Book Title: Bhikshu Vichar Darshan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षु विचार दर्शन आचार्य महाप्रज्ञ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिक्षु-विचारदर्शन Fa आचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती प्रकाशन Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादक : मुनि दुलहराज प्रकाशक : समण संस्कृति संकाय जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) 341306 © जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज.) 341306 ISB No. 81-7195-010-8 तेरहवां संस्करण : 2010 (2200 प्रतियाँ) मूल्य : 60.00 (साठ रुपये) मुद्रक : कला भारती, नवीन शाहदरा, दिल्ली-32 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेरहवें संस्करण पर जैसे-जैसे काल की लम्बाई बढ़ती है, वैसे-वैसे उसका आवरण सबको आवृत करता जाता है । किन्तु उन्हें अनावृत करता है, जिनका जीवन तपःपूत रहा है | आचार्य भिक्षु महान् तपस्वी थे। उनकी तपस्या का वलय इतना शक्तिशाली था कि उसके परमाणु हजारों वर्षों तक अपना प्रभाव सुरक्षित रख पाएंगे । आचार्य भिक्षु द्वारा जो सत्य अभिव्यक्त हुआ, वह इतना चिरन्तन था कि उसे शाश्वत की तुला में तोला जा सकता है, वह इतना सामयिक है कि उसे वर्तमान की धारा का स्रोत कहा जा सकता है। 'भिक्षु - विचार दर्शन' आचार्य भिक्षु के विचार - बिन्दुओं का एक लघु समाकलन है। यह मैंने उस समय लिखा जब आचार्य भिक्षु जनता की दृष्टि में सांप्रदायिक अधिक, दार्शनिक कम थे । वर्तमान संस्करण उस समय हो रहा है, जब आचार्य भिक्षु जनता की दृष्टि में दार्शनिक अधिक, साम्प्रदायिक कम हैं। जनता ने आचार्य भिक्षु के विचारों को समझने में रुचि ली है । इसका अर्थ है कि लोग व्यवहार के धरातल से उतरकर नैश्चयिक सत्य तक पहुंचना चाहते हैं । इसकी फलश्रुति है कि बारहवां संस्करण जनता के हाथों में आ रहा है। इसमें कोई परिवर्तन या परिवर्धन नहीं किया गया है। वर्तमान की चिन्तनधारा ने आचार्य भिक्षु के विचारों को इतनी पुष्टि दी है कि दोनों चिन्तनधाराओं की तुलना की जा सकती है पर इसे मैं भविष्य के लिए छोड़ता हूँ । या संस्करण नए परिवेश में जैन विश्व भारती, लाडनूं द्वारा प्रस्तुत हो रहा है । वह मनोभिराम होने के साथ-साथ नयनाभिराम भी होगा । -आचार्य महाप्रज्ञ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम भूमिका १-२७ २६-४७ १. व्यक्तित्व की झांकी १. समय की सूझ २. श्रद्धा और बुद्धि का समन्वय ३. रूढ़िवाद पर प्रहार ४. अंधविश्वास का मर्मोद्घाटन ५. अदम्य उत्साह ६. स्वतन्त्र चिन्तन ७. मोह के उस पार ८ विश्वास विफल नहीं होता ६ आलोचना १०. जागरण ११. आचार-निष्ठा १२. व्यक्तिगत आलोचना से दूर १३. सिद्धान्त और आचरण की एकता १४. अकिंचन की महिमा १५. जहां बुराई-भलाई बनती है १६. क्षमा की सरिता में १७. सत्य का खोजी १८ जो मन को पढ़ सके १६ व्यवहार-कौशल २०. चमत्कार को नमस्कार Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५ २१. विवाद का अन्त २२. जिसे अपने पर भरोसा है २३. पुरुषार्थ की गाथा २. प्रतिध्वनि १. धर्म-क्रान्ति के बीज २. साधना के पथ पर ३. चिन्तन की धारा ४. नैसर्गिक प्रतिभा ५. हेतुवाद के पथ पर ६. श्रद्धावाद के पथ पर ७. धर्म का व्यापक स्वरूप ८ आग्रह से दूर ६. कुशल पारखी १०. क्रान्त वाणी ३. साध्य-साधन के विविध पहलू १. जीवन और मृत्यु २. आत्मौपम्य ३. संसार और मोक्ष ४. बल-प्रयोग ५. हृदय-परिवर्तन ६. साध्य साधन वाद ७. धन से धर्म नहीं ४. मोक्ष धर्म का विशुद्ध रूप १. चिन्तन के निष्कर्ष २. मिश्र धर्म ३. धर्म की अविभक्तता ४. अपना-अपना दृष्टिकोण ५. धर्म और पुण्य ६. प्रवृत्ति और निवृत्ति ७. दया ८दान ११७ ११८ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४-१४३ १२४ १३३ १४४-१८६ १४४ १४५ १४६ १४६ १४६ १४७ १५० १५२ १५५ १५७ १६० ५. क्षीर-नीर १. सम्यक् दृष्टिकोण २. अहिंसा का ध्येय ६. संघ-व्यवस्था १. यह मार्ग कब तक चलेगा? २. मर्यादा क्यों? ३. मर्यादा क्या? ४. मर्यादा का मूल्य ५. मर्यादा की पृष्ठभूमि ६. मर्यादा की उपेक्षा क्यों? ७. अनुशासन की पृष्ठभूमि ८ अनुशासन के दो पक्ष ६. अनुशासन का उद्देश्य १०. विचार-स्वातन्त्र्य का सम्मान ११. संघ-व्यवस्था १२. गण और गणी १३. निर्णायकता के केन्द्र १४. गण में कौन रहे? १५. गण में किसे रखा जाए? १६. पृथक् होते समय १७. गुटबन्दी १८ क्या माना जाए? १६. दोष-परिमार्जन २०. विहार ७. अनुभूतियों के महान् स्रोत १. कथनी और, करनी और २. भेद का भुलावा ३. बहुमत नहीं, पवित्र श्रद्धा चाहिए ४. अनुशासन और संयमी ५. श्रद्धा दुर्लभ है ६. जैन-धर्म की वर्तमान दशा का चित्र १६२ १६६ १७१ १७२ १७५ १७७ १७८ १७६ १८३ १९७-२०६ १७७ १७७ १८८ १८६ १८६ १६० Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ १६३ १६८ १६८ १६६ ७. आकाश कैसे सधे? . ८ क्रोध का आवेग ६ विनीत-अविनीत १०. गिरगिट के रंग ११. गुरु का प्रतिबिम्ब १२. उत्तरदायित्व की अवहेलना १३. चौधराई में खींच-तान १४. तांबे पर चांदी का झोल १५. बुद्धि का बल १६. विवेक-शक्ति १७. उछाला पत्थर तो गिरेगा ही १८ राग-द्वेप १६. विराम परिशिष्ट * * * * * * * * २०० २०१ २०२ २०३ २०४ २०४ २०७-२०६ * Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका काव्य-रचना, व्याकरण, न्यायशास्त्र, सिद्धांत, बीज-शास्त्र, ज्योतिष-विद्या में निपुण अनेक आचार्य होते हैं, किन्तु चारित्र में निपुण हों, वैसे आचार्य विरले ही होते हैं।' ___ आचार्य भिक्षु उन विरले आचार्यों में थे। उन्होंने चारित्र-शुद्धि को उतना महत्त्व दिया जितना देना चाहिए। ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन तीनों की आराधना ही मुक्ति का मार्ग है। परन्तु परिस्थितिवश किसी एक को प्रधान और दूसरों को गौण करने की स्थिति आ जाती है। आचार्य भिक्षु ने ऐसा नहीं किया। वे जीवन-भर ज्ञान की आराधना में निरत रहे और उनका चारित्र-शुद्धि का घोष ज्ञान-शून्य नहीं था। जैन परम्परा में चारित्रिक शिथिलता का पहला सूत्रपात आर्य सुहस्ती के समय में होता है। उसका कारण राज्याश्रय बना। सम्राट् सम्प्रति के संकेतानुसार सब लोग साधुओं को यथेष्ट भिक्षा देने लगे। भिक्षा की सुगमता देख महागिरि ने आर्य सुहस्ती से पूछा। यथेष्ट उत्तर न मिलने पर उन्होंने आचार्य सुहस्ती से सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। धर्मानन्द कोसम्बी ने बौद्ध धर्म के पतन का एक कारण राज्याश्रय माना है-“श्रमण संस्कृति में जो दोष आए, उनका मुख्य कारण, उसे राज्याश्रय मिलना रहा होगा। बुद्ध ने अपनी छोटी जमींदारी छोड़कर संन्यास १. सूक्तिमुक्तावली, ५० केचित्काव्यकलाकलापकुशलाः केचिच्च सल्लक्षणाः, केचित्तर्कवितर्कतत्त्वनिपुणाः केचिच्च सैद्धांतिकाः । केचिन्निस्तुषबीजशास्त्रनिरता ज्योतिर्विदो भूरयः, चारित्रैकविलासवासभवनाः स्वल्पाः पुनः सूरयः ॥ २. बृहत्कल्पचूर्णि, उ. १।। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ : भिक्षु विचार दर्शन लिया और पैंतालीस वर्ष तर्क धर्म-प्रचार का काम किया। इस काल में महाराजों से उनका सम्बन्ध क्वचित् ही रहा । " “बिंबसार राजा ने बुद्ध का बड़ा सम्मान किया और उसे वेणुवन दान में दिया, आदि जो कथाएं विनय - महावग्ग में हैं, वे बिल्कुल कल्पित जान पड़ती हैं । कारण, सुत्तपिटक में उनके लिए कोई आधार नहीं मिलता । बिंबसार राजा उदार था और वह सब पन्थों के श्रमणों से समान व्यवहार करता था। इस दशा में उसने यदि बुद्ध तथा उनके संघ को अपने वेणुवन में रहने की अनुमति दी हो, तो इसमें कोई विशेषता नहीं ।" " निशीथ सूत्र का पाठ भी शायद इसी दिशा की ओर संकेत करता है । ' पंडित बेचरदासजी का मत है- “दीर्घ तपस्वी भगवान् महावीर और उनके उत्तराधिकारी जम्बू स्वामी तक ही जैन मुनियों का यथोपदिष्ट आचार रहा, उनके बाद ही जान पड़ता है कि बुद्ध देव के अतिशत लोकप्रिय मध्यम मार्ग का उन पर प्रभाव पड़ने लगा। शुरू-शुरू में तो शायद जैन-धर्म के प्रसार की भावना से ही वे बौद्ध साधुओं जैसी आचार की छूट लेते होंगे, परन्तु पीछे उसका उन्हें अभ्यास हो गया। इस प्रकार एक सदभिप्राय से भी उक्त शिथिलता बढ़ती गई जो आगे चलकर चैत्यवास में परिणत हो गई।३ नाथूराम प्रेमी ने भी राजाओं द्वारा प्राप्त प्रतिष्ठा को चारित्र - शिथिलता का एक कारण माना है। उन्होंने लिखा है- "यह कहना तो कठिन है कि किसी समय सब-के-सब साधु आगमोपदिष्ट आचारों का पूर्णरूप से पालन करते होंगे; फिर भी शुरू-शुरू में दोनों ही शाखाओं के साधुओं में आगमोक्त आचारों के पालन का अधिक से अधिक आग्रहं था । परन्तु ज्यों-ज्यों समय बीतता गया, साधु- संख्या बढ़ती गई और भिन्न-भिन्न आचार-विचार वाले विभिन्न देशों में फैलती गई, धनियों और राजाओं द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा • पाती गई, त्यों-त्यों उसमें शिथिलता आती गई और दोनों ही सम्प्रदायों में शिथिलाचारी साधुओं की संख्या बढ़ती गई।”* १. भारतीय संस्कृति और अहिंसा, पृ. ६५-६६ । २. निशीथ उद्देशक ४ : जे भिक्खू - १-३ रायं अतीकरेइ, अच्चीकरेइ, अत्थीकरेइ ४-६ रायारक्खियं, ७-६ नगररक्खियं, १०-१२ निगमारक्खियं, १३-१५ १६-१८ सव्वारक्खियं अत्तीकरेइ, अच्चीकरेइ, अत्थीकरेइ ।. देसारक्खियं, ३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. ३५१. ४. वही, पृ. ३५१ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : ३ उक्त कारणों के अतिरिक्त और भी अनेक कारण रहे हैं, जैसे१. दुर्भिक्ष २. लोक-संग्रह ३. मन्त्र-तन्त्र, शक्ति-प्रयोग आदि । वीर-निर्वाण १.८२ (विक्रम सं. ४१२) में चैत्यवास की स्थापना हुई।' चारित्र-शिथिलता का प्रारम्भ पहले ही हो चुका था, किन्तु उसकी एक व्यवस्थित स्थापना इस नवीं शती में हुई। उस समय श्वेताम्बर मुनिगण दो भागों में विभक्त हो गये-चैत्यवासी और सुविहित या संविग्नपाक्षिक । हरिभद्र सूरि ने चैत्यवासियों के शिथिलाचार का वर्णन 'सम्बोध प्रकरण' में करते हुए लिखा है__“ये कुसाधु चैत्यों और मठों में रहते हैं; पूजा करने का आरम्भ करते हैं, देवद्रव्य का उपभोग करते हैं; जिन-मन्दिर और शालायें चिनवाते हैं; रंग-बिरंगे, सुगन्धित, धूपवासित वस्त्र पहनते हैं; बिना नाथ के बैलों के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं; आर्यिकाओं द्वारा लाये गये पदार्थ खाते हैं और तरह-तरह के उपकरण रखते हैं। ___ “जल, फल-फूल आदि सचित्त द्रव्यों का उपभोग करते हैं, दो-तीन बार भोजन करते हैं और ताम्बूल, लवंगादि भी खाते