // 18 // संजलणतिगं छच्छेओ सहि सुहुमम्मि तुरियलोभंतो। उवसंतगुणे गुणसहि रिसहनारायदुगअंतो॥१९॥ 'संज्वलनत्रिक' संज्वलनक्रोधमानमायारूपमित्येतासां षण्णां प्रकृतीनामनिवृत्तिबादरे छेदो भवति / तत्र स्त्रियाः श्रेणिमारोहन्त्याः स्त्रीवेदस्य प्रथममुदयच्छेदः ततः क्रमेण पुंवेदस्य नपुंसकवेदस्य संज्वलनत्रयस्य चेति, पुंसस्तु श्रेणिमारोहतः प्रथम पुंवेदस्योदयच्छेदस्ततः क्रमेण स्त्रीवेदस्य षण्ढवेदस्य संज्वलनत्रयस्य चेति, षण्डस्य तु श्रेणिमयोहतः प्रथमं षण्ढवेदस्योदयच्छेदस्ततः स्त्रीवेदस्य पुंवेदस्य संज्वलनत्रयस्य चेति / एतत्प्रकृतिषट्कं पूर्वोक्तषट्पष्टेरपनीयते, शेषा "सहि मुहुमम्मि" ति षष्टिः सूक्ष्मसंपराये उदये भवति / अत्र च 'तुर्यलोभान्तः' चतुर्थलोमान्तः संज्वलनलोभव्यवच्छेद इत्यर्थः / तत इयमेका प्रकृतिः षष्टेरपनीयते शेषा. 'उपशान्तगुणे' उपशान्तमोहगुणस्थाने एकोनषष्टिरुदये भवति / "रिसहनारायद्गअंतु" ति ऋषभनाराचद्विकम्-ऋषभनाराचसंहनननाराचसंहननाख्यं तस्यान्त उपशान्तगुणे भवति, प्रथमसंहननेनैव क्षपकश्रेण्यारोहणात् क्षीणमोहादौ तदुदयाभावः / उपशमश्रेणिस्तु प्रथमसंहननत्रयेणारुयते, तत इदं प्रकृतिद्वयं पूर्वोक्तैकोनषष्टेरपनीयते शेषा // 19 // .. .. सगवन्न खीण दुचरमि, निद्ददुगंतो य चरमि पणपन्ना। . नाणंतरायदंसणचउ छेओ सजोगि पायाला // 20 // . सप्तपश्चाशत् "खीण" ति क्षीणमोहस "दुचरिमि" ति द्विचरमसमये-चरमसमयादग् द्वितीये समये निद्राद्विकस्य-निद्राप्रचलाख्यस्य क्षीणद्विचरमसमयेऽन्त इत्येतत् प्रकृतिद्वयं पूर्वो सप्तपञ्चाशतोऽपनीयते ततः "चरमि" चि चरमसमये क्षीणमोहस्सेति शेषः, "पणपक्ष। ति पञ्चपञ्चाशद् उदये भवति / इदमुक्तं भवति-निद्राप्रचलयोः क्षीणमोहस्य द्विचरमसमये उदयच्छेदः / अपरे पुनराहुः-उपशान्तमोहे निद्राप्रचलयोरुदयच्छेदः, पञ्चानामपि निद्राणां घोलनापरिणामे भवत्युदयः, क्षपकाणां त्वतिविशुद्धत्वा न निद्रोदयसम्भवः, उपशमकानां पुनरनतिविशुद्धत्वात् स्यादपीति / "नाणंतरायदसणचउ" ति ज्ञानावरणपञ्चकं-मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानावरणरूपम् अन्तरायपञ्चकं-दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायाख्यं वर्शनचतुष्कं-चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणलक्षणमित्येतासां क्षीणमोहचरमसमये छेदो भवति, सदनन्तरं क्षीणमोहत्वाद् इत्येतत्प्रकृतिचतुर्दशकं पूर्वोक्तपञ्चपञ्चाशतोऽपनीयते, शेषकचत्वारिंशत् तीर्थकरनामोदयाच तत्प्रक्षेपे द्वाचत्वारिंशत् सयोगिकेवलिनि भवतीति / एतदेवाह"सजोगि बायाल" ति स्पष्टम् // 20 // Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 19-22] __ कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / तित्थुदया उरलाऽथिरखगइदुग परित्ततिग छ संठाणा। अगुरुलहुवन्नचउ निमिणतेयकम्माइसंघयणं // 21 // - ननु पञ्चपञ्चाशतो ज्ञानावरणपञ्चकाऽन्तरायपञ्चकदर्शनचतुष्कलक्षणप्रकृतिचतुर्दशकापनयन एकचत्वारिंशदेव भवति, ततः कथमुक्तं सयोगिनि द्विचत्वारिंशद्! इत्याह-"तित्थुदय" ति तीर्थोदयात्' तीर्थकरनामोदयादित्यर्थः / यतः सयोग्यादौ तीर्थकरनामोदयो भवति, यदुक्तम् उदए जस्स सुरासुरनरवइनिवहेहिं पूहओ होइ / . तं तित्थयरन्नाम, तस्स विवागो हु केवलिणो // (वृ० क० वि० गा० 149) ततः पूर्वोत्तैकचत्वारिंशति तीर्थकरनाम क्षिप्यते जाता द्विचत्वारिंशत्, सा च सयोगिनि भवतीति। "उरलाऽथिरखगइदंग" ति द्विकशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् औदारिकद्विकम्-औदारिकशरीरौदारिकाङ्गोपाङ्गलक्षणम् अस्थिरद्विकम्-अस्थिराऽशुभाख्यं खगतिद्विकं-शुभविहायोगत्यशुभविहायोगतिरूपम् “परिचतिग" ति प्रत्येकत्रिकम्-प्रत्येकस्थिरशुभाख्यम् "छ संठाण" ति पसंस्थानानि-समचतुरस्रन्यग्रोधपरिमण्डलसादिवामनकुजहुण्डखरूपाणि संस्थानशब्दस्य च पुंस्त्वं प्राकृतलक्षणवशात् , यदाह पाणिनिः खप्राकृतलक्षणे-"लिंगं व्यभिचार्यपि" / "अगुरुलहुवन्नचउ" ति चतुःशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद् अगुरुलघुचतुष्कम्-अगुरुलघूपघातपराघातोच्छासाख्यं वर्णचतुष्कं-वर्णगन्धरसस्पर्शरूपम् "निमिण" ति निर्माणं "तेय" चि तैजसशरीरं "कम्म" ति कार्मणशरीरं “आइसंघयण" ति प्रथमसंहननं-वज्रर्षभनाराचसंहननमित्यर्थः // 21 // दूसर सुसर सायासाएगयरं च तीस वुच्छेओ। बारस अजोगि सुभगाइज्जजसन्नयरवेयणिय // 22 // तसतिग पर्णिदि मणुयाउगइ जिणुच्चं ति चरमसमयंता।. // उदओ सम्मत्तो॥ दुःखरं सुखरं सातं च-सुखम् असातं च-दुःखं सातासाते तयोरेकतरम्-अन्यतरत् सातं वाऽसातं वेत्यर्थः, तेदेतासां त्रिंशतः प्रकृतीनां सयोगिकेवलिन्युदयव्यवच्छदः। तत्रैकतरवेदनीयं यदयोगिकेवलिनि न वेदयितव्यं तत् सयोगिकेवलिचरमसमये व्युच्छिन्नोदयं भवति, पुनरुचरत्रोदयाभावात् / दुःखरसुखरनाम्नोस्तु भाषापुद्गलविपाकित्वाद् वाग्योगिनामेवोदयः, शेषाणां पुनः शरीरपुद्गलविपाकित्वात् काययोगिनामेव / तेन हि योगेन पुद्गलग्रहणपरिणामालम्बनानि, ततस्तेषु गृहीतेष्वेतेषां कर्मणां खखविपाकेनोदयो भवति, तेनाऽयोगिकेवलिनि तद्योगाभावात् तदुदयाभाव इति एतास्त्रिंशत् प्रकृतयः पूर्वोक्तद्विचत्वारिंशतोऽपनीयन्ते, ततः शेषा द्वादश प्रकृतयोऽयोगिकेवलिन्युदयमाश्रित्य भवन्तीति / एतदेवाह-"बारस अजोगि" इत्यादि / द्वादश प्रकृतयोऽयोगिकेवलिनि 'चरमसमयान्ताः' चरमसमयेऽयोगिकेवलिगुणस्थान 1 उदये यस्य सुरासुरनरपतिनिवहैः पूजितो भवति / तत् तीर्थकरनाम तस्य विपाको हि केवलिनः / २तत एता ख०७०॥ क. 12 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा स्यान्तः-व्यवच्छेदो यासां ताश्चरमसमयान्ताः / ता एवाह-सुभगं आदेयं “जस" चि यशःकीर्तिनाम अन्यतरवेदनीयं सयोगिकेवलिचरमसमयव्यवच्छिन्नोद्वरितं वेदनीयमित्यर्थः // 22 // ___ "तसतिगं" ति त्रसत्रिकं-त्रसबादरपर्याप्ताख्यं “पणिदि" ति पञ्चेन्द्रियजातिः "मणुयाउगइ" ति मनुजशब्दस्य प्रत्येकं योगात् मनुजायुर्मनुजगतिः "जिण" ति जिननाम "उच्चं" ति उच्चैर्गोत्रम् इतिशब्दो द्वादशप्रकृतिपरिसमाप्तिद्योतक इति // // इति श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितायां खोपज्ञकर्मस्तवटीकायामुदयाधिकारः समाप्तः // उदयाधिकारमेनं, विवृण्वता यन्मयाऽर्जितं सुकृतम् / दुष्कर्मोदयरहितो, लोकः सर्वोऽपि तेनास्तु // अथ तस्य भगवतः कसिन् गुणस्थाने कियत्यः प्रकृतय उदीरणामाश्रित्य व्यवच्छिन्नाः ! इत्येतदतिदेशद्वारेणाह- . उदउ व्वुदीरणा परमपमत्ताईसगगुणेसु // 23 // उदयवद् उदीरणा पूर्वोक्तशब्दार्था गुणस्थानेषु वक्तव्या / किमुक्तं भवति?-यावतीनां प्रकृतीनामुदयखामी तावतीनामुदीरणाखाम्यपीति / अतिप्रसङ्गनिवृत्त्यर्थमाह-"परमपमचाईसगगुणेसु"ति / 'परं' केवलमियान् विशेषः-अप्रमत्त आदौ येषां तेऽप्रमत्तादयः गुणाःगुणस्थानानि, सप्त च ते गुणाश्च सप्तगुणाः, अप्रमत्तादयश्च ते सप्तगुणाश्च अप्रमत्तादिसप्तगुणास्तेष्वप्रमत्तादिसप्तगुणेषु // 23 // किम् ! इत्याह एसा पयडितिगूणा, वेयणियाऽऽहारजुगल थीणतिगं। मणुयाउ पमत्तंता, अजोगि अणुदीरगो भगवं // 24 // // उदीरणा सम्मत्ता॥ 'एषा' उदीरणा प्रकृतित्रिकेण ऊना-हीना वक्तव्या / इयमत्र भावना-मिथ्यादृष्टेः सप्तदशोतरशतस्योदयः, उदीरणाऽप्येवम् / साखादनस्य एकादशशतस्योदयस्तथैवोदीरणाऽपि / मिश्रस्योदयः शतस्य, उदीरणाऽपि / अविरतसम्यग्दृष्टेरुदयश्चतुरुत्तरशतस्य, तथैवोदीरणा / देशविरतस्य सप्ताशीतेरुदयः, उदीरणाऽपि / प्रमत्तस्यैकाशीतेरुदयः, उदीरणाऽपि च / अप्रमते उदयः षट्सप्ततेः, उदीरणा त्रिसप्ततेः 1 / अपूर्वकरणे उदयो द्विसप्ततेः, उदीरणा एको नसप्ततेः 2 / अनिवृत्तिबादरे उदयः षट्पष्टेः उदीरणा त्रिषष्टेः 3 / सूक्ष्मसम्पराये उदयः षष्टेः, उदीरणा सप्तपञ्चाशतः 4 / उपशान्तमोहे उदय एकोनषष्टेः, उदीरणा षट्पञ्चाशतः 5 / क्षीणमोहे उदयः सप्तपञ्चाशतः, उदीरणा चतुष्पश्चाशतः 6 / सयोगिकेवलिन्युदयो द्विचत्वारिंशतः, उदीरणा एकोनचत्वारिंशत 7 इति / ननु केन प्रकृतित्रिकेणाऽप्रमत्तादिषूदीरणा ऊना: इत्याशझ्याह-"वेयणियाहारजुगल" ति, युगलशब्दस्य प्रत्येकं योजनाद् वेदनीययुगलं-सातवेदनीयाऽसातवेदनीयरूपम् , आहारकयुगलम्-आहारकशरीराहारकाङ्गोपाङ्गलक्षणम् , "थीणतिगं" ति 'स्त्यानर्द्धित्रिक' निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानर्द्धिरूपं, मनुष्यायुः इत्येतासामष्टानां Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23-25] कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / 91 प्रकृतीनां प्रमत्तेऽन्तः-व्यवच्छेद उदीरणां प्रतीत्य यासां ताः प्रमत्तान्ताः / अयमत्र भावार्थ:-स्त्यानचित्रिकं प्रमादरूपत्वाद् अप्रमत्तादिषु नास्त्येव, कुतस्तेषु तदुदीरणा!; आहारकशरीरं च विकुर्वाण औत्सुक्याद् यतिः प्रमत्त एवेति अप्रमत्वादिषु तदपि नास्ति, कुतस्तेषु तदुदीरणा, सातासातमनुजायुषां हि प्रमादसहितेनैव योगेनोदीरणा भवति नान्येनेत्युत्तरेषु न तदुदीरणा / तदयमत्र तात्पर्यार्थः-----उदयमाश्रित्य प्रमत्ते हि स्त्यानर्द्धित्रिकाहारकद्विकाख्यपश्चप्रकृतयो व्यवच्छिद्यन्ते, उदीरणामाश्रित्य पुनः स्त्यानचित्रिकाहारकद्विकसातासातमनुजायुर्लक्षणा अष्टौ प्रकृतय इति मनुजायुःसातासातरूपप्रकृतित्रयेणाऽप्रमत्तादिषु ऊना उदीरणा वाच्येति / 'अयोगी' अयोगिकेवली 'अनुदीरकः' न किमपि कर्मोदीरणया क्षिपति, योगाभावात् , उदीरणा हि योगकृतकरणविशेष इति भगवान् परमप्रयत्नवान् सर्वसंवररूपचारित्रधर्मवान् वेत्यर्थः // 24 // इति श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितायां खोपज्ञकर्मस्तवटीकायामुदीरणाधिकारः समाप्तः // सुकृतं मया यदाप्त, विवृण्वतोदीरणाधिकारमिमम् / तेनास्तु सर्वलोको, दुष्कर्मोदीरणारहितः // अथ सत्तालक्षणकथनपूर्वकं यथा तेन भगवता त्रिलोकीपतिना श्रीमद्वर्धमानखामिना सत्तामाश्रित्य गुणस्थानेषु कर्माणि क्षपितानि तथा प्रतिपादयन्नाह सत्ता कम्माण ठिई, बंधाईलद्धअत्तलाभाणं / - संते अडयालसयं, जा उवसमु विजिणु बियतइए // 25 // सत्ता उच्यत इति शेषः, किम् ? इत्याह-'कर्मणां' ज्ञानावरणादियोग्यपरमाणूनां स्थितिः अवस्थानं सद्भाव इति पर्यायाः। किंविशिष्टानां कर्मणाम् ? इत्याह-'बन्धादिलब्धात्मलाभाना' तत्र मिथ्यात्वादिभिर्हेतुभिः कर्मयोग्यपुद्गलैरात्मनो वययःपिण्डवद् अन्योऽन्यानुर्गमाभेदात्मकः सम्बन्धो बन्धः, आदिशब्दात् सङ्कमकरणादिपरिग्रहः, ततो बन्धादिमिर्लब्धःप्राप्त आत्मलाभः-आत्मखरूपं यैस्तानि बन्धादिलब्धात्मलाभानि तेषां बन्धादिलब्धात्मलाभानां कर्मणां या स्थितिः सा सत्ता, तस्यां "संते" ति सत्कर्मणि-सत्तायामष्टाचत्वारिंशं शतं प्रकृतीनां भवति / कियन्ति गुणस्थानानि यावद् ! इत्याह-"जा उवसमु" ति 'यावदुपशमम्' उपशान्तमोहम् / अयमर्थः-मिथ्यादृष्टिगुणस्थानात् प्रभृत्युपशान्तमोहगुणस्थानं यावदष्टाचत्वारिंशं शतं सत्तायां भवति / किमविशेषेण ! नेत्याह-"विजिणु बियतइए" ति विगतं जिननाम यस्मात् तद् विजिनं जिननामविरहितं तदेवाष्टाचत्वारिंशं शतं भवति / क! इत्याह-द्वितीये-साखादने तृतीये-मिश्रदृष्टौ, “सासणमिस्सरहिएसु वा तित्थं" इति वचनात् साखादनमिश्रयोः सप्तचत्वारिंशं शतं भवतीत्यर्थः / इदमत्र हृदयम्-इह मिथ्यादृष्टरष्टचत्वारिंशमपि शतं सत्तायाम् ; यदा हि प्राग्बद्धनरकायुः क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वमवाप्य तीर्थकरनाम्नो बन्धमारभते तदाऽसौ नरकेषूत्पद्यमानः सम्यक्त्वमवश्यं वमतीति मिथ्यादृष्टे१°तः कर° ग० उ०॥ २°गमोऽमे° उ०॥ 3 सास्वादन मिश्ररहितेषु वा तीर्थकरम् // Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा तीर्थकरनानोऽपि सत्ता सम्भवति; साखादनमिश्रयोस्तु तस्मिन्नेव जिननामरहिते सप्तचत्वारिंशं शतं सत्तायां, जिननामसत्कर्मणो जीवस्य तद्भावाऽनवाप्तेः, तद्वन्धारम्भस्य च शुद्धसम्यक्त्वप्रत्ययत्वात् / यदुक्तं बृहत्कर्मस्तवभाष्ये तित्थयरेण विहीणं, सीयालसयं तु संतए होइ / सासायणम्मि उ गुणे, सम्मामीसे य पयडीणं // (गा० 25) अविरतसम्यग्दृष्ट्यादीनामक्षिप्तदर्शनसप्तकानामष्टचत्वारिंशस्यापि शतस्य सत्ता सम्भवतीति // 25 // .. . . . अप्पुव्वाइचउक्के, अण तिरिनिरयाउ विणु पिआलसयं / सम्माइचउसु सत्तगखयम्मि इगचत्तसयमहवा // 26 // - गाथापर्यन्तवय॑थवाशब्दस्य सम्बन्धात् पूर्व तावदष्टचत्वारिंशं शतं सत्तायामुक्तम् , अथवाऽयमपरः सत्तामाश्रित्य भेदः, तथाहि-'अपूर्वादिचतुष्के' अपूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहरूपे "अण" ति अनन्तानुबन्धिचतुष्कं "तिरिनिरयाउ" ति आयु:शब्दस्य प्रत्येकं योगात् तिर्यगायुर्नरकायुश्च विना द्विचत्वारिंशं शतं भवतीति / अयमाशयः-यः कश्चिद् विसंयोजितानन्तानुबन्धिचतुष्को बद्धदेवायुमनुजायुषि वर्तमान उपशमश्रेणिमारोहति, तस्य तिर्यगायुर्नरकायुरनन्तानुबन्धिचतुष्कलक्षणप्रकृतिषट्करहितं शेषं द्विचत्वारिंशं शतं सत्तायां प्राप्यते / यदुक्तं वृहत्कर्मस्तवभाष्ये अणतिरिनारयरहियं, बायालसयं वियाण संतम्मि / उवसामगस्सऽपुबानियट्टि सुहुमो व संतम्मि // (गा० 26) "सम्माइचउसु" ति सम्यक्त्वादिचतुर्षु-अविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमतेषु "सत्तगखयम्मि" ति अनन्तानुबन्धिचतुष्कमिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वलक्षणसप्तकक्षये सत्येकचत्वारिंशं शतमथवा सतायां भवति / इहाप्यथवाशब्द आवृत्त्या योज्यते / यदुक्तं बृहत्कर्मस्तवस्त्रे अणमिच्छमीससम्मं, अविरयसम्माइअप्पमत्ता / (गा० 6) इति // 26 // खवगं तु पप्प चउसु वि, पणयालं नरयतिरिसुराउ विणा। सत्तग विणु अडतीसं, जा अनियही पढमभागो // 27 // क्षपकं 'तुः पुनरर्थे, क्षकं पुनः 'प्रतीत्य' आश्रित्य 'चतुर्ध्वपि' अविरतदेशविरतपमताप्रमचेषु "पणयालं" ति पञ्चचत्वारिंशं शतमथवा भवति / अथवाशब्द इहापि सम्बध्यते / कथम् ! इत्याह-"नरयतिरिसुराउ विण" ति, आयुःशब्दस्य प्रत्येकं योगात् नरकायुस्तिर्यगायुः सुरायुर्विना-अन्तरेण / इदमुक्तं भवति-यो जीवो नारकतिर्यक्सुरेषु चरमं तद्भवमनुभूय मनुष्यतयोत्पन्नस्तस्य नारकतिर्यक्सुरायूंषि खखभवें व्यवच्छिन्नसत्ताकानि जातानि, पुनस्त 1 तीर्थकरेण विहीनं सप्तचत्वारिंशं शतं तु सत्तायां भवति / साखादने तु गुणे सम्यग्मिश्रे च प्रकृतीनाम् // 2 अनतिर्यनारकरहितं द्वाचवारिंशं शतं विजानीहि सत्तायाम् / उपशामकस्य अपूर्वस्याऽनिवृत्तेः सूक्ष्मस्य (अपूर्वस्पत्यादी विभक्तिव्यत्ययात्षष्ठी) वा सत्तायाम् (अनेसनेनानन्तानुबन्धिचतुष्कं गृह्यते ) // 3 अनमिथ्यामिधसम्यक् अविरतसम्यक्ताचप्रमत्तान्तम् // (अत्राप्यनेत्यनेनानन्तानुबन्धिचतुष्क।) ४°पकजिन पुख.ग०॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26-29] कर्मस्तवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः / दनवाप्तेः / उक्तं च सुरनरयतिरियआउं, निययभवे सधजीवाणं / (बृ० क० स्त० गा०६) इति / इयं चैतेषु गुणस्थानेषु सामान्यजीवानां सम्भवमाश्रित्य सत्ता वर्णिता, न त्वधिकृतस्तवस्तुत्यस्य चरमजिनपरिवृढस्य, अस्याः सुरनारकतिर्यगायुःसम्भवापेक्षणीयत्वाद्, जिनस्य च तदसम्भवात् , तस्यापि च प्राग्भवापेक्षया सम्भवो वाच्यः / इदमेव पञ्चचत्वारिंशं शतं सप्तकमनन्तानुबन्धिमिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वाख्यं विनाऽष्टात्रिंशं शतं भवति / कियन्ति गुणस्थानानि यावद् ! इत्याह-"जा अनियट्टी पढमभागु" ति, इहानिवृत्तिबादराद्धाया नव भागाः क्रियन्ते, ततोऽविरते देश विरते प्रमत्तेऽप्रमते निवृत्तिबादरेऽनिवृत्तिबादरस्य च प्रथमो भागखावदष्टात्रिंशं शतं भवति / उक्तं च . 'संते अडयालसयं, खवगं तु पडुच्च होइ पणयालं / आउतिगं नत्थि तहिं, सत्तगखीणम्मि अडतीसं // (बृ०. क० स्त० भा० गा० 29) पैणयालं अडतीस, अविरयसम्माउ अप्पमत्तु ति / अप्पुवे अडतीसं, नवरं खवगम्मि बोधवं // __ अथ क्षपकश्रेणिमधिकृत्याऽनिवृत्तिबादरादिषु प्रकृतिषु सत्ता वर्ण्यते उपशमश्रेणिसत्तायास्त्विह नाधिकार इति __थावरतिरिनिरयायवदुग थीणतिगेग विगल साहारं / - सोलखओ दुवीससयं, बियंसि बियतियकसायंतो // 28 // इहानिवृत्तिबादरस्य प्रथमे भागेऽष्टत्रिंशं शतं सत्तायां भवति / तत्र च "थावरतिरिनिरयाय. वदुग" ति द्विकशब्दस्य प्रत्येकं योगात् स्थावरद्विकं-स्थावरसूक्ष्मलक्षणम्, तिर्यद्विकं-तिर्यगतितिर्यगानुपूर्वीरूपम् , नरकद्विकं-नरकगतिनरकानुपूर्वीलक्षणम् , आतपद्विकम्-आतपोद्योताख्यम् , “थीणतिग" ति स्त्यानर्द्धित्रिकं-निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानर्द्धिलक्षणम् , "इग" ति एकेन्द्रियजातिः, “विगल" ति विकलेन्द्रियीतयः-दीन्द्रियजातित्रीन्द्रियजातिचतुरिन्द्रियजातिलक्षणोंः, "साहारं" ति साधारणनाम इत्येतासां षोडशानां प्रकृतीनां क्षयः सत्ता. माश्रित्य भवति / ततोऽनिवृत्तिवादरस्य 'यंशे' द्वितीयभागे द्विविंशं शतं भवति / तत्र "बियतियकसायं तु" ति कषायशब्दस्य प्रत्येक योगाद् द्वितीयकषायाः-अप्रत्याख्यानावरणाश्चत्वारः, तृतीयकषायाः-प्रत्याख्यानावरणाश्चत्वार इत्येतासामष्टानां प्रकृतीनामन्तः-क्षयः / ततस्तृतीयांशे चतुर्दशशतं भवतीति // 28 // एतदेवाह. तइयाइसु चउदसतेरवारछपणचउतिहिय सय कमसो। नपुइत्थिहासछगपुंसतुरियकोहमयमायखओ // 29 // 1 सुरनरकतिर्यगायुर्निजकभवे सर्वजीवानाम् // 2 सत्तायामष्टचत्वारिंशं शतं क्षपकं तु प्रतीस भवति पञ्चचलारिंशम् / आयुत्रिकं नास्ति तत्र सप्तके क्षीणेऽष्टात्रिंशम् // 3 पञ्चचवारिंशमष्टाविंशमविरतसम्यक्खादप्रमत्त इति / अपूर्वेऽष्टात्रिंशं नवरं क्षपके बोद्धव्यम् // ४°जातिः-दीक० घ०॥ ५°णा 'साक० 10 // Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 चतखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा तृतीयादिषु भागेषु चतुर्दश च त्रयोदश च द्वादश च षट् च पञ्च च चत्वारि च त्रीणि चेति द्वन्द्वः, तैरधिकं शतम् , “तिहिय सय" इत्यत्राकारलोपो विभक्तिलोपश्च प्राकृतत्वात् , 'क्रमशः' क्रमेण सत्तायां भवति / कथम् ! इत्याह-"नपुइत्थि" इत्यादि / नपुं च-नपुंसकवेदः स्त्री च-स्त्रीवेदः हास्यषट्कं च-हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्साख्यं पुमांश्च-पुंवेदः नपुंस्त्रीहास्यषट्कपुमांसः, क्रोधश्च-कोपः मदश्च-मदो मानोऽहकार इति पर्यायाः माया चनिकृतिः क्रोधमदमायाः, तुर्याः-चतुर्थाः संज्वलनाः क्रोधमदमायास्तुर्यक्रोधमदमायाः, नपुंस्त्रीहास्यषदकपुमांसश्च तुर्यक्रोधमदमायाश्च नपुंस्त्रीहास्यषट्क'तुर्यक्रोधमदमायाः, तासां क्षयो नपुंस्त्रीहास्यषट्क'तुर्यक्रोधमदमायाक्षयः / 'मायखओ' इत्यत्र हखत्वं “दीर्घहखौ मिथो वृत्तौ" (सि०८-१-४) इत्यनेन प्राकृतसूत्रेण / इति गाथाक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्-अनिवृतिबादरस्य तृतीये भागे द्वितीयतृतीयकषायाष्टकक्षये चतुर्दशाधिकं शतम् , चतुर्थभागे नपुंसकवेदक्षये त्रयोदशाधिकं शतम् , पञ्चमे भागे स्त्रीवेदक्षये द्वादशाधिकं शतम् , षष्ठे भागे हास्यषट्कक्षये षडधिकं शतम् , सप्तमे भागे पुंवेदक्षये पञ्चाधिकं शतम् , अष्टमे भागे संज्वलनकोधक्षये चतुरधिकं शतम् , नवमे भागे संज्वलनमानक्षये त्र्यधिकं शतम् , संज्वलनमायाक्षये तु ब्यधिकं शतं सत्चायां भवति / तच्च सूक्ष्मसम्पराये // 29 // तथा चाह सुहुमि दुसय लोहंतो, खीणदुचरिमेगसय दुनिद्दखओ। नवनवइ चरमसमए, चउदंसणनाणविग्धंतो // 30 // "सुहुमि" ति सूक्ष्मसम्पराये 'द्विशतं' द्वाभ्यामधिकं शतं सत्तायां भवति / तत्र च 'लोभान्तः' संज्वलनलोभस्य क्षयः / ततः “खीणदुचरिमेगसउ" ति क्षीणमोहद्विचरमसमये 'एकशतम्' एकाधिकं शतं सत्तायाम् / तत्र च "दुनिद्दखउ" ति निद्राप्रचलयोर्द्वयोः क्षयो भवति, ततो नवनवतिश्चरमसमये क्षीणमोहगुणस्थानस्येति शेषः / तत्र चत्वारि च तानि दर्शनानि च चतुर्दर्शनानि-चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणाख्यानि, ज्ञानानि ज्ञानावरणानिमतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलज्ञानावरणलक्षणानि पञ्च, विनानि-दानलाभभोगोपभोगवीर्यविमरूपाणि पञ्च, तेषामन्तो भवति // 30 // ततः पणसीइ सजोगि अजोगि दुचरिमे देवखगइगंधदुर्ग। . फासह वन्नरसतणुबंधणसंघायपण निमिणं // 31 // पञ्चाशीतिः सयोगिकेवलिनि सत्तायां भवति / ततः "अजोगि दुचरिमे" ति अयोगिकेवलिनि द्विचरमसमये इत्येतासां द्विसप्ततिप्रकृतीनां क्षयो भवति / ता एवाहः-"देवखगइगंधदुर्ग" ति / द्विकशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् देवद्विकं-देवगतिदेवानुपूर्वीरूपम् , खगतिद्विकंशुभविहायोगत्यशुभविहायोगतिरूपम् , गन्धद्विकं-सुरभिगन्धाऽसुरभिगन्धाख्यम्, "फास?" ति स्पर्शाष्टकं-गुरुलघुमृदुखरशीतोष्णस्निग्धरूक्षाख्यम् , “वन्नरसतणुबंधणसंघायपण" ति पञ्चकशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद् वर्णपञ्चकं-कृष्णनीललोहितहारिद्रशुक्लाख्यम् , रसपञ्चकं-तिक्तकटुंकषायाम्लमधुररूपम् , तनुपञ्चकम्-औदारिकवैक्रियाहारकतैजसकार्मणतनुलक्षणम् , एवं तनुनाम्ना बन्धनपञ्चकं सङ्घातनपञ्चकं च वाच्यम् , “निमिण" ति निर्माणमिति // 31 // Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30-34] कर्मविपाकनामा द्वितीयः कर्मग्रन्थः / 95 संघयणअथिरसंठाणछक्क अगुरुलहुचउ अपज्जतं / सायं व असायं वा, परित्तुवंगतिग सुसर नियं // 32 // षट्कशब्दस्य प्रत्येकं योगात् संहननषट्कं-वज्रऋषभनाराचऋषभनाराचनाराचाऽर्धनाराचकीलिकासेवार्तसंहननाख्यम् , अस्थिरषट्कम्-अस्थिराऽशुभदुर्भगदुःखराऽनादेयाऽयशःकीर्तिरूपम्, संस्थानषट्कं-समचतुरस्रन्यग्रोधपरिमण्डलसादिवामनकुञ्जहुण्डसंस्थानाख्यम् , अगुरुलघुचतुष्कम्-अगुरुलघूपघातपराघातोच्छासाख्यम् , अपर्याप्तम् , सातं वाऽसातं वा एकतरवेदनीयं, यदनुदयावस्थम्, “परित्तुवंगतिग" ति त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् प्रत्येकत्रिकं प्रत्येकस्थिरशुभाख्यम् , उपाङ्गत्रिकम्-औदारिकवैक्रियाऽऽहारकाङ्गोपाङ्गरूपम् , सुखरम्, "नियं" ति नीचैर्गोत्रमिति // 32 // बिसयरिखओ य चरिमे, तेरस मणुयतसतिग जसाइज्ज / सुभगजिणुच पणिंदिय सायासाएगयरछेओ // 33 // इत्येतासां द्विसप्ततिप्रकृतीनामयोगिकेवलिद्विचरमसमये सत्तामाश्रित्य क्षयो भवति / ततः पूर्वोक्तपञ्चाशीतेरिमा द्विसप्ततिप्रकृतयोऽपनीयन्ते शेषास्त्रयोदश प्रकृतयोऽयोगिचरमसमये क्षीयन्ते / तथा चाह-"बिसयरिखओ" ति स्पष्टम् / 'चः' पुनरर्थे व्यवहितसम्बन्धश्च / चरमसमये पुनः अयोगिकेवलिनस्त्रयोदशप्रकृतीनां क्षयो भवति / "मणुयतसतिग" ति त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् मनुजत्रिक-मनुजगतिमनुजानुपूर्वीमनुजायुर्लक्षणम् , त्रसत्रिकं-त्रस. बादरपर्याप्ताख्यम् , “जसाइजं" ति यशःकीर्तिनाम आदेयनाम सुभगम् "जिणुच्च" ति जिननाम उच्चैर्गोत्रम् / “पणिदिय" त्ति पञ्चेन्द्रियजातिः सातासातयोरेकतरं तस्य च्छेदः-सत्तामाश्रित्य क्षय इति // 33 // अत्रैव मतान्तरमाह... नरअणुपुब्वि विणा वा, बारस चरिमसमयम्मि जो खविउं / _ पत्तो सिद्धिं देविंदवंदियं नमह तं वीरं // 34 // ___ 'नरानुपूर्वी विना' मनुष्यानुपूर्वीमन्तरेण वाशब्दो मतान्तरसूचको द्वादश प्रकृतीरयोगिकेवलिचरमसमये यः क्षपयित्वा सिद्धि प्राप्तस्तं वीरं नमतेति सण्टकः / अयमत्राभिप्रायःमनुजानुपूर्व्या अयोगिद्विचरमसमये सचाव्यवच्छेदः, उदयाभावात् , उदयवतीनां हि द्वादशानां स्तिबुकसङ्कमाभावात् खानुभावेन दलिकं चरमसयेऽपि दृश्यत इति युक्तस्तासां चरमसमये क्षयः; आनुपूर्वीनाम्नां तु चतुर्णामपि क्षेत्रविपाकित्वाद् भवान्तरालगतावेवोदयस्तेन भवस्थस्य नास्ति तदुदयः, तदुदयाभावाच्चायोगिद्विचरमसमये मनुजानुपूर्व्या अपि सत्ताव्यवच्छेदः, तन्मतेऽयोगिकेवलिनो द्विचरमसमये त्रिसप्ततिप्रकृतीनां चरमसमये [च] द्वादशानां क्षय इति / ततो यो भगवान् मातापित्रोर्दिवङ्गतयोः सम्पूर्णनिजप्रतिज्ञो भक्तिसम्भारम्राजिष्णुरोचिष्णुलोकान्तिकत्रिदशसद्मजन्मभिः पुष्पमाणवकैरिव "सर्वजगज्जीवहियं भयवं तित्थं पवचेहि" (आव० नि० गा० 215) इत्यादिवचोभिर्निवेदिते निष्क्रमणसमये संवत्सरं यावत् निरन्तरं स्थूरचामीकरधारासारैः प्रावृषेण्यधाराधर इवामुद्रदारिद्यसन्तापप्रसरमवनीमण्डलस्योपशमय्य परस्पर 1 सर्वजगज्जीवहितं भगवन् तीर्थ प्रवर्तय // .. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपैतः [गाथा महमहमिकया समायातसुरासुरनरोरगनायकनिकरैः "जय जीव नन्द क्षत्रियवरवृषभ !" इत्यादिवचनरचनया स्तूयमानः सम्प्राप्य ज्ञातखण्डवनं प्रतिपन्ननिरवद्यचारित्रभारः साधिका द्वादशसंवत्सरी यावत् परीषहोपसर्गवर्गसंसर्गमुग्रमधिसह्य परमसितध्यानाऽकुण्ठकुठारधारया सकलघनघातिवनखण्डखण्डनमखण्डमाधाय निर्मलाऽविकलकेवलबलावलोकितनिखिललोकालोकः श्रीगौतमप्रभृतिमुनिपुङ्गवानां तत्त्वमुपदिश्य संसारसरितः सुखं सुखेन समुत्तरणाय भव्यजनानां धर्मतीर्थमुपदाऽयोगिकेवलिचरमसमये त्रयोदश प्रकृतीदश प्रकृती क्षपयित्वा 'सिद्धिं' परमानन्दरूपां प्राप्तः, तं 'नमत' प्रणमत 'वीर' श्रीवर्धमानखामिनम् , किंविशिष्टम् ! 'देवे. न्द्रवन्दितं' देवानां भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकानामिन्द्राः-खामिनो देवेन्द्रास्तैर्वन्दितः शशधरकरनिकरविमलतरगुणगणोत्कीर्तनेन स्तुतः शिरसा च प्रणतः "वदुइ स्तुत्यभिवादनयोः" इति वचनात् , यद्वा पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् देवेन्द्रेण-देवेन्द्रसूरिणा आचा. येण श्रीमञ्जगचन्द्रसूरिचरणसरसीरुहचञ्चरीकेण वन्दितः सकलकर्मक्षयलक्षणाऽसाधारणगुणसङ्कीर्तनेन स्तुतः कायेन च प्रणत इति / 'नमत' इति प्रेरणायां पञ्चम्यन्तं क्रियापदम् , तच्च श्रोतृणां कथञ्चिदनाभोगवशतः प्रमादसम्भवेऽप्याचार्येण नोद्विजितव्यम्, किन्तु मृदुमधुरवचोभिः शिक्षानिबन्धनैः श्रोतृणां मनांसि प्रहाद्य यथार्ह सन्मार्गप्रवृत्चिरुपदेष्टव्या इति ज्ञापना. र्थम् / यदाह प्रवचनोपनिषद्वेदी भगवान् हरिभद्रसूरिः अणुवत्रणाइ सेहा, पायं पावंति जुग्गयं परमं / रयणं पि गुणुक्करिसं, उवेइ सोहम्मणगुणेणं // (पञ्चव० गा० 17) इत्थ य पमायखलिया, पुवब्भासेण कस्स व न हुंति / जो तेऽवणेइ सम्मं, गुरुवणं तस्स सफलं ति // (पश्चव० गा० 18) को नाम सारहीणं, स हुज जो भद्दवाइणो दमए। दुढे वि य जो आसे, दमेइ तं सारहिं विति // (पञ्चव० गा० 19) इति // 34 // // इति श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितायां खोपज्ञकर्मस्तवटीकायां सताधिकारः समाप्तः // // तत्समाप्तौ च समाप्ता लघुकर्मस्तवटीका // .. सत्ताधिकारमेनं, विवृण्वता यन्मयाऽर्जितं सुकृतम् / .. निःशेषकर्मसत्तारहितस्तेनास्तु लोकोऽयम् // 1 अनुवर्तनया शिक्षकाः प्रायः प्राप्नुवन्ति योग्यता परमाम् / रत्नमपि गुणोत्कर्षमुपैति शोधकगुणेन // अत्र च प्रमादस्खलितानि पूर्वाभ्यासेन कस्य वा न भवन्ति / यस्तानि अपनयति सम्यग् गुरुत्वं तस्य सफलमिति // को नाम सारथीनां स भवेद् यो भवाजिनो दमयेत् / दुष्टानपि च योऽश्वान् दमयति सारथिं झवते // Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27 34] कर्मखवाख्यो द्वितीयः कर्मग्रन्थः। // अथ प्रशस्तिः // विष्णोरिव यस्य विभोः, पदत्रयी व्यानशे जगनिखिलम् / कर्ममलपटलमुक्तः, स श्रीवीरो जिनो जयतु // 1 // कुन्दोज्वलकीर्तिभरैः, सुरभीकृतसकलविष्टपाभोगः / शतमखशतविनतपदः, श्रीगौतमगणधरः पातु // 2 // तदनु सुधर्मखामी जम्बूप्रभवादयो मुनिवरिष्ठाः / शुतजलनिधिपारीणाः, भूयांसः श्रेयसे सन्तु // 3 // क्रमात् प्राप्ततपाचार्येत्यभिख्या भिक्षुनायकाः / समभूवन् कुले चान्द्रे, श्रीजगचन्द्रसूरयः // 4 // जगज्जनितबोधानां, तेषां शुद्धचरित्रिणाम् / / विनेयाः समजायन्त, श्रीमद्देवेन्द्रसूरयः // 5 // खान्ययोरुपकाराय, श्रीमद्देवेन्द्रसूरिणा। कर्मस्तवस्य टीकेयं, सुखबोधा विनिर्ममे // 6 // विबुधवरधर्मकीर्तिश्रीविद्यानन्दसूरिमुख्यबुधैः / खपरसमयैककुशलैस्तदैव संशोधिता चेयम् // 7 // यद्गदितमल्पमतिना, सिद्धान्तविरुद्धमिह किमपि शास्त्रे / विद्वद्भिस्तत्त्वज्ञैः, प्रसादमाधाय तच्छोध्यम् // 8 // कर्मस्तवसूत्रमिदं, विवृण्वता यन्मयाऽर्जितं सुकृतम् / सर्वेऽपि कर्मबन्धास्तेन त्रुट्यन्तु जगतोऽपि // 9 // इति खोपक्षटीकोपेतः कर्मस्तवः। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // तपागच्छीयपूज्यश्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितः बन्धस्वामित्वनामा तृतीयः कर्मग्रन्थः। . सावरिका सम्यग् बन्धवामित्वदेशकं वर्धमानमानम्य / बन्धस्वामित्वस्य, व्याख्येयं लिख्यते किश्चित् // इह खपरोपकाराय यथार्थाभिधानं बन्धखामित्वप्रकरणमारिप्सुराचार्यों मङ्गलादिप्रतिपादिकां गाथामाह पंधविहाणविमुकं, वंदिय सिरिवद्धमाणजिणचंदं। . गइयाईसुं वुच्छं, समासओ पंधसामित्तं // 1 // व्याख्या-इह प्रथमाघेन मङ्गलं द्वितीयाधेनाऽभिधेयं साक्षादुक्तम् / प्रयोजनसम्बन्धौ तु सामर्थ्यगम्यौ / तत्र बन्धः-कर्मपरमाणूनां जीवप्रदेशैः सह सम्बन्धस्तस्य विधानं-मिथ्यात्वादिभिर्बन्धहेतुभिर्निर्वर्तनं बन्धविधानं तेने विमुक्तः स तथा तं बन्धविधानविमुक्कं वन्दित्वा श्रीवर्धमानजिनचन्द्रम् 'वक्ष्ये' अभिधास्ये 'समासतः' संक्षेपतो न विस्तरेण, किम् ! इत्याह'बन्धखामित्वं' बन्धः-कर्माणूनां जीवप्रदेशैः सह सम्बन्धस्तस्य खामित्वम्-आधिपत्यं जीवानामिति गम्यते / केषु ? “गइयाईसुं" ति गतिरादिर्येषां तानि गत्यादीनि, आदिशब्दाद् इन्द्रियादिपरिग्रहः, तेषु गत्यादिषु मार्गणास्थानेषु / अत्र चेयं मार्गणास्थानप्रतिपादिका बृहदन्धखामिलगाथा- . गइ 1 इंदिए य 2 काए 3, जोए 4 वेए 5 कसाय 6 नाणे य 7 / / संजम 8 देसण 9 लेसा 10, भव 11 सम्मे 12 सन्नि 13 आहारे 14 // (गा० 2) तत्र गतिश्चतुर्धा-नरकगतिस्तिर्यग्गतिर्मनुष्यगतिदेवगतिरिति 1 / इन्द्रियं स्पर्शनरसनप्राणचक्षुःश्रोत्रभेदात् पञ्चधा, इन्द्रियग्रहणेन च तदुपलक्षिता एकेन्द्रियद्वीन्दियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रिया गृह्यन्ते 2 / कायः षोढा पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायभेदात् 3 / योगः पञ्चदशधा-सत्यमनोयोगः 1 असत्यमनोयोगः 2 सत्यासत्यमनोयोगः 3 असत्यामृषामनोयोगः 4 सत्यवाग्योगः 5 असत्यवाग्योगः 6 सत्यासत्यवाग्योगः 7 असत्यामृषावाग्योगः 8 वैक्रियकाययोगः 9 आहारककाययोगः 10 औदारिककाययोगः 11 वैक्रियमिश्रकाययोगः 12 आहारक १°न विमुक्कं वन्दिक० ग० 10 // Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धखामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः। मिश्रकाययोगः 13 औदारिकमिश्रकाययोगः 14 कार्मणकाययोगः 15 इति / वेदस्त्रिधास्त्रीवेदः पुरुषवेदो नपुंसकवेदश्च 5 / कषायाः क्रोधमानमायालोमाः 6 / ज्ञानं पञ्चधामतिज्ञानं श्रुतज्ञानम् अवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं केवलज्ञानं च, ज्ञानग्रहणेन चाऽज्ञानमपि तत्प्रतिपक्षभूतमुपलक्ष्यते, तच्च त्रिविधम्-मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभङ्गज्ञानं चेति ज्ञानमार्गणास्थानमष्टधा 7 / 'संयमः' चारित्रं तच्च पञ्चधा-सामायिकं छेदोपस्थापनं परिहारविशुद्धिकं सूक्ष्मसम्परायं यथाख्यातं च, संयमग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षमतो देशसंयमोऽसंयमश्च सूच्यत इति संयमः सप्तधा 8 / दर्शनं चतुर्विधम्-चक्षुर्दर्शनम् अचक्षुर्दर्शनम् अवधिदर्शनं केवलदर्शनं च 9 / लेश्या पोटा-कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या च 10 / मन्यः-तारूपानादिपारिणामिकभावात् सिद्धिगमनयोग्यः, भव्यग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षमतोऽमव्योऽपि गृह्यते 11 / सम्यक्त्वं त्रिधा-क्षायोपशमिकम् औपशमिकं क्षायिकं च, सम्यक्त्वग्रहणेन च तत्प्रतिपक्षभूतं मिथ्यात्वं सासादनं मिश्रं च परिगृह्यते 12 / संज्ञी-विशिष्टसरणादिरूपमनोविज्ञानसहितेन्द्रियपश्चकसमन्वितः, तत्प्रतिपक्षभूतः सर्वोऽप्येकेन्द्रियादिरसंज्ञी सोऽपि संज्ञिग्रहणेन सूचितो द्रष्टव्यः 13 / आहारयति ओजोलोमप्रक्षेपाहाराणामन्यतममाहारमित्याहारकः, तत्मतिपक्षमतोऽनाहारकः 11 / ननु ज्ञानादिषु किमर्थमज्ञानादिप्रतिपक्षप्रहणं कृतम्:, उच्यते-चतुर्दशखपि मार्गणास्थानेषु प्रत्येकं सर्वसांसारिकसत्त्वसङ्ग्रहार्थमिति / उक्तरूपेषु गत्यादिषु बन्धवामित्वं वक्ष्ये / तत्र बन्धं च प्रतीत्य विंशत्युत्तरं प्रकृतिशतमविक्रियते / तथाहि-ज्ञानावरणे उत्तरप्रकृतयः पञ्च, दर्शनावरणे नव, वेदनीये द्वे, मोहे सम्यक्त्वमिश्रवर्जा षड्विंशतिः, आयुषि चतस्रः, नानि भेदान्तरसम्भवेऽपि सप्तषष्टिः, गोत्रे द्वे, अन्तराये पञ्च, सर्वमीलने विंशत्युतरं शतमिति एतच्च प्राक् सविस्तरं कर्मविपाके मावितमेव // 1 // सम्पति विंशत्युत्तरशतमध्यगवानामेव वक्ष्यमाणार्थोपयोगित्वेन प्रथम कियतीनामपि प्रकृतीनां सहं पृथक्करोति जिण सुरविउवाहारदु, देवाउ य नरयसुहमविगलतिगं। एगिदि थावराऽऽयव, नपु मिच्छं हुंड छेवढे // 2 // अण मज्झागिइ संघयण, कुखग निय इत्थि दुहगधीणतिगं / उज्जोय तिरिदुर्ग तिरिनराउ नरउरलदुग रिसह // 3 // व्याख्या-जिननाम 1 सुरद्विकं-सुरंगतिसरानुपूर्वीरूपं 3 क्रियद्विकं वैक्रियशरीरवैक्रियानोपाजलक्षणम् 5 आहारकद्विकम्-आहारकशरीरं तदङ्गोपाङ्गं च 7 देवायुष्कं च 8 नरकत्रिकं-नरकगतिनरकानुपूर्वीनरकायुष्करूपं 11. सूक्ष्मत्रिकं सूक्ष्माऽपर्याधसाधारणलक्षणं 1. विकलत्रिकं-द्वित्रिचतुरिन्द्रियजातयः 17 एकेन्द्रियजातिः 18 स्थावरनाम 19 आतपनाम 20 नपुंसकवेदः 21 मिथ्यात्वं 22 हुण्डसंस्थानं 23 सेवार्तसंहननम् 24 // 2 // __"अण" ति अनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोमाः 28 'मध्याकृतयः' मध्यमसंस्थानानिन्यग्रोधपरिमण्डलं सादि वामनं कुब्बं चेति 32 मध्यमसंहननानि-ऋषभनाराचं नाराचम् अर्पनाराचं कीलिका चेति 36 "कुखग" ति अशुमविहायोगतिः 37 नीचैोत्रं 38 बीवेदः Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 देवेन्द्रसूरिविरचितः सावरिकः [गाथा 39 दुर्भगत्रिकं-दुर्भगदुःखराऽनादेयरूपं 12 स्त्यानर्द्धित्रिकं-निद्रानिद्राप्रचलाप्रचलास्त्यानर्द्धिलक्षणम् 45 उद्योतनाम 46 तिर्यद्विकं-तिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीरूपम् 48 तिर्यगायुः 49 नरायुः 50 नरद्विकं-नरगतिनरानुपूर्वीलक्षणम् 52 औदारिकद्विकम्-औदारिकशरीरमौदारिकाङ्गोपाङ्गनाम च 54 वज्रऋषभनाराचसंहननम् 55 इति पञ्चपञ्चाशत्प्रकृतिसङ्ग्रहः॥३॥ अर्थतस्य प्रकृतिसङ्ग्रहस्य यथास्थानमुपयोगं दर्शयन् मार्गणास्थानानां प्रथमं गतिमार्गणास्थानमाश्रित्य बन्धः प्रतिपाद्यते सुरहगुणवीसवजं, इगसउ ओहेण बंधहिं निरया। तित्थ विणा मिच्छि सयं, सासणि नपुचउ विणा छनुई // 4 // . व्याख्या-"जिण सुरविउवाहार" (गा० 2) इत्यादिगाथोक्ताः क्रमेण सुरद्विकायेकोनविंशतिप्रकृतीवर्जयित्वा शेषमेकोत्तरशतमोघेन नारका बध्नन्ति / अयमत्राभिप्रायःएता एकोनविंशतिकर्मप्रकृतीर्बन्धाधिकृतकर्मप्रकृतिविंशत्युत्तरशतमध्याद् मुक्त्वा शेषस्यैकोचरशतस्य नरकगतौ नानाजीवापेक्षया सामान्यतो बन्धः, सुरद्विकायेकोनविंशतिप्रकृतीनां तु भवप्रत्ययादेव नारकाणामबन्धकत्वात् / सामान्येन नरकगतौ बन्धमभिधाय सम्प्रति तस्यामेव मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानचतुष्टयविशिष्टं तं दर्शयति-"तित्थ विणा" इत्यादि / प्रागुक्तमेकोत्तरशतं तीर्थकरनाम विना मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके शतं भवति / एतच्च शतं नपुंसकवेदमिथ्यात्वहुण्डसंस्थानसेवार्तसंहननप्रकृतिचतुष्कं विना सासादनगुणस्थानके षण्णवति रकाणां बन्धे // 4 // विणु अणछवीस मीसे, बिसयरि सम्मम्मि जिणनराउजुया / इय रयणाइसु भंगो, पंकाइसु तित्थयरहीणो॥५॥ व्याख्या-प्रागुक्ता षण्णवतिरनन्तानुबन्ध्यादिपड्विंशतिप्रकृतीविना मिश्रगुणस्थाने सप्ततिः। सैव जिननामनरायुष्कयुता सम्यग्दृष्टिगुणस्थानके द्विसप्ततिः / 'इति' एवं बन्धमाश्रित्य भङ्गः 'रत्नादिषु' रत्नप्रभाशर्कराप्रभावालुकाप्रभाभिधानप्रथमनरकपृथिवीत्रये द्रष्टव्यः / पङ्कप्रमादिषु पुनरेष एव भङ्गस्तीर्थकरनामहीनो विज्ञेयः / अयमर्थः-पङ्कप्रभाधमप्रभातमःप्रभासु सम्यक्त्वसद्भावेऽपि क्षेत्रमाहात्म्येन तथाविधाध्यवसायाभावात् तीर्थकरनामबन्धो नारकाणां नास्तीति; ततस्तत्र सामान्येन शतम् , मिथ्यादृशां च शतम् , सासादनानां षण्णवतिः, मिश्राणां सप्ततिः, अविरतसम्यग्दृष्टीनामेकसप्ततिः / इह सामान्यपदेऽविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थाने च रत्नप्रभादिभजस्तीर्थकरनाम्ना हीन उक्तः / मिथ्यादृश्यादिषु त्रिषु गुणस्थानेषु पुनस्तस्य प्रागेवाऽपनीतत्वात् तदवस्थ एव // 5 // अजिणमणुआउ ओहे, सत्तमिए नरदुगुच्च विणु मिच्छे / इगनवई सासाणे, तिरिआउ नपुंसचउवजं // 6 // व्याख्या-रत्नप्रमादिनरकत्रयसामान्यबन्धाधिकृतकोतरशतमध्याजिननाममनुजायुषी मुक्त्या शेषा नवनवतिरोघबन्धे सप्तमपृथिव्यां नारकाणां भवति / सैव नवनवतिर्नरगतिनरानुपूर्वी रूपनरद्विकोबैगोंविना षण्णवतिमिथ्यादृष्टिगुणस्थाने भवति / सैव षण्णवति स्तिर्यगायुर्नपुंसकवेदमिथ्यात्वहुण्डसंस्थानसेवातसंहननवर्जिता एकनवतिः सासादने सप्तम्यां नारकाणाम् // 6 // Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्धखामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः / अणचउवीसविरहिया, सनरदुगुच्चा य सयरि मीसदुगे। सतरसउ ओहि मिच्छे, पजतिरिया विणु जिणाहारं // 7 // व्याख्या-प्रागुक्ता एकनवतिरनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्विशतिप्रकृतिभिर्विरहिता नरद्विकोचैगोत्राभ्यां च सहिता सप्ततिर्भवति, सा च "मीसदुगे" ति मिश्राऽविरतगुणस्थानद्वये द्रष्टव्या। इह सप्तम्यां नरायुस्तावद् न बध्यत एव, तहन्धाभावेऽपि च मिश्रगुणस्थानकेऽविरतगुणस्थानके च नरद्विकं बध्यते / अयमर्थः-नरद्विकस्य नरायुषा सह नावश्यं प्रतिबन्धो यदुत यत्रैवायुर्बध्यते तत्रैव गत्यानुपूर्वीद्वयमपि, तस्याऽन्यदाऽपि बन्धात्; मिथ्यात्वसासादनयोस्तु कलषाध्यवसायत्वेन नरद्विकं न बध्यते / एवं नरकगतौ बन्धवामित्वं प्रतिपाद्य.अथ तिर्यग्गतौ तदाह-"सतरसउ" इत्यादि / विंशत्युत्तरशतं जिननामाऽऽहारकद्विकं च विना शेषं सप्तदशोत्तरशतमोघे मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने च पर्याप्तास्तिर्यञ्चो बध्नन्ति / अत्रौघे तिरश्चां सत्यपि सम्यक्त्वे भवप्रत्ययादेव तथाविधाध्यवसायाभावात् तीर्थकरनाम्नः सम्पूर्णसंयमाभावाद् आहारकद्विकस्य च बन्धो नास्तीति हृदयम् // 7 // विणु नरयसोल सासणि, सुराउ अण एगतीस विणु मीसे / ससुराउ सयरि सम्मे, बीयकसाए विणा देसे // 8 // व्याख्या-प्रागुक्तं सप्तदशोत्तरशतं नरकत्रिकादिषोडशप्रकृतीविना एकोत्तरशतं सासादने पर्याप्ततिरश्वाम् / एतदेवैकोत्तरशतं सुरायुरनन्तानुबन्ध्याद्यकत्रिंशत्प्रकृतीश्च विना एकोनसततिः, सा मिश्रगुणस्थाने बध्यते / अयं भावार्थः- "सम्मामिच्छट्ठिी आऊबंध पि न करेइ / " इति वचनाद् अत्र सुरनरायुषोरबन्धः, अनन्तानुबन्ध्यादयश्च पञ्चविंशतिप्रकृतयः सासादन एवं व्यवच्छिन्नबन्धाः, तथा मनुष्यास्तिर्यश्चश्च मिश्रगुणस्थानकस्था अविरतसम्यग्ह. ष्टिवद् देवाईमेव बध्नन्ति, तेन नरद्विकौदारिकद्विकवज्रऋषभनाराचानामपि बन्धाभावः / एषैव एकोनसप्ततिः सुरायुषा सहिता सप्ततिः 'सम्यक्त्वे' अविरतगुणस्थानके भवति / सप्ततिः 'द्वितीयकषायैः' अप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभैविना षट्षष्टिदेशविरतगुणस्थाने बध्यते // 8 // अथ तिर्यग्गतिबन्धाधिकार एव ग्रन्थलाघवार्थे मनुष्यगतावपि बन्धं दर्शयति इय चउगुणेसु वि नरा, परमजया सजिण ओहु देसाई। जिणइकारसहीणं, नवसउ अपजत्ततिरियनरा // 9 // व्याख्या-यथा पर्याप्ततिरश्चां मिथ्यादृष्ट्यादिषु चतुर्पु गुणस्थानेषु सप्तदशोत्तरशतादिको बन्ध उक्तः इति' एवं पर्याप्तनरा अपि चतुर्षु-मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्राविरतिगुणस्थानेषु सप्तदशोतरशतादिबन्धखामिनो मन्तव्याः। परम्' अयताः अविरतसम्यग्दृष्टयः पर्याप्तनराः “सजिण" ति अविरतसम्यग्दृष्टिपर्याप्ततिर्यग्बन्धयोग्यसप्ततिर्जिननामसहिता एकसप्ततिखा बन्नन्ति, जिननामकर्मणोऽपि बन्धकत्वात् तेषाम् / “ओहु देसाइ" ति देशविरतादिगुणस्थानकेषु गुणस्थानका माश्रयणे च पर्याप्तनराणां पुनः 'ओघः' सामान्यो बन्धोऽवसेयः / स च कर्मस्तबोक एव / यतः कर्मस्तवग्रन्थे सामान्यतो गुणस्थानकेषु बन्धः प्रतिपादितो न पुनः किञ्चन गत्यादिमा१ सम्यग्मिध्यादृष्टिरायुर्वन्धमपि न करोति // Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 . देवेन्द्रसूरिविरचितः सावरिका [गाथ गणास्थानमाश्रित्य, स चात्र बहुषु स्थानेषुपयोगीति मूलतोऽपि दर्श्यते अभिनवकम्मग्गहणं, बंधो ओहेण तत्थ वीस सयं / तित्थयराहारगद्गवजं मिच्छम्मि सतरसयं // नरयतिग जाइथावरचउ हुंडाऽऽयवछिवट्ठनपुमिच्छं / सोलंतो इगहियसउ, सासणि तिरिथीणदुहगतिगं // अणमज्ञागिइसंघयणचउ निउज्जोय कुखगइत्थि ति / पणवीसंतो मीसे, चउसयरि दुआउय अबंधा // सम्मे सगसयरि जिणाउबंधि वइर मरतिग बियकसाया। उरलदुगंतो देसे, सत्तट्ठी तियकसायंतो // तेवट्ठि पमते सोग अरइ अथिर दुग अजस अस्सायं / वुच्छिज छच्च सच व, नेह सुराउं जया निहूँ // गुणसहि अप्पमचे, सुराउबंधं तु जइ इहागच्छे / अन्नह अट्ठावन्ना, जं आहारगदुगं बंधे // अडवन्न अपुवाइमि, निद्ददुगंतो छपन्न पणभागे / मुरदुग पणिदि सुखगइ, तसनव उरल विणु तणुवंगा // समचउर निमिण जिण वनअगुरुलहुचउ छलंसि तीसंतो। चरिमे छवीसबंधो, हासरईकुच्छमयभेओ // अनियट्टिभागपणगे, इगेगहीणो दुवीसविहबंधो। पुमसंजलणचउण्हं, कमेण छेओ सतर सुहुमे / चउर्दसणुच्चजसनाणविग्घदसगं ति सोलसुच्छेओ। तिसु सायबंध छेओ, सजोगि बंधतुणंतो य // (गाथा 3-12) इति।। एतासां दशानामपि गाथानां व्याख्यानं कर्मस्तवटीकातो बोद्धव्यम् / इत्योषवन्धः / इह कर्मस्तवोक्तगुणस्थानकबन्धाद् नरतिरश्चां मिश्राऽविरतगुणस्थानकयोरयं विशेषःकर्मस्त मिश्रगुणस्थानके चतुःसप्ततिः अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके सप्तसप्ततिः तिरश्चा पुनर्मनुष्यंद्विकौदारिकद्विकवज्रऋषभनाराचसंहननरूपप्रकृतिपञ्चकस्य बन्धाभावाद् मिश्रगुणस्थानके एकोनसप्ततिः, अविरतसम्यग्दृष्टौ सुरायुःक्षेपे सप्ततिः, नराणां तु मिश्रे एकोनसप्ततिः, अविरतसम्यग्दृष्टौ तीर्थकरनामसुरायुःक्षेपे एकसप्ततिः / अस्यां च एकसप्तौ यदि मनुष्यद्विकौदारिकद्विकवज्रऋषभनाराचसंहननप्रकृतिपश्चकं नरायुष्कं च क्षिप्यते तदा कर्मस्वबोका सप्तसप्ततिर्मवत्यविरतगुणस्थानके / तथा कर्मस्तवे देशविरतगुणस्थानके या सप्तपष्टिरुक्ता सा तिरश्चां जिननामरहिता षट्षष्टिर्देशविरतगुणस्थाने भवति / प्रमत्तादीनि गुणस्थानानि तिरश्चा न सम्भवन्ति / नराणां तु सर्वगुणस्थानकसम्भवेन देशविरतादिगुणस्थानकेषु कर्मस्तवोक एवं सर्वोऽप्यन्यूनाधिक ओघबन्धो वाच्यः / ततश्च पर्याप्तनराणां सामान्येन बन्धे विंशत्युतरशतं प्रकृतीनां प्राप्यते, तेषामेव मिथ्यादृशां सप्तदशोत्तरशतम्, सासादनानामेकोतरशतम् , Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9-11] बन्धखामित्वाध्यतृतीयः कर्मग्रन्थः / मिमाणामेकोनसप्ततिः, अविरतसम्यग्दृष्टीनामेकसप्ततिः, देशविरतानां सषष्टिः, प्रमचाना त्रिषष्टिः, अप्रमतानामेकोनषष्टिरष्टपञ्चाशद्वा, निवृत्तिबादराणां प्रथमे भागेऽष्टपञ्चाशत् , भागपञ्चके षट्पञ्चाशत् , सप्तमभागे षड्विंशतिः, अनिवृत्तिबादराणामाचे भागे द्वाविंशतिः, द्वितीये एकविंशतिः, तृतीये विंशतिः, चतुर्थे एकोनविंशतिः, पञ्चमेऽष्टादश च, सूक्ष्मसम्परायाणां सप्तदश, उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिनामेका सातलक्षणा प्रकृतिबंन्धे प्राप्यते, अयोगिनां तु बन्धाभावः / एवमन्यत्राप्योघबन्धः कर्मस्तवानुसारेण भावनीयः / उक्तविर्यमराणां पर्याप्ताना बन्धः, अथ तेषामेवापर्याप्तानां तमाह-"जिणइकारसहीणं" इत्यादि / यदेव नराणामोघबन्धे विंशत्युत्तरशतं तदेव जिननामाघेकादशप्रकृतिहीनं शेषं नवोचरशतमपर्यापतिर्यमरा ओघतो मिथ्यात्वे च बध्नन्ति / यद्यपि करणापर्याप्तो देवो मनुष्यो वा जिननामकर्म सम्यक्त्वप्रत्ययेन बध्नाति तथापीह नराणां लब्ध्याऽपर्याप्तत्वेन विवक्षणाद् न जिननामबन्धः // 9 // तिर्यग्गतौ मनुष्यगतौ च बन्धखामित्वमुक्तम् / साम्प्रतं देवगतिमधिकृत्य तदुच्यते निरय व्व सुरा नवरं, ओहे मिच्छे इगिदितिगसहिया। .. -- कप्पदुगे वि य एवं, जिणहीणो जोइभवणवणे // 10 // व्याख्या-सुरा अपि नारकवद् ओघतो विशेषतश्च तद्वन्धखामिनोऽवगन्तव्याः / नवरमयं विशेषः-ओघे मिथ्यात्वगुणस्थानके च बन्धमाश्रित्य सुरा एकेन्द्रियादित्रिकसहिता द्रष्टव्याः / ततोऽयमर्थः-यो नारकाणामेकोत्तरशतरूप ओघबन्धः स एवैकेन्द्रियजातिस्था. वरनामाऽऽतपनामप्रकृतित्रयसहितः सुराणां सामान्यतो बन्धश्चतुरप्रशतम् , तदेव मिथ्यात्वे जिननामरहितं व्युत्तरशतम् , एतदेवैकेन्द्रियजातिस्थावराऽऽतपनपुंसकवेदमिथ्यात्वहुण्डसेवार्तलक्षणप्रकृतिसप्तकहीनं सासादने षण्णवतिः, षण्णवतिरेवानन्तानुबन्ध्यादिषड्विंशतिप्रकृतिरहिता मिश्रे सप्ततिः, सैव जिननामनरायुष्कयुता द्विसप्ततिस्त्रामविरतसम्यग्दृष्टयो देवा बदन्तीति सामान्यदेवगातेवन्धः / साम्प्रतं देवविशेषनामोच्चारणपूर्वकं तमाह-"कप्पदुगे" इत्यादि / 'कल्पद्विकेऽपि' सौधर्मशानाख्यदेवलोकद्वयेऽपि एवं' सामान्यदेवबन्धवद् बन्धो द्रष्टव्यः / तथाहि-सामान्येन चतुरप्रशतम् , मिथ्यादृशां त्र्यप्रशतम् , सासादनानां षण्णवतिः, मिश्राणां सप्ततिः, अविरतानां द्विसप्ततिः / देवौघो जिननामकर्महीनो ज्योतिष्कमवनपतिव्यन्तरदेवेषु तद्देवीषु च विज्ञेयः, जिनकर्मसत्ताकस्य तेषत्पादाभावेन तत्र तद्वन्यासम्मवात्, ततः सामान्यतस्यधिकशतम् , मिथ्यात्वेऽपि त्र्यधिकशतम्, सासादने षण्णवतिः, मित्रे सप्ततिः, अविरते एकसप्ततिः // 10 // रयण व्व सणकुमाराइ आणयाई उजोयचउरहिया। अपजतिरिय व्व नवसयमिगिंदिपुढविजलतरुविगले // 11 // व्याख्या--सनत्कुमाराद्याः सहस्रारान्ता देवा रत्नप्रभादिप्रथमपृथिवीत्रयनारकवद् बन्धमाश्रित्य द्रष्टव्याः / तद्यथा-सामान्येनैकाप्रशतम् , मिथ्याहशां शतम्, सासादनानां षण्णवतिः, मित्राणां सप्ततिः, अविरतानां द्विसप्ततिः / आनताद्या अवेयकनवकान्ता देवा अपि उद्योतनामतिर्यग्गतितिर्यगानुपूर्वीतिर्यगायुःप्रकृतिचतुष्करहिता रत्नप्रमादिनारकवदेव द्रष्टव्याः, तवः Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 101 देवेन्द्रसूरिविरचितः सावचूरिकः [गाथा सामान्यतः सप्तनवतिं ते बध्नन्ति, मिथ्यादृशः षण्णवतिम् , सासादना द्विनवतिम् , मिश्रेऽविरते चोद्योतादिचतुष्कस्य प्रागेवापनीतत्वात् सम्पूर्ण एव रत्नप्रभादिभङ्गः ततो मिश्राः सप्ततिं अविरता द्विसप्ततिं बध्नन्ति / मिथ्यात्वादिगुणस्थानत्रयाभावात् पश्चानुपरविमानदेवा एतामेवाविरतगुणस्थानकसत्कां द्विसप्ततिं बघ्नन्तीत्यनुक्तमपि ज्ञेयमिति / उक्तं देवगतौ बन्धखामित्वम् , तगणनाञ्च गतिबन्धमार्गणा समाप्ता / साम्प्रतमिन्द्रियेषु कायेषु च तदारभ्यते-"अपज" इत्यादि / अपर्याप्ततिर्यग्वद् नवोत्तरशतमेकेन्द्रियपृथ्वीजलतरुविकलेषु द्रष्टव्यम् / अयमर्थःविंशत्युत्तरशतमध्याद् जिननामाघेकादशप्रकृतीर्मुक्त्वा शेषं नवोत्तरशतमेकेन्द्रिया विकलेन्द्रियाः पृथ्वीजलवनस्पतिकायाश्च सामान्यपदिनो मिथ्यादृशश्च बघ्नन्ति // 11 // अर्थतेषामेव सासादनगुणस्थाने बन्धमाह छनवइ सासणि विणु सहुमतेर केइ पुण बिंति चउनवई। तिरियनराऊहिँ विणा, तणुपजत्तिं न ते जंति // 12 // व्याख्या-प्रागुक्तं नवोत्तरशतं सूक्ष्मत्रिकादिप्रकृतित्रयोदशकं मिथ्यात्व एव व्यवच्छिन्नबन्धमिति कृत्वा तद् विना षण्णवतिः सासादने एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपृथ्वीजलवनस्पतिकायानां . भवति / केचित् पुनराचार्या ब्रुवते चतुर्नवर्ति तिर्यमरायुष्काभ्यां विना, यतस्त एकेन्द्रियविकलेन्द्रियादयः सासादनाः सन्तस्तनुपर्याप्तिं न यान्ति अतस्ते तिर्यमरायुरबन्धकाः / अयं भावार्थ:तिर्यमरायुषोस्तनुपर्याप्त्या पर्याप्तरेव बध्यमानत्वात् पूर्वमतेन शरीरपर्याप्त्युत्तरकालमपि सासादनभावस्थेष्टत्वाद् आयुर्वन्धोऽभिप्रेतः, इह तु प्रथममेव तन्निवृत्तेर्नेष्ट इति षण्णवतिः। तिर्यमरायुषी विना मतान्तरेण चतुर्नवतिः // 12 // उक्त एकेन्द्रियादीनां बन्धः, अथ पञ्चेन्द्रियाणां त्रसकायिकानां च तमाह ओहु पणिदि तसे गइतसे जिणिकार नरतिगुच्च विणा / मणवयजोगे ओहो, उरले नरभंगु तम्मिस्से // 13 // व्याख्या-'ओघः' विंशत्युत्तरशतादिलक्षणः कर्मस्वोक्तः पञ्चेन्द्रियेषु त्रसकायिकेषु चावगन्तव्यः / तद्यथा-सामान्यतो विंशत्युत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम्, सासादने एकोत्तरशतम् , मिश्रे चतुःसप्ततिः, अविरते सप्तसप्ततिः, देशे सप्तषष्टिः, प्रमते त्रिषष्टिः, अप्रमते एकोनषष्टिरष्टपञ्चाशद्वा, निवृत्तिबादरे प्रथमभागेऽष्टपञ्चाशत् , भागपञ्चके षट्पञ्चाशत् , सप्तमभागे षड्विंशतिः, अनिवृतिबादरे आये भागे द्वाविंशतिः, द्वितीये एकविंशतिः, तृतीये विंशतिः, चतुर्थे एकोनविंशतिः, पञ्चमेऽष्टादश, सूक्ष्मे सप्तदश, शेषगुणस्थानत्रये सातस्यैकस्य बन्धः, अयोगिनि बन्धाभावः / गतित्रसाः-तेजोवायुकायास्तेषु जिननामाघेकादशप्रकृतीनरत्रिकमुच्चैोत्रं च विना विंशत्युत्तरं शतं शेषं पञ्चोत्तरं शतं बन्धे लभ्यते, सासादनादिभावस्तु नैषां सम्भवति / यत उक्तम् ने हु किंचि लमिज सुहुमतसा // सूक्ष्मत्रसाखेजोवायुकायजीवा इति / एवमुक्त इन्द्रियेषु कायेषु च बन्धः, सम्प्रति योगेषु न हि किंचिल्लभन्ते सूक्ष्मत्रसाः // Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12-15] ___ बन्धखामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मप्रन्थः / 105 तं प्रतिपादयन्नाह-"मणवयजोगे" इत्यादि / सूचकत्वात् सूत्रस्य सत्यादिमनोयोगचतुष्के तत्पूर्वके सत्यादिवाग्योगचतुष्के च ओघबन्धो विंशत्युत्तरशतादिलक्षणः कर्मस्तवोको ज्ञेयः / तत्र सत्यादिखरूपं त्विदम्-सत्यं यथा अस्ति जीवः सदसपो देहमात्रव्यापीत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुतत्त्वचिन्तनपरम् / सत्यविपरीतं त्वसत्यम् / मिश्रखभावं सत्यासत्यम्, यथा-धवखदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुप्वशोकवृक्षेप्वशोकवनमेवेदमिति विकल्पनापरम् / तथा यद् न सत्यं नापि मृषा तदसत्यामृषा, इह विप्रतिपचौ सत्यां यद् वस्तुप्रतिष्ठासया सर्वज्ञमतानुसारेण विकस्प्यते, यथा अस्ति जीवः सदसद्रूप इत्यादि तत् किल सत्यं परिभाषितम् / यत् पुनर्विप्रतिपचौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठासया सर्वज्ञमतोतीण विकल्प्यते, यथा नास्ति जीव एकान्तनित्यो वा इत्यादि तद् असत्यम् / यत् पुनर्वस्तुप्रतिष्ठासामन्तरेण खरूपमात्रपर्यालोचनपरम् , यथा हे देवदत्त ! घटमानय, गां देहि मह्यमित्यादिचिन्तनपरं तद् असत्यामृषा, इदं खरूपमात्रपर्यालोचनपरत्वाद् न यथोक्तलक्षणं सत्यं भवति नापि मृषेति / इदमपि व्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यम्, निश्चयनयमतेन तु विप्रतारणादिबुद्धिपूर्वकमसत्येऽन्तर्भवति, अन्यथा तु सत्ये / “उरले" ति मनोवाग्योगपूर्वके औदारिककाययोगे नरभक्तः "इय चउगुणेषु वि नरा" (गा० 9) इत्यादिना प्रागुकखरूपः / यथा-ओषे विंशत्युत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोतरशतम् , सासादने एकोत्तरशतम् , मिश्रे एकोनसप्ततिः, अविरते एकसप्ततिः इत्यादि / मनोरहितवाग्योगे विकलेन्द्रियभगः। केवलकाययोगे त्वेकेन्द्रियभङ्गः / “तम्मिस्से" ति तन्मिश्रे' औदारिकमिश्रयोगे // 13 // सम्प्रति बन्ध उच्यते आहारछग विणोहे, चउदससउ मिच्छि जिणपणगहीणं / सासणि चउनवइ विणा, नरतिरिआऊ सुहुमतेर // 14 // - व्याख्या-विंशत्युत्तरशतमाहारकादिप्रकृतिषट्कं विना शेषं चतुर्दशाधिकशतमोघबन्धे प्राप्यते / अयं भावार्थः-औदारिकमिश्रं कार्मणेन सह, तच्चापर्याप्तावस्थायां केवलिसमुद्धातावस्थायां वा; उत्पत्तिदेशे हि पूर्वभवादनन्तरमागतो जीवः प्रथमसमये कार्मणेनैव केवलेनाहारयति, ततः परमौदारिकस्याप्यारब्धत्वादौदारिकेण कार्मणमिश्रेण यावद् शरीरस्य निष्पत्तिः, केवलिसमुद्धातावस्थायां द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु कार्मणेन मिश्रमौदारिकमिति / अपर्याप्पावस्थायां च नाहारकादिषट्कं बध्यते इति तनिषेधः / केवलिसमुद्धातावस्थायां पुनरेकस्य सातस्यैव बन्धोऽभिधास्यते / एतदेव चतुर्दशोत्तरशतमौदारिकमिश्रकाययोगी मिथ्यात्वे जिननामादिप्रकृतिपञ्चकहीनं शेषं नवोत्तर शतं बध्नाति / स एव सासादने चतुर्नवति बनाति, नवोतरशतमध्याद् मुक्त्वा नरतिर्यगायुषी सूक्ष्मत्रिकादित्रयोदशप्रकृतीश्च, नरतिर्यगायुषोरपयाप्तत्वेन सासादने बन्धाभावात् , सूक्ष्मत्रिकादित्रयोदशकस्य तु मिथ्यात्व एव व्यवच्छिन्नबन्धतया च // 14 // अणचउवीसाइ विणा, जिणपणजुय सम्मि जोगिणो सायं / विणु तिरिनराउ कम्मे, वि एवमाहारदुगि ओहो // 15 // व्याख्या-प्रागुका चतुर्नवतिरनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्विशतिप्रकृतीविना जिननामादिप्रकृति क.१४ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * देवेन्द्रसूरिविरचितः सागरिका - [माया पञ्चकयुता च पञ्चसप्ततिस्तामौदारिकमिश्रकाययोगी सम्यक्त्वे बध्नाति / तथा सयोगिन औदारिकमिश्रस्ताः केवलिसमुद्धाते द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु सातमेवैकं बधन्ति / एवं गुणखानकचतुष्क एवौदारिकमिश्रयोगो लभ्यते नान्यत्र / अथ कार्मणयोगादिषु बन्धः प्रतिपाद्यते "विणु तिरि" इत्यादि / यथौदारिकमिश्रे बन्धविधिरोघतो विशेषतश्चोक्तः एवं कार्मणयोगेऽपि तिर्यमरायुषी विना वाच्यः, कार्मणकाययोगे तिर्यमरायुषोन्धाभावात् / कार्मणकाययोगो पपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च जीवस्य मिथ्यात्वसासादनाऽविरतगुणस्थानकत्रयोपेवस्य लभ्यते / उकंच मिच्छे सासाणे वा, अविरयसम्मम्मि अहव गहियम्मि / जंति जिया परलोए, सेसिक्कारस गुणे मुत्तुं // (प्रव० गा० 1306) तथा सयोगिनः केवलिसमुद्धाते तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु चेति गुणस्थानकचतुष्टय एव कार्मणकाययोगो नान्यत्र / ततो विंशत्युत्तरशतमध्याद् आहारकषट्कतिर्यमरायुःप्रकृतीमुक्त्वा शेषस्य द्वादशोपरशतस्स सामान्येन कार्मणकाययोगे बन्धः / तदेव द्वादशोत्तरशतं जिनादि. पञ्चकं विना शेषं सतोत्तरशतं कार्मणकाययोगे मिथ्याहशो बनन्ति / तदेव सप्तोतरशतं सूक्ष्मादित्रयोदश प्रकृतीमुक्त्वा शेषां चतुर्नवति कार्मणयोगे सासादना बघ्नन्ति / चतुर्नवतिरे. वाऽनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्विशतिप्रकृतीविना जिननामादिप्रकृतिपञ्चकसहिता च पञ्चसप्ततिखां कार्मणयोगेऽविरता बध्नन्ति / सयोगिनस्तु कार्मणकाययोगे सातमेकं बघ्नन्ति / तथाऽऽहारककाययोगश्चतुर्दशपूर्वविदः, आहारकमिश्रकाययोगश्च तस्यैवाऽऽहारकशरीरस्य प्रारम्भसमये परित्यागसमये च औदारिकेण सह द्रष्टव्यः / ततः 'आहारकद्विके' आहारकशरीरतन्मिश्रलक्षणे योगद्वये मोघः कर्मस्लवोक्तः प्रमचगुणस्थानवी त्रिषष्टिप्रकृतिबन्धरूपः / एतत् काययोगद्वयं हि कन्ध्युपजीवनात् प्रमत्तस्यैव न त्वपमत्स्य // 15 // सुरओहो बेउव्वे, तिरियनराउरहिओ य तम्मिस्से। यतिगाइम बिय तिय, कसाय नव दुचउ पंच गुणा // 16 // भ्याख्या---'सुरौषः' सामान्यदेवबन्धो वैक्रियकाययोगे द्रष्टव्यः / ववधा-सामान्येन चतुरप्रथतम् , मिथ्यात्वे व्युत्तरशवम् , सासादने षण्णवतिः, मिो समतिः, अविरते द्विसप्ततिः। तथा तन्मिश्रे' वैक्रियामश्रे स एव सुरोपतिर्यमरायुष्करहितो वाच्यः / इह देवनारका निजायुःषण्मासावशेषा एवायुर्वधन्ति, पतो वैक्रियमिश्रयोगे उत्पचिप्रथमसमयादनन्तरमपर्याप्ताकसासम्भविनि आयुयबन्धाभावः। तथा चाऽत्रौधे धुत्तरशतन, मिथ्यात्व एकोचरशतम् , सासादने बतुर्नवतिः, अविरत एकसप्ततिः / वैक्रियमिश्रियोगो मिश्रवा चाऽस्यात्र कार्मणकायेच. सह मन्तव्या / अयमपि च मिथ्यात्वसासादनाऽविरतगुणस्थानकाय एव लभ्यते नान्यत्र / यद्यपि देशविरतस्याऽम्बडादेः प्रमत्स्य तु विष्णुकुमारादेवॆक्रियं कुर्वतो वैक्रियमिश्रवैक्रियसम्भवः श्रयते परं खभावस्थस्य वैक्रिययोगस्याऽत्र गृहीतत्वाद् अथवा खल्पत्वाद् अन्यतो वा मिथ्यात्वे सासादने वाऽविरतसम्यक्त्वेऽयवा गृहीते / यान्ति जीवाः परलोकं शेषकादश गुणस्थानानि मुक्ता॥ १°यभावम्मि बहिगए महवा / प्रवचनसारोद्धारे वेवं पाठः॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16-17] बन्धखामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः / कुतोऽपि हेतोः पूर्वाचार्यैः स नोक्तः / एवं योगेषु बन्धखामित्वमुक्तम् / अब वेदादिषु तद. भिघित्सुः प्रथम गुणस्थानकानि तेष्वाह-"वेयतिग" इत्यादि / 'वेदत्रिके' स्त्रीवेदपुंवेदनपुंसकवेदरूपे 'नव' नवसझ्याकानि “संजलण" इत्याद्यतनगाथा(१७)स्य "पढम" इति पदस्पात्रापि सम्बन्धात् 'प्रथमानि' मिथ्यात्वादीनि अनिवृत्तिबादरान्तानि गुणस्थानकानि भवन्ति, ततः परं वेदानामभावात् / एतेषु यः कर्मस्तवोक्तः सामान्यवन्धः स द्रष्टव्यः / तथवा सामान्यतो नानाजीवापेक्षया विंशत्युत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोतरशतम् , सासादने एकोतरशतम् , मिशे चतुःसप्ततिः, अविरते सप्तसप्ततिः, देश विरते सप्तषष्टिः, प्रमचे त्रिषष्टिः, अप्रमते एकोनषष्टिरष्टपञ्चाशद्वा, निवृत्तिबादरे प्रथमभागेऽष्टपञ्चाशत् , मागपञ्चके षट्पञ्चाशत्, सक्षमभागे षड्विंशतिः, अनिवृत्तिवादरे आधे भागे द्वाविंशतिः, एवमन्यत्रापि गुणस्थानकेषु यथासम्भवं कर्मस्तवोको बन्धो वाच्यः / कषायद्वारे-आयेऽनन्तानुबन्धिक्रोधमानमायालोमरूपे कषायचतुष्के द्वे प्रथमे मिथ्यात्वसासादनाख्ये गुणस्थानके तत्र तीर्थकरबन्धस्य सम्यक्त्वप्रत्ययत्वाद् आहारकद्विकबन्धस्य च संयमहेतुत्वाद् अनन्तानुबन्धिषु तदभावात् सामान्येन सप्त. दशोत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोतरशतम् , सासादने एकोतरशतम् / द्वितीयेऽप्रत्याख्यानाख्ये कषायचतुष्के चत्वारि प्रथमानि मिथ्यात्वसासादनमिश्राऽविरतनामकानि गुणवानकानि, तत्राहारकद्विकबन्धाभावेन सामान्येन अष्टादशोत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् , सासादने एकोत्तरशतम् , मिश्रे चतुःसप्ततिः, अविरते सप्तसप्ततिः / तृतीये प्रत्याख्यानावरणाख्ये कषाय. चतुष्के पञ्च आद्यानि मिथ्यात्वादीनि देशविरतान्ताने गुणस्थानकानि, देशविरते सतषष्टिः, शेषाणि तथैव // 16 // संजलणतिगे नव दस, लोभे चउ अजइ दुति अनाणतिगे। . पारस अचक्खुचक्खुसु, पढमा अहखाइ चरमचऊ // 17 // व्याख्या-'संज्वलनत्रिके' संज्वलनक्रोधमानमायारूपे नवाऽऽद्यानि गुणस्थानकानि / तत्र सामान्यवन्धाद् निवृत्तिबादरं यावद् वेदत्रिकन्यायेन विंशत्युतरशतादिको बन्धः, अनिवृत्तिबादरे तु प्रथमे भागे द्वाविंशतिः, द्वितीये पुंवेदरहिता एकविंशतिः, तृतीये संज्वलनकोपर. हिता विंशतिः, चतुर्थे संज्वलनमानरहिता एकोनविंशतिः, पञ्चमे संज्वलनमायारहिता अष्टा. दश / संज्वलनलोभस्य तु सूक्ष्मसम्परायेऽपि भावात् तत्र दश प्रथमानि गुणस्थानानि, तत्र नव तथैव, दशमे तु सूक्ष्मसम्पराये सप्तदश प्रकृतयः / संयमद्वारे-'अयते' असंयते चत्वारि आधानि गुणस्थानानि, तत्र सामान्यतोऽविरतसम्यग्दृष्टेरपि सङ्गृहीतत्वाद् जिननामक्षेपात् सप्तदशोचरशतं जातमष्टादशोत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् , सासादने एकोचरशतम् , मिथे चतुःसप्ततिः, अविरते सप्तसप्ततिः / ज्ञानद्वारे-'अज्ञानत्रिके' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविमगरूपे द्वे मिथ्यात्वसासादने, त्रीणि वा गुणस्थानकानि मिश्रेण सह / अयमाशयः-मिश्रे ज्ञानाशोऽज्ञानांशश्वास्ति, तत्र यदाज्ञानांशप्राधान्यविवक्षा तदाऽज्ञानत्रिके गुणस्थानकद्वयमेव, अज्ञानांशप्राधान्यविवक्षायां तु तृतीयं मिश्रमपि, तत्रौधे सप्तदशोत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोतरशतम् , सासादने एकोतरशतम् मिश्रे चतुःसप्ततिः / दर्शनद्वारे-चक्षुरचक्षुर्दर्शनयोः प्रथमानि Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितः सावचूरिकः [गाथा द्वादश गुणस्थानानि, परतस्तु चक्षुरचक्षुषोः सतोरप्यनुपयोगित्वेनाव्यापारात् / तत्रौधे विंशत्युत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् , इत्यादि यावत् क्षीणमोहे सातबन्ध एकः / यथाख्याते चरमगुणस्थानकचतुष्कम् , तत्र सामान्यत एकः, उपशान्तमोहे एकः, क्षीणमोहे एकः, सयोगिनि एकः, अयोगिनि शून्यम् // 17 // मणनाणि सग जयाई, समय ऐय चउ दुन्नि परिहारे / केवलिदुगि दो घरमाजयाइ नव मइसुओहिदुगे॥१८॥ - व्याख्या-मनःपर्यायज्ञाने सप्त 'यतादीनि' प्रमत्तसंयतादीनि क्षीणमोहान्तानि / तत्र सामान्यत आहारकद्विकसहिता त्रिषष्टिर्जाता पञ्चषष्टिः, प्रमते त्रिषष्टिः इत्यादि यावत् शानमोहे एकः केवलसातबन्धः / सामायिके छेदोपस्थापने च चत्वारि यतादीनि गुणस्थानानि, तत्र सामान्यतः पञ्चषष्टिः, प्रमते त्रिषष्टिरित्यादि प्राग्वत् , सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकादौ तु सूक्ष्मसम्परायादिचारित्रभावात् / तथा द्वे गुणस्थानके' प्रमत्ताप्रमत्तरूपे परिहारविशुद्धिकचारित्रे नोत्तराणि, तस्मिंश्चारित्रे वर्तमानस्य श्रेण्यारोहणप्रतिषेधात् , तत्र सामान्यतः पञ्चषष्टिः, प्रमते त्रिषष्टिः, अप्रमत्ते एकोनषष्टिरष्टपञ्चाशद्वा / 'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे 'द्वे चरमे' अन्तिमे सयोगिकेवल्ययोगिकेवल्याख्ये गुणस्थानके भवतः, अत्रौघे एकस्य सातस्य बन्धः सयोगिनि च, अयोगिनि शून्यम् / तथा मतिश्रुतयोः 'अवधिद्विके' च अवधिज्ञानावघिदर्शनलक्षणे 'अयतादीनि' अविरतसम्यग्दृष्ट्यादीनि क्षीणमोहपर्यवसानानि नव गुणस्थानकानि भवन्ति, सयोग्यादौ केवलोत्पत्त्या मत्यादेरभावात् , तत्रौघतोऽप्रमत्तादेर्मत्यादिमत आहारकद्विकस्यापि बन्धसम्भवाद् एकोनाशीतिः, विशेषचिन्तायामविरतादिगुणस्थानकेषु कर्मस्तवोतः सप्तसप्तत्यादिमितो बन्धो द्रष्टव्यः // 18 // अड उवसमि चउ वेयगि, खइए इकार मिच्छतिगि देसे / सुहुमि सठाणं तेरस, आहारगि नियनियगुणोहो // 19 // व्याख्या-इह 'अयतादि' इति पदं सर्वत्र योज्यते / ततोऽयतादीनि उपशान्तमोहान्तान्यष्टौ गुणस्थानान्यौपशमिकसम्यक्त्वे भवन्ति, तत्र सामान्यत औपशमिकसम्यक्त्वे वर्तमानानां देवमनुजायुषोर्बन्धाभावात् पञ्चसप्ततिः, अविरतेऽपि पञ्चसप्ततिः, देशे सुरायुरबन्धात् षट्षष्टिः, प्रमते द्वाषष्टिः, अप्रमते अष्टपञ्चाशद् इत्यादि यावदुपशान्ते एकः / 'वेदके' क्षायोपशमिकापरपर्यायेऽयतादीन्यप्रमत्तान्तानि चत्वारि गुणस्थानकानि, तत्रौघे एकोनाशीतिः, अविरते सप्तसप्ततिः, देशे सप्तषष्टिः, प्रमचे त्रिषष्टिः, अप्रमत्ते एकोनषष्टिरष्टपञ्चाशद्वा / अतः परमुपशमश्रेणावौपशमिकं क्षपकश्रेणौ पुनः क्षायिकम् , क्षायोपशमिकसम्यक्त्वं तूदीर्णमिथ्यात्वक्षयेऽनुदीर्णमिथ्यात्वोपशमे च भवतीति / उक्तं च 'मिच्छत्तं जमुइण्णं, तं खीणं अणुइयं तु उवसंतं / मीसीभावपरिणयं, वेइज्जतं खओवसमं // (विशेषा० गा० 532) तथा क्षायिकसम्यक्त्वे अयतादीनि अयोगिकेवलिपर्यवसानानि एकादश गुणस्थानकानि, 1 मिध्यावं यद् उदीर्ण तत् क्षीणमनुदितं तूपशान्तम् / मिश्रीभावपरिणतं वेद्यमानं क्षयोपशमम् // Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18-21] बन्धखामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्थः / 109 तत्रौधे एकोनाशीतिः, अविरते सप्तसप्ततिः, देशे सप्तषष्टिः इत्यादि यावदयोगिनि शून्यम् / क्षायिकसम्यक्त्वखरूपं त्विदम् खीणे दंसणमोहे, तिविहम्मि वि भवनियाणभूयम्मि / निप्पञ्चवायमउलं, सम्मतं खाइयं होइ // (श्राव० प्र० गा० 18) तथा 'मिथ्यात्वत्रिके' मिथ्यादृष्टिसाखादन मिश्रलक्षणे 'देशे' देशविरते 'सूक्ष्मे सूक्ष्मसम्पराये 'खस्थानं' निजस्थानम् / अयमर्थः-मिथ्यात्वमार्गणास्थाने मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् , सासा. दनमार्गणास्थाने सासादनगुणस्थानम् , मिश्रमार्गणास्थाने मिश्रगुणस्थानम् , देशसंयममार्गणास्थाने देशविरतगुणस्थानम् , सूक्ष्मसम्परायसंयमे सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् / अत्र च खखगुणस्थानीयो बन्धः, यथा-मिथ्यात्वे ओघतो विशेषतश्च सप्तदशोत्तरशतम् , एवं सासादने एकोपरशतम् , मिश्रे चतुःसप्ततिः, देशे सप्तषष्टिः, सूक्ष्मे सप्तदशः / आहारकद्वारे-त्रयोदश गुणस्थानानि मिथ्यादृष्ट्यादीनि सयोगिकेवल्यन्तानि आहारके जीवे लभ्यन्ते, अयोगी त्वनाहारकः / तत्रौषतः विंशत्युत्तरशतम् , मिथ्यात्वे सप्तदशोत्तरशतम् , इत्यादि यावत् सयोगिनि सातरूपैका प्रकृतिर्बन्धे भवति / एवं वेदादिषु मार्गणास्थानेषु गुणस्थानकान्युपदर्य सम्प्रति तेषु बन्धातिदेशमाह-"नियनियगुणोहो" ति निजनिजगुणौषः, एतेषु वेदादिषु यानि खखगुणस्थानानि तेष्वोधः कर्मस्तवोक्तो बन्धे द्रष्टव्य इत्यर्थः / स च यथास्थानं भावित एव // 19 // यच्च प्रागुक्तम् "अष्टौपशमिकसम्यक्त्वे गुणस्थानानि" इति तत्र कश्चिद्विशेषमाह परमुवसमि वदता, आउ न बंधंति तेण अजयगुणे। - देवमणुआउहीणो, देसाइसु पुण सुराउ विणा // 20 // व्याख्या सर्वत्र वेदादिषु निजनिजगुणौधो वाच्य इत्युक्तं परमौपशमिकेऽयं विशेषःऔपशमिके वर्तमाना जीवा आयुर्न बध्नन्ति तेनाऽयतगुणस्थान के देवमनुजायुा हीन ओपो वाच्यः, नरकतिर्यगायुषोः प्रागेव मिथ्यात्वसासादनयोरपनीतत्वान्न तद्धीनता / तथा 'देशादिषु' देशविरतप्रमत्ता प्रमतेषु पुनरोधः सुरायुविना ज्ञेयः / औपशमिकसम्यक्त्वं तूपशमश्रेण्यां प्रथमसम्यक्त्वलाभे वा भवति जीवस्य / उक्तं च उवसामगसेढिगयस्स होइ उवसामियं तु सम्मतं / जो वा अकयतिपुंजो, अखवियमिच्छो लहइ सम्मं // (विशेषा० गा० 529, 2735) ननु क्षायोपशमिकौपशमिकसम्यक्त्वयोः कः प्रतिविशेषः :, उच्यते-क्षायोपशमिके मिथ्यात्वदलिकवेदनं विपाकतो नास्ति प्रदेशतः पुनर्विद्यते, औपशमिके तु. प्रदेशतोऽपि नास्तीति विशेषः // 20 // उक्तं वेदादिषु बन्धखामित्वम् / अथ लेश्याद्वारमुच्यते ओहे अट्ठारसयं, आहारदुगूण आइलेसतिगे / तं तित्थोणं मिच्छे, साणाइसु सयहिं ओहो // 21 // 1 क्षीणे दर्शनमोहे त्रिविधेऽपि भवनिदानभूते / निष्यत्यपायमतुलं सम्यक्त्वं क्षायिकं भवति // 2 उपशमकश्रेणिगतस्य भवति औपशमिकं तु सम्यक्त्वम् / यो वाऽकृतत्रिपुत्रोऽक्षपितमिथ्यात्वो लभते सम्यक्त्वम् // Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11. देवेन्द्रसूरिविरचितः सावरिकः [गाथा व्याख्या-'आद्यलेश्यात्रिके' कृष्णनीलकापोतलेश्यात्रये वर्तमाना जीवाः 'ओपे' सामान्येन विंशत्युत्तरशतमाहारकद्विकोनं जातमष्टादशाधिकशतं तद् बध्नन्ति, आहारकद्विकस्स शुमलेश्यामिर्वध्यमानत्वात् / 'तद्' अष्टादशाधिकशतं तीर्थकरनामोनं सप्तदशोत्तरशतं मिथ्यात्वगुणस्थानके बध्नन्ति / सासादनादिषु गुणस्थानकेषु पुनः सर्वत्र' लेश्याषट्केऽपि ओषः' सामान्यबन्धो द्रष्टव्यः / ततोऽत्र सासादनमिश्राऽविरतेष्वोघः कर्मस्ववोकः // 21 // .. तेऊ नरयनवूणा, उजोयचउ नरयवार विणु सुका। .. विणु नरयषार पम्हा, अजिणाहारा इमा मिच्छे // 22 // - न्याख्या-विंशत्युत्तरशतं नरकत्रिकादिप्रकृतिनवकोनं तेजोलेश्यायामोघत एकादशोर शतं वध्यते, कृष्णाघशुभलेश्याप्रत्ययत्वाद् नरकत्रिकादिप्रकृतिनवकबन्धस्य / इदमेवैकादशोतरशतं जिननामाहारकद्विकरहितं शेषमष्टोत्तरशतं मिथ्यात्वे बध्यते / सासादनादिषु षट्सु गुणस्थानकेषु ओघः विंशत्युत्तरशतमध्याद् उद्योतादिचतुष्कं नरकत्रिकादिद्वादशकं च मुक्खा शेषं चतुरुत्तरशतमोघतः शुक्ललेश्यायां बध्यते, उद्योतादिप्रकृतीनां तिर्यमरकमायोग्यत्वेन देव. नरपायोग्यबन्धकैः शुक्ललेश्यावद्भिरबध्यमानत्वात् / एतदेव चतुरुत्तरं शतं जिननामाहारकद्विकरहितं शेषमेकोत्तरशतं मिथ्यात्वे बध्यते / सासादने तदीयैकोचरशतरूपौघबन्धाद् उद्योतादिप्रकृतिचतुष्टयापसारेण शेषाः सप्तनवतिर्बध्यते / मिश्रादिषु एकादशगुणस्थानकेषु तदवस्थः खखगुणस्थानीयो बन्धो द्रष्टव्यः / विंशत्युत्तरशतमध्याद् नरकत्रिकादिप्रकृतिद्वादशकं विना शेषमष्टोत्तरशतं पद्मलेश्यायामोघतो बध्यते, तल्लेश्यावतां सनत्कुमारादिदेवानां तिर्यक्पायोग्यं बनतामुद्योतादिप्रकृतिचतुष्कस्य बन्धसम्भवाद् नात्र तहन्धाभावः / एतदेवाष्टोचरशतं जिननामाहारकद्विकरहितं शेषं पञ्चोतरशतं मिथ्यात्वे बध्यते / सासादनादिषु षट्सु गुणस्थानकेषु यथास्थित एकोपरशतादिरूपः खखौघबन्धो द्रष्टव्यः / “आजेणाहारा इमा मिच्छे" ति प्रथमलेश्यात्रिकस्य “ओहे अट्ठारसयं" (गा० 21) इत्यादिना निर्धारितत्वेनेमातेजःपद्मशुक्कलेश्या मिथ्यात्वगुणस्थानके जिननामाहारकद्विकरहिता विज्ञेयाः, तेजोलेश्यादिषु नरकनवकाघूनो यः सामान्यबन्धः प्रतिपादितः स मिथ्यात्वगुणस्थानके जिनादिप्रकृतित्रयरहितो विधेय इत्यर्थः / तथा च दर्शितमेव // 22 // सम्प्रति भव्यादिद्वाराण्यभिधीयन्ते- .. सव्वगुणभव्वसन्निसु, ओहु अभव्वा असन्नि मिच्छसमा। सासणि असन्नि सन्नि व्व कम्मभंगो अणाहारे // 23 // व्याख्या सर्वगुणस्थानकोपेते भव्ये संज्ञिनि च मार्गणास्थाने सर्वगुणस्थानकोषः कर्मस्तवोक्तः / अभव्या असंज्ञिनश्च चिन्त्यमाना मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकसमाः / अयमर्थः-यथा मिथ्यात्वे सप्तदशोचरशतबन्धः कर्मस्तव उक्तस्तथाऽभव्योऽसंज्ञी च सामान्यतो मिथ्यात्वे च सप्तदशोत्तरशतं बध्नाति / सासादने पुनरसंज्ञी संज्ञिवद , एकोत्तरशतबन्धक इत्यर्थः / अनाहारके तु मार्गणास्थाने कार्मणकाययोगमाः “विणु तिरिनराउ कम्मे वि" (गा० 15) इत्यादिना योगमार्गणास्थाने प्रतिपादितोऽवगन्तव्यः, कार्मणकाययोगस्थस्यैव संसारिणोऽनाहारकत्वात् / कार्मणभङ्गश्चायं विंशत्युत्तरशतमध्यादाहारकद्विकदेवायुर्नरकत्रिकतिर्यमरायुःप्रकृत्य Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22-24) बन्धखामित्वाख्यस्तृतीयः कर्मग्रन्यः / टकं मुक्त्वा शेषस्य द्वादशोत्तरशतस्याऽनाहारके सामान्येन बन्धः / तथा जिननाम सुरद्विकं वैक्रियद्विकं च द्वादशोत्तरशतमध्याद् मुक्त्वा शेषस्य सप्तोत्तरशतस्यानाहारके मिथ्यादृष्टौ बन्धः। तथा सूक्ष्मादित्रयोदश प्रकृतीर्मुक्त्वा शेषायाश्चतुर्नवतेः सासादनस्थेऽनाहारके बन्धः / तथाsनन्तानुबन्ध्यादिचतुर्विंशतिपकृतीश्चतुर्नवतेमध्याद् मुक्त्वा शेषायाः सप्ततेर्जिननामसुरद्विकवैक्रियद्विकयुक्तायाः पञ्चसप्ततेरविरतेऽनाहारके बन्धः / तथा सयोंगिनि केवलिसमुद्धाते तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेष्वनाहारक एकस्याः सातप्रकृतेर्बन्धः // 23 // __ अथ प्राग् यदुक्तं लेश्याद्वारे-"साणाइसु सबहिं ओहो" ति (गा० 21) “सासादनादिषु गुणस्थानेषु सर्वत्र लेश्याषट्के ओघो द्रष्टव्यः" इति, वत्र न ज्ञायत आदिशब्दात् कस्यां लेश्यायां कियन्ति गुणस्थानानि गृह्यन्ते : इत्यतो लेश्यासु गुणस्थानकान्युपदर्शयन् प्रकरणसमर्थनां प्रकरणज्ञानोपायं चाह तिसु दुसु सुक्काइ गुणा, चउ सग तेर त्ति बंधसामित्तं / , देविंदसूरिलिहियं, नेयं कम्मत्थयं सोउं // 24 // व्याख्या-'तिस्षु' आद्यासु कृष्णनीलकापोतलेश्यासु"चउ" इत्यादिना यथाक्रम सम्बन्धात् 'चत्वारि' मिथ्यात्वसासादन मिश्राविरतरूपाण्याद्यानि गुणस्थानानि प्राप्यन्ते, एतद्गुणस्थानचतुष्के परिणामविशेषतः षण्णामपि लेश्यानां भावात् / 'द्वयोः' तेजःपद्मलेश्ययोमिथ्यात्वादीनि सप्त गुणस्थानानि, तयोरप्रमत्तगुणस्थानकान्तमपि यावद्भावात् / शुक्कलेश्यायां त्रयोदश मिथ्यात्वादीनि गुणस्थानानि, तस्या मिथ्यादृष्टिगुणस्थानात् प्रभृति यावत् सयोगिकेवलिगुणस्थानकं वावदपि भावात् / अयोगी त्वलेश्यः / इह च लेश्यानां प्रत्येकमसइयेयानि लोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि, ततो मन्दाध्यवसायस्थानापेक्षया शुक्ललेश्यादीनामपि मिथ्यावादी सम्भवो न विरुध्यते / तथा कृष्णादिलेश्यात्रयं यदिहाविरतगुणस्थानकान्तमुकं तद् बहदन्धस्वामित्वानुसारेम, षडशीतिके तु तस्य प्रमचगुणस्थानकान्तं यावदभिहितत्वात् / तथाहि लेसा तिन्नि पमवं, तेऊपम्हा उ अप्पमता। मुक्का जाव सजोगी, निरुद्धलेसो अजोगि चि // (जिनवल्लमीयषडशीति गा० 73) तत्त्वं तु श्रुतपरा विदन्ति इति / प्रतिपादितं गत्यादिषु बन्धखामित्वम् , तत्प्रतिपादनाच समर्थितं बन्धस्वामित्वप्रकरणम् / इतिशब्दः परिसमाप्तौ / पन्धखामित्वमेवत् 'ज्ञेयं' बोद्धव्यं, कर्मस्खवं श्रुत्वा, अत्र बहुषु स्थानेषु तदुक्तबन्धातिदेशद्वारेण मणनात् // 29 // एतद्वन्धस्य टीकाभूत्, परं कापि न साऽऽप्यते / स्थानस्याशून्यताहेतोरतोऽलेख्यवचूर्णिका // // इति बन्धखामित्वावरिः समाप्ता॥ ग्रन्थानम् 126 अक्षराणि 28 श्याखिनः प्रमत्तं [यावत् ] तेजःपनेतु अप्रमत्तान्तम् / शुक्ला यावत् सयोगिनं निरुदळेश्योऽयोगीति॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // अहम् // पूज्यश्रीदेवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / ॥ॐ नमःप्रवचनाय // यद्भाषितार्थलवमाप्य दुरापमाशु, श्रीगौतमप्रभृतयः शमिनामधीशाः / सूक्ष्मार्थसार्थपरमार्थविदो बभूवुः, श्रीवर्धमानविभुरस्तु स वः शिवाय // 1 // निजधर्माचार्येभ्यो, नत्वा निष्कारणैकबन्धुभ्यः / भीषडशीतिकशास्त्रं, विवृणोमि यथागमं किञ्चित् // 2 // तत्राऽऽदावेवाऽभीष्टदेवतास्तुत्यादिप्रतिपादिकामिमां गाथामाह नमिय जिणं जियमग्गणगुणठाणुवओगजोगलेसाओ। पंधऽप्पबहूभावे, संखिज्जाई किमवि वुच्छं // 1 // जिनं नत्वा जीवस्थानादि वक्ष्य इति सम्बन्धः / तत्र 'नत्वा' नमस्कृत्य, नमस्कारो हि चतुर्धा-द्रव्यतो नामैको न भावतो यथा पालकादीनाम् 1, भावतो नामैको न द्रव्यतो यथाऽनुत्तरोपपातिसुरादीनाम् 2, एको द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि यथा शम्बकुमारप्रभृतीनाम् 3, एको न द्रव्यतो नापि भावतो यथा कपिलादीनाम् / ततो द्रव्यभावरूपेण भावनमस्कारेण नमस्कृत्य / कम् ! इत्याह-'जिन' रागद्वेषमोहादिदुरवैरिवारजेतारं वीतरागम् , परमाईन्त्यमहिमालकृतं तीर्थकरमित्यर्थः / अनेन परमाभीष्टदेवतानमस्कारेण ऐकान्तिकमात्यन्तिकभावमङ्गलमाह, तेन च शास्त्रस्याऽऽपरिसमावेनिष्पत्यूहता भवतीति / क्त्वाप्रत्ययस्य चोचरक्रियासापेक्षत्वाद् उत्तरक्रियामाह-जीवमार्गणागुणस्थानादि वक्ष्ये / इह खानशब्दस्य प्रत्येक योगाद् जीवस्थानानि, मार्गणास्थानानि, गुणस्थानानि / तत्र जीवन्ति-यथायोग्यं प्राणान् धारमन्तीति जीवाः प्राणिनः शरीरमृत इति पर्यायाः, तेषां जीवानां स्थानानि-सूक्ष्मापर्याप्पैकेन्द्रियत्वादयोऽवान्तरविशेषाः, तिष्ठन्ति जीवा एषु इति कृत्वा जीवस्थानानि 1 / मार्गणंजीवादीनां पदार्थानामन्वेषणं मार्गणा, तस्याः स्थानानि-आश्रया मार्गणास्थानानि वक्ष्यमाणानि गत्यादीनि 2 / गुणाः-ज्ञानदर्शनचारित्ररूपा जीवखभावविशेषाः, स्वानं-पुनरेतेषां शुद्ध्यशुद्धिप्रकर्षापकर्षकृतः खरूपभेदः, तिष्ठन्ति गुणा असिन्निति कृत्वा, गुणानां स्थानानि गुणस्थानानि-परमपदप्रासादशिखरारोहणसोपानकल्पानि खोपज्ञकर्मस्तवटीकायां सविस्तरममिहितानि इहैव वा किश्चिद्वक्ष्यमाणानि मिथ्यादृष्टिप्रभृतीनि चतुर्दश 3 / "उवओग" ति उपयोजनमुपयोगः-बोधरूपो जीवव्यापारः, भावे घञ्, यद्वा उपयुज्यते-वस्तुपरिच्छेदं प्रति Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 113 व्यापार्यत इत्युपयोगः, कर्मणि घन्, यदि वा उपयुज्यते वस्तुपरिच्छेदं प्रति जीवोऽनेनेत्युपयोगः, "पुंनाम्नि घः" (सि०५-३-१३०) इति करणे घप्रत्ययः, सर्वत्र जीवखतत्त्वभूः तोऽवबोध एवोपयोगो मन्तव्यः / “योग" ति योजनं योगः-जीवस्य वीर्य परिस्पन्द इति . यावत्, यदि वा युज्यते-धावनवल्गनादिक्रियासु व्यापार्यत इति योगः, कर्मणि पञ्, यद्वा युज्यते-सम्बध्यते घावनवल्गनादिक्रियासु जीवोऽनेनेति "पुंनामि०" (सि. 5-3-130) इति करणे षप्रत्ययः, स च मनोवाकायलक्षणसहकारिकारणभेदात् त्रिविधो वक्ष्यमाणख. रूपः 5 / "लेसाउ" ति लिश्यते-लिप्यते कर्मणा सहात्माऽनयेति लेश्या, कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यादात्मनः शुभाशुभपरिणामविशेषः / यदुक्तम् कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात् , परिणामो य आत्मनः / स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते // इति / सा च षोढा-कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या / आसां च खरूपं जम्बूफलखादकषट्पुरुषीदृष्टान्तेन प्रामघातनप्रचलितचौरषट्कदृष्टान्तेन वा एवमवसेयम् जह जंबुपायवेगो, सुपक्कफलभरियनमियसाहग्गो / दिह्रो छहिँ पुरिसेहिं, ते बिती जंबु भक्खेमो // किह पुण ते! बितेगो, आरुहणे हुन्ज जीयसंदेहो / तो छिंदिऊण मूलाउ पाडिउं ताई भक्खेमो // बीयाऽऽह इद्दहेणं, किं छिन्नेण तरुणा उ अम्हं ! ति / साहा महाल छिंदह, तइओ बेई पसाहा उ // गुच्छे चउत्थओ पुण, पंचमओ बेइ गिण्हह फलाई / छट्टो उ बेह पडिया, एए चिय खायहा षितुं // दिद्रुतस्सोवणओ, जो बेइ तरुं तु छिंद मूलाओ / सो वट्टइ किण्हाए, साह महल्लाउ नीलाए // हवइ पसाहा काऊ, गुच्छा तेऊ फलाइ पम्हाए। पडियाइँ सुक्कलेसा, अहवा अन्नं इमाऽऽहरणं // चोरा गामवहत्थं, विणिग्गया एगु बेइ पाएह.। . 1 यथा जम्बूपादप एकः सुपरफलभरितनतशाखामः / दृष्टः षड्भिः पुरुषे ब्रुबते जम्मूः भक्षयामः॥ कथं पुनस्वाः [भक्षयामः] ब्रवीत्येकः आरोहणे भवेद् जीवसन्देहः / ततरिछत्त्वा मूलतः पातयिखा ताः मक्षयामः॥ द्वितीय आह एतावता किं छिन्नेन तरुणा तु अस्माकम् ? इति / शाखा महतीश्चिन्त तृतीयो ब्रवीति प्रशाखास्तु // गुच्छांश्चतुर्थकः पुनः पञ्चमो ब्रवीति गृहीत फलानि / षष्ठस्तु प्रवीति पतिताः एताः एव बादत गृहीला // दृष्टान्तस्योपनयो यो ब्रवीति तरतु छिन्त मूलतः। स वर्तते कृष्णायां शाखा महतीनीलायाम् // भवति प्रशाखाः कापोती गुच्छांस्खैजसी फलानि पद्मा। पतितानि शुक्ललेश्या भयवाऽन्यदिदमाहरणम् ॥चौरा प्रामवधार्थ विनिर्गता एको प्रवीति घातयत / Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाक्षे देवेम्वमरिविरचितालोपशटीकोपतः पिच्छह तं सर्व, दुपयं च चउप्पयं वा वि // पीओ माणुस पुरिसे, य तईओ साउहे चउत्थो उ। पंचमओ जुज्झते, छटो पुण तत्थिमं भणइ // इकं ता हरह घणं, बीयं मारेह मा कुणह एवं / केवळ हरहणं ती, उपसंहारो इमो सेसि // सखे मारेह ची, बट्टा सो किण्हलेसपरिणामे / एवं कमेण सेसा, जा चरमो सुक्कलेसाए / अस्यैव दृष्टान्तद्वयस्य सङ्ग्रहगाथा: मूलं साह पसाहा, गुच्छ फले छिंद पडियमक्खणया / सर्व माणुस पुरिसा, साउह जुझंत धणहरणा // भासु च लेश्यासु यो जीवो यस्सा लेश्यायां वर्तते स प्रदर्श्यते वेरेणे निरणुकंपो, अइचंडो दुम्महो खरो फरुसो। किण्हाइ अणज्झप्पो, बहकरणरओ य तकालं // मायाडमे कुसलने, उकोडालद्ध चवलचळचिचो / मेहुणतिवाभिरओ, अलियपलावी य नीलाए // मूढो आरंभपिओ, पावं न गणेइ सबकजेसु / . न गणेह हाणिवुड्डी, कोहजुओ काउलेसाए / दक्खो संवरसीलो, रिजुभावो दाणसीलगुणजुचो / धम्मम्मि होइ बुद्धी, अरूसणो तेउलेसाए / सत्तणुकंपो य थिरो, दाणं खल देह सबजीवाणं / अइकुसलबुद्धिमंतो, घिइमंतो पम्हलेसाए // धम्मम्मि होइ बुद्धी, पावं वजेइ सबकजेसु / आरंभे न रज्जइ, अपक्खवाई य मुक्काए // प्रेक्षतं सर्व विपदं च चतुष्पदं वाऽपि // द्वितीयो मनुष्यान् पुरुषांष तुतीयः घायुधांबतुर्यस्तु / पचमचे गुण्यमानान् षष्ठः पुनखोद भणति / एकं तावद् हरष धनं द्वितीयं मारवषमा कुरुवम् / केवल रत धनं उपसंहारोऽयं तेषाम् // सर्वान् मारयदेवि वर्तते सणळेश्यापरिणामे / एवं कमेण शेषा यावत् परमः शुकळेश्यायाम् // मूल शाखा प्रशाखा गुच्छान् फलानि गित पवितभक्षणता सर्व मनुष्यान पुरुषान् सायुधान अभ्यमाबान् हन्त धनहरणम् ॥१बैरेण निरनुकम्पः अविचण्ड: दुर्मुखः खरः परुषः / कृष्णायामनध्यात्मः बबरपरतब तत्कालम् // मायादम्मे कुशल उत्कोचाधवपळचलचित्तः / मैथुनतीजामिर बीकालापी नीलायाम् // मूठ मारम्भप्रियः पापं न गणयति सर्वकार्येषु / व गणयवि हानिपती कोषयुवः कापोत यायाम् सासंबरचीनजुभावो दानशीलगुणयुक: / धमे भवति बुदिपरोषणः तेजोमेश्यायाम परवानुकम्प स्थिरस दानं खल रदावि सर्वजीवेभ्यः / भतिकचलबुद्धिमार विमान् परश्यायाम् / घमें भवति पुद्धिः पापं बर्जयवि सर्वकार्येषु / भारम्भे न रजवि भपक्षपातीच कामाम्॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / ततो जीवस्थानानि च मार्गणास्थानानि च गुणस्थानानि च उपयोगाश्च योगाश्च लेश्याअति द्वन्दे द्वितीया शस् / "बंध" ति मिथ्यात्वादिमिर्वन्धहेतुमिरजनचूर्णपूर्णसमुद्रकवद् निरन्तरं पुद्गलनिचिते लोके कर्मयोग्यवर्गणापुद्रात्मनः क्षीरनीरवद् बययःपिण्डवद्वा अन्योन्यानुगमाभेदात्मकः सम्बन्धो बन्धः 1 / उपलक्षणत्वाद् उदयोदीरणासत्तानां परिग्रहः / तत्र तेषामेव कर्मपुद्गलानां यथाखखितिवद्धानामपवर्तनादिकरणकृते खाभाविके वा लित्यपचये सत्युदयसमयप्राप्तानां विपाकवेदनमुदयः 2 / तेषामेव कर्मपुद्गलानामकालमाप्ताना जीवसामर्थ्यविशेषाद् उदयावलिकायां प्रवेशनमुदीरणा 3 / तेषामेव कर्मपुद्गलानां बन्धसङ्कमाभ्यां लब्धात्मसामानां निर्जरणसङ्कमकृतखरूपप्रच्युत्यभावे सति सद्भावः सत्ता 1 / यद्वा बन्ध इति पदैकदेशेऽपि 'भामा सत्यभामा' इति न्यायेन पदप्रयोगदर्शनाद् बन्धहेतवो मिथ्यात्वाऽविरतिकषाययोगरूपा वक्ष्यमाणा गृह्यन्ते / “अप्पबह" ति भावप्रधानत्वानिर्देशस्य अल्पबहुत्वं गत्यादिरूपमार्गणास्थानादीनां परस्परं स्तोकभ्यस्त्वम् 8 / “भाव" ति जीवाजीवानां तेन तेन रूपेण भवनानि-परिणमनानि भावा औपश मिकादयः 9 / ततो बन्धश्च अल्पबहुत्वं च भावाश्चेति द्वन्द्वे द्वितीयाबहुवचनं शस् / सूत्रे च "अप्पबहू" इत्यत्र दीर्घत्वं “दीर्घदूखौ मिथो वृतौ" (सि० 8-1-4) इति प्राकृतसूत्रेण / “संखिज्जाइ" ति सच्यायते-चतुष्पल्यादिप्ररूपणया परिमीयत इति सपेयम्, आदिशब्दादसद्ध्येयानन्तकपरिग्रहः 10 / तत एवं जीवखानादिकमनन्तकपर्यवसानं द्वारकलापमत्र वक्ष्य इत्यनेनाभिधेयमाह / कथं वक्ष्ये / इत्याह"किमवि" ति किमपि किश्चित्-खल्पं न विस्तरवत्, दुःषमानुमावेनापचीयमानमेधायुर्बलादिगुणानामैदंयुगीनजनानां विस्वराभिधाने सत्युपकारासम्भवात् , तदुपकारार्थ चैष शास्त्रारम्भप्रयासः / एतेन सविसरुचिसत्त्वानाश्रित्य प्रयोजनमाचष्टे / सम्बन्धस्त्वर्थापत्तिगम्यः, स चोपायोपेयलक्षणः साध्यसाधनलक्षणो गुरुपर्वक्रमलक्षणो वा खयमभ्यूबः। इह च मार्गणाखानगुणस्थानादयः सर्वे पदार्था न जीवपदार्थमन्तरेण विचारयितुं शक्यन्त इति प्रथमं जीवसानग्रहणम् 1 / जीवाश्च प्रपञ्चतो निरूप्यमाणा गत्यादिमार्गणास्थानैरेव निरूपयितुं शक्यन्त इति तदनन्तरं मार्गणास्थानग्रहणम् 2 / तेषु च मार्गणास्थानेषु वर्तमाना जीवा न कदाचिदपि मिथ्यादृष्ट्याद्यन्यतमगुणस्थानकविकला भवन्तीति ज्ञापनाय मार्गणाखानकानन्तरं गुणस्थानकग्रहणम् 3 / अनि च गुणस्थानकानि परिणामशुध्धशुद्धिप्रकर्षाप-- कर्षरूपाण्युपयोगवतामेवोपपद्यन्ते नान्येषामाकाशादीनाम् , तेषां ज्ञानादिरूपपरिणामरहितत्वादिति प्रतिपत्त्यर्थ गुणस्थानकग्रहणानन्तरमुपयोगग्रहणम् / उपयोगवन्तश्च मनोवाकायचेष्टासु वर्तमाना नियमतः कर्मसम्बन्धमाजो भवन्ति / तथा चागमः जावणं एस जीवे एयह वेयइ चलइ फंदह घट्टइ खुब्भह तं तं मावं परिणमह ताव पं अट्ठविहबंधए वा सत्तविहबंधए वा छबिहबंधए वा एगविहबंधए वा नो णं अबंधए। . इति ज्ञापनार्थमुपयोगग्रहणानन्तरं योगग्रहणम् 5 / योगवशाचोपातस्यापि कर्मणो यावद मावत वह एष जीव एजते व्येवते बलति सन्दते पाते भ्यवि-तं तं भावं. परिणमते तावरविक बन्धको वा सप्तविषयको वा पडिभकामको वा एकविधवन्धको वा-क बलवन्धक . . Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकॊपेतः [गाया न कृष्णाघन्यतमलेश्यापरिणामो जायते तावद् न तस्य स्थितिपाकविशेषो भवति, "स्थितिपाकविशेषतस्य भवति लेश्याविशेषेण" इति वचनप्रामाण्यात् , ततो योगवशादुपात्तस्य कर्मणो लेश्याविशेषतः स्थितिपाकविशेषो भवतीति प्रतिपत्तये योगानन्तरं लेश्याग्रहणम् 6 / लेश्याबन्तश्च यथायोग्यैर्वन्धहेतुभिः कर्मबन्धोदयोदीरणासत्ताः प्रकुर्वन्तीति ज्ञापनाय लेश्यानन्तरं बन्धग्रहणम् 7 / बन्योदयादियुक्ताब जीवा मार्गणासानाद्याश्रित्य नियमतः परस्परमरुपे वा भवेयुर्वहवो वेति निवेदनार्य बन्धानन्तरमल्पबहुत्वग्रहणम् 8 ते च जीवा मार्गणास्थानादिब्वल्पे वा बहवो वा भवन्तोऽवश्यं षण्णामौपशमिकादिभावानां केषुचिद् भावेषु वर्तन्त इति प्रकटनार्थमल्पबहुत्वानन्तरं भावग्रहणम् 9 / औपशमिकादिभाववतां च जीवानामल्पबहुत्वं नियमतः सङ्ग्येयकेन असङ्ख्येयकेन अनन्तकेन वा निरूपणीयमिति भावग्रहणानन्तरं सङ्ख्येयकादिग्रहणम् 10 इति / __ यद्यपि चेह सामान्येनोक्तं "जीवस्थानादि वक्ष्ये" तथाप्येवं विशेषतो द्रष्टव्यम्-जीवस्थानकेषु गुणस्थानकयोगोपयोगलेश्याकर्मबन्धोदयोदीरणासत्ता वक्ष्ये, मार्गणास्थानकेषु पुनर्जीवसानकगुणस्थानकयोगोपयोगलेश्याऽल्पबहुत्वानि, गुणस्थानकेषु च जीवस्थानकयोगोपयोगलेश्यावन्धहेतुबन्धोदयोदीरणासत्ताऽल्पबहुत्वानि / तत्र गाथाः चउदसजियठाणेसुं, चउदस गुणठाणगाणि 1 जोगा य 2 / / उवयोग 3 लेस ? बंधु 5 दउ 6 दीरणा 7 संत 8 अट्ठ पए / चउदसमग्गणठाणेसु, मूलपएसुं बिसहि इयरेसु / / जिय 1 गुण 2 जोगु 3 वओगा 4, लेस 5 ऽप्पबहुं 6 च छट्ठाणा // चउदसगुणठाणेसुं, जिय 1 जोगु 2 वओग 3 लेस 1 बंधा 5 य / बंधु 6 दयु 7 दीरणाओ 8, संत 9 ऽप्पबहुं 10 च दस ठाणा // इति // 1 // तत्र यथोद्देशं निर्देश इति न्यायात् प्रथमं तावद् जीवस्थानानि निरूपयन्नाह इह सुहुमवायरेगिदिबितिचउअसन्निसन्निपंचिंदी। अपजत्ता पज्जत्ता, कमेण चउदस जियहाणा // 2 // . 'दह' अस्मिन् जगति अनेन क्रमेण चतुर्दश जीवस्थानानि प्रामिरूपितशब्दार्थानि भवन्ति / केन क्रमेण ! इति चेद् , इत्याह-सूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाः, एते च सर्वेऽपि प्रत्येकं पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्चेति / तत्र एकं स्पर्शनलक्षणमिन्द्रियं येषां त एकेन्द्रियाः पृथिव्यवेजोवायुवनस्पतयः, ते च प्रत्येकं द्वेषा-सूक्ष्मा बादराश्च / सूक्ष्मनामकोंदयात् सूक्ष्माः सकललोकव्यापिनः, बादरनामकर्मोदयाद् बादराः ते च लोकप्रतिनियतदेशवर्तिनः / द्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रिया इति, इन्द्रियशब्दस्य प्रत्येकं योगाद् द्वीन्द्रियाः त्रीन्द्रियाः चतुरिन्द्रिया असंज्ञिसंज्ञिभेदभिन्नाश्च पञ्चेन्द्रियाः / तत्र द्वे स्पर्शनरसनलक्षणे चतुर्दशजीवस्थानेषु चतुर्दश गुणस्थानकानि योगाश्च / उपयोगळेश्यावन्धोदयोधरणासत्ता अष्ट पदानि / चतुर्दशमार्गणास्थानेषु मूलपदेषु द्विषष्टिरितरेषु / जीवगुणयोगोपयोगा लेश्याऽल्पबहुत्वं च षट् स्थानानि / चतुर्दशगुणस्थानेषु जीवयोगोपयोगळेश्यावन्धाय / बन्धोदयोदीरणाः सत्ताऽल्पबहुलं च दश स्थानानि / Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / इन्द्रिये येषां ते द्वन्द्रियाः कृमिपूतरकचन्दनकशङ्खकपर्दजलौकाप्रमृतयः / श्रीणि स्पर्शनरसनघ्राणरूपाणि इन्द्रियाणि येषां ते त्रीन्द्रियाः कुन्थुमत्कुणयूकागर्दभेन्द्रगोपकमत्कोटकादयः / चत्वारि स्पर्शनरसनशाणचक्षुर्लक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः अमरमक्षिकामशकश्चिकादयः / पञ्च स्पर्शनरसनधाणचक्षुःश्रोत्रलक्षणानि इन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः मत्स्यमकरेभकलभसारसहंसनरसुरनारकादयः, ते च द्विविधाः- संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च / तत्र संज्ञान संज्ञा-भूतभवद्भाविभावखभावपर्यालोचनम्, "उपसर्गादातः" (सि०५-३-११०) इत्यप्रत्ययः, सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः-विशिष्टमरणादिरूपमनोविज्ञानमाज इति यावत्, तद्विपरीता असंज्ञिनः-विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानविकला इत्यर्थः / एते च सूक्ष्मैकेन्द्रियादयः प्रत्येक द्विधा-पर्याप्तका अपर्याप्तकाश्च / पर्याप्तिर्नाम-पुद्गलोपचयजः पुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुः शक्तिविशेषः, सा च विषयभेदात् षोढा-आहारपर्याप्तिः 1 शरीरपर्याप्तिः 2 इन्द्रियपर्याप्तिः 3 उच्छासपर्याप्तिः 4 भाषापर्याप्तिः 5 मनःपर्याप्तिः 6 चेति / तत्र यया बाबमाहारमादाय खलरसरूपतया परिणमयति सा आहारपर्याप्तिः 1 / यया रसीमूतमाहारं रसासग्मासमेदोऽस्थिमज्जाशुक्रलक्षणसप्तधातुरूपतया परिणमयति सा शरीरपर्याधिः 2 / यया धातुरूपतया परिणमितमाहारमिन्द्रियरूपतया परिणमयति सा इन्द्रियपर्याप्तिः 3 / यया पुनरुच्छासमायोग्यवर्गणादलिकमादाय उच्छासरूपतया परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा उच्छासपर्याप्तिः / यया तु भाषाप्रायोग्यवर्गणाद्रव्यं गृहीत्वा भाषात्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा भाषापर्याप्तिः 5 / यया पुनर्मनोयोग्यवर्गणादलिकं गृहीत्वा मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्य च मुञ्चति सा मनःपर्याप्तिः 6 / एताश्च यथाक्रममेकेन्द्रियाणां द्वीन्द्रियादीनां संज्ञिनां च चतुःपश्वषट्सच्या भवन्ति / यदभाणि आहारसरीरिंदिय, पज्जती आणपाणुभासमणे / चचारि पंच छ प्पि य, एगिदियविगलसनीणं / / पर्याप्तयो विद्यन्ते येषां ते पर्याप्ताः, "अनादिभ्यः" (सि०७-२-१६) इति मत्वर्थीयः अप्रत्ययः, खार्थिककप्रत्ययोपादानात् पर्याप्तकाः / ये पुनः खयोग्यपर्याप्तिपरिसमाप्तिविकलास्तेऽपर्याप्तकाः, ते च द्विधा लब्ध्या करणैश्च / तत्र येऽपर्याप्तका एव सन्तो नियन्ते न पुनः खयोग्यपर्याप्तीः सर्वा अपि समर्थयन्ते ते लब्ध्यपर्याप्तकाः, ये पुनः करणानि-शरीरेन्द्रियादीनि न तावद् निर्वर्तयन्ति अथ चावश्यं पुरस्ताद् निर्वर्तयिष्यन्ति ते करणापर्याप्तकाः / इह चैवमागमः लब्ध्यपर्याप्तका अपि नियमादाहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपरिसमाप्तावेव प्रियन्ते नाग, यस्मादागामिभवायुर्बद्धा नियन्ते सर्व एव देहिनः, तच्चाऽऽहारशरीरेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तानामेव बध्यते / इति // 2 // तदेवं निरूपितानि जीवस्थानानि / अथैतेष्वेव जीवस्थानेषु गुणस्थानानि प्रचिकटयिषुराह माहारशरीरेंद्रियाणि पर्याप्तय मानप्राणभाषामनांसि / चततः पञ्च षडपि च एकेन्द्रियविकलसंशिमाम् // Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 देवेन्द्ररिविरचितखोपाटीकोपेतः [गाथा पायरअसन्निविगले. अपजि पढमषिय सनिअपजत्ते। अजयजुय सन्निपजे, सव्वगुणा मिच्छ सेसेसु // 3 // इह चतुर्दश गुणस्थानानि भवन्ति / तद्यथा-मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं 1 सासादनसम्यग्डदिगुणस्थानं 2 सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् 3 अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं 1 देशविरतिगुणखानं 5 प्रमचसंयतगुणसानम् 6 अप्रमत्तसंयतगुणसानम् 7 अपूर्वकरणगुणखानम् 8 अनिवृतिवादरसम्परायगुणस्थानं 9 सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् 10 उपशान्तकषायवीतरागच्छ• अवगुणस्थानं 11 क्षीणकषायवीतरागच्छद्मस्थगुणस्थानं 12 सयोगिकेवलिगुणस्थानम् 13 अयोगिकेवलिगुणस्थानम् 15 / एतेषामर्थलेशोऽयम् जीवाइपयत्येसुं, जिणोवइढेसु जा असद्दहणा / सदहणा वि य मिच्छा, विवरीयपरूवणा जा य // संसयकरणं जपि य, जं तेसु अणायरो पयत्थेसु / तं पंचविहं मिच्छं, तदिट्ठी मिच्छदिट्ठी य // उवसमअद्धाएँ ठिओ, मिच्छमपत्तो तमेव गंतुमणो / सम्मं आसायंतो, सासायण मो मुणेययो / मह गुडदहीणि विसमाइभावसहियाणि हुंति मीसाणि / भुंजंतस्स तहोभयदिट्ठीए मीसदिट्ठीओ। तिविहे वि हु सम्मत्ते, भोवा वि न विरह जस्स कम्मवसा / सो अविरउ ति भन्नइ, देसे पुण देसविरईओ // विगहाकसायनिदासदाइरओ भवे पमत्तु ति। पंचसमिओ तिगुतो, अपमत्तजई मुणेयवो // अप्पुवं अप्पुवं, जहुत्तरं जो करेइ ठिइकंडं। रसकंडं तम्घायं, सो होइ अपुवकरणु ति // विणिवटृति विसुद्धि, समगपइट्टा वि जम्मि अधुन / तनो नियष्ठिाणं, विवरीयमओ वि अनियट्ठी // थूल्यण लोहखंडाण वेयगो बायरो मुणेयवो।। सुहुमाण होइ सुहुमो, उवसंतेहिं तु उवसंतो॥ जीवादिपदार्थेषु जिनोपदिष्टेषु याऽश्रद्धा / श्रद्धाऽपि च मिथ्या विपरीतप्ररूपणा याच॥ संशयकर यपि यस्तेष्वनादरः पदार्येषु / तत्पश्चविध मिथ्यालं तदृष्टिः मिथ्याचि // उपशमावनि स्थितो मिथ्यावमप्रसस्तमेव गन्तुमनाः / सम्यक्त्रं आखादयन् साखादनो ज्ञातव्यः // यथा गुडदधिनी विषमाविभावसहित भवतो मिले / भुजानस्य तयोभयदृष्ट्या मिश्रष्टिकः // त्रिविधेऽपि हि सम्यक्त्वे स्तोकाऽपि न विरतिः यस कर्मवशाद / सोऽविरत इति भण्यते देशः पुनर्देशविरः। विकथाकषायनिद्राशम्दादिरवो भवेत् प्रमत्त इति / पसमितविरोधमत्तयतिर्यातव्य अपूर्वमपूर्ण बयोत्तरं यः करोति स्थितिख। रसखण्डम् तदातं स भवत्यपूर्वकरण इति। विनिवर्तन्ते विशुदि समकप्रविष्टायपि यस्मिनन्योन्यम् / ततो वित्तिस्थान विपरीतमतोऽ. बनिरतिस्थूलाना कोभखण्डाना बेदको बादरो ज्ञातव्यः / सूक्ष्माणां भवति सूक्ष्म उपशान्तःतु उपशान्तः Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / .. खीणम्मि मोहणिजे, खीणकसाओ सजोग जीगि ति (गति)। होइ पउत्ता य तओ, अपउत्ता होइ हु अजोगी / भविरयसासणमिच्छा, परभविया न उण सेसगुणठाणा / मिच्छसि तिन्नि भंगा, छावलियं होइ सासाणं // तिचीसयर चउत्वं, पुराणं कोडि ऊण तेरसमं / बहुपंचक्खर चरिमं, अंतमुह सेसगुणठाणा // ततो बादराश्च-बादरैकेन्द्रियाः पृथिव्यम्बुवनस्पतिलक्षणाः असंज्ञी च-विशिष्टमरणादि. रूपमनोविज्ञान विकलः विकलाश्च-विकलेन्द्रिया द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः बादरासंजिविकलं तमिन् बादरासंज्ञिविकले / किंविशिष्टे! "अपजि" ति अपर्यासे, कोऽर्थः / अपर्याप्तबादरैकेन्द्रियेषु पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु, तथा अपर्याप्तेऽसज्ञिनि, तथा विकलेषु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेष्वपर्याप्तेषु / किम् ! इत्याह-"पढमविय" ति इह "सबगुणा" इति पदाद् गुणशब्दस्याकर्षणम्, ततः प्रथम-मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं द्वितीयं-सासादनगुणसानं भवति / अथ तेजोवायुवर्जनं किमर्थम् ! इति चेद्, उच्यते-तेजोवायूनां मध्ये सम्यक्त्वलेशवतामपि उत्पादाभावात् सम्यक्त्वं चासादयतां सासादनभावाभ्युपगमात् / मन्वेकेन्द्रियाणामागमे सासादनभावो नेष्यते, "उमयाभावो पुढवाइरस सम्मतबद्धीए" इति परममुनिप्रणीतवचनप्रामाण्यात् , अत एवागमे एकेन्द्रिया अज्ञानिन एवोकाः, द्वीन्द्रियादयश्च केचिदपर्याप्तावस्थायां सासादनभावाभ्युपगमाद् ज्ञानिन उक्ताः केचिच तदभावाद् मज्ञानिनः, यदि पुनरेकेन्द्रियाणामपि सासादनभावः स्यात् तर्हि तेऽपि द्वीन्द्रियादिव उम. यथाऽप्युच्येरन् , न चोच्यन्ते, यदुक्तम् ऐंगेंदिया णं भंते / किं नाणी अन्नाणी ! गोयमा ! नो नाणी नियमा अन्नाणी / तथाबेइंदिया णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी ! गोयमा ! नाणी वि अन्नाणी वि / इत्यादि। . तत् कथमिहापर्याप्तबादरैकेन्द्रियेषु पृथिव्यम्बुवनस्पतिलक्षणेषु सासादनगुणस्थानकभाव उक्तः !, सत्यमेतत्, किन्तु मा त्वरिष्ठाः, सर्वमेतदने प्रतिविधास्याम इति / "सन्निअपजते अजयजय" ति / संज्ञिन्यपर्याप्ते तदेव पूर्वोक्तं मिथ्याडष्टिसासादनक्षणं गुणस्थानकद्वयमयतयुतं भवति / यमनं यतं-विरतिरित्यर्थः, न विद्यते यतं यस्य सोऽयतोऽविरतसम्यग्दृष्टिरित्यर्थः, तेन युतं-संयुक्तमयतयुतम् / इदमुक्तं भवति-संज्ञिन्यपर्यावे त्रीणि मिथ्यादृष्टिसासादनाऽविरतसम्यग्दृष्टिलक्षणानि गुणस्थानानि भवन्ति, न शेषाणि सम्यग्मिथ्या. १क्षीणे मोहनीये क्षीणकषायः सयोगः योगीति / भवति प्रयोका व सकःभप्रयोका भवस्येवाबोगी। अविरतसाखादनमिध्यावानि परभविकानि न पुनः शेषगुणस्थानानि / मिथ्याबस्स प्रयो भनाः पडाबालिक भवति साखादनम् // त्रयस्त्रिंशदतराणि चतुर्थ पूर्वाणां कोटिम्ना प्रयोदशम् / लघुपञ्चाक्षरं परममन्त्रमुहतं शेषगुणस्थानानि // 1 उभयाभावः पृथिव्यादिकेषु सम्यक्सलन्धेः॥ 3 एकेन्द्रियाः भदन्त मानिनोमानिनः गौतमान शानिनो नियमादज्ञानिनः ॥द्वीन्द्रियाः भदन्त। किशानिनोमानिनः मोठम। शानिनोप्यज्ञानिनोऽपि // Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा दृष्ट्यादीनि, तेषां पर्याप्तावस्थायामेव भावात् / “सन्निपजे सधगुण" ति संज्ञिनि पर्याप्ते सर्वाण्यपि मिथ्यादृश्यादीनि अयोगिपर्यन्तानि गुणस्थानकानि भवन्ति, संज्ञिनः सर्वपरिणामसम्भवात् / __ अथ कथं संज्ञिनः सयोग्ययोगिरूपगुणस्थानकद्वयसम्भवः तद्भावे तस्याऽमनस्कतया संज्ञिवायोगात् !, न, तदानीमपि हि तस्य द्रव्यमनःसम्बन्धोऽस्ति, समनस्काश्चाऽविशेषेण संज्ञिनो व्यवहियन्ते, ततो न तस्य भगवतः संज्ञिताव्याघातः। यदुक्तं सप्ततिकाचूर्णी मणकरणं केवलिणो वि अस्थि तेण सन्निणो भन्नंति, मनोविन्नाणं पडुच्च ते सन्निणो न भवंति ति / . "मिच्छ सेसेसु" ति मिथ्यात्वं शेषेषु' भणितावशिष्टेषु पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मपर्याप्तबादरैकेन्द्रियदीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणेषु सप्तसु जीवस्थानकेषु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमेव भवति न सासादनमपि, यतः परभवादागच्छतामेव घण्टालालान्यायेन सम्यक्त्वलेशमाखादय. तामुत्पत्तिकाल एवापर्याप्तावस्थायां जन्तूनां लभ्यते न पर्याप्तावस्थायाम् / अतः पर्याप्तसूक्ष्म१वादर२ द्वित्रिचतुपरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां६ तदभावः, अपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियेऽपि न सासादनसम्भवः, सासादनस्य मनाक् शुभपरिणामरूपत्वात् , महासंक्लिष्टपरिणामस्य च सूक्ष्मैकेन्द्रियमध्ये उत्पादाभिधानादिति // 3 // तदेवं निरूपितानि जीवस्थानकेषु गुणस्थानकानि / साम्प्रतं योगा वक्तुमवसरमाप्तास्ते च पञ्चदश, तद्यथा-सत्यवाग्योगः 1 असत्यवाग्योगः 2 सत्यमृषावाग्योगः 3 असत्यामृषावाम्योगः 1 / तत्खरूपं चेदम् सच्चा हिया सतामिह, संतो मुणयो गुणा पयत्था वा। तबिवरीया मोसा, मीसा जा तदुभयसहावा // ___ अणहिगया जा तीसु वि, सहु च्चिय केवलो असञ्चमुसा / / एवं मनोयोगोऽपि चतुर्धा द्रष्टव्यः 1 / काययोगः सप्तधा-औदारिकम् 1 औदारिक. मिश्रं 2 वैक्रियं 3 वैक्रियमिश्रम् 4 आहारकम् 5 आहारकमिश्रं 6 कार्मणं च 7 / तत्रौदारिककाययोगस्तियङ्मनुष्ययोः / तयोरेवापर्याप्तयोरौदारिकमिश्रकाययोगः / वैक्रियकाय. योगो देवनारकयोस्तिर्यामनुष्ययोर्वा वैक्रियलब्धिमतोः / वैक्रियमिश्रकाययोगोऽपर्याप्तयोर्देवनारकयोस्तिर्यव्यनुष्ययोर्वा वैक्रियस्यारम्भकाले परित्यागकाले च / आहारक चतुर्दशपूर्वविदः / आहारकमिश्रकाययोग आहारकस्य प्रारम्भसमये परित्यागकाले च / कार्मणकाययोगोऽष्टप्रकारकर्मविकाररूपशरीरचेष्टाखरूपोऽन्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये केवलिसमुद्धातावस्थायां च / तानेतान् योगान् जीवस्थानकेषु व्याचिख्यासुराह अपजत्तछकि कम्मुरलमीस जोगा अपजसन्निसु ते। सविउव्वमीस एसुं, तणुपज्जेसुं उरलमन्ने // 4 // मनःकरणं केवलिनोऽप्यस्ति वेन संझिनो भण्यन्ते / मनोविज्ञानं प्रतीत्य ते न संझिनः स्युः // 2 सख्या हिता सतामिह सन्तो मुनयो गुणाः पदार्था वा / तद्विपरीता मृषा मिश्रा या तदुभयखभावा॥ अनधिकता या तिसम्बपि शन्द एव केवलः असत्यमृषा // - संचा। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 4-5] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः। अपर्याप्तानां-सूक्ष्मवादरद्वित्रिचतुरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां षट्कं अपर्याप्तषट्कं तस्मिन् अपर्याप्तषट्के संज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तवर्जितेषु षट्सु अपर्याप्तेषु योगौ भवतः। द्विवचनस्य बहुवचनं प्राकृतत्वात् , यथा-"हत्या पाया" इत्यादौ / कौ योगौ ! इत्याह-कार्मणौदारिकमिश्री / तत्र कार्मणकाययोगोऽपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च, शेषकालं त्वौदारिकमिश्रकाययोगः / “अपज्जसन्निसु ते सविउवमीस" ति 'अपर्याप्तसंज्ञिषु' संश्यपर्याप्तजीवेषु 'ती' पूर्वोक्तौ कार्मणौदारिकमिश्रकाययोगौ भवतः, किं केवलौ ! न इत्याह-सह वैक्रियमिश्रेण वर्तेते इति सवैक्रियमिश्रौ / तथा चापर्याप्तसंज्ञिनि त्रयो योगा भवन्ति कार्मणकाययोग औदारिकमिश्रकाययोगो वैक्रियमिश्रकाययोगश्च / तत्र कार्मणकाययोगोऽपान्तरालगतावुत्सविप्रथमसमये च, शेषकालं तु तिर्यड्मनुष्ययोरौदारिकमिश्रकाययोगः / संज्ञिनोऽपर्याप्तस्य देव. नारकेषु पुनरुत्पद्यमानस्य वैक्रियमिश्रकाययोगो द्रष्टव्यो न शेषस्य, असम्भवात्, मिश्रता चात्र कार्मणेन सह द्रष्टव्या / अत्रैव मतान्तरमुपदर्शयन्नाह-एषु' पूर्वनिर्दिष्टेषु शेषपर्यात्यपेक्षयाऽपर्याप्तेषु तनुपर्याप्या पर्याप्तेषु शरीरपर्याप्तेष्वित्यर्थः 'औदारिकम्' औदारिककाययोगम् 'अन्ये' केचिदाचार्याः शीलाकादयः प्रतिपादयन्तीति शेषः, शरीरपर्यास्या हि परिसमाप्तिवत्या किल तेषां शरीरं परिपूर्ण निष्पन्नमिति कृत्वा / तथा च तदन्थःऔदारिककाययोगस्तिर्यमनुष्ययोः शरीरपर्याप्रूवम् , तदारतस्तु मिश्रः। (आ. प्र. श्रु. द्वि० अ० पत्र 94) इति / नन्वनया युक्त्या संज्ञिनोऽपर्याप्तस्य देवनारकेषुत्पद्यमानस्य तनुपर्याप्त्या पर्याप्तस्य वैक्रियमपि शरीरमुपपद्यत एव किमिह तद् नोक्तम् ! इति, उच्यते-उपलक्षणत्वाद् एतदपि द्रष्टव्यमित्यदोषः; यद्वा इहापर्याप्ता लब्ध्यपर्याप्तका एवान्तर्मुहूर्तायुषो द्रष्टव्याः, ते च तिर्यमनुष्या एव घटन्ते, तेषामेवान्तर्मुहूर्तायुष्कत्वसम्भवात् , न देवनारकाः, तेषां जघन्यतोऽपि दशवर्षसहसायुष्कत्वात् / लब्ध्यपर्याप्तका अपि च जघन्यतोऽपि इन्द्रियपर्याप्तौ परिसमाप्तायामेव नियन्ते नार्वाग् इत्युक्तमागमाभिप्रायेण / ततस्तेषां लब्ध्यपर्याप्तकानां शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तानामौदारिकमेव शरीरमुपपद्यते न वैक्रियमित्यदोषः। ____किश्चान्यमतकथनेनाऽयमभिप्रायः सूच्यते-यद्यपि तेषां शरीरपर्याप्तिः समजनिष्ट तथापि इन्द्रियोच्छासादीनामद्याप्यनिष्पन्नत्वेन शरीरस्यासम्पूर्णत्वाद् अत एव कार्मणस्याप्यद्यापि व्याप्रियमाणत्वाद् औदारिकमिश्रमेव तेषां युक्त्या घटमानकमिति // 4 // सव्वे सन्निपजत्ते, उरलं सुहमे सभासु(स) तं चउसु। - बायरि सविउव्विदुर्ग, पजसन्निसु बार उवओगा // 5 // _ 'सर्वे' पञ्चदशापि योगा भवन्ति / तथाहि-चतुर्धा मनोयोगः चतुर्धा वाग्योगः सप्तघा काययोगः / क ! इत्याह-'संज्ञिपर्याप्ते' संज्ञी चासौ पर्याप्तश्च संज्ञिपर्याप्तः तस्मिन् संज्ञिपर्याधे / / नन्वौदारिकमिश्रवैक्रियमिश्रकार्मणकाययोगाः कथं संक्षिपर्याप्तस्य घटन्ते तेषामपर्याधावस्थाभावित्वात् !, उच्यते-वैक्रियमित्रं संयतादेवैक्रियं प्रारभमाणस्य प्राप्यते, औदारिकमिअकार्मणकाययोगौ तु केवलिनः समुद्धातावस्थायाम् / यदाह भगवानुमाखातिवाचकवरः Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 देवेन्द्रसूरिविरचितलोपज्ञटीकोपेतः [गाथा भौदारिकप्रयोक्ता, प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः / मिश्रीदारिकयोका, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु // कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थके पश्चमे तृतीये च / (प्रश. का. 