हैं।" _ “ये मुहूर्त निकालते हैं; निमित्त बतलाते हैं; भभूत भी देते हैं। ज्योनारों में मिष्ट-आहार प्राप्त करते हैं; आहार के लिए खुशामद करते हैं और पूछने पर भी सत्य-धर्म नहीं बतलाते।" "स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी दूसरों से आलोचना-प्रतिक्रमण कराते हैं। स्नान करते, तेल लगाते, शृंगार करते और इत्र-फुलेल का उपयोग करते हैं।" ___ “अपने हीनाचारी मृतक गुरुओं की दाह-भूमि पर स्तूप बनवाते हैं। स्त्रियों के समक्ष व्याख्यान देते हैं और स्त्रियां उनके गुणों के गीत गाती हैं।" "सारी रात सोते हैं; क्रय-विक्रय करते हैं और प्रवचन के बहाने विकथाएं किया करते हैं।" ___ “चेला बनाने के लिए छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते हैं; भोले लोगों को ठगते हैं और जिन-प्रतिमाओं को भी बेचते-खरीदते हैं।" १. धर्मसागर कृत पट्टावली-वीरात् ८८२ चैत्यस्थितिः। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ : भिक्षु विचार दर्शन “ उच्चाटन करते हैं और वैद्यक, यंत्र, मन्त्र, गंडा, तावीज आदि में कुशल होते हैं ।" "ये सुविहित साधुओं के पास जाते हुए श्रावकों को रोकते हैं; शाप देने का भय दिखाते हैं; परस्पर विरोध रखते हैं और चेलों के लिए एक-दूसरे से लड़ मरते हैं ।" " जो लोग इन भ्रष्ट चरित्रों को भी मुनि मानते थे, उनको लक्ष्य करके श्री हरिभद्र सूरि कहते हैं " कुछ नासमझ लोग कहते हैं - 'यह भी तीर्थंकरों का वेश है, इसे नमस्कार करना चाहिए ।' अहो, धिक्कार हो इन्हें ! मैं अपने सिरशूल की पुकार किसके आगे जाकर करूं ? २ १. संबोध प्रकरण : चेइयमढाइवासं पूयारंभाइ देवाइदव्यभोगं जिणहरसालाइ करणं निच्चवासित्तं । च ॥ ६१॥ वत्थाइ विविहवण्णाइं अइसियसद्दाइं धूववासाई । परिहज्जइ जत्य गणे तं गच्छं मूलगुणमुक्कं ॥४६॥ अन्नत्थियवसहा इव पुरओ गायंति जत्थ महिलाणं । जत्य जयारमयारं भणति आलं सय दिति ॥ ४६ ॥ संनिहि महाकम्मं जलफलकुसुमाइ सव्व सच्चित्तं । निच्चं दुतिवारं भोयणं विगइलवंगाई तंबोलं ॥५७॥ नरयगइहेउ जोउस निमित्तितेगिच्छमंत जोगाई | मिच्छत्तरायसेव नीयाण वि पावसाहिज्जं ॥६३॥ मयकिच्च जिणपूया परूवणं मयधणाणं जिणदाणे । गिहिपुरओ अंगाइपवयणकणं धणट्ठाए ||६|| त्योवगरणपत्ताइ दव्वं नियनिस्सएण संगहियं । गिहि गेहंमि यजेसिं ते किणिणो जाण न हु मुणिणो ॥ ८१ ॥ गिहिपुरओ सज्झायं करंति अण्णोष्णमेव झूझति । सीसाइयाण कज्जे कलहविवायं उइरेंति ॥ १६२॥ किं बहुणा मणिएणं बालाणं ते हवंति रमणिज्जा । दक्खाणं पुण एए विराहगा छन्नपावदहा ॥ १६३ ॥ २. संबोध प्रकरण : बाला वयंति एवं वेसो तित्थंकराण एसी वि । णमणिज्जो विद्धी अहो सिरसूलं कस्स पुक्करिमो ॥७३॥ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : ५ बौद्ध भिक्षुओं में चैत्यवास जैसी परिग्रही परम्परा का प्रारम्भ सम्राट अशोक के समय से होता है । यद्यपि महात्मा बुद्ध अपने लिए बनाये गए विहार में रहते थे, किन्तु अशोक से पहले भिक्षु-संघ की जो स्थिति थी वह बाद में नहीं रही। "अशोक के बाद यह स्थिति बदली। बौद्ध धर्म राज्याश्रित बना। राज्याश्रय प्राप्त करने का प्रयत्न प्रथमतः बौद्धों ने किया या जैनों ने, यह नहीं कहा जा सकता। यदि यह सच माना जाए कि चन्द्रगुप्त मौर्य जैन था तो कहना पड़ेगा कि राज्याश्रय प्राप्त करने का प्रथम प्रयल जैनों ने किया। पर यह प्रश्न बहुत महत्त्व का नहीं है। इतना सच है कि अशोक के बाद बौद्ध और जैन-दोनों ही पंथों ने राज्याश्रय प्राप्त करने का प्रयत्न किया।" ___“अशोक के शिलालेखों में इसके लिए कोई आधार नहीं मिलता कि अशोक को बुद्धोपातक बनाने का किसी बौद्ध साधु ने प्रयत्न किया। पर यह बात भी विशेष महत्त्व की नहीं है। इसमें संदेह नहीं कि बौद्ध बनने के बाद उसने अनेक विहार बनवाए और ऐसी व्यवस्था की कि हजारों भिक्षुओं का निर्वाह सुखपूर्वक होता रहे। दंतकथा तो यह है कि अशोक ने चौरासी हजार विहार बनवाये, पर इसमें तथ्य इतना ही जान पड़ता है कि अशोक का अनुकरण कर उसकी प्रजा ने और आस-पास के राजाओं ने हजारों विहार बनवाये और उनकी संख्या अस्सी-नब्बे हजार तक पहुंची।" ___ "अशोक राजा के इस कार्य से बौद्ध भिक्षु-संघ परिग्रहवान् बना। भिक्षु की निजी सम्पत्ति तो केवल तीन चीवर और एक भिक्षा-पात्र भर थी। पर संघ के लिए रहने की एकाध जगह लेने की अनुमति बुद्ध-काल से ही थी। उस जगह पर मालिकी गृहस्थ की होती थी और वही उसकी मरम्मत आदि करता था। भिक्षु-संघ इन स्थानों में केवल चतुर्मास-भर रहता और शेष आठ महीने प्रवास करता हुआ लोगों को उपदेश दिया करता था। चातुर्मास के अतिरिक्त यदि भिक्षु-संघ किसी स्थान पर अधिक दिन रह जाता था, तो लोग उसकी टीका-टिप्पणी करने लगते थे। पर अशोक-काल के बाद यह परिस्थिति बिलकुल बदल गई। बड़े-बड़े विहार बन गए और उनमें भिक्षु स्थायी रूप से रहने लगे।"१ १. भारतीय संस्कृति और इतिहास, पृ. ६६-६७ । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ : भिक्षु विचार दर्शन ___आचार्य भिक्षु ने (वि. १६वीं शती में) अपने समय की स्थिति का जो चित्र खींचा है, वह (वि. -वीं शती के) हरिभद्र सूरि से बहुत भिन्न नहीं है। वे लिखते हैं १. आज के साधु अपने लिए बनाए हुए स्थानकों में रहते हैं।' २. पस्तक, पन्ने, उपाश्रय को मोल लिवाते हैं। ३. दूसरों की निन्दा में रत रहते हैं।' ४. गृहस्थ को ऐसी प्रतिज्ञा दिलाते हैं कि तू दीक्षा ले तो मेरे पास • लेना और किसी के पास नहीं। ५. चेलों को खरीदते हैं।' ६. पुस्तकों का प्रतिलेखन नहीं करते। १. आचार री चौपई : १-२ : . आधाकर्मी थानक में रहे तो, ते पाडे चारित में भेद जी। नशीत रे दशमें उद्देशे, च्यार महीनां रो छेद जी ॥ २. वही, १.७ पुस्तक पातर उपाश्रादिक, लिवरावे ले ले नाम जी। आछा मुंडा कहि मोल बतावे, ते करे ग्रहस्थ नों काम जी ॥ ३. वही, १.१७ : पर निंदा में राता माता, चित्त में नहीं संतोष जी। वीर कह्यो दसमां अंग में, तिण वचन में तेरे दोष जी । ४. वही, १.१८-१६ : दिख्या ले तो मो आगे लीजे, ओर कनें दे पाल जी। कुगुरु एहवो सूंस करावे, ए चोडे ऊंधी चाल जी। ए बंधा थी ममता लागे, गृहस्थ सूं भेलप थाय जी। नशीत रे चीथे उद्देशे, दंड को जिणराय जी। ५. वही, १.२२ : घेला करण री चलगत उधी, चाला वोहत चलाय जी। साथे लीयां फिरे गृहस्थ ने, वले रोकड़ दाम दराय जी॥ ६. वही, १.२५ :. विण पडिलेह्या पुस्तक राखे, वले जमें जीयां रा जाल जी। पड़े कुंथुआ उपजे माकण, जिण बांधी भांगी पाल जी॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : ७ ७. गृहस्थ के साथ समाचार भेजते हैं।' ८. मर्यादा से अधिक वस्त्र रखते हैं। ६. मर्यादा से अधिक सरस आहार लेते हैं। १०. जीमनवारों में गोचरी जाते हैं। ११. चेली-चेला बनाने के लिए आतुर रहते हैं। इन्हें सम्प्रदाय चलाने से मतलब है, साधुपन से नहीं। १२. साधुओं के पास जाते हुए श्रावकों को ज्यों-त्यों रोकने का यत्न करते हैं। उनके कुटुम्ब में कलह का बीज बो देते हैं। १. आचार री चौपई : १.२७२८ : गृहस्थ में साथे कहे संदेसो, ते भेलो हुओ संभोग जी। 