276-77) इति / 'पर्याप्से सूक्ष्मे सूक्ष्मैकेन्द्रिये औदारिककाययोगो भवति / पर्याप्तशम्दश्च "सो सन्निपजते" इति पदाद् उमरुकमणिन्यायेन सर्वत्र मोज्यः / “चउसु" ति चतुर्यु द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तेषु तदेवौदारिकं भवति / किं केवलम् ! न इत्याह-'समाष' सह भाषया असत्याभूषाखरूपया “विगलेसे असच्चमोसा" इति वचनाद् वर्तत इति समाषम् / कोऽर्थः ! विकलत्रिकासंज्ञिपञ्चेन्द्रियेषु पर्याप्तेषु औदारिककाययोगाऽसत्यामृषाभाषालक्षणौ द्वौ बोगावित्यर्थः / तद् इत्यनुवर्तते, सद् औदारिकं सह वैक्रियद्विकेन-वैक्रियवैक्रियमिश्रलक्षणेन पर्तत इति सवैक्रिवद्विकं बादरैकेन्द्रियपर्याधे भवति / अयमर्थः-पादरैकेन्द्रिये पर्याते औदारिककाययोगवैक्रियकाययोगक्रियमिप्रकाययोगलक्षमात्रयो योगा भवन्ति / सत्र मौदारिककाययोगः पृथिव्यम्बुतेजोवनस्पतीनाम्, वैक्रियद्विकं तु वायुकायस्मेति // प्ररूपिता जीवस्थानेषु योगाः / साम्प्रतमुपयोगाः मरूपणाबसरप्राप्ताः, ते च द्वादश / तद्यथा-मतिज्ञान 1 श्रुतज्ञान 2 अवधिज्ञान 3 मनःपर्यवज्ञान केवलज्ञान 5 लक्षणानि पञ्च ज्ञानानि, मत्यज्ञान 1 श्रुताज्ञान 2 विभङ्ग 3 रूपाणि त्रीण्यज्ञानानि, चक्षुर्दर्शना१ऽच. क्षुर्दर्शनारऽवधिदर्शनर केवलदर्शनरूपाणि चत्वारि दर्शनानि इत्येवानुपयोगान् जीवस्थानकेषु दिदर्शयिपुराह---"पजसन्निसु पार उवओग" ति पजशब्देन पर्याप्त उच्यते, ततः पर्याप्ताब ते सेशिनश्च पर्याप्तसंजिनः, तेषु पर्याप्तसंज्ञिषु 'द्वादश' द्वादशसच्या उपयोगा भवन्ति / ते कमेणैव न तु युगपत् , उपयोगानां तथाजीवस्वभावतो यौगपद्यासम्भवात् / उक्त - "समए दो णुवओगा" इति / श्रीभद्रवाहुखामिपादा अप्याहुः-- नाणम्मि दंसणम्मि य, एतो एगयरयम्मि उवउत्ता / सबस्स केवलिस्सा, जुगवं दो नत्थि उवओगा // (भा. नि. गा. 979) इति // 5 // पजघउरिदिअसन्निसु, दुदंस दुअनाण ससुधक्दु विणा। सनिअपजे मणनाणपक्खुकेषलदुगविहणा // 6 // चतुरिन्द्रियाच असंज्ञिनश्च चतुरिन्द्रियासज्ञिनः, पर्याप्ताश्च ते चतुरिन्द्रियासंज्ञिनश्च तेषु पर्याप्तचतुरिन्द्रियासशिषु चत्वार उपयोगा भवन्ति / के। इत्याह-"दुदंस दुअनाण" ति दर्शः-दर्शनम् , द्वषोर्दर्शयोः समाहारो द्विदर्श-चक्षुर्दर्शनाऽवक्षुर्दर्शनलक्षणम् / इयोरज्ञानयोः समाहारो अज्ञान-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपम् / अयमर्थः-पर्याप्तवतुरिन्द्रियेषु पर्षातासंशिपचे. न्द्रियेषु च मत्यज्ञानश्रुताज्ञानचक्षुर्दर्शनाऽचक्षुर्दर्शनलक्षणाश्चत्वार उपयोगा भवन्ति / दश जी विकळेषु असत्याभूषा इति // 2 समये द्वौ नोपयोगी n साने दर्शने चानयोरेकतरमिजुपयुकाः / सर्वस केवलिनो युगपदोन ख उपयोगी // Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थी कर्मपन्थः। 123 बखान के पर्याताऽपर्यातसूक्ष्मवादरैकेन्द्रियश्वीन्द्रियक्षत्रीन्द्रियादपर्याप्तचतुरिन्द्रिया९ऽसहि पञ्चेन्द्रिय १०लक्षणेषु पूर्वोक्ताश्चत्वार उपयोगाचक्षुर्दर्शनं विना भवन्ति / अयमर्थः-पूर्वोतदशजीवस्थामकेषु बक्षुर्दर्शनवर्जा अधक्षुर्दर्शनमत्यज्ञानभुताज्ञानलक्षणालय उपयोगा भवन्ति / ननु स्पर्शनेन्द्रियावरणक्षयोपशमसम्भवाद् भवतु मतिरेकेन्द्रियाणाम्, यतु भुतं तत् कथं जाघटीति ! भाषालब्धिश्रोत्रेन्द्रियलब्धिमतो हि तद् उपपद्यते नान्यस्य / तदुक्तम् भावसुयं भासासोयलद्धिको जुजए न इयरस्स / भासाभिमुहस्स सुयं, सोऊण व जं हविजाहि // (विशेषा. गा० 102) इति / उच्यते-इह तावदेकेन्द्रियाणामाहारादिसंज्ञा विद्यन्ते तथा सूत्रेऽभिधानात्, संज्ञा चामिलाप उच्यते / यदवादि परोपकारभूरिभिः श्रीहरिभद्रसूरिभिर्मलावश्यकटीकायाम् आहारसंज्ञा आहाराभिलाषः क्षुद्वेदनीयोदयप्रभवः खल्यात्मपरिणामविशेषः (पत्र 580) इति / - अभिलाषश्च ममैवंरूपं वस्तु पुष्टिकारि तद् यदीदमवाप्यते ततः समीचीनं भवतीत्येवं शब्दाथोल्लेखानुविद्धः खपुष्टिनिमित्तभूतप्रतिनियतवस्तुपाध्यध्यवसायरूपः स च श्रुतमेव, शब्दार्थालोचनानुसारित्वात् , श्रुतस्यैवैतल्लक्षणत्वात् / / यदवादिषुर्दलितप्रवादिकुवादाः श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपादा: 'इंदियमणोनिमित्तं, जं विन्नाणं सुयाणुसारेणं / निययत्थुतिसमत्थं, तं भावसुयं मई सेसं // (विशेषा० गा० 100) "सुयाणुसारेणं" ति शब्दार्थालोचनानुसारेण / केवलमेकेन्द्रियाणामव्यक्त एव कश्चनाप्यनिर्वचनीयः शब्दार्थोल्लेखो द्रष्टव्यः, अन्यथाऽऽहारादिसंज्ञाऽनुपपत्तेः / यदप्युक्तम्-भाषालब्धिश्रोत्रेन्द्रियलब्धिविकलत्वाद् एकेन्द्रियाणां श्रुतमनुपपन्नमिति, तदप्यसमीक्षिताभिधानम् , तथाहि-बकुलादेः स्पर्शनेन्द्रियातिरिक्तद्रव्येन्द्रियलब्धिविकलत्वेऽपि किमपि सूक्ष्मं भावेन्द्रियपञ्चकविज्ञानमभ्युपगम्यते “पंचिंदिओ व बउलो नरु व सविसओवलंभाओ" इत्यादिवचनप्रामाण्यात् / तथा भाषाश्रोत्रेन्द्रियलब्धिविकलत्वेऽपि तेषां किमपि सूक्ष्मं श्रुतमपि भविष्यति, अन्यथाऽऽहारादिसंज्ञाऽनुपपत्तेः / यदाह प्रशस्यभाष्यसस्यकाश्यपीकल्पः श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमण: जह सुहमं भाविंदियनाणं दबिंदियोण विरहे वि / - दयाभावम्मि वि, भावसुयं पत्थिवाईणं // (विशेषा० गा० 103) इति / संज्ञी चासौ अपर्याप्तश्च संश्यपर्याप्तः तस्मिन् संश्यपर्याचे मनःपर्यवज्ञानचक्षुर्दर्शनकेवळज्ञान१मावश्रुतं भाषाश्रोत्रलब्धिकस्य युज्यते नेतरस्य / भाषाभिमुखम्म श्रुतं श्रुत्ला वा यद् भवेत् / 1 इनियमनोनिमित्तं यद् विज्ञानं श्रुतानुसारेण / निजकार्योंकिसमर्थ वद् भावभुतं मतिः शेषम् // 1 पवेनिस इव बकुलो नर इव सर्वविषयोपलम्भात् // 4 यथा सूक्ष्मं भावेन्द्रियान इव्येन्द्रियाया विरोधपि व्य. श्रुताभावेऽपि भावभुतं पृथिव्यादीनाम् // 5 यावरोहे बि / वह दबायाभावे भा० वि विशेषा. वश्यकमाये। - Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा केवलदर्शनलक्षणकेवलद्विकविहीनाः शेषा मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनरूपा अष्टावुपयोगा भवन्ति // 6 // उक्ता जीवस्थानेषु उपयोगाः / साम्प्रतं जीवस्थानेष्वेव लेश्याः प्रतिपिपादयिषुराह सन्निदुगि छ लेस अपज्जयायरे पढम चउ ति सेसेसु। सत्तट्ठबंधुदीरण, संतुदया अट्ट तेरससु॥७॥ संज्ञिनो द्विकम्-अपर्याप्तपर्याप्तलक्षणं संज्ञिद्विकं तस्मिन् , संज्ञिन्यपर्याप्ते संज्ञिनि पर्याप्ते चेत्यर्थः, षड् लेश्याः-कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्ललक्षणा भवन्ति / अपर्याप्तबादरे प्रथमाश्वतस्रः-कृष्णनीलकापोततेजोरूपा भवन्ति / तेजोलेश्या कथमस्मिन्नवाप्यते ! इति चेद् उच्यते यदा पुढवीआउवणस्सइगब्भेपज्जत्तसंखजीवीसु / सग्गचुआणं वासो, सेसा पडिसेहिया ठाणा // (60 सं० गा० 180). इति वचनात् कश्चनापि देवः खर्गलोकात् च्युतः सन् बादरैकेन्द्रियतया मूदकतरुषु मध्ये समु. त्पद्यते तदा तस्य घण्टालालान्यायेन सा प्राप्यत इत्यदोषः। __ "ति सेसेसु" ति प्रथमा इत्यनुवर्तते, प्रथमास्तिस्रः-कृष्णनीलकापोतलक्षणाः 'शेषेषु' प्रागुकापर्याप्तपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियापर्याप्तबादरैकेन्द्रियवर्जितेषु अपर्याप्तपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियरद्वीन्द्रिय२त्रीन्द्रियर चतुरिन्द्रियारऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियरपर्याप्तबादरैकेन्द्रिय लक्षणेष्वेकादशसु जीवस्थानेषु भवन्ति ता नान्याः, तेषां सदैवाऽशुभपरिणामत्वात् , शुभपरिणामरूपाश्च तेजोलेश्यादयः // तदेवं जीवस्थानकेषु लेश्या अभिधाय साम्प्रतमेतेष्वेव बन्धोदयोदीरणासत्ताख्यस्थानचतु. ष्टयमभिधित्सुराह-"सत्तट्ठ बंधु" इत्यादि / सप्त वा अष्टौ वा सप्ताष्टाः, "सुज्वार्थे सध्या सयेये सध्यया बहुव्रीहिः" (सि. 3-1-19) इति सूत्रेण बहुव्रीहिसमासः, यथा द्वित्रा इत्यादौ / बन्धश्च उदीरणा च बन्धोदीरणे सप्ताष्टानां बन्धोदीरणे सप्ताष्टबन्धोदीरणे त्रयोदशसु जीवस्थानेषु संज्ञिपर्याप्तवर्जितेषु शेषेषु भवतः / एतदुक्तं भवति-अपर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रिय१पर्यातसूक्ष्मैकेन्द्रियारऽपर्याप्तबादरैकेन्द्रिय३पर्याप्तबादरैकेन्द्रियाऽपर्याप्तद्वीन्द्रिय५पर्याप्तद्वीन्द्रियाऽपर्याप्तत्रीन्द्रिय 7 पर्याप्तत्रीन्द्रिया८ऽपर्याप्तचतुरिन्द्रिय ९पर्याप्तचतुरिन्द्रिया१०ऽपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रिय११पर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रिया१२ऽपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रिय१३रूपेषु त्रयोदशसु जीवस्थानेषु सप्तानामष्टानां वा बन्धः, सप्तानामष्टानां वा उदीरणा। तथाहि-यदाऽनुभूयमानभवायुषस्त्रिभागनवभागादिरूपे शेषे सति परभवायुर्बध्यते तदाऽष्टानामपि कर्मणां बन्धः, शेषकालं त्वायुषो बन्धाभावात् सप्तानामेव बन्धः / तथा यदाऽनुभूयमानभवायुरुदयावलिकावशेषं भवति तदा सप्तानामुदीरणा, अनुभूयमानभवायुषोऽनुदीरणात् , आवलिकाशेषस्योदीरणाऽनहत्वात् / उदीरणा हि उदयावलिकाबहिर्वर्तिनीभ्यः स्थितिभ्यः सकाशात् कषायसहितेन कषायासहितेन वा योगकरणेन दलिकमाकृष्य उदयसमयप्राप्तदलिकेन सहाऽनुभवनम् / तथा चोक्तं कर्मप्रकृतिचूर्णी१ पृथ्व्यम्बनस्पतिगर्भपर्याप्तसङ्ख्यातवर्षजी विषु / खर्गच्युताना वासः शेषाणि प्रतिषिद्धानि स्थानानि / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6-8] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 125 उदयावलियाबाहिरिल्लठिईहिंतो कसायसहियासहिएणं जोगकरणेणं दलियमाकड्डिय उदयपत्तदलिएण समं अणुभवणमुदीरणा / ततः कथमावलिकागतस्योदीरणा भवति !, न च परमवायुषस्तदोदीरणासम्भवः, तस्योदयाभावात् , अनुदितस्य च उदीरणाऽनर्हत्वात् / शेषकालं . त्वष्टानामुदीरणा / सच्च उदयश्च माकृतत्वात् सन्तोदया, अष्टानामेव कर्मणां त्रयोदशसु जीवखानकेषु पूर्वेषु भवतः / तथाहि-एतेषु त्रयोदशसु जीवस्थानकेषु सर्वकालमष्टानामपि सत्ता, यतोऽष्टानामपि कर्मणां सत्ता उपशान्तमोगुणस्थानकं यावदनुवर्तते / एते च जीवा उत्कर्षतो यथासम्भवमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकवर्तिन एवेति / एवमुदयोऽप्येतेषु जीवस्थानेष्वष्टानामेव कर्मणां द्रष्टव्यः / तथाहि-सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकं यावदष्टानामपि कर्मणामुदयोऽवाप्यते, एतेषु च जीवस्थानकेषत्कर्षतोऽपि यथासम्भवम विरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकसम्भव इति // 7 // सत्तडछेगबंधा, संतुदया सत्त अट्ट चत्तारि।। सत्त छ पंच दुर्ग, उदीरणा सन्निपज्जत्ते // 8 // __ संज्ञी चासौ पर्याप्तश्च संज्ञिपर्याप्तः तस्मिन् संक्षिपर्याप्ते चत्वारो बन्धा भवन्ति / तद्यथासप्तानां प्रकृतीनां बन्ध एकः, अष्टानां प्रकृतीनां बन्धो द्वितीयः, षण्णां प्रकृतीनां बन्धस्तृतीयः, एकस्याः प्रकृतेर्बन्धश्चतुर्थों बन्धः / तत्राऽऽयुर्वर्जानां सप्तानां कर्मप्रकृतीनां बन्धो जघन्येनान्तर्मुहूर्त यावद् उत्कर्षेण च त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि षण्मासोनानि अन्तर्मुहूर्तोनपूर्वकोटित्रिभागाभ्यधिकानि / तथाऽऽयुर्बन्धकाले तासामष्टानां बन्धोऽजघन्योत्कर्षेणाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः, आयुषि वध्यमानेऽष्टानां प्रकृतीनां बन्धः प्राप्यते, आयुषश्च बन्धोऽन्तर्मुहूर्तमेव कालं भवति, न ततोऽप्यधिकम् / तथा एता एवाष्टावायुर्मोहनीयवर्जाः षट्, एतासां च जघन्येन एक समयं बन्धः / तथाहि-ज्ञानावरणदर्शनावरणवेदनीयनामगोत्रान्तरायरूपाणां षण्णां प्रकृतीनां बन्धः सूक्ष्मसम्परायगुणस्थाने, तत्र चोपशमश्रेण्या कश्चिदेकं समयं स्थित्वा द्वितीयसमये भवक्षयेण दिवं गतः सन् अविरतो भवति, अविरतत्वे चावश्यं सप्तप्रकृतीनां बन्धक इति षण्णां बन्धो जघन्येनैकं समयं यावद् , उत्कर्षेण वन्तर्मुहूर्तम् , सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानस्याऽऽन्तर्मोहूर्तिकत्वात् / तथा सप्तानां प्रकृतीनां बन्धव्यवच्छेदे सत्येकस्याः सातवेदनीयरूपायाः प्रकृतेर्बन्धः, सच जघन्येनैकं समयम् , एकसमयता चोपशमश्रेण्यामुपशान्तमोहगुणस्थाने प्राग्वद्भावनीया, उत्कर्षेण पुनर्देशोनां पूर्वकोटिं यावत् / स चोत्कर्षतः कस्य वेदितव्यः इति चेद् उच्यते-यो गर्भवासे माससप्तकमुषित्वाऽनन्तरं शीघ्रमेव योनिनिष्क्रमणजन्मना जातो वर्षाष्टकाचोर्ध्व संयम प्रतिपन्नः, प्रतिपत्त्यनन्तरं च क्षपकश्रेणिमारुह्य उत्पादितकेवलज्ञानदर्शनः, तस्य सयोगिकेवलिनो वेदितव्यः / अयं चात्र तात्पर्यार्थः-मिथ्यादृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तेषु सप्तानामष्टानां वा बन्धः, आयुर्वन्धाभावाद् अपूर्वकरणानिवृत्तिबादरयोश्च सप्तानां बन्धः, सूक्ष्मसम्पराये षण्णां बन्धः, उपशान्तमोहादिष्वेकस्याः प्रकृतेर्बन्धः / तथा सच्च उदयश्च प्राकृतत्वात् सन्तोदया, ततः 1 उदयावलिकाबाह्यस्थितिभ्यः कषायसहितासहितेन योगकरणेन दलिकमाकृष्य उदयप्राप्तदलिकेन स अनुभवनमुदीरणा॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपाटीकोपतः [गाथा संज्ञिप िसतामाश्रित्य त्रीणि स्थामानि, तद्यथा-सप्त अष्ट चत्वारि / एवमुदयमप्याश्रित्य त्रीणि स्थानानि, तद्यथा-सप्त अष्ट चत्वारि / तत्र सर्वप्रकृतिसमुदयोऽष्टौ, एतासां पाष्टाना सवाऽभव्यानधिकृत्याऽनाद्यपर्यवसाना, भन्यानधिकृत्याऽनादिसपर्यवसाना / तथा मोहे क्षीणे समानां सता, सा चाजघन्योत्कर्षेणाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणा, सा हि क्षीणमोहगुणस्थाने, तस्य च कालमानमन्तहर्तमिति / घातिकर्मचतुष्टयक्षये च चतसणां सजा, सा प अपन्येनाऽन्तर्मह प्रमाणा, उत्कर्षेण पुनर्देशोनपूर्वकोटिमाना / तथा सर्वप्रकृतिसमुदयोऽष्टौ, तासां च उदयोऽभव्यानाश्रित्याऽनाद्यपर्यवसानः, भव्यानाश्रित्याऽनादिसपर्यवसानः / उपशान्तमोहगुणस्थानकात् प्रतिपतितानाश्रित्य पुनः सादिसपर्यवसानः / स च जघन्येनाऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः, उशमश्रेणीतः पतितस्य पुनरप्यन्तर्मुहूर्तेन कस्याप्युपशमश्रेणिपतिपत्तेः, उत्कर्षेण तु देशोनापापुद्गलपरावर्तः / तथा ता एवाष्टौ मोहनीयवर्जाः सप्त, तासामुदयो जघन्येन एकं समयम् / तथाहि-मोहवर्जसतानां प्रकृतीनामुदय उपशान्तमोहे क्षीणमोहे वा प्राप्यते, तत्र कश्चिद् उपशान्तगुणस्थानके एकं समयं स्थित्वा द्वितीये समये भवक्षयेण दिवं गच्छन् अविरतो भवति, अविरतत्वे चावश्यमष्टानां प्रकृतीनामुदयः, ततः सपानामुदयो जघन्येनैकसमयं यावदवाप्यते, उत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्तम् , उपशान्तमोहक्षीणमोहगुणस्थानयोरान्तर्मोहूर्तिकत्वात् / तथा. घातिकर्मवर्जाश्चतस्रः प्रकृतयः, तासां च जघन्यत उदय आन्तौइर्तिकः, उत्कर्षेण देशोनपूर्वकोटिप्रमाण इति / पिण्डार्थश्चायम्-मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकमारभ्य यावद् उपशान्तमोहगुणस्थानकं तावद् अष्टानामपि सत्ता, क्षीणमोहगुणस्थाने समानां सत्ता, सयोग्ययोगिगुणस्थानकयोश्चतसणां सत्चा / तथा मिथ्यादृष्टेः प्रभृति सूक्ष्मसम्परायं यावद् अष्टानामुदयः, उपशान्तमोहगुणस्थाने क्षीणमोहगुणस्थाने च सप्तानां प्रकृतीनामुदयः, सयोग्ययोगिगुणस्थानयोश्चत. सणामुदय इति / तथा संज्ञिपर्याप्ते उदीरणास्थानानि पञ्च, तद्यथा-सप्त अष्ट षट् पञ्च द्वे इति / तत्र यदाऽनुभूयमानभवायुरावलिकावशेषं भवति तदा तथाखभावत्वेन तस्यानुदीर्यमाणत्वात् सप्तानामुदीरणा, यदा त्वनुभूयमानभवायुरावलिकावशेषं न भवति तदाऽष्टानां प्रकतीनामुदीरणा / तत्र मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकात् प्रभृति यावत् प्रमत्तसंयतगुणस्थानकं तावत् सप्तानामष्टानां वा उदीरणा, सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके तु सदैवाऽष्टानामेव उदीरणा, आयुष आवलिकाशेषे मिश्रगुणस्थानस्यैवाऽभावात् / तथाऽप्रमत्तगुणस्थानकात् प्रभृति यावत् सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकस्यावलिकाशेषो न भवति तावद् वेदनीयायुर्वर्जानां षण्णां प्रकृतीनामुदीरणा, तदानीमति विशुद्धत्वेन वेदनीयायुरुदीरणायोग्याध्यवसायस्थानाभावात् आवलिकावशेषे तु मोहनीयस्याऽप्यावलिकाप्रविष्टत्वेनोदीरणाया असम्भवात् ज्ञानावरणदर्शनावरणनामगोत्रान्तरायाणामेवोदीरणा / एतेषामेव चोपशान्तमोहगुणस्थानकेऽप्युदीरणा / क्षीणमोहगुणस्थानकेऽप्येतेषामेव यावद् आवलिकामात्रमवशेषो न भवति, आवलिकावशेषे तु ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाणामप्यावलिकाप्रविष्टत्वाद् नोदीरणेति द्वयोरेव नामगोत्रयोरुदीरणा, एवं सयोगिकेवलिगुणस्थानकेऽपि / अयोगिकेवलिगुणस्थानके तु वर्तमानो जीवः सर्वथाऽनुदीरक एव / ननु तदानीमप्येष सयोगिकेवलिगुणस्थानक इव भवोपग्राहिकर्मचतुष्टयोदयवान् वर्तते Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 120 ततः कथं तदाऽपि तयोर्नामगोत्रयोरुदीरको न भवति। नैष दोषः, उदये सत्यपि योगसव्यपेक्षत्वाद् उदीरणायाः, सदानी च तस्य योगासम्भवादिति // 8 // तदेवं जीवस्थानकेषु गुणस्थानकाद्यभिधाय साम्प्रतं मार्गणास्थानेषु जीवस्थानकादि विवक्षु. तान्येव तावद् निर्दिशन्नाह गइइंदिए य काए, जोए घेए फसायनाणेसु / संजमदंसणलेसा, भवसम्मे सन्निआहारे // 9 // गम्यते-तथाविधकर्मसचिवै वैः प्राप्यत इति गतिः-नारकत्वादिपर्यायपरिणतिः। इन्दनादिन्द्रः-आत्मा ज्ञानेश्वर्ययोगात् तस्सेदमिन्द्रियम्, "इन्द्रियम्" (सि. 7-1-171) इति सूत्रेणाऽभीष्टरूपनिष्पतिः, ततो गतिश्च इन्द्रियं च गतीन्द्रियं तलिन् गतीन्द्रिये, एवमन्यत्रापि द्वन्द्वः कार्यः, 'च: समुच्चये 2 / चीयते यथायोग्यमौदारिकादिवर्गणागणैरुपचयं नीयत इति कायः "चितिदेहावासोपसमाधाने कश्चादेः" (सि० 5-3-79) इति पञ्प्रत्ययश्चकारस्स ककारः (च) 3 / युज्यते पावनवल्गनादिचेष्टाखात्माऽनेनेति "पुनानि०" (सि० 52-130) इति घे योगः 4 / वेद्यते-अनुभूयत इन्द्रियोद्भूतं सुखमनेनेति वेदः 5 "कष शिष जप अप" इत्यादिदण्डकधातुः, कष्यन्ते-हिंस्यन्ते परस्परमस्मिन् माणिन इति कष:संसारः, कपमयन्ते-गच्छन्ति एमिर्जन्तव इति कषायाः; यद्वा कपस्यायः-लाभो येभ्यस्ते कषायाः 6 / ज्ञातिर्ज्ञानम्, यद्वा ज्ञायते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति ज्ञानम्, सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि विशेषग्रहणात्मको बोध इत्यर्थः / संयमनं-सम्यगुपरमणं सावधयोगादिति संयमः, यद्वा संयम्यते-नियम्यत आल्मा पापव्यापारसम्भारादनेनेति संयमः “संनिव्युपाद्यमः" (सि० 5-3-25) इति सूत्रेणात्प्रत्ययः, यदि वा सम्-शोभना यमाः-प्राणातिपातानृतभाषणादत्तादानाब्रह्मपरिग्रहविरमणलक्षणा अस्मिन्निति संयमश्चारित्रम् 8 / दृश्यते-विलोक्यते वस्त्वनेनेति दर्शनम् , यदि वा दृष्टिदर्शनम् , सामान्य विशेषात्मके वस्तुनि सामान्यात्मको बोष इत्यर्थः / लिश्यते-शिष्यते कर्मणा सहाऽऽत्माऽनयेति लेश्या 10 / भवति-परमपदयोग्यतामासादयतीति भव्यः-सिद्धिगमनयोग्यः "भव्यगेयजन्यरम्यापात्याप्लान्यं न वा" (सि० 5-1-7) इति कर्तरि यप्रत्ययः, सूत्रे च यकारलोपः प्राकृतत्वात् 11 // "सम्म" चि सम्य. शब्दः प्रशंसार्थोऽनिरुद्धार्थो वा, सम्यग् जीवः, तद्भावः सम्यक्त्वम्, प्रशस्तो मोक्षाविरोधी या प्रशमसंवेगादिलक्षण आत्मधर्म इति यावत् / यदाहुः श्रीभद्रबाहुखामिपादा: से में सम्मते पसरवसम्मत्तमोहणीयकम्माणुवेयणोवसमखयसमुत्थे पसमसंवेगाइलिंगे मुहे भायपरिणामे // (आव. नि० पत्र 811-1) इत्यादि 12 // संज्ञावं संज्ञा-भूतभवद्भाविभावखभावपर्यालोचनं सा विद्यते येषां ते संज्ञिनः, "ब्रह्मादिभ्यस्तौ" (सि०७-२-५) इति इन्पत्ययः, विशिष्टसरणादिरूपमनोविज्ञानसहितेन्द्रियपञ्च तसम्यक्वं प्रशस्तसम्यक्खमोहनीयकर्माणुवेदनोपशमक्षयसमुत्थः प्रशमसंवेगादिलिःशुभ आत्मपरिणाम:।। २मतिप्रवलोऽयं लेखकदोषो यमोफ्लभ्यतेऽदः किन्तु बीयादिभ्य इति / तत्त्वत शिखादिभ्य इनित्यनेनैवेन (सि• 7-1-4) // Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा कसमन्विता इत्यर्थः 13 / ओजआहारलोमाहारकवलाहाराणामन्यतममाहारमाहारयति-गृहा. तीत्याहारः, "अच्" (सि० 5-1-49) इत्यच् [प्रत्ययः ] आहारक इत्यर्थः 14 / ओजआहारादीनां लक्षणमिदम् सरिरेणोयाहारो, तयाइ फासेण लोमआहारो। पक्खेवाहारो पुण, कावलिओ होइ नायबो // (प्रव० गा० 1980) // 9 // उकानि मूलभूतानि चतुर्दश मार्गणास्थानानि / इदानीमेतेषामेवोत्तरभेदानाह सुरनरतिरिनिरयगई, इगपियतियचउपणिदि छकाया। भूजलजलणाऽनिलवणतसा य मणवयणतणुजोगा // 10 // इह गतिशब्दः प्रत्येक सम्बध्यते, ततः सुरगतिः नरगतिः तिर्यग्गतिः नरकगतिः / तत्र सुष्ठ राजन्त इति सुराः, यदि वा सुष्टु रान्ति-ददति प्रणतानामभीप्सितमर्थ लवणाधिपसुस्थित इव लवणजलधौ मार्ग जनार्दनस्येति सुराः, यद्वा 'सुरत् ऐश्वर्यदीयोः' सुरन्तिविशिष्टमैश्वर्यमनुभवन्ति दिव्याभरणसम्भारसमृद्ध्या सहजनिजशरीरकान्त्या च दीप्यन्त इति सुराः, सुरेषु विषये गतिः सुरगतिः / नृणन्ति-विवेकमासाद्य नयधर्मपरा भवन्तीति नराःमनुष्यास्तेषु विषये गतिर्नरगतिः। “तिरि" ति प्राकृतत्वात् तिरोऽञ्चन्ति-गच्छन्तीति तिर्यञ्चः, व्युत्पत्तिनिमित्तं चैतत् प्रवृत्तिनिमित्तं तिर्यग्गतिनाम, एते चैकेन्द्रियादयः, ततस्तिर्यक्षु विषये गतिस्तिर्यग्गतिः / नरान् उपलक्षणत्वात् तिरश्चोऽपि प्रमूतपापकारिणः कायन्तीव आह्वयन्तीवेति नरकाः-नरकावासास्तत्रोत्पन्ना जन्तवोऽपि नरकाः, नरको वा विद्यते येषां ते "अनादिभ्यः" (सि०७-२-४६) इत्यप्रत्यये नरकास्तेषु विषये गतिर्नरकगतिः / इहापि इन्द्रियशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद् एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रिया इति 2 / षट् कायाः-भूः-पृथ्वी जलम्-आपः ज्वलनं-तेजः अनिलः–वायुः "वण" ति वनस्पतिः त्रसाः-द्वीन्द्रियादयः; ततः प्रत्येकं कायशब्दस्य योगात् पृथिव्येव कायः शरीरं यस्य स पृथिवीकायः, एवमप्कायः तेजस्कायः वायुकायः वनस्पतिकायः. प्रसकाय इति 3 / 'चः' समुच्चये / योगशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् त्रयो योगाः, तथाहिमनोयोगः वचनयोगः तनुयोगः / तत्र तनुयोगेन मनःप्रायोग्यवर्गणाभ्यो गृहीत्वा मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानि वस्तुचिन्ताप्रवर्तकानि द्रव्याणि मन इत्युच्यन्ते, तेन मनसा सहकारिकारणभूतेन योगो मनोयोगः, मनोविषयो वा योगो मनोयोगः / उच्यत इति वचनं भाषापरिणामापन्नः पुद्गलद्रव्यसमूह इत्यर्थः, तेन वचनेन सहकारिकारणभूतेन योगो वचनयोगः, वचनविषयो वा योगो वचनयोगः / तनोति-विस्तारयत्यात्मप्रदेशानस्यामिति तनुरौदारिकादिशरीरं तया सहकारिकारणभूतया योगस्तनुयोगः, तनुविषयो वा योगस्तनुयोगः 4 // 10 // वेय नरित्थिनपुंसा, कसाय कोहमयमायलोभ त्ति / मइसुयज्वहिमणकेवलविभंगमइसुअनाणसागारा // 11 // वेदशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् त्रयो वेदाः-नरवेदः स्त्रीवेदः नपुंसकवेदः / तत्र नरस्यशरीरेणौजाहारस्वचा सर्गेन लोमाहारः / प्रक्षेपाहारः पुनः कावलिको भवति सातव्यः // Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10-11] पडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 129 पुरुषस्य स्त्रियं प्रति अभिलाषो नरवेदः, स्त्रियः योषितः पुरुषं प्रत्यभिलाषः स्त्रीवेदः, नपुंसकस्य-पण्डस्य स्त्रीपुरुषो प्रत्यभिलाषो नपुंसकवेदः 5 / कषायाश्चत्वारः-क्रोधकषायः “मद" ति मदो मानोऽहकारो गर्व इत्यर्थः मानकषायः मायाकपाय: लोभकषायः / इतिशब्दः कषायाणामनन्तानुबन्ध्यादिबहुभेदसूचनार्थः, सूत्रे च "मायलोभ" ति हखत्वं प्राकृतत्वात् 6 // "मइसुयऽवहि" इत्यादि / इहाऽवधीत्यत्राऽकारलोपाद् ज्ञानशब्दस्य च प्रत्येकं सम्बन्धाद् एवं प्रयोगः-मतिज्ञानं श्रुतज्ञानम् अवधिज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं केवलज्ञानम् , तथा विभङ्गमत्यज्ञानभुताज्ञानानि / एतानि पञ्च ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि साकाराणि वर्तन्त इति वाक्यार्थः / भावार्थस्त्वयम्-"बुधि मनिच् ज्ञाने" मननं मतिः, यद्वा मन्यते-इन्द्रियमनोद्वारेण नियतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनयेति मतिः-योग्यदेशावस्थितवस्तुविषय इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेषः, मतिश्च सा ज्ञानं च मतिज्ञानम् / श्रवणं श्रुतम्-अभिलापप्लावितार्थग्रहणहेतुरुपलब्धिविशेषः, एवमाकारं वस्तु घटशब्दाभिलाप्यं जलधारणाद्यर्थक्रियासमर्थमित्यादिरूपतया प्रधानीकृतत्रिकालसाधारणसमानपरिणामः शब्दार्थपर्यालोचनानुसारी इन्द्रियमनोनिमित्तोऽवगमविशेष इत्यर्थः, श्रुतं च तद् ज्ञानं च श्रुतज्ञानम् / अवधानमवधिः-इन्द्रियाद्यनपेक्षमात्मनः साक्षादर्थग्रहणम् , अथवा अवशब्दोऽधःशब्दार्थः अव-अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते-परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः; यद्वा अवधिः-मर्यादा रूपिप्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः, अवधिश्च तद् ज्ञानं च अवधिज्ञानम् / परि-सर्वतोभावे, अवनमवः, "तुदादिभ्योऽनको" इत्यधिकारे “अकितौ च" इत्यनेनौणादिकोऽकारप्रत्ययः, अवनं गमनं वेदनमिति पर्यायाः, परि अवः पर्यवः, मनसि मनसो वा पर्यवो मनःपर्यवः सर्वतस्तत्परिच्छेद इत्यर्थः, मनःपर्यवश्व तद् ज्ञानं च मनःपर्यवज्ञानम् / यद्वा मनःपर्यायज्ञानम् , तत्र संज्ञिभिर्जीवैः काययोगेन गृहीतानि मनःप्रायोग्यवर्गणाद्रव्याणि चिन्तनीयवस्तुचिन्तनव्याहतेन मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमय्याऽऽलम्ब्यमानानि मनासीत्युच्यन्ते, तेषां मनसां पर्यायाः-चिन्तनानुगताः परिणामा मनःपर्यायाः, तेषु तेषां वा सम्बन्धि ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् / यद्वा आत्मभिर्वस्तुचिन्तने व्यापारितानि मनांसि पर्येति-अवगच्छतीति मनःपर्यायम् "कर्मणोऽण्" (सि. 5-3-14) इत्यणप्रत्ययः, मनःपर्यायं च तद् ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानम् / केवलम्-एकं मत्यादिरहितत्वात् "नेट्टम्मि उ छाउमथिए नाणे" (आ० नि० गा० 539) इति परममुनिप्रणीतवचनप्रामाण्यात्, शुद्धं वा केवलं तदावरणमलकलङ्कपकापगमात्, सकलं वा केवलं तत्प्रथमतयैव निःशेषतदावरणविगमतः सम्पूर्णोत्पत्तेः, असाधारणं वा केवलम् अनन्यसदृशत्वात् , अनन्तं वा केवलं ज्ञेयानन्तत्वाद अपर्यवसितानन्तकालावस्थायित्वाद्वा, निर्व्याघातं वा केवलं लोकेऽलोके वा कापि व्याघाताभावात्, केवलं च तद् ज्ञानं च केवलज्ञानं यथावस्थितसमस्तभूतभवद्भाविभावावभासि ज्ञानमिति भावना / था मतिश्रुतावधिज्ञानान्येव मिथ्यात्वपङ्ककलुषिततया यथाक्रमं मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानयपदेशभाञ्जि भवन्ति / उक्तं च आद्यत्रयमज्ञानमपि भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम् // (प्रश० का० 227) इति / नष्टे तु छानस्थिके ज्ञाने / Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा . "विभंग" ति विपरीतो भङ्गः-परिच्छित्तिप्रकारो यसिंस्तद् विभङ्गम् , विपर्यस्तमवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानमुच्यते इत्यर्थः / सह आकारेण-जातिवस्तुप्रतिनियतग्रहणपरिणामरूपेण "आगारो उ विसेसो" इति वचनाद् विशेषेण वर्तन्त इति साकाराणि / अयमर्थः-वक्ष्यमाणानि चत्वारि दर्शनान्यनाकाराणि, अमूनि च पञ्च ज्ञानानि साकाराणि / तथाहि-सामान्यविशेषात्मकं हि सकलं ज्ञेयं वस्तु, कथम् ! इति चेद् उच्यते-दूरादेव हि शालतमालतालबकुलाशोकचम्पककदम्बंजम्बुनिम्बादिविशिष्टव्यक्तिरूपतयाऽनवधारितं तरुनिकरमवलोकयतः सामान्येन वृक्षमात्रप्रतीतिजनकं यदपरिस्फुटं किमपि रूपं चकास्ति तत् सामान्यरूपमनाकारं दर्शनमुच्यते, "निर्विशेषं विशेषाणामग्रहो दर्शनमुच्यते” इति वचनप्रामाण्यात् / यत् पुनस्तस्यैव निकटीभूतस्य तालतमालशालादिव्यक्तिरूपतयाऽवधारितं तमेव महीरुहसमूहमुत्पश्यतो विशिष्टव्यक्तिप्रतीतिजनकं परिस्फुट रूपमाभाति तद् विशेषरूपं साकारं ज्ञानम् अप्रमेयप्रभावपरमेश्वरप्रवचनप्रवीणचेतसः प्रतिपादयन्ति, सह विशिष्टाकारेण वर्तत इति कृत्वा / तदेवं प्रतिप्राणिप्रसिद्धप्रमाणाबाधितप्रतीतिवशात् सर्वमपि वस्तुजातं सामान्यविशेषरूपद्वयात्मकं भावनीयमिति // 11 // सामइय छेय परिहार सुहुम अहखाय देस जय अजया। चक्खु अचक्खू ओही, केवलदसण अणागारा // 12 // समानां-ज्ञानदर्शनचारित्राणामायः-लाभः समायः समाय एव सामायिकं विनयादेराकृतिगणत्वाद् इकण्प्रत्ययः, यद्वा समः-रागद्वेषविप्रमुक्तो यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति, आयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः, समस्य आयः समायः, समो हि प्रतिक्षणमपूर्वैनिदर्शनचरणपर्यायैर्भवाटवीभ्रमणसंक्लेशविच्छेदकैर्निरुपमसुखहेतुभिरधःकृतचिन्तामणिकामधेनुकल्पद्रुमोपमैर्युज्यते, समाय एव सामायिकं मूलगुणानामाधारभूतं सर्वसावद्यविरतिरूपं चारित्रम् / यदाह वाचकमुख्या सामायिकं गुणानामाधारः खमिव सर्वभावानाम् / न हि सामायिकहीनाश्चरणादिगुणान्विता येन // तस्माजगाद भगवान् , सामायिकमेव निरुपमोपायम् / शारीरमानसानेकदुःखनाशस्य मोक्षस्य / / यद्यपि च सर्वमपि चारित्रमविशेषतः सामायिक तथापि च्छेदादिविशेषैविशेष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते। प्रथमं पुनरविशेषणात् सामान्यशब्द एवावतिष्ठते सामायिकमिति। तच्च द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च / तत्रत्वरं भाविव्यपदेशान्तरत्वात् खल्पकालम् , तच्च प्रथमचरमतीर्थकरतीर्थे भरतैरवतेषु यावद् अद्यापि शैक्षकस्य महावतानि नारोप्यन्ते तावद् विज्ञेयम् / आत्मनः कथां यावद् यदास्ते तद् यावत्कथं यावज्जीवमित्यर्थः, यावत्कथमेव यावत्कथिकम् , एतच्च भरतैरवतेषु प्रथमैचरमवर्जमध्यमद्वाविंशतितीर्थकरतीर्थान्तर्गतसाधूनां महाविदेहतीर्थकरमुनीनां चावसेयम् , तेषामुपस्थापनाया अभावात् / “छेय" ति छेदोपस्थापना, तत्र पूर्वपर्यायस्य 'छेदेनोपस्थापना-महात्रेतेष्वारोपणं यत्र चारित्रे तत् छेदोपस्थापनम् , भरतैरवतप्रथमचरमतीर्थकरतीर्थ एवं आकारस्तु विशेषः // 2 °मपश्चिमव क० ख० ग०००॥ 3 मुत्थापनाया अ°क० ख० ग० रु०॥ 4 छैदेनोत्था ख०3०।छेदोत्थाप°ग०॥ ५व्रतेषु यत्र क०स०ग० घ००॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 131 नान्यत्र / तच्च द्विधा-सातिचारं निरतिचार च। तत्राऽनतिचारमित्वरसामायिकस्य शैक्षकस्य यद आरोप्यते, तीर्थान्तरं वा सङ्कामतः साधोः, यथा श्रीपार्श्वनाथतीर्थाद् वर्धमानखामितीर्थ सङ्कामतः पञ्चयामधर्मप्रतिपत्तौ / सातिचारं पुनर्यद् मूलगुणघातिनः पुनर्वतोच्चारणम् / “परिहारे" त्ति 'परिहारविशुद्धिकं' परिहरणं परिहारस्तपोविशेषस्तेन विशुद्धिर्यस्मिंश्चारित्रे तत् परिहारविशुद्विकम् , तच्च द्विधा-निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकं च / तत्र निर्विशमानका विवक्षितचारित्रसेवकाः, निर्विष्टकायिका आसेवितविवक्षितचारित्रकायिकाः, तदन्यतिरेकात् चारित्रमप्येवमुच्यते / इह नवको गणः, तत्रैको वाचनाचार्यश्चत्वारो निर्विशमानकाश्चत्वारश्चाऽनुचारिणः / निविंशमानकानां चायं तपोविशेषः परिहारियाण उ तवो, जहन्न मज्झो तहेव उक्कोसो। सीउण्हवासकाले, भणिओ धीरेहिँ पत्तेयं // तत्थ जहन्नो गिम्हे, चउत्थ छटुं तु होइ मज्झिमओ / अट्ठममिह उक्कोसो, इत्तो सिसिरे पवक्खामि // . सिसिरे उ जहन्नाई, छट्टाई दसमचरिमगो होइ / वासासु अट्ठमाई, बारसपज्जंतगो नेओ // पारणगे आयामं, पंचसु गहों दोसऽभिग्गहो मिक्खे / कप्पट्टिया वि पइदिण, करेंति एमेव आयामं // एवं छम्मास तवं, चरित्रं परिहारिया अणुचरंति / अणुचरगे परिहारियपैयट्टिए जाव छम्मासा // कैप्पट्टिओ वि एवं, छम्मास तवं करेइ सेसा उ / अणुपरिहारिंगभावं, वयंति कप्पट्टियत्तं च // ऎवेसो अट्टारसमासपमाणो उ वन्निओ कप्पो / संखेवओ विसेसो, विसेससुत्ताउ नायबो // कैप्पसमत्तीइ तयं, जिणकप्पं वा उविंति गच्छं वा। पडिवज्जमाणगा पुण, जिणस्सगासे पवजति // (प्रवच० गा०६०२-६०९) परिहारिकाणां तु तपः जघन्य मध्यम तथैवोत्कृष्टम् / शीतोष्णवर्षाकाले भणितं धीरैः प्रत्येकम् // तत्र जघन्यं प्रीमे चतुर्थ षष्ठं तु भवति मध्यमम् / अष्टममिह उत्कृष्टमितः शिशिरे प्रवक्ष्यामि // शिशिरे तु जघन्यादि षष्ठादि दशमचरमकं भवति / वर्षासु अष्टमादि द्वादशपर्यन्तकं झेयम् ॥पारणके आचाम्ल पञ्चसु ग्रहः दूयोरभिप्रहो भिक्षे / कल्पस्थिता अपि प्रतिदिनं कुर्वन्ति एवमेवाचामाम्लम् // एवं षण्मासान् तपश्चरिला परिहारिका अनुचरन्ति / अनुचरकाः परिहारिकपदस्थिता यावत् षण्मासान् // 2 प्रवचनसारोद्धारेतु-परिट्ठिए-परिस्थिताः इति // 3 कल्पस्थितोऽप्येवं षण्मासास्तपः करोति शेषास्तु / अनुपरिहारिकभावं ब्रजन्ति कल्पस्थितलं च // एवं एषोऽष्टादशमासप्रमाणस्तु वर्णितः कल्पः / संक्षेपतो विशेषो विशेषसूत्राद ज्ञातव्यः॥ 4 एवं सो अ°क० ग०॥ 5 कल्पसमाप्तौ तक (परिहारिककल्पं)जिनकल्पं वोपयन्ति गच्छ वा। प्रतिपथमानकाः पुनर्जिनसकाशे प्रपद्यन्ते // Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेता [गाथा तित्थयरसमीवासेवगस्स पासे व न उण अन्नस्स। . एएसिं जं चरणं, परिहारविसुद्धिगं तं तु // (प्रवच० गा० 610) ' अथैते परिहारविशुद्धिकाः कस्मिन् क्षेत्रे काले वा भवन्ति !, उच्यते-रह क्षेत्रादिनिरूपपार्थ विंशतिद्वाराणि / तद्यथा-क्षेत्रद्वारं 1 कालद्वारं 2 चारित्रद्वार 3 तीर्थद्वारं 4 पर्यायद्वारम् 5 आगमद्वारं 6 वेदद्वारं 7 कल्पद्वारं 8 लिङ्गद्वार 9 लेश्याद्वारं 10 ध्यानद्वारं 11 गणद्वारम् 12 अभिग्रहद्वारं 13 प्रव्रज्याद्वारं 14 मुण्डापनद्वारं 15 प्रायश्चित्तविधिद्वार 16 कारणद्वारं 17 निःप्रतिकर्मद्वारं 18 भिक्षाद्वारं 19 बन्धद्वारम् 20 / तत्र क्षेत्रे द्विधा मार्गणा-जन्मतः सद्भावतश्च / यत्र क्षेत्रे जातस्तत्र जन्मतो मार्गणा, यत्र च कल्पे स्थितो वर्तते तत्र सद्भावतः / उक्तं च-.. .. खिते दुहेह मग्गण, जम्मणओ चेव संतिभावे य / जम्मणओ जहिं जाओ, संतीभावो य जहिं कैप्पो // (पञ्चव०.१४८५) तत्र जन्मतः सद्भावतश्च पञ्चसु भरतेषु पञ्चखैरवतेषु न तु महाविदेहेषु / न चैतेषां संहरणमस्ति येन जिनकल्पिका इव संहरणतः सर्वासु कर्मभूमिष्वकर्मभूमिषु वा प्राप्येरन् / उक्तं च 'खेते भरहेरवएसु हुति संहरणवज्जिया नियमा। (पञ्चव० गा० 1529) कालद्वारे-अवसर्पिण्यां तृतीये चतुर्थे वाऽरके जन्म, सद्भावः पञ्चमेऽपि, उत्सर्पिण्यां द्वितीये तृतीये चतुर्थे वा जन्म, सद्भावः पुनस्तृतीये चतुर्थे वा / उक्तं च ओसैप्पिणीऍ दोसु, जम्मणओ 'तीसु संतिभावेणं / . उस्सप्पिणि विवरीओ, जम्मणओ संतिभावेणं // (पञ्चव० गा० 1487) नोउत्सर्पिण्यवसर्पिणीरूपे चतुर्थारकप्रतिभागे काले न सम्भवन्ति, महाविदेहक्षेत्रे तेषामसम्भवात् / चारित्रद्वारे-संयमद्वारेण मार्गणा / तत्र सामायिकस्य च्छेदोपस्थापनस्य च चारित्रस्य यानि जघन्यानि संयमस्थानानि तानि परस्परं तुल्यानि, समानपरिणामत्वात् , ततोऽसयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि संयमस्थानान्यतिक्रम्योर्ध्व यानि संयमस्थानानि तानि परिहारविशुद्धियोग्यानि, तान्यपि च केवलिप्रज्ञया परिमाव्यमानान्यसझयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि, तानि प्रथमद्वितीयचारित्राविरोधीवि तेष्वपि सम्भवात् / तत ऊर्ध्व यानि सङ्ख्यातीतानि संयमस्थानानि तानि सूक्ष्मसम्पराययथाख्यातचारित्रयोग्यानि / उक्तं च तुल्ला जहन्नठाणा, संजमठाणाण पढमबियाणं / ' तत्तो असंखलोए, गंतुं परिहारियट्ठाणा // (पञ्चव० गा० 1530) .१तीर्थकरसमीपासेवकस्य पार्श्वे वा न पुनरन्यस्य / एतेषां यत् चरणं परिहारविशुद्धिकं तत्तु // 2 क्षेत्र द्विधेह मार्गणा जन्मतवैव सद्भावतश्च / जन्मतो यत्र जातः सद्भावतश्च यत्र कल्पः॥ 3 कप्पे क. स्व. ग०००॥ ४क्षेत्रे भरतैरवतयोः भवन्ति संहरणवर्जिता नियमाद्॥ 5 अवसर्पिण्या दूयोर्जन्मतखिमषु सद्भावेन / उत्सर्पिण्यां विपरीतं जन्मतः सद्भावतः // ६तिसुभ संपञ्चवस्तुके॥ 7 तुल्यानि अपन्यस्थानानि संयमस्थानयोः प्रथमद्वितीययोः। ततोऽसङ्ख्यातलोकान् गला परिहारिकस्थानानि // ८°णाई पक०ख०म०प० रु०॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / / 'ते 'वि असंखा लोगा, अविरुद्धा चेव पढमबीयाणं / उवरि पि तो असंखा, संजमठाणाउ दुण्हं पि // (पञ्चव० गा० 1531) तत्र परिहारविशुद्धिककल्पप्रतिपत्तिः खकीयेष्वेव संयमस्थानेषु वर्तमानस्य भवति न शेषेषु / यदा वतीतनयमधिकृत्य पूर्वप्रतिपन्नो विवक्ष्यते तदा शेषेष्वपि संयमस्थानेषु भवति, परिहारविशुद्धिककल्पसमाप्त्यनन्तरमन्येष्वपि च चारित्रेषु सम्भवात् , तेष्वपि च वर्तमानस्याऽतीतनयमपेक्ष्य पूर्वप्रतिपन्नत्वात् / उक्तं च सट्ठाणे पडिवत्ती, अन्नेसु वि हुज्ज पुज्वपडिवन्नो / तेसु वि वÉतो सो, तीयनयं पप्प वुच्चइ उ // (पञ्चव० गा० 1532) तीर्थद्वारे-परिहारविशुद्धिको नियमतः तीथे प्रवर्तमान एव सति भवति, न तूच्छेदेऽनुमत्त्यां वा तदभावे जातिस्मरणादिना / उक्तं च "तिथि ति नियमओ चिय, होइ.स तित्यम्मि न उण तदभावे / / विगएऽणुप्पन्ने वा, जाईसरणाईएहिं तु // (पञ्चव० गा० 1492) पर्यायद्वारे--पर्यायो द्विधा-गृहस्थपर्यायो यतिपर्यायश्च / एकैकोऽपि द्विधा-जघन्य उत्कृष्टश्च / तत्र गृहस्थपर्यायो जघन्य एकोनत्रिंशद्वर्षाणि, यतिपर्यायो विंशतिः, द्वावपि चोकष्टतो देशोनपूर्वकोटीप्रमाणौ / उक्तं च ऐयस्स एस नेओ, गिहिपरियाओ जहन्निगुणतीसा / / जइपरियाओ वीसा, दोसु वि उक्कोस देसूणा // (पञ्चव० गा० 1994) .. आगमद्वारे-अपूर्वागमं स नाधीते, यस्मात् तं कल्पमधिकृत्य प्रगृहीतोचितयोगाराधनत एव स कृतकृत्यतां भजते, पूर्वाधीतं तु विश्रोतसिकाक्षयनिमित्तं नित्यमेवैकाप्रमनाः सम्यक् प्रायोऽनुस्मरति / उक्तं च अप्पुव्वं नाहिजइ, आगममेसो पडुच्च तं कैप्पं / जमुचियपंगहियजोगाराहणओ चेव कयकियो / पुव्याहीयं तु तयं, पायं अणुसरइ निच्चमेवेसो / एगग्गमणो सम्मं, विस्सोयसिगाइखयहेऊ // (पञ्चव० गा० 1495-96) वेदद्वारे-प्रवृत्तिकाले वेदः पुरुषवेदो वा नपुंसकवेदो वा भवेत् , न स्त्रीवेदः, स्त्रियाः परिहारविशुद्धिककल्पप्रतिपत्त्यसम्भवात् / अतीतनयमधिकृत्य पुनः पूर्वप्रतिपनश्चिन्त्यमानः सवेदो * 1 तान्यपि असल्यानि लोकानि अविरुद्धान्येव प्रथमद्वितीययोः। उपर्यपि ततोऽसंख्यातानि संयमस्थानानि द्वयोरपि // 2 ताण वि असंखलो पञ्चवस्तुके। 3 खस्थाने प्रतिपत्तिरन्येष्वपि भवेत् पूर्वप्रतिपमः। तेष्वपि वर्तमानः सोऽतीतनयं प्राप्य उच्यते तु॥ 4 तीर्थे इति नियमत एव भवति स तीर्थे न पुनख. . दभावे / विगतेऽनुत्पन्ने वा जातिस्मरणादिकैस्तु // 5 एतस्यैष झेयो गृहिपर्यायो जघन्यत एकोनत्रिंशत् (वर्षाणि)। यतिपर्यायो विंशतियोरपि उत्कृष्टो देशोना (पूर्वकोटी)॥ अपूर्व नाधीते भागममेष प्रतीत्य तं कल्पम् / यदुचितप्रगृहीतयोगाराधनत एव कृतकृत्यः॥ 7 जम्मं पश्ववस्तुके॥८°पगिढजो° पञ्चवस्तुके // 9 पूर्वाधीतं तु तत् (श्रुतम्) प्रायोऽनुस्मरति नित्यमेवैषः / एकाप्रमनाः सम्यग् विश्रोतसिकाविक्षयहेतुम् // Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा वा भवेद् अवेदो वा, तत्र सवेदः श्रेणिप्रतिपत्त्यभावे उपशमश्रेणिप्रतिपत्तौ वा, क्षपकश्रेणिप्रति. पत्तौ स्ववेद इति / उक्तं च 'वेदो पवित्तिकाले, इत्थीवजो उ होइ एगयरो। पुन्वपडिवन्नओ पुण, होज सवेओ अवेओ वा // (पञ्चव० गा० 1497) कल्पद्वारे-खितकल्प एवायं नास्थितकरुपे, “ठियकप्पम्मि वि नियमा" (पञ्चव० गा. 1533) इति वचनात् / तत्राऽऽचेलक्यादिषु दशखपि स्थानेषु ये स्थिताः साधवस्तत्कल्पः स्थितकल्प उच्यते, ये पुनश्चतुर्षु शय्यातरपिण्डादिष्ववस्थितेषु कल्पेषु स्थिताः शेषेषु चाऽऽचेलक्यादिषु षवस्थितास्तत्कल्पोऽस्थितकल्पः / उक्तं च ठिय अट्ठिओ य कप्पो, आचेलकाइएसु ठाणेसु / सव्वेसु ठिया पढमो, चउ ठिय छसु अट्ठिया बीओ।। (पञ्चव० गा० 1499) आचेलक्यादीनि च दश स्थानान्यमूनि : आचेलकुदेसियसिज्जायररायपिंडकिइकम्मे / __वयजिट्ठपडिक्कमणे, मासंपज्जोसवणकप्पे // (पञ्चव० गा० 1500) * चस्वारश्चावस्थिताः कल्पा इमे सिज्जोयरपिंडम्मी, चाउज्जामे य पुरिसजेट्टे य। किइकम्मस्स य करणे, चत्तारि अवट्ठिया कप्पा // (पञ्चाश० 17 गा० 10) लिङ्गद्वारे-नियमतो द्विविधेऽपि लिङ्गे भवति / तद्यथा-द्रव्यलिङ्गे भावलिङ्गे च / एकेनापि विना विवक्षितकल्पोचितसामाचार्ययोगात् / लेश्याद्वारे-तेजःप्रभृतिकासूत्तरासु तिसूषु विशुद्धासु लेश्यासु परिहारविशुद्धिकं कल्पं प्रतिपद्यते, पूर्वप्रतिपन्नः पुनः सर्वाखपि कथञ्चिद् भवति, तत्राऽपीतराखविशुद्धलेश्यासु नात्यन्तसंक्लिष्टासु वर्तते, तथाभूतासु वर्तमानो न प्रभूतं कालमवतिष्ठते, किन्तु स्तोकम् , यतः खवीर्यवशात् झटित्येव ताभ्यो व्यावर्तते / अथ प्रथमत एव कस्मात् प्रवर्तते ! उच्यते-कर्मवशात् / उक्तं च लेसासु विसुद्धासुं, पडिवजइ तीसु न उण सेसासु / पुन्वपडिवन्नओ पुण, हुज्जा सव्वासु वि कहंचि // नचंतसंकिलिट्ठासु थोवकालं च हंदि इयरेसु / चित्ता कम्माण गई, तहा वि विरियं फलं देह // (पञ्चव० गा० 1503-4) वेदः प्रवृत्तिकाले स्त्रीवर्जस्तु भवति एकतरः / पूर्वप्रतिपक्षकः पुनर्भवेत् सवेदोऽवेदो वा // 1 स्थितकल्प एव नियमात् / 3 स्थितोऽस्थितश्च कल्पः आचेलक्यादिकेषु स्थानेषु / सर्वेषु स्थिताः प्रथमः चतुर्पु स्थिताः षदखस्थिता द्वितीयः॥ 4 आचेलक्यौदेशिकशय्यातरराजपिण्डकृतिकर्माणि / व्रतज्येष्ठप्रतिक्रमणानि मासपर्युषणाकल्पौ॥ 5 शय्यातरपिण्डे चतुर्यामे च पुरुषज्येष्ठ्ये च / कृतिकर्मणश्च करणे चलारोऽवस्थिताः कल्पाः॥ (पश्चाशके प्रवचनसारोद्धारेच-'ठिइकप्पो मज्झिमाणं तु' इत्येवं पाठः॥ 7 लेश्यासु विशुद्धासु प्रतिपयते तिसूषु न पुनः शेषासु / पूर्वप्रतिपनकः पुनर्भवेत् सर्वाखपि कथञ्चित् // नात्यन्तसंक्लियसु स्तोककालं वहन्दि इतरासु / चित्रा कर्मणां गतिः तथापि वीर्य फलं ददाति // 8 इयराम घ०पञ्चवस्तकेच॥ . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मप्रन्थः / .135 ध्यानद्वारे-धर्मध्यानेन प्रवर्तमानेन परिहारविशुद्धिकं करूपं प्रतिपद्यते / पूर्वप्रतिपन्नः पुनरातरौद्रयोरपि भवति केवलं प्रायेण निरनुबन्धः / उक्तं च झाणम्मि वि धम्मेणं, पडिवजइ सो पवड्डमाणेणं / इयरेसु वि झाणेसुं, पुव्वपवन्नो न पडिसिद्धो // ऐवं च कुसलजोगे, उद्दामे तिव्वकम्मपरिणामा / रुद्देसु वि भावो, इमस्स पायं निरणुबंधो // (पञ्चव० गा० 1505-6) गणद्वारे-जघन्यतस्त्रयो गणाः प्रतिपद्यन्ते, उत्कर्षतः शतसङ्ख्याः / पूर्वप्रतिपन्ना जघन्यत उत्कर्षतो वा शतशः / पुरुषगणनया जघन्यतः प्रतिपद्यमानाः सप्तविंशतिः, उत्कर्षतः सहस्रम् / पूर्वप्रतिपन्नाः पुनर्जघन्यतः शतशः, उत्कर्षतः सहस्रशः / आह च गैणओ तिन्नेव गणा, जहन्न पडिवत्ति सयस उक्कोसा / उकोसजहन्नेणं, सयसु चिय पुव्वपडिवन्ना // सत्तावीस जहन्ना, सहस्समुकोसओ य पडिवत्ती। सयसो सहस्ससो वा, पडिवन्न जहन्न उक्कोसा // (पश्चव० गा० 1534-35) अन्यच्च यदा पूर्वप्रतिपन्नः कल्पमध्याद् एको निर्गच्छति अन्यः प्रविशति तदोनप्रक्षेपे प्रतिपत्तौ कदाचिद् एकोऽपि भवति पृथक्त्वं वा / उक्तं च पैडिवजमाण भइया, इक्को वि य हुज ऊणपक्खेवे / पुवपडिवन्नया वि य, भइया एक्को पुहत्तं वा // (पञ्चव० गा० 1536) अभिग्रहद्वारे-अभिग्रहाश्चतुर्विधाः / तद्यथा-द्रव्याभिग्रहाः क्षेत्राभिग्रहाः कालाभिग्रहा भावाभिग्रहाश्च विचित्रा भवन्ति / तत्र परिहारविशुद्धिकस्य इमेऽभिग्रहा न भवन्ति, यमाद् एतस्य कल्प एवं यथोदितरूपोऽभिग्रहो वर्तते / उक्तं च दवाईय अभिग्गह, विचित्तरूवा न हुंति पुण केई / एयर्स जावकप्पो, कप्पु चियऽभिग्गहो जेण // ऐयम्मि गोयराई, नियया नियमेण निरखवाया य। . तप्पालणं चिय परं, एयस्स विसुद्धिठाणं तु // (पञ्चव० गा० 1509-10) प्रव्रज्याद्वारे-नासावन्यं प्रव्राजयति कल्पस्थितिरेषेति कृत्वा / उक्तं च ध्यानेऽपि धर्मेण (भ्यानेन) प्रतिपद्यतेऽसौ प्रवर्धमानेन / इतरेष्वपि भ्यानेषु पूर्वप्रपनो न प्रतिषिद्धः॥ एवं च कुशलयोगे उदामे तीव्रकर्मपरिणामात् / रौद्रातयोरपि भावोऽस्य प्रायो निरनुबन्धः॥ 2 एवं अक. क० ख० ग० घ० रु०॥ 3 गणतस्त्रय एव गणा जघन्या प्रतिपत्तिः शतश उत्कृष्ट / उत्कृष्टजघन्याभ्यां शतश एवं पूर्वप्रतिपनाः // सप्तविंशतिर्जघन्या सहस्राण्युत्कृष्टतच प्रतिपत्तिः / शतशः सहस्रशो वा प्रतिपक्षा जपन्या उत्कृय // 4 प्रतिपद्यमाना भका एकोऽपि च भवेद् ऊनप्रक्षेपे / पूर्वप्रतिपक्षका अपि भा एकः पृथक्लं वा॥ 5 द्रव्यादिका अभिप्रहा विचित्ररूपा न भवन्ति पुनः केऽपि / एतस्य यावत्कल्प कल्प एवाभिप्रहो येन // ब्वाईआऽभि इति पञ्चवस्तुके। ति इत्तिरिआ / इति पश्चवस्तके। ८°स्स भावकहिओ कप्पो चि° इति पञ्चवस्तुके॥ एतस्मिन् गोचरादयो नियता नियमेन निरपवादाथ / तत्पालनमेव परमेतस्य विशुद्धिस्थानं तु॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः . [गाथा . पवाएइ न एसो, अन्नं कप्पट्टिइ त्ति काऊणं / (पञ्चव० गा० 1511) / ___ उपदेशं पुनर्यथाशक्ति प्रयच्छति / मुण्डापनद्वारेऽपि नासावन्यं मुण्डापयति / अथ प्रव्रज्या नन्तरं नियमतो मुण्डनमिति.प्रव्रज्याग्रहणेनैव तद् गृहीतमिति किमर्थ पृथग द्वारम् ! तदयुक्तम् , प्रवज्यानन्तरं नियमतो मुण्डनस्याऽसम्भवात्, अयोग्यस्य कथञ्चिद्दत्तायामपि प्रव्रज्यायां पुनरयोग्यतापरिज्ञाने मुण्डनायोगाद् , अतः पृथगिदं द्वारमिति। प्रायश्चित्तविधिद्वारे-मनसाऽपि सूक्ष्ममप्यतिचारमापनस्स नियमतश्चतुर्गुरुकं प्रायश्चित्तमस्य, यत एष कल्प एकाग्रताप्रधानस्ततस्तदने गुरुतरो दोष इति / कारणद्वारे-कारणं नामाऽऽलम्बनम् , तत्पुनः सुपरिशुद्धं ज्ञानादिकम् , तचास्य न विद्यते येन तदाश्रित्याऽपवादपदसेविता स्यात् , एष हि सर्वत्र निरपेक्षः क्लिष्टकर्मक्षय: निमित्तं प्रारब्धमेव खं कल्पं यथोक्तविधिना समापयन् महात्मा वर्तते / उक्तं च- .. कारणमालंबणमो, तं पुण नाणाइयं सुपरिसुद्धं / एयस्स तं न विज्जइ, उचियं तवसाहणोपायं // संवत्थ निरवयक्खो, आईवियं सं ददं समाणंतो। वट्टइ एस महप्पा, किलिट्ठकम्मक्खयनिमित्तं // (पञ्चव० गा० 1517-18) . निष्पतिकर्मताद्वारे--एष महात्मा निष्पतिकर्मशरीरोऽक्षिमलादिकमपि कदाचिद् नापनयति, न च प्राणान्तिकेऽपि व्यसने समापतिते द्वितीयपदं सेवते / उक्तं च निप्पंडिकम्मसरीरो, अच्छिमलाई वि नावणेइ सया। पाणंतिए वि य महावसणम्मि न वट्टए बीए // अप्पबहुत्तालोयणविसयाईओ उ होइ एस ति। अहवा सुहभावाओ, बहुगं पेयं चिय इमस्स / / (पञ्चव० गा० 1519-20) भिक्षाद्वारे-मिक्षा विहारक्रमश्चाऽस्य तृतीयस्यां पौरुप्यां भवति, शेषासु च पौरुषीषु कायोत्सर्गः, निद्राऽपि चाऽस्याऽल्पा द्रष्टव्या / यदि पुनः कथमपि जवाबलमस्य परिक्षीणं भवति तथाऽप्येकोऽविहरन्नपि महाभागो न द्वितीयपदमापद्यते, किन्तु तत्रैव यथाकल्पमात्मीययोगान् विदधाति / उक्तं च-- .. .. तइयाए पोरिसीए, भिक्खाकालो विहारकालो उ। सेसासु य उस्सम्गो, पायं अप्पा य निदी वि // (पञ्चव० गा० 1521) प्रव्राजयति नेषोऽन्यं कल्पस्थितिरिति कृला // २कारणमालम्बनं तत् पुनःज्ञानादिकं सुपरिशुद्धम् / एतस्य तब विद्यते उचितं तपःसाधनोपायः॥ 3 पश्चवस्तुके तु-साहणा पायं-साधनात्प्रायः॥ 4 सर्वत्र निरपेक्ष आरतं खं रद समापयन् / वर्तते एष महात्मा क्लिष्टकर्मक्षयनिमित्तम् ॥५°ववक्खोक० प०1०1वियं चेव से सखापश्चवस्तुकेतु-भादत्तं चिय द॥ निष्प्रतिकर्मशरीरोऽक्षिममाद्यपि नापनयति सदा / प्राणान्तिकेऽपि च महाव्यसने न वर्तते द्वितीये // ८पश्ववस्तुके तु-तहा // अल्पबहुलालोचनविषयातीतस्तु भवत्येष इति / अथवा शुभभावाद् बहुकमप्येतदेवास्स // १.तृतीयस्यां पौरुष्या भिक्षाकालो विहारकालस्तु / शेषासुच उत्सर्गःप्रायोऽल्पाच निद्राऽपि ॥१नि ति॥ इति पश्चषस्तुके। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 137 जंघाबलम्मि खीणे, अविहरमाणो वि नवरि नावजे / तत्थेव अहाकप्पं, कुणइ उ जोगं महाभागो // (पञ्चव० गा० 1522) __ एते च परिहारविशुद्धिका द्विविधाः, तद्यथा-इत्वरा यावत्कथिकाश्च / तत्र ये कल्पसमात्यनन्तरमेव कल्पं गच्छं या समुपयास्यन्ति त इत्वराः, ये पुनः कल्पसमाप्त्यनन्तरमव्यवधानेन जिनकल्पं प्रतिपत्स्यन्ते ते यावत्कथिकाः / उक्तं च ईत्तरिय थेरकप्पे, जिणकप्पे आवकहिय ति // (पञ्चव० गा० 1524) ____ अत्र स्थविरकल्पग्रहणमुपलक्षणं खकल्पे वेति द्रष्टव्यम् / तत्रेत्वराणां कल्पप्रभावाद् देवमनुष्यतिर्यम्योनिककृता उपसर्गाः सद्योघातिन आतङ्का अतीवाविषयाश्च वेदना न प्रादुःषन्ति, यावत्कथिकानां सम्भवेयुरपि / ते हि जिनकल्पं प्रतिपत्स्यमाना जिनकल्पभावमनुविदधति, जिनकल्पिकानां चोपसर्गादयः सम्भवन्तीति / उक्तं च इत्तरियाणुवसग्गा आयंका वेयणा य न हवन्ति / आवकहियाण भइया, (पञ्चव० गा० 1526) इति / तथा "सुहुम" ति 'सूक्ष्मसम्परायं' सम्परैति-पर्यटति संसारमनेनेति सम्परायः-क्रोधादिकषायः, सूक्ष्मो लोभांशमात्रावशेषतया सम्परायो यत्र तत् सूक्ष्मसम्परायम् / इदमपि संक्लिश्यमानकविशुद्ध्यमानकभेदं द्विधा / तत्र श्रेणिप्रच्यवमानस्य संक्लिश्यमानकम् , श्रेणिमारोहतो विशुद्ध्यमानकमिति / "अहखाय" चि अथशब्दोऽत्र याथातथ्ये, आङ् अभिविधौ, आसमन्ताद् याथातथ्येन ख्यातमथाख्यातम्, कषायोदयाभावतो निरतिचारत्वात् पारमार्थिकरूपेण ख्यातमथाख्यातम् / यद्वा यथा सर्वस्मिन् जीवलोके ख्यातं प्रसिद्धम् अकषायं भवति चारित्रमिति यत्तद् यथाख्यातम् / “देसजय" ति देशे-सङ्कल्पनिरपराधत्रसवधविषये यतं यमनं संयमो यस्य स देशयतः-सम्यग्दर्शनयुत एकाणुव्रतादिधारी, अनुमतिमात्रश्रावक इत्यर्थः / यदाह श्रीशिवशर्मरिवरः कर्मप्रकृती ऍगधयाइ चरमो, अणुमइमित्त ति देसजई // (गा० 340) "अजय" ति न विद्यते यतं-विरतं विरतिर्यस्य सोऽयतः सर्वथा विरतिहीनः / तथा दर्शनशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनरूपाणि चत्वारि दर्शनानि / तत्र चक्षुषा दर्शनं वस्तुसामान्यांशात्मकं ग्रहणं चक्षुर्दर्शनम् 1, अचक्षुषा-चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टयेन मनसा च यद् दर्शनं-सामान्यांशात्मकं ग्रहणं तद् अचक्षुर्दर्शनम् 2, अवधिना-रूपिद्रव्यमर्यादया दर्शनं-सामान्यांशग्रहणमवधिदर्शनम् 3, केवलेन-संपूर्णवस्तुतत्त्वग्राहकबोधविशेषरूपेण यद् दर्शनं-सामान्यांशग्रहणं तत् केवलदर्शनम् 4 इति / किरूपाण्येतानि दर्शनानि ! अत आह–'अनाकाराणि' सामान्याकारयुक्तत्वे सत्यपि न विद्यते विशिष्टव्यक्क आकारो येषु तान्यनाकाराणि / भावार्थः प्रागेवोक्त इति // 12 // ' जकाबले क्षीणेऽविहरनपि नवरं नापद्यते। तत्रैव यथाकल्पं करोति तु योग महाभागः॥ इखराः स्थविरकल्पे, जिनकल्पे यावत्कथिका इति // 3 इसरिकाणामुपसर्गा भात वेदनाव न भवन्ति / यावत्कथिकानां भकाः॥ 4 एकव्रतादिचरमः अनुमतिमात्र इंति देशयतिः॥ 5 व्यक मा० . क.१० Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा किण्हा नीला काऊ, तेऊ पम्हा य सुक्क भवियरो। वेयग खइगुवसम मिच्छ मीस सासाण सनियरे // 13 // ___ इह षोढा लेश्या-कृष्णलेश्या नीललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या 'चः' समुचये व्यवहितसम्बन्धश्च, स च शुक्ललेश्या च इत्यत्र योज्यः / 'भव्यः' मुक्तिगमनाईः 'इतरः' अभव्यः कदाचनापि सिद्धिगमनानहः / “वेयग" ति 'वेदक' सम्यक्त्वपुद्गलवेदनात् क्षायोपशमिकमित्यर्थः / तत्रोदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य क्षयेण अनुदीर्णस्य चोपशमेन विष्कम्भितोदयखरूपेण यद् निर्वृत्तं तत् क्षायोपशमिकम् / उक्तं च मिच्छत्तं जमुइन्नं, तं खीणं अणुदियं च उवसंत / मीसीभावपरिणयं, वेइज्जंतं खओवसमं // (विशेषा० गा० 532) तथा "खइग" ति क्षयेण-अत्यन्तोच्छेदेन त्रिविधस्याऽपि दर्शनमोहनीयस्य निर्वृत्तं क्षायि- . कम् / तच्च क्षपकश्रेण्यामेवं भवति पंढमकसाए समयं, खवेइ अंतोमुहुत्तमित्तेणं / सत्तु चिय मिच्छत्तं, तओ य मीसं तओ सम्मं // बद्धाऊ पडिवन्नो, पढमकसायक्खए जइ मरिजा / तो मिच्छचोदयओ, चिणिज भुज्जो न खीणम्मि / तम्मि मओ जाइ दिवं, तप्परिणामो य सत्तए खीणे। उवरयपरिणामो पुण, पच्छा नाणामइगईओ // खीणम्मि दंसणतिए, कि होइ तओ तिदसणाईओ। भन्नइ सम्मदिट्टी, सम्मत्तखए कओ सम्मं // निव्वलियमयणकुद्दवरूवं मिच्छत्तमेव सम्म / खीणं न उ जो भावो, सद्दहणालक्खणो तस्स // सो तस्स विसुद्धयरो, जायइ सम्मत्चपुग्गलक्खयो। दिट्ठि व्व सण्हसुद्धब्भपडलविगमे मणूसस्स // जह सुद्धजलाणुगयं, वत्थं सुद्धं जलक्खए सुतरं / / सम्मतसुद्धपुग्गलपरिक्खए दंसणं पेवं // (विशेषा० गा० 1315-21) १मध्यात्वं यदुवीर्ण तत् क्षीणमनुदितं चोपशान्तम् / मिश्रभावपरिणतं वेद्यमानं क्षायोपशमिकम् // २प्रथमकषायान् समकं क्षपयति अन्तर्मुहूर्तमात्रेण / तत एव मिथ्यावं ततध मिश्रं ततः सम्यक्तम् ॥बदायुः: प्रतिपनः प्रथमकषायक्षये यदि नियेत / ततो मिथ्यालोदयतश्चिनुयाद् भूयो नक्षीणे // तस्मिन् मृतो याति दिवं तत्परिणामच सप्तके क्षीणे / उपरतपरिणामः पुनः पश्चानानामतिगतिकः // क्षीणे दर्शनत्रिके किं भवति सकनिदर्शनातीतः / भण्यते सम्यग्दृष्टिः सम्यक्खक्षये कुतः सम्यक्सम् ! // निर्वलितमदनकोद्रवरूपं मिथ्यात्वमेव सम्यक्तम् / क्षीणं न तु यो भावः श्रद्धानलक्षणस्तस्य // स तस्य विशुद्धतरो जायते सम्यक्त्रपुलक्षयतः। रष्टिरिव लक्ष्णशुद्धाभ्रपटलविगमे मनुष्यस्य // यथा शुद्धजलानुगतं धनं शुद्ध जलक्षये सुतराम् / सम्यक्त्तशुद्धपद्गलपरिक्षये दर्शनमप्येवम् // 3 दुई क० ग० 2070 // Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13] पडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 139 तैम्मि य तइय चउत्थे, भवम्मि सिझंति खइयसम्मत्ते / सुरनरयजुगलिसु गई, इमं तु जिणकालियनराणं // पडिवत्तीए अविरयदेसपमचापमत्तविरयाणं / / अन्नयरो पडिवज्जइ, सुक्कज्झाणोवगयचित्तो // (विशेषा० गा० 1314) तथा उदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य क्षये सति अनुदीर्णस्य उपशमः-विपाकप्रदेशवेदनरूपस्य द्विविघस्याप्युदयस्य विष्कम्भणं तेन निर्वृतमौपशमिकम् , तच्च द्विधा-प्रन्थिभेदसम्भवमुपशमश्रेणिसम्भवं च / तत्र ग्रन्थिभेदसम्भवमेवम्-इह गम्भीरापारसंसारसागरमध्यमध्यासीनो जन्तुर्मिथ्यात्वप्रत्ययमनन्तान् पुद्गलपरावर्तान् अनन्तदुःखलक्षाण्यनुभ्य कथमपि तथाभव्यत्वपरिपाकवशतो गिरिसरिदुपलघोलनाकल्पेनाऽनाभोगनिर्वर्तितयथाप्रवृत्तिकरणेन “करणं परिणामोऽत्र" इति वचनादध्यवसायविशेषरूपेणाऽऽयुर्वर्जानि ज्ञानावरणीयादिकर्माणि सर्वाण्यपि पल्योपमासयेयभागन्यूनैकसागरोपमकोटाकोटीस्थितिकानि करोति, अत्र चाऽन्तरे जीवस्य कर्मजनितो धनरागद्वेषपरिणामरूपः कर्कशनिबिडचिरप्ररूढगुपिलवक्रान्थिवद् दुर्भेदोऽभिन्नपूर्वो प्रन्धिर्भवति / तदुक्तम् तीए वि थोवमित्ते, खविए इत्यंतरम्मि जीवस्स / हवइ हु अभिन्नपुव्वो, गंट्टी एवं जिणा बिंति // (धर्मसं० गा० 752) गंठि ति सुदुन्भेओ, कक्खडघणरूढगूढगंठि व्व / जीवस्स कम्मजणिओ, घणरागद्दोसपरिणामो॥ (विशेषा० गा०११९५) इति / इमं च प्रन्थि यावद् अभव्या अपि यथाप्रवृत्तिकरणेन कर्म क्षपयित्वाऽनन्तशः समागच्छन्ति / उक्तं चावश्यकटीकायाम्. अभव्यस्यापि कस्यचिद् यथाप्रवृत्तिकरणतो प्रन्थिमासाद्य अर्हदादिविभूतिदर्शनतः प्रयोजनान्तरतो वा प्रवर्तमानस्य श्रुतसामायिकलाभो भवति न शेषलाभ इति // (पत्र 76) - एतदनन्तरं कश्चिदेव महात्मा समासन्नपरमनिर्वृतिसुखः समुल्लसितप्रचुरदुर्निवारवीर्यप्रसरो निशितकुठारधारयेव परमविशुद्ध्या यथोक्तखरूपस्य ग्रन्थेहेंदं विधाय मिथ्यात्वस्थितेरन्तर्मुहूर्तमुदयक्षणादुपर्यतिक्रम्याऽपूर्वकरणानिवृत्तिकरणलक्षणविशुद्धिजनितसामोऽन्तर्मुहूर्तकालप्रमाणं तत्प्रदेशवेद्यदलिकाभावरूपमन्तरकरणं करोति / अत्र यथाप्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणानामयं क्रमः जो गंठी ता पढम, गंठिं समइच्छओ भवे बीयं / अनियट्टीकरणं पुण, सम्मत्तपुरक्खडे जीवे // (विशेषा० गा० 1203) तस्मिंश्च तृतीये चतुर्थे भवे सिध्यन्ति क्षायिकसम्यक्त्वे / सुरनारकयुगलिकेषु गतिरेतत्तु जिनकालिकनराणाम् // प्रतिपत्तौ अविरतदेशप्रमत्ताप्रमत्तविरतानाम् / अन्यतरः प्रतिपद्यते शुक्लध्यानोपगतचित्तः // 2 तस्या अपि स्तोकमात्रे क्षपितेऽत्रान्तरे जीवस्य / भवति हि अभिन्नपूर्वो प्रन्थिरेवं जिना अवते // प्रन्थिरिति सुदर्भेदः कर्कशघनरूढगूढप्रन्थिरिव / जीवस्य कर्मजनितो धनरागद्वेषपरिणामः॥ 3 यावद् प्रन्थिस्तावद प्रथमं प्रन्थि समतिकामतो भवेद् द्वितीयम् / अनिवृत्तिकरणं पुनः पुरस्कृतसम्यक् जीवे॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा "गंठिं समइच्छओ" चि ग्रन्थि समतिकामतः-भिन्दानस्येति, "सम्मतपुरक्खडे" ति सम्यक्त्वं पुरस्कृतं येन तस्मिन् , आसन्नसम्यक्त्वे जीवेऽनिवृत्तिकरणं भवतीत्यर्थः / एतस्मिंश्चान्तरकरणे कृते सति तस्य मिथ्यात्वकर्मणः स्थितिद्वयं भवति / अन्तरकरणादधस्तनी प्रथमा स्थितिरन्तर्मुइर्तप्रमाणा, तस्मादेवान्तरकरणादुपरितनी शेषा द्वितीया स्थितिः / स्थापना तत्र प्रथमस्थितौ मिथ्यात्वदलिकवेदनादसौ मिथ्यादृष्टिरेव / अन्तर्मुहूर्तेन पुनस्तस्यामपगतायामन्तरकरणप्रथमसमय एव औपशमिकसम्यक्त्वमवामोति, मिथ्यात्वदलिकवेदनाभावात् / यथा हि वनदावानलः पूर्वदग्धेन्धनमूषरं वा देशमवाप्य विध्यायति तथा मिथ्यात्ववेदनवनदावोऽप्यन्तरकरणमवाप्य विध्यायति, तथा च सति तस्यौपशमिकसम्यक्त्वलाभः / यदाहुः श्रीपूज्यपादाः ऊसरदेसं दड्डिलयं च विज्झाइ वणदवो पप्प / इय मिच्छस्स अणुदए, उवसमसम्म लहइ जीवो॥ (विशेषा० गा० 2734) इति / . व्यावर्णितं अन्थिभेदसम्भवमौपशमिकसम्यक्त्वम् / अथोपशमश्रेणिसम्भवमौपशमिकसम्यक्त्वं त्रिभुवनजनप्रथितप्रवचनोपनिषद्वेदिश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रणीतगाथाभिरेवः भाव्यते उवसामगसेढीए, पट्ठवओ अप्पमत्तविरओ ति / पज्जवसाणे सो वा, होइ पमत्तो अविरओ वा // . अन्ने भणंति अविरय-देस-पमत्ता-ऽपमतविरयाणं / अन्नयरो पडिवज्जइ, ईसणसमयम्मि उ नियट्टी // (विशेषा० गा० 1285-1286) संजलणाईण समो, जुत्तो संजोयणादओ जे उ / ते पुचि चिय समिया, नणु सम्मत्वाइलाभम्मि // (विशेषा० गा० 1290) आचार्याः आसि खओवसमो सिं, समोऽहुणा भणइ को विसेसो सिं / नणु खीणम्मि उइन्ने, सेसोवसमे खओवसमो॥ सो चेव नणूवसमो, उइए खीणम्मि सेसए समिए / सुहुमोदयया मीसे, न तूवसमिए विसेसोऽयं // वेएइ संतकम्म, खओवसमिएसु. नाणुभागं सो। उवसंतकसाओ पुण, वेएइ न संतकम्मं पि // (विशेषा० गा० 1291-93) 1 ऊपरदेशं दग्धं च विध्यायति वनदवः प्राप्य / इति मिथ्यावस्यानुदये औपशमिकसम्यक्त्वं लभते जीवः॥ . 2 उपशमकश्रेण्याः प्रस्थापकोऽप्रमत्तविरत इति / पर्यवसाने स वा भवति प्रमत्तोऽविरतो वा // अन्ये भणन्त्यविरतदेशप्रमत्ताप्रमत्तविरतानाम् / अन्यतरः प्रतिपद्यते दर्शनसमये तु निवृत्तिः // संज्वलादीनां शमो युक्तः संयोजनादयो ये तु / ते पूर्वमेव शमिताः ननु सम्यक्त्वादिलामे // 3 भाष्ये समणम्मि-शमने // 4 आसीत् क्षयोपशम एषां शमोऽधुना भण्यते को विशेषोऽनयोः? / ननु क्षीणे उदीणे शेषोपशमे क्षयोपशमः॥ स एव ननूपशमः उदिते क्षीणे शेषके शमिते / सूक्ष्मोदयता मिश्रे न खौपशमिके विशेषोऽयम् // वेदयति सत्कर्म क्षायोपशमिकेषु नानुभागं सः। उपशान्तकषायः पुनर्वेदयति न सत्कर्मापि // Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13]. षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 141 "संजोयणाइयाणं, नणूदओ संजयस्स पडिसिद्धो। सच्चमिह सोऽणुभाग, पडुच्च न पएसकम्मं तु // भणियं च सुए जीवो, वेएइ न वाऽणुभागकम्मं तु / जं पुण पएसकम्मं, नियमा वेएइ तं सव्वं // नाणुदियं निज्जरए, नासंतमुदेइ जं तओऽवसं / सव्वं पएसकम्मं, वेएउं मुच्चए सव्वो // किह दंसणाइघाओ, न होइ संजोयणाइवेयणओ / मंदाणुभावयाए, जहाऽणुभावम्मि वि कहिंचि // - निच्चमुइन्नं पि जहा, सयलचउन्नाणिणो तदावरणं / न वि घाइ मंदयाए, पएसकम्मं तहा नेयं // (विशेषा० गा० 1294-98) . "मिच्छ" ति मिथ्यात्वम्-अदेवदेवबुद्ध्यगुरुगुरुबुद्ध्यतत्त्वतत्त्वबुद्धिलक्षणम् / “मीस" ति इहानन्तराभिहितविधिना लब्धेनौपशमिकसम्यक्त्वेन प्रन्थिसम्भवेन औषधविशेषकल्पेन मदनकोद्रवस्थानीय मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म विशोधयित्वा त्रिधा करोति / तथाहि-शुद्धमर्धविशुद्धमविशुद्धं चेति / स्थापना AAA तत्र त्रयाणां पुञ्जानां मध्ये योऽसावर्धविशुद्धः पुञ्जः स मिश्र उच्यते, सम्यग्मिथ्यात्वमित्यर्थः / एतदुदयात् किल प्राणी जिनप्रणीतं तत्त्वं न सम्यक् श्रद्दधाति नापि निन्दति / उक्तं च बृहच्छतकबृहचूर्णी जहा नालिकेरदीववासिस्स अइछुहियस्स वि पुरिसस्स इत्थ ओयणाइए अणेगहा वि ढोइए तस्स आहारस्स उवरिं न रुई न य निंदा, जेण कारणेणं सो ओयणाइओ आहारो न कयाइ दिट्ठो नावि सुओ, एवं सम्मामिच्छद्दिहिस्स वि जीवाइपयत्थाण उवरिं न रुई न य निंदा इत्यादि / तथा “सासाण" त्ति सासादनं तत्र आयम्-औपशमिकसम्यक्त्वलक्षणं सादयति-अपनयति आसादनम्-अनन्तानुबन्धिकषायवेदनम् , अत्र पृषोदरादित्वाद् यशब्दलोपः, "रम्यादिभ्यः" (5-3-126) कर्तर्यनत्प्रत्ययः, सति यस्मिन् परमानन्दरूपानन्तसुखदो निःश्रेयसतरुबीजभूतो अन्थिभेदसम्भवौपशमिकसम्यक्त्वलाभो जघन्यतः समयमात्रेण उत्कर्षतः षड्भिरावलिकाभिरपगच्छतीति, ततः सह आसादनेन वर्तत इति सासादनम् / यद्वा साखादनं तत्र सम्यक्त्वलक्षणरसाखादनेन वर्तत इति सास्वादनम् , यथा हि भुक्तक्षीरानविषयव्यलीकचित्तपुरुषस्तद्वमनकाले क्षीरान्नरसमाखादयति तथाऽत्रापि गुणस्थाने मिथ्यात्वाभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरि व्यलीकचित्तस्य १संयोजनादिकानां ननूदयः संयतस्य प्रतिषिद्धः / सत्यमिह सोऽनुभागं प्रतीत्य न प्रदेशकर्म तु // भणितं च श्रुते जीवो वेदयति न वा अनुभागकर्म तु / यत् पुनः प्रदेशकर्म नियमाद् वेदयति तत् सर्वम् // नानुदितं निर्जीर्यते नासदुदेति यत्ततोऽवश्यम् / सर्व प्रदेशकर्म वेदयिखा मुच्यते सर्वः // कथं दर्शनादिघातो न भवति संयोजनादिवेदनतः / मन्दानुभावतया यथा अनुभावेऽपि कस्मिंश्चिद् // नित्यमुदीर्णमपि यथा सकलचतुर्ता निनस्तदावरणम् / नापि घातयति मन्दलात् प्रदेशकर्म तथा झेयम् // 2 यथा नालिकेरदीपवासिनः अतिक्षुधितस्यापि पुरुषस्यात्रौदनादिके अनेकधाऽपि ढौकिते तस्याहारस्योपरि न रुचिर्न च निन्दा, येन कारणेन स ओदनादिक आहारो न कदाचिद् दृष्टो नापि श्रुतः, एवं सम्यग्मिध्याहशोऽपि जीवादिपदार्यामामुपरिन रुचिर्न च निन्दा॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 142 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा पुरुषस्य सम्यक्त्वमुद्वमतस्तद्रसाखादो भवतीति इदं साखादनमुच्यत इति / तथा “सन्नि" चि विशिष्टस्मरणादिरूपमनोविज्ञानभाक् संज्ञी, इतरोऽसंज्ञी सर्वोऽप्येकेन्द्रियादिः // 13 // आहारेयर भेया, सुरनरयविभंगमइसुओहिदुगे। सम्मत्ततिगे पम्हासुकासन्नीसु सन्निदुर्ग // 14 // ओजोलोमप्रक्षेपाहाराणामन्यतममाहारमाहारयतीत्याहारकः / 'इतरः' अनाहारको विग्रहगत्यादिगतः / “भेय" त्ति चतुर्दशमौलमार्गणास्थानानामिमेऽवान्तराश्चतुरादिसङ्ख्या भेदा भवन्तीति शेषः, सर्वेऽपि द्विषष्टिभेदाः / तथाहि-गतिश्चतुर्धा, इन्द्रियं पञ्चधा, कायः षोढा, योगस्त्रिधा, वेदस्त्रिधा, कषायश्चतुर्धा, ज्ञानपञ्चकम् अज्ञानत्रिकमिति ज्ञानमार्गणास्थानमष्टधा, संयमपञ्चकंशसंयमासंयमसहितं सप्तधा, दर्शनं चतुर्धा, लेश्या षोढा, भव्योऽभव्यश्चेति भव्यमार्गणास्थानं द्विधा, सम्यक्त्वत्रयमिथ्यात्वमिश्रसासादनभेदात् सम्यक्त्वमार्गणास्थानं षोढा, संज्ञिमार्गणास्थानं सप्रतिपक्ष द्वेधा, आहारकमार्गणास्थानं सप्रतिपक्षं द्वधा / सर्वेऽप्येत एकत्र मील्यन्ते तत उत्तरभेदा द्वापष्टिरिति / अत्र गाथा चउ पण छ तिय तिय चउ, अड सग चउ छच्च दु छग दो दुन्नि / . गइयाइमग्गणाणं, इय उत्तरभेय बासट्टी // __इत्येवमुक्ता गत्यादिमार्गणास्थानानामवान्तरभेदाः / साम्प्रतमेतेष्वेव जीवस्थानानि चिन्तयनाह--"सुरनरयविभंग" इत्यादि। सुरगतौ नरकगतौ च 'संज्ञिद्विकं' पर्याप्तापर्याप्तलक्षणं भवति / अपर्याप्तश्चेह करणापर्याप्तो गृह्यते, न लब्ध्यपर्याप्तः, तस्य देवनरकगत्योरुत्पादाभावात् / तथा 'विभङ्गे' विभङ्गज्ञाने 'मतौ' मतिज्ञाने 'श्रुते' श्रुतज्ञाने "ओहिदुगि" ति अवधिद्विके-अवधिज्ञानावधिदर्शनलक्षणे 'सम्यक्त्वत्रिके' क्षायोपशमिकक्षायिकौपशमिकलक्षणे पद्मलेश्यायां शुक्ललेश्यायां संज्ञिनि च संज्ञिद्विकमपर्याप्तपर्याप्तलक्षणं भवति, न शेषाणि जीवस्थानानानि, तेषु मिथ्यात्वादिकारणतो मतिज्ञानादीनामसम्भवात् / अत एव च हेतोरिहापर्याप्तकः करणापर्याप्तको गृह्यते, न लब्ध्यपर्याप्तः, तस्य मिथ्यादृष्टित्वाद् अशुभलेश्याकत्वाद् असंज्ञिकत्वाचेति / आहक्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकेषु कथं संज्ञी अपर्याप्तको लभ्यते ? उच्यते-इह यः कश्चित् पूर्वबद्धायुष्कः क्षपकश्रेणिमारभ्यानन्तानुबन्ध्यादिसप्तकक्षयं कृत्वा क्षायिकसम्यक्त्वमुत्पाद्य यदा गतिचतुष्टयस्यान्यतरस्यां गतावुत्पद्यते तदा सोऽपर्याप्तः क्षायिकसम्यक्त्वे प्राप्यते, क्षायोपशमिकसम्यक्त्वयुक्तश्च देवादिभवेभ्योऽनन्तरमिहोत्पद्यमानस्तीर्थकरादिरपर्याप्तकः सुप्रतीत एव / औपशमिकं सम्यक्त्वं पुनरपर्याप्तावस्थायामनुत्तरसुरस्य द्रष्टव्यम् / / ___ इहौपशमिकसम्यक्त्वमपर्याप्तस्य केचिद् नेच्छन्ति, तथा च ते पाहुः-न तावदस्यामेवापर्याघावस्थायामिदं सम्यक्त्वमुपजायते, तदानीं तस्य तथाविधविशुद्ध्यभावात् ; अर्थततदानीं मोत्पादि, यत्तु पारभविकं तद् भवतु, केन विनिवार्यत इति मन्येथास्तदपि न युक्तियुक्तमुत्पश्यामः, यतो यो मिथ्यादृष्टिस्तत्प्रथमतया सम्यक्त्वमौपशमिकमवाप्नोति स तावत्तद्भावमापन्नः सन् कालं न करोत्येव / यदुक्तमागमे१ चत्वारः पञ्चषद् त्रयस्मयश्चलारोऽष्ट सम्म चत्वारः षट्स द्वौ षड् द्वौ द्वौ। गत्यादिमार्गणानामित्युत्तरमेदा द्वाषष्टिः॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14-15] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः। 143 अणबंधोदयमाउगबंधं कालं च सासणो कुणई / उवसमसम्मपिट्ठी, चउण्हमिकं पि नो कुणई // उपशमश्रेणेम॒त्वाऽनुपरसुरेषत्पन्नस्याऽपर्याप्तकस्यैतल्लभ्यते इति चेद् नन्वेतदपि न बहु मन्यामहे, तस्य प्रथमसमय एव सम्यक्त्वपुद्गलोदयात् क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वं भवति न त्वौपशमिकम् / उक्तं च शतकबृहचूर्णी 'जो उवसमसम्मविट्ठी उवसमसेढीए कालं करेइ सो पढमसमए चेव सम्मतपुंजं उदयावलियाए छोरण सम्मत्तपुग्गले वेएइ, तेण न उवसमसम्मदिट्टी अपज्जत्तगो लब्भइ इत्यादि / तस्मात् पर्याप्तसंज्ञिलक्षणमेकमेव जीवस्थानकमत्र प्राप्यत इति स्थितम् / ___ अपरे पुनराहुः-भवत्येवापर्याप्तावस्थायामप्यौपशमिकं सम्यक्त्वम् , सप्ततिचूादिषु तथामिधानात् / सप्ततिचूर्णौ हि गुणस्थानकेषु नामकर्मणो बन्धोदयादिमार्गणावसरेऽविरतसम्यग्दृष्टेरुदयस्थानचिन्तायां पञ्चविंशत्युदयः सप्तविंशत्युदयश्च देवनारकानधिकृत्योक्तः, तत्र नारकाः क्षायिकवेदकसम्यग्दृष्टयः, देवास्तु त्रिविधसम्यग्दृष्टयोऽपि / तथा च तद्वन्थः पैणवीससत्तावीसोदया देवनेरइए पडुच्च, नेरइगो खैयगवेयगसम्मदिट्ठी देवो तिविहसम्मट्ठिी वि॥ - पञ्चविंशत्युदयश्च शरीरपर्याप्तिं निवर्तयतः / तथाहि-निर्माणस्थिरास्थिरागुरुलघुशुभाशुभतैजसकार्मणवर्णगन्धरसस्पर्शचतुष्कदेवगतिदेवानुपूर्वीपञ्चेन्द्रियजातित्रसबादरपर्याप्तकं सुभगदुर्भगयोरेकतरम् आदेयानादेययोरेकतरं यशःकीर्त्ययशःकीोरेकतरमित्येकविंशतिः, ततः शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्यै वैक्रियद्विकोपघातप्रत्येकसमचतुरस्रलक्षणप्रकृतिपञ्चकक्षेपे देवानुपूर्व्यपनयने च पञ्चविंशतिर्भवति / ततः शरीरपर्याप्त्या पर्याप्तस्य शेषपर्याप्तिभिः पुनरपर्याप्तस्य पराघातप्रशस्तविहायोगतिक्षेपे सप्तविंशतिर्भवति / ततोऽपर्याप्तावस्थायामपीह देवस्यौपशमिकं सम्यक्त्वमुक्तम् / तथा पञ्चसङ्घहेऽपि मार्गणास्थानकेषु जीवस्थानकचिन्तायामौपशमिकसम्यक्त्वे "उँवसमसम्मम्मि दो सन्नी" इत्यनेन ग्रन्थेन संज्ञिद्विकमुक्तम् / ततः सप्ततिचूर्ण्यभिप्रायेण पञ्चसङ्ग्रहाभिप्रायेण चास्माभिरपि औपशमिकसम्यक्त्वे संज्ञिद्विकमुक्तम्, तत्त्वं तु केवलिनो विशिष्टबहुश्रुता वा विदन्तीति // 14 // तमसन्निअपजजयं, नरे सथायरअपज तेऊए / थावर इगिदि पढमा, चउ बार असन्नि दुदु विगले // 15 // _ 'तत्' पूर्वोक्त संज्ञिद्विकमपर्याप्तासंज्ञियुतं 'नरे' नरेषु लभ्यते, जातावेकवचनम् / अयमर्थः.१ अनन्तानुबन्धिबन्धोदयं आयुर्बन्धं कालं च सासादनः करोति / औपशमिकसम्यग्दृष्टिश्चतुर्णामेकमपि न करोति ॥२य उपशमसम्यग्दृष्टिरुपशमश्रेणौ कालं करोति स प्रथमसमय एव सम्यक्त्वपूर्ण उदयावलिका क्षिप्त्वा सम्यक्त्वपुद्गलान् वेदयति तेन नोपशमसम्यग्दृष्टिरपर्याप्तको लभ्यते // 3 पञ्चविंशतिसप्तविंशत्युदयौ देवनैरयिकान् प्रतीत्य, नैरयिकः क्षायिकवेदकसम्यग्दृष्टिदेवनिविधसम्यग्दृष्टिरपि // 4 खइगक० ख० ग०० रु०॥ 5 इत ऊई-"शेषपर्याप्तिभिरपर्याप्तस्य" इत्येष पाठो जैनधर्मप्रसारकसंसत्प्रकाशिवे पुस्तकेऽधिको दृश्यते, परमसत्पार्श्ववर्तिषु पञ्चखपि पुस्तकादर्शेषु नास्ति अतो मूले नाहत इति // 6 उपशमसम्यक्त्वे द्वौ संज्ञिनौ // Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा इह द्वये मनुष्याः, गर्भव्युत्क्रान्तिकाः सम्मूच्छिमाश्च / तत्र ये गर्भव्युत्क्रान्तिकास्तेषु यथोक्तं संज्ञिद्विकं लभ्यते / ये तु वान्तपित्वादिषु सम्मूर्च्छन्ति तेऽन्तर्मुहूर्तायुषोऽसंज्ञिनो लब्ध्यपर्याप्तकाश्च द्रष्टव्याः / यदाहुः श्रीमदार्यश्यामपादाः प्रज्ञापनायाम्.. कहि णं भंते ! सम्मुच्छिममणुस्सा सम्मुच्छंति ! गोयमा ! अंतो मणुस्सखेतस्स पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु तीसाए अकम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवेसु गन्भवतियमणुस्साणं चेव उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा वंतेसु वा पित्तेसु वा पूएसु वा सोणिएसु वा सुक्केसु वा सुक्कपुग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरेसु वा थीपुरिससंजोगेसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सबेसु चेव असुइट्टाणेसु इत्य णं सम्मुच्छिममणुस्सा सम्मुच्छंति अंगुलस्स असंखेज्जभागमित्ताए ओगाहणाए / असन्नी मिच्छद्दिट्टी 'अन्नाणी सव्वाहिं पज्जत्तीहिं अपज्जता अंतमुहुत्ताउया चेव कालं करंति ति / (पत्र 50-1) .. तान् सम्मच्छिममनुष्यानाश्रित्य तृतीयमप्यसंश्यपर्याप्तलक्षणं जीवस्थानं प्राप्यत इति / "सबायरअपज्ज तेऊए" ति तदेवेत्यनुवर्तते, तदेव पूर्वोक्तं संज्ञिद्विकं सह बादरापर्याप्तेन वर्तत इति सबादरापर्याप्तं तेजोलेश्यायां लभ्यते / एतदुक्तं भवति-तेजोलेश्यायां त्रीणि जीवस्थानानि भवन्ति संश्यपर्याप्तः संज्ञिपर्याप्तः बादरैकेन्द्रियापर्याप्तश्च / बादरोऽपर्याप्तः कथमवाप्यते ! इति चेद् उच्यते-इह भवनपतिव्यन्तरज्योतिष्कसौधर्मेशानदेवाः पृथिवीजलवनस्पतिषु मध्ये उत्प'धन्ते / यदाह दुःषमान्धकारनिममजिनप्रवचनप्रदीपो भगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणः पुंढवीआउवणस्सइ, गन्भे पज्जत्तसंखजीवीसु।। सग्गचुयाणं वासो, सेसा पडिसेहिया ठाणा // (बृ० सं० पत्र 77-1) ते च तेजोलेश्यावन्तः, यदभाणि किण्हा नीला काऊ, तेऊलेसा य भवणवंतरिया / जोइससोहम्मीसाणि तेउलेसा मुणेयव्वा // (बृ० सं० पत्र 81-1) यल्लेश्यश्च म्रियते तल्लेश्य एव अग्रेऽपि समुत्पद्यते, "जेल्लेसे मरइ तल्लेसे उववज्जइ" इति वचनात् / अतो बादरापर्याप्तावस्थायां कियत्कालं तेजोलेश्याऽवाप्यत इति सिद्धं जीवस्थानकत्रयं तेजोलेश्यायामिति / कायद्वारे-स्थावरेषु पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिलक्षणेषु, इन्द्रियद्वारे एकेन्द्रिये च प्रथमानि चत्वारि जीवस्थानानि सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तसूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तबादरैकेन्द्रियापर्याप्तबाद १क भदन्त ! सम्मूछिममनुष्याः सम्मूर्च्छन्ति ? गौतम ! अन्तर्मनुष्यक्षेत्रस्य पञ्चचत्वारिंशति योजनशतसहस्रेषु अर्धतृतीययोर्दीपसमुद्रयोः पञ्चदशसु कर्मभूमिषु त्रिंशत्यकर्मभूमिषु षट्पञ्चाशत्यन्तद्वीपेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणामेव उच्चारेषु वा प्रश्रवणेषु वा श्लेष्मसु वा सिंघानेषु वा वान्तेषु वा पित्तेषु वा पूतेषु वा शोणितेषु वा शुक्रेषु वा शुक्रपुद्गलपरिशाटेषु वा विगतजीवकलेवरेषु वा स्त्रीपुरुषसंयोगेषु वा नगरनिर्धमनेषु वा सर्वेष्वेवाशुचिस्थानेषु अत्र सम्मूच्छिममनुष्याः सम्मूर्च्छन्ति अङ्गुलस्यासङ्ख्येयभागमात्रयाऽवगाहनया। असंझिनो मिथ्यादृष्टयोऽज्ञानिनः सर्वाभिः पर्याप्तिभिरपर्याप्तकाः अन्तर्मुहूर्तायुष्का एव कालं कुर्वन्ति // 2 पृथिव्यन्वनस्पतिषु गर्भजेषु पर्याप्तसङ्ख्यातजीविषु / स्वर्गच्युतानां वासः शेषाणि प्रतिषिद्धानि स्थानानि // 3 कृष्णनीलकापोततेजोलेश्याब भवनव्यन्तराः / ज्योतिष्कसौधर्मेशानेषु तेजोलेश्या ज्ञातव्या // 4 यल्लेश्यो प्रियते तश्लेश्य उत्पद्यते॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15-17] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 115 रैकेन्द्रियपर्याप्तलक्षणानि भवन्ति / 'असंज्ञिनि' संज्ञिव्यतिरिक्त कोलिकनलिकन्यायेन प्रथमशब्दस्य सम्बन्धात् 'प्रथमानि' आदिमानि द्वादश जीवस्थानानि पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि भवन्ति, सर्वेषामपि विशिष्टमनोविकलतया संज्ञिप्रतिपक्षत्वाविशेषात् , संज्ञिप्रतिपक्षस्य चाऽसंज्ञित्वेन व्यवहारात् / “दु दु विगल" ति 'विकलेषु' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु द्वे द्वे जीवस्थानके भवतः / तत्र द्वीन्द्रियेषु द्वीन्द्रियोऽपर्याप्तः पर्याप्त इति द्वे, त्रीन्द्रियेषु त्रीन्द्रियोऽपर्याप्तः पर्याप्त इति द्वे, चतुरिन्द्रियेषु चतुरिन्द्रियोऽपर्याप्तः पर्याप्त इति द्वे // 15 // दस चरम तसे अजयाहारग तिरि तणु कसाय दु अनाणे। पढमतिलेसा भवियर, अचक्खु नपु मिच्छि सव्वे वि // 16 // 'से' त्रसकाये 'चरमाणि' अन्तिमानि पर्याप्तापर्याप्तद्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि दश जीवस्थानानि भवन्ति, द्वीन्द्रियादीनामेव त्रसत्वात् / 'अयते' अविरते सर्वाण्यपि जीवस्थानानि भवन्ति / तथा आहारके "तिरि" ति तिर्यग्गतौ 'तनुयोगे' काययोगे कषायचतुष्टये 'द्वयोरज्ञानयोः' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपयोः 'प्रथमत्रिलेश्यासु' कृष्णलेश्यानीललेश्याकापोतलेश्यालक्षणासु भव्ये 'इतरस्मिन्' अभव्ये “अचक्खु" ति अचक्षुर्दर्शने "नपु" ति नपुंसकवेदे “मिच्छ” ति मिथ्यात्वे 'सर्वाण्यपि' चतुर्दशापि जीवस्थानकानि भवन्ति, सर्वजीवस्थानकव्यापकत्वाद् अयतादीनामिति // 16 // पजसन्नी केवलदुग, संजय मणनाण देस मण मीसे / पण चरम पज वयणे, तिय छ व पन्जियर चक्खुम्मि // 17 // "पजसन्नि" ति पर्याप्तसंज्ञिलक्षणमेकमेव जीवस्थानं भवति / क ? इत्याह-'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणे 'संयतेषु' सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्पराययथाख्यातरूपपञ्चप्रकारसंयमवत्सु "मणनाण" ति मनःपर्यायज्ञाने "देस" ति देशयते-देशविरते श्रावक इत्यर्थः, "मण" ति मनोयोगे “मीस" ति मिश्रे-सम्यग्मिथ्यादृष्टौ / तत्र केवलद्विके संयतेषु मनःपर्यायज्ञाने देशविरते च संज्ञिपर्याप्तलक्षणं जीवस्थानकं विना नान्यद् जीवस्थानकं सम्भवति, तत्र सर्वविरतिदेशविरत्योरभावात् / मनोयोगेऽप्येतदन्तरेणाऽन्यद् जीवस्थानकं न घटते, तत्र मनःसद्भावायोगात् / मिश्रे पुनः पर्याप्तसंज्ञिव्यतिरेकेण शेषं जीवस्थानकं तथाविधपरिणामाभावादेव न सम्भवतीति / तथा पञ्च जीवस्थानानि 'चरमाणि' अन्तिमानि 'पर्याप्तानि' पर्याप्तद्वीन्द्रियपर्याप्तत्रीन्द्रियपर्याप्तचतुरिन्द्रियपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि “वयण" ति वचनयोगे-वाग्योगे भवन्ति न शेषाणि, तेषु वाग्योगासम्भवात् / “तिय छ व पन्जियर चक्खुम्मि" ति चक्षुर्दर्शने त्रीणि जीवस्थानानि पर्याप्तचतुरिन्द्रियपर्याप्तासंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपाणि नान्यानि, तेषु चक्षुष एवाभावात् / अत्रैव मतान्तरेण विकल्पमाह-षड् वा जीवस्थानानि चक्षुर्दर्शने भवन्ति / कथम् ? इत्याह-"पजियर" ति पूर्वप्रदर्शितपर्याप्तत्रिक सेतरमपर्याप्तत्रिकसहितं षड् भवन्ति / इदमुक्तं भवति-अपर्याप्तपर्याप्तचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियसंक्षिपञ्चेन्द्रियरूपाणि षड् जीवस्थानानि चक्षुर्दर्शने भवन्ति, चतुरिन्द्रियादीनामिन्द्रियपर्याप्त्या १°नलक क० ख० ग० ङ० // 2 प्येनमन्तरे क० घ० रु०॥ क. 19 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा पर्याप्तानां शेषपर्याप्त्यपेक्षया अपर्याप्तानामपि आचार्यान्तरैश्चक्षुर्दर्शनाभ्युपगमात् / यदुक्तं पञ्चसङ्ग्रहमूलटीकायाम्करणापर्याप्तेषु चतुरिन्द्रियादिषु इन्द्रियपर्याप्तौ सत्यां चक्षुर्दर्शनं भवति / (पत्र-५-१) इति // 17 // थीनरपणिदि चरमा, चउ अणहारे दु सनि छ अपजा। ते सुहुमअपज विणा, सासणि इत्तो गुणे वुच्छं // 18 // स्त्रीवेदे नरवेदे पञ्चेन्द्रिये च 'चरमाणि' अन्तिमानि पर्याप्तापर्याप्तासंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि चत्वारि जीवस्थानानि भवन्ति / यद्यपि च सिद्धान्ते असंज्ञी पर्याप्तोऽपर्याप्तो वा सर्वथा नपुंसक एवोक्तः / तथा चोक्तं श्रीभगवत्याम् ते 'भंते ! असन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिया किं इत्थिवेयगा पुरिसवेयगा नपुंसगवेयगा ? गोयमा ! नो इत्थिवेयगा नो पुरिसवेयगा नपुंसगवेयगा (श०२४ उ० 1 पत्र 806) इति / तथापीह स्त्रीपुंसलिङ्गाकारमात्रमङ्गीकृत्य स्त्रीवेदे नरवेदे चासंज्ञी निर्दिष्ट इत्यदोषः। . उक्तं च पञ्चसङ्घहमूलटीकायाम् यद्यपि चासंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ नपुंसकौ तथापि स्त्रीपुंसलिङ्गाकारमात्रमङ्गीकृत्य स्त्रीपुंसावुक्तौ (पत्र 10) इति / __ अपर्याप्तकश्चेह करणापर्याप्तको गृह्यते न लब्ध्यपर्याप्तकः, लब्ध्यपर्याप्तकस्य सर्वस्य नपुंसकत्वात् / अनाहारके "दु सन्नि छ अपज्ज" त्ति द्विविधः संज्ञी पर्याप्तापर्याप्तलक्षणः षड् अपर्याप्ताश्चेत्यष्टौ जीवस्थानानि भवन्ति / अयमर्थः-अपर्याप्तसूक्ष्मबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरसंज्ञिसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि सप्त जीवस्थानानि अनाहारके विग्रहगतावेकं द्वौ त्रीन् वा समयान् यावद् आहारासम्भवात् सम्भवन्ति, विग्गेहगइमावन्ना, केवलिणो समुहया अजोगी य / सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा // (श्रावकप्र० गा० 68) इति वचनात् ; संज्ञिपर्याप्तलक्षणं जीवस्थानम् अनाहारके केवलिसमुद्धातावस्थायां तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु लभ्यते / उक्तं च कार्मणशरीरयोगी, तृतीयके पञ्चमे चतुर्थे च / समयत्रये च तस्मिन् , भवत्यनाहारको नियमात् / / (प्रश० का० 277) "ते सुहुमअपज्ज विणा सासणि" ति साखादने सम्यक्त्वे तान्येव पूर्वोक्तानि षड् अपर्याप्तपर्याप्तसंज्ञिद्विकलक्षणान्यष्टौ जीवस्थानानि सूक्ष्मापर्याप्तं विना सप्त भवन्ति / एतदुक्तं भवतिअपर्याप्तबादरैकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तसंज्ञिपञ्चेन्द्रियलक्षणानि सप्त जीवस्थानकानि साखादनसम्यक्त्वे भवन्तीति; यत्तु सूक्ष्मैकेन्द्रियापर्याप्तलक्षणं जीव १ते भदन्त ! असंज्ञिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः किं स्त्रीवेदकाः पुरुषवेदकाः नपुंसकवेदकाः? गौतम / न श्रीवेदका न पुरुषवेदका नपुंसकवेदका इति // 2 विग्रहगतिमापन्नाः केवलिनः समुद्धता अयोगिनश्च / सिद्धाश्चानाहाराः शेषा आहारका जीवाः॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18-20] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 147 स्थानं तत् साखादनसम्यक्त्वे न घटामियति, साखादनसम्यक्त्वस्य मनाक् शुभपरिणामरूपत्वात् , महासंक्लिष्टपरिणामस्य च सूक्ष्मैकेन्द्रियमध्ये उत्पादाभिधानात् / सूत्रे च सर्वत्र लिङ्गव्यत्ययः प्राकृतत्वात् , प्राकृते हि लिङ्गं व्यभिचार्यपि / यदाह पाणिनिः स्वप्राकृतलक्षणे “लिङ्गं व्यभिचार्यपि" इति / उक्तानि मार्गणास्थानकेषु जीवस्थानकानि / इत ऊर्ध्वमेतेष्वेव मार्गणास्थानकेषु "गुणि" ति गुणखानकानि 'वक्ष्ये' प्रतिपादयिष्य इति // 18 // अथ यथाप्रतिज्ञातमेव निर्वाहयबाह पण तिरि चउ सुरनरए, नर सन्नि पणिदि भव्य तसि सव्वे / इग विगल भू दग वणे, दु दु एगं गइतस अभव्वे // 19 // पञ्च गुणस्थानकानि मिथ्यादृष्टिसाखादनमिश्राविरतसम्यग्दृष्टिदेशविरतिलक्षणानि "तिरि" ति तिर्यग्गतौं भवन्ति / चतुःशब्दस्य प्रत्येकं योगात् 'सुरे' सुरगतौ चत्वारि प्रथमगुणस्थानकानि 'नरके' नरकगतौ च प्रथमानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति न देशविरतादीनि, तेषु भवखभावतो देशतोऽपि विरतेरभावादिति / 'नरे' नरगतौ 'संज्ञिनि' विशिष्टमनोविज्ञानभाजि पञ्चेन्द्रिये भव्ये 'त्रसे' त्रसकाये च 'सर्वाण्यपि' चतुर्दशापि गुणस्थानकानि भवन्ति, एतेषु मिथ्यादृष्ट्यादीनामयोगिकेवल्यवसानानां सर्वभावानामपि सम्भवात् / "इग" ति एकेन्द्रियेषु सामान्यतः "विगल" ति 'विकलेन्द्रियेषु' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु 'भुवि' पृथ्वीकाये 'उदके' अप्काये 'वने वनस्पतिकाये "दु दु" ति द्वे द्वे' आये मिथ्यात्वसासादनलक्षणे भवतः / तत्र मिथ्यात्वमविशेषेण सर्वेषु द्रष्टव्यम् ; सासादनं तु तेजोवायुवर्जबादरैकेन्द्रियद्वित्रिचतुरिन्द्रियपृथिव्यम्बुवनस्पतिषु लब्ध्या पर्याप्तकेषु करणेन वपर्याप्तकेषु, न सर्वेष्विति / तथा एकं मिथ्यात्वलक्षणं गुणस्थानकं भवति, केषु ! इत्याह-गत्या गमनेन त्रसाः न तु बसनामकर्मोदयाद् गतिसाःतेजोवायवस्तेषु, सासादनभावोपगतस्य तेषु मध्य उत्पादाभावाद् अभव्येषु चेति // 19 // वेय तिकसाय नव दस, लोभे चउ अजइ दु ति अनाणतिगे। . बारस अचक्खुचक्खुसु, पढमा अहखाइ चरम चऊ // 20 // 'वेदे' वेदत्रये त्रयाणां कषायाणां समाहारस्त्रिकषायं-क्रोधमानमायालक्षणं तस्मिन् त्रिकषाये "पढम" ति प्रथमानीति पदं डमरुकमणिन्यायेन सर्वत्र योज्यम् / ततो वेदे-स्त्रीपुंनपुंसकलक्षणे कषायत्रये च प्रथमानि मिथ्यादृष्ट्यादीनि अनिवृत्तिबादरपर्यन्तानि नव गुणस्थानकानि भवन्ति न शेषाणि, अनिवृत्तिबादरगुणस्थान एव वेदत्रिकस्य कषायत्रिकस्य चोपशान्तत्वेन क्षीणत्वेन वा शेषेषु गुणस्थानेषु तदसम्भवात् / 'लोमे' लोभकषाये दश गुणस्थानानि, तत्र नव पूर्वोक्तानि दशमं तु सूक्ष्मसम्परायलक्षणम् , तत्र किट्टीकृतसूक्ष्मलोभकषायदलिकस्य वेद्यमानत्वात् / चत्वारि प्रथमानि 'अयते' विरतिहीन इत्यर्थः, कोऽर्थः ! विरतिहीने मिथ्यात्वसाखादनमिश्राविरतसम्यग्दृष्टिलक्षणानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्तीति / “दु ति अन्नाणतिगे" ति 'अज्ञानत्रिके मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानलक्षणे प्रथमे द्वे गुणस्थानके मिथ्यादृष्टिसास्वादनरूपे भवतः, न मिश्रमपि / यतो यद्यपि मिश्रगुणस्थानके यथास्थितवस्तुतत्त्वनिर्णयो नास्ति तथापि न तान्यज्ञानान्येव सम्यग्ज्ञानलेशव्यामिश्रत्वाद् अत एव न मिश्रगुणस्थानकमभिधीयते / उक्तं च Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा मिथ्यात्वाधिकस्य मिश्रदृष्टेरज्ञानबाहुल्यं सम्यक्त्वाधिकस्य पुनः सम्यग्ज्ञानबाहुल्यम् (जिनवल्लमीयषडशीतिटीका पत्र 160-2) इति / ज्ञानलेशसद्भावतो न मिश्रगुणस्थानकमज्ञानत्रिके लभ्यते इत्येके प्रतिपादयन्ति तन्मतमधिकृत्यास्माभिरपि 'द्वे' इत्युक्तम् / ___ अन्ये पुनराहुः-अज्ञानत्रिके त्रीणि गुणस्थानानि, तद्यथा-मिथ्यात्वं साखादनं मिश्रदृष्टिश्च / यद्यपि "मिस्सम्मी वामिस्सा" (पञ्चसं० गा० 20) इति वचनाद् ज्ञानव्यामिश्राण्यज्ञानानि प्राप्यन्ते न शुद्धाज्ञानानि तथापि तान्यज्ञानान्येव, शुद्धसम्यक्त्वमूलत्वेनात्र ज्ञानस्य प्रसिद्वत्वात् , अन्यथा हि यद्यशुद्धसम्यक्त्वस्यापि ज्ञानमभ्युपगम्यते तदा साखादनस्यापि ज्ञानाभ्युपगमः स्यात् , न चैतदस्ति, तस्याज्ञानित्वेनानन्तरमेवेह प्रतिपादितत्वात् , तस्माद् अज्ञानत्रिके प्रथमं गुणस्थानकत्रयमवाप्यत इति / तन्मतमाश्रित्यास्माभिरपि 'त्रिकम्' इत्युक्तम् / तत्त्वं तु केवलिनो विशिष्टश्रुतविदो वा विदन्तीति / द्वादश प्रथमानि गुणस्थानकानि अचक्षुर्दर्शने चक्षुर्दर्शने च भवन्ति, यतो मिथ्यादृष्टिप्रभृतिक्षीणमोहपर्यन्तेषु गुणस्थानकेष्वचक्षुर्दर्शनचक्षुर्दर्शनसम्भवात् / यथाख्याते चारित्रे 'चरमाणि' अन्तिमानि उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवल्ययोगिकेवलिलक्षणानि चत्वारि गुणस्थानानि भवन्ति, एषु कषायाभावादिति // 20 // मणनाणि सग जयाई, समइय छेय चउ दुन्नि परिहारे। केवलदुगि दो चरमाऽजयाइ नव मइ सुओहिदुगे // 21 // 'मनोज्ञाने' मनःपर्यवज्ञाने "सग" ति सप्त गुणस्थानानि भवन्ति / कानि ! इत्याह'यतादीनि' तत्र "यमूं उपरमे" यमनं यतं सम्यक सावद्याद उपरमणमित्यर्थः, यतं विद्यते यस्य स यतः-प्रमत्तयतिः, यत आदौ येषां तानि यतादीनि-प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहक्षीणमोहलक्षणानीति / सामायिके छेदोपस्थापने च चत्वारि यतादीनि गुणस्थानानि, प्रमत्ताप्रमत्तनिवृत्तिबादरानिवृत्तिबादराणीत्यर्थः / द्वे गुणस्थानके प्रमत्ताप्रमत्तरूपे परिहारविशुद्धिकचारित्र इत्यर्थः, नोत्तराणि, तस्मिन् चारित्रे वर्तमानस्य श्रेण्यारोहणप्रतिषेधात् / 'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे द्वे गुणस्थाने भवतः, के ? इत्याह-'चरमे' अन्तिमे सयोगिकेवैलिगुणस्थानकायोगिकेवलिगुणस्थानके इति / "अजयाइ नव मइसुओहिदुगे" ति अयतःअविरतः स आदौ येषां तान्ययतादीनि-अविरतसम्यग्दृष्ट्यादीनि क्षीणमोहपर्यवसानानि नव गुणस्थानानि भवन्ति 'मतौ' मतिज्ञाने 'श्रुते' श्रुतज्ञाने 'अवधिद्विके' अवधिज्ञानावधिदर्शनलक्षणे, न शेषाणि / तथाहि-न मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानानि मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रेषु भवन्ति, तद्भावे ज्ञानत्वस्यैवायोगात् / यत् तु अवधिदर्शनं तत् कुतश्चिदभिप्रायाद् विशिष्टश्रुतविदो मिथ्यादृष्ट्यादीनां नेच्छन्ति, तन्मतमाश्रित्यास्माभिरपि तत् तेषां न भणितम् / अथ च सूत्रे मिथ्यादृष्ट्यादीनामप्यवधिदर्शनं प्रतिपाद्यते / यदाह रभसवशविनम्रसुरासुरनरकिन्नरविद्याधरपरिवृढमाणिक्यमुकुटकोटीविटङ्कनिघृष्टचरणारविन्दयुगलः श्रीसुधर्मस्वामी पञ्चमाणे ओहिदसणअणागारोवउत्ता णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा ! नाणी वि अन्नाणी 1 मित्रे व्यामिश्राणि // 2 °वल्ययोगिके ख० ग० घ०॥ 3 अवधिदर्शनानाकारोपयुक्ता भदन्त / कि Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21-23] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 149 वि / जेइ नाणी तो अत्थेगइया तिनाणी अत्थेगइया चउनाणी / जे तिनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुअनाणी ओहिनाणी / जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी मणपज्जवनाणी / जे अन्नाणी ते नियमो मइअन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगनाणी / (श०८ उ० 2 पत्र 355-1) इति / / - अत्र हि येऽज्ञानिनस्ते मिथ्यादृष्टय एवेति मिथ्यादृष्ट्यादीनामप्यवधिदर्शनं साक्षादत्र सूत्रे प्रतिपादितम् / स एव विभङ्गज्ञानी यदा सासादनभावे मिश्रभावे वा वर्तते तत्रापि तदानीमवघिदर्शनं प्राप्यत इति / यत् पुनः सयोग्ययोगिकेवलिगुणस्थानकद्विकं तत्र मतिज्ञानादि न सम्भवत्येव, तघ्यवच्छेदेनैव केवलज्ञानस्य प्रादुर्भावात् "नैम्मि उ छाउमथिए नाणे" (आव० नि० गा० 539) इति वचनप्रामाण्यादिति // 21 // अड उवसमि चउ वेयगि, खइगे इक्कार मिच्छतिगि देसे / सुहुमे य सठाणं तेर जोग आहार सुकाए // 22 // काकाक्षिगोलकन्यायाद् इह "अयादीनि" [इति] पदं सर्वत्र योज्यते। ततोऽयतादीन्युपशान्तमोहान्तान्यष्टौ गुणस्थानान्यौपशमिकसम्यक्त्वे भवन्ति / अयतादीन्यप्रमत्तान्तानि चत्वारि 'वेदके' क्षायोपशमिकापरपर्याये गुणस्थानकानि भवन्ति / क्षायिकसम्यक्त्वे अयतादीन्ययोगिकेवलिपर्यवसानान्येकादश गुणस्थानकानि भवन्ति / तथा 'मिथ्यात्वत्रिके' मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रलक्षणे 'देशे' देशविरते 'सूक्ष्मे' सूक्ष्मसम्पराये 'चः' समुच्चये 'स्वस्थानं' निजस्थानम् / इदमुक्तं भवति-मिथ्यात्वमार्गणास्थाने मिथ्यादृष्टिगुणस्थानम् , सासादनमार्गणास्थाने सासादनं गुणस्थानम् , मिश्रे मार्गणास्थाने मिश्रं गुणस्थानम् , देशसंयममार्गणास्थाने देशविरतं गुणस्थानम् , सूक्ष्मसम्परायसंयममार्गणास्थाने सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानम् / तथा 'योगे' मनोवाकायलक्षणे अयोगिकेवलिवर्जितानि शेषाणि त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति, सर्वेष्वप्येतेषु यथायोगं योगत्रयस्यापि सम्भवात् / तथा आहारकेषु आद्यानि त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति, सर्वेष्वप्येतेषु ओजोलोमप्रक्षेपाहाराणामन्यतमस्याहारस्य यथायोगं सम्भवात् / तथा "सुक्काए" ति शुक्ललेश्यायां प्रथमानि त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति, न त्वयोगिकेवलिगुणस्थानम् , तस्य लेश्यातीतत्वादिति // 22 // ___अस्सन्निसु पढमदुर्ग, पढमतिलेसासु छच्च दुसु सत्त। पढमंतिमदुगअजया, अणहारे मग्गणासु गुणा // 23 // 'असंज्ञिषु' संज्ञिव्यतिरिक्तेषु प्रथमं मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणं गुणस्थानकद्वयं भवति / तत्र (ग्रन्थानम्-१०००) मिथ्यात्वमविशेषेण सर्वत्र द्रष्टव्यम् , सासादनं तु लब्धिपर्याप्तकानां करणापर्याप्तावस्थायामिति / प्रथमासु तिसूषु लेश्यासु मिथ्यादृष्ट्यादीनि प्रमत्तान्तानि षड् गुणस्थाशानिनोऽज्ञानिनः? गौतम ! ज्ञानिनोऽप्यज्ञानिनोऽपि / यदि ज्ञानिनः ततोऽस्त्येककाः त्रिज्ञानिनोऽस्त्यैककाथतु निनः / ये विज्ञानिनस्ते आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनः / ये चतुर्जानिनखे आमिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनो मनःपर्यायज्ञानिनः / ये अज्ञानिनस्ते नियमाद् मत्यज्ञानिनः श्रुताशानिनो विभाज्ञानिनः॥ 1 जे नाणी ते अ° भगवत्याम् // 2 मा तिअन्नाणी, तं जहा-मइ. भगवत्याम्॥ 3 नष्टे तु छानस्थिके शाने // ४°तादीति प°क०॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा नानि भवन्ति / 'चः' समुच्चये / कृष्णनीलकापोतलेश्यानां हि प्रत्येकमसङ्घयेयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि, ततो मन्दसंक्लेशेषु तदध्यवसायस्थानेषु तथाविधसम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतीनामपि सद्भावो न विरुध्यते / उक्तं च सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतीनां प्रतिपत्तिकाले शुभलेश्यात्रयमेव भवति / उत्तरकालं तु सर्वा अपि लेक्ष्याः परावर्तन्तेऽपि इति / श्रीमदाराध्यपादा अप्याहुः सम्मत्सुयं सव्वासु लहइ सुद्धासु तीसु य चरित्र / पुवपडिवन्नओ पुण, अन्नयरीए उ लेसाए // (आव० नि० गा० 822) श्रीभगवत्यामप्युक्तम् सौमाइयसंजए णं भंते ! कइलेसासु हुज्जा ? गोयमा ! छसु लेसासु होज्जा, एवं छेओवट्ठावणियसंजए वि (श० 25 उ०७ पत्र 913-1) इत्यादि। तथा 'द्वयोः तेजोलेश्यापद्मलेश्ययोः सप्त गुणस्थानानि भवन्ति, तत्र षट् पूर्वोक्तान्येव सप्तमं त्वप्रमगुणसानकम् , अप्रमत्तसंयताध्यवसायस्थानापेक्षया मिथ्यादृष्ट्यादीनां प्रमचान्तानां तेजोलेश्यापद्मलेश्ये तारतम्येन जघन्यात्यन्ताविशुद्धिके द्रष्टव्ये / तथा अनाहारके पञ्च गुणस्थानानि भवन्ति / कानिः इत्याह-'प्रथमान्तिमद्विकाऽयतानि' इति द्विकशब्दस्य प्रत्येकं योगात् प्रथमद्विकं-मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणम् अन्तिमद्विकं-सयोगिकेवल्ययोगिकेवलिलक्षणम् 'अयतः' इति अविरतसम्यग्दृष्टिश्चेति / तत्र मिथ्यात्वसाखादनाविरतसम्यग्दृष्टिलक्षणं गुणस्थानकत्रयमनाहारके विग्रहगतौ प्राप्यते, सयोगिकेवलिगुणस्थानकं त्वनाहारके समुद्धातावस्थायां तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु द्रष्टव्यम् / यदवादि-"चतुर्थतृतीयपञ्चमेष्वनाहारकः" इति / अयोगिकेवल्यवस्थायां तु योगरहितत्वेनौदारिकादिशरीरपोषकपुद्गलग्रहणाभावाद् अनाहारकत्वम् , “औदारिकवैक्रियाहारकशरीरपोषकपुद्गलोपादानमाहारः" इति प्रवचनोपनिषद्वेदिनः / एवं मार्गणास्थानेषु गत्यादिषु "गुण" चि गुणस्थानकान्यभिहितानि // 23 // अधुना मार्गणास्थानेष्वेव योगानभिधित्सुः प्रथमं तावद्योगानेव खरूपत आह सचेयर मीस असचमोस मण वह विउवियाहारा। उरलं मीसा कम्मण, इय जोगा कम्ममणहारे // 24 // इह योगशब्देन कारणे कार्योपचारात् तत्चत्सहकारिभूतं मनःप्रभृत्येव विवक्षितमिति तैः सह योगस्य सामानाधिकरण्यम् / तत्र मनोयोगश्चतुर्धा, तद्यथा-सत्यमनोयोगः 1 अंसत्यमनोगः 2 सत्यासत्यमनोयोगः 3 असत्यामृषमनोयोगः 4 / तत्र सन्तो मुनयः पदार्था वा, तेषु यथासमं मुक्तिपापकत्वेन यथावस्थिततत्त्वचिन्तनेन च हितः सत्यः, यथाऽस्ति जीवः सदसदूपः कायप्रमाण इत्यादिरूपतया यथावस्थितवस्तुविकल्पनपर इत्यर्थः, सत्यश्चासौ मनोयोगश्च सत्य 1 सम्यक्त्वश्रुतं सर्वासु लभते शुद्धासु तिसषु च चारित्रम् / पूर्वप्रतिपनः पुनरन्यतरस्यां तु लेश्यायाम् // १सामायिकसंयतो भदन्त। कतिषु लेश्यासु भवेत् ? गौतम! षट्सु लेश्यासु भवेत्, एवं छेदोपस्थापनीयसंयतोऽपि Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24) षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 151 मनोयोगः 1 / तथा सत्यविपरीतोऽसत्यः, यथा नास्ति जीव एकान्तसद्भतो विश्वव्यापीत्यादि- . कुविकल्पचिन्तनपरः, असत्यश्चासौ मनोयोगश्च असत्यमनोयोगः 2 / तथा मिश्रः-सत्यासत्यमनोयोगः, यथा इह धवखदिरपलाशादिमिश्रेषु बहुप्वशोकवृक्षेषु अशोकवनमेवेदमिति यदा विकल्पयति तदा तत्राऽशोकवृक्षाणां सद्भावात् सत्यः, अन्येषामपि धवखदिरपलाशादीनां तत्र सद्भावाद् असत्य इति सत्यासत्यमनोयोग इति, व्यवहारनयमतापेक्षया चैवमुच्यते, परमार्थतः पुनरयमसत्य एव यथाविकल्पितार्थायोगात् 3 / न विद्यते सत्यं यत्र सोऽसत्यः, न विद्यते मृषा यत्र सोऽमृषः, असत्यश्वासावमृषश्च "क्तं नादिभिन्नैः” (सि० 3-1-105) इति कर्मधारयः, असत्यामृषश्चासौ मनोयोगश्च असत्यामृषमनोयोगः 4 / इह विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठासया सर्वज्ञमतानुसारेण यद् विकल्प्यते, यथाऽस्ति जीवः सदसद्रूप इत्यादि, तत् किल सत्यं परिभाषितम् आराधकत्वात् / यतु विप्रतिपत्तौ सत्यां वस्तुप्रतिष्ठासया सर्वज्ञमतोत्तीर्ण किञ्चिद् विकल्प्यते, यथा नास्ति जीव एकान्तनित्यो वेत्यादि, तद् असत्यमिति परिभाषितं विराधकत्वात् / यत् पुनवस्तुप्रतिष्ठासामन्तरेण खरूपमात्रप्रतिपादनपरं व्यवहारपतितं किञ्चिद् विकल्प्यते, यथा हे देवदत्त! घटमानय गां देहि मह्यमित्यादि, तद् एतत् खरूपमात्रप्रतिपादनं व्यावहारिकं विकल्पज्ञानम् / न यथोक्तलक्षणं सत्यं नापि मृषेत्यसत्यामृषमनोयोग इति व्याख्यातश्चतुर्धा मनोयोगः / “वई" ति वाग्योगोऽपि चतुर्धा द्रष्टव्यः, तथाहि-सत्यवाग्योगः 1 असत्यवाग्योगः 2 सत्यासत्यवाग्योगः 3 असत्यामृषवाग्योगः 4 / तत्र सतां हिता सत्या, सत्या चासौ वाक् च सत्यवाक्, तया सहकारिकारणभूतया योगो [सत्य]वाग्योगः, अथवा वचनगतं सत्यत्वं तत्कार्यत्वाद् योगेऽप्युपचर्यते, ततश्च सत्यश्चासौ वाग्योगश्च सत्यवाग्योगः, भावार्थः सत्यमनोयोगवद वाच्यः। असत्या सत्याद् विपरीता सा चासौ वाक् चाऽसत्यवाक् तया योगोऽसत्यवाग्योगः 2 / तथा सत्या चासावसत्या चेत्यादि पूर्ववत् कर्मधारयो बहुव्रीहिर्वा, सा चासौ वाक् च सत्यासत्यवाक् , तत्प्रत्ययो योगः सत्यासत्यवाग्योगः 3 / न विद्यते सत्यं यत्र सोऽसत्यः, न विद्यते मृषा यत्र सोऽमृषः, असत्यश्वासावमृषश्चासत्यामृषः, स चासौ वाग्योगश्च असत्यामृषवाग्योगः, शेषं मनोयोगवत् सर्वे वाच्यम् 4 / अत्र तृतीयचतुर्थी मनोयोगौ वाग्योगौ च परिस्थूरव्यवहारनयमतेन द्रष्टव्यौ / निश्चयनयमतेन तु मनोज्ञानं वचनं वा सर्वमदुष्टविवक्षापूर्वकं सत्यम् , अज्ञानादिदूषिताशयपूर्वकं त्वसत्यम् , उभयानुभयरूपं तु नास्त्येव सत्यासत्यराशिद्वयेऽन्तर्भावादिति भावनीयम् / तथा काययोगः सप्तधा–वैक्रियकाययोग आहारककाययोगः “उरल" ति औदारिककाययोगः “मीस" त्ति मिश्रशब्दस्य पूर्वदर्शितशरीरत्रिकेण सह. सम्बन्धाद् वैक्रियमिश्रकाययोग आहारकमिश्रकाययोग औदारिकमिश्रकाययोगः “कम्मण" ति कार्मणकाययोग इत्यक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्-विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया, तस्यां भवं वैक्रियम् / तथाहितदेकं भूत्वाऽनेकं भवति, अनेकं भूत्वैकम् , अणु भूत्वा महद् भवति, महद् भूत्वाऽणु, तथा खचरं भूत्वा भूमिचरं भवति, भूमिचरं भूत्वा खचरम् , अदृश्यं भूत्वा दृश्यं भवति, दृश्यं भूत्वाऽदृश्यमित्यादि / यद्वा विशिष्टं कुर्वन्ति तदिति वैकुर्विकम् , पृषोदरादित्वाद् अभीष्टरूपसिद्धिः / तच्च द्विधा-औपपातिकं लब्धिप्रत्ययं च / तत्रौपपातिकमुपपातजन्मनिमित्तम् , तञ्च देवनारकाणाम्, Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा लब्धिप्रत्ययं तिर्यड्मनुष्याणाम् / उक्तं च श्रीमदनुयोगद्वारलघुवृत्तौ विविहाँ विसिट्ठगा वा, किरियो तीए अजं भवं तमिह / नियमा विउव्वियं पुण, नारगदेवाण पयईए // (पत्र. 87) तदेव काययोगस्तन्मयो वा योगो वैक्रिययोगो वैकुर्विककाययोगो वा 1 / वैक्रियं मिश्रं यत्र कार्मणेन औदारिकेण वा स वैक्रियमिश्रः, तत्र कार्मणेन मिश्रं देवनारकाणामपर्याप्तावस्थायां प्रथमसमयादनन्तरम् , बादरपर्याप्तकवायोः पञ्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याणां च वैक्रियलब्धिमतां वैक्रियारम्भकाले वैक्रियपरित्यागकाले वा औदारिकेण मिश्रम्, ततो वैक्रियमिश्रश्वासौ कायश्च वैक्रियमिश्रकायस्तेन योगो वैक्रियमिश्रकाययोगः 2 / चतुर्दशपूर्वविदा तथाविधकार्योत्पत्तौ विशिष्टलब्धिवशाद् आह्वियते निर्वर्त्यत इत्याहारकम् , अथवाऽऽहियन्ते गृह्यन्ते तीर्थकरादिसमीपे सूक्ष्मा जीवादयः पदार्था अनेनेत्याहारकम् / “कृद्वहुलं" (बहुलम् सि० 5-1-2) इति कर्मणि करणे वा णकः / यदवादि कैजम्मि समुप्पन्ने, सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए / जं इत्थ आहरिजइ, भणंति आहारगं तं तु // (अनु. हा. टी. पत्र 87) पाणिदयरिद्धिसंदरिसणत्थमत्थोवगहणहेउं वा / संसयवुच्छेयत्थं, गमणं जिणपायमूलम्मि // - (अनु. चू. पत्र 61, अनु. हा. टी. पत्र 87) तदेव कायस्तेन योग आहारककाययोगः 3 / आहारकं मिश्रं यत्र औदारिकेणेति गम्यते स आहारकमिश्रः, सिद्धप्रयोजनस्य चतुर्दशपूर्वविद आहारकं परित्यजत औदारिकमुपाददानस्य आहारकं प्रारभमाणस्य वा प्राप्यते, स एव कायस्तेन योग आहारकमिश्रकाययोगः 4 / तथा औदारिककाययोगः, इह प्रसिद्धसिद्धान्तसन्दोहविवरणप्रकरणप्रमाणग्रन्थग्रथनावाप्तसुधांशुधामधवलयशःप्रसरधवलितसकलवसुन्धरावलयप्रभुश्रीहरिभद्रसूरिदर्शिता व्युत्पत्तिर्लिख्यते__ तत्थ ताव उदारं उरालं उरलं ओरालं वा / तित्थगरगणधरसरीराइं पडुच्च उदारं वुच्चइ, न तओ उदारतरमन्नमत्थि त्ति काउं, उदारं नाम प्रधानम् / उरालं नाम विस्तरालं विशालमिति वा, जं भणियं होइ, कहं ? साइरेगजोयणसहस्समवट्ठियप्पमाणमोरालियं, अन्नमिद्दहमित्तं नत्थि, वेउवियं हुज्ज लक्खमहियं, अवट्ठियं पंचधणुसँयाइं अहे सत्तमाए, इत्थं पुण अवट्ठियपमाणं विविधा विशिय वा क्रिया तस्यां च यद् भवं तदिह / नियमाद् वैकुर्विकं पुनः नारकदेवानी प्रकृत्या // 2 °या विकिरिय तीए जं तमिह / अनुयोगद्वारलघुवृत्तौ // 3 कार्ये समुत्पन्ने श्रुतकेवलिना विशिष्टलन्ध्या / यदत्राहियते भणन्ति आहारकं तत् तु // प्राणिदयार्द्धसन्दर्शनार्थमर्थावग्रहणहेतुर्वा / संशयव्युच्छेदार्थ गमनं जिनपादमूले // 4 तत्र तावदुदारमुरालमुरलमोरालं वा / तीर्थकरगणधरशरीराणि प्रतीत्योदारमुच्यते, न तत उदारतरमन्यदस्तीति कृत्वा // 5 ओरालं ओरालियं अनुयोगद्वारचो // 6 काउं उदार। उदा. अनुयोगद्वारचूर्णी // 7 यद् भणितं भवति, कथं सातिरेकयोजनसहस्रमवस्थितप्रमाणमौदारिकम् , अन्यदेतावन्मानं नास्ति, वैक्रियं भवेद् लक्षाधिकम्, अवस्थितं पश्च धनुःशतानि अधः सप्तम्याम्, अत्र पुनः अवस्थितप्रमाणं सातिरेकं योजनसहस्रम् // 'सतं, इमं पु° अनुयोगद्वारचूर्णिलघुवृत्त्योः // Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः। 153 अइरेगं जोयणसहस्सं वनस्पत्यादीनामिति / उरलं नाम खल्पप्रदेशोपचितत्वाद् बृहत्त्वाच्च भिण्डवत् / ओरालं नाम मांसास्थिस्वाय्वाद्यवयवबद्धत्वात् / (अनु. हा. टी. पत्र 87) श्रीपूज्या अप्याहुः तैत्थोदारमुरौलं, ओरालमहव महल्लगवेण / ओरालियं ति पढमं, पडुच्च तित्थेसरसरीरं // भण्णइ य तहोरालं, वित्थरवंतं वणस्सतिं पप्प / पयईइ नत्थि अन्नं, इद्दहमित्तं विसालं ति // उरलं थेवपएसोवचियं पि महल्लगं जहा भिंडं / * मंसट्ठिण्हारुबद्धं, ओरालं समयपरिभासा // (अनु. हा. टी. पत्र 87) __ सर्वत्र खार्थिक इकप्रत्ययः, उदारमेव उरालमेव उरलमेव ओरालमेव औदारिकम् , पृषोदरादित्वाद् इष्टरूपनिप्पत्तिः, औदारिकमेव चीयमानत्वात् कायः, तेन सहकारिकारणभूतेन तद्विषयो वा योग औदारिककाययोगः 5 / तथा औदारिक मिश्रं यत्र कार्मणेनेति गम्यते स औदारिकमिश्रः, उत्पत्तिदेशे हि पूर्वभवादनन्तरमागतो जीवः प्रथमसमये कार्मणेनैव केवलेनाऽऽहारयति, ततः परमौदारिकस्याऽप्यारब्धत्वाद् औदारिकेण कार्मणमिश्रेणा यावत् शरीरनिष्पतिः / यदाह सकलश्रुताम्भोनिधिपारदृश्वा विश्वानुग्रहकाम्यया निर्मितानेकशास्त्रसन्दर्भः श्रीभद्रबाहुखामी जोएण कम्मएणं, आहारेई अणंतरं जीवो। . तेण परं मीसेणं, जाव सरीरस्स निप्फत्ती // केवलिसमुद्धातावस्थायां तु द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेषु कार्मणेन मिश्रमौदारिक प्रतीतमेव, "मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु // " (प्रश० का० 276) इति वचनात् , औदारिकमिश्रश्वासौ कायश्च तेन योग औदारिकमिश्रकाययोगः 6 / तथा कर्मणो विकारः कार्मणम् , "विकारे" (सि०६-२-३०) अण्प्रत्ययः, यद्वा कर्मैव कार्मणम् , “प्रज्ञादिभ्योऽण्" (सि० 7-2-165) [ इत्या प्रत्ययः, कर्मपरमाणव एवारमप्रदेशैः सह क्षीरनीरवद् अन्योन्यानुगताः सन्तः कार्मणं शरीरम् / उक्तं च कम्मविगारो कम्मणमट्टविहविचित्तकम्मनिष्फन्न / सव्वेसि सरीराणं, कारणभूयं मुणेयव्वं // (अनु. हा. टी. पत्र 87) अत्र "सव्वेसिं" इति सर्वेषामौदारिकादीनां शरीराणां कारणभूतं-बीजभूतं कार्मणशरीरम् , 1 ओरालियं अनुयोगद्वारचूर्णौ // 2 समग्रोऽप्येष पाठः अनुयोगद्वारचूर्णावपि पत्र 60-61 तमेऽस्ति // 3 तत्रोदारमुरालं ओरालमथवा महत्तया / औदारिकमिति प्रथम प्रतीत्य तीर्थेश्वरशरीरम् // भण्यते च तथोरालं विस्तारवद् वनस्पतिं प्राप्य / प्रकृत्या नास्त्यन्यद् एतावन्मानं विशालमिति // उरलं स्तोकप्रदेशोपचितमपि महद्यथा भिण्डम् / मांसास्थिस्नायुबद्धमोरालं समयपरिभाषा // ४रालं उरलं ओरालमहव विष्णेयं / इति अनुयोगद्वारलघुवृत्तौ पाठः॥ 5 योगेन कार्मणेनाहारयत्यनन्तरं जीवः / ततः पर मिश्रेण यावच्छरीरस्य निष्पत्तिः॥ 6 कर्मविकारः कार्मणमष्टविधविचित्रकर्मनिष्पन्नम्। सर्वेषां शरीराणां कारणभूतं ज्ञातव्यम् // क०२० Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा न खस्वामूलमुच्छिन्ने भवप्रपञ्चपरोहबीजभूते कार्मणे वपुषि शेषशरीरप्रादुर्भावसम्भवः / ___ इदं च कार्मणशरीरं जन्तोर्गत्यन्तरसान्तौ साधकतमं करणम् / तथाहि-कार्मणेनैव वपुषा परिकरितो जन्तुर्मरणदेशमपहायोत्पत्तिदेशमुपसर्पति / ननु यदि कार्मणवपुःपरिकरितो गत्यन्तर सङ्कामति तर्हि गच्छन् कस्मात् नोपलक्ष्यते ! [उच्यते-] कर्मपुद्गलानामतिसूक्ष्मतया चक्षुरादीन्द्रियागोचरत्वात् / आह चप्रज्ञाकरगुप्तोऽपि अन्तरा भवदेहोऽपि, सूक्ष्मत्वानोपलक्ष्यते।। निष्कामन् प्रविशन् वाऽपि, नाभावोऽनीक्षणादपि // कार्मणमेव कायस्तेन योगः कार्मणकाययोगः 7 / "इय जोग" ति 'इतिः' परिसमाप्तौ / ततोऽयमर्थः-एत एव योगा नान्य इति / ननु तैजसमपि शरीरं विद्यते, यद् भुक्ताहारपरिणमनहेतुर्यद्वशाद् विशिष्टतपोविशेषसमुत्यलब्धिविशेषस्य पुरुषस्य तेजोलेश्याविनिर्गमः, तत् कथमुच्यते एत एव योगा नान्ये इति, नैष दोषः, सदा कार्मणेन सहाऽव्यभिचारितया तैजसस्य तद्रहणेनैव गृहीतत्वादिति / / निरूपिताः खरूपतो योगाः / साम्प्रतमेतानेव मार्गणास्थानेषु निरूपयन्नाह- "कम्ममणहारि" ति व्यवच्छेदफलं हि वाक्यम्, अतोऽवश्यमवधारयितव्यम् / तथावधारणमिहैवम्कार्मणमेवैकमनाहारके न शेषयोगाः, असम्भवादिति / न पुनरेवम्-कार्मणमनाहारकेष्वेवेति, आहारकेष्वपि उत्पत्तिप्रथमसमये कार्मणयोगसम्भवात् , “जोएण कम्मएणं, आहारेई अणंतरं जीवो।" इति परममुनिवचनप्रामाण्यात् / नापि 'कार्मणमनाहारकेषु भवत्येव' इत्यवधारणमाधेयम् , अयोगिकेवल्यवस्थायामनाहारकस्यापि कार्मणकाययोगाभावात् , “गैयजोगो उ अजोगी" इति वचनात् / एवमन्यत्रापि यथासम्भवमवधारणविधिरनुसरणीय इति // 24 // नरगइ पणिदि तस तणु, अचक्खु नर नपु कसाय सम्मदुगे। सन्नि छलेसाहारग, भव्व मइ सुओहिदुगि सव्वे // 25 // 'नरगती' मनुष्यगतौ पञ्चेन्द्रिये त्रसे' प्रसकाये तनुयोगे अचक्षुर्दर्शने 'नरे' नरवेदे पुंवेद इत्यर्थः "नपु" ति नपुंसकवेदे 'कषायेषु' क्रोधमानमायालोमेषु 'सम्यक्त्वद्विके' क्षायोपशमिकक्षायिकलक्षणे 'संज्ञिनि' मनोविज्ञानभाजि षट्खपि लेश्यासु आहारके भव्ये 'मतौ' मतिज्ञाने 'श्रुते' श्रुतज्ञाने 'अवधिद्विके' अवधिज्ञानाऽवधिदर्शनरूपे 'सर्वे' पञ्चदशापि योगा भवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि मार्गणास्थानेषु यथासम्भवं सर्वयोगप्राप्तेः / यत्तु कापि “जोगा अकम्मगाहारगेसु" इति पदं दृश्यते तद् न सम्यगवगम्यते, यत ऋजुगतौ विग्रहगतौ चोत्पतिप्रथमसमये जोएण कम्मएणं, आहारेई अणंतरं जीवो। तेण परं मीसेणं, जाव सरीरस्स निप्फत्ती // इति सकलश्रुतधरप्रवरपरममुनिवचनप्रामाण्याद् आहारकस्यापि सतः कार्मणकाययोगोऽस्त्येव / अथ उच्येत गृह्यमाणं गृहीतमिति निश्चयनयवशात् प्रथमसमयेऽप्यौदारिकपुद्गला गृह्यमाणा 1 योगेन कार्मणेनाहारयत्यनन्तरं जीवः // 2 गतयोगस्खयोगी // 3 योगाः अकार्मणा आहारकेषु // ४प्राग्वत् // Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25-26] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 155 गृहीता एव ततो द्वितीयादिसमयेष्विव तदानीमप्यौदारिकमिश्रकाययोग इति, तदेतद् अयुकम् , सम्यग्वस्तुतत्त्वापरिज्ञानात् , यतो यद्यपि तदानीमौदारिकादिषु पुद्गला गृह्यमाणा गृहीता एव तथापि न तेषां गृह्यमाणानां खग्रहणक्रियां प्रति करणरूपता येन तन्निबन्धनो योगः परिकल्प्येत, किन्तु कर्मरूपतैव, निष्पन्नरूपस्य सत उत्तरकालं करणभावदर्शनात् / नहि घटः खनिष्पादनक्रियां प्रति कर्मरूपतां करणरूपतां च प्रतिपद्यमानो दृश्यते, द्वितीयादिसमयेषु पुनस्तेषामपि प्रथमसमयगृहीतानामन्यपुद्गलोपादानं प्रति करणभावो न विरुध्यते, निष्पन्नत्वात् ; अतस्तदानीमौदारिकमिश्रकाययोग उपपद्यत एव / अत एवोक्तम्-"तेण पर मीसेणं" इति / तस्माद् अस्त्याहारकस्याप्युत्पत्तिप्रथमसमये कार्मणकाययोग इति / अतः "जोगा अकम्मगाहारगेसु" इति पदं चिन्त्यमस्तीति // 25 // तिरि इत्थि अजय सासण, अनाण उवसम अभव्व मिच्छेसु / तेराहारदुगुणा, ते उरलदुगूण सुरनरए // 26 // "तिरि" ति तिर्यग्गतौ 'स्त्रियां' स्त्रीवेदे 'अयते' विरतिहीने साखादनसम्यक्त्वे "अनाण" ति अज्ञानत्रिकें-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गलक्षणे 'उपशमे' औपशमिकसम्यक्त्वे 'अभव्येषु' सिद्धिगमनानुचितेषु 'मिथ्यात्वे' मिथ्यादृष्टिषु त्रयोदश योगा भवन्ति / के ! इत्याह-आहारकद्विकेनआहारकाहारकमिश्रलक्षणेन ऊनाः-हीना आहारकद्विकोनाः / अयमत्राशयः-मनोयोगचतुष्टयवाग्योगचतुष्टयौदारिकौदारिकमिश्रवैक्रियवैक्रियमिश्रकार्मणलक्षणा योगा भवन्ति / तत्र कार्मणमपान्तरालगतौ उत्पत्तिप्रथमसमय एव, औदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम्, पर्याप्तावस्थायामौदारिकं मनोवाग्योगचतुष्टयं च / तथा तिरश्चामपि केषाञ्चिद् वैक्रियलब्धियोगतो वैक्रियमित्रं वैक्रियं च घटत एव। यत्तु आहारकद्विकम्-आहारकाहारकमिश्रलक्षणं तद् न सम्भवत्येव, तिरश्चा तत्र सर्वविरत्यसम्भवात् ; सर्वविरतस्य हि चतुर्दशपूर्ववेदिन आहारकद्विकं सम्भवति, "आहार चउदसपुग्विणो" इत्यादिवचनप्रामाण्यादिति / तथा इह स्त्रीवेदो द्रव्यरूपो द्रष्टव्यः, न तु तथारूपाध्यवसायलक्षणो भावरूपः, तथाविवक्षणात् / एवमुपयोगमार्गणायामपि द्रष्टव्यम् / प्राक् च गुणस्थानकमार्गणायां सर्वोऽपि वेदो भावखरूपो गृहीतः, तथाविवक्षणादेव, अन्यथा तेषु प्रोक्तगुणस्थानकसङ्ग्यायोगात् ; सयोगिकेवल्यादावपि द्रव्यवेदस्य भावात् , द्रव्यवेदश्च बाह्यमाकारमात्रम् / ततः स्त्रीषु त्रयोदश योगा आहारकद्विकोना भवन्ति, न पुनराहारकद्विकमपि, यत आहारकद्विकं चतुर्दशपूर्वविद एव भवति, "आहारकदुगं जायइ चउदसपुग्विणो" इति वचनात् / न च स्त्रीणां चतुर्दशपूर्वाधिगमोऽस्ति, स्त्रीणामागमे दृष्टिवादाध्ययनप्रतिषेधात् / यदाह भाष्यसुधासुधांशु: तुच्छा गारवबहुला, चलिंदिया दुब्बला घिईए य / इय अइसेसज्झयणा, भूयावादो य नो थीणं // (विशेषा० गा० 552) इति / ___ 'भूतवादः' दृष्टिवादः / तथा अयते साखादने अज्ञानत्रिके च त्रयोदश योगा आहारकद्वि 1 पूर्ववत् // 2 आहारकं चतुर्दशपूर्विणः // 3 आहारकद्विकं जायते चतुर्दशपूर्विणः // 4 तुच्छा गौरवबहुलाश्चलेन्द्रिया दुर्बला धृत्या च / इति अतिशायीन्यध्ययनानि भूतवादश्च न स्त्रीणाम् // Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 956 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः - [गाथा कोना भवन्ति / आहारकद्विकं पुनरेतेष्वज्ञानत्वादेव दूरापास्तम् / तथा औपशमिकसम्यक्त्वे आहारकद्विकोनास्त्रयोदश योगाः, आहारकं त्वत्रापि न घटामियति, यत औपशमिकसम्यक्त्वं प्रथमसम्यक्त्वोत्पादकाले उपशमश्रेण्यारोहे वा भवति / न च प्रथमसम्यक्त्वोत्पादकाले चतुर्दशपूर्वाधिगमसम्भवः, तदभावाच कथमाहारकद्विकभावः प्रादुर्भावपदवीमियति / उपशमश्रेण्यारूढस्त्वाहारकं नारभत एव, तस्याऽप्रमत्चत्वात् , आहारकारम्भकस्य तु लब्ध्युपजीवनेन औत्सुक्यभावतः प्रमादबहुलत्वात् / उक्तं च आहारगं तु पमत्तो उप्पाएइ न अप्पमत्तो इति / आहारकस्थितश्चोपशमश्रेणिं नारभत एव, तथाखभावत्वादिति / तथा अभव्ये मिथ्यात्वे च चतुर्दशपूर्वाधिगमाभावादेव आहारकद्विकवर्जास्त्रयोदश योगाः / त एव पूर्वोक्तास्त्रयोदश योगा औदारिकद्विकेन-औदारिकौदारिकमिश्रलक्षगेन ऊनाः-हीना एकादश योगाः 'सुरे' सुरगतौ 'नरके' नरकगतौ भवन्ति / तथाहि-मनोवाग्योगचतुष्टयवैक्रियवैक्रियमिश्रकार्मणलक्षणा एकादश योगाः सुरेषु नारकेषु च घटन्ते / तत्र कार्मणमपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमय एव, वैक्रियमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम् , पर्याप्तावस्थायां तु वैक्रियं मनोवाग्योगचतुष्टयं च / यत् पुनरौदारिकद्विकं तद् भवप्रत्ययादेव देवनारकाणां न सम्भवति / आहारकद्विकं तु सुरनारकाणां भवखभावतया विरत्यभावेन सर्वविरतिप्रत्ययचतुर्दशपूर्वाधिगमासम्भवादेव दूरापास्तमिति // 26 // कम्मुरलदुर्ग थावरि, ते सविउव्विदुग पंच इगि पवणे। छ असन्नि चरमवइजुय, ते विउविदुगूण चउ विगले // 27 // कार्मणम् 'औदारिकद्विकम्' औदारिकौदारिकमिश्रलक्षणमिति त्रयो योगाः / क ? इत्याह"थावरि" ति स्थावरकाये-पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिकायरूपे, वायुकायिकस्य पृथग् भणिष्यमाणत्वात् / अयमत्र भावः-स्थावरचतुष्के कार्मणौदारिकद्विकरूपास्त्रयो योगा भवन्ति / तत्र कार्मणमपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये वा, औदारिकमिश्रं तु अपर्याप्तावस्थायाम् , पर्याप्तावस्थायां पुनरौदारिकमिति / 'ते' पूर्वोक्तास्त्रयो योगाः 'सवैक्रियद्विकाः' सह वैक्रियद्विकेन-वैक्रियवैक्रियमिश्रलक्षणेन वर्तन्त इति सवैक्रियद्विकाः सन्तः पञ्च भवन्ति / क ? इत्याह-"इगि" ति सामान्यत एकेन्द्रिये 'पवने' वायुकाये च / तत्र कार्मणौदारिकद्विकलक्षणयोंगत्रयभावना प्राग्वत् / वैक्रियद्विकभावना त्वेवम्-इह किल चतुर्विधा वायवो वान्ति / तद्यथा-सूक्ष्मा अपर्याप्ताः 1 सूक्ष्माः पर्याप्ताः 2 बादरा अपर्याप्ताः 3 बादराः पर्याप्ताश्च 4 / तत्र बादरपर्यातानां केषाञ्चिद् वैक्रियलब्धिसम्भवोऽस्ति तानधिकृत्य वैक्रियमिश्रं वैक्रियं च लभ्यते / __ ननु कथमुच्यते केषाश्चिद् वैक्रियलब्धिसम्भवोऽस्ति ? यावता सर्वेऽपि बादरपर्याप्तवायवः सवैक्रिया एव, अवैक्रियाणां चेष्टाया एवाप्रवृत्तेः / उक्तं च. केई भणंति-सवे वेउविया वाया वायंति, अवेउधियाणं चिट्ठा चेव न पवतइ / (अनु० चू० पत्र 67, अनु० हा० टी० पत्र 92 ) इति / 1 आहारकं तु प्रमत्त उत्पादयति नाप्रमत्तः // 2 केचिद् भणन्ति-सर्वे वैकुर्विका वाता वान्ति, अवैक्रियाणां चेष्टैव न प्रवर्तते ॥३याणं वाणं चे अ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27-28] पडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / तद् अयुक्तम् , सम्यक् सिद्धान्तापरिज्ञानात् , अवैक्रियाणामपि तेषां खभावत एव चेष्टोपपत्तेः / यदाह भगवान् श्रीहरिभद्रसूरिरनुयोगद्वारटीकायाम् घोउक्काइया चउन्विहा-सुहुमा पजत्ता अपज्जत्ता, बादरा वि य पज्जता अपज्जत्ता / तत्थ तिमि रासी पत्तेयं असंखेज्जलोगप्पमाणप्पएसरासिपमाणमित्ता, जे पुण बादरा पज्जता ते पयरासंखेज्जइभागमित्ता / तत्थ ताव तिण्हं रासीणं वेउधियलद्धी चेव नत्थि / बायरपज्जचाणं पि असंखिज्जइभागमित्ताणं लद्धी अस्थि / जेसि पि लद्धी अस्थि ते वि पलिओवमासंखिजभागसमयमित्ता संपयं पुच्छासमए वेउधियवत्तिणो। तथा जेण सबेसु चेवे उडुलोगाइसु चला वायवो विजंति तम्हा अवेउबिया वि वाया वायंति त्ति वित्तवं / सभावो तेसिं वाइयवं / (पत्र 92, अनु० चू० पत्र 67) इति / वानाद्वायुरिति कृत्वा “तिण्हं रासीणं" ति त्रयाणां राशीनां पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मापर्याप्तबादरवायुकायिकानाम् / तथा त एव पूर्वोक्ताः पञ्च कार्मणौदारिकद्विकवैक्रियद्विकलक्षणयोगाः चरमाचतुर्थी असत्यामृषरूपा वाग्-वचनयोगश्चरमवाक् तया युक्ताः षड् योगा भवन्ति / क ? इत्याह'असंज्ञिनि' संज्ञिव्यतिरिक्ते जीवे / तत्र कार्मणमपान्तरालगतावुत्पत्तिप्रथमसमये च, औदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम् , पर्याप्तावस्थायामौदारिकम् / बादरपर्याप्तवायुकायिकानां वैक्रियद्विकम् , चरमभाषा शङ्खादिद्वीन्द्रियादीनामिति / त एव पूर्वोक्ताः षड् योगा वैक्रियद्विकेन-वैक्रियवैक्रियमिश्रलक्षणेन ऊनाः-हीनाश्चत्वारो भवन्ति / क ? इत्याह–'विकलेषु' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु / कोऽर्थः ? तत्र कार्मणौदारिकद्विकभावना प्राग्वत् / चरमभाषा च असत्यामृषरूपा शङ्खादीनां भवति, शेषास्तु भाषा न भवन्त्येव “विगैलेसु असच्चमोसे वा" इति वचनादिति // 27 // ... कम्मुरलमीस विणु मण, वइ समइय छेय चक्खु मणनाणे / उरलदुग कम्म पढमंतिम मणवइ केवलदुगम्मि // 28 // कार्मणमौदारिकमिश्रं विना शेषास्त्रयोदश योगा भवन्ति / क ? इत्याह-मनोयोगे वाग्योगे सामायिकसंयमे छेदोपस्थापनसंयमे चक्षुर्दर्शने मनःपर्यायज्ञाने / भावना सुकरैव / यौ तु कार्मणौदारिकमिश्रौ तौ तेषु सर्वथा न सम्भवत एव, तयोरपर्याप्तावस्थायां भावात् , मनोयोगवाग्योगसामायिकच्छेदोपस्थापनचक्षुर्दर्शनमनःपर्यायज्ञानानां च तस्यामवस्थायामसम्भवात् / तथा “उरलदुग" ति औदारिकद्विकमौदोरिकौदारिकमिश्रकार्मणकाययोगौ [मिश्रकाययोगौ] सयोग्यवस्थायामेव समुद्धातगतस्य वेदितव्यौ [ “कम्म" ति कार्मणकाययोगः] 1. वायुकायिकाश्चतुर्विधाः-सूक्ष्माः पर्याप्ताः 1 अपर्याप्ताः 2, बादरा अपि च पर्याप्ताः 3 अपर्याप्ताः / / तत्र त्रयो राशयः प्रत्येकं असङ्ख्येयलोकप्रमाणप्रदेशराशिप्रमाणमात्राः, ये पुनर्बादराः पर्याप्तास्ते प्रतरासङ्ख्यातभागमात्राः / तत्र तावत् त्रयाणां राशीनां वैक्रियलब्धिरेव नास्ति / बादरपर्याप्तानामपि असङ्ख्यातभागमात्राणां लब्धिरस्ति / येषामपि लन्धिरस्ति तेऽपि पल्योपमासयेयभागसमयमात्राः साम्प्रतं पृच्छासमये वैकुर्विकवर्तिनः / तथा येन सर्वेष्वेव ऊर्ध्वलोकादिषु चला वायवो विद्यन्ते तस्मादवैकुर्विका अपि वाता वान्तीति ग्रहीतव्यम् / खभावस्तेषां वातव्यम् / 2 °व लोगा. स्व० अनुयोगद्वारलघुटीकायाम् / व लोगागासाइ अनुयोगद्वारचूर्णी // 3 विकलेषु असत्यामृषा वा // 4 इत ऊर्द्धम्-"केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे सप्त योगाः / के ते? इत्याह- इत्येवंरूपः पाठो यदि स्यात्तदा सङ्गतिमेति // ५°दारिकमिश्रकार्मक०ख०ग०५० 0 // Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [गाथा 158 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः मिश्रौदारिकयोक्ता, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु // (प्रश० का० 276) कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थके पश्चमे तृतीये च / (प्रश० का० 277) इति / प्रथमान्तिममनोयोगौ तु अविकलसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनबलावलोकितनिखिललोकालोकस्य भगवतो मनःपर्यायज्ञानिभिरनुत्तरसुरादिभिर्वा मनसा पृष्टस्य सतो मनसैव देशनात् / ते हि भगवत्प्रयुक्तानि मनोद्रव्याणि मनःपर्यायज्ञानेनाऽवधिज्ञानेन वा पश्यन्ति, दृष्ट्वा च ते विवक्षितवस्त्वालोचनाकारान्यथानुपपत्त्या लोकखरूपादिकं बाह्यमर्थ पृष्टमवगच्छन्ति / प्रथमान्तिमवाग्योगौ तु देशनादिषु व्यापृतस्य तस्यैव भगवतो द्रष्टव्याविति // 28 // मणवइउरला परिहारि सुहुमि नव ते उ मीसि सविउव्वा / देसे सविउव्विदुगा, सकम्मुरलमिस्स अहखाए // 29 // परिहारविशुद्धिके सूक्ष्मसम्पराये च नव योगाः / के ते ! इत्याह-मनोयोगश्चतुर्धा वाग्योगश्चतुर्धा औदारिकं चेति / यत्त्वाहारकद्विकं वैक्रियद्विकं कार्मणमौदारिकमिश्रं च तद् न सम्भवत्येव / तथाहि-आहारकद्विकं चतुर्दशपूर्ववेदिन एव भवति, "आहारं चउदसपुषिणो" इति वचनात् ; परिहारविशुद्धिकसंयमप्रतिपत्तिः पुनरुत्कर्षतोऽप्यधीतकिञ्चिन्यूनदशपूर्वस्यैव, तथैव सिद्धान्तेऽभ्यनुज्ञानात् ; तत् कथं परिहारविशुद्धिकस्याऽऽहारकद्विकसम्भवः / नापि तस्य वैक्रियद्विकसम्भवः, तस्यामवस्थायां तत्करणाननुज्ञानात् , जिनकल्पिकस्येव तस्याऽप्यत्यन्तविशुद्धाप्रमादमूलसंयमघोरानुष्ठानपरायणत्वात् , वैक्रियारम्भे च लब्ध्युपजीवनेन औत्सुक्यभावात् प्रमादसम्भवात् / अत एव सूक्ष्मसम्परायसंयमेऽप्याहारकद्विकवैक्रियद्विकलक्षणानां चतुर्णा योगानामसम्भवः, सूक्ष्मसम्परायसंयमोपेतस्याऽप्यत्यन्तविशुद्धतया निस्तरङ्गमहोदधिकल्पत्वेन वैक्रियादिप्रारम्भासम्भवात् / कार्मणमौदारिकमिश्रं चापर्याप्ताद्यवस्थायामेवेति संयमद्वयेऽपि तस्या:भावः / ते पुनः पूर्वोक्ता नव योगाः 'सवैक्रियाः' सह वैक्रियेण वर्तन्त इति सवैक्रिया वैक्रियसहिताः सन्तो दश योगाः 'मिश्रे' सम्यग्मिथ्यादृष्टौ भवन्ति / तत्र वैक्रियं देवनारकापेक्षया, यत्तु वैक्रियमिश्रं तद् नैवावाप्यते, तस्याऽपर्याप्तावस्थामावित्वात् , मिश्रभावस्य च "ने सम्ममिच्छो कुणइ कालं" इति वचनप्रामाण्याद् अपर्याप्तावस्थायामसम्भवात् / ___ स्यादेतद-वैक्रियलब्धिमतां मनुष्यतिरश्चां सम्यग्मिथ्यादृशां सतां वैक्रियारम्भसम्भवेन कथं वैक्रियमिश्रं नावाप्यते ! इति, उच्यते-तेषां वैक्रियारम्भासम्भवात् , अन्यतो वा कुतश्चित् कारणात् पूर्वाचार्यैस्तद् नाभ्युपगम्यत इति न सम्यगवगच्छामः, तथाविधसम्प्रदायाभावात् , अतोऽसाभिरपि तद् नेष्टमिति / 'देशे' देशविरते त एव नव पूर्वोक्ताः 'सवैक्रियद्विकाः' वैक्रियतमिश्रसहिताः सन्त एकादश योगा भवन्ति, देशविरतानामम्बडादीनां वैक्रियलब्धिमतां वैक्रियद्विकसम्भवात् / तथा त एव नव पूर्वोक्ताः 'सकार्मणौदारिकमिश्राः' सह कार्मणौदारिकमिश्राभ्यां वर्तन्त इति सकार्मणौदारिकमिश्राः सन्त एकादश योगा यथाख्यातसंयमे भवन्ति / अयमर्थःमनोयोगचतुष्टयवाग्योगचतुष्टयकार्मणौदारिकद्विकलक्षणा एकादश योगा यथाख्याते भवन्ति / तत्र मनोवाकतुप्कौदारिकयोगाः सुज्ञाना एव / कार्मणमौदारिकमिश्रं तु यथाख्यातसंयम 1 आहारकं चतुर्दश पूर्विणः // 2 न सम्यग्मिध्यादृष्टिः करोति कालं // Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 159 श्रीकुलगृहस्य भगवतः केवलिनः सम्भवति, तस्य हि समुद्धातगतस्य तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषु कार्मणम् , “कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च / " (प्रश० का०२७७) इति वचनात् , द्वितीयषष्ठसप्तमसमयेष्वौदारिकमिश्रम्, "मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ठद्वितीयेषु // " (प्रश० का० 276) इति वचनाद् अवाप्यत इति यथाख्यातसंयमे द्वयोरपि सम्भवात् / ___ अथ विनेयजनानुग्रहाय केवलिसमुद्धातखरूपमभिधीयते-तत्र सम्यग्-अपुनर्भावेन उत्प्राबल्येन कर्मणो हननं घातः प्रलयो यस्मिन् प्रयत्नविशेषे स समुद्धातः / अयं च केवलिसमुद्धातोऽष्टसामयिकः, तं च प्रारभमाणः प्रथममेवाऽऽयोजिकाकरणमान्तौहूर्तिकमुदीरणावलिकायां कर्मप्रक्षेपव्यापाररूपमभ्येति / अथाऽऽयोजिकाकरणमिति कः शब्दार्थः ! उच्यते"आइ मर्यादायाम्" आ-मर्यादया केवलिदृष्टया योजनं-शुभानां योगानां व्यापारणमायोजिका, "भावे" (सि० 5-3-122) णकः, तस्याः करणमायोजिकाकरणम् / आह च कइसमइए णं भंते ! आओजीकरणे पन्नते ! गोयमा! असंखेजसमइए अंतोमुहुत्तिए आओजीकरणे पन्नते // (प्रज्ञापनापत्र 601-1) __ अयं कृतकृत्योऽपि केवली किमर्थ समुद्धातं करोति ! इति चेद्, उच्यते-वेदनीयनामगोत्राणामायुषा सह समीकरणार्थम् / यदाह भगवान् श्रीभद्रबाहुखामी 'नाऊण वेयणिजं, अइबहुयं आउयं च थोवागं / / ___ गंतूण समुग्घायं, खवेइ कम्मं निरवसेसं // (आ. नि. गा. 954) प्रज्ञापनायामप्युक्तम् कैम्हा णं भंते ! केवली समुग्घायं गच्छइ ? गोयमा ! केवलिस्स चत्वारि कम्मंसा अक्खीणा अवेइया अणिजिन्ना भवन्ति / तं जहा—वेयणिजे आउए नामे गोए / सबबहुए से वेयणिजे कम्मे हवइ, सबथोवे से आउए कम्मे हवइ, विसमं समं करेइ बंधणेहिं ठिईहि य, विसमसमीकरणयाए बंधणेहिं ठिईहि य एवं खलु केवली समुग्घायं गच्छह // (पत्र 601-1) ' "बंधणेहिं" ति बध्यन्त आत्मप्रदेशैः सह लोलीभावेन संश्लिष्टाः क्रियन्ते योगवशाद् ये ते बन्धनाः, "भुजिपत्यादिभ्यः कर्मापादाने" (सि० 5-3-128) इति कर्मण्यनटू, कर्मपरमाणवः, स्थितयः वेदनाकालाः, शेषं सुगमम् / उक्तं च आयुषि समाप्यमाने, शेषाणां कर्मणां यदि समाप्तिः / न स्यात् स्थितिवैषम्याद् , गच्छति स ततः समुद्भातम् // स्थित्या च बन्धनेन च, समीक्रियार्थ हि कर्मणां तेषाम् / अन्तर्मुहशेषे, तदायुषि समुजिघांसति सः // 1 कतिसामयिकं भदन्त ! आयोजिकाकरणं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! असङ्ख्येयसामयिकमान्तमौदूर्तिकम् आयोजिकाकरणं प्रज्ञप्तम् // 2 ज्ञाला वेदनीयं अतिबहुकं आयुष्कं च स्त्रोकम् / गला समुद्धातं क्षपयति कर्म निरवशेषम् // 3 कस्माद् भदन्त ! केवली समुद्धातं गच्छति? गौतम | केवलिनश्चलारः कर्माशा अक्षीणा भवेदिता अनिजीर्णा भवन्ति / तद्यथा-वेदनीयं आयुष्कं नाम गोत्रम् / सर्वबहुकं तस्य वेदनीयं कर्म भवति, सर्वस्तोकं तस्यायुःकर्म भवति, विषमं समं करोति, बन्धनैः स्थितिभिव, विषमस्य समकरणाय बन्धनः स्थितिभिव एवं खलु केवली समुद्धातं गच्छति // Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा अथ सर्वेऽपि केवलिनः समुद्धातं गच्छन्ति न वा ? इति चेद्, उच्यते—यस्य केवलिन आयुषा सह वेदनीयनामगोत्राणि समस्थितिकानि भवन्ति स हि न केवलिसमुद्भातं करोति, शेषस्तु करोति / उक्तं च श्रीमदार्यश्यामपादैः सधे वि णं भंते ! केवली समुग्घायं गच्छंति: गोयमा! नो इणेठे समझे। जस्साउएण तुल्लाइं, बंधणेहिं ठिईहि य / भवोवम्गाहिकम्माई, समुग्घायं से न गच्छइ // अगंतूणं समुग्घायं, अणंता केवली जिणा / जरमरणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगई गया // (पत्र० 601-1) समुद्धातं च कुर्वन् केवली प्रथमसमये बाहुल्यतः स्वशरीरप्रमाणमूर्ध्वमधश्च लोकान्तपर्यन्तमात्मप्रदेशानां सङ्घातदण्डं दण्डस्थानीयं ज्ञानाभोगतः करोति, द्वितीयसमये तु तमेव दण्डं पूर्वापरदिग्द्वयप्रसारणात् पार्श्वतो लोकान्तगामिकपाटमिव कपाटं करोति, तृतीयसमये तमेव कपाटं दक्षिणोत्तरदिग्द्वयप्रसारणाद् मन्थसदृशं मन्थानं करोति लोकान्तप्रापिणमेव / एवं च लोकस्य प्रायो बहु पूरितं मन्थान्तराण्यपूरितानि भवन्ति, अनुश्रेणि गमनात् , चतुर्थे तु समये तान्यपि मन्थान्तराणि सह लोकनिष्कुटैः पूरयति, ततश्च सकलो लोकः पूरितो भवतीति / तदनन्तरमेव पञ्चमे समये यथोक्तक्रमात् प्रतिलोमं मन्थान्तराणि संहरति जीवप्रदेशान् सकर्मकान् सङ्कोचयति, षष्ठे समये मन्थानमुपसंहरति धनतरसङ्कोचनात्, सप्तमे समये कपाटमुपसंहरति दण्डात्मनि सङ्कोचनात्, अष्टमे समये दण्डं समुपहृत्य शरीरथ एव भवति / न चैतत् खमनीषिकाविजृम्भितम् / यदाहुद्धाः उड्डाहायय लोगंतगामिणं सो सदेहविक्खभं / पढमसमयम्मि दंड, करेइ बिइयम्मि उ कवाडं // तइयसमयम्मि मंथं, चउत्थए लोगपूरणं कुणइ / पडिलोमं संहरणं, काउं तो होइ देहत्थो॥ (विशेषा० गा० 3052-3053) वाचकवरोऽप्याह-: दण्डं प्रथमे समये, कपाटमथ चोत्तरे तथा समये / मन्थानमथ तृतीये, लोकव्यापी चतुर्थे तु // संहरति पञ्चमे त्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः षष्ठे / . सप्तमके तु कपाटं, संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् // (प्रश० का० 274-275) * तस्येदानी समुद्धातस्य योगव्यापारश्चिन्त्यते-योगाश्च मनोवाक्कायाः, अत्रैषां कः कदा व्याप्रियते / तत्रेह मनोवाग्योगयोरव्यापार एव, प्रयोजनाभावात् / 1 सर्वेऽपि भदन्त ! केवलिनः समुद्धातं गच्छन्ति ? गौतम! नायमर्थः समर्थः / यस्याऽयुषा तुल्यानि बन्धनैः स्थितिभिश्च / भवोपग्राहिकर्माणि समुद्धातं स न गच्छति // अगला समुद्धातमनन्ताः केवलिनो जिनाः / जरामरणविप्रमुकाः सिद्धिं वरगतिं गताः॥ २०णमहे क० ख० घ००॥ 3 ऊर्ध्वाधआयतं लोकान्तगामिनं स खदेहविष्कम्भम् / प्रथमसमये दण्डं करोति द्वितीये तु कपाटम् // तृतीयसमये मन्थानं चतुर्थके लोकपूरणं करोति / प्रतिलोमं संहरणं कृला ततो भवति देहस्थः॥ . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29) षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 161 यदाह धर्मसारमूलटीकायां भगवान् श्रीहरिभद्रसूरिः __ मनोवचसी तदा न व्यापारयति, प्रयोजनाभावात् / काययोगस्य तु औदारिककाययोगस्यौदारिकमिश्रकाययोगस्य वा कार्मणकाययोगस्य वा व्यापारो न शेषस्य, लब्ध्युपजीवनाभावेन शेषस्य काययोगस्याऽसम्भवात् / तत्र प्रथमाष्टमसमययोरौदारिककायप्राधान्याद् औदारिककाययोग एव, द्वितीयषष्ठसप्तमकेषु पुनः कार्मणशरीरस्यापि व्याप्रियमाणत्वाद् औदारिकमिश्र एव, तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु तु केवलमेव कार्मणं शरीरं व्यापारभागिति कार्मणकाययोगः / यदाहुः श्रीमदार्यश्यामपादाः श्रीप्रज्ञापनायां षट्त्रिंशत्तमे समुद्धातपदे पढमट्ठमेसु समएसु ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ, बिइयछट्ठसत्तमेसु समएसु ओरालियमीसगसरीरकायजोगं झुंजइ, तइयचउत्थपंचमेसु समएसु कम्मगसरीरकायजोगं जुंजइ // (पत्र 601-2) भाष्यकारोऽप्याह ने किर समुग्धायगओ, मणवइजोगप्पओयणं कुणइ / ओरालियजोगं पुण, जुंजइ पढमऽ8मे समए // उभयवावाराओ, तम्मीसं बीयछट्ठसत्तमए / तिचउत्थपंचमे कम्मगं तु तम्मचचिट्ठाओ॥(विशे० गा० 3054-3055) ततः समुद्घातात् प्रतिनिवृत्तो मनोवाकाययोगत्रयमपि व्यापारयति / यतः स भगवान् भवधारणीयकर्मसु नामगोत्रवेदनीयेप्वचिन्त्यमाहास्यसमुद्धातवशतः प्रभूतमायुषा सह समीकृतेष्वप्यन्तर्मुहूर्तभाविपरमपदो यदाऽनुत्तरौपपातिकादिना देवेन मनसा पृच्छयते तर्हि व्याकरणाय मनःपुद्गलान् गृहीत्वा मनोयोगं युनक्ति, तमपि सत्यमसत्यामृषारूपं वा; मनुष्यादिना पृष्टः सन् अपृष्टो वा कार्यवशाद् गृहीत्वा भाषापुद्गलान् वाग्योगम् , तमपि सत्यमसत्यामृषारूपं वा; न शेषान् वाड्मनोयोगान् , क्षीणरागद्वेषत्वात् ; काययोगं तु गमनादिचेष्टासुः तदेवमन्तर्मुहूर्त कालं यथायोगं योगत्रयव्यापारभाक् केवली भूत्वा तदनन्तरम् अत्यन्ताप्रकम्पं लेश्यातीतं परमनिर्जराकारणं ध्यानं प्रतिपित्सुरवश्यं योगनिरोधाय उपक्रमते, योगे सति यथोक्तरूपस्य ध्यानस्याऽसम्भवात् / यदाह भाष्यसुधाम्भोधिः 'विणिवत्तसमुग्धाओ, तिन्नि वि जोगे जिणो पउंजिज्जा / सच्चमसच्चामोसं, च सो मणं तह वईजोगं // ओरालकायजोगं, गमणाई पाडिहारियाणं च / 1 प्रथमाष्टमयोः समययोरौदारिकशरीरकाययोगं युनकि, द्वितीयषष्ठसप्तमेषु समयेषु औदारिकमिश्रशरीरकाययोगं युनक्ति, तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु समयेषु कार्मणशरीरकाययोगं युनक्ति // 2 न किल समुद्धातगतो मनोवाग्योगप्रयोजनं करोति / औदारिकयोगं पुनर्युनकि प्रथमाष्टमयोः समययोः // उभयव्यापारात् तन्मिधं द्वितीयषष्टसघ्रमेषु / तृतीयचतुर्थपञ्चमेषु कार्मणं तु तन्मात्रचेष्टायाः // 3 विनिवृत्तसमुद्धातस्त्रीनपि योगान् जिनः प्रयुजीत / सत्यमसत्यामृषं च स मनस्तथा वाग्योगम् // औदारिककाययोगं गमनादि प्राविहारिकाणांच। क.२१ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा पञ्चप्पणं करिज्जा, जोगनिरोहं तओ कुणई // किं न सजोगो सिज्झइ, स बंधहेउ ति जं खलु सजोगो। न समेइ परमसुकं, स निज्जराकारणं परमं॥ (विशेषा० गा० 3056-3058) अन्यत्राप्युक्तम् स ततो योगनिरोधं, करोति लेश्यानिरोधमभिकासन् / समयस्थितिं च बन्धं, योगनिमित्तं स निरुरुत्सुः // समये समये कर्मादाने सति सन्ततेर्न मोक्षः स्यात् / यद्यपि हि विमुच्यन्ते, स्थितिक्षयात् पूर्वकर्माणि // नाकर्मणो हि वीर्य, योगद्रव्येण भवति जीवस्य / / तस्याऽवस्थानेन तु, सिद्धः समयस्थितिबन्धः // योगनिरोधं च कुर्वाणः प्रथमं मनोयोगं निरुणद्धि, तत्र पर्याप्तमात्रसंज्ञिपञ्चेन्द्रियस्य प्रथमसमये यावन्ति मनोद्रव्याणि यावन्मानश्च तद्व्यापारस्तस्माद् असङ्ख्येयगुणहीनं मनोयोग प्रतिसमयं निरन्धानोऽसद्ध्येयैः समयैः साकल्येन निरुणद्धि / यदाह भगवान् श्रीमदार्यश्यामः__ 'से णं पुबामेव सन्निस्स पंचिंदियस्स पज्जत्तयस्स जहन्नजोगिस्स हिट्ठा असंखेजगुणपरिहीणं पढम मणजोगं निरंभइ // (प्रज्ञा० समु० पद 36 पत्र 607-2) भाष्यकारोऽप्याह-- पंजत्तमित्तसन्निस्स जत्तियाइं जहन्नजोगिस्स / हुति मणोदवाइं, तबावारो य जम्मत्तो / / तदसंखगुणविहीणं, समए समए निरंभमाणो सो। मणसो सबनिरोहं, कुणइ असंखिज्जसमएहिं // (विशेषा० गा० 3059-3060) तओ अणंतरं च णं बेइंदियस्स पजत्तगस्स जहन्नजोगिस्स हिट्टा असंखिज्जगुणहीणं दुचं वइजोगं निरंभइ / / (प्रज्ञा० समु० पद 36 पत्र 607-2) भाष्यकृदप्याहपैजनमित्तबिंदियजहन्नवइजोगपज्जवा जे उ / तदसंखगुणविहीणं, समए समए निरंभंतो॥ सववइजोगरोह, संखाईएहिँ कुणइ समएहिं / (विशेषा० गा० 3061-3062) प्रत्यर्पणं कुर्यात् योगनिरोधं ततः करोति // किं न सयोगः सिध्यति स बन्धहेतुरिति यत् खल सयोगः / न समेति परमशुलं स निर्जराकारणं परम् // १स पूर्वमेव संज्ञिनः पञ्चेन्द्रियस्य पर्याप्तकस्य जघन्ययोगिनोऽधस्तादसधयेयगुणपरिहीणं प्रथम मनोयोगं निरुगद्धि // 2 पर्याप्तमात्रसंज्ञिनो यावन्ति जघन्ययोगिनः / भवन्ति मनोद्रव्याणि तक्ष्यापारश्च यन्मात्रः॥ तदसज्यगुणविहीनं समये समये निरुन्धन् सः। मनसः सर्वनिरोधं करोत्यसयेयसमयैः॥ 3 ततोऽनन्तरं च द्वीन्दियस्य पर्याप्तकस्य जघन्ययोगिनोऽधस्तादसङ्ख्येयगुणहीनं द्वितीयं वचोयोगं निरुणद्धि॥ 4 पर्याप्तमात्रद्वीन्द्रियजघन्यवचोयोगपर्यायाः ये तु / तदसल्यगुणविहीनं समये समये निरुन्धन् // सर्ववचोयोगरोधं सत्यातीतैः करोति समयः॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 29) 163 षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / तओ अणंतरं च णं सुहुमस्स पणगजीवस्स अपजत्तगस्स जहन्नजोगिस्स हिट्टा असंखेजगुणपरिहीणं तच्चं कायजोगं निरंभइ // (प्रज्ञा० समु० पद 36 पत्र 607-2) तं च काययोगं निरुन्धानः सूक्ष्मक्रियमप्रतिपातिध्यानमधिरोहति / तत्सामर्थ्याच वदनोदरादिविवरपूरणेन सङ्कुचितदेहत्रिभागवर्तिप्रदेशो भवति / यदाह भाष्यसुधासुधांशुः तेत्तो य सुहुमपणगस्स पढमसमओववन्नस्स // (विशेषा० गा० 3062) जो किर जहन्नजोगो, तदसंखेजगुणहीणमिक्किक्के / समए निरंभमाणो, देहतिभागं च मुंचंतो // रुंभइ स कायज़ोग, संखाईएहिँ चेव समएहिं / तो कयजोगनिरोहो, सेलेसीभावयामेई // (विशेषा० गा० 3063-3064) सीलं च समाहाणं, निच्छयओ सबसंवरो सो य / तस्सेसो सेलेसो, सेलेसी होइ तदवत्था // हस्सक्खराइ मज्झेण जेण कालेण पंच भण्णंति। अच्छह सेलेसिगओ, तत्तियमितं तओ कालं // तणुरोहारंभाओ, झायइ सुहुमकिरियानियहि सो / बुच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई सेलेसिकालम्मि // (विशेषा०गा० 3067-3069) प्रज्ञापनायामप्युक्तम् जोगनिरोहं करिता अजोगय पाउणइ, अजोगयं पाउणित्ता ईसिं हस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए असंखेजसमइयं अंतमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवज्जइ, पुवरइयगुणसेढीयं च णं कम्मं तीसे सेलेसद्धाए असंखेज्जाहिं गुणसेढीहिं असंखेज्जे कम्मखंधे खवयंते वेदणिज्जाउयनामगोए इच्चेए चत्वारि कम्मसे जुगवं खवित्ता ओरालियतेयाकम्मगाइं सबाहिं विप्पजहणाहिं विप्पजहित्ता उज्जुसेढीए अफुसमाणगईए एगसमएणं अविग्गहेणं उर्दु गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ // (समु०प०३६ पत्र 607-2) भाष्यकारोऽप्याह तदसंखेजगुणाए, गुणसेढीइ रइयं पुरा कम्मं / 1 ततोऽनन्तरं च सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य अपर्याप्तकस्य जघन्ययोगिनोऽधस्तादसङ्ख्येयगुणपरिहीणं तृतीयं काययोगं निरुणद्धि // 1 ततश्च सूक्ष्मपनकस्य प्रथमसमयोपपन्नस्य // यः किल जघन्ययोगः तदसङ्ख्येयगुणहीनमेकैकस्मिन् / समये निरुन्धन् देहविभागं च मुश्चन् // रुणद्धि स काययोग सङ्ख्यातीतैरेव समयैः / ततः कृतयोगनिरोधः शैलेशीभावतामेति // शीलं च समाधानं निश्चयतः सर्वसंवरः स च / तस्येशः शैलेशः शैलेशी भवति तदवस्था // ह्रखाक्षराणि मध्येन येन कालेन पञ्च भण्यन्ते। आस्ते शैलेशीगतस्तावन्मात्रं ततः कालम् // तनुरोधारम्भाद् ध्यायति सूक्ष्म क्रियाऽनिवृत्तिं सः / व्युच्छिन्नक्रियाऽप्रतिपातिनं शैलेशीकाले॥ 3 योगनिरोधं कृत्वाऽयोगतां प्राप्नोति, अयोगतां प्राप्य ईषत् पञ्चहखाक्षरोचारणाद्धया असङ्ख्येयसामयिकीमान्तौहर्तिकी शैलेशी प्रतिपद्यते, पूर्वरचितगुणश्रेणीकं च कर्म तस्यां शैलेश्यद्धायामसङ्ख्येयामिर्गुणश्रेणिभिरसङ्येयान् कर्मस्कन्धान क्षपयन् वेदनीयायुर्नामगोत्राणि इत्येतांश्चतुरः कर्माशान् युगपत् क्षपयित्वौदारिकतैजसकामणानि सवैविप्रहानैर्विप्रजह्य ऋजुश्रेण्याऽस्पृशद्गत्या एकसमयेनाविग्रहेणोज़ गला साकारोपयुक्तः सिध्यति // 4 तदसोयगुणया गुणश्रेण्या रचितं पुरा कर्म / समये समये क्षपयिला क्रमेण सर्व तत्र कर्म॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा समए समए खैविउं, कमेण सर्व तहिं कम्मं // (विशेषा० गा० 3082) रिउसेढीपडिवन्नो, समयपएसंतरं अफुसमाणो / एगसमएण सिज्झइ, अह सागारोवउत्तो सो // (विशेषा० गा० 3088) अयं च समुद्धातविधिः सर्वोऽप्यावश्यकाभिप्रायेणोक्तः / तत्रेयं गाथा दंड कवाडे मंयंतरे य संहरणया सरीरत्ये।। भासाजोगनिरोहे, सेलेसी सिज्झणा चेव॥ (आ०नि० गा०९५५) इति // 29 // अभिहिता मार्गणास्थानेषु योगाः / साम्प्रतमेतेष्वेव उपयोगस्वरूपनिरूपणपूर्वकमुपयोगानभिधित्सुराह तिअनाण नाण पण चउ, देसण घार जिय लक्खणुवओगा। विणु मणनाण दुकेवल, नव सुरतिरिनिरयअजएसु // 30 // 'त्रीण्यज्ञानानि' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूपाणि 'ज्ञानानि' मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनःपर्यवज्ञानकेवलज्ञानलक्षणानि पश्च स्वोपज्ञकर्मविपाकटीकायां विस्तरेणाभिहितखरूपाणि 'चत्वारि दर्शनानि' चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनकेवलदर्शनरूपाणि इत्येवं द्वादशोपयोगाः प्रामिरूपितशब्दार्था भवन्ति / किंविशिष्टाः ? इत्याह-"जिय लक्खण" ति प्राकृतत्वाद् विभक्तिलोपः, 'जीवस्य' आत्मनः 'लक्षणं' लक्ष्यते-ज्ञायते तदन्यव्यवच्छेदेनेति लक्षणम्-असाधारणं खरूपम् / अत एवोक्तमन्यत्र-"उपयोगलक्षणो जीवः" इति / ते च द्विधा—साकारा अनाकाराश्च / तत्र पञ्च ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि इत्यष्टावुपयोगाः साकाराः, चत्वारि दर्शनानि अनाकारा उपयोगाः / यदाह प्रवचनार्थसार्थसरससरसीरुहसमूहप्रकाशनसहस्रभानुर्भगवान् श्रीमदार्यश्यामः प्रज्ञापनायामुपयोगपदेऽष्टमे__ कतिविहे णं भंते ! उवओगे पन्नते ! गोयमा! दुविहे उवओगे पन्नत्ते, त जहासागारोवओगे य अणागारोवओगे य। सागारोवओगे णं भंते ! कतिविहे पन्नते ? गोयमा ! अट्ठविहे पन्नते, तं जहा-आभिणिबोहियनाणसागारोवओगे सुयनाणसागारोवओगे ओहिनाणसागारोवओगे मणपज्जवनाणसागारोवओगे केवलनाणसागारोवओगे मइअन्नाणसागारोवओगे १खवियं कमसो सेलेसिकालेणं / इति विशेषावश्यकभाष्ये // 2 ऋजुधेणिप्रतिपन्नः समयप्रदेशान्तरमस्पृशन् / एकसमयेन सिध्यति अथ साकारोपयुक्तः सः॥ 3 दण्डः कपाटं मन्या अन्तराणि संहरणता शरीरस्थः / भाषायोगनिरोधः शैलेशी सिद्धिश्चैव // 4 अस्मत्पार्श्ववर्तिषु सर्वेष्वपि पुस्तकादर्शेषु जैनधर्मप्रसारकसमया मुद्रिते चादर्श "उपयोगपदेऽष्टमे" इत्येवमेवोपलभ्यते परं प्रज्ञापनाया अष्टमपदं तु संज्ञापदमेव, उपयोगपदं तु एकोनत्रिंशत्तममेवेति // 5 कतिविधो भदन्त ! उपयोगः प्रज्ञप्तः ? गौतम! द्विविध उपयोगः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-साकारोपयोगश्चानाकारोपयोगश्च / साकारोपयोगो भदन्त ! कतिविधः प्रज्ञप्तः गौतम ! अष्टविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आभिनिबोधिकज्ञानसाकारोपयोगः 1 श्रुतज्ञानसाकारोपयोगः 2 अवधिज्ञानसाकारोपयोगः 3 मनःपर्यवज्ञानसाकारोपयोगः 4 केवलज्ञानसाकारोपयोगः 5 मत्यज्ञानसाकारोपयोगः 6 श्रुताशानसाकारोपयोगः 7 विभाज्ञानसाकारोपयोगः 8 / अनाकारोपयोगो भदन्त / कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम! चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-चक्षुर्दर्शनानाकारोपयोगः 1 अचक्षुर्दर्शनानाकारोपयोगः २अवधिदर्शनानाकारोपयोगः 3 केवलदर्शनानाकारोपयोगः४॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30-32] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः। 165 सुयअन्नाणसागारोवओगे विभंगनाणसागारोवओगे / अणागारोवओगे णं भंते! कइविहे पन्नते ? गोयमा! चउबिहे पन्नते, तं जहा–चक्खुदसणअणागारोवओगे अचक्खुदंसणअणागारोवओगे ओहिदसणअणागारोवओगे केवलदसणअणागारोवओगे य॥ ( उपयो० पद 29 पत्र 525-1) भावार्थः प्रागेव मार्गणास्थाने भेदाभिधानावसरे सप्रपञ्चमभिहित इति / "विणु मणनाण" इत्यादि, विना मनःपर्यायज्ञानं केवलद्विकं च-केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणं शेषा नवोपयोगा भवन्ति 'सुरे' सुरगतौ "तिरि" ति तिर्यग्गतौ 'नरके' नरकगतौ 'अयते' विरतिहीने, एतेषु . सर्वेष्वपि हि सर्वविरत्यसम्भवेन मनःपर्यायज्ञानकेवलद्विकासम्भवादिति // 30 // ___ तस जोय वेय सुक्काहार नर पणिदि सन्नि भवि सव्वे / नयणेयर पण लेसा, कसाइ दस केवलदुगूणा // 31 // सेषु 'योगेषु' मनोवाकायरूपेषु 'वेदेषु' द्रव्यवेदरूपस्त्रीपुंनपुंसकलक्षणेषु शुक्ललेश्यायाम् आहारकेषु नरयतौ पञ्चेन्द्रियेषु संज्ञिषु "भवि" त्ति भव्येषु च सर्वे द्वादशाप्युपयोगाः सम्भवन्ति, एतेषु सर्वेष्वपि सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरत्यादीनां सम्भवात् / “नयणं" ति चक्षुर्दर्शने "इयर" ति अचक्षुर्दर्शने 'पञ्चसु लेश्यासु' कृष्णनीलकापोततेजःपद्मलेश्यासु 'कषायेषु' क्रोधमानमायालोभेषु दश उपयोगा भवन्ति / के ? इत्याह-केवलद्विकेन ऊनाः-हीना ज्ञानचतुष्टयाऽज्ञानत्रिकदर्शनविकरूपाः, न तु केवलद्विकम् , चक्षुर्दर्शनादिसद्भावेऽनुत्पादात् तस्य // 31 // चउरिदि सन्नि दुअनाणदंस इग बित्ति थावरि अचक्खू / तिअनाण दंसणदुर्ग, अनाणतिग अभव मिच्छदुगे // 32 // चतुरिन्द्रिये असंज्ञिनि च चत्वार उपयोगा भवन्ति / के ते ? इत्याह—'यज्ञानदर्शने' द्वे अज्ञाने-मंत्यज्ञानश्रुताज्ञानरूपे, द्वे दर्शने-चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनलक्षणे इत्यर्थः / तथा त एव पूर्वोक्ताश्चत्वार उपयोगाः "अचक्खु" ति अचक्षुषः-चक्षुर्दर्शनरहिताः सन्तस्त्रयो भवन्ति / केषु ! इत्याह-"इग" ति सामान्यत एकेन्द्रियेषु द्वीन्द्रियेषु त्रीन्द्रियेषु 'स्थावरेषु' पृथिव्यम्बुतेजोवायुवनस्पतिषु / कोऽर्थः ? एकद्वितीन्द्रियस्थावरेषु मत्यज्ञानश्रुताज्ञानाचक्षुर्दर्शनरूपास्त्रय उपयोगा भवन्तीत्यर्थः, न शेषाः, यतः सम्यक्त्वाभावाद् मतिश्रुतज्ञानासम्भवः, सर्वविरत्यभावाच मनःपर्यायज्ञानकेवलज्ञानकेवलदर्शनाभावः, यत् पुनरवधिद्विकं विभङ्गज्ञानं च तद् भवप्रत्ययं गुणप्रत्ययं वा, न चाऽनयोरन्यतरोऽपि प्रत्ययः सम्भवति, चक्षुर्दर्शनोपयोगाभावस्तु चक्षुरिन्द्रियाभावादेव सिद्धः / तथा त्रयाणामज्ञानानां समाहारः त्र्यज्ञानम् , अज्ञानत्रयम्-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूपं 'दर्शनद्विकं' चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनलक्षणमित्येते पञ्चोपयोगा भवन्ति / क ? इत्याह'अज्ञानत्रिके' मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गरूपे / यत्त्वज्ञानत्रिकेऽवधिदर्शनं पूर्वाचार्यैः कुतश्चित् कारणाद् नेप्यते तद् न सम्यगवगच्छामः, तथाविधसम्प्रदायाभावात् ; अथ च सिद्धान्ते प्रतिपाद्यते, तथा च प्रज्ञप्तिसूत्रं पूर्वदर्शितमेव, तदभिप्रायादस्माभिरपि नोक्तमिति / 'अभवे' अभव्ये 'मिथ्यात्वद्विके' मिथ्यात्वे साखादने [च] पञ्चोपयोगाः-अज्ञानत्रिकदर्शनद्विकरूपा न शेषाः, अवदातसम्यक्त्वविरत्यभावादिति // 32 // Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 देवेन्द्रसरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा केवलदुगे नियदुर्ग, नव तिअनाण विणु खइय अहखाए / दसणनाणतिगं देसि मीसि अन्नाणमीसं तं // 33 // 'केवलद्रिके केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणे 'निजद्विकं' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपमुपयोगद्विकं भवति, न शेषा दश, ज्ञानदर्शनव्यवच्छेदेनैव केवलयुगलस्य सद्भावात्, "नट्ठम्मि उ छाउमथिए नाणे / " (आ० नि० गा० 539) इति वचनात् / तथा क्षायिके सम्यक्त्वे यथाख्याते च संयमे नवोपयोगा भवन्ति / के ते ! इत्याह-'अज्ञानत्रिकं' मतिश्रुताज्ञानविभाग ज्ञानलक्षणं विना, यतः क्षायिकयथाख्यातयोरज्ञानत्रिकं न भवत्येव, तस्य मिथ्यात्वनिबन्धनत्वात् , निर्मूलतो मिथ्यात्वक्षयेणोपशमेन च क्षायिकसम्यक्त्वयथाख्यातोत्पादात् , अत एतयोर्नवैवोपयोगा भवन्तीति / तथा 'देशे' देशविरते षडुपयोगा भवन्ति / कथम् ! इत्याह—'दर्शनज्ञानत्रिकं' त्रिकशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धः, दर्शनत्रिकं-चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनरूपम् , ज्ञानत्रिकंमतिभुतावधिज्ञानरूपमिति, न शेषाः, मिथ्यात्वसर्वविरत्यभावात् / मिश्रे तदेव दर्शनज्ञानत्रिकमज्ञानमिभं द्रष्टव्यम् , मतिज्ञानं मत्यज्ञानमिश्रं 1 श्रुतज्ञानं श्रुताज्ञानमिदं 2 अवधिज्ञानं विभङ्गज्ञानमिनं 3 दर्शनत्रिकं 3 चेति मिश्रेऽपि षडुपयोगाः सिद्धा भवन्ति / इह चावधिदर्शनमागमाभिप्रायेण उच्यते, अन्यथा एतेष्वेव मार्गणास्थानकेषु गुणस्थानकमार्गणायां "अजयाइ नव महसुओहिदुगे" (गा० 21) इत्युक्तमिति // 33 // मणनाणचक्खुवना, अणहारे तिनि दंस चउ नाणा। पउनाणसंजमोवसम वेयगे ओहिदंसे य // 34 // मनःपर्यायज्ञानचक्षुर्दर्शनवर्जाः शेषा दशोपयोगा अनाहारके भवन्ति / यत्तु मनःपर्यवज्ञानं चक्षुर्दर्शनं तच्चानाहारके न सम्भवति, यतोऽनाहारको विग्रहगतौ केवलिसमुद्धातावस्थायां च, न च तदानीं मनःपर्यायज्ञानचक्षुर्दर्शनसम्भव इति / तथा 'त्रीणि दर्शनानि' चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनरूपाणि 'चत्वारि ज्ञानानि' मतिश्रुतावधिमनःपर्यायलक्षणानीत्येवं सप्तोपयोगा भवन्ति का इत्याह-चतुःशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् चतुषु ज्ञानेषु-मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनःपर्यायज्ञानेषु, तथा चतुर्यु संयमेषु-सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकसूक्ष्मसम्परायेषु, औपशमिके सम्यक्त्वे 'वेदके क्षायोपशमिकापरपर्याये, अवधिदर्शने 'चः' समुच्चये, न शेषाः, तत्सद्भावे मत्यज्ञानादीनामसम्भवात् / इहाप्यवधिदर्शने मत्यज्ञानाद्युपयोगप्रतिषेधो बहुश्रुताचार्यामिपायापेक्षया द्रष्टव्यः, अन्यथा हि मत्यज्ञानादिमतामपि सूत्रे साक्षाद् अवधिदर्शनं प्रतिपादितमेव, अज्ञप्तिसूत्रं च प्रागेवोक्तमिति // 34 // उक्ता मार्गणास्थानेषु उपयोगाः / अथ योगेषु जीवगुणस्थानकयोगोपयोगान् अधिकृत्य मतान्तरमाह दो तेर तेर बारस, मणे कमा अहदु चउ चउ वयणे। चउ पण तिनि काए, जियगुणजोगोवओगऽने // 35 // भन्ये स्वाचार्याः "मणि" ति मनोयोगे द्वे जीवस्थानके, त्रयोदश गुणस्थानकानि, त्रयोदश 1, भवषिद्रिके भवधिज्ञानावधिदर्शनरूपे यः क० ख० ग००० मुक्तिपुस्तकादशे च // Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33-37] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 167 योगाः, द्वादशोपयोगा इतीच्छन्ति 'क्रमात्' क्रमेण यथासायमित्यर्थः / अत्रायममिप्रायःप्राग् योगान्तरसहितोऽसहितो वा खरूपमात्रेणैव काययोगादिविवक्षितस्तेन तत्र यथोकगुणस्सानकादिवक्तव्यता सर्वाऽप्युपपद्यते, इह तु काययोगादियोगान्तरविरहित एव विवक्ष्यते / यथामनोयोगवाम्योगविरहितः काययोगः, मनोयोगविरहितो वाग्योगः / ततो मनोयोगे द्वे अन्तिमे जीवस्थानके, अयोगिकेवलिवर्जितानि त्रयोदश गुणस्थानानि, कार्मणौदारिकमिश्रवर्जितात्रयोदश योगाः, कार्मणौदारिकमिश्रौ हि काययोगौ अपर्याप्तावस्थायां केवलिसमुद्धातावस्थायां वा / न च तदानीं मनोयोगः, अपर्याप्तावस्थायां मनस एवाभावात् , केवलिसमुद्धातावस्थायां तु प्रयोजनाभावात् / उक्तं च मनोवचसी तु तदा सर्वथा न व्यापारयति, प्रयोजनाभावात् / (धर्मसारमूल्टीकायाम् ) तथा 'वचने' मनोयोगविरहिते वाग्योगे क्रमाद् अष्टौ जीवस्थानानि-पर्याप्तापर्याप्तद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियरूपाणि, द्वे गुणस्थाने-मिथ्यात्वसासादनलक्षणे, चत्वारो योगाःकार्मणौदारिकमिश्रौदारिकासत्यामृषावाग्योगरूपाः, चत्वार उपयोगाः-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानचक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनलक्षणाः / वाग्योगो हि मनोयोगविरहितखमावो द्वीन्द्रियादिष्वेवाऽसंज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तेषु सम्भवति नान्येषु / ततो यथोक्तान्येव जीवस्थानकादीनि तत्र सम्भवन्ति नोनाधिकानि / तथा केवलकाययोगे चत्वारि पर्याप्तापर्याप्तसूक्ष्मवादरैकेन्द्रियलक्षणानि जीवस्थानकानि, द्वे आये गुणस्थानके-मिथ्यादृष्टिसासादनलक्षणे, पञ्च योगाः-वैक्रियद्विकौदारिकद्विककार्मणरूपाः, त्रय उपयोगाः-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानाचक्षुर्दर्शनखरूपाः / केवलकाययोगो हि एकेन्द्रियेष्वेवावाप्यते, तत्र जीवस्थानकादीनि यथोक्तान्येव घटन्त इति // 35 // अभिहितं योगेष्वेकीयमतम् / साम्प्रतं मार्गणास्थानेषु लेश्या अभिधित्सुराह... छसु लेसासु सठाणं, एगिदि असन्नि भूदगवणेसु। पढमा चउरो तिन्नि उ, नारय विगलग्गि.पवणेसु // 36 // षड्लेश्यासु खस्थानं खा खा लेश्या भवति, यथा कृष्णलेश्यायां कृष्णलेश्या इत्यादि / सामान्यत एकेन्द्रियेषु 'असंज्ञि(नि'मनोविज्ञानरहिते) 'भूदकवनेषु' पृथिव्यम्बुवनस्पतिषु प्रथमाःकृष्णनीलकापोततेजोलेश्याश्चतस्रो भवन्ति, भवनपतिव्यन्तरज्योतिप्कसौधर्मेशानदेवा हि खखभवच्युता एतेषु मध्ये समुत्पद्यन्ते ते च तेजोलेश्यावन्तः, जीवश्च यल्लेश्य एव प्रियते अग्रेऽपि तल्लेश्य एवोपपद्यते, “जल्लेसे मरइ तल्लेसे उववज्जइ" इति वचनात् / तत एतेषामपर्याप्तावस्थायां कियत्कालं तेजोलेश्या भवति / नारकेषु 'विकलेषु' द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु अमिषु' तेजस्कायेषु 'पवनेषु' वायुकायिकेषु प्रथमास्तिस्रः-कृष्णनीलकापोतलेश्या भवन्ति नाऽन्याः, प्रायोऽमीषामप्रशस्ताध्यवसायस्थानोपेतत्वात् // 36 // अहखाय सुहुम केवलदुगि सुक्का छावि सेसठाणेसु। नरनिरयदेवतिरिया, थोवा दु असंखऽणंतगुणा // 37 // यथाख्यातसंयमे सूक्ष्मसम्परायसंयमे च 'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनरूपे शुक्ललेश्यैव न शेषलेश्याः, यथाख्यातसंयमादौ एकान्तविशुद्धपरिणामभावात् तस्य च शुक्कलेश्याऽविनामू Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं। 168 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा तस्वात् / 'शेषस्थानेषु' सुरगतौ तिर्यग्गतौ मनुष्यगतौ पञ्चेन्द्रियत्रसकाययोगत्रयवेदत्रयकषायच. तुष्टयमतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनःपर्यायज्ञानमत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानसामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिकदेशविरताविरतचक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनभव्याभव्यक्षायिकक्षायोपशमिकौपशमिकसावादनमिश्रमिथ्यात्वसंश्याहारकानाहारकलक्षणैकचत्वारिंशत्सु शेषमार्गणास्थानकेषु षडपि लेश्याः / ___ उक्ता मार्गणास्थानेषु लेश्याः / इदानी मार्गणास्थानेषु खस्थानापेक्षयाऽल्पबहुत्वं निरूपयिषुराह-'नरनिरय' इत्यादि / इह यथासङ्ख्येन योजना कर्तव्या / सा चैवम्-नरा निरयदेवतिर्यग्योनिकेभ्यः सकाशात् स्तोकाः / यत इह द्विविधा नराः-वान्तपित्तादिजन्मानः सम्मूर्छजाः, स्त्रीगर्भोत्पन्नाः गर्भजाश्च / तत्राद्याः कदाचिद् न भवन्त्येव, जघन्यतः समयस्य उत्कृष्टतस्तु चतुर्विंशतिमुहूर्तानां तदन्तरकालस्य प्रतिपादितत्वात् / . यदाह सन्देहसन्दोहशैलशृङ्गभङ्गदम्भोलिर्भगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण: बारस मुहुत्त गब्भे, उक्कोस समुच्छिमेसु चउवीसं / __उक्कोस विरहकालो, दोसु वि य जहन्नओ समओ॥ (बृ० सं० पत्र 130-1) . . उत्पन्नानां तु जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्तस्थितिकत्वेन परतः सर्वेषां निर्लेपत्वसम्भवाद् यदा तु भवन्ति तदा जघन्यत एको द्वौ त्रयो वा, उत्कृष्टतस्त्वसङ्ख्याताः / इतरे तु सर्वदैव सद्ध्येया भवन्ति नासत्येयाः, तत्र सधेयकस्य सङ्ख्यातभेदत्वान्न ज्ञायते कियदपि सहयेयकम् अतो विशेषत इदं प्ररूप्यते--इह षष्ठवर्गः पञ्चमवर्गेण यदा गुणितो भवति तदा गर्भजमनुप्यसङ्ख्या भवति / अथ कोऽयं षष्ठः (ग्रन्थानम्-१५००) वर्गः? कश्च पञ्चमः ? इत्येतदुच्यतेविवक्षितः कश्चिद् राशिस्तेनैव राशिना यत्र गुण्यते स तावद् वर्गः / तत्रैकस्य वर्ग एव न भवति, अतो वृद्धिरहितत्वादेष वर्ग एव न गण्यते / द्वयोस्तु वर्गश्चत्वारो भवन्ति, एष प्रथमो वर्गः 4 / चतुर्णा वर्गः षोडशेति द्वितीयो वर्गः 16 / षोडशानां वर्गों द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके तृतीयो वर्गः 256 / अस्य राशेर्वर्गः पञ्चषष्टिः सहस्राणि पञ्च शतानि षट्त्रिंशदधिकानि चतुर्थों वः 65536 / अस्य राशेर्वर्गः सार्धगाथया प्रोच्यते चैत्तारि य कोडिसया, अउणतीसं च हुंति कोडीओ। अउणावन्नं लक्खा, सत्तर्हि चेव य सहस्सा // दो य सया छन्नउया, पंचमवग्गो इमो विणिहिट्ठो / ( अनु० चू० पत्र 70) अकस्थापना-४२९४९६७२९६ / अस्यापि राशेर्वर्गो गाथात्रयेण प्रतिपाद्यते लक्खें कोडाकोडी, चउरासीइं भवे सहस्साई। १सा चैक्ये द्वन्द्वमेययोरिति 'एकचत्वारिंशति' इति भाव्यम्, भविष्यत्यपि, तथापि लेखकेन पण्डितंमन्येन वा केनाप्येतद् अङ्कितं लक्ष्यते // 2 द्वादश मुहूर्ता गर्भजेषु सम्मूच्छिमेषु चतुर्विंशतिः / उत्कर्षतो विरहकालः द्वयोरपि च जघन्यतः समयः॥ 3 चखारि च कोटिशतानि एकोनत्रिशच्च भवन्ति कोटयः। एकोनपञ्चाशद लक्षाः सप्तषष्टिरेव च सहस्राणि // द्वे च शते षण्णवतिः पञ्चमवर्गोऽयं विनिर्दिष्टः ॥