'तिण ने साधु किम सरधीजे, लागो जोग में रोग जी। समाचार विवरा सुध कहि कहि, सानी कर गृही बुलाय जी। कागद लिखावे करे आमनां, परहथ दीए चलाय जी॥ २. वही, १.४१-४२ : कपड़ा में लोपी मरजादा, लांबा पेना लगाय जी। इधिको राखे दोयवड ओढ़े, वले वोले मुसा बाय जी। उपगरण नें इधिका राखे, तिण मोटो कीयो अन्याय जी। नसीत रे सोलमें उद्देशे, चौमासी चारित जाय जी॥ ३. वही, १.३८: सरस आहार ले विन मरजादा, तो बधे देही री लोथ जी। काचमणी प्रकाश करे जिम, कुगुरु माया थोथ जी॥ ४. वही, १.२०-२६ जीमणवार में वेहरण जाए, आ साधां री नहीं रीत जी। वरज्यो 'आचारांग बृहत्कल्प में, उतराधेन नसीत जी॥ आलस नहीं आरा में जातां, वले बेठी पांत वसेष जी। सरस आहार ल्यावे भर पातर, त्यां लज्या छोडी ले भेष जी॥ ५. वही, ३.११ : ६. वही, ५.३३-३४ : केइ आवे सुध साधां कनें, तो मतीयां में कहे आम। थें वर्जी राखो घर रा मनुष्य में, जावा मत दो ताम॥ कहे दरसण करवा दो मती, वले सुणवा मत दो वांण। डराए में ल्यावो म्हां कनें, ए कुगुरु चरित पिछाण। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ : भिक्षु विचार दर्शन १३. आज वैराग्य घट रहा है, भेख बढ़ रहा है। हाथी का भार गधों पर लदा हुआ है। वे थक गए हैं और उन्होंने वह भार नीचे डाल दिया है। आचार-शिथिलता के विरुद्ध जैन परम्परा में समय-समय पर क्रान्ति होती रही है। आर्य सुहस्ती आर्य महागिरि के सावधान करने पर तत्काल सम्हल गए। चैत्यवास की परम्परा के विरुद्ध सुविहित-मार्गी साधु बराबर जूझते रहे। हरिभद्र सूरि ने 'संबोध प्रकरण' की रचना कर चैत्यवासियों के कर्तव्यों का विरोध किया। जिनवल्लभ सूरि ने 'संघपट्टक' की रचना की और सुविहित-मार्ग को आगे बढ़ाने का यल किया। जिनपति सूरि ने संघपट्टक पर ३००० श्लोक-प्रमाण टीका लिखी, जिसमें चैत्यवास का स्वरूप विस्तार से बताया। चैत्यवास के विरुद्ध यह अभियान सतत चालू रहा। विक्रम की सोलहवीं शती में लोंकाशाह ने मूर्ति-पूजा के विरुद्ध एक विचार-क्रान्ति की। लोंकाशाह की हूंडी में शिथिलाचार के प्रति स्पष्ट विद्रोह की भावना झलक रही है। ___ लोकाशाह के अनुगामी जो शिष्य बने, वे चारित्र की आराधना में विशेष जागरूक रहे। वि. सं. १५८२ में तपागच्छीय आनन्दविमलसूरि ने चारित्र-शिथिलता को दूर करने का प्रयत्न किया। वे स्वयं उग्र-विहारी बने। उन्होंने १५८३ में एक ३५ सूत्रीय लेखन-पत्र लिखा। उसके प्रमुख सूत्र इस प्रकार हैं १. विहार गुरु की आज्ञा से किया जाए। २. वणिक् के सिवाय दूसरों को दीक्षा न दी जाए। ३. परीक्षा कर गुरु के पास विधिपूर्वक दीक्षा दी जाए। ४. गृहस्थों से वेतन दिलाकर पंडितों के पास न पढ़ा जाए। ५. एक हजार श्लोक से अधिक 'लहियों' (प्रतिलिपि करने वालों) से न लिखाया जाए। १. आचार री चौपई : ६.२८ : २. बृहत्कल्प चूर्णि, उद्देशक १, निशीथ चूर्णि उ. ८। ३. १६६ बोल की हुंडीः शिशुहित शिक्षा, पृ. १५५ । ४. जैन साहित्य संशोधन, खण्ड ३, अंक ४, पृ. ३५६ । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : ६ आचार की शिथिलता और उसके विरुद्ध क्रान्ति-यह क्रम दिगम्बर-परम्परा में भी चलता रहा है। भट्टारकों की क्रिया चैत्यवासियों से मिलती-जुलती है। वे भी उग्र-विहार को छोड़ मठवासी हो गए। एक ही स्थान में स्थायी रूप से रहने लगे। उद्दिष्ट भोजन करने लगे। लोहे का कमण्डलु रखना, कपड़े के जूते पहनना, सुखासन-पालकी पर चढ़ना आदि-आदि प्रवृत्तियां इनमें घर कर गईं। त्रिवर्णाचार, धर्मरसिक आदि ग्रन्थ रचे गए, उनमें