४°ग्गो समासतो होति / अनुयोगद्वारचूर्णौ // 5 लक्षं कोटाकोटी चतुरशीतिर्भवन्ति सहस्राणि / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 169 चत्वारि य सत्तट्ठा, हुंति सया कोडिकोडीणं // चोयालं लक्खाई, कोडीणं सत्त चेव य सहस्सा / तिन्नि य सया य सयरी, कोडीणं हुंति नायवा // पंचाणउई लक्खा, एगावन्नं भवे सहस्साई / छ स्सोलसुत्तर सया, एसो छट्ठो हवइ वम्गो। ( अनु० 50 पत्र 70) [अतोऽपि दर्श्यते-] 18446744073709551616 / तदवं षष्ठी वर्ग: पूर्वोक्तेन पञ्चमवर्गेण गुण्यते, तथा च सति या सह्या भवति तस्यां जपन्यपदिनो गर्भजमनुष्या वर्तन्ते / सा चेयम्-७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ / मयं च राशिः कोटीकोट्यादिप्रकारेण केनाऽप्यभिधातुं न शक्यतेऽतः पर्यन्तादारभ्याडमात्रसङ्गहार्थ गाथाद्वयम् छग तिन्नि तिन्नि सुन्नं, पंचेव य नव य तिनि चचारि / पंचेव तिन्नि नव पंच, सत तिन्नेव तिन्नेव // चउ छ हो चउ इक्को, पण दो छविकागो य अद्वैव / दो दो नव सत्तेव ये, संकट्ठाणा पराहुना // (अनु० च. पत्र०७०) तदेवमेतेष्वेकोनत्रिंशदकस्थानेषु जघन्यपदिनो गर्मजमनुष्या वर्तन्ते / उकं चानुयोगद्वारेषु जैहन्नपए [संखेज्जा] संखिज्जाओ कोडाकोडाकोडीओ। (पत्र 205-2) तदेवं जघन्यपदिनो मनुष्याः, उत्कृष्टपदिनस्त्वसङ्ख्याताः / उक्तं चानुयोगदारसत्रे उक्कोसपए असंखिज्जा असंखिज्जाहिं उसप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरति कालो, लियो उक्कोसपए रूवपक्खित्तेहिं मणूसेहिं सेढी अवहीरइ, असंखेज्जाहिं भवसप्पिणीहिं उस्सप्पिर्णीहि कालओ, खित्तओ अंगुलपढमवम्गमूलं तइयवम्गमूलपडप्पन्नं // . (पत्र 205-2) ___ अस्येयमक्षरगमनिका उत्कृष्टपदे मनुप्या असक्थेयोत्सर्पिव्यवसर्पिणीसमयराशितुल्याः / क्षेत्रतस्त्वेकस्मिन् मनुष्यरूपे प्रक्षिप्ते मनुष्यरूपैरेका नमःप्रदेशश्रेणिरपहियते / कियता कालेन ! इत्याह-असद्धयेयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः / कियता क्षेत्रखण्डापहारेण ! इत्याह-"अंगुलपढमवमामूलं तइयवम्गमूलपडुप्पन्नं" ति श्रेणेरङ्गुलप्रमाणे क्षेत्रे यः प्रदेशराशिस्तस्य यत् प्रथम वर्गमूलं तत् तृतीयवर्गमूलपदेशराशिना गुण्यते, गुणिते च यः प्रदेशराशिर्भवति तत्प्रमाणं क्षेत्रखण्डमे. कै रूपमपहरति / अयमर्थः-इह किलाडलप्रमाणक्षेत्रे नमःप्रदेशराशिः सद्भावतोऽसत्येय. चत्वारि च सप्तषष्टिर्भवन्ति शतानि कोटिकोटीनाम् // चतुश्चत्वारिंशद् लक्षाः कोटिनां सप्त एव च सहस्राणि / त्रीणि च शतानि च सप्ततिः कोटीनां भवन्ति ज्ञातव्यानि // पञ्चनवतिर्लक्षा एकपचाशद् भवन्ति सहस्राणि / षट् षोडशोत्तराणि शतानि एष षष्ठो भवति वर्गः // 1 सत्तरि अनुयोगद्वारचूर्णिलघुवृत्त्योः // षटू त्रीणि त्रीणि शुन्यं पञ्चैव च नव च त्रीणि चत्वारि / पञ्चैव त्रीणि नव पच सप्त त्रीण्येव त्रीण्येव / चत्वारि षट् द्वे चत्वारि एकः पत्र दे षट् एककश्च अष्टैव / दे दे नव सप्तैव च अस्थानानि पराखानि // 2 य ठाणाई उवरिहत्ताई // अनुयोगद्वारचूर्णी // 3 जघन्यपदे सङ्ख्याताः कोटिकोटिकोटयः // क० 22 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा प्रदेशपरिमाणोऽप्यसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयपरिमाणः करप्यते 256; अत्र प्रथम वर्गमूलं षोडश 16, द्वितीयं वर्गमूलं चत्वारि 4, तृतीयं वर्गमूलं द्वे 2; तत्र प्रथमवर्गमूलं षोडशलक्षणं तृतीयवर्गमूलेन गुणितं जाता द्वात्रिंशत् 32, एवमेते नमःप्रदेशाः सद्भावतोऽसज्येया अप्यसत्कल्पनया द्वात्रिंशत्सङ्ख्याः परिग्राह्याः। ततः श्रेणेमध्याद् यथोक्तप्रमाणं द्वात्रिंशत्यदेशप्रमाणमित्यर्थः क्षेत्रखण्डं यद्येकैकं मनुष्यरूपं क्रमेण प्रतिसमयमपहरति तदाऽसद्धयेयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः सर्वाऽपि श्रेणिरपहियते यद्येकं मनुष्यरूपं स्यात् , तच्च नास्ति, सर्वोत्कृष्टानामपि समुदितगर्भजसम्मूर्छजमनुष्याणामेतावतामेव भावात् / इदमुक्तं भवति–उत्कृष्टपदवर्तिभिरपि सर्वतः सप्तरज्जुप्रमाणस्य घनीकृतस्य लोकस्यैकैकप्रदेशपतिरूपं श्रेणिमात्रमपि अङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशिसम्बन्धितृतीयवर्गमूलगुणितप्रथमवर्गमूलप्रदेशप्रमाणैरसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयप्रमाणाङ्गुलमानक्षेत्रप्रदेशराशिसम्बन्धिद्विकलक्षणतृतीयवर्गमूलगुणितषोडशकलक्षणप्रथमवर्गमूललन्धद्वात्रिंशत्प्रदेशप्रमाणैराकाशखण्डैर्मनुष्यरूपस्थानीयैरपह्रियमाणमपि नापह्रियते, एकरूपहीनत्वात् ; यदि पुनरेकं रूपमन्यत् स्यात् ततः सकलाऽपि श्रेणिरपहियेत / कालतश्च प्रतिसमयमेतावत्प्रमाणैरप्याकाशखण्डैरपह्रियमाणा श्रेणिरसङ्ख्याताभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीमिनिःशेषतोऽपह्रियते, कालतः सकाशात् क्षेत्रस्यात्यन्तसूक्ष्मत्वात् / उक्तं च उकोसपए जे मणुस्सा हवंति तेसु इक्वम्मि मसरूवे पक्खित्ते समाणे तेहिं मणुस्सेहिं सेढी अवहीरइ / तीसे य सेढीए कालखिचेहिं अवहारो मग्गिज्जइ-कालओ ताव असंखिज्जाहिँ उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं, खित्तओ अंगुलपढमवग्गमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पन्नं / किं भणियं होइ !तीसे सेढीए अंगुलायए खंडे जो पएसरासी तस्स जं पढेमवग्गमूलपएसरासिमाणं तं तइयवग्गमूलपएसरासिपडुप्पाइए समाणे जो पएसरासी हवइ एवइएहिं खंडेहिं अवहीरमाणी अवहीरमाणी जाव निहाइ ताव मणुस्सा वि अवहीरमाणा अवहीरमाणा निटंति / आह कहमेगा सेढी एद्दहमितेहिं खण्डेहिं अवहीरमाणी अवहीरमाणी असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरइ ! आयरिओ आह-खेत्तस्स सुहुमत्तणओ / सुते वि जं भणियं सेहुमो य होइ कालो, तत्तो सुहुमयरयं हवइ खितं / अंगुलसेढीमिते, ओसप्पिणीओ असंखिजा // ( अनु० चू० पत्र 72) इति / 1 उत्कृष्टपदे ये मनुष्या भवन्ति तेष्वेकस्मिन् मनुष्यरूपे प्रक्षिप्ते सति तैर्मनुष्यैः श्रेणिरपहियते / तस्याथ श्रेणेः कालक्षेत्राभ्यां अपहारो मृग्यते-कालतस्तावदसङ्खयेयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः,क्षेत्रतोऽङ्गुलप्रथमवर्गमूलं तृतीयवर्गमूलगुणितम् / किं भणितं भवति?-तस्याः श्रेणेरडलायते खण्डे यःप्रदेशराशिः तस्य यत् प्रथमवर्गमूलप्रदेशराशिमानं तत् तृतीयवर्गमूलप्रदेशराशिगुणिते सति यः प्रदेशराचिर्भवति एतावद्भिः खण्डैरपहिय- . माणाऽपहियमाणा यावनिस्तिष्ठति तावद् मनुष्या अपि अपहियमाणा अपहियमाणा निस्तिष्टन्ति / आह कथमेका श्रेणिरेतावन्मात्रैः खण्डैरपहियमाणा अपहियमाणा असङ्ख्येयाभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियते? आचार्य आह-क्षेत्रस्य सूक्ष्मसात् / सत्रेऽपि यद्भणितं-सूक्ष्मश्च भवति कालखतः सूक्ष्मतरकं भवति क्षेत्रम् / अङ्गुलश्रेणिमात्रेऽवसर्पिण्योऽसङ्ख्येयाः॥२ जाव अनुयोगद्वारचूर्णौ // 3 डप्पाडितं अनुयोगद्वारचूणों // 4 °ढर्म वग्गमूलं तं तइयवग्गमूलपएसरासिणा पडुप्पाविज्बह, पडुप्पाडिते समाणे जो रासी हवा एवइएहि खण्डेहिं सा सेढी अव अनुयोगद्वारचूर्णौ // 5 गाथेयमावश्यकनिर्युक्तौ सप्तत्रिंशत्तमी / Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 37) षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 171 ___ अतो निरयादिभ्यः सकाशात् स्तोका नराः, तेभ्यो नारका असङ्ख्येयगुणाः / यत एवमनुयोगद्वारेषु नारकपरिमाणमुपदर्शाते नेरइयाणं भंते ! केवइया वेउवियसरीरा पन्नता ? गोयमा ! दुविहा पन्नचा, तं जहा-बद्धिल्लया मुक्लिया य / तत्थ णं जे ते बद्धिल्या ते णं असंखेज्जा असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणिअवसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखेज्जइभागो / तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलं बीयवग्गमूलपडप्पन्नं, अहव णं अंगुलबिइयवम्गमूलघणपमाणमिचाओ सेढीओ // (पत्र 199-2) ___ अस्येयमक्षरगमनिका—नारकाणां बद्धानि वैक्रियशरीराण्यसझ्येयानि, प्रतिनारकमेकैकवैक्रियसद्भावाद् नारकाणां चासयेयत्वात् , तानि च कालतोऽसङ्ख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयराशितुल्यानि / क्षेत्रतस्तु प्रतरासङ्ख्येयभागवय॑सङ्ख्येयश्रेणीनां ये प्रदेशास्तत्सङ्ग्यानि भवन्ति / ननु प्रतरासद्ध्येयभागेऽसयेययोजनकोटयोऽपि भवन्ति तत् किमेतावत्यपि क्षेत्रे या नभःश्रेणयो भवन्ति ता इह गृह्यन्ते ? न, इत्याह-"तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई" इत्यादि / तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिर्विस्वरश्रेणिर्माद्येति शेषः / कियती ! इत्याह-"अंगुल" इत्यादि / अङ्गुलप्रमाणे प्रतरक्षेत्रे यः श्रेणिराशिः तत्र किलासङ्घयेयानि वर्गमूलान्युत्तिष्ठन्ति अतः प्रथमवर्गमूलं द्वितीयवर्गमूलेन प्रत्युत्पन्नं-गुणितम् , तथा च यावन्त्योऽत्र श्रेणयो लब्धा एतावत्प्रमाणश्रेणीनां विष्क म्भसूचिर्भवति, एतावत्यः श्रेणयोऽत्र गृह्यन्त इत्यर्थः / इदमुक्तं भवति–अङ्गुलप्रमाणे प्रतरक्षेत्रे किलाऽसत्कल्पनया षट्पञ्चाशदधिके द्वे शते श्रेणीनां भवतः, तद्यथा-२५६, अत्र प्रथम वर्गमूलं 16, द्वितीयं 4, चतुर्भिश्च षोडश गुणिता जाता चतुःषष्टिः 64, एषा चतुःषष्टिरपि सद्भावतोऽसयेयाः श्रेणयो मन्तव्याः, एतावत्सद्भ्यश्रेणीनां विस्तरसूचिरिह ग्राह्या / अथवा 'ण' इति वाक्यालङ्कारे, अयं द्वितीयः प्रकारः प्रस्तुतार्थविषये / तथाहि-"अङ्गुलबिइयवग्गमूलघण" इत्यादि / अङ्गुलप्रमाणप्रतरक्षेत्रवर्तिश्रेणिराशेर्यद् द्वितीयवर्गमूलमनन्तरं चतुष्टयरूपं दर्शितं तस्य यो घनश्चतुःषष्टिलक्षणस्तत्प्रमाणाः श्रेणयोऽत्र गृह्यन्त इति प्ररूपणैव भिद्यतेऽर्थतस्तु स एव / इदमत्र तात्पर्यम्-सप्तरज्जुप्रमाणस्य घनीकृतस्य लोकस्य या ऊर्ध्वाधआयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिगतद्वितीयवर्गमूलघनप्रदेशराशिप्रमाणास्तासां यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणा नारकाः, अतस्ते नरेभ्योऽसङ्ख्यातगुणा एव // ____एतेभ्योऽपि देवा असङ्ख्यातगुणाः / कथम् ? इति चेद् उच्यते-देवा हि भवनपत्यादिभेदेन चतुर्धा, भवनपतयोऽसुरादिभेदेन दशविधाः / तत्राऽसुरकुमारा अपि तावद् घनीकृतस्य लोकस्य या ऊर्ध्वाधआयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽङ्गुलमात्रक्षेत्रगतप्रदेशराशिसम्बन्धिप्रथमवर्गमूलासङ्ख्येयभागगतप्रदेशराशिप्रमाणास्तासां सम्बन्धी यावान् प्रदेशराशिस्तावत्सङ्ख्याकाः, एवं नागकुमारादयोऽपि द्रष्टव्याः / तथा सङ्ख्येययोजनप्रमाणाकाशप्रदेशसूचिरूपैः खण्डैर्यावद्भिर्घनी कृतस्य लोकस्य मण्डकाकारः प्रतरोऽपह्रियते तावत्प्रमाणा व्यन्तराः / उक्तं च संखेजजोयणाणं, सूइपएसेहि भाइयं पयरं / वंतरसुरेहिं हीरइ, एवं एकेकभेएणं // (पञ्चसं० गा० 48) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा अस्या अक्षरगमनिका—सङ्ख्येययोजनप्रमाणा 'सूचिः' एकपादेशिकी पशिस्तप्रदेशैः-सङ्ख्येययोजनप्रमाणैकप्रादेशिकपतिप्रदेशैरिति यावत् भक्तं प्रतरं व्यन्तरसुरैरपहियते तावद्भागलन्धराशिप्रमाणा व्यन्तरसुरा इत्यर्थः / इयमत्र भावना-सङ्ख्येययोजनप्रमाणसचिप्रदेशाः किलाऽसत्कल्पनया दश, प्रतरप्रदेशाध लक्षम् , ततो दशभिर्भागे हृते लब्धाः सहस्रा दश एतावन्त इत्यर्थः / "एवम्' उक्तेन प्रकारेण प्रतिनिकायं व्यन्तराणां भावना कार्या / न चैवं सर्वसमुदायपरिमाणनियमव्याघातप्रसङ्गः, सूचिप्रमाणहेतुयोजनसमेयत्वस्य वैचित्र्यादिति // तथा षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयाङ्गुलप्रमाणैराकाशप्रदेशसूचिरूपैः खण्डैर्यावद्भिर्यथोक्तखरूपं प्रतरमपहियते तावत्प्रमाणा ज्योतिष्का देवाः / उक्तं च छपन्नदोसयंगुलसूइपएसेहिं भाइयं पयरं / ___ जोइसिएहिं हीरइ, (पञ्चसं० गा० 19) इति / अत एवोक्तम्-"वाणमंतरेहितो संखेजगुणा जोइसिय" ति / तथा वैमानिकदेवा घनीकृतस्य लोकस्य या ऊर्ध्वाधआयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽङ्गुलमात्रक्षेत्रप्रदेशराशिसम्बन्धितृतीयवर्गमूलघनप्रमाणास्तासां यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणाः, अतः सकलभवनपत्यादिसमुदायापेक्षया चिन्त्यमाना देवा नारकेभ्योऽसङ्ख्यातगुणा एव / तेभ्योऽपि च देवेभ्यस्तिर्यश्चोऽनन्तगुणाः, तत्रानन्तसश्योपेतस्य वनस्पतिकायस्य सद्भावात् / उक्तं च एएसि णं भंते ! नेरइयाणं तिरिक्खजोणियाणं मणुस्साणं देवाणं सिद्धाण य कयरे कयरेहिती अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सबथोवा मणुस्सा, नेरइया असंखेज्जगुणा, देवा असंखेज्जगुणा, सिद्धा अणंतगुणा, तिरिक्खजोणिया अणंतगुणा / / (प्रज्ञाप० पत्र 119-2) तथा थोवा नरा नरेहि य, असंखगुणिया हवंति नेरइया / तत्तो सुरा सुरेहि य, सिद्धाऽणंता तओ तिरिया // (जीवस० गा० 271 ) इति // 37 // उक्तं गतिष्वल्पबहुत्वम् / साम्प्रतमिन्द्रियद्वारे कायद्वारे तदभिधित्सुराह पण चउ ति दु एगिंदी, थोवा तिनि अहिया अणंतगुणा / तस थोव असंखऽग्गी, भूजलनिल अहिय वणणंता // 38 // पञ्चेन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियादिभ्यः स्तोकाः, तेभ्यश्चतुरिन्द्रिया 'अधिकाः' विशेषाधिकाः, तेभ्यस्त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, तेभ्यो द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः / तत्र च यद्यपि धनीकृतस्य लोकस्य षट्पञ्चाशदधिकद्विशताकुलसूचिप्रदेशैर्भकः प्रतरः / ज्योतिष्कैः हियते॥ 2 व्यन्तरेभ्यः सझधेयगुणा ज्योतिष्काः॥ 3 एतेषां भदन्त / नैरयिकाणां तिर्यग्योनिकानां मनुष्याणां देवानां सिद्धानां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा! गौतम ! सर्वस्खोका मनुष्याः, नैरयिका असक्ष्येयगुणाः, देवा असङ्ख्येयगुणाः, सिद्धा अनन्तगुणाः, तिर्यग्योनिका अनन्तगुणाः॥ 4 खोका नरा नरेभ्यश्वासयगुणिता भवन्ति नैरयिकाः / ततः सुराः सुरेभ्यश्च सिद्धा अनन्ताखतस्तिर्यवः। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 173 ऊर्ध्वाधआयता एकप्रादेशिक्यः श्रेणयोऽसङ्ख्यातयोजनकोटीकोटीप्रमाणाकाशप्रदेशसूचिगतप्रदेशराशिप्रमाणास्तासां यावान् प्रदेशराशिस्तावत्प्रमाणा द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिपञ्चेन्द्रिया अविशेषेण सूत्रे निर्दिष्टाः, तथा चोक्तं तत्र यथोक्तरूपद्वीन्द्रियपरिमाणाभिधानानन्तरम्-- जह बेइंदियाणं तहा तेइंदियाणं चउरिंदियाण वि भाणियवं पंचिंदियतिरिक्खजोणियाण वि। ( अनुयो० पत्र 204-1) इति / ___ तथापि सूचिपरिमाणहेतुयोजनगतासङ्ख्यातरूपसङ्ख्याया बहुभेदत्वान्न यथोक्तविशेषाधिकत्वाभिधानव्याघातः / अत एव च हेतोस्तिर्यग्योनिपञ्चेन्द्रियेषु द्वीन्द्रियादितुल्यतया सूत्रेऽभिहितेष्वपि तत्रापि नरनिरयदेवप्रक्षेपेऽपि पञ्चेन्द्रियाश्चतुरिन्द्रियादिभ्यः स्तोका एव द्रष्टव्याः / यदभ्यधायि . 'पंचिंदिया य थोवा, विवजएण वियला विसेसहिया / (जीवस० गा० 275) द्वीन्द्रियेभ्योऽपि चैकेन्द्रिया अनन्तगुणाः, वनस्पतिकायजीवराशेरनन्तानन्तत्वात् / यदुक्तमा एएसि णं भंते ! एगिदियबेंदियतेइंदियचउरिंदियपंचिंदियाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुआ वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सवत्थोवा पंचिंदिया, चरिंदिया विसेसाहिया, तेंदिया विसेसाहिया, बेइंदिया विसेसाहिया, एगिदिया अणंतगुणा / (प्रज्ञापनापद 3 पत्र 120-2) "तस थोव" इत्यादि / 'त्रसाः' द्वीन्द्रियादयः पूर्वनिर्दिष्ट सङ्ख्यास्तेजस्कायिकादिभ्यः स्तोकाः / तेभ्यस्त्रसेभ्योऽसङ्ख्यातगुणाः “अग्गि" ति अनिकायिकाः, तेषां सूक्ष्मबादरभेदभिन्नानामसङ्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणत्वात् / तेभ्यः "भू" ति पृथिवीकायिका विशेषाधिकाः / तेभ्यः "जल" ति अप्कायिका विशेषाधिकाः / तेभ्यः "अनिल" ति वायुकायिका विशेषाधिकाः / यद्यपि च एतेषामपि पृथिवीकायिकादीनामसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाणतया सूत्रे अविशेषेण निर्देशः कृतः, तथा चोक्तम् ___ जैहा पुढविकाइयाणं एवं आउकाइयाणं पि / (अनु० पत्र 202-1) इत्यादि / तथापि लोकानामसङ्ख्यातत्वस्याऽनेकभेदभिन्नत्वादिहैवं विशेषाधिकत्वाभिधानेऽपि न कश्चिदोषः / उक्तं च श्रीप्रज्ञापनायाम्"ऐएसि णं भंते ! तसकाइयाणं पुढविकाइयाणं आउकाइयाणं तेउकाइयाणं वाउकाइयाणं यथा द्वीन्द्रियाणां तथा त्रीन्द्रियाणां चतुरिन्द्रियाणामपि भणितव्यं पञ्चेन्द्रियत्तिर्यग्योनिकानामपि // 2 पञ्चेन्द्रियाश्च स्तोका विपर्ययेण विकला विशेषाधिकाः॥ 3 एतेषां भदन्त। एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपश्चन्द्रियाणां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा विशेषाधिका वा! गौतम ! सर्वस्वोकाः पश्चेन्द्रियाः, चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकाः, त्रीन्द्रिया विशेषाधिकाः, द्वीन्द्रिया विशेषाधिकाः, एकेन्द्रिया अनन्तगुणाः॥ 4 यथा पृथ्वीकायिकानामेवमप्कायिकानामपि // 5 एतेषां भदन्त! सकायिकानां पृथ्वीकायिकानामप्कायिकानां तेजस्कायिकानां वायुकायिकानां वनस्पतिकायिकानामकायिकानां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा? गौतम। सर्वस्वोकास्त्रसकायिकाः, तेजस्कायिका असल्येयगुणाः. पृथ्वीकायिका विशेषाधिकाः, अप्कायिका विशेषाधिकाः, वायुकायिका विशेषाधिकाः, अकायिका अनन्तगुणाः. वनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा वणस्सइकाइयाणं अकाइयाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ! गोयमा! सबत्योवा तसकाइया, तेउकाइया असंखिजगुणा, पुढविकाइया विसेसाहिया, आउकाइया विसेसाहिया, वाउकाइया विसेसाहिया, अकाइया अणंतगुणा, वणस्सइकाइया अणंतगुणा / (प्रज्ञा० पद 3 पत्र 122-2) अन्यत्राप्युक्तम् थोवा य तसा तत्तो, तेउ असंखा तो विसेसहिया / ___ कमसो भूदगवाऊ, अकायहरिया अणंतगुणा // (जीवस० गा० 276) "अकाय" ति सिद्धाः / तेभ्यो वायुकायिकेभ्यः “वणणंत" ति वनस्पतिकायिका अन्तगुणाः, अनन्तलोकाकाशप्रदेशप्रमाणत्वाद् वनस्पतिकायिकानामिति // 38 // सम्प्रति योगेषु वेदेषु अल्पबहुत्वं प्रचिकटयिषुराह मणवयणकायजोगी, थोवा अस्संखगुण अणंतगुणा / पुरिसा थोवा इत्थी, संखगुणाऽणंतगुण कीवा // 39 // . . . * मनोयोगिनः स्तोकाः, संज्ञिपञ्चेन्द्रियाणामेव मनोयोगित्वात्। तेभ्यो वाग्योगिनोऽसङ्ख्यातगुणाः, द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियासंज्ञिपञ्चेन्द्रियाणां वाम्योगिनां मनोयोगिभ्योऽसश्यातगुणानां तत्र प्रक्षेपात् / वाग्योगिभ्योऽपि काययोगिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिकायिकानामप्यनन्तानां तत्र प्रक्षेपादिति / आह च ऐएसि णं भंते ! जीवाणं सजोगीणं मणजोगीणं वइजोगीणं कायजोगीणं अजोगीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सबत्योवा मणजोगी, वइजोगी असंखेजगुणा, अजोगी अणंतगुणा, कायजोगी अणंतगुणा, सजोगी विसेसाहिया / __ (प्रज्ञा० पद 3 पत्र 134-1) तथा ख्यादिभ्यः पुरुषाः स्तोकाः / तेभ्यः स्त्रियः सङ्ख्यातगुणाः / उक्तं च तिगुणा तिरूवअहिया, तिरियाणं इत्थिया मुणेयथा / सत्तावीसगुणा पुण, मणुयाणं तदहिया चेव // बत्तीसगुणा बत्तीसरूवअहिया उ तह य देवाणं / देवीओ पन्नता, जिणेहिं जियरागदोसेहिं // (प्रवच० गा० 883-884) __ स्त्रीभ्यश्च 'क्लीबाः' नपुंसका अनन्तगुणाः, अनन्तगुणता च वनस्पत्यपेक्षया द्रष्टव्या। उक्तं च 1 स्तोकाच प्रसास्ततस्तेजस्कायिका असङ्ख्येयगुणास्ततः विशेषाधिकाः / क्रमशो भूदकवायवोऽकायवनस्पतिकायिका अनन्तगुणाः॥ 2 एतेषां भदन्त ! जीवानां सयोगिनां मनोयोगिनां वाग्योगिनां काययोगिनामयोगिनां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा? गौतम! सर्वखोका मनोयोगिनः, वाग्योगिनोऽसङ्ख्येयगुणाः, अयोगिनोऽनन्तगुणाः, काययोगिनोऽनन्तगुणाः, सयोगिनो विशेषा. धिकाः॥ 3 त्रिगुणास्त्रिरूपाधिकास्तिरश्चां स्त्रियो ज्ञातव्याः / सप्तविंशतिगुणाः पुनर्मनुजानां तदधिका एवं 'सप्तविंशत्यधिका एवेत्यर्थः // द्वात्रिंशद्गुणा द्वात्रिंशद्रपाधिकास्तु तथा च देवेभ्यः / देव्यः प्रज्ञप्ता जिनैर्जितरागदोषैः॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 39-40] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 175 - एएसि णं भंते ! जीवाणं सवेयगाणं इत्थीवेयगाणं पुरिसवेयगाणं नपुंसकवेयगाणं अवेयगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सबत्थोवा जीवा पुरिसवेयगा, इत्थीवेयगा संखेज्जगुणा, अवेयगा अणंतगुणा, नपुंसगवेयगा अणंतगुणा, सवेयगा विसेसाहिया // (प्रज्ञा० पद 3 पत्र 134-2) // 39 // माणी कोही माई, लोही अहिय मणनाणिणो थोवा / ओहि असंखा मइसुय, अहिय सम असंख विभंगा // 40 // कषायद्वारे सर्वस्तोका मानिनः, मानपरिणामकालस्य क्रोधादिपरिणामकालापेक्षया सर्वस्तोकत्वात् / तेभ्यः क्रोधिनो विशेषाधिकाः, क्रोधपरिणामकालस्य मानपरिणामकालापेक्षया विशेषाधिकत्वात् / तेभ्योऽपि मायिनो विशेषाधिकाः, यद् भूयस्त्वेन जन्तूनां प्रभूतकालं च मायाबहुलत्वात् / ततोऽपि लोमिनो विशेषाधिकाः, सर्वेषामपि प्रायः संसारिजीवानां सदा परिग्रहाद्याकाङ्खासद्भावात् / उक्तं च- एएसि णं भंते ! जीवाणं सकसाईणं कोहकसाईणं माणकसाईणं मायाकसाईणं लोभकसाईणं अकसाईण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सबत्योवा जीवा अकसाई, माणकसाई अणंतगुणा, कोहकसाई विसेसाहिया, मायाकसाई विसेसाहिया, लोभकसाई विसेसाहिया, सकसाई विसेसाहिया। (प्रज्ञा० पद 3 पत्र 135-1) ज्ञानद्वारे-'मनोज्ञानिनः' मनःपर्यायज्ञानिनः शेषज्ञान्यपेक्षया स्तोकाः, तद्धि गर्भजमनुष्याणां तत्रापि संयतानामप्रमत्तानां विविधामोषध्यादिलब्धियुक्तानामुपजायते / उक्तं चतं संजयस्स सव्वप्पमायरहियस्स विविहरिद्धिमओ। (विशेषा० गा० 812) इत्यादि / . ते च स्तोका एव, सङ्ख्यातत्वात् / तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणा अवधिज्ञानिनः, सम्यग्दृष्टिदेवादीनामप्यवधिज्ञानभाजां तेभ्योऽसङ्ख्यातगुणत्वात् / ततोऽवधिज्ञानिभ्यो मतिज्ञानिश्रुतज्ञानिनो विशेषाधिकाः, अवधिज्ञानरहितसम्यग्दृष्टिनरतिर्यक्प्रक्षेपात् / एतौ च मतिज्ञानिश्रुतज्ञानिनौ स्वस्थाने चिन्त्यमानौ द्वावपि 'समौ' तुल्यौ, मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः परस्परमनान्तरीयकत्वात् / यदाह भगवान् देवर्धिवाचक: 1 एतेषां भदन्त ! जीवानां सवेदकानां स्त्रीवेदकानां पुरुषवेदकानां नपुंसकवेदकानामवेदकानां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा? गौतम! सर्वस्तोका जीवाः पुरुषवेदकाः, स्त्रीवेदकाः सङ्ख्येयगुणाः, अवेदका अनन्तगुणाः, नपुंसकवेदका अनन्तगुणाः, सवेदका विशेषाधिकाः॥ 2 एतेषां भदन्त ! जीवानां सकषायिणां क्रोधकषायिणां मानकषायिणां मायाकषायिणां लोभकषायिणां अकषायिणां च कतरे कतरेभ्यः अल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा? गौतम! सर्वस्तोका जीवा अकषायिणः, मानकषायिणोऽनन्तगुणाः, क्रोधकषायिणो विशेषाधिकाः, मायाकषायिणो विशेषाधिकाः, लोभकषायिणो विशेषाधिकाः, सकषायिणो विशेषाधिकाः // 3 तत्संयतस्य सर्वप्रमादरहितस्य विविधर्दिमतः॥ ४°स्पर नान्तरीक० ख० ग० घ० रु०॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा जेत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं, जत्थ सुयनाणं तत्थ मइनाणं, दो वि एयाइं अन्नुन्नमणुगया। (नन्दी पत्र 140-1) इति / / - तेभ्यश्च मतिज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्यो विभङ्गज्ञानिनोऽसङ्ख्यातगुणाः, मिथ्यादृष्टिसुरादीनां विभङ्गज्ञानवतां तेभ्योऽसङ्ख्यातगुणत्वादिति // 40 // केवलिणो णंतगुणा, मइसुयअन्नाणि णंतगुण तुल्ला। . सुहमा थोवा परिहार संख अहखाय संखगुणा // 41 // तेभ्यश्च विभङ्गज्ञानिभ्यः केवलिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धानां तेभ्योऽनन्तगुणत्वात् , तेषां च केवलज्ञानयुक्तत्वात् / तेभ्योऽपि च केवलज्ञानिभ्यो मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, सिद्धेभ्योऽपि वनस्पतिकायिकानामनन्तगुणत्वात् , तेषां च मिथ्यादृष्टितया मत्यज्ञानश्रुताज्ञानयुक्तत्वात्। एते चोभयेऽपि मत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिनः खस्थाने चिन्त्यमानास्तुल्याः, मत्यज्ञानश्रुताज्ञानयोः परस्परमविनाभावित्वात् / उक्तं च___ ऐएसि णं भंते ! जीवाणं आभिणिबोहियनाणीणं सुयनाणीणं ओहिनाणीणं मणपज्जवनाणीणं केवलनाणीणं मइअन्नाणीणं सुयअन्नाणीणं विभंगनाणीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सवत्थोवा जीवा मणपज्जवनाणी, ओहिनाणी असंखेजगुणा, आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी दो वि तुल्ला विसेसाहिया, विभंगनाणी असंखिज्जगुणा, केवलनाणी अणंतगुणा, मइअन्नाणी सुयअन्नाणी य दो वि तुल्ला अणंतगुणा / (प्रज्ञा० पद 3 पत्र 137-1) __ संयमद्वारे-सर्वस्तोकाः सूक्ष्मसम्परायसंयमिनः, शतपृथक्त्वमात्रसम्भवात् / तेभ्यः परिहारविशुद्धिकाः सङ्ख्यातगुणाः, सहस्रपृथक्त्वसम्भवात् / तेभ्योऽपि यथाख्यातचारित्रिणः सङ्ख्यातगुणाः, कोटिपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वादिति // 41 // छेय समईय संखा, देस असंखगुण गंतगुण अजया। थोच असंख दु णंता, ओहि नयण केवल अचक्खू // 42 // तेभ्यो यथाख्यातचारित्रिभ्यश्छेदोपस्थापनचारित्रिणः सङ्ख्येयगुणाः, कोटीशतपृथक्त्वेन लभ्यमानत्वात् / तेभ्योऽपि सामायिकसंयमिनः सङ्ख्येयगुणाः, कोटीसहसपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् / तेभ्योऽपि देशविरता असङ्ख्यातगुणाः, असङ्ख्यातानां तिरश्चां देशविरतिसम्भवात् / तेभ्योऽनन्तगुणाः 'अयताः' संयमहीना आद्यगुणस्थानकचतुष्टयवर्तिन इत्यर्थः, मिथ्यादृशामनन्तानन्तत्वात् / दर्शनद्वारे यथाक्रममेवं पदघटना-स्तोका अवधिदर्शनिनः, सुरनारकाणां नरतिरश्चा 1 यत्र मतिज्ञानं तत्र श्रुतज्ञानम् , यत्र श्रुतज्ञानं तत्र मतिज्ञानम् , द्वे अपि एते अन्योन्यमनुगते // 1 एतेषां भदन्त ! जीवानां आमिनिबोधिकज्ञानिनां श्रुतज्ञानिनामवधिज्ञानिनां मनःपर्यवज्ञानिनां केवलज्ञानिनां मत्यज्ञानिनां श्रुताज्ञानिनां विभङ्गज्ञानिनां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा ? गौतम! सर्वस्तोका जीवा मनःपर्यवज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनोऽसङ्ख्येयगुणाः, आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनो द्वयेऽपि तुल्या विशेषाधिकाः, विभङ्गज्ञानिनोऽसङ्ख्येयगुणाः, केवलज्ञानिनोऽनन्तगुणाः, मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्च द्वयेऽपि तुल्या अनन्तगुणाः // Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41-43] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 177 च केषाञ्चिदवधिदर्शनसम्भवात् / तेभ्यश्चक्षुर्दर्शनिनोऽसङ्ख्यातगुणाः चतुरिन्द्रियादीनामपि चक्षुदर्शनिनां तत्र प्रक्षेपात् / तेभ्योऽनन्तगुणाः केवलदर्शनिनः, सिद्धानां तेभ्योऽनन्तगुणत्वात् , तेषां च केवलदर्शनयुक्तत्वात् / तेभ्योऽप्यनन्तगुणा अचक्षुर्दर्शनिनः, सर्वसंसारिजीवानां सिद्धेभ्योऽनन्तगुणत्वात् , तेषां च नियमादचक्षुर्दर्शनोपेतत्वात् / यदाहुः परममुनयः- एएसि णं भंते ! जीवाणं चक्खुदंसणीणं अचखुदंसणीणं ओहिदसणीणं केवलदसणीण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा ओहिदसणी, चक्खुदंसणी असंखिजगुणा, केवलदसणी अणन्तगुणा, अचक्खुदसणी अणंतगुणा / (प्रज्ञा० पद 3. पत्र 137-2) इति / // 42 // ‘पच्छाणुपुव्वि लेसा, थोवा दो संख णंत दो अहिया। अभवियर थोव णंता, सासण थोवोवसम संखा // 43 // लेण्याद्वारे पश्चानुपूर्व्या लेश्या वाच्याः / तद्यथा-शुक्ललेश्या पद्मलेश्या तेजोलेश्या कापोतलेश्या नीललेश्या कृष्णलेश्या / तत्र स्तोकाः शुक्ललेश्यावन्तः, वैमानिकेष्वेव देवेषु लान्तकादिष्वनुत्तरसुरपर्यवसानेषु केषुचिदेव कर्मभूमिजेषु मनुष्यस्त्रीपुंसेषु तिर्यक्स्त्रीपुंसेषु च केषुचित् सङ्ख्यातवर्षायुष्केषु शुक्ललेश्यासम्भवात् / ततः सहयातगुणाः पद्मलेश्यावन्तः, सनत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकदेवेषूक्तरूपेषु च मनुष्यतिर्यक्षु पद्मलेश्याभावात् , सनत्कुमारादिदेवानां च लान्तकादिदेवेभ्यः सङ्ख्येयगुणत्वात् / तेभ्योऽपि तेजोलेश्यावन्तः सद्ध्येयगुणाः, सौधर्मेशानादिदेवेषु केपुचिच तिर्यड्मनुष्येषु तेजोलेश्यासद्भावात् , तेषां च सकलपद्मलेश्यासहिततिर्यगादिप्राणिगणापेक्षया सङ्ख्येयगुणत्वात् / ततः कापोतलेश्यावन्तोऽनन्तगुणाः, अनन्तकायिकेष्वपि कापोतलेश्यासद्भावात् / ततोऽपि विशेषाधिका नीललेश्यावन्तः, नारकादीनां तल्लेश्यावतां तत्र प्रक्षेपात् / ततः कृष्णलेश्यावन्तो विशेषाधिकाः, भूयसां तल्लेश्यासद्भावात् / यदभ्यधायि परमगुरुणा ऐएसि णं भंते! जीवाणं सलेस्साणं किण्हलेस्साणं नीललेस्साणं काउलेस्साणं तेउलेस्साणं पम्हलेस्साणं सुक्कलेस्साणं अलेस्साण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सवत्थोवा जीवा सुक्कलेस्सा, पम्हलेस्सा संखिज्जगुणा, तेउलेस्सा संखिज्जगुणा, अलेस्सा अणंतगुणा, काउलेस्सा अणंतगुणा, नीललेस्सा विसेसाहिया, किण्हलेस्सा विसेसाहिया, सलेस्सा विसेसाहिया / (प्रज्ञा० पद 3 पत्र 135-1) भव्यद्वारे-अभव्याः स्तोकाः, तेषां वक्ष्यमाणखरूपजघन्ययुक्तानन्तकतुल्यत्वात् / तेभ्यो १एतेषां भदन्त ! जीवानां चक्षुर्दर्शनिनामचक्षुर्दर्शनिनामवधिदर्शनिनो केवलदर्शनिनां च कतरे कतरेभ्यः अल्पा पा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा ? गौतम ! सर्वस्तोका जीवा अवधिदर्शनिनः, चक्षुर्दर्शनिनोऽसङ्खयेयगुणाः, केवलदर्शनिनोऽनन्तगुणाः, अचक्षुदर्शनिनोऽनन्तगुणाः॥ 2 एतेषां भदन्त ! जीवाना सलेश्यानां कृष्णलेश्यानां नीललेश्याना कापोतलेश्यानां तेजोलेश्यानां पद्मलेश्यानां शुक्लेश्याना अलेश्यानां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाधिका वा ? गौतम! सर्वस्तोका जीवाः शुक्ललेश्याः, पद्मलेश्याः सङ्ख्येयगुणाः, तेजोलेश्याः सङ्ख्येयगुणाः, अश्या अनन्तगुणाः, कापोतलेश्या अनन्तगुणाः, नीललेश्या विशेषाधिकाः, कृष्णलेश्या विशेषाधिकाः, सलेश्या विशेषाधिकाः॥....... क०२३ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [माथा भव्याः-सिद्धिगमनार्हा अनन्तगुणाः / आह च भगवानार्यश्याम: एएसिणं भंते ! जीवाणं भवसिद्धियाणं अभवसिद्धियाणं नोभवसिद्धियाणं नोअभवसिद्धियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा.वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ! गोयमा ! सबत्थोवा अभवसिद्धिया, नोभवसिद्धिया नोअभवसिद्धिया अणंतगुणा, भवसिद्धिया अणंतगुणा / . (प्रज्ञा० पद 3 पत्र 139-1) सम्यक्त्वद्वारे-साखादनसम्यग्दृष्टयः स्तोकाः, औपशमिकसम्यक्त्वात् केषाश्चिदेव प्रच्यकमानानां साखादनत्वात् / तेभ्यः "उवसम" ति औपशमिकसम्यग्दृष्टयः सङ्ख्यातगुणाः // 43 // मीसा संखा वेयग, असंखगुण खइय मिच्छ दु अणंता। सन्नियर थोव णंताऽणहार थोवेयर असंखा // 44 // तेभ्यश्चौपशमिकसम्यग्दृष्टिभ्यो मिश्राः असङ्ख्यातगुणाः / तेभ्यः "वेयग" ति क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टयोऽसङ्ख्यातगुणाः / तेभ्यः क्षायिकसम्यग्दृष्टयोऽनन्तगुणाः, क्षायिकसम्यक्त्ववतां सिद्धानामानन्त्यात् / तेभ्योऽपि मिथ्यादृष्टयोऽनन्तगुणाः, सिद्धेभ्योऽपि वनस्पतिजीवानामनन्तगुणत्वात् , तेषां च मिथ्यादृष्टित्वादिति / संज्ञिद्वारे-संज्ञिनो जीवाः स्तोकाः, देवनारकसमनस्कपञ्चेन्द्रियतिर्यङ्नराणामेव संज्ञित्वात् / तेभ्यः 'इतरे' असंज्ञिनोऽनन्तगुणाः, वनस्पतिजीवानामनन्तत्वात् / यदागमे न्यगादि- एसि णं भंते ! जीवाणं सन्नीणं असन्नीणं नोसन्नीणं नोअसन्नीण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ! गोयमा ! सबत्थोवा जीवा सन्नी, नोसन्नीनोअसन्नी अणंतगुणा, असन्नी अणंतगुणा / (प्रज्ञा० पद 3 पत्र 139-1) * तथाऽऽहारकद्वारे-अनाहारकाः स्तोकाः, विग्रहगत्यापनसमुद्धातकेवलिभवस्थायोगिकेवलिसिद्धानामेवानाहारकत्वात् / यदाह भाष्यसुधाम्भोधि: विग्गेहगइमावन्ना, केवलिणो समुहया अजोगी य / सिद्धा य अणाहारा, सेसा आहारगा जीवा // तेभ्यः 'इतरे' आहारका जीवा असझ्यातगुणाः / यदवाचि वाचंयमप्रवरैः श्रीमदार्यश्यामपादैःऍएसि णं मंते ! जीवाणं आहारगाणं अपाहारगाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया एतेषां भदन्त / जीवानां भवसिद्धिकानामभवसिद्धिकाना नोभवसिद्धिकाना नोअभवसिद्धिकानां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका का तुल्या वा विशेषाधिका वा ? गौतम! सर्वखोका अभवसिद्धिकाः, नोभवसिद्धिका नोअभवसिद्धिका अनन्तगुणाः, भवसिद्धिका अनन्तगुणाः॥ 1 यानो अ° प्रशापनायाम्॥ 3 एतेषां मदन्त। जीवानां संशिनामसंज्ञिना नोसंज्ञिना नोअसंझिनां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा का बहुका वा तल्या बा विशेषाधिका बा? गौतम। सर्वखोका जीवा: संझिनः, नोसंझिनोअसंज्ञिनोजन्तगुणाः. असंझिनोऽनन्तगुणाः॥ ४°भीनोभसनीणं प्रशाफ्नायाम्। ५विग्रहगत्यापचाः केवलिनः समुद्धता अयोमिनमा सिद्धाश्चानाहाराः शेषा आहारका जीवाः ॥६माथेयं भावकप्राप्ति-प्रवचनसारोवारश्रीचन्द्रीयसम्हणीषु वर्तते परं भाष्यकारप्रन्थस्था नोपलब्धा / एतेषां भदन्त ! जीवानां आहारकाणामनाहारकाणां च कतरे कतरेभ्योऽल्पा वा बहुका मा तुल्या वा विशेषाधिका वा! मौतम। सर्वखोका जीवा अनाहारकाः, आहारका असहयगुणाः / / Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 11-46] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 179 वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सवत्योवा जीवा अणाहारगा, आहारगा असंखिज्जगुणा / (प्रज्ञा० पद 3 पत्र 138-1) / ननु च सिद्धेभ्योऽनन्तगुणाः संसारिजीवाः ते च प्राय आहारकाः तत् कथमसझ्यातगुणा अनाहारकेभ्य आहारकाः! इति, नैष दोषः, यतः प्रतिसमयमेकैकस्य निगोदस्याऽसद्ध्येयभागप्रमाणाविग्रहगत्यापन्ना जीवा लभ्यन्ते, ते चानाहारकाः, तत आहारकजीवानामनाहारकजीवापेक्षयाऽसझ्यातगुणत्वमेवेति // 44 // चिन्तितं गत्यादिमार्गणास्थानेषु खस्थानापेक्षयाऽल्पबहुत्वम् / इदानीं गुणस्थानकेषु जीवस्थानानि चिन्तयन्नाह सव्वजियठाण मिच्छे, सग सासणि पण अपज सन्निदुर्ग। सम्मे सन्नी दुविहो, सेसेसुं सन्निपज्जत्तो॥४५॥ सर्वाणि जीवस्थानानि-चतुर्दशापि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके भवन्ति, मिथ्यात्वस्य सर्वेषु जीवस्थानकेषु सम्भवात् / तथा "सग" ति सप्त जीवस्थानानि सासादने भवन्ति / तद्यथा-'पञ्चापर्याप्ताः' बादरैकेन्द्रियोऽपर्याप्तः 1 द्वीन्द्रियोऽपर्याप्तः 2 त्रीन्द्रियोऽपर्याप्तः 3 चतुरिन्द्रियोऽपर्याप्तः 4 असंज्ञिपञ्चेन्द्रियोऽपर्याप्तः 5 'संज्ञिद्विकम्' संज्ञी अपर्याप्तः 6 पर्याप्तः 7 / अपर्याप्तकाश्चेह करणापर्याप्तका द्रष्टव्याः, न तु लब्ध्यपर्याप्तकाः, तेषु मध्ये साखादनसम्यक्त्वसहितस्योत्पादाभावात् / “सम्म सन्नी दुविहो" ति अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानके संज्ञी 'द्विविधः' अपर्याप्तपर्याप्तरूपो द्रष्टव्यः / इहापर्याप्तकः करणापेक्षया ज्ञेयो न तु लब्ध्यपेक्षया, लब्ध्यपर्याप्तमध्येऽविरतसम्यग्दृष्टेरभावात् / 'शेषेषु' मिश्रदेशविरत्यादिगुणस्थानके संज्ञी पर्याप्त इत्येकमेव जीवस्थानकम् , न शेषाणि, तेषां मिश्रभावदेशविरत्यादिप्रतिपत्त्यभावात् / न च पूर्वप्रतिपन्नमिश्रभावोऽ न्येषु जीवस्थानकेषु सामन् लभ्यते, "ने सम्ममिच्छो कुणइ कालं" इति वचनात् // 45 // तदेवं गुणस्थानकेषु व्याख्यातानि जीवस्थानकानि / सम्प्रति गुणस्थानकेष्वेव योगान् व्याख्यानयन्नाह मिच्छदुग अजइ जोगाहारदुगुणा अपुष्वपणगे उ। मणवइउरलं सविउव्व मीसि सविउव्वदुग देसे // 46 // मिथ्यादृष्टिद्विकं-मिथ्यादृष्टिसाखादनलक्षणं तत्र 'अयते' अविरतसम्यग्दृष्टौ चेत्येवं गुणस्थानकत्रये संज्ञी पञ्चेन्द्रियोऽपि लभ्यते, तस्य च यथोक्ता आहारकद्विकेन-आहारककाययोगाहारकमिश्रकाययोगलक्षणेन ऊनाः-रहितास्त्रयोदश योगाः सम्भवन्ति / यत् पुनराहारकद्विकं तत् चतुर्दशपूर्विण एव / यदभ्यधायि ___आहारदुर्ग जायइ चउदसपुविस्स (पञ्चसं० गा० 12) इति / न च मिथ्यादृष्टिसासादनायतानां चतुर्दशपूर्वाधिगमसम्भव इति / तथा 'अपूर्वपञ्चके' अपूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहक्षीणमोहलक्षणे नव योगा भवन्ति / तद्यथाचतुर्विधो मनोयोगः 4 चतुर्विधो वाम्योगः 4 औदारिककाययोगः 1 इति, न शेषाः, अत्यन्तविशुद्धतया तेषां वैक्रियाहारकद्विकारम्भासम्भवात् , तत्र स्थितानां च खभावत एव श्रेण्यारोहाभावात् / १न सम्यग्मिध्यादृष्टिः कालं करोति // 2 आहारकद्धिकं जायते चतुर्दशपूर्विणः॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा औदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम् , कार्मणं त्वपान्तरालगंतौ। यद्वा उभे अपि केवलिसमुद्धातावस्थायाम् , ततस्ते अप्यत्र गुणस्थानकपञ्चके न सम्भवत इति / तथा त एव पूर्वोक्ता नव योगाः सवैक्रियाः सन्तो दश योगाः 'मिश्रे' सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके भवन्ति / तथाहि-चतुर्विधमनोयोगचतुर्विधवाग्योगौदारिकवैक्रियलक्षणा दश योगा मिश्रे भवन्ति, न शेषाः / तद्यथा-आहा मरणासम्भवेनाऽपान्तरालगत्यसम्भवस्ततस्तस्याप्यसम्भवः / अत एवौदारिकवैक्रियमित्रे अपि न सम्भवतः, तयोरपर्याप्तावस्थाभावित्वात् / ननु मा भूद् देवनारकसम्बन्धि वैक्रियमिश्रम् , यत् पुनर्मनुष्यतिरश्वां सम्यग्मिथ्यादृशां वैक्रियलब्धिमतां वैक्रियकरणसम्भवेन तदारम्भकाले वैक्रियमिश्रं भवति तत् कस्माद नाभ्युपगम्यते ? उच्यते-तेषां वैक्रियकरणासम्भवादन्यतो वा यतः कुतश्चित् कारणात् पूर्वाचार्य भ्युपगम्यते तन्न सम्यगवगच्छामः, तथाविधसम्प्रदायाभावात् , एतच्च प्रागेवोक्तमिति / तथा त एव पूर्वोक्ता नव योगाः 'सवैक्रियद्विकाः' वैक्रियवैक्रियमिश्रसहिताः सन्त एकादश 'देशे' देशविरते भवन्ति, अम्बडस्येव वैक्रियलब्धिमतो देशविरतस्य वैक्रियारम्भसम्भवादिति // 46 // साहारदुग पमत्ते, ते विउवाहारमीस विणु इयरे। कम्मुरलदुगंताइममणवयण सजोगि न अजोगी // 47 // पूर्वोक्ता एवैकादश योगाश्चतुर्विधमनोयोगचतुर्विधवाग्योगौदारिकवैक्रियद्विकलक्षणाः 'साहारकद्विकाः' आहारकाहारकमिश्रसहिताः सन्तस्त्रयोदश योगाः प्रमचे भवन्ति / औदारिकमिश्रकामणकाययोगाभावस्तु पूर्वोक्तयुक्तेरेवावसेय इति / त एव पूर्वोक्तास्त्रयोदश योगा वैक्रियमिश्राहारकमिश्रं विना एकादश 'इतरसिन्' अप्रमत्तगुणस्थानके भवन्ति / तथाहि-चतुर्विधमनोयोगचतुर्विधवाग्योगौदारिकवैक्रियाहारकलक्षणा एकादश योगा अप्रमत्ते / यत्तु वैक्रियमिश्रमाहारकमिश्रं च तन्न सम्भवति, तद् वैक्रियस्याहारकस्य च प्रारम्भकाले भवति, तदानीं च लब्ध्युपजीवनादिनौत्सुक्यभावतः प्रमादभावः सम्भवतीति / तथौदारिकमिश्रमपर्याप्तावस्थायाम् , कार्मणं वपान्तरालगतौ / यद्वा उभे अपि केवलिसमुद्धातावस्थायाम् , ततस्ते अप्यत्र गुणस्थानके न सम्भवत इति / तथा कार्मणम् 'औदारिकद्विकम्' औदारिकौदारिकमिश्रलक्षणम् अन्त्यादिममनसी-सत्यासत्यामृषरूपौ मनोयोगौ अन्त्यादिमवचने-सत्यासत्यामृषलक्षणौ वाग्योगौ चेति सप्त योगाः सयोगिकेवलिनो भवन्ति, कार्मणौदारिकमिशे तु समुद्धातावस्थायामिति / 'न' नैवं पञ्चदशयोगमध्यादेकेनापि योगेन युक्तः 'अयोगी' अयोगिकेवली भवति, योगाभावनिबन्धनत्वादयोगित्वावस्थाया इति॥४७॥ उक्ता गुणस्थानकेषु योगाः / अधुनैतेष्वेवोपयोगानभिधातुकाम आह तिअनाण दुदंसाइमदुगे अजइ देसि नाणदंसतिगं। - ते मीसि मीस समणा, जयाइ केवलिदुगंतदुगे // 48 // 'आदिमद्विके' मिथ्यादृष्टिसाखादनलक्षणप्रथमद्वितीयगुणस्थानकद्वय इत्यर्थः / “तिअनाण दुदंस" ति त्रयाणामज्ञानानां समाहारख्यज्ञानं-मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानरूपं, दर्शनं दों १°कमिश्र क० ग०५०॥ 2 °भादिका क० ग घ ङ०॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 47-49] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 181 द्वयोर्दर्शयोः समाहारो द्विदर्श-चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनरूपमित्येते पञ्चोपयोगा मिथ्यादृष्टिसासादनयोर्भवन्ति, न शेषाः, सम्यक्त्वविरत्यभावात् / तथा 'अयते' अविरतसम्यग्दृष्टौ 'देशे' देशविरते षडुपयोगा भवन्ति / तथाहि-"नाणदंसतिगं" ति त्रिकशब्दस्य प्रत्येकमभिसम्बन्धाद् ज्ञानत्रिक-मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानरूपं दर्शत्रिकं-चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनलक्षणमिति, न शेषाः, सर्वविरत्यभावात् / 'ते' पूर्वोक्ता ज्ञानत्रिकदर्शनविकरूपाः षडुपयोगाः 'मिश्रे' सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके 'मिश्राः' अज्ञानसहिता द्रष्टव्याः, तस्योभयदृष्टिपातित्वात् ; केवलं कदाचित् सम्यक्त्वबाहुल्यतो ज्ञानबाहुल्यम् , कदाचिच्च मिथ्यात्वबाहुल्यतोऽज्ञानबाहुल्यम्, समकक्षतायां तूभयांशसमतेति / अस्मिंश्च गुणस्थानके यद् अवधिदर्शनमुक्तं तत् सैद्धान्तिकमतापेक्षया द्रष्टव्यमित्युक्तं प्राक् / “समणा जयाइ" ति “यमूं उपरमे" यमनं यतं-सर्वसावधविरतं तद् विद्यते यस्य स यतः-"अभ्रादिभ्यः” (सि०७-२-४६) इत्यप्रत्ययः प्रमचगुणस्थानकवर्ती साधुः, यत आदिर्येषां गुणस्थानकानां तानि यतादीनि-प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृतिवादरसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहक्षीणमोहलक्षणानि सप्त गुणस्थानकानि तेषु पूर्वोक्ता ज्ञानत्रिकदर्शनत्रि'काख्याः षडुपयोगाः “समण" ति मनःपर्यायज्ञानसहिताः सप्त भवन्तीति, न शेषाः, मिथ्यात्वपातिकर्मक्षयाभावात् / 'केवलद्विकं' केवलज्ञानकेवलदर्शनलक्षणोपयोगद्वयरूपम् 'अन्तद्विके' सयोगिकेवल्ययोगिकेवलिलक्षणचरमगुणस्थानकद्वये भवति, न शेषा दश ज्ञानदर्शनलक्षणाः, तदुच्छेदेनैव केवलज्ञानकेवलदर्शनोत्पत्तेः, "नेट्टम्मि उ छाउमथिए नाणे" (आ० नि० गा० 539) इति वचनात् // 18 // तदेवमभिहिता गुणस्थानकेषूपयोगाः / साम्प्रतं यदिह प्रकरणे सूत्राभिमतमपि कार्मग्रन्थिकाभिप्रायानुसरणतो नाधिकृतं तद्दर्शयन्नाह.. सासणभावे नाणं, विउव्वगाहारगे उरलमिस्सं। नेगिदिसु सासाणो, नेहाहिगयं सुयमयं पि॥४९॥ 'सासादनमावे' साखादनसम्यग्दृष्टित्वे सति ज्ञानं भवति नाज्ञानमिति 'श्रुतमतमपि सिद्धान्तसम्मतमपि; तथाहि बैइंदिया णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा ! नाणी वि अन्नाणी वि। जे नाणी ते नियमा दुनाणी, आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी / जे अन्नाणी ते वि नियमा दुअन्नाणी, तं जहा-मइअन्नाणी सुयअन्नाणी / (भ० श० 8 उ० 2 पत्र 343-2) .. इत्यादिसूत्रे द्वीन्द्रियादीनां ज्ञानित्वमभिहितं तच्च साखादनापेक्षयैव, न शेषसम्यक्त्वापेक्षया, असम्भवात् / उक्तं च प्रज्ञापनाटीकायाम् "बेइंदियस्स दो नाणा कहं लभंति ? भण्णइ-सासायणं पडुच्च तस्सापजत्तयस्स दो नाणा लब्भंति ( ) इति / १°त् कस्याचित् सम्य क०ग०१०॥ 2 नष्टे तु छानस्थिके ज्ञाने॥ 3 दीन्द्रिया भदन्त ! कि ज्ञानिनोऽज्ञानिनः ? गौतम ! ज्ञानिनोऽप्यज्ञानिनोऽपि / ये ज्ञानिनते नियमादिज्ञानिनः, आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनः / येऽज्ञानिनस्तेऽपि नियमाद्यज्ञानिनः, तद्यथा-मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः // ४द्वीन्द्रियस्य द्वे ज्ञाने कथं लभ्येते ? भण्यते-साखादनं प्रतीत्य तस्यापर्याप्तकस्य द्वे ज्ञाने लभ्यते॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा ततः सासादनभावेऽपि ज्ञानं सूत्रसम्मतमेव / तच्चेत्थं सूत्रसम्मतमपि नेह प्रकरणेऽधिकृतम् , किन्त्वज्ञानमेव, कर्मग्रन्थाभिप्रायस्यानुसरणात् / तदभिप्रायश्वायम्-साखादनस्य मिथ्यात्वाभिमुखतया तत्सम्यक्त्वस्य मलीमसत्वेन तन्निबन्धनस्य ज्ञानस्यापि मलीमसत्वादज्ञानरूपतेति। ___ तथा सूत्रे वैक्रिये आहारके चारभ्यमाणे तेन प्रारभ्यमाणेन सहौदारिकस्यापि मिश्रीभवनाद् औदारिकमिश्रमुक्तमिति / तथा चाह प्रज्ञापनाटीकाकार:__ यदा पुनरौदारिकशरीरी वैक्रियलब्धिसम्पन्नो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको वा पर्याप्तबादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदौदारिकशरीरयोग एव वर्तमानः प्रदेशान् विक्षिप्य वैक्रियशरीरयोग्यान् पुद्गलानादाय यावद् वैक्रियशरीरपर्याप्ल्या पर्याप्तिं न गच्छति तावद् वैक्रियेण मिश्रता, व्यपदेशश्च औदारिकस्य प्रधानत्वात् ( पद 16 पत्र 319-1) / एवमाहारकेणापि सह मिश्रता द्रष्टव्या, आहारयति चैतेनैवेति तस्यैव व्यपदेश इति / परित्यागकाले वैक्रियस्याहारकस्य च यथाक्रमं वैक्रियमिश्रमाहारकमिश्रं च / उक्तं च श्रीप्रज्ञापनाटीकायाम् [यदा] आहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः पुनरप्यौदारिकं गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्वादौदारिकप्रदेशं प्रति व्यापाराभावान्न परित्यजति यावत् सर्वथैवाहारकं तावदौदारिकेण मिश्रतेति आहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग इति / / तच्चैवं वैक्रियाहारकारम्भकाले औदारिकमिश्रं सूत्रेऽभिहितमपि नेह प्रकरणेऽधिकृतं कार्म: ग्रन्थिकैः, गुणविशेषप्रत्ययसमुत्थलब्धिविशेषकारणतया प्रारम्भकाले परित्यागकाले च वैक्रियस्याहारकस्य च प्राधान्यविवक्षणेन वैक्रियमिश्रस्याऽऽहारकमिश्रस्य चैवाभिधानात् , तदभिप्रायस्य चेहानुसरणात् / तथा नैकेन्द्रियेषु “सासाणो" ति भावप्रधानोऽयं निर्देशः, सासादनभावः सूत्रे मतः, अन्यथा द्वीन्द्रियादीनामिवैकेन्द्रियाणामपि ज्ञानित्वमुच्येत, न चोच्यते, किं तु विशेषतः प्रतिषिध्यते / तथाहि__ ऐगिदिया णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी ? गोयमा ! नो नाणी नियमा अन्नाणी (भ० श० 8 उ० 2 पत्र 345-2) इति / ___ स चेत्थं सासादनभावप्रतिषेधः सूत्रे मतोऽपि केनचित् कारणेन कार्मग्रन्थिकैर्नाभ्युपगम्यत इतीहापि प्रकरणे नाधिक्रियते, तदभिप्रायस्यैवेह प्रायोऽनुसरणादिति / "नेहाहिगयं सुयमयं पि" इत्येतद् विभक्तिपरिणामेन प्रतिपदं सम्बन्धनीयम्, तथैव सम्बन्धितमिति // 19 // अधुना गुणस्थानकेप्वेव लेश्या अभिधित्सुराह छसु सव्वा तेउतिगं, इगि छसु सुक्का अजोगि अल्लेसा। . बंधस्स मिच्छअविरइकसायजोग त्ति चउ हेऊ // 50 // 'षट्सु' मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्राविरतदेशविरतप्रमत्तलक्षणेषु गुणस्थानकेषु 'सर्वाः' षडपि कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्ललेश्या भवन्ति / "तेउतिगं इगि" ति 'एकस्मिन्' अप्रमत्तगुणस्थानके 'तेजस्त्रिकं' तेजःपद्मशुक्ललेश्यात्रयं भवति, न पुनरावं लेश्यात्रयमित्याल्लब्धम् / 'षट्सु' 1 एकेन्द्रिया भदन्त ! किं ज्ञानिनोऽज्ञानिनः ? गौतम ! नो ज्ञानिनो नियमादज्ञानिनः // Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50-52] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 183 अपूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायोपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिलक्षणेषु गुणस्थानकेषु शुक्ललेश्या भवति न शेषाः पञ्च / 'अयोगिनः' अयोगिकेवलिनः 'अलेश्याः' अपगतलेश्याः। इह लेश्यानां प्रत्येकमसङ्घयेयानि लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि अध्यवसायस्थानानि, ततो मन्दाध्यवसायस्थानापेक्षया शुक्ललेश्यादीनामपि मिथ्यादृष्ट्यादौ, कृष्णलेश्यादीनामपि प्रमत्तगुणस्थानकेऽपि सम्भवो न विरुध्यत इति // तदेवमुक्ता गुणस्थानकेषु लेश्याः / सम्पति बन्धहेतवो वक्तुमवसरप्राप्ताः, ते च मूलभेदतश्चवार उत्तरभेदतश्च सप्तपञ्चाशत् , तानुभयथाऽपि प्रचिकटयिषुराह-"बंधस्स मिच्छ” इत्यादि, 'बन्धस्य ज्ञानावरणादिकर्मबन्धस्य मूलहेतवश्चत्वारः 'इति' अमुना प्रकारेण भवन्ति / केन प्रकारेण : इत्याह-'मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः' तत्र मिथ्यात्वं-विपरीतावबोधखभावम् , अविरतिः-सावद्ययोगेभ्यो निवृत्त्यभावः, कषाययोगाः-प्रामिरूपितशब्दार्थाः / नन्वन्यत्र प्रमादोऽपि बन्धहेतुरभिधीयते, यदवादि मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः / (तत्त्वा० अ० 8 सू०१) इति स कथमिह नोक्तः ? उच्यते--मद्यविषयरूपस्य तस्याविरतावेवान्तर्भावो विवक्षितः / कषायाश्च पृथगेवोक्ताः, वैक्रियारम्भादिसम्भवी तु योगग्रहणेनैव गृहीत इत्यदोष इति // 50 // - उक्ताश्चत्वारो मूलहेतवः / इदानीमुत्रभेदान् प्रचिकटयिषुः प्रथमं मिथ्यात्वस्याविरतेश्चोतरभेदानाह अभिगहियमणभिगहियाऽऽभिनिवेसिय संसइयमणाभोगं / पण मिच्छ यार अविरइ, मणकरणानियम छजियवहो // 51 // अभिग्रहेण-इदमेव दर्शनं शोभनं नान्यद् इत्येवंरूपेण कुदर्शनविषयेण निर्वृत्तमाभिग्रहिकम् , यद्वशाद् बोटिकादिकुदर्शनानामन्यतमं गृह्णाति / तद्विपरीतमनाभिग्रहिकम्, यद्वशात् सर्वाण्यपि दर्शनानि शोभनानीत्येवमीषन्माध्यस्थ्यमुपजायते / 'आभिनिवेशिकं' यद् अभिनिवेशेन निवृत्तम् , यथा गोष्ठामाहिलादीनाम् / 'सांशयिकं' यत् संशयेन निवृत्तम् , यद्वशाद् भगवदर्हदुपदिष्टेष्वपि जीवाजीवादितत्त्वेषु संशय उपजायते, यथा-नजाने किमिदं भगवदुक्तं धर्मास्तिकायादि सत्यम् ? उतान्यथा ? इति / 'अनामोग' यद् अनाभोगेन निर्वृत्तम्, तच्चैकेन्द्रियादीनामिति / "पण मिच्छ" ति पञ्चप्रकारं मिथ्यात्वं भवतीति / द्वादशप्रकाराऽविरतिः, कथम् ? इत्याह-मनःखान्तं, करणानि-इन्द्रियाणि पञ्च तेषां खखविषये प्रवर्तमानानामनियमः-अनियन्त्रणम् , तथा पण्णां-पृथिव्यवेजोवायुवनस्पतित्रसरूपाणां जीवानां वधः-हिंसेति // 51 // अभिहिता मिथ्यात्वाविरत्युत्तरबन्धहेतवः / सम्प्रति कषाययोगोचरबन्धहेतूनाह नव सोल कसाया पनर जोग इय उत्तरा उ सगवन्ना। इगचउपणतिगुणेसुं, चउतिदुइगपञ्चओ बंधो॥५२॥ स्त्रीवेदपुरुषवेदनपुंसकवेदहास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सारूपा नव नोकषायाः, ते च कषायसहचरितत्वाद् उपचारेणेह कषाया इत्युक्ताः / 'षोडश कषायाः' अनन्तानुबन्धिक्रोधादयः / नोकषाकमायलरूपं च सनिस्तरं खोपज्ञकर्मविपाकटीकायां निरूपितमिति तत. एवावधारणीयम् / Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा 'पञ्चदश योगाः' अत्रैव व्याख्यातवरूपाः / 'इति' अमुना प्रदर्शितप्रकारेण पञ्चद्वादशपञ्चविंशतिपञ्चदशलक्षणेन सप्तपञ्चाशत् पुनरुत्तरभेदा बन्धस्य भवन्तीति // प्रदर्शिता बन्धस्य मूलहेतवश्चत्वार उत्तरे सप्तपञ्चाशत्सङ्ख्याः / अधुना बन्धस्य मूलहेतून् गुणस्थानकेषु चिन्तयन्नाह- "इगचउपणतिगुणेसुं” इत्यादि। इहैवं पदघटना-'एकस्मिन्' मिथ्यादृष्टिलक्षणे गुणस्थानके चत्वारः-मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगलक्षणाः प्रत्ययाः-हेतवो यस्य स चतुःप्रत्ययो बन्धो भवति / अयमर्थः-मिथ्यात्वादिभिश्चतुर्मिः प्रत्ययैमिथ्यादृष्टिगुणस्थानकवर्ती जन्तुर्ज्ञानावरणादिकर्म बध्नाति / तथा 'चतुर्यु' गुणस्थानकेषु साखादनमिश्राविरतदेशविरतलक्षणेषु त्रयः-मिथ्यात्वविवर्जिता अविरतिकषाययोगलक्षणाः प्रत्यया यस्य स त्रिप्रत्ययो बन्धो भवतीति / अयमर्थः-साखादनादयश्चत्वारो मिथ्यात्वोदयाभावात् तद्व स्त्रिभिः प्रत्ययैः कर्म बध्नन्ति / देशविरतगुणस्थानके यद्यपि देशतः स्थूलप्राणातिपातविषया विरतिरस्ति तथापि साऽत्पत्वाद् नेह विवक्षिता, विरतिशब्देन इह सर्वविरतेरेव विवक्षितत्वादिति / तथा 'पञ्चसु' गुणस्थानकेषु प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिबादरसूक्ष्मसम्परायलक्षणेषु द्वौ प्रत्ययौ-कषाययोगाभिख्यौ यस्य स द्विप्रत्ययो बन्धो भवति / इदमुक्तं भवति-मिथ्यात्वाविरतिप्रत्ययद्वयस्य एतेप्वभावात् शेषेण कषाययोगप्रत्ययद्वयेनाऽमी प्रमत्तादयः कर्म बध्नन्तीति / तथा 'त्रिषु' उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिलक्षणेषु गुणस्थानकेषु एक एव मिथ्यात्वाविरतिकषायाभावाद् योगलक्षणः प्रत्ययो यस्य स एकप्रत्ययो भवति / अयोगिकेवली भगवान् सर्वथाऽप्यबन्धक इति // 52 // भाविता मूलबन्धहेतवो गुणस्थानकेषु / सम्प्रत्येतानेव मूलबन्धहेतून् विनेयवर्गानुग्रहार्थमुत्तरप्रकृतीराश्रित्य चिन्तयन्नाह चउमिच्छमिच्छअविरइपच्चइया सायसोलपणतीसा। जोग विणु तिपच्चइयाऽऽहारगजिणवज सेसाओ // 53 // प्रत्ययशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् चतुःप्रत्ययिका सातलक्षणा प्रकृतिः / मिथ्यात्वप्रत्ययिकाः षोडश प्रकृतयः / मिथ्यात्वाविरतिप्रत्ययिकाः पञ्चत्रिंशत् प्रकृतयः / योगं विना 'त्रिप्रत्ययिकाः' मिथ्यात्वाविरतिकषायप्रत्ययिका आहारकद्विकजिनवर्जाः शेषाः प्रकृतय इति गाथाक्षरार्थः / भावार्थः पनरयम्-सातलक्षणा प्रकृतिश्चत्वारः प्रत्यया मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगा यस्याः सा चतुःप्रत्ययिका, “अतोऽनेकखराद् (सि०७-२-६) इतीकप्रत्ययः, मिथ्यात्वादिभिश्चतुर्भिरपि प्रत्ययैः सातं बध्यत इत्यर्थः / तथाहि-सातं मिथ्यादृष्टौ बध्यत इति मिथ्यात्वप्रत्ययम् , शेषा अप्यविरत्यादयस्त्रयः प्रत्ययाः सन्ति, केवलं मिथ्यात्वस्य एवेह प्राधान्येन विवक्षितत्वात् ते तदन्तर्गतत्वेनैव विवक्षिताः, एवमुत्तरत्रापि / तदेव मिथ्यात्वाभावेऽप्यविरतिमत्सु साखा- . दनादिषु बध्यत इत्यविरतिप्रत्ययम् / तदेव कषाययोगवत्सु प्रमत्तादिषु सूक्ष्मसम्परायावसानेषु बध्यत इति कषायप्रत्ययम् , योगप्रत्ययस्तु पूर्ववत् तदन्तर्गतो विवक्ष्यते / तदेवोपशान्तादिषु केवलयोगवसु मिथ्यात्वाविरतिकषायाभावेऽपि बध्यत इति योगप्रत्ययमिति / एवं सातलक्षणा प्रकृतिश्चतुःप्रत्ययिका / तथा मिथ्यात्वप्रत्ययिकाः षोडश प्रकृतयः / इह यासां कर्मस्तवे"नरयतिग 3 जाइ 4 थावरचउ 4 हुंडा १ऽऽयव 1 छिवट्ठ 1 नपु 1 मिच्छं 1 / सोलंतो" Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53-55] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः। 