जैन-मान्यताओं की निर्मम हत्या की गई। __षट्प्राभृत की टीका में भट्टारक श्रुतसागर ने लोंकाशाह के अनुयायियों को जी-भरकर कोसा है और शासन-देवता की पूजा का निषेध करने वालों को चार्वाक, नास्तिक कहकर समर्थ आस्तिकों को सीख दी है कि वे उन्हें ताड़ना दें। उसमें उन्हें पाप नहीं होगा। इस भट्टारक-पंथ की प्रतिक्रिया हुई। फलस्वरूप 'तेरहपंथ' का उदय हुआ। विक्रम की सत्रहवीं शती (१६८३) में पंडित बनारसीदास जी ने भट्टारक विरोधी मार्ग की नींव डाली। प्रारम्भ में इसका नाम वाराणसीय या बनारसी मत जैसा रहा, किन्तु आगे चलकर इसका नाम तेरहपंथ हो गया। १. शतपदी (देखो जैन हिती, भाम ७, अंक ६) २. (क) त्रिवर्णाचार, ४.. जपो होमस्थता .. ., स्वाध्यायः पितृतर्पणम् । जिनपूजा श्रुताख्यान, न कुर्यात् तिलकं बिना ॥ (ख) धर्मरसिक, ३३ : व्रतच्युतान्त्यजातीनां, दर्शने भाषणे श्रुते। क्षुतेऽधोवातगमने, मुंभणे जपमुत्सृजेत् ॥ (ग) धर्मरसिक, ५६ : अन्त्यजैः खनिताः कूपा, बापी पुष्करिणी सरः । तेषां जलं न तु ग्राह्य, स्नानपानाय च क्वचित् ॥ ३. षट् प्राभृत-मोक्ष प्राभृत टीका : "उभय भ्रष्टा वेदितव्याः ते लौंकाः' (पृ. ३०५) "लौंकाः पातकिनः" (पृ. ३०५) “लौंकास्तु नरकादौ पतन्ति" (पृ. ३०६) "ते पापमूर्तयः श्वेताम्बराभासा लोकापकारकाय नामानो लौंकाः” (पृ. ३६६) "शासन देवता न पूजनीयाः इत्यादि ये उत्सूत्रं मन्यते ते मिथ्या-दृष्टयश्चार्वाका नास्तिकास्ते। यदि कदाग्रहं न मुञ्चन्ति तदा समथैरास्तिकैरुपानद्भिः गूयलिप्ताभिर्मुखे ताडनीयाः, तत्र पापं नास्ति!' ४. युक्ति प्रबोध, १८ । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० : भिक्षु विचार दर्शन पं. नाथूराम प्रेमी के अनुसार यह नाम श्वेताम्बर तेरहपंथ के उदय के पश्चात् प्रयुक्त होने लगा-"तेरहपंथ नाम जब प्रचलित हो गया, तब भट्टारकों का पुराना मार्ग बीसपन्थ कहलाने लगा। परन्तु यह एक समस्या ही है कि ये नाम कैसे पड़े और इन नामों का मूल क्या है। इनकी व्युत्पत्ति बतलाने वाले जो कई प्रवाद प्रचलित हैं, जैसे 'तेरह प्रकार के चारित्र को जो पाले' वह तेरापंथी और 'हे भगवान् यह तेरापंथ है' आदि, उनमें कोई तथ्य मालूम नहीं होता और न उनसे असलियत पर कुछ प्रकाश ही पड़ता है।" “बहुत संभव है कि ढूंढकों (स्थानकवासियों) में से निकले हुए तेरहपंथियों के जैसा निन्दित बतलाने के लिए वे लोग जो भट्टारकों को अपना गुरु मानते थे तथा इनसे द्वेष रखते थे, इसके अनुगामियों को तेरापंथी कहने लगे हों और धीरे-धीरे उनका दिया हुआ यह कच्चा ‘टाइटल' पक्का हो गया हो, साथ ही वे स्वयं इनसे बड़े बीसपन्थी कहलाने लगे हों। यह अनुमान इसलिए भी ठीक जान पड़ता है कि इधर के लगभग सौ-डेढ़ सौ वर्ष के ही. साहित्य में तेरहपन्थ के उल्लेख मिलते हैं, पहले के नहीं।"१ श्वेताम्बर-परम्परा में तेरापंथ की स्थापना वि. संवत् १८१७ (आषाढ़ी पूर्णिमा) से हुई। इसके प्रवर्तक थे आचार्य भिक्षु । वे संवत् १८०८ में स्थानकवासी सम्प्रदाय (जिसका आरम्भ लोकाशाह की परम्परा में हुआ) में दीक्षित हुए और १८१६ में उससे सम्बन्ध-विच्छेद कर पृथक् हुए। उनकी दृष्टि में उस समय वह सम्प्रदाय चारित्रिक-शिथिलता से आक्रान्त हो गया था। आचार्य भिक्षु ने आगमों का अध्ययन किया, तब उन्हें लगा कि आज हमारा आचरण सर्वथा आगमानुमोदित नहीं है और सिद्धान्त-पक्ष भी विपरीत हैं। उनका अन्तर्द्वन्द्व अभी.