185 (गा० 4) इति गाथावयवेन नारकत्रिकादिषोडशप्रकृतीनां मिथ्यादृष्टावन्त उक्तस्ता मिथ्यात्वप्रत्ययाः भवन्तीत्यर्थः / तद्भावे बध्यन्ते तदभावे तूतरत्र साखादनादिषु न बध्यन्त इत्यन्वयव्यतिरेकाभ्यां मिथ्यात्वमेवासां प्रधानं कारणम् , शेषप्रत्ययत्रयं तु गौणमिति / तथा मिथ्यात्वाविरतिप्रत्ययिकाः पञ्चत्रिंशत् प्रकृतयः, तथाहि-"सासणि तिरि 3 थीण 3 दुहग 3 तिगं // अण 4 मज्झागिइ 4 संघयणचउ 4 नि 1 उज्जोय 1 कुखगइ 1 स्थि 1 ति।" (कर्मस्त० गा०४-५) इति सूत्रावयवेन तिर्यत्रिकप्रभृतिपञ्चविंशतिप्रकृतीनां सास्वादने बन्धव्यवच्छेद उक्तः, तथा—“वइर 1 नरतिय 3 बियकसाया 4 / उरलदुगंतो 2" (कर्मस्त० गा० 6) इति सूत्रावयवेन वज्रर्षभनाराचादीनां दशानां प्रकृतीनां देशविरते बन्धव्यवच्छेद उक्तः, एवं च पञ्चविंशतेर्दशानां च मीलने पञ्चत्रिंशत् प्रकृतयो मिथ्यात्वाविरतिप्रत्ययिका एताः, शेषप्रत्ययद्वयं तु गौणम् , तद्भावेऽप्युत्तरत्र तद्वन्धाभावादिति भावः / भणितशेषा आहारकद्विकतीर्थकरनामवर्जाः सर्वा अपि प्रकृतयो योगवर्जत्रिप्रत्ययिका भवन्ति, मिथ्यादृष्ट्यविरतेषु सकायेषु च सर्वेषु सूक्ष्मसम्परायावसानेषु यथासम्भवं बध्यन्त इति मिथ्यात्वाविरतिकषायलक्षणप्रत्ययत्रयनिबन्धना भवन्तीत्यर्थः / उपशान्तमोहादिषु केवलयोगवत्सु योगसद्भावेऽप्येतासां बन्धो नास्तीति योगप्रत्ययवजनम् , अन्वयव्यतिरेकसमधिगम्यत्वात् कार्यकारणभावस्येति हृदयम् / आहारकशरीराहारकाङ्गोपाअलक्षणाहारकद्विकतीर्थकरनाम्नोस्तु प्रत्ययः “सम्मत्तगुणनिमित्तं, तित्थयरं संजमेण आहारं / " (बृहच्छत० गा० 45) इति वचनात् संयमः सम्यक्त्वं चाभिहित इतीह तद्वर्जनमिति // 53 // उक्तं प्रासङ्गिकम् / इदानीमुत्तरबन्धभेदान् गुणस्थानकेषु चिन्तयन्नाह पणपन्न पन्न तियछहिय चत्त गुणचत्त छचउदुगवीसा। . सोलस दस नव नव सत्त हेउणो न उ अजोगिम्मि // 54 // मिथ्यादृष्टौ पञ्चपञ्चाशद् बन्धहेतवः 1 / सासादने पञ्चाशद् बन्धहेतवः 2 / चत्तशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् ब्यधिकचत्वारिंशदित्यर्थः, बन्धहेतवो मिश्रगुणस्थानके 3 / षडधिकचत्वारिंशद् बन्धहेतवोऽविरतिगुणस्थानके 4 / एकोनचत्वारिंशद् बन्धहेतवो देशविरतगुणस्थानके 5 / विंशतिशब्दस्य प्रत्येक सम्बन्धात् षड्डिंशतिबन्धहेतवः प्रमत्तगुणस्थाने 6 / चतुर्विशतिर्बन्धहेतवोऽप्रमत्तगुणस्थानके 7 / द्वाविंशतिबन्धहेतवोऽपूर्वकरणे 8 / षोडश बन्धहेतवोऽनिवृत्तिबादरे 9 / दश बन्धहेतवः सूक्ष्मसम्पराये 10 / नव बन्धहेतव उपशान्तमोहे 11 / नव बन्धहेतवः क्षीणमोहे 12 / सप्त बन्धहेतवः सयोगिकेवलिगुणस्थाने 13 / 'न तु' नैवायोगिन्येकोऽपि बन्धहेतुरस्ति, बन्धाभावादेवेति // 54 // अथामूनेव बन्धहेतून् भावयन्नाह पणपन्न मिच्छि हारगदुगूण सासाणि पन्न मिच्छ विणा। मिस्सदुगकम्मअण विणु तिचत्त मीसे अह छचत्ता // 55 // मिथ्यादृष्टौ आहारकाहारकमिश्रलक्षणद्विकोनाः पञ्चपञ्चाशद् बन्धहेतवो भवन्ति, आहारकद्विकवर्जनं तु “संयमवतां तदुदयो नान्यस्य" इति वचनात् / साखादने मिथ्यात्वपञ्चकेन विना पञ्चाशद् बन्धहेतवो भवन्ति, पूर्वोक्तायाः पञ्चपञ्चाशतो मिथ्यात्वपञ्चकेऽपनीते पञ्चाशद् बन्धहे 1 सम्यक्लगुणनिमित्तं तीर्थकर संयमेनाहारकम् // क. 24 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा तवः सासादने द्रष्टव्याः / मि त्रिचत्वारिंशद् बन्धहेतवो भवन्ति, कथम् ? इत्याह–'मिश्रद्विकम्' औदारिकमिश्रवैक्रियमिश्रलक्षणं “कम्म" ति कार्मणशरीरं "अण" ति अनन्तानुबधिनस्तैर्विना / इयमत्र भावना-"न सम्ममिच्छो कुणइ कालं" इति वचनात् सम्यग्मिध्यादृष्टेः परलोकगमनाभावाद् औदारिकमिश्रवैक्रियमिद्विकं कार्मणं च न सम्भवति, अनन्तानुबन्ध्युदयस्य चास्य निषिद्धत्वाद् अनन्तानुबन्धिचतुष्टयं च नास्ति, अत एतेषु सप्तसु पूर्वोक्तायाः पञ्चाशतोऽपनीतेषु शेषास्त्रिचत्वारिंशद् बन्धहेतवो मिश्रे भवन्ति / 'अथ' अनन्तरं षट्चत्वारिंशद् बन्धहेतवो भवन्ति // 55 // सदुमिस्सकम्म अजए, अविरइकम्मुरलमीसबिकसाए। मुत्तु गुणचत्त देसे, छवीस साहारदु पमत्ते॥५६॥ क? इत्याह-'अयते' अविरते, कथम् ? इत्याह-"सदुमिस्सकम्म" ति द्वयोर्मिश्रयोः समाहारो द्विमिश्रम् , द्विमिश्रं च कार्मणं च द्विमिश्रकार्मणम् , सह द्विमिश्रकार्मणेन वर्तते या त्रिचत्वारिंशत् / इयमत्र भावना-अविरतसम्यग्दृष्टेः परलोकगमनसम्भवात् पूर्वापनीतमौदारिकमिश्रवैक्रियमिश्रलक्षणं द्विकं कार्मणं च पूर्वोक्तायां त्रिचत्वारिंशति पुनः प्रक्षिप्यते ततोऽविरते षट्चत्वारिंशद् बन्धहेतवो भवन्ति / तथा 'देशे' देशविरते एकोनचत्वारिंशद् बन्धहेतवो भवन्ति, कथम् ? इत्याह-अविरतिः-त्रसासंयमरूपा कार्मणम् औदारिकमिश्रं द्वितीयकषायान्-अप्रत्याख्यानावरणान् मुक्त्वा शेषा एकोनचत्वारिंशदिति / अत्रायमाशयः-विग्रहगतावपर्याप्तकावस्थायां च देशविरतेरभावात् कार्मणौदारिकमिश्रद्वयं न सम्भवति, त्रसासंयमाद् विरतत्वात् साविरतिर्न जाघटीति / ननु त्रसासंयमात् सङ्कल्पजाद् एवासौ विरतो न त्वारम्भजादपि तत् कथमसौ त्रसाविरतिः सर्वाऽप्यपनीयते ?, सत्यम्, किन्तु गृहिणामशक्यपरिहारत्वेन सत्यप्यारम्भजा साविरतिर्न विवक्षितेत्यदोषः / एतच्च बृहच्छतकबृहचूर्णिमनुसृत्य लिखितमिति न खमनीषिका परिभावनीया / तथाऽप्रत्याख्यानावरणोदयस्याऽस्य निषिद्धत्वाद् इत्यप्रत्याख्यानावरणचतुष्टयं न घटां प्राञ्चति / तत एते सप्त पूर्वोक्तायाः षट्चत्वारिंशतोऽपनीयन्ते तत एकोनचत्वारिंशद् बन्धहेतवः शेषा देशविरते भवन्ति / तथा षड्शितिर्बन्धहेतवः प्रमते भवन्ति / “साहारदु" ति सह आहारद्विकेनआहारकाहारकमिश्रलक्षणेन वर्तत इति साहारकद्विका // 56 // अविरह इगार तिकसायवज अपमत्ति भीसदुगरहिया। चवीस अपुव्वे पुण, दुवीस अविउव्वियाहारा // 57 // त्रसाविरतेदेशविरतेऽपनयनात् शेषा एकादशाविरतय इह गृह्यन्ते, तृतीयाः कषायास्त्रिकषायाः-प्रत्याख्यानावरणास्तद्वर्जाः-तद्विरहिता साहारकद्विका च सैव एकोनचत्वारिंशत् षडिंशतिर्भवति / इदमत्र हृदयम्-प्रमत्तगुणस्थान एकादशधा अविरतिः प्रत्याख्यानावरणचतुष्टयं च न सम्भवति, आहारकद्विकं च सम्भवति, ततः पूर्वोक्ताया एकोनचत्वारिंशतः पञ्चदशकेऽपनीते द्विके च तत्र प्रक्षिप्ते षड्विंशतिबन्धहेतवः प्रमत्ते भवन्तीति / तथा अप्रमत्तस्य लब्ध्यनुपजीवनेनाऽऽहारकमिश्रवैक्रियमिश्रलक्षणमिश्रद्विकरहिता सैव पड्विंशतिश्चतुर्विशतिर्बन्धहेतवोऽप्रमचे Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56-59) षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 187 भवन्ति / 'अपूर्वे' अपूर्वकरणे पुनः सैव चतुर्विशतिक्रियाहारकरहिता द्वाविंशतिर्बन्धहेतवो भवन्तीति // 57 // अछहास सोल बायरि, सुहुमे दस वेयसंजलणति विणा / खीणुवसंति अलोभा, सजोगि पुवुत्त सग जोगा // 58 // एते च पूर्वोक्ता द्वाविंशतिबन्धहेतवः 'अछहासाः' हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सालक्षणहास्यषट्करहिताः षोडश बन्धहेतवः “वायरि" ति अनिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानके भवन्ति, हास्यादिषद्कस्यापूर्वकरणगुणस्थानक एव व्यवच्छिन्नत्वादिति भावः / तथा त एव षोडश त्रिकशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धाद् वेदत्रिकं-स्त्रीपुंनपुंसकलक्षणं सज्वलनत्रिकं-सज्वलनक्रोधमानमायारूपं तेन विना दश वन्धहेतवः सूक्ष्मसम्पराये भवन्ति, वेदत्रयस्य सज्वलनक्रोधमानमायात्रिकस्य चानिवृत्तिबादरसम्परायगुणस्थानक एव व्यवच्छिन्नत्वात् / त एव दश 'अलोभाः' लोभरहिताः सन्तो नव बन्धहेतवः क्षीणमोहे उपशान्तमोहे च भवन्ति, मनोयोगचतुष्कवाग्योगचतुष्कौदारिककाययोगलक्षणा नव बन्धहेतव उपशान्तमोहे क्षीणमोहे च प्राप्यन्ते, न तु लोभः, तस्य सूक्ष्मसम्पराय एवं व्यवच्छिन्नत्वात् / सयोगिकेवलिनि पूर्वोक्ताः सप्त योगाः, तथाहि-औदारिकमौदारिकमिश्रं कार्मणं प्रथमान्तिमौ मनोयोगौ प्रथमान्तिमौ वाम्योगी चेति / तत्रौदारिक सयोग्यवस्थायाम् औदारिकमिश्रकार्मणकाययोगी समुद्धातावस्थायामेव वेदितव्यौ / मिश्रौदारिकयोक्ता, सप्तमषष्ठद्वितीयेषु // (प्रशम० का० 276) कार्मणशरीरयोगी, चतुर्थके पञ्चमे तृतीये च / (प्रशम० का० 277) इति / प्रथमान्तिममनोयोगौ भगवतोऽनुत्तरसुरादिभिर्मनसा पृष्टस्य मनसैव देशनात् , प्रथमान्तिमवाग्योगौ तु देशनादिकाले / अयोगिकेवलिनि न कश्चिद् बन्धहेतुः, योगस्यापि व्यवच्छिन्नत्वात् // 58 // उक्ता गुणस्थानकेषु बन्धहेतवः / सम्प्रति गुणस्थानकेष्वेव बन्धं निरूपयन्नाह___ अपमत्तंता सत्तह मीसअप्पुव्ववायरा सत्त। बंधइ छ स्सुहुमो एगमुवरिमाऽयंधगाऽजोगी॥५९॥ मिथ्यादृष्टिप्रभृतयोऽप्रमत्तान्ताः सप्ताष्टौ वा कर्माणि बध्नन्ति, आयुर्वन्धकालेऽष्टौ शेषकालं तु सप्त / “मीसअप्पुबबायरा" इति मिश्रापूर्वकरणानिवृत्तिबादराः सप्तैव बन्नन्ति, तेषामायुर्वन्धाभावात् / तत्र मिश्रस्य तथाखाभाव्याद् इतरयोः पुनरतिविशुद्धत्वाद् आयुर्वन्धस्य च घोलनापरिणामनिबन्धनत्वात् / “छ स्सुहुमु" ति सूक्ष्मसम्परायो मोहनीयायुर्वर्जानि षट् कर्माणि बध्नाति, मोहनीयबन्धस्य बादरकषायोदयनिमित्तत्वात् , तस्य च तदभावात् , आयुर्बन्धाभावस्त्वतिविशुद्धस्वादवसेयः / “एगमुवरिम" ति 'एक' सातदेवनीयं कर्म 'उपरितनाः' सूक्ष्मसम्परायाद् उपरिष्टाद्वर्तिन उपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगिकेवलिनो बध्नन्ति, न शेषकर्माणि, तद्वन्धहेतुत्वाभावात् / 'अबन्धकः' सर्वकर्मप्रपञ्चबन्धरहितः 'अयोगी' चरमगुणस्थानकवर्ती, सर्वबन्धहेतुत्वाभावादिति // 59 // उक्ता गुणस्थानकेषु बन्धस्थानयोजना / साम्प्रतं गुणस्थानकेष्वेवोदयसत्तास्थानयोजनां निरूपयन्नाह१सयोग्यवस्था क०ख० ग० घ००॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा आसुहम संतुदए, अहवि मोह विणु सत्त खीणम्मि / चउ चरिमदुगे अह उ, संते उवसंति सत्तुदए // 60 // सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकमभिव्याप्य सत्तायामुदये चाष्टावपि कर्मप्रकृतयो भवन्ति / अयमर्थः-मिथ्यादृष्टिगुणस्थानकमारभ्य सूक्ष्मसम्परायं यावत् सत्तायामुदये चाष्टावपि कर्माणि प्राप्यन्ते / 'मोहं विना' मोहनीयं वर्जयित्वा सप्त कर्मप्रकृतयो भवन्ति 'क्षीणे' क्षीणमोहगुणस्थानके, सत्तायामुदये च मोहनीयस्य क्षीणत्वात् / “चउ चरिमदुगे" त्ति 'चरमद्विके' सयोग्ययोगिकेवलिगुणस्थानद्वये सत्तायामुदये च चतस्रोऽघातिकर्मप्रकृतयो भवन्ति, तत्र घातिकर्मचतुष्टयस्य क्षीणत्वात् / “अट्ठ उ संते उवसंति सत्तुदए" ति तुशब्दस्य व्यवहितसम्बन्धाद् उपशान्तमोहगुणस्थानके पुनरष्टावपि कर्मप्रकृतयः सत्तायां प्राप्यन्ते, सप्तोदये मोहनीयोदयाभावादिति भावः // 60 // उक्ता सत्तोदयस्थानयोजना / साम्प्रतमुदीरणास्थानानि गुणस्थानकेषु निरूपयिषुराह उइरंति पमत्तंता, सगढ़ मीसह वेयआउ विणा। छग अपमत्ताइ तओ, छ पंच सुहुमो पणुवसंतो।। 61 // मिथ्यादृष्टिप्रभृतयः प्रमत्तान्ता यावद् अद्याप्यनुभूयमानभवायुरावलिकाशेषं न भवति तावत् सर्वेऽप्यमी निरन्तरमष्टावपि कर्माण्युदीरयन्ति / आवलिकावशेषे पुनरनुभूयमाने भवायुषि सप्तैव, आवलिकावशेषस्य कर्मण उदीरणाया अभावात् , तथास्वाभाव्यात् / “मीस?" ति सम्यग्मिध्यादृष्टिः पुनरष्टावेव कर्माण्युदीरयति, न तु कदाचनापि सप्त, सम्यग्मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके वर्तमानस्य सत आयुष आवलिकावशेषत्वाभावात् / स ह्यन्तर्मुहूर्तावशेषायुष्क एव तद्भावं परित्यज्य सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं वा नियमात् प्रतिपद्यत इति / 'अप्रमत्तादयस्त्रयः' अप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिबादरलक्षणा 'वेद्यायुर्विना' वेदनीयायुपी अन्तरेण षट् कर्माणि उदीरयन्ति, तेषामतिविशुद्धतया वेदनीयायुषोरुदीरणायोग्याध्यवसायस्थानाभावात् / “छ पंच सुहुमो" ति [ 'सूक्ष्मः' सूक्ष्मसम्परायः षट् पञ्च वा कर्माण्युदीरयति / ] तत्र षड् अनन्तरोक्तानि, तानि च तावद् उदीरयति यावद् मोहनीयमावलिकावशेषं न भवति / आवलिकावशेषे च मोहनीये तस्याप्युदीरणाया अभावात् शेषाणि पञ्च कर्माण्युदीरयति / "पणुवसंतु" त्ति उपशान्तमोहः पञ्च कर्माप्युदीरयति न वेदनीयायुर्मोहनीयकर्माणि, तत्र वेदनीयायुषोः कारणं प्रागेवोक्तम् , मोहनीयं तूदयाभावाद् नोदीर्यते, "वेद्यमानमेवोदीर्यते” इति वचनादिति // 61 // पण दो खीण दु जोगी गुदीरगु अजोगि थेव उवसंता। संखगुण खीण सुहुमा, नियहिअप्पुव्व सम अहिया // 62 // . क्षीणमोहोऽनन्तरोक्तानि पञ्च कर्माण्युदीरयति / तानि च तावद् उदीरयति यावद् ज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायाण्यावलिकाप्रविष्टानि न भवन्ति, आवलिकाप्रविष्टेषु तु तेषु तेषामप्युदीरणाया अभावात् / द्वे एव नामगोत्रलक्षणे कर्मणी उदीरयति / "दु जोगि' ति 'वे' कर्मणी नामगोत्राख्ये योगा नाम-मनोवाकायरूपा विद्यन्ते यस्य स योगी-सयोगिकेवली उदीरयति, न शेषाणि / घातिकर्मचतुष्टयं तु मूलत एव क्षीणमिति न तस्योदीरणासम्भवः, वेदनीयायुषो Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60-64] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 189 स्तूदीरणा पूर्वोक्तकारणादेव न भवति / "णुदीरगु अजोगि" ति अयोगिकेवली न कस्यापि कर्मण उदीरकः, योगसव्यपेक्षत्वाद् उदीरणायाः, तस्य च योगाभावादिति // उक्ता गुणस्थानकेषूदीरणास्थानयोजना / सम्प्रति गुणस्थानकेष्वेव वर्तमानानां जन्तूनामल्पखबहुत्वमाह-"थैव उवसंत" ति स्तोकाः 'उपशान्ताः' उपशान्तमोहगुणस्थानवर्तिनो जीवाः, यतस्ते प्रतिपद्यमानका उत्कर्षतोऽपि चतुःपञ्चाशत्प्रमाणा एव प्राप्यन्त इति / तेभ्यः सकाशात् क्षीणमोहाः सङ्ख्येयगुणाः, यतस्ते प्रतिपद्यमानका एकस्मिन् समयेऽष्टोत्तरशतप्रमाणा अपि लभ्यन्ते / एतच्चोत्कृष्टपदापेक्षयोक्तम् अन्यथा कदाचिद् विपर्ययोऽपि द्रष्टव्यः-स्तोकाः क्षीणमोहाः, बहवस्तु तेभ्य उपशान्तमोहाः / तथा तेभ्यः क्षीणमोहेभ्यः सकाशात् सूक्ष्मसम्परायानिवृत्तिबादरापूर्वकरणा विशेषाधिकाः / स्वस्थाने पुनरेते चिन्त्यमानास्त्रयोऽपि 'समाः' तुल्या इति // 62 // जोगिं अपमत्त इयरे, संखगुणा देससासणामीसा। अविरय अजोगिमिच्छा, असंख चउरो दुवे गंता // 63 // तेभ्यः सूक्ष्मादिभ्यः सयोगिकेवलिनः सङ्ख्यातगुणाः, तेषां कोटीपृथक्त्वेन लभ्यमानत्वात् / तेभ्योऽप्रमत्ताः सङ्घयेयगुणाः, कोटीसहस्रपृथक्त्वेन प्राप्यमाणत्वात् / तेभ्यः "इयरे" ति अप्रमत्तप्रतियोगिनः प्रमत्ताः सङ्ख्येयगुणाः / प्रमादभावो हि बहूनां बहुकालं च लभ्यते विपर्ययेण त्वप्रमाद इति न यथोक्तसङ्ख्याव्याघातः / “देस" इत्यादि देशविरतसाखादनमिश्राविरतलक्षणाश्चत्वारो यथोत्तरमसङ्ख्येयगुणाः / अयोगिमिथ्यादृष्टिलक्षणौ च द्वौ यथोत्तरमनन्तगुणौ / तत्र प्रमत्तेभ्यो देशविरता असङ्घयेयगुणाः, तिरश्चामप्यसङ्ख्यातानां देशविरतिभावात् / साखादनास्तु कदाचित् सर्वथैव न भवन्ति, यदा भवन्ति तदा जघन्येनैको द्वौ वा, उत्कर्षतस्तु देशविरतेभ्योऽप्यसङ्ख्येयगुणाः / तेभ्योऽपि मिश्रा असङ्ख्येयगुणाः, साखादनाद्धाया उत्कर्षतोऽपि षडावलिकामात्रतया स्तोकत्वात् , मिश्राद्धायाः पुनरन्तर्मुहूर्तप्रमाणतया प्रभूतत्वात् / तेभ्योऽप्यसायेयगुणा अविरतसम्यग्दृष्टयः, तेषां गतिचतुष्टयेऽपि प्रभूततया सर्वकालसम्भवात् / तेभ्योऽप्ययोगिकेवलिनो भवस्थाभवस्थभेदभिन्ना अनन्तगुणाः, सिद्धानामनन्तत्वात् / तेभ्योऽप्यनन्तगुणा मिथ्यादृष्टयः, साधारणवनस्पतीनां सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वात् तेषां च मिथ्यादृष्टित्वादिति // 63 // - तदेवमभिहितं गुणस्थानवर्तिनां जीवानामल्पबहुत्वम् / इदानीं "नमिय जिणं जियमग्गण" (गा० 1) इत्यादि द्वारगाथासूचितं भावद्वारं व्याचिख्यासुराह___ उवसमखयमीसोदयपरिणामा दु नव ठार इगवीसा / 'तियभेय सन्निवाइय सम्मं चरणं पढम भावे // 64 // ___ इह किल षड् भावा भवन्ति / विशिष्टहेतुभिः खतो वा जीवानां तत्तद्रूपतया भवनानि भवन्त्येभिरुपशमादिभिः पर्यायैरिति वा भावाः / किनामानः पुनस्ते ? इत्याह-"उवसमखयमीसोदय" इत्यादि / अत्र सूचकत्वात् सूत्रस्यैवं प्रयोगः, "उवसम" त्ति औपशमिको भावः, "खय" ति क्षायिको भावः, “मीस" त्ति क्षायोपशमिको भावः, “उदय' ति औदयिको भावः, “परिणाम" ति पारिणामिको भावः / तत्रोपशमनमुपशमः-विपाकप्रदेशरूपतया द्विविधस्याप्युदयस्य विष्कम्भणं स एव तेन वा निवृत्त औपशमिकः / क्षयः-कर्मणोऽत्यन्तोच्छेदः Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा स एव तेन वा निवृत्तः क्षायिकः / क्षयश्च-समुदीर्णस्याभावः उपशमश्च-अनुदीर्णस्य विष्कम्भितोदयत्वं ताभ्यां निवृत्तः क्षायोपशमिकः / उदयः-शुभाशुभप्रकृतीनां विपाकतोऽनुभवनं स एव तेन वा निवृत्त औदयिकः / परि-समन्ताद् नमनं-जीवानामजीवानां च जीवत्वादिखरूपानुभवनं प्रति प्रवीभवनं परिणामः स एव तेन वा निवृत्तः पारिणामिकः / एतेषामेव यथासञ्चयं भेदानाह- "दु नव ठार इगवीसा तिय भेय" ति द्वौ भेदावौपशमिकस्य 1 नव भेदाः क्षायिकस्य 2 अष्टादश भेदाः क्षायोपशमिकस्य 3 एकविंशतिभेदा औदयिकस्य 4 त्रयो भेदाः पारिणामिकस्य 5 / "संनिवाइय" ति सम्-इति संहतरूपतया नि-इति नियतं पतनं-गमनमेकत्र वर्तनं सन्निपातः, कोऽर्थः ? एषामेव व्यादिसंयोगप्रकारस्तेन निर्वृतः सान्निपातिकः, अयं च षष्ठो भावः 6 / अथ “यथोद्देशं निर्देशः" इति न्यायात् औपशमिकादिभावानां द्यादीन् भेदान् प्रचिकटयिषुराह-"सम्मं चरणं पढम भावे" ति इह यथासङ्घयं दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयकर्मोपशमभूतं सम्यक्त्वं चरणं च 'प्रथमे' आये 'भावे' औपशमिकलक्षणे भवतीति शेषः / इति निरूपितौ द्वौ भेदावौपशमिकभावस्य // 64 // पीए केवलजुयलं, सम्मं दाणाइलद्धि पण चरणं / तइए सेसुवओगा, पण लद्धी सम्म विरइदुगं // 65 // 'द्वितीये क्षायिके भावे. नव भेदा भवन्ति / तथाहि-'केवलयुगलं' केवलज्ञानं केवलदर्शनम् / तत्र केवलज्ञानावरणक्षयभूतत्वेन. क्षायिक केवलज्ञानं 1 केवलदर्शनावरणक्षयसम्भूतं क्षायिकं केवलदर्शनं 2 दर्शनमोहनीयक्षयसमुत्थं क्षायिकं सम्यक्त्वं 3 'दानादिलब्धयः पञ्च' दानलाभभोगोपभोगवीर्यलक्षणा दानादिरूपपञ्चप्रकारान्तरायक्षयोद्भूताः क्षायिक्यः 8 चारित्रमोहनीयक्षयसम्भूतं च क्षायिकं चरणं यथाख्यातसंज्ञितमित्यर्थः 9 / तथा 'तृतीये' क्षायोपशमिकभावेऽष्टादश भेदा भवन्ति / तद्यथा-'शेषोपयोगाः' केवलज्ञानकेवलदर्शनव्यतिरिक्ता मतिज्ञानश्रुतज्ञानावधिज्ञानमनःपर्यवज्ञानरूपज्ञानचतुष्टयमत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानरूपाज्ञानत्रिकचक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शनावधिदर्शनलक्षणदर्शनत्रिकखरूपा दशोपयोगाः 10 "पण लद्धि" ति पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् दानलाभभोगोपभोगवीर्यलक्षणा लब्धयः पञ्च 5 "सम्म" चि सम्यक्त्वं 1 'विरतिद्विकं' देशविरतिसर्वविरतिलक्षणम् 2 इत्येतेऽष्टादश भेदाः क्षायोपशमिके भवन्ति / तत्र चत्वारि ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि ज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमसम्भूतत्वेन, त्रीणि दर्शनानि दर्शनावरणक्षयोपशमोद्भूतत्वेन, दानादिपञ्चलब्धयः पञ्चविधान्तरायकर्मक्षयोपशमजन्यत्वेन क्षायोपशमिकभावान्तर्वर्तिन्य इति / __ ननु दानादिलब्धयः पूर्व क्षायिकभाववर्तिन्य उक्ताः, इह तु क्षायोपशमिक्य इति कथं न विरोधः ! नैतदेवम् , अभिप्रायापरिज्ञानात् / इह दानादिलब्धयो द्विविधा भवन्ति-अन्तरायकर्मणः क्षयसम्भविन्यः क्षयोपशमसम्भविन्यश्च / तत्र च याः क्षायिक्यः पूर्वमुक्तास्ताः क्षयसम्भूतत्वेन केवलिन एव, याः पुनरिह क्षायोपशमिकान्तर्गता उच्यन्ते ताः क्षयोपशमसम्भूताश्छअस्थानामेव / सम्यक्त्वसर्वविरती अपि क्षायोपशमिके अत्र माझे, ते च यथासङ्घयं दर्शनमोहनीयचारित्रमोहनीयक्षयोपशमोद्भवत्वेन प्रस्तुतभाव एव वर्तेते इति भावः / देशविरतिरप्यप्र Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 65-66] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः। त्याख्यानावरणक्षयोपशमजत्वेन क्षायोपशमिकभावे वर्तत एवेति // 65 // अन्नाणमसिद्धत्तासंजमलेसाकसायगइवेया। मिच्छं तुरिए भव्वाभवत्तजियत्तपरिणामे // 66 // . अज्ञानम् 1 असिद्धत्वम् 2 असंयमः 3 लेश्याः-कृष्णनीलकापोततेजःपद्मशुक्ललेश्याभेदात षट् 9 कषायाः-क्रोधमानमायालोभाख्याश्चत्वारः 13 गतिः- नरकतिर्यअनुष्यसुरगतिभेदाचतुर्धा 17 वेदाः-सीपुंनपुंसकाख्यास्त्रयः 20 मिथ्यात्वम् 21 इत्येते एकविंशतिभेदाः 'तुर्ये' चतुर्थे औदयिके भावे भवन्तीत्यक्षरार्थः / भावार्थः पुनरयम्-इहासदध्यवसायात्मकं सज्ज्ञानमप्यज्ञानं तच मिथ्यात्वोदयजमेव / यदभ्यधायि __ ह दुधयणमवयणं, कुच्छिय सीलं असीलमसईए। __ भन्नइ तह नाणं पि हु, मिच्छद्दिहिस्स अन्नाणं / / (विशेषा० गा० 520) ____ असिद्धत्वमपि सिद्धत्वाभावरूपमष्टप्रकारकर्मोदयजमेव / असंयमः-अविरतत्वं तदप्यप्रत्याख्यानावरणोदयाद् जायते / लेश्यास्तु येषां मते कषायनिप्यन्दो लेश्याः तन्मतेन कषायमोहनीयोदयजत्वाद् औदयिक्यः, यन्मतेन तु योगपरिणामो लेश्याः तदभिप्रायेण योगत्रयजनककर्मोदयप्रभवाः, येषां त्वष्टकर्मपरिणामो लेश्यास्तन्मतेन संसारित्वासिद्धत्ववद् अष्टप्रकारकर्मोद• यजा इति / कषायाः-क्रोधमानमायालोभरूपा मोहनीयकर्मोदयादेव भवन्ति / इह गतयःगतिनामकर्मोदयादेव नारकत्वतिर्यक्त्वमनुजत्वदेवत्वलक्षणपर्याया जायन्त इति / वेदाः-स्त्रीपुंनपुंसकाख्या नोकषायमोहनीयोदयादेव जायमानाः स्पष्टमौदयिका एवेति / मिथ्यात्वमपि अतत्त्वश्रद्धानरूपं मिथ्यात्वमोहनीयोदयजमेव इत्यौदयिकं प्रतीतमिति / / ननु निद्रापञ्चकसातादिवेदनीयहास्यरत्यरतिप्रभृतयः प्रभूततरभावा अन्येऽपि कर्मोदयजन्याः सन्ति तत् किमित्येतावन्त एवैते निर्दिष्टाः ?, सत्यम् , उपलक्षणत्वादन्येऽपि द्रष्टव्याः, केवलं पूर्वशास्त्रेषु प्राय एतावन्त एव निर्दिष्टा दृश्यन्त इत्यत्राप्येतावन्त एवास्माभिः प्रदर्शिताः / तथा भव्यत्वम् 1 अभव्यत्वं 2 जीवत्वम् 3 इत्येते त्रयो भेदाः पारिणामिके भावे भवन्ति / तदेवं द्विभेद औपशमिको भावः 2 नवभेदः क्षायिकः 9 अष्टादशभेदः क्षायोपशमिकः 18 एकविंशतिभेद औदयिकः 21 त्रिभेदः पारिणामिकः 3 / सर्वेऽपि भावपञ्चकभेदास्त्रिपञ्चाशदिति // 66 // प्ररूपितं सप्रभेदं भावपञ्चकम् / अधुना सान्निपातिकाख्यषष्ठभावभेदप्ररूपणायोपक्रम्यतेतत्र च यद्यप्यौपशमिकादिभावानां पञ्चानामपि द्विकादिसंयोगभङ्गाः षड्विंशतिर्भवन्ति, तद्यथा औपशमिक 1 क्षायिक 2 क्षायोपशमिक 3 औदयिक 4 पारिणामिक 5 इति भावपञ्चक पट्टकादावालिख्यते ततो दश द्विकसंयोगा अक्षसंचारणया लभ्यन्ते, दशैव त्रिकसंयोगाः, पञ्च चतुष्कसंयोगाः, एकः पञ्चकसंयोग इति / तथापि षडेव संयोगा जीवेष्वविरुद्धाः सम्भवन्ति / शेषास्तु विंशतिः संयोगभङ्गाः प्ररूपणामात्रभावित्वेनाऽसम्भविन एव, अतः सम्भविषड्भेदद्वारेण गत्यायाश्रिता यावन्तः सानिपातिकभावभेदाः सम्भवन्ति यावन्तश्च न सम्भवन्ति तदेतत् प्रकटयत्राह 1 यथा दुर्वचनमवचनं कुत्सितं शीलमशीलमसत्याः / भण्यते तथा मानमपि खलु मिष्याइष्टेरशानम् // Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा चउ चउगईसु मीसगपरिणामुदएहिँ चउ सखइएहिं / उवसमजुएहिँ वा चउ, केवलि परिणामुदयखइए // 67 // चत्वारो भङ्गाश्चतसृषु गतिषु चिन्त्यमानासु भवन्ति / कैः कृत्वा ? इत्याह-मिश्रकपारिणामिकौदयिकैर्भावैावर्णितखभावैः / इयमत्र भावना-गतिचतुष्टयद्वारेण चिन्त्यमानः क्षायोपशमिकपारिणामिकौदयिकलक्षण एकोऽप्ययं त्रिकसंयोगरूपः सानिपातिको भावश्चतुर्धा भवति / तथाहि-मायोपशमिकानीन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वादि, औदयिकी नरकगतिः इत्येको नरकगत्याश्रितस्त्रिकसंयोगः / एवं तिर्यमनुष्यदेवगत्यभिलापेन त्रयो भङ्गका अन्येऽपि वाच्या इति / एवं चतुर्विधां गतिं प्रतीत्य त्रिकसंयोगेन चत्वारो भेदा निरूपिताः / सम्प्रति चतुःसंयोगेन चतुरो भेदानाह-"चउ सखइएहिं" ति चत्वारो भेदा भवन्ति / कैः ! इत्याह-सह क्षायिकेण वर्तन्ते ये क्षायोपशमिकपारिणामिकौदयिकलक्षणा भावास्ते सक्षायिकास्तैः सक्षायिकैः / अयमर्थः-गतिचतुष्टयद्वारेण चिन्त्यमानःक्षायोपशमिकपारिणामिकौदयिकक्षायिकलक्षण एकोऽप्ययं चतुष्कसंयोगरूपः सान्निपातिको भावश्चतुर्धा भवति / तद्यथा-क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वादि, औदयिकी नरकगतिः, क्षायिकं सम्यक्त्वमित्येको नरकगत्याश्रितश्चतुकसंयोगः / एवं तिर्यमनुष्यदेवगत्यभिलापेन त्रयो भङ्गका अन्येऽपि वाच्या इति / एवं चतुविधां गतिं प्रतीत्यैकप्रकारेण चतुष्कसंयोगेन चत्वारो भेदा निरूपिताः / अधुना प्रकारान्तरेण चतुष्कसंयोग एव चतुरो भेदानाह-"उवसमजुएहिं वा चउ" ति वाशब्दोऽथवाशब्दार्थः, अथवा क्षायिकभावाभावे औपशमिकेन प्रदर्शितखरूपेण भावेन युतैः-कलितैः पूर्वोक्तैः क्षायोपशमिकपारिणामिकौदयिकैरेव निष्पन्नस्य सान्निपातिकमावस्य गतिचतुष्कं प्रतीत्य 'चत्वारः' चतुःसङ्ख्या भेदा भवन्तीति शेषः / तद्यथा-क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वम् , औदयिकी नरकगतिः, औपशमिकं सम्यक्त्वमित्येको नरकगत्याश्रितश्चतुष्कसंयोगः / एवं तिर्यमनुष्यदेवगत्यभिलापेन त्रयो भङ्गा अन्येऽपि वाच्याः / तदेवमभिहिता गतिचतुष्टयमाश्रित्यैकेन त्रिकसंयोगेन द्वाभ्यां चतुष्कसंयोगाभ्यां द्वादश विकल्पाः / सम्प्रति शुद्धसंयोगत्रयस्खरूपं शेषमेदत्रयं निरूपयिषुराह-"केवलि परिणामुदयखइए" ति 'केवली' केवलज्ञानी पारिणामिकौदयिकक्षायिके सान्निपातिकभेदे त्रिकसंयोगरूपे वर्तते, यतस्तस्य पारिणामिकं जीवत्वादि औदयिकी मनुजगतिः क्षायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्रादीनि / तदेवमेकस्त्रिकसंयोगः केवलिषु सम्भवतीति // 67 // खयपरिणामे सिद्धा, नराण पणजोगुवसमसेढीए। इय पनर सनिवाइयभेया वीसं असंभविणो // 68 // 'सिद्धाः' निर्दग्धसकलकर्मेन्धनाः क्षायिकपारिणामिके सान्निपातिकभेदे द्विकसंयोगरूपे वर्तन्ते / तथाहि-सिद्धानां क्षायिकं ज्ञानदर्शनादि, पारिणामिकं जीवत्वमिति द्विकसंयोगो भवति / 'नराणां' मनुष्याणां पञ्चकसंयोगः सान्निपातिकभेद उपशमश्रेण्यामेव प्राप्यते, यतो यः क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्मनुष्य उपशमश्रेणी प्रतिपद्यते तस्यौपशमिकं चारित्रं क्षायिकं सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि औदयिकी मनुजगतिः पारिणामिकं जीवत्वं भव्यत्वं चेति / 'इति' Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67-69) षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 193 अमुना पूर्वदर्शितप्रकारेण गत्यादिषु संयोगषट्कचिन्तनलक्षणेन परस्परविरोधाभावेन सम्भविनः पञ्चदश सान्निपातिकभेदाः षष्ठभावविकल्पाः प्ररूपिता इति शेषः / “वीसं असंभविणो" ति विंशतिसङ्ख्याः संयोगा असम्भविनः, प्ररूपणामात्रभावित्वेन न जीवेषु तेषां सम्भवोऽस्तीति / ननु षड्रिंशतिभेदाः प्राक् प्रदर्शिताः, इह तु पञ्चदशानां विंशतेश्च मीलने पञ्चत्रिंशत्सझ्या भेदाः प्राप्नुवन्तीति कथं न विरोधः, अत्रोच्यते-ननु विस्मरणशीलो देवानांप्रियः, यतोऽनन्तरमेवोदितं गत्यादिद्वारेणैव ते चिन्त्यमानाः पञ्चदश भवन्ति, मौला यादिसंयोगास्तु पडेव / तथाहि-एको द्विकसंयोगः, द्वौ द्वौ त्रिकचतुष्कसंयोगौ, एकः पञ्चकसंयोग इति षण्णां विंशत्या मीलने षड्दिशतिसक्ष्यैवोपजायत इति नात्र कश्चन विरोध इति // 68 // * अभिहिताः सप्रमेदा जीवानामौपशमिकादयो भावाः। साम्प्रतमेतानेव कर्मविषये चिन्तयन्नाह मोहेव समो मीसो, चउघाइसु अट्टकम्मसु य सेसा। धम्माइ पारिणामियभावे खंधा उदइए वि // 69 // 'मोहे एव' षष्ठीसप्तम्योरथ प्रत्यभेदाद्, यथा वृक्षे शाखा वृक्षस्य शाखा, मोहनीयस्यैव कर्मणः 'शमः' उपशमोऽनुदयावस्था भसच्छन्नामेरिव न तु समस्तानां कर्मणाम् / “मीसो चउघाइसु" ति 'मिश्रः क्षयोपशमः, तत्र क्षयः-उदयावस्थस्यात्यन्ताभावस्तेन सहोपशमः-अनुदयावस्था दरविध्यातवहिवत् क्षयोपशमः, 'चतुषु चतुःसङ्ख्येषु 'घातिषु' ज्ञानादिगुणघातकेषु कर्मखित्युत्तरोक्तमत्रापि सम्बन्धनीयम्, ततो ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायलक्षणानां घातिकर्मणामेव क्षयोपशमो भवति न स्वघातिकर्मणामिति / 'अष्टकर्मसु' ज्ञानावरणाद्यन्तरायावसानेषु 'चः' पुनरर्थे अष्टकर्मसु पुनः 'शेषाः' औदयिकक्षायिकपारिणामिकभावा भवन्ति / तत्रोदयः-विपाकानुभवनम् , क्षयः-अत्यन्ताभावः, परिणामः तेन तेन रूपेण परिणमनमित्यक्षरार्थः / भावार्थस्त्वयम्मोहनीयकर्मणः पञ्चापि आवाः प्राप्यन्ते / मोहनीयवर्जितज्ञानावरणदर्शनावरणान्तरायलक्षणानां तु त्रयाणां घातिकर्मणामुदयक्षयक्षयोपशमपरिणामखभावाश्चत्वार एव भावा भवन्ति न पुनरुपशमः। शेषाणां वेदनीयायुर्नामगोत्रखरूपाणां चतुर्णामप्यघातिकर्मणामुदयक्षयपरिणामलक्षणास्त्रय एव भावा भवन्ति, न तु क्षयोपशमोपशमाविति / __ प्रतिपादिता जीवेषु तदाश्रितकर्मसु च पश्चापि भावाः / अधुना तान् अजीवेषु बिभणिषुराह-"धम्माइ" इत्यादि / इह पदैकदेशे पदसमुदायोपचाराद् धर्मास्तिकायः 1 अधर्मास्तिकायः 2 आकाशास्तिकायः 3 पुद्गलास्तिकायः 4 कालद्रव्यं 5 चेति परिग्रहः / तत्र धारयतिगतिपरिणतजीवपुद्गलान् तत्वभावतायामवस्थापयतीति धर्मः, अस्तयश्चेह प्रदेशास्तेषां चीयत इति कायः-सङ्घातोऽस्तिकायः, ततो धर्मश्चासावस्तिकायश्च धर्मास्तिकायः / तथा न धारयतिगतिपरिणतानपि जीवपुद्गलान् तत्वभावतायां नावस्थापयति स्थित्युपष्टम्मकत्वात् तस्येत्यधर्मः शेषं प्राग्वत् / आ-समन्तात् काशते-अवगाहदानतया प्रतिभासत इत्याकाशः, शेषं प्राग्वत् / पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः, पृषोदरादित्वाद् इष्टरूपसिद्धिः, शेषं पूर्ववत् / तथा “कलण् सख्याने" कलनं कालः, कल्यते वा-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति कालः, कलानां वा-समयादिरूपाणां समूहः कालः / आह सामूहिके प्रत्यये नपुंसकलिङ्गेन भवितव्यम्, यथा कापोतं मायूरं चेति, [तन्न,] क. 25 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 -- देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञीकोपेतः गाथा यदाहुः श्रीहेमचन्द्रसरिपादा:-उच्यते रूढिवशाद् लिङ्गस्य न नियमः। यदाह पाणिनिःलिजमशिष्यम् , लोकाश्रयत्वात् तस्येति / . ततः काल एव तत्तद्रूपद्रवणाद् द्रव्यं कालद्रव्यम्, तत्र च कालस्य वस्तुतः समयरूपस्य निर्विभागत्वाद् न देशप्रदेशसम्भवः, अत एवात्रास्तिकायवाभावो वेदितव्यः / / नन्वतीतानागतवर्तमानमेदेन कालस्यापि त्रैविध्यमस्तीति किमिति नोक्तम् !, सत्यम् , अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेनाऽविद्यमानत्वाद् वार्तमानिक एव समयरूपः सदूपः / यद्येवं तर्हि पूर्वसमयनिरोधेनैवोत्तरसमयसद्भावेऽसङ्ख्यातानां समयानां समुदयसमित्याचसम्भवादावलिकादयः शास्त्रान्तरप्रतिपादिताः कालविशेषाः कथं सङ्गच्छन्ते !, सत्यम्, तत्त्वतो न सङ्गच्छन्त एव, केवलं व्यवहारार्थमेव कल्पिता इति / अथ केऽमी आवलिकादयः कालविशेषाः / इति विनेयजनपृच्छायां तदनुग्रहाय समयादारभ्य कालविशेषाः प्रतिपाद्यन्ते / तत्र समयखरूपमेवमनुयोगद्वारे प्रतिपाद्यते, तद्यथा--- - 'से किं तं समए ! समयस्स णं परवणं करिस्सामि-से जहानामए तुम्नागदारए सिया तरुणे बल्वं जुग जुवाणे अप्मायके थिरग्गहत्थे दढपाणिपायपासपिटुंतरोरुपरिणए तलजमलजुगलपरिषनिभवाइ चम्मिट्ठगदुहणमुट्टियसमाहयनिचियगायकाए लंघणपवणजवणवायामसमत्थे उरस्सबलसमन्नागए छेए दक्खे पत्तढे कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पोवगए एगं. महई अडसाडियं वा पट्टसाडियं वा गहाय सयराहं हत्थमित्र ओसारिजा, तत्थ चोयए पन्नवगं एवं पवासी-जेणं कालेणं तेणं तुन्नागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा पट्टसाडिमाए वा सयराहं हत्थमिते 1 अथ कोऽसौ समयः। समयस्य प्ररूपां करिष्यामि-असौ यथानामकः तुचागदारकः स्यात् तरुणः बलवान् युगवान् युवा अल्पात स्थिरहस्वानो दृढपाणिपादपार्श्वपृष्ठानोरुपरिणतः तलयमलयुगलपरिधनिमबाहुः चर्मेष्टकानुषणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्रकायो लङ्घनप्लवनजवनव्यायामसमर्थ उरस्कबलसमन्वागतः छको दक्षःप्राप्ताः कुशलो मेधावी निपुणो निपुणशिल्पोपगत एका महती पटशाटिकां वा पशाटिका वा गृहीला शीघ्रं हस्तमात्रमपसारयेत् , तत्र चोदकः प्रज्ञापकमेवमवारीत्ये न कालेन तेन तुझागदारकेण तस्याः .पटवाटिकाया वा पशाटिकाया वा शीघ्रं हस्तमात्रं अपसारितं स समयो भवति ! नायमर्थः समर्थः, कस्मात् ! यस्मात् सयाना तन्तूनां समुदयसमितिसमागमेन पटवाटिका निष्पद्यते. उपरितने तन्तावच्छिन्ने भाधस्त्यस्तन्तुर्न च्छिद्यते, अन्यस्मिन् काले उपरितनस्वन्तुः छिद्यते अन्यस्मिन् काले आधस्त्यः तन्तुश्छिद्यते, तस्मादसौ समयो न भवति / एवं वदन्तं प्रज्ञापकं चोदक एवमवादीत्-येन काळेन तेन तुझागदारकेण तस्याः पटशाटिकायामा पशाटिकाया वा उपरितनस्तन्तुश्छिन्नः स समयः? न भवति, कस्मात् ? यस्मात् सत्ययानां पक्ष्मणां समुदयसमितिसमागमेनैकतन्तुनिष्पद्यते, उपरितने पक्ष्मण्यच्छिन्ने भाषस्त्यं पश्मन च्छियते, अन्यस्मिन् काले उपरितनं पक्ष्म च्छिद्यतेऽन्यस्मिन् काळे आधस्त्यं पक्ष्म छिद्यते, तस्मात् स समयो न भवति / एवं वदन्तं प्रज्ञापकं चोदक एवमवादीत् येन कालेन तेन'तुझागदारकेण तस्य तन्तोरुपरितनं पक्ष्म छिस समयः न भवति, कस्मात् ? यस्मादनन्तानो सङ्घातानां समुदयसमितिसमागमेन एक पक्षम निष्पद्यते, उपरितने सहावेऽविसङ्घातिते माधस्त्यः सङ्घातो न विसङ्घात्यते, अन्यस्मिन् काल उपरितनः सङ्घातो विसहायतेऽन्यस्मिन् काळे आधस्त्यः सङ्घातो बिसवात्सते, तस्मात् स समयो न भवति / अतोऽपि सूक्ष्मतरः समयः प्रजप्तः श्रमणायुष्मन् ! // असङ्खयेयानां समयानां समुदयसमितिसमागमेन सैकाऽऽनलिकेति प्रोच्यते // Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 69) षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 195 ओसारिए से समए भवइ ! नो इणद्वे समढे, कम्हा ! जम्हा संखिजाणं तंतृणं समुदयसमितिसमागमेणं'.पडसाडिया निष्फज्जइ, उवरिष्ठयम्मि तंतुम्मि अच्छिन्ने हिडिल्ले तंतू न छिज्जइ, अन्नम्मि काले उवरिल्ले तंतू छिज्जइ अन्नम्मि काले हिडिल्ले तंतू छिज्जइ, तम्हा से समए न भवइ / एवं वयंतं पन्नवगं चोयए एवं वयासी-जेणं कालेणं तेणं तुन्नागदारएणं तीसे पडसाडियाए वा पट्टसाडियाए वा उवरिल्ले तंतू छिन्ने से समए ? न भवइ, कम्हा ! जम्हा संखिजाणं पम्हाणं समुदयसमिइसमागमेणं एगे तंतू निप्फज्जइ, उवरिल्ले पम्हम्मि अच्छिन्ने हिडिल्ले पम्हे न छिज्जइ, अन्नम्मि काले उवरिल्ले पम्हे छिज्जइ अन्नम्मि काले हिडिल्ले पम्हे छिज्जइ, तम्हा से समए न भवइ / एवं वयंत पन्नवगं चोयए एवं वयासी-जेणं कालेणं तेणं तुन्नागदारएणं तस्स तंतस्स उवरिल्ले पम्हे छिन्ने से समएँ : न भवह, कम्हा! जम्हा अणंताणं संघायाणं समुदयसमिइसमागमेणं. एगे पम्हे निप्फज्जइ, उवरिल्ले संघाए अविसंघाइए हिडिल्ले संघाए न विसंघाइज्जइ, अन्नम्मि काले उवरिल्ले संघाए विसंघाइज्जइ अन्नम्मि काले हिडिल्ले संघाए विसंघाइज्जइ, तम्हा से समए न भवइ / इत्तो वि णं सुहमतराए समए पन्नचे समणाउसो! 1 (पत्र 175-2) // असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलिय ति .पवुच्चइ 2 (पत्र 178-2) // ___सहयेया आवलिका आनः, एक उच्छास इत्यर्थः 3 / ता एव सझयेया निःश्वासः 4 / द्वयोरपि कालः प्राणुः 5 / सप्तभिः प्राणुभिः स्तोकः 6 / सप्तभिः स्तोकैर्लवः 7 / सप्तसप्तत्या लवानां मुहूर्तः 8 / त्रिंशता मुहूर्तेरहोरात्रः 9 / तैः पञ्चदशभिः पक्षः 10 / ताभ्यां द्वाभ्यां मासः 11 / मासद्वयेन ऋतुः 12 / ऋतुत्रयमानमयनम् 13 / अयनद्वयेन संवत्सरः 14 / पञ्चमिस्तैर्युगम् 15 / विंशत्या युगैर्वर्षशतम् 16 / तैर्दशभिर्वर्षसहस्रम् 17 / तेषां शतेन वर्षलक्षम् 18 / चतुरशीत्या च वर्षलक्षैः पूर्वाङ्गं भवति 19 / पूर्वाङ्गं चतुरशीतिवर्षलक्षैर्गुणितं पूर्व भवति 20, तच सप्ततिः कोटिलक्षाणि षट्पञ्चाशच्च कोटिसहस्राणि वर्षाणाम् / उक्त च पुँबस्स य परिमाणं, सयरिं खलु होति कोडिलक्खाओ। - छप्पन्नं च सहस्सा, बोधवा वासकोडीणं // (जीवस० गा० 113) .. स्थापना-७०५६०००००००००० / इदमपि चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितं त्रुटिताङ्गं भवति 21 / एतदपि चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितं त्रुटितम् 22 / एतदपि चतुरशीतिलक्षैर्गुणितमटटाङ्गम् 23 / एतदपि चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितमटटम् 24 / एवं सर्वत्र पूर्वः पूर्वो राशिश्चतुरशीतिलक्षखरूपेण गुणकारेण गुणित उत्तरोत्तरराशिरूपतां प्रतिपद्यत इति प्रतिपत्तव्यम् / ततश्च अववाझं 25 अववं 26 हुहूकानं 27 हुहूकं 28 उत्पलाङ्गं 29 उत्पलं 30 पद्माकं 31 पद्मं 32 नलिनाझं 33 नलिनं 34 अर्थनिपूराङ्ग 35 अर्थनिपूर 36 अयुताङ्गं 37 अयुतं 38 नयुताङ्गं 39 नयुतं 40 प्रयुताङ्गं 41 प्रयुतं 42 चूलिकाङ्गं 43 चूलिका 44 शीर्षप्रहेलिकाऊं 45, एवमेते राशयश्चतुरशीतिलक्षस्वरूपेण गुणकारेण यथोत्तरं वृद्धा द्रष्टव्यास्तावद् यावदिदमेव १°णं एगा प° अनुयोगद्वारे // 2-3 °ए भवइ ? न भ° अनुयोगद्वारे // 4 पूर्वस्य च परिमार्ण सप्ततिः खलु भवति कोटिलक्षाणाम् / षट्पञ्चाशच सहना ज्ञातव्या वर्षकोटीनाम् // . Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा शीर्षप्रहेलिकाङ्गं चतुरशीतिलक्षैर्गुणितं शीर्षप्रहेलिका भवति 46 / अस्याः खरूपमङ्कतोऽपि दीते-७५८२६३२५३०७३०१०२४१२५७९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६ अग्रे चत्वारिंशं शून्यशतम् / तदेवं शीर्षप्रहेलिकायां सर्वाण्यमूनि चतुर्नवत्यधिकशतसझ्यान्यङ्कस्थानानि भवन्ति / एतस्माच्च परतोऽपि सङ्ख्येयः कालोऽस्ति, स त्वनतिशयिनामसंव्यवहार्यत्वात् सर्षपोपमयाऽत्रैव वक्ष्यते / पत्योपमसागरोपमपुद्गलपरावर्तादिकालखरूपं पुनः खोपज्ञशतकटीकायां सविस्तरमभिहितं तत एवावधारणीयम् / ततो धर्मास्तिकाय 1 अधर्मास्तिकाय 2 आकाशास्तिकाय 3 पुद्गलास्तिकाय 4 काल 5. द्रव्याणि 'पारिणामिके' तेन तेन रूपेण परिणमनखभावे पर्यायविशेषे वर्तन्त इति शेतः / तथाहि-धर्माधर्माकाशास्तिकायानामनादिकालादारभ्य जीवानां पुद्गलानां च गतिस्थित्युपष्टम्भावकाशदानपरिणामेन परिणतत्वादनादिपारिणामिकभाववर्तित्वम् / कालरूपसमयस्याप्यपरापरसमयोत्पत्तितयाऽऽवलिकादिपरिणामपरिणतत्वादनादिपारिणामिकभाववर्तित्वमेव / घणुकादिस्कन्धानां सादिकालात् तेन तेन खभावेन परिणामात् सादिपारिणामिकत्वं मेर्वादिस्कन्धानां त्वनादिकालात् तेन तेन रूपेण परिणामादनादिपारिणामिकभाववर्तित्वं चेति / आह किं सर्वेऽप्यजीवाः पारिणामिक एव भावे वर्तन्ते ! आहोश्चित् केचिदन्यस्मिन्नपि ! इत्याह-"खंधा उदए वि" ति 'स्कन्धाः' अनन्तपरमाण्वात्मका न तु केवलाणवः, तेषां जीवेनाऽग्रहणात् , 'औदयिकेऽपि' औदयिकभावेऽपि, न केवलं पारिणामिक इत्यपिशब्दार्थः / तथाहि-शरीरादिनामोदयजनित औदारिकादिशरीरतया औदारिकादीनां स्कन्धानामेवोदय इति भावः / उदय एवौदयिक इति व्युत्पत्तिपक्षे तु कर्मस्कन्धलक्षणेष्वजीवेष्वौदयिकभावो भवतीति भावः / तथाहि-क्रोधाद्युदये जीवस्य कर्मस्कन्धानामुदयस्तेषामेवौदयिकत्वमिति / ___ नन्वेवं कर्मस्कन्धाश्रिता औपशमिकादयोऽपि भावा अजीवानां सम्भवन्त्यतस्तेषामपि भणनं प्रामोति, सत्यम् , तेषामविवक्षितत्वात् , अत एव कैश्चिदजीवानां पारिणामिक एव भावोऽभ्युपगम्यत इति // 69 // व्याख्याता अजीवाश्रिता अपि भावाः / सम्प्रति जीवगुणभूतेषु गुणस्थानकेषु भावान् निरुरूपयिषुराह सम्माइचउसु तिग चउ, भावा चउ पणुवसामगुवसंते। चउ खीणापुन्वि तिन्नि, सेसगुणट्ठाणगेगजिए // 7 // "सम्माइ" ति सम्यग्दृष्ट्यादिषु-अविरतसम्यग्दृष्टिप्रभृतिषु चतुर्यु-चतुःसङ्ख्येष्वविरतसम्यग्हष्टिदेशविरतप्रमत्ताप्रमत्तलक्षणेषु गुणस्थानकेष्विति वक्ष्यमाणपदस्यात्रापि सम्बन्धः कार्यः, "तिग चउ भाव" ति त्रयश्चत्वारो वा भावाः प्राप्यन्त इति भावः / तत्र क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टेश्चतुर्ध्वपि गुणस्थानकेष्विमे त्रयोऽपि भावा लभ्यन्ते / तद्यथा-यथासम्भवमौदयिकी गतिः, क्षायोपशमिकमिन्द्रियसम्यक्त्वादि, पारिणामिकं जीवत्वमिति / क्षायिकसम्यग्दृष्टेरौपशमिकसम्यग्दृष्टेश्च चत्वारो भावा लभ्यन्ते, त्रयस्तावत् पूर्वोक्ता एव; चतुर्थस्तु क्षायिकसम्यग्दृष्टेः क्षायिकसम्यक्त्वलक्षणः, औपशमिकसम्यग्दृष्टेः पुनरौपशमिकसम्यक्त्वखभाव इति / “चउ पणुवसामगुवसंते" ति चत्वारः पञ्च वा भावा द्वयोरप्युपशमकोपशान्तयोर्भवन्ति / किमुक्तं भवति !-अनिवृत्तिबादर Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 197 सूक्ष्मसम्परायलक्षणगुणस्थानकद्वयवर्ती जन्तुरुपशमक उच्यते, तस्य चत्वारः पञ्च वा भावा भवन्ति / कथम् ! इति चेद्, उच्यते-त्रयस्तावत् पूर्ववदेव, चतुर्थस्तु क्षीणदर्शनत्रिकस्य श्रेणिमारोहतः क्षायिकसम्यक्त्वलक्षणोऽन्यस्य पुनरौपशमिकखभाव इति / अमीषामेव चतुर्णा मध्येऽनिवृत्तिवादरसूक्ष्मसम्परायगुणस्थानकद्वयवर्तिनोऽप्यौपशमिकचारित्रस्य शास्त्रान्तरेषु प्रतिपादनाद औपशमिकचारित्रप्रक्षेपे पञ्चम इति / 'उपशान्तः' उपशान्तमोहगुणस्थानकवर्ती तस्यापि चत्वारः पञ्च वा भावाः प्राप्यन्ते, ते चानन्तरोपशमकपदप्रदर्शिता एव / “चउ खीणापुबि" ति चत्वारो भावाः 'क्षीणापूर्वयोः' क्षीणमोहगुणस्थानकेऽपूर्वकरणगुणस्थानके चेत्यर्थः / तत्र क्षीणमोहे त्रयः पूर्ववत् , चतुर्थः क्षायिकसम्यक्त्वचारित्रलक्षणः, अपूर्वकरणे तु त्रयः पूर्ववत् , चतुर्थः पुनः क्षायिकसम्यक्त्वखभाव औपशमिकसम्यक्त्वखभावो वेति / “तिन्नि सेसगुणट्टाणग" ति 'त्रयः' त्रिसङ्ख्या भावा भवन्ति, केषु ! इत्याह-विभक्तिलोपात् 'शेषगुणस्थानकेषु' मिथ्यादृष्टिसाखादनसम्यग्मिथ्यादृष्टिसयोगिकेवल्ययोगिकेवलिलक्षणेषु / तत्र मिथ्यादृष्यादीनां त्रयाणामौदयिकी गतिः, क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि, पारिणामिकं जीवत्वम् इत्येते त्रयो भावाः प्रतीता एव / सयोगिकेवल्ययोगिकेवलिनोः पुनरौदयिकी मनुजगतिः, क्षायिक केवलज्ञानादि, पारिणामिकं जीवत्वम् इत्येवंरूपास्त्रय इति / आह किममी त्रिप्रभृतयो भावा गुणस्थानकेषु चिन्त्यमानाः सर्वजीवाधारतया चिन्त्यन्ते ! आहोश्चिदेकजीवाधारतया ? इत्याह-"एगजिए" ति एकजीवाधारतयेत्थं भावविभागो मन्तव्यः, नानाजीवापेक्षया तु सम्भविनः सर्वेऽपि भावा भवन्तीति / ___ अधुनैतेषु गुणस्थानकेषु प्रत्येकं यस्य भावस्य सम्बन्धिनो यावन्त उत्तरभेदा यमिन् गुणस्थानके प्राप्यन्त इत्येतत् सोपयोगित्वादस्माभिरभिधीयते / तद्यथा-क्षायोपशमिकभावभेदा मिथ्यादृष्टिसाखादनयोरन्तरायकर्मक्षयोपशमजदानादिलब्धिपञ्चक 5 अज्ञानत्रय 3 चक्षुर्दर्शनाचक्षुर्दर्शन२ लक्षणा दश भवन्ति, सम्यग्मिथ्यादृष्टौ दानादिलब्धिपञ्चक 5 ज्ञानत्रय 3 दर्शनत्रय 3 मिश्र. रूपसम्यक्त्व 1 लक्षणा द्वादश भेदा भवन्ति, अविरतसम्यग्दृष्टौ मिश्रत्यागेन सम्यक्त्वप्रक्षेपे त एव द्वादश, विरतौ च द्वादशसु मध्ये देशविरतिप्रक्षेपे त्रयोदश, प्रमत्ताप्रमत्तयोश्च देशविरतिविरहितेषु पूर्वप्रदर्शितेषु द्वादशखेव सर्वविरतिमनःपर्यायज्ञानप्रक्षेपे चतुर्दश, अपूर्वकरणानिवृ. चिबादरसूक्ष्मसम्परायेषु चतुर्दशभ्यः सम्यक्त्वापसारणे प्रत्येकं त्रयोदश, उपशान्तमोहक्षीणमो. हयोस्त्रयोदशभ्यश्चारित्रापसारणे द्वादश क्षायोपशमिकभावभेदाः प्राप्यन्ते / ___ अधुनौदयिकभावभेदा भाज्यन्ते-मिथ्यादृष्टावज्ञानासिद्धत्वादय एकविंशतिरपि भेदा भवन्ति, साखादन एकविंशतेर्मिथ्यात्वापसारणे विंशतिः, मिश्राविरतयोविंशतेरज्ञानापगमे एकोनविंशतिः, देशविरते च देवनारकगत्यभावे सप्तदश, प्रमते च तिर्यग्गत्यसंयमाभावे पञ्चदश, अप्रमत्ते च पञ्चदशभ्य आद्यलेश्यात्रिकाभावे द्वादश, अपूर्वकरणेऽनिवृत्तिबादरे च द्वादशभ्यस्तेजःपद्मलेश्ययोरभावे दश, सूक्ष्मसम्पराये सज्वलनलोभमनुजगतिशुक्ललेश्याऽसिद्धत्वलक्षणाश्चत्वार औदयिका भावाः, उपशान्तक्षीणमोहसयोगिकेवलिषु चतुर्थ्यः सञ्जवलनलोभाभावे त्रयः, अयोगिकेवलिनस्तु मनुजगत्यसिद्धत्वरूपमौदयिकभावभेदद्वयं प्राप्यते / औपशमिकभावभेदा उच्यन्ते-अविरतादारभ्योपशान्तं यावदौपशमिकसम्यक्त्वरूप औप Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 देवेन्द्रसूरिविरपितलोपाटीकोपतः गाथा शमिकभावभेदः प्राप्यते, औपशमिकचारित्रलक्षणस्त्वनिवृत्तेरारम्योपशान्तं यावत् प्राप्यते / क्षायिकभावभेदम पायिकसम्यक्त्वरूपोऽविरतानाम्योपशान्तं यावत् प्राप्यते, क्षीणमोहे च सायिक सम्यक्त्वं चारित्रं च प्राप्यते, सयोगिफेवस्ययोगिकेवलिनोस्तु नवापि क्षायिकभावाः प्राप्यन्ते। __ पारिणामिकमावमेदा मिथ्याडौ त्रयोऽपि, साखादनादारभ्य च क्षीणमोहं यावदमन्यत्ववर्जी द्वौ भवतः, सयोगिकेवस्ययोगिकेवलिनोस्तु जीवत्वमेवेति, भव्यत्वस्य च प्रत्यासन्नसिद्धावस्थायामभावादधुनाऽपि तदपगतप्रायत्वादिना केनचित् कारणेन शास्त्रान्तरेषु नोक्तमिति नामाभिरप्यत्रोच्यते। यस्य भावस्य भेदा यमिन् गुणस्थानके यावन्त उक्तास्तेषां सम्भविभावभेदानामेकत्र मीलने सति तावद्भेदनिष्पन्नः षष्ठः सान्निपातिकभावभेदस्तस्मिन् गुणस्थानके भवति / यथा-मिथ्यादृष्टावौदयिकभावभेदा एकविंशतिः, क्षायोपशमिकभावभेदा दश, पारिणामिकभावभेदास्त्रयः, सर्वे भेदाश्चतुर्विंशत् / एवं साखादनादिष्वपि सम्भविभावभेदमीलने तावद्भेदनिष्पन्नः षष्ठः सानिपातिकमावभेदो वाच्यः / एतदर्थसङ्घाहिण्यश्चैता गाथा यथा "पण अंतराय अन्नाण तिन्नि अञ्चक्खुचक्खु दस एए। मिच्छे साणे य हवंति मीसए अंतराय पण // नाणतिग दंसणतिगं, मीसगसम्मं च बारस हवंति / एवं च भविरयम्मि वि, नवरि तहिं दसणं सुद्धं // देसे 5 देसविरई, तेरसमा तह पगतअपमते / मणपजवपक्खेवा, चउदस अप्पुवकरणे उ // वेयगसम्मेण विणा, तेरस जा सुहुमसंपराउ ति / ते चिय उवसमखीणे, चरिचविरहेण बारस उ॥ खाओबसमिगमावाण कित्तणा गुणपए पडुच्च कया / उदइयभावे इण्डिं, ते घेव पडुच दंसेमि // चउगइयाई इगवीस मिच्छि साणे य हुंति वीस च / मिच्छेण विणा मीसे, इगुणीसमनाणविरहेण // एमेव अविरयम्मी, सुरनारयगइविओगओ देसे। सत्तरस हुंति ते चिय, तिरिगइअस्संजमाभावा // - पञ्चान्तरायाः अज्ञानानि त्रीणि अचक्षुचक्षुः दश एवे / मिथ्याले सासादने च भवन्ति मिभक अन्तरायाः पञ्च // शानत्रिकं दर्शनत्रिकं मिश्रसम्यक्वं च द्वादश भवन्ति / एवं चाविरवेऽपि नवरं तत्र दर्शनं शुद्धम् ॥देशे च देशबिरतित्रयोदशी तथा प्रमत्ताप्रमत्तयोः / मनःपर्यवप्रक्षेपात् चतुर्दश अपूर्वकरणे तुम वेदकसम्यक्लेन विना त्रयोदश यावत् सूक्ष्मसम्पराय इति। त एव उपशान्तक्षीणयोः चारित्रविरहेण द्वादश // क्षायोपश मिकभावानां कीर्तना गुणपदानि प्रतीत्य कृता / औदयिकभावे इदानी तान्येव प्रतीत्य दर्शयामि // बतर्गत्यादिका एकविंशतिमियाले सासादने च भवन्ति विंशतिध / मिध्यालेन विना मिश्रे एकोनविंशविरज्ञानविरहिण / एवमेवाविरते (नारकगतिषियोगतो देशे। सावध भवन्ति त एव तिर्यग्गससंयमाभावात् // Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70-71] षडशीतिनाम्म चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 199 पन्नरस पमत्तम्मी, अपमचे आइलेसतिगविरहे / ते चिय पारस सुक्केगलेसओ दस अपुवम्मि // . एवं अनियट्टिम्मि वि, सुहुमे संजलणलोभमणुयगई / अंतिमलेसअसिद्धत्वभावओ जाण चउ भावा // संजलप्पलोभविरहा, उवसंतक्खीणकेवलीण तिगं / लेसाभावा जाणसु, अजोगिणो भावद्गमेव // अविरयसम्मा उवसंतु जाव उपसमगखाइगा सम्मा। अनियट्टीओ उवसंतु जाव उवसामियं चरणं // खीणम्मि खइयसम्म, चरणं च दुगं पि जाण समकालं / नव नव खाइयभावा, जाण सजोगे अजोगे य // , जीवत्तमभवत्तं, भवत्वं पि हु मुणेसु मिच्छम्मि / साणाई खीणंते, दोन्नि अभवत्तवज्जा उ॥ सज्जोगि अजोगिम्मि य, नीवत्तं चेव मिच्छमाईणं / ससभावमीलणाओ, भावं मुण सन्निवायं तु // व्याख्यातपाया एवैताः, नवरमेकादश्यां गाथायाम् “उवसमगखाइगा सम्म" ति अनेनौपशमिकक्षायिकसम्यक्त्वरूपमौपशमिकक्षायिकभावमेदद्वयं युगपल्लाघवार्थ निरूपितम् / ततश्चाविरतादारभ्योपशान्तमोहं यावत् कस्यचिदौपशमिकसम्यक्त्वरूप औपशमिकभावभेदः प्राप्यते कस्यचित् पुनः क्षायिकसम्यक्त्वरूपः क्षायिकभावभेदश्चेति // 70 // . .. व्याख्यातं मूलद्वारगाथायां भावद्वारम् / सम्प्रति सक्येयकादिद्वार प्रचिकटयिषुराह संखिजेगमसंखं, परित्तजुत्तनियपयजुयं तिविहं। एवमणंतं पि तिहा, जहन्नमज्झुकसा सव्वे / 71 // एतावन्त एत इति सल्यानं सत्येयम्, “य एचातः" (सि०५-१-२८) इति यप्रत्ययः, तत्र "एकम् एकमेव भवति, नापरे असङ्ख्येयादेरिव परीत्तादयो मूलभेदस्वरूपा भेदा अस्य विद्यन्त इति भावः। न सल्यामर्हतीत्यसङ्ग्यम्, "देण्डादिभ्यो यः" (सि० 6-4-168) इति यप्रत्ययः, असपेयकं तत् पुनः परीचं च युक्तं च निजपदं-खकीयपदमसक्येयकलक्षणं तत्र परीचयुक्तनिज पञ्चदश प्रमत्तेऽप्रमत्ते आदिलेश्यात्रिकबिरहे / त एव द्वादश शुलकलेश्यातो दश अपूर्वे // एवमनितेऽपि बस्ने सवलनलोभमजयत्यो / अन्तिमलेश्यासिद्धलयोर्भासद् ब्रानीहि चलारो भावाः॥ सच्या कनप्रेमविरहादुपशान्तक्षीणकेवलिना त्रिकम् / लेश्याभावाजानीहि अयोगिनो भावद्विकमेव / अविरलसम्मक्लादुपश्चान्तं यावदुपशमकक्षायिके सम्यक्ले / अनिवृत्तितः उपशान्तं यावदीपञ्चमिक चरणम् // क्षीणे क्षायिकसम्यक्खं चरणं च द्विकमपि जानीहि समकालम् / नव नव क्षायिकभावान् जानीहि सयोगेऽयोगे च॥जीवलममव्यलं भव्यत्वमपि खलु जानीहि मिथ्याले / सासादनादिषु क्षीणान्तेषु द्वावभव्यंखवजी तु // सयौगिन्यबोगिनि च जीवखमेव मिथ्यालादीनाम् / खत्रभाषमीलनाद् भावं जानीहि सानिपातिक तु॥ लिहलवादानुशासने "दण्डादेयः" इति पाखनीयसो तुदण्डादिभ्यो यत्" इत्यैवज्ञपं सत्रम् // Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा पदानि तैर्युक्तं-समन्वितं सत् , किम् ? इत्याह-'त्रिविधं त्रिप्रकारं भवति / यथा-परीचासङ्ख्येयकं 1 युक्तासधेयकम् 2 असङ्ख्यातासङ्ख्येयकम् 3 इति उक्तं त्रिधाऽसद्धयेयकम् / अधुना त्रिविधमनन्तकमाह-"एवमणंतं पि तिह" ति 'एवम्' अनेनानन्तरप्रदर्शितप्रकारेण परीतयुक्तनिजपदयुक्तलक्षणेन 'अनन्तमपि' अनन्तकमपि न केवलमसहयेयकमित्यपिशब्दार्थः 'त्रिधा' त्रिप्रकारं वेदितव्यम्, तद्यथा-परीतानन्तकं 1 युक्तानन्तकम् 2 अनन्तानन्तकम् 3 इति / एवमेतानि समुदितानि सप्तापि पदानि पुनरेकैकशस्त्रिरूपाणि भवन्तीति दर्शयितुमाह-"जहन्नमज्झुक्कसा सो" ति प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययाद् 'जघन्यमध्यमोत्कृष्टानि' जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदभिन्नानि 'सर्वाणि' समस्तानि एकैकशः सप्तापि पदानि वेदितव्यानीत्यर्थः / तथाहि-जघन्यसङ्ख्येयकं मध्यमसङ्ख्येयकम् उत्कृष्ट सङ्ख्येयकम् / तथा जघन्यपरीत्तासङ्ख्येयकं मध्यमपरीचासङ्ख्येयकम् उत्कृष्टपरीचासङ्ख्येयकम् / जघन्ययुक्तासङ्ख्येयकं मध्यमयुक्तासङ्ख्येयकम् उत्कृष्टयुक्तासङ्ख्येयकम् / जघन्यासङ्ख्यातासङ्ख्येयकं मध्यमासक्ष्यातासङ्ख्येयकम् उत्कृष्टासङ्ख्यातासकयेयकम् / तथा जघन्यपरीत्तानन्तकं मध्यमपरीतानन्तकम् उत्कृष्टपरीत्तानन्तकम् / जघन्ययुक्तानन्तकं मध्यमयुक्तानन्तकम् उत्कृष्टयुक्तानन्तकम् / जघन्यानन्तानन्तकं मध्यमानन्तानन्तकम् उत्कृष्टानन्तानन्तकम् / तदेवं सङ्ख्यातकं त्रिधा असङ्ख्यातमनन्तकं च नवधा भवतीति // 71 // तदेवं सङ्ख्थेयकादिभेदप्ररूपणामात्रं कृत्वा विस्तरतस्तत्वरूपं निरूपयिषुः सङ्ख्यातकं विधेति यदुद्दिष्टं तद् विवृण्वन्नाह . लहु संखिज्नं दु चिय, अओ परं मज्झिमं तु जा गुरुयं / जंबूद्दीवपमाणयचउपल्लपरूवणाइ इमं // 72 // इहैकको गणनसङ्ख्यां न लभते, यत एकस्मिन् घटादौ दृष्टे घटादि वस्त्विदं तिष्ठतीत्येवमेव प्रायः प्रतीतिरुत्पद्यते, नैकसङ्ख्याविषयत्वेन / अथवा आदानसमर्पणादिव्यवहारकाले एकं वस्तु प्रायो न कश्चिद् गणयति, अतोऽसंव्यवहार्यत्वादल्पत्वाद्वा नैको गणनसङ्ख्यां लभते, तस्माद् द्विप्रभृतिरेव गणनसङ्ख्या / अत एवाह-'सधेयं' सङ्ख्यातकं 'लघु' जघन्यं-हखं, चियशब्दस्याऽवधारणार्थत्वात् , यदाहुः श्रीहेमचन्द्रसूरिपादाः प्राकृतलक्षणे-"णइ चेअ चिय च अवधारणे" (सि०८-२-१८४) द्वावेव, नैकः, पूर्वोदितयुक्तेः / 'अतः परम्' एतस्माद् द्विकभूतजघन्यसङ्ख्यातकादूर्व मध्यमं तु सङ्ख्यातकं पुनस्त्रिचतुरादिकमनेकप्रकारं भवति / कियडूरं यावद् मध्यमं भवति ! इत्याह-"जा गुरुयं" ति 'यावद्' इत्यवधौ ‘गुरुकम्' उत्कृष्टं-सर्वोपरिवर्ति सङ्ख्यातकं प्रामोतीति शेषः / अथेदमेव गुरुकं सङ्ख्यातकं कथं विज्ञेयम् ! इत्याह-'इदम्' अधुनैव वक्ष्यमाणखरूपं गुरुकं सङ्ख्यातकं ज्ञेयमिति शेषः / कया ? 'जम्बूद्वीपप्रमाणचतुष्पल्यप्ररूपणया' जम्बूनाम्ना वृक्षेणोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपस्तेन 'जम्बूद्वीपेन प्रमाणम्-इयत्तावधारणं येषां ते जम्बूद्वीपप्रमाणकास्ते च ते चत्वारः-चतुःसङ्ख्याः पल्याश्च-धान्यपल्या इव जम्बूद्वीपप्रमाणकचतुःपल्यास्तेषां प्रकृष्टरूपा प्ररूपणा-व्यावर्णना तया / एतदुक्तं भवति—यथा जम्बूद्वीपो लक्षयोजनप्रमाण एवमेतेऽप्यायामविष्कम्भाभ्यां प्रत्येकं लक्षयोजनप्रमाणा वृत्ताकारत्वाच्च परिधिना, Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 72-73 ] पडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / परिही तिलक्ख सोलस, सहस्स दो य सय सत्तवीसहिया / / कोसतिय अट्ठवीसं, धणुसय तेरंगुलद्धहियं // (बृह० क्षे० गा० 6) इतिगाथाभिहितप्रमाणोपेताः / उक्तं च श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रे जेहन्नयं संखिजयं 'कित्तिल्लियं होइ ? दो रूवाइं / तेण परं अजहन्नमणुकोसयाइं ठाणाइं जाव उक्कोसयसंखिज्जयं न पावइ / उक्कोसयं संखिजयं "कित्तियं होइ ? उक्कोसयस्स संखिज्जयस्स परूवणं करिस्सामि-से जहानामए पल्ले सिया एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साई सोलस सहस्साइं दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियं परिक्खेवेणं // (पत्र 235-1) ततो जम्बूद्वीपप्रमाणचतुःपल्यप्ररूपणयेदमुत्कृष्टं सङ्ख्यातकं प्ररूपयिष्यत इति भावः // 72 // अथैते चत्वारोऽपि पल्याः किंनामानः ? इत्येतदाह पल्लाऽणवट्टियसलागपडिसलागमहासलागक्खा / जोयणसहसोगाढा, सवेइयंता ससिहभरिया // 73 // धान्यपत्य इव पल्याः कल्प्यन्ते, ते च जम्बूद्वीपप्रमाणाः / किंनामानः ? इत्याह-"अणवट्ठिय" इत्यादि / यथोत्तरं वर्धमानखभावतयाऽवस्थितरूपाभावाद् अनवस्थित एवोच्यते / तथेह शलाकाः-एकैकसर्षपप्रक्षेपलक्षणास्ताभिः शलाकाभिर्नीियमाणत्वात् पल्योऽपि शलाका / तथा प्रतिशलाकाभिर्निष्पन्नत्वात् प्रतिशलाका / महाशलाकाभिर्निवृत्तत्वात महाशलाका / तत एषां द्वन्द्वेऽनवस्थितशलाकाप्रतिशलाकामहाशलाकास्ता इत्थम्भूता आख्याः-संज्ञा येषां तेऽनवस्थितशलाकाप्रतिशलाकामहाशलाकाख्याः / त एव विशिष्यन्ते-योजनसहस्रं तु अवगाढाः / इदमुक्तं भवति-रत्नप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमं योजनसहस्रप्रमाणं रत्नकाण्डं भित्त्वा द्वितीये वज्रकाण्डे प्रतिष्ठिता इति / पुनस्त एव विशिष्यन्ते-“सवेइयंत" ति वज्रमय्या अष्टयोजनोच्छायायाश्चत्वार्यष्टौ द्वादश योजनान्युपरिमध्याधोविस्तृताया जम्बूद्वीपनगरप्राकारकल्पाया जगत्या द्विगव्यूतोच्छ्रितेन पञ्चधनुःशतविस्तृतेन नानारत्नमयेन जालकटकेन परिक्षिप्ता या उपरि वेदिकेति पद्मवरवेदिकेत्यर्थः, द्विगव्यूतोच्छ्रिता पञ्चधनुःशतविस्तीर्णा गवाक्षहेमकिङ्किणीजालघण्टायुक्ता देवानामासनशयनमोहनविविधक्रीडास्थानमुभयतो वनखण्डवती तस्या अन्तः-पर्यवसानमग्रभाग इति यावद् वेदिकान्तः, ततश्च सह वेदिकान्तेन वर्तन्त इति सवेदिकान्ताः / ते च कथं सर्षपै ताःइत्याह- "ससिहभरिय" ति सह शिखया-उच्छ्यलक्षणया वर्तन्त इति सशिखाः, ततः सशिखं यथा भवति तथा सर्षपैर्मृताः-पूरिताः सशिखभृताः कर्तव्या इति शेषः / अयमत्रा 1 परिधिस्त्रयो लक्षाः षोडश सहस्राणि द्वे च शते सप्तविंशत्यधिके / कोशत्रिक अष्टाविंशं धनुःशतं त्रयोदशाडलान्य‘धिकानि // 2 जघन्यं सङ्ख्यातकं कियद् भवति? द्वे रूपे / ततः परमजघन्योत्कृष्टानि स्थानानि यावद् उत्कृष्टसायातकं न प्राप्नोति / उत्कृष्टं सङ्ख्यातकं कियद् भवति ? उत्कृष्टस्य सङ्ख्यातकस्य प्ररूपणा करिष्ये-असौ यथानामकः पल्यः स्यात् एकं योजनशतसहस्रम् आयामविष्कम्भाभ्याम् , त्रीणि योजनशतसहस्राणि षोडश सहस्राणि द्वे च सप्तविंशे योजनशते त्रयश्च क्रोशा अष्टाविंशं च धनुःशतं त्रयोदशाकुलानि अर्धाकलं च किञ्चिदू विशेषाधिक परिक्षेपेण // 3-4 केवइयं अनुयोगद्वारसूत्रे // .. क. 26 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपैता [याथा शयः-एतेषां व्यावर्णितखरूपाणां चतुर्णामपि पल्यानां मध्याद् यो यथावसर सर्पपैः पूर्यते तं योजनसहस्रावगाहादूर्द्ध समधिकाष्टयोजनोच्छ्रितवेदिकान्तं पूरयित्वा तदुपरि तावत् शिखा वर्धनीया यावद् एकोऽपि सर्षपो नावतिष्ठत इति / अत्र सर्वे सवेदिकान्ताः सशिखभृताश्च कर्तव्या इति सामान्योक्तावपि प्रथममनवस्थितपल्य एव भृतः करणीयः / शेषास्तु यथावसरमेवेति मन्तव्यमिति / / 73 // अधुना तस्यानवस्थितपल्यस्य जम्बूद्वीपप्रमाणस्य सर्षपैर्भूतस्य यद् विधेयं तदाह तो दीवुदहिसु इकिक सरिसवं खिविय निट्ठिए पढमे / पढमं व तदंतं चिय, पुण भरिए तम्मि तह खीणे // 74 // _ 'ततः' सर्षपभरणादनन्तरमसत्कल्पनया केनचिद् देवेन दानवेन वा वामकरतले धृत्वा 'द्वीपोदधिषु' द्वीपसमुद्रेषु एकैकं 'सर्षपं' सिद्धार्थ क्षिप्त्वा 'निष्ठिते' अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् निष्ठापितेरिक्तीकृते 'प्रथमे' अनवस्थितपल्ये, कोऽर्थः ! एकं सर्षपं द्वीपे प्रक्षिपति, एकमुदधौ, पुनरप्येकं द्वीपे, एकमुदधौ, एवं प्रतिद्वीपं प्रत्युदधिं चैकैकं सर्षपं प्रतिक्षिपन्नसौ देवो वा दानवो वा तावद् गतो यावदनवस्थितपल्यो निष्ठितो भवति / ततः किं विधेयम् ? इत्याह- "पढमं व" इत्यादि। द्वीपे समुद्रे वा यत्रासावनवस्थितपल्यो निष्ठितो भवति "तदंत चिय" ति स एवानवस्थितपल्यस्य निष्ठाकारी द्वीपः समुद्रो वाऽन्तः पर्यवसानं प्रमाणतया यस्य द्वितीयानवस्थितपल्यस्य स तदन्तस्तम् , द्वितीयानवस्थितपल्यप्रमाणाभिधायकं विशेषणमिदम् , ततस्तदन्तमेव चियशब्दस्यावधारणार्थत्वाद् विस्तीर्णतया तावत्प्रमाणमेवेत्यर्थः / 'प्रथममिव' आद्यपल्यमिवेत्युपमानेन द्वितीयमनवस्थितपल्यमपि सहस्रयोजनावगाढमष्टयोजनोच्छ्रितजगत्युपरिवेदिकोपशोभितं सशिखं सर्षपैभृतं कुर्यादिति सूचयति / ततः प्रथमानवस्थितपल्यमिव तदन्तमेव 'पुनः' भूयः 'भृते' सर्षपैः पूरिते 'तस्मिन्' द्वितीयानवस्थितपल्ये 'तथा' तेन प्रकारेण निक्षिप्तचरमसर्षपद्वीपादेरसत एकः सर्षपो द्वीपे, एकः समुद्रे इत्यादिना 'क्षीणे' निष्ठिते सति द्वितीयानवस्थितपल्ये // 74 // ततः किं विधेयम् ? इत्याह खिप्पइ सलागपल्लेगु सरिसवो इय सलागख(खि)वणेणं / पुन्नो बीओ य तओ, पुवं पिव तम्मि उद्धरिए // 7 // 'क्षिप्यते' निधीयते शलाकापल्ये द्वितीये शलाकासंज्ञक एकसय एव सर्षपः, स च नानवस्थितपल्यसत्कः किन्त्वन्य एवेत्यवसीयते, "पुण भरिए तम्मि तह खीणे" (गा० 74) इति सूत्रावयवस्य सामस्त्यरिक्तीकरणप्रतिपादनपरत्वात् / अन्ये वनवस्थितपल्यसत्क एव क्षिप्यते इत्याचक्षते, तत्त्वं तु केवलिनो विदन्तीति / आह किमिति द्वितीयपल्य एव निष्ठिते सत्येकस्य सर्षपस्य शलाकापत्ये प्रक्षेपणमभिहितं यावता प्रथमपल्येऽपि निष्ठिते तत्रैकस्य सर्षपस्य प्रक्षेपो युज्यते ! इति, तदयुक्तम् , अभिप्रायापरिज्ञानात् , यतोऽनवस्थितपल्यशलाकाभिरेवासौ पूरणीयः, प्रथमश्च लक्षयोजनविस्तृतत्वेनावस्थितपरिमाणतयाऽनवस्थित एव न भवतीत्यतो द्वितीयाद्यनवस्थितपल्यशलाका एव तत्र प्रक्षेपमहन्तीति / न चैतत् खमनीषिकाविजृम्भितम् , यदुक्तमनुयोगद्वारेषु Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ زونجية पडशीर्तिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 203 ... 'से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए, तओ णं तेहिं सिद्धत्थएहिं दीवसमुदाणं उद्धारे पिप्पइ, एगे दीवे एगे समुद्दे एगे दीवे एगे समुद्दे एवं खिप्पमाणेहिं खिप्पमाणेहिं जावइया णं दीवसमुद्दा तेहिं सिद्धत्थएहिं अप्फुन्ना एस णं एवइए खिते पल्ले आइहे। से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए, तओ णं तेहिं सिद्धत्थएहिं दीवसमुदाणं उद्धारे धिप्पइ, एगे दीवे एगे समुद्दे एगे दीवे एगे समुद्दे एवं खिप्पमाणेहिं खिप्पमाणेहिं जावइया णं दीवसमुद्दा तेहिं सिद्धत्थएहिं अप्फुन्ना एस णं एवइए खित्ते पल्ले पढमा सलागा (पत्र 235-2) इति / ___ यश्च "पल्लाणवट्ठिय" (गा०७३) इत्यादिगाथायां प्रथमस्यानवस्थितव्यपदेशोऽसौ योग्यतामात्रेण राज्यार्हकुमारस्य राजव्यपदेशवद् द्रष्टव्यः / "इय सलागखवणेण पुनो बीओ य" ति 'इति' अमुना पूर्वप्रदर्शितशलाकाक्षेपणप्रकारेण 'द्वितीयश्च शलाकापल्यः पूर्णो भृतो भवति सशिख इति यावत् / इयमत्र भावना-ततो यस्मिन् द्वीपे समुद्रे वा स एष द्वितीयपल्यो निष्ठां गतस्तदन्ता मूलतः सर्वेऽपि ये द्वीपसमुद्रास्तावत्प्रमाणः पुनरन्यः पल्यः परिकल्प्यते पूर्ववत् सर्षपैः पूर्यते, ततस्तं तावत्प्रमाणं पल्यमुत्पाव्य ततो निष्ठितस्थानात् परतो द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्प मक्षिपेत् , यावदसौ निष्ठितो भवति, ततो द्वितीया शलाका सर्षपरूपा शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते / ततोऽपि यस्मिन् द्वीपे समुद्रे वा स एष तृतीयोऽनवस्थितपल्यो निष्ठितस्तदन्ता मूलतः सर्वेऽपि ये द्वीपसमुद्रास्तावत्प्रमाणः पुनरन्यः पल्यः परिकल्प्यते पूर्ववत् सर्षपैरापूर्यते, ततस्तं तावत्प्रमाणं पल्यमुत्पाद्य ततो निष्ठितस्थानात् परतो द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततस्तृतीया सर्षपरूपा शलाका शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते / एवमनेन क्रमेण पुनः पुनरनवस्थितपल्यस्य सर्षपभरणरिक्तीकरणलब्धैकैकसर्षपरूपाभिः शलाकाभिः शलाकापल्यो यथोक्तप्रमाणः सशिखाकस्तावत् पूरयितव्यो यावत् तत्रैकोऽप्यन्यः सर्षपो न मातीति / “बीओ य" ति इत्यत्र चशब्दात् पूर्वपरिपाट्यागतोऽनवस्थितपल्यः सर्वपैरापूरणीयः, ततः किं विधेयम् ! इत्याह"तओ पुर्व पिव तम्मि उद्धरिए" ति 'ततः' शलाकापल्यपूर्वपरिपाट्यागतानवस्थितपण्यापूरणानन्तरं पूर्ववत् 'तस्मिन्' शलाकापल्ये उद्धृते सति // 75 // खीणे सलाग तइए, एवं पढमेहिं बीययं भरसु। तेहि य तइयं तेहि य, तुरियं जा किर फुडा चउरो // 76 // _ 'क्षीणे च' निर्लेपे सति सर्षपरूपा शलाका 'तृतीये' प्रतिशलाकापल्यै प्रक्षिप्यते इतीयमक्षरगमनिका / भावार्थस्त्वयम्-ततः शलाकापण्यापूरणानन्तरं तं शलाकापल्यं वामकरतले कृत्वा पूर्वानवस्थितपल्यचरमसर्षपाक्रान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चैकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततः प्रतिशलाकापल्ये सर्षपरूपा प्रथमा प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते / ततोऽनन्तरोक्तोऽनवस्थितपल्य उत्पाट्यते, ततः शलाकापल्यसर्षपाक्रान्ताद् द्वीपात् १स पल्यः सिद्धार्थकै तः, ततस्तैः सिद्धार्थकैीपसमुद्राणां उद्धारो गृपते, एको द्वीपे एकः समुद्र एको द्वीपे एकः समुद्रे एवं क्षिप्यमाणैः क्षिप्यमाणः यावन्तो द्वीपसमुद्रास्तैः सिद्धार्थकैः स्पृष्टा एष एतावान् क्षेत्रे पल्य भादिष्टः / स पल्यः सिद्धार्थकैर्मृतः, ततस्तैः सिद्धार्थकीपसमुद्राणामुद्धारो गृह्यते, एको द्वीपे एकः समुद्र एको द्वीपे एकः समुद्रे एवं क्षिप्यमाणैः क्षिप्यमाणैः यावन्तो द्वीपसमुद्राः सिद्धार्थकः स्पृष्टा एषा एतावति क्षेत्रे पल्ये प्रथमा शलाका // Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः - [गाथा समुद्राद्वा परतः पूर्वक्रमेण द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्पपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निःशेषतो रिक्तो भवति / ततः शलाकापल्ये पुनरपि सर्षपरूपा एका शलाका प्रक्षिप्यते / ततोऽनन्तरोक्तानवस्थितपल्यचरमसर्षपाक्रान्तो द्वीपः समुद्रो वा यस्तदन्तमनवस्थितपल्यं सर्षपैर्भूत्वा ततः परतः पुनरप्येकैकं सर्षपं प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं च प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततो द्वितीया शलाका शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते / एवमपरापरानवस्थितपल्यापूरणरिक्तीकरणलब्धैकैकसर्षपैर्यदा शलाकापल्य आपूरितो भवति पूर्वपरिपाट्या चानवस्थितपल्यस्तदा शलाकापल्यमुत्पाट्य प्राक्तनानवस्थितपल्यचरमसपाक्रान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रं चैकैकं सर्पपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निर्लेपो भवति, ततः प्रतिशलाकापल्ये द्वितीया शलाका प्रक्षिप्यते / ततोऽनवस्थितपल्यमुत्पाट्यानन्तररिक्तीकृतशलाकापल्यचरमसर्षपाक्रान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतः पूर्वक्रमेण द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्पपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततः पुनरपि शलाकापल्ये सर्पपरूपा शलाका प्रक्षिप्यते / यत्र चासौ द्वीपे समुद्रे वा निष्ठितस्तावत्प्रमाणविस्तरात्मकमनवस्थितपल्यं सर्षपैरापूर्य ततः परतः पूर्वक्रमेण द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्षपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततः शलाकापल्ये द्वितीया शलाका सर्पपरूपा प्रक्षिप्यते। एवमनेन क्रमेण तावद् वक्तव्यं यावत् त्रयोऽपि प्रतिशलाकापल्यशलाकापल्यानवस्थितपल्याः परिपूर्णमापूरिता भवन्ति / ततः प्रतिशलाकापल्यमुत्पाट्य निष्ठितस्थानात् परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रमेकैकं सर्पपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततो महाशलाकापल्ये एका सर्षपरूपा शलाका प्रक्षिप्यते / ततः शलाकापल्यमुत्पाट्य प्रतिशलाकापल्यगतचरमसर्पपाक्रान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतः प्रतिद्वीपं प्रतिसमुद्रमेकैकं सर्पपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निष्ठितो भवति, ततः प्रतिशलाकापल्ये प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते / ततोऽनवस्थितपल्यमुत्पाटयेत् , उत्पाट्य च शलाकापल्यगतचरमसपाक्रान्ताद् द्वीपात् समुद्राद्वा परतो द्वीपसमुद्रेष्वेकैकं सर्पपं प्रक्षिपस्तावद् गच्छेद् यावदसौ निःशेषतो रिक्तो भवति, ततः शलाकापल्ये प्रथमा शलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनन्तरोक्तानवस्थितपल्यगतचरमसर्षपाक्रान्तो द्वीपः समुद्रो वा यस्तत्पर्यन्तविस्तरात्मकोऽनवस्थितपल्यः कल्पयित्वा सर्षपैरापूर्यते, ततस्तमुत्पाट्य ततो निष्ठितस्थानात् परतो द्वीपसमुद्रेप्वेकैकं सर्पपं प्रक्षिपेद् यावदसौ निलेपो भवति, ततो द्वितीया शलाका शलाकापल्ये प्रक्षिप्यते, एवं शलाकापल्य आपूरणीयः, एवमापूरणोत्पाटनप्रक्षेपपरम्परया तावद्वक्तव्यं यावन्महाशलाकापल्यप्रतिशलाकापल्यशलाकापल्यानवस्थितपल्याः सर्वेऽपि परिपूर्णशिखायुक्ताः समापूरिता भवन्ति / एतदेव निगमयन्नाह- "एवं पढमेहिं" इत्यादि, 'एवम्' अनेन प्रदर्शितक्रमेण 'प्रथमैः' अनवस्थितपल्यैर्द्वितीयमेव द्वितीयकं-शलाकापल्यं 'भरख' पूरय, 'तैश्च' द्वितीयस्थानवर्तिभिः शलाकापल्यैः 'तृतीयं' प्रतिशलाकापल्यं भरख, 'तैश्च' प्रतिशलाकापल्यैः 'तुर्य' चतुर्थ महाशलाकापल्यं तावद् भरख यावत् 'किल' इत्याप्तागमवादसंसूचकः 'स्फुटाः' व्याप्ताः सशिखा भृता इति यावत् 'चत्वारः' चतुःसङ्ख्या अनवस्थितशलाकाप्रतिशलाकामहाशलाकाख्याः पल्या भवन्तीति // 76 // ततश्चतुणों पल्यानां पूर्णत्वे यत् सम्पद्यते तदाह पढमतिपल्लुद्धरिया, दीवुदही पल्लचउसरिसवा य / सव्वो वि एस रासी, रूवूणो परमसंखिजं // 77 // Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 77j षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 205 प्रथमम्-आयं यत् त्रिपल्यं-पल्यत्रयमनवस्थितशलाकाप्रतिशलाकाख्यं तेनोद्धृताः-एकैकसर्षपप्रक्षेपेण व्याप्ताः प्रथमत्रिपल्योद्धृताः, क एते ! इत्याह-द्वीपोदधयो न केवलं द्वीपोदधयः पल्यचतुष्कसर्षपाश्च, किं भवति? इत्याह-'सर्वोऽपि' समस्तोऽपि 'एषः' अनन्तरोक्तः सर्षपव्यासद्वीपसमुद्रपल्यचतुष्कगतसर्षपलक्षणः 'राशिः' सङ्घातः 'रूपोनः' एकेन सर्षपरूपेण रहितः सन् 'परमसत्येयम्' उत्कृष्टसङ्ख्यातकं भवतीति / तदेवं तावदिदमुत्कृष्टं सयेयकम् / जघन्य तु द्वौ, जघन्योत्कृष्टयोश्चान्तराले यानि सङ्ख्यास्थानानि तानि सर्वाणि मध्यमं सत्येयकमिति सामर्थ्यादुक्तं भवति / सिद्धान्ते च यत्र कचित् सङ्ख्यातग्रहणं करोति तत्र सर्वत्रापि मध्यम सहधेयकं द्रष्टव्यम् / यदुक्तमनुयोगद्वारचूर्णी सिद्धते य जत्थ जत्थ संखिज्जगगहणं कतं तत्थ तत्थ सवं अजहन्नमणुक्कोसयं दट्ठवं (पत्र 81) इति / इदं चोत्कृष्टं सङ्ख्येयकमित्थमेव प्ररूपयितुं शक्यते, द्विकादिदशशतसहस्रलक्षकोट्यादिशीर्षप्रहेलिकान्तराशिभ्योऽतिबहुना समतिक्रान्तत्वेन प्रकारान्तरेणाख्यातुमशक्यत्वात् / यदाहुः प्रसिद्धसिद्धान्तसन्दोहविवरणप्रकरणकरणप्रमाण(ग्रन्थ)प्रथनावाप्तसुधांशुधामधवलयशःप्रसरधवलितसकलवसुन्धरावलयाः श्रीहरिभद्रसूरिपादा अनुयोगद्वारटीकायाम् जंबूद्दीवप्पमाणमेचा चचारि पल्ला-पढमो अणवट्ठियपल्लो, बिइओ सलागापल्लो, तईओ पडिसलागापल्लो, चउत्थओ महासलागापल्लो / एए चउरो वि रयणप्पहपुढवीए पढम रयणकंडं जोयणसहस्सावगाहं मितूण बिइए वयरकंडे पइट्टिया। इमा ठवणा-UUUU। एए ठविया। एगो गणणं न उवेइ, दुप्पभिई संख ति काउं / तत्थ पढमे अणवट्ठियपल्ले दो सरिसवा पक्खित्ता एवं जहन्नगं सखिज्जगं। ततो एगुत्तरवुड्डीए तिन्नि चउरो पंच जाव सो पुन्नो अन्नं सरिसवं न पडिच्छइ ति ताहे असब्भावट्ठवणं पडुच्च वुच्चति-तं को वि देवो दाणवो वा उक्खित्तुं वामकरयले काउं ते सरिसवे जंबूद्दीवाइए एगं दीवे एगं समुद्दे पक्खिविजा जाव निट्ठिया, ताहे सलागापल्ले एगो सरिसवो छूढो / जत्थ निढिओ तेण सह आरिल्लएहिं दीवसमुद्देहिं पुणो अन्नो पल्लो आइज्जइ, सो वि सरिसवाणं भरिओ, तओ परओ एकेकं दीवसमुद्देसु पक्खिवंतेणं निहाविओ, तओ सलागापल्ले बिइया सलागा पक्खित्ता / एवं एएणं अणवट्ठियपल्लकरणक्कमेण सलायग्गहणं १सिद्धान्ते च यत्र यत्र सञ्जयातकप्रहणं कृतं तत्र तत्र सर्वमजघन्यमनुत्कृष्टं द्रष्टव्यम् // २जम्बूद्वीपप्रमाणमात्राश्वलारः पल्याः-प्रथमोऽनवस्थितपल्यः, द्वितीयः शलाकापल्यः, तृतीयः प्रतिशलाकापल्यः, चतुर्थको महाशलाकापल्यः / एते चखारोऽपि रत्नप्रभापृथ्व्याः प्रथमं रनकाण्डं योजनसहस्रावगाहं मित्त्वा द्वितीयस्मिन् वज्रकाण्डे प्रतिष्ठिताः / एषा स्थापना 0000 / एते स्थापिताः / एको गणना नोपैति, द्विप्रभृति सङ्ख्येति कृला / तत्र प्रथमेऽनवस्थितपल्यै द्वौ सर्षपौ प्रक्षिप्तौ एतजघन्यकं सङ्ख्यातकम् / तत एकोत्तरवृध्या त्रयश्चत्वारः पञ्च यावत् स पूर्णोऽन्यं सर्षपं न प्रतीच्छति इति तदा असद्भावस्थापना प्रतीत्योच्यते-तं कोऽपि देवो दानवो वोत्क्षिप्य वामकरतले कुंला तान् सर्षपान् जम्बूद्वीपादिके एक द्वीपे एक समुद्र प्रक्षिपेद्यावनिष्ठिताः, तदा शलाकापल्ये एकः सर्षपो क्षिप्तः। यत्र निष्ठितस्तेन सह आरातीयद्वीपसमुद्रःपुनरन्यः पल्यः आदीयते, सोऽपि सर्षपैर्मृतः, ततः परत एकैकं द्वीपसमुद्रेषु प्रक्षिपता निष्ठापितः, ततः शलाकापल्ये द्वितीया शलाका प्रक्षिप्ता.। एवमेतेनानवस्थितपल्यकरणक्रमेण शलाकामहणं कुर्वता शलाकापल्यः शलाकामि Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा करेंतेण सलागापल्लो सलागाणं भरिओ, कमागतो अणवट्ठियओ वि / तओ सलांगापल्लो सलागं न पडिच्छइ ति काउं सो चेव उक्खिचो निट्टियट्टाणाओ परओ पुवक्कमेण पक्खित्तो निहिओ य, तओ पडिसलागापल्ले पढमा सलागा छूढा / तओ अणवडिओ उक्खिचो निट्ठियहाणाओ परओ पुश्वक्कमेण पक्खित्तो निढिओ य, तओ सलागापल्ले सलागा पक्खिता / एवं अण्णेणं अण्णेणं अणवट्टिएण आरिकनिकिरतेणं जाहे पुणो सलागापल्लो भरिओ अणवढिओ य, ताहे पुणो सलागापल्लो उक्खित्तो पक्खित्तो निटिओ य पुषकमेण, ताहे पडिसलागापल्ले बिइया पडिसलागा छूढा / एवं आइरणनिकिरणेण जाहे तिन्नि वि पडिसलागसलागअणवट्ठियपल्ला य भरिता ताहे पडिसलागापल्लो उक्खिचो पक्खिप्पमाणो निहिओ य ताहे महासलागापल्ले पढमा महासलागा छूढा, ताहे सलागापल्लो उक्खित्तो पक्खिप्पमाणो निटिओ य ताहे पडिसलागापल्ले सलागा पक्खित्वा / ताहे अणवडिओ उक्खित्तो पक्खित्तो य ताहे सलागापल्ले सलागा पक्खिचा / एवं आइरणनिकिरणकमेण ताव कायवं जाव परंपरेणं महासलाग पडिसलाग सलाग अणवट्ठियपल्लो य चउरो वि भरिया, ताहे उक्कोसमइच्छियं / इत्थ जावइया अणवट्टियपल्लसलागापल्लपडिसलागापल्लेण य दीवसमुद्दा उद्धरिया, जे य चउपल्लट्ठिया सरिसवा एस सबो वि एतप्पमाणो ससी एगरूवूणो उक्कोसयं संखिज्जयं हवइ / जहण्णुक्कोसट्टाणमझे जे ठाणा ते सवे पत्तेयं अजहण्णमणुक्कोसया संखिज्जया भणियवा / सिद्धते य जत्थ जत्थ संखिज्जयगहणं कयं तत्थ तत्थ सवं अजहन्नमणुकोसयं दट्ठवं / एवं संखेजगे परूविए सीसो पुच्छइ-भगवं! किमेएणं अणवट्ठियपल्लसलागपडिसलागाईहि य दीवसमुदुद्धारगहणेण य उक्कोससंखिज्जपरूवणा किज्जइ ! गुरू भणइ–नत्थि अन्नो संखिज्जगस्स फुडयरो परूवणोवाओ ति (पत्र 111) // 77 // {तः, क्रमागतोऽनवस्थितोऽपि / ततः शलाकापल्यः शलाकां न प्रतीच्छति इति कृखा स एषोक्षिप्तो निष्ठितस्थानात् परतः पूर्वक्रमेण प्रक्षिप्तो निष्ठितश्च, ततः प्रतिशलाकापल्ये प्रथमा शलाका क्षिप्ता ततोऽनवस्थित उत्क्षिप्तो निष्ठितस्थानात् परतः पूर्वक्रमेण प्रक्षिप्तो निष्ठितश्च, ततः शलाकापल्ये शलाका प्रक्षिप्ता / एवमन्येनान्येन अनवस्थितेन आकिरणनिष्किरणेन यदा पुनः शलाकापल्यः भृतोऽनवस्थितश्च, तदा पुनः शलाकापल्य उत्क्षिप्तः प्रक्षिप्तो निष्ठितश्च पूर्वक्रमेण, तदा प्रतिशलाकापल्ये द्वितीया प्रतिशलाका क्षिप्ता / एवं आकिरणनिष्किरणेन यदा त्रयोऽपि प्रतिशलाकाशलाकानवस्थितपल्याश्च भृताः तदा प्रतिशलाकापल्य उत्क्षिप्तः प्रक्षिप्यमाणो निष्ठितच तदा महाशलाकापल्यै प्रथमा महाशलाका क्षिप्ता, तदा शलाकापल्य उत्क्षिप्तः प्रक्षिप्यमाणो निष्ठितश्च तदा प्रतिशलाकापल्ये शलाका प्रक्षिप्ता / तदाऽनवस्थित उत्क्षिप्तः प्रक्षिप्तश्च तदा शलाकापल्ये शलाका प्रक्षिप्ता। एवं आकिरणनिष्किरणक्रमेण तावत् कर्तव्यं यावत् परम्परया महाशलाका प्रतिशलाका शलाकाऽनवस्थितपल्यश्च चखारोऽपि भृताः तदोत्कृष्ट अतिकान्तम् / अत्र यावन्तोऽनवस्थितपल्यशलाकापल्यप्रतिशलाका.' पल्यैश्च द्वीपसमुद्रा उद्धृताः, ये च चतुष्पल्यस्थिताः सर्षपा एष सर्वोऽपि एतत्प्रमाणो राशिरेकरूपोन उत्कृष्टकं सध्यातकं भवति / जघन्योकृष्टस्थानमध्ये यानि स्थानानि तानि सर्वाणि प्रत्येकं अजघन्यानुत्कृष्टानि सध्यातकानि भणितव्यानि / सिद्धान्ते च यत्र यत्र सङ्ख्ययग्रहणं कृतं तत्र तत्र सर्व अजघन्यमनुत्कृष्टं द्रष्टव्यम् / एवं सङ्ख्यातके प्ररूपिते शिष्यः पृच्छति-भगवन् / किमेतेनानवस्थितपल्यशलाकाप्रतिशलाकादिभिश्च द्वीप. समुद्रोद्धारग्रहणेन चोत्कृष्टस यातकप्ररूपणा क्रियते ? गुरुर्भणति-नास्त्यन्यः सङ्ख्येयकस्य स्फुट पाय इति // 1 एष समप्रोऽपि पाठः अनुयोगद्वारचूर्णी 79 तमे पत्रेऽप्यस्ति / . पा . Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207 77-79] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / - इत्युक्तं त्रिविधमपि सङ्ख्येयकम् / इदानीं नवविधमसङ्ख्येयकं नवविधमेव चानन्तर्क निरुरूपयिषुर्गाथायुगमाह रूवजुयं तु परित्तासंखं लहु अस्स रासि अन्भासे। जुत्तासंखिज्ज लहु, आवलियासमयपरिमाणं // 78 // पूर्वोक्तमेवोत्कृष्टं सङ्ख्येयकं 'रूपयुतं तु' रूपेण-एकेन सर्षपेण पुनर्युक्तं सत् ‘लघु' जघन्यं 'परीतासङ्ख्यं' परीचासयेयकं भवति / इदमत्र हृदयम्-इह येनैकेन सर्षपरूपेण रहितोऽनन्तरोद्दिष्टो राशिरुत्कृष्टसङ्ख्यातकमुक्तं तत्र राशौ तस्यैव रूपस्य निक्षेपो यदा क्रियते तदा तदेवोत्कृष्टं सङ्ख्यातकं जघन्यं परीत्तासङ्ख्यातकं भवतीति / इह च जघन्यपरीतासङ्ख्येयकेऽभिहिते यद्यपि तस्यैव मध्यमोत्कृष्टभेदप्ररूपणावसरस्तथापि परीतयुक्तनिजपदभेदतस्त्रिभेदानामप्यसङ्ख्येयकानां मध्यमोत्कृष्टभेदौ पश्चादल्पवक्तव्यत्वात् प्ररूपयिष्येते, अतोऽधुना जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकं तावदाह"अस्स रासि अब्भासे” इत्यादि अस्य राशेः-जघन्यपरीत्तासङ्ख्येयकगतराशेः 'अभ्यासे' परस्परगुणने सति 'लघु' जघन्यं युक्तासङ्ख्येयकं भवति / तच्च 'आवलिकासमयपरिमाणम्' आवलिका"असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं" (अनुयो० पत्र 178-2) इत्यादिसिद्धान्तप्रसिद्धा तस्याः समयाः-निर्विभागाः कालविभागास्तत्परिमाणमावलिकासमयपरिमाणम् , जघन्ययुतासङ्ख्येयकतुल्यसमयराशिप्रमाणा आवलिका इत्यर्थः / एतदुक्तं भवति-जघन्यपरीचासङ्ख्येयकसम्बन्धीनि यावन्ति सर्षपलक्षणानि रूपाणि तान्येकैकशः पृथक् पृथक् संस्थाप्य तत एकैकसिन् रूपे जघन्यपरीचासङ्ख्यातकप्रमाणो राशिर्व्यवस्थाप्यते, तेषां च राशीनां परस्परमभ्यासो विधीयते / इहैवं भावना-असत्कल्पनया किल जघन्यपरीतासङ्घयेयकराशिस्थाने पञ्च रूपाणि करप्यन्ते, तानि विवियन्ते-जाताः पञ्चैककाः 11111, एककानामधः प्रत्येकं पञ्चैव वाराः पञ्च पञ्च व्यवस्थाप्यन्ते / तद्यथा-१११११। अत्र पञ्चभिः पञ्च गुणिता जाता पञ्चविंशतिः, साऽपि पञ्चभिराहता जातं पञ्चविंशं शतम् इत्यादिक्रमेणामीषां राशीनां परस्पराभ्यासे जातानि पञ्चविंशत्यधिकान्येकत्रिंशच्छतानि 3135 / एष कल्पनया तावदेतावन्मात्रो राशिर्भवति, सद्भावतस्त्वसहथेयरूपो जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकतया मन्तव्य इति // 78 // निरूपितं जघन्ययुक्तासयेयकम् / सम्प्रति शेषजघन्यासङ्ख्यातासङ्ख्यातकभेदस्य जघन्यपरीचानन्तकादिखरूपाणां त्रयाणां जघन्यानन्तकभेदानां च खरूपमतिदेशतः प्रतिपिपादयिषुराह बितिचउपंचमगुणणे, कमा सगासंख पढमचउसत्त / .: शंता ते रूवजुया, मज्झा रूवूण गुरुं पच्छा // 79 // इह "संखिज्जेगमसंखं" (गा० 71) इत्यादिगाथोपन्यस्तोत्कृष्ट सङ्ख्यातकादिमौलसप्तपदापेक्षया सङ्ख्यातकाद्यभेदविकलानि यानि परीत्तासङ्ख्यातकादीनि षट् पदानि तानि परीचासङ्ख्यातकानन्तानन्तकभेदद्वयविकलानि द्वित्रिचतुःपञ्चसङ्ख्यात्वेन प्रोक्तानि / ततः 'द्वित्रिचतुःपञ्चम 1 असङ्ख्येयानां समयानां समुदयसमितिसमागमेन // 2 मौलसप्तपदानि त्वेतानि उत्कृष्टसङ्ग्यातकम् / परीत्तासङ्ग्यातकम् 2 युक्तासङ्ख्यातकम् 3 असङ्ख्यातास यातकम् 4 परीत्तानन्तकम् 5 युक्तानन्तकम् / अनन्तानन्तकम् // Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा गुणने' द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमपदवाच्यराशेरन्योऽन्याभ्यासे सति 'क्रमात्' क्रमेण "सगासंख" त्ति प्राकृतत्वात् 'सप्तमासङ्ख्यातम्' स्थापनापेक्षया | जघन्यसंख्यातकम् 1 | मध्यमसंख्यातकम् 2 / उत्कृष्टसंख्यातकम् 3 / | परीसासं० जघ.. |परीत्तासं० मध्य.. परीत्तासं० उत्कृ.३ | | युक्तासं० जघन्यम् 4 / युकास. मध्य०५ युकासं० उत्कृ.६ / असं. असं. जघ०७| असं. असं० मध्य०८ असं. असं० उत्कृ.१ | परीत्तानन्तं जप.१ | परीत्तानन्तं मध्य. 2 | परीत्तानन्तं उत्कृ०३ | युक्तानन्तं. जप. 4 | युक्तानन्तं मध्य. 5 ।युक्तानन्तं उत्कृ. 6 अनन्तानन्तं जघ. | अनन्तानन्तं मध्य.८ अनन्तानन्तं उत्कृ. 9 जघन्यासङ्ख्यातासङ्ख्यातकम् / “पढमचउसत्त गंत" ति प्राकृतत्वात् प्रथमचतुर्थसप्तमान्यनन्तकानि / तत्र प्रथमानन्तकं-जघन्यपरीतानन्तकम् चतुर्थानन्तकम्-जघन्ययुक्तानन्तकम् सप्तमानन्तकं-जघन्यानन्तानन्तकं भवतीति / इह जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदतोऽसद्धयेयकानन्तकयोः प्रत्येकं नवविधत्वात् प्रदर्शितभेदानां सप्तमप्रथमादिसञ्जयानं सङ्गच्छत एव / इदमत्रैदम्पर्यम्द्वितीये युक्तासङ्ख्यातकपदवाच्ये जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकलक्षणे राशौ विवृते सति यावन्ति रूपाणि तावत्सु प्रत्येकं जघन्ययुक्तासङ्ख्यातकमाना राशयोऽभ्यसनीयाः, ततस्तेषां राशीनां परस्परताडने यो राशिर्भवति तत् सप्तमासयेयकं मन्तव्यम् / तृतीये त्वसङ्ख्येयकासङ्घयेयकपदवाच्ये जघन्यासङ्घयेयकासङ्ख्येयकरूपे राशौ यावन्ति रूपाणि तावतामेव जघन्यासद्धयेयकासङ्ख्येयकराशीनामन्योऽन्यगुणने सति यो राशिः सम्पद्यते तत् प्रथमानन्तकं जघन्यपरीचानन्तकमवसेयम् / चतुर्थे तु परीचानन्तकपदवाच्ये जघन्यपरीत्तानन्तकरूपे राशौ यावन्ति रूपाणि तावत्सङ्ख्यानां जघन्यपरीत्तानन्तकराशीनां परस्परमभ्यासे यावान् राशिर्भवति तत् चतुर्थमनन्तकं जघन्ययुक्तानन्तकं भवति / पञ्चमे तु युक्तानन्तकपदवाच्ये जघन्ययुक्तानन्तकरूपे राशौ यावन्ति रूपाणि तत्प्रमाणानामेव जघन्ययुक्तानन्तकराशीनां परस्परगुणने यावान् राशिः सम्पद्यते तत् सप्तमानन्तकं जघन्यानन्तानन्तकं भवति / आह परीचासङ्ख्यातकयुक्तासङ्ख्यातकासङ्ख्यातासङ्ख्यातकपरीत्तानन्तकयुक्तानन्तकानन्तानन्तकलक्षणाः षडपि राशयो जघन्यास्तावन्निर्दिष्टाः, मध्यमा उत्कृष्टाश्चैते कथं मन्तव्याः! इत्याह---"ते रूवजुया" इत्यादि / 'ते' अनन्तरोद्दिष्टा जघन्याः षडपि राशयो रूपेण-एककलक्षणेन युताः-समन्विता रूपयुताः सन्तः किं भवन्ति ? इत्याह-'मध्याः' मध्यमा अजघन्योत्कृष्टा इति यावत् / तत्र यः प्रामिर्दिष्टो जघन्यपरीचासङ्ख्यातकराशिः स एंकसिन् रूपे प्रक्षिप्ते मध्यमो भवति, उपलक्षणं चैतत् , नैकरूपप्रक्षेप एव मध्यमभणनं किन्त्वेकैकरूपनिक्षेपेऽयं तावद् मध्यमो मन्तव्यो यावद् उत्कृष्टपरीचासङ्घयेयकराशिन भवतीति / एवमनया दिशा जघन्ययुक्कासख्यातकादयोऽपि राशय एकैकसिन् रूपे निक्षिप्वे मध्यमाः सम्पद्यन्ते, तदनु चैकैकरूपवृद्ध्या तावद् मध्यमा अवसेया यावत् खं खमुत्कृष्टपदं नासादयन्तीति / तāते षडपि किंखरूपाः सन्त उत्कृष्टा भवन्ति ! इत्याह-"रूवूण गुरु पच्छ” चि रूपेण-एककलक्षणेन ऊनाः-न्यूना रूपोनाः सन्तस्त एव प्रागभिहिता जघन्या राशयः, तेशब्द आवृत्त्येहापि सम्बन्धनीयः, किं भवन्ति ! Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 79-80] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 209 इत्याह-'गुरवः' उत्कृष्टाः 'पाश्चात्याः' पश्चिमराशय इत्यर्थः / इयमत्र भावना-जघन्ययुक्तासत्यातकराशिरेकेन रूपेण न्यूनः स एव पाश्चात्य उत्कृष्टपरीतासायेयकखरूपो भवति, जघन्यासङ्ख्यातासङ्ग्यातकराशिस्त्वेकेन रूपेण न्यूनः सन् पाश्चात्य उत्कृष्टयुक्तासङ्ख्यातकखरूपो भवति, जघन्यपरीचानन्तकराशिः पुनरेकेन रूपेण न्यूनः पाश्चात्य उत्कृष्टासङ्ख्यातासायातकखरूपो भवति, जघन्ययुक्तानन्तकराशिस्त्वेकरूपोनः पाश्चात्य उत्कृष्टपरीत्तानन्तकस्वरूपो भवति. जघन्यानन्तानन्तकराशिरेकरूपरहितः पाश्चात्य उत्कृष्टयुक्तानन्तकखरूपो भवतीति / इदं चासझ्येयकानन्तकभेदानामित्थं प्ररूपणमागमाभिप्रायत उक्तं, कैश्चिदन्यथाऽपि चोच्यते // 79 // अत्र एवाह इय सुत्तुत्तं अन्ने, वग्गियमिकसि चउत्थयमसंखं / होइ असंखासंखं, लहु रूवजुयं तु तं मज्झं // 8 // 'इति' पूर्वोक्तप्रकारेण यद् असङ्ख्यातकानन्तकखरूपं प्रतिपादितं तत् सूत्रे-अनुयोगद्वारलक्षणे सिद्धान्ते उक्तं-निगदितम् / तथा चोक्तं श्रीअनुयोगद्वारेषु उक्कोसए संखिज्जए रूवं पक्खित्तं जहन्नयं परित्तासंखिज्जयं होइ / तेण परं अजहन्नमणुकोसयाइं ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्तासंखिजयं न पावेइ / उक्कोसयं परित्तासंखिज्जयं किचियं होइ ? जहन्नयं परित्तासंखिज्जयं जहन्नयपरित्चासंखिज्जयमित्ताणं रासीणं अन्नमन्नब्मासो रूवूणो उक्कोसयं परित्चासंखिज्जयं हवइ, अहवा जहन्नयं जुत्तासंखिज्जयं रूवूणं उक्कोसयं परित्तासंखिज्जयं होइ / जहन्नयं जुत्तासंखिज्जयं कित्तियं होइ ? जहन्नयपरिचासंखिजयमित्ताणं रासीणं अन्नमन्नब्भासो पडिपुन्नो जहन्नयं जुत्तासंखिज्जयं होइ, 'अहवा उक्कोसए परित्तासंखिज्जए रूवं पक्खित्तं जहन्नयं जुत्तासंखिज्जयं होइ, आवलिया वि तित्तिल्लया चेव / तेण परं अजहन्नमणुकोसयाई ठाणाइं जाव उक्कोसयं जुत्तासंखिजयं न पावइ / उक्कोसयं जुवासंखिज्जयं कित्तिल्लयं होइ !, जहन्नएणं जुवासंखिज्जएणं आवलिया गुणिया अन्नमन्नब्भासो रूवूणो उक्कोसयं जुत्तासंखिज्जयं होइ, अहवा जहन्नयं असंखिज्जासंखिज्जयं रूवूणं उक्कोसयं जुत्तासंखिज्जयं होइ / जहन्नयं असंखिज्जासंखिज्जयं कित्तियं होइ ? जहन्नएणं जुत्तासंखिज्जएणं आवलिया गुणिया अन्नमन्नब्मासो पडिपुन्नो जहन्नयं असंखिज्जासंखिज्जयं होइ, अहवा उक्कोसए जुत्तासंखिज्जए रूवं पक्खित्तं जहन्नयं असंखिज्जासंखिज्जयं होइ / तेण परं अजहन्नमणुक्कोसयाइं ठाणाइं जाव .1 उत्कृष्टके सत्ययके रूपं प्रक्षिप्तं जघन्यकं परीत्तासङ्ख्येयकं भवति / ततः परमजघन्योत्कृष्टकानि स्थानानि यावदुत्कृष्टं परीत्तासङ्ग्येयकं न प्राप्नोति। उत्कृष्टकं परीत्तासङ्ख्येयकं कियद् भवति? जघन्यकं परीत्तासङ्ख्ययकं जघन्यपरीत्तासङ्ग्येयकमात्राणां राशीनामन्योन्याभ्यासो रूपोन उत्कृष्टकं परीत्तासङ्ख्येयकं भवति, अथवा जपन्यकं युकासययकं रूपोनं उत्कृष्टकं परीत्तासङ्ख्येयकं भवति / जघन्यकं युक्तासङ्ख्येयकं कियद् भवति? जघन्यकपरीत्तासङ्ख्येयकमात्राणां राशीनामन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्णो जघन्यकं युक्तासङ्ख्येयकं भवति, अथवोत्कृष्टके परीतासहयेयके रूपं प्रक्षिप्तं जघन्यकं युक्तासङ्ख्येयकं भवति, भावलिकाऽपि तावत्येव / ततः परमजघन्योत्कृष्टकानि स्थानानि यावदुत्कृष्टकं युकासङ्ख्येयकं न प्राप्नोति / उत्कृष्टकं युक्तासङ्ख्येयकं कियद् भवति ? जघन्यकेन युकासज्येयकेनावलिका गुणिता अन्योन्याभ्यासो रूपोन उत्कृष्टकं युकासङ्खयेयकं भवति, अथवा जघन्यकमसङ्ख्येया. सङ्ग्येयकं रूपोनं उत्कृष्टकं युक्तासङ्खयेयकं भवति / जघन्यकमसङ्ख्येयासङ्ख्येयकं कियद् भवति? जघन्यकेन युकासहयेयकेनावलिका गुणिता अन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्णों जघन्यकमसङ्ख्येयासययकं भवति, अथवोत्कृष्टके युकासवयके रूपं प्रक्षिप्तं जघन्यकमसङ्ख्येयासङ्ख्येयकं भवति / ततः परमजघन्योत्कृष्टकानि स्थानानि यावदुत्कृष्टक क. 27 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा उकोसयं असंखिज्जासंखिज्जयं न पावेइ / उक्कोसयं असंखिज्जासंखिज्जयं कित्तियं होइ ! जहन्नयं असंखिज्जासंखिज्जयं जहन्नयअसंखिज्जासंखिज्जयमित्ताणं रासीणं अन्नमन्नन्मासो रूवूणो उक्कोसयं असंखिज्जासंखिज्जयं होइ, अहवा जहन्नयं परित्ताणतयं रूवूणं उक्कोसयं असंखिज्जासंखिज्जयं होइ / जहन्नयं परित्ताणतयं कित्तियं होइ ! जहन्नयं असंखिज्जासंखिजयं जहन्नयअसंखिज्जासंखिज्जयमिचाणं रासीणं अन्नमन्नब्मासो पडिपुनो जहन्नयं परिचाणंतयं होइ, अहवा उक्कोसए असंखिज्जासंखिजए रूवं पक्खित्वं जहन्नयं परित्ताणतयं होइ / तेण परं अजहन्नमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्ताणतयं न पावइ / उक्कोसयं परिचाणतयं कित्तियं होइ ! जहन्नयं परिचाणतयं जहन्नयपरित्ताणतयमित्ताणं रासीणं अन्नमन्नब्भासो रूवूणो उक्कोसयं परित्ताणतयं होइ, अहवा जहन्नयं जुताणतयं रूवूणं उक्कोसयं परिचाणंतयं होइ / जहन्नयं जुताणतयं कित्तियं होइ ! जहन्नयं परिचाणंतयं जहन्नयपरित्ताणतयमित्ताणं रासीणं अन्नमन्नब्भासो पडिपुन्नो जहन्नयं जुत्ताणतयं होइ, अहवा उक्कोसए परित्ताणतए रूवं पक्खित्तं जहन्नयं जुत्ताणतयं होइ, अमवसिद्धिया वि तत्तिया चेव / तेण परं अजहन्नमणुक्कोसयाइं ठाणाइं जाव उक्कोसयं जुनाणंतयं न पावइ / उक्कोसयं जुत्ताणतयं कित्तियं होइ ! जहन्नएणं जुत्ताणंतएणं अभवसिदिया गुणिया अन्नमन्नब्भासो रूवूणो उक्कोसयं जुत्ताणंतयं होइ, अहवा जहन्नयं अणंताणतयं रूवूणं उक्कोसयं जुत्ताणंतयं होइ / जहन्नयं अणंताणतयं कित्तियं होइ ! जहन्नएणं जुत्ताणंतएणं अभवसिद्धिया गुणिया अन्नमन्नब्भासो पडिपुन्नो जहन्नयं अणंताणतयं होइ, अहवा उकोसए जुत्ताणतए रूवं पक्खित्वं जहन्नयं अणंताणतयं होइ / तेण परं अजहन्नमणुक्कोसयाई ठाणाई / / एवं उक्कोसयं अणंताणतयं नत्थि - (238-1) इति / मसङ्ख्ययासयेयकं न प्राप्नोति / उत्कृष्टकमसङ्खयेयासङ्ख्येयकं कियद् भवति ? जघन्यकमसङ्ख्ययासङ्ख्येयकं जघन्यकासययास येयकमात्राणां राशीनामन्योन्याभ्यासो रूपोन उत्कृष्टकमसङ्ख्येयासङ्ख्येयकं भवति, अथवा जघ. न्यकं परीत्तानन्तकं रूपोनं उत्कृष्टकमसङ्ख्येयासङ्ख्येयकं भवति। जघन्यकं परीत्तानन्तकं कियद् भवति ? जघन्य. कमसयासयेयं जघन्यकासङ्खयेयासङ्ख्येयकमात्राणां राशीनामन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्णो जघन्यकं परीत्तानन्तकं भवति, अथवोत्कृष्टकेऽसङ्ख्ययासङ्खयेयके रूपं प्रक्षिप्तं जघन्यकं परीत्तानन्तकं भवति / ततः परमजघन्योत्कृष्टकानि स्थानानि यावदुत्कृष्टकं परीत्तानन्तकंन प्राप्नोति / उत्कृष्टकं परीत्तानन्तकं कियद् भवति ? जघन्यकं परी. सानन्तकं जघन्यकपरीत्तानन्तकमात्राणां राशीनामन्योन्याभ्यासो रूपोन उत्कृष्टकं परीत्तानन्तकं भवति, अथवा जघन्य युकानन्तकं रूपोनमुत्कृष्टकं परीत्तानन्तकं भवति। जघन्यकं युकानन्तकं कियद् भवति ? जघ. म्यकं परीत्तानन्तकं जघन्यकपरीत्तानन्तकमात्राणां राशीनामन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्णो जघन्यकं युक्तानन्तकं भवति, अथवोत्कृष्टके परीत्तानन्तके रूपं प्रक्षिप्तं जघन्यकं युक्तानन्तकं भवति, अभवसिद्धिका अपि तावन्त एव। . ततः परमजघन्योत्कृष्टकानि स्थानानि यावदुत्कृष्टकं युक्तानन्तकं न प्रानोति / उत्कृष्टकं युकानन्तकं कियद भवति ! जघन्यकेन युक्तानन्तकेनाभवसिद्धिका गुणिता अन्योन्याभ्यासो रूपोनः उत्कृष्टकं युकानन्तकं भवति, अथवा जघन्यकमनन्तानन्तकं रूपोनमुत्कृष्टकं युकानन्तकं भवति / जघन्यकमनन्तानन्तकं कियद् भवति ? जघ. न्यकेन युकानन्तकेनाभवसिद्धिका गुणिता अन्योन्याभ्यासः प्रतिपूर्णो जघन्यकमनन्तानन्तकं भवति, अथवो. स्कृष्टके युकानन्तके रूपं प्रक्षिप्तं जघन्यकमनन्तानन्तकं भवति / ततः परमजघन्योत्कृष्टकानि स्थानानि / एव. मुस्कष्टकमनन्तानन्तकं नास्ति // एतच्चिहान्तर्गतपाठो मुद्रितानुयोगद्वारेषु नास्ति // Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80-82] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / - उक्तः सूत्राभिप्रायः / साम्प्रतं मतान्तरगतमसङ्ख्यातानन्तकखरूपमाह-"अन्ने वग्गिय" इत्यादि / अन्ये आचार्याः-एके सूरय एवमाहुः, यथा—'चतुर्थकमसहयं' जघन्ययुक्तासङ्ख्यातक रूपं 'वर्गित तावतैव राशिना गुणितं सत् "एक्कसि" ति एकवारं 'भवति' जायते-सम्पद्यते असहयासज्ञयं 'लघु' जघन्यम् , जघन्यासायातासङ्ग्यातकं भवतीत्यर्थः / अत्रापि मते असङ्ख्यातकमुद्दिश्य मध्यमोत्कृष्टभेदप्ररूपणा पूर्वोक्तैवेति दर्शयन्नाह--"रूवजुयं तु तं मझं" ति रूपेणसर्षपलक्षणेन युतं रूपयुतं 'तुः' अवधारणे व्यवहितसम्बन्धश्च 'तद्' इति तदेवानन्तराभिहितं जघन्यासस्येयासक्येयादिकम् किं भवति ? इत्याह–'मध्यं' मध्यमासबधेयासङ्ख्येयादिकं भवति // 8 // रूवूणमाइमं गुरु, ति वग्गिउं तं इमं दस क्खेवे। . लोगागासपएसा, धम्माधम्मेगजियदेसा // 81 // तदेव जघन्यासङ्ख्येयासहथेयादिकं 'रूपोनम्' एकेन रूपेण रहितं सद् 'आदिम' तदपेक्षया आद्यस्य राशेः सम्बन्धि 'गुरु' उत्कृष्टं भवतीति / अयमत्राशयः-जघन्यासङ्ख्येयासङ्ख्येयकं रूपोनं सद् युक्तासङ्ग्यातकमुत्कृष्टकं भवति, जघन्यपरीतानन्तं रूपोनमसद्ध्येयासयेयकमुत्कृष्टं भवति, जघन्ययुक्तानन्तं तु रूपोनमुत्कृष्टं परीचानन्तं भवति, जघन्यानन्तानन्तकं तु रूपोनमुत्कृष्टं युक्तानन्तकं भवतीति / अधुना जघन्यपरीत्तानन्तकं मतान्तरेण प्ररूपयन्नाह-"ति वग्गिउं तं" इत्यादि / 'तद्' इति प्रागभिहितं जघन्यासङ्ख्येयासयेयकं 'त्रिवर्गयित्वा' सशद्विराशी परस्परं त्रीन् वारानभ्यस्येत्यर्थः / अयमत्राशयः-जघन्यासयेयासक्येयकराशेः सदृशद्विराशिगुणनलक्षणो वर्गो विधीयते, तस्यापि वर्गराशेः पुनर्वर्गः क्रियते, तस्यापि वर्गराशेः पुनरपि वर्गों निष्पाद्यत इति / ततः किम् ! इत्याह-'इमान्' वक्ष्यमाणखरूपान् 'दश' इति दशसध्यान् क्षिप्यन्त इति कर्मणि पनि क्षेपाः-प्रक्षेपणीयराशयस्तान् 'क्षिपख' निधेहीत्युत्तरगाथायां सम्बन्धः / तथाहि-लोकाकाशस्य प्रदेशाः 1 धर्मश्च अधर्मश्च एकजीवश्च धर्माधर्मैकनीवास्तेषां देशाः-प्रदेशाः / अयमत्रार्थः-धर्मास्तिकायप्रदेशाः 2 अधर्मास्तिकायप्रदेशाः 3 एकजीवप्रदेशाः 4 // 81 // तथा ठिइबंधज्झवसाया, अणुभागा जोगछेयपलिभागा। दुण्ह य समाण समया, पत्तेयनिगोयए खिवसु // 82 // * स्थितिबन्धस्य कारणभूतान्यध्यवसायस्थानानि कषायोदयरूपाण्यध्यवसायशब्देनोच्यन्ते, तान्यसयेयान्येव / तथाहि-ज्ञानावरणस्य जघन्योऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः स्थितिबन्धः, उत्कृष्टतस्तु त्रिंशत्सागरोपमकोटाकोटीप्रमाणः, मध्यमपदे त्वेकद्वित्रिचतुरादिसमयाधिकान्तर्मुहूर्तादिकोऽसध्येयमेदः, एषां च स्थितिबन्धानां निर्वर्तकान्यध्यवसायस्थानानि प्रत्येकमसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि भिन्नान्येव, एवं च सत्येकस्मिन्नपि ज्ञानावरणेऽसङ्ख्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते, एवं दर्शनावरणादिष्वपि वाच्यम् / “अणुभाग" ति 'अनुभागाः' ज्ञानावरणादिकर्मणां जघन्यमध्यमादिभेदभिन्ना रसविशेषाः, एतेषां चानुभागविशेषाणां निर्वतकान्यसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्त्यतोऽनुभागविशेषा अप्येतावन्त एव द्रष्टव्याः, कारणभेदाश्रितत्वात् कार्यभेदानाम् / "जोगछेयपलिभाग" ति योगः-मनोवाकाय Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 देवेन्द्रसूरिविरचितखोपज्ञटीकोपेतः [गाथा विषयं वीर्य तस्य केवलिप्रज्ञाच्छेदेन प्रतिविशिष्टा निर्विभागा भागा योगच्छेदप्रतिमागाः, ते च निगोदादीनां संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तानां जीवानामाश्रिता जघन्यादिभेदभिन्ना असङ्ख्येया मन्तव्याः / "दुण्ह य समाण समय" ति 'द्वयोश्च समयोः' उत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालखरूपयोः समया असकयेयखरूपाः / “पचेयनिगोयए" ति अनन्तकायिकान् वर्जयित्वा शेषाः पृथिव्यतेजोवायुवनस्पतित्रसाः प्रत्येकशरीरिणः सर्वेऽपि जीवा इत्यर्थः, ते चासत्यया भवन्ति / निगोदाः सूक्ष्माणां बादराणां चानन्तकायिकवनस्पतिजीवानां शरीराणीत्यर्थः, ते चासङ्ख्याताः / एवमेते प्रत्येकमसयेयखरूपा दश क्षेपास्तान क्षिपख // 82 // अथ राशिदशकप्रक्षेपानन्तरं तस्यैव राशेर्यसिन् विहिते यद् भवति तदाह पुण तम्मि ति वग्गियए, परित्तणंत लहु तस्स रासीण। अन्भासे लहु जुत्ताणंतं अन्भवजियमाणं // 83 // पुनरपि "तम्मि" ति तस्मिन् अनन्तरोदिते प्रक्षिप्तक्षेपदशके 'त्रिवर्गिते' त्रीन् वारान् वर्गिते सति परीतानन्तं 'लघु' जघन्यं भवति / इदमुक्कं भवति–जघन्यासङ्ख्येयासक्थेयकखरूपे वारत्रयं वर्गिते राशौ दशैते क्षेपाः क्षिप्यन्ते, तत इत्थं पिण्डितो यो राशिः सम्पद्यते स पुनरपि वारत्रयं वय॑ते ततो जघन्यं परीत्तानन्तकं भवतीति / इदानीं जघन्ययुक्तानन्तकनिरूपणायाह-- "तस्स रासीण" इत्यादि, 'तस्य' जघन्यपरीचानन्तकस्य सम्बन्धिनां राशीनामन्योन्यमभ्यासे सति 'लघु' जघन्यं युक्तानन्तकमभव्यजीवमानं भवति / इयमत्र भावना-जघन्यपरीचानन्तके ये राशयः सर्षपरूपास्ते पृथक् पृथग् व्यवस्थाप्यन्ते, तेषां तथा व्यवस्थापितानां जघन्यपरीचानन्तकमानानां राशीनामन्योन्याभ्यासे सति युक्तानन्तं जघन्यं भवति, तथा जघन्ययुकानन्तके यावन्ति रूपाणि वर्तन्त अभवसिद्धिका अपि जीवाः फेवलिना तावन्त एव दृष्टा इति // 83 / / जघन्यानन्तानन्तकप्ररूपणायाह तव्वग्गे पुण जायइ, णंताणंत लहु तं च तिक्खुत्तो। वग्गसु तह विन तं होइ गंतखेवे खिवसु छ इमे // 84 // तस्य-जघन्ययुक्तानन्तकराशेर्वर्गे-सकृदभ्यासे तद्वर्गे कृते सति 'पुनः' भूयोऽपि 'जायते' सम्पद्यते अनन्तानन्तं 'लघु' जघन्यम् , जघन्यानन्तानन्तकं भवतीत्यर्थः / उत्कृष्टानन्तानन्तकमरूपणायाह-"तं च तिक्खुत्तो" इत्यादि / 'तच्च' तत् पुनर्जघन्यमनन्तानन्तं 'त्रिकृत्वः' त्रीन् वारान् 'वर्गयख' तावतैव राशिना गुणय / अयमत्रार्थः-जघन्यानन्तानन्तकराशेखावतैव राशिना गुणनखरूपो वर्गः क्रियते, ततस्तस्य वर्गितराशेः पुनर्वर्गः, तस्यापि वर्गितराशेभ्योऽपि वर्ग इति / 'तथापि' एवमपि वारत्रयं वर्गे कृतेऽपि तद्' उत्कृष्टमनन्तानन्तकं 'न भवति' न जायते / ततः किं कार्यम् ! इत्याह-अनन्तक्षेपान् ‘इमान्' वक्ष्यमाणखरूपान् 'षट् षट्सस्यान् ‘क्षिपख' निघेहीति // 84 // तानेव षडनन्तक्षेपानाह सिद्धा निगोयजीवा, वणस्सई काल पुग्गला चेव / सव्वमलोगनहं पुण, ति वग्गिउं केवलदुगम्मि // 85 // Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 83-86] षडशीतिनामा चतुर्थः कर्मग्रन्थः / 213 सर्व एव 'सिद्धाः' निष्ठितनिःशेषकर्माणः 1 'निगोदजीवाः' समस्ता अपि सूक्ष्मबादरमेदभिन्ना अनन्तकायिकसत्त्वाः 2 'वनस्पतयः' प्रत्येकानन्ताः सर्वेऽपि वनस्पतिजीवाः 3 'कालः' इति सर्वोऽप्यतीतानागतवर्तमानकालसमयराशिः 4 'पुद्गलाः' समस्तपुद्गलराशेः परमाणवः 5 'सर्व' समस्तम् 'अलोकनभः' अलोकाकाशमिति उपलक्षणत्वात् सर्वोऽपि लोकालोकप्रदेशराशिः 6 इत्येतद्राशिषट्कप्रक्षेपानन्तरं यस्मिन् कृते यद् भवति तदाह-'पुनः' पुनरपि 'त्रिवर्गयित्वा' त्रीन् वारांखावतैव राशिना गुणयित्वा 'केवलद्विके' केवलज्ञानकेवलदर्शनयुगले क्षिप्ते सति // 85 // किम् ! इत्याह- ... खित्ते णंताणतं, हवेइ जिटुंतु ववहरइ मज्झं / ___इय सुहुमत्थवियारो, लिहिओ देविंदसूरीहिं // 86 // ‘क्षिप्ते' न्यस्ते सत्यनन्तानन्तकं भवति' जायते 'ज्येष्ठम्' उत्कृष्टम् 'तुः' पुनरर्थे व्यवहितसम्बन्धश्च / 'व्यवहरति' व्यवहारकारि 'मध्यं तु' मध्यमं पुनः / इयमत्र भावना-इह केवलज्ञानकेवलदर्शनशब्देन तत्पर्याया उच्यन्ते, ततः केवलज्ञानकेवलदर्शनयोः. पर्यायेष्वनन्तेषु क्षिप्तेषु सखिति द्रष्टव्यम् , नवरं ज्ञेयपर्यायाणामानन्त्याद् ज्ञानपर्यायाणामप्यानन्त्यं वेदितव्यम् , एवमनन्तानन्तं ज्येष्ठं भवति, सर्वस्यैव वस्तुजातस्यात्र संगृहीतत्वात् , अतः परं वस्तुसत्त्वस्यैव सङ्ग्याविषयस्याभावादित्यभिप्रायः / सूत्राभिप्रायतस्त्वित्थमप्यनन्तानन्तकमुत्कृष्टं न प्राप्यते, अनन्तकस्याष्टविधस्यैव तत्र प्रतिपादितत्वात् / तथा चोकमनुयोगद्वारेषु एवमुक्कोसयं अणंताणतयं नत्थि / तदत्र तत्त्वं केवलिनो विदन्ति / सूत्रे तु यत्र क्वचिदनन्तानन्तकं गृह्यते तत्र सर्वत्राजघन्योकृष्टशब्दवाच्यमनन्तानन्तकं द्रष्टव्यम् / तदेवं व्याख्यातं सप्रपञ्चं सझ्यातकासङ्ख्यातकानन्तकादिखरूपम् , तन्निरूपणे च व्याख्याता "नमिय जिणं जियमग्गण" (गा० 1) इत्यादि मौलद्वारगाथा / सम्पति षडशीतिसङ्ख्यगाथाप्रमाणत्वेन यथार्थ षडशीतिकशास्त्रं समर्थयन्नाह"इय सुहुमत्थवियारो" इत्यादि / 'इति' पूर्वोक्तप्रकारेण सूक्ष्मः-मन्दमत्यगम्यो योऽर्थःशब्दाभिधेयं तस्य विचारः विचारणं 'लिखितः'-अक्षरविन्यासीकृतः पञ्चसङ्ग्रहादिशाम्य इति शेषः / कैः ! इत्याह-'देवेन्द्रसूरिभिः' करालकलिकालपातालतलावमज्जद्विशुद्धधर्मधुरोद्धरणधुरीणश्रीमजगच्चन्द्रसूरिक्रमकमलचञ्चरीकैरिति // 86 // // इति श्रीदेवेन्द्रसूरिविरचिता खोपज्ञषडशीतिकटीका समाप्ता // 1 एवमुत्कृष्टमनन्तानन्तकं नास्ति / N>> एतचिहान्तर्गतपाठो मुद्रितानुयोगद्वारेषु नोपलब्धः // Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ ग्रन्थकारप्रशस्तिः। विष्णोरिव यस्य विभोः, पदत्रयी व्यानशे जगन्निखिलम् / सूक्ष्मार्थसार्थदेशी, स श्रीवीरो जिनो जयतु // 1 // कुन्दोज्वलकीर्तिभरैः, सुरभीकृतसकलविष्टपाभोगः / शतमखशतविनतपदः, श्रीगौतमगणधरः पातु // 2 // तदनु सुधर्मस्वामी, जम्बूप्रभवादयो मुनिवरिष्ठाः / भुतजलनिधिपारीणा, भूयांसः श्रेयसे सन्तु // 3 // ततः प्राप्ततपाचार्येत्यभिख्या भिक्षुनायकाः / / समभूवन् कुले चान्द्रे, श्रीजगचन्द्रसूरयः // 1 // जगजनितबोधानां, तेषां शुद्धचरित्रिणाम् / विनेयाः समजायन्त, श्रीमद्देवेन्द्रसूरयः // 5 // खान्ययोरुपकाराय, श्रीमद्देवेन्द्रसूरिणा। पडशीतिकटीकेयं, सुखबोधा विनिर्ममे // 6 // विबुधपरधर्मकीर्तिश्रीविद्यानन्दसूरिमुख्यबुधैः / खपरसमयैककुशलैस्तदैव संशोधिता थेयम् // 7 // सद्गदितमल्पमतिना, सिद्धान्तविरुद्धमिह किमपि शास्त्रे। विद्भिस्तत्त्वज्ञैः, प्रसादमाधाय तच्छोध्यम् // 8 // षडशीतिकशास्त्रमिदं, विवृण्वता यन्मयाऽर्जितं सुकृतम् / तेनास्तु भव्यलोकः, सूक्ष्मार्थविचारणाचतुरः // 9 // अन्माप्रम् 2800 / सर्वग्रन्थानम् 5938 अ. 28 // goenencrescencncncncncnenes है इति कर्मग्रन्थचतुष्टयात्मकः प्रथमो विभागः। , saaoisrvasavamerameramana Page #260 -------------------------------------------------------------------------- _