प्रारम्भिक दशा में था। राजनगर (मेवाड़) के श्रावकों ने उसमें तीव्रता ला दी। आचार्य रुघनाथजी ने भिक्षु को भेजा था उन श्रावकों को समझाने के लिए और वे ले आए उनकी समझ को अपनी समझ का रूप देकर। भिक्षु की प्रतिभा पर आचार्य और श्रावक दोनों को भरोसा था। १. जैन साहित्य और इतिहास, पृ. २६६-६७ । २. भिक्षु जश रसायण २, दोहा ६ : सरधा पिण साची नहीं, असल नहीं आचार। इण विध करे आलोचना, पिण ट्रव्य गुरु सूं अति प्यार ।। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : ११ आचार्य ने सोचा, राजनगर के श्रावक साधुओं के आचार को लेकर संदिग्ध हैं। उन्हें हर कोई नहीं समझा सकता। भिक्षु सूक्ष्म प्रतिभा का धनी है। वही इन्हें समझा सकता है। आचार्य ने सारी बात समझाकर राजनगर चातुर्मास के लिए भिक्षु को भेजा। भिक्षु केवल शास्त्रज्ञ ही नहीं थे, व्यवहार-पटुता भी उनकी बेजोड़ थी। उन्होंने श्रावकों की मानसिक स्थिति का अध्ययन किया। श्रावक निर्दोष थे। वे साधुओं को इसलिए वंदना नहीं करते थे कि साधु चारित्र-शिथिलता का सेवन कर रहे हैं। श्रावक भिक्षु की प्रतिभा और वैराग्य पर भरोसा करते थे। प्रतिभा का सम्बन्ध मस्तिष्क से है और वैराग्य का हृदय से। विश्वास हृदय से जुड़ता है तभी उसका सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है। भिक्षु का हृदय भी स्वच्छ था और मस्तिष्क भी स्वच्छ। इसलिए श्रावकों ने उनके परामर्श की अवहेलना नहीं की और वे साधुओं को वंदना करने लगे। किन्तु विश्वास का बोझ सिर पर लेना कोई कम बात नहीं है। भिक्षु उस बोझ से नत हो गए। उनका दायित्व बढ़ गया। उन्होंने प्रत्येक आगम को दो-दो बार पढ़ा। आगम की विधियों और साधु-समाज के व्यवहारों में उन्हें स्पष्ट अन्तर दीखा और वे इस खाई को पाटने के लिए आगे बढ़े। चातुर्मास समाप्त हुआ! आचार्य के पास आए। परिस्थिति का संकेत आचार्य तक पहुंच चुका था। भिक्षु के साथ टोकरजी, हरनाथजी, वीरभाणजी और भारीमलजी-ये चार साधु और थे। वापस आते समय ये दो भागों में विभक्त होकर आए। भिक्षु ने वीरभाणजी से कहा- 'पहले पहुंच जाओ तो राजनगर की स्थिति की आचार्य के पास चर्चा न करना। मैं ही उसे समुचित ढंग से उनके १. भिक्षु जस रसायण, २.१२ : आप वैरागी बुद्धिवन्त छो, आपरी परतीत । तिण कारण वन्दणा करां, आप जगत् में बदीत ॥ २. वही, ३, दोहा ५-६ : । ओ दूधारो खांडो अछे, एहवी मन में धार। दोय-दोय बार सूत्रां भणी, वांच्या धर अतिः प्यार ॥ कहि कहि नें कितरों एक कहूं, संसार तणा उपगार अनेक। ग्यांन दरसण चारित ने तप बिना, मोप तग स्पा नहीं छे का Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ : भिक्षु विचार दर्शन सम्मुख उपस्थित करूंगा।' किन्तु वीरभाणजी बात को पचा नहीं सके। वे पहले पहुंचे और राजनगर की घटना को भी आचार्य त पहुंचा दिया। भिक्षु ने आचार्य के पास पहुंचकर सारा घटना-चक्र बदला हुआ पाया। उन्होंने परिस्थिति को संभाला। आचार्य को प्रसन्न कर सारी स्थिति उनके सामने रखी। कोई सन्तोषजनक समाधान नहीं मिला। भिक्षु ने उनसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। . जैन परम्परा में एक नया सम्प्रदाय जन्म लेगा-यह कल्पना न आचार्य रुघनाथ को थी और न स्वयं भिक्षु को ही। यह कोई गुरुत्व और शिष्यत्व का विवाद नहीं था।' भिक्षु के मन में रुघनाथजी को गुरु और स्वयं को उनका शिष्य मानने की भावना नहीं होती तो वें दूसरा संप्रदाय खड़ा करने की वात रखते। किन्तु वे ऐसा क्यों सोचते? आचार्य रुघनाथजी से उन्हें बहुत स्नेह था। आचार्य रुघनाथजी एक बड़े सम्प्रदाय के महान् नेता थे। उनके उत्तराधिकारी के रूप में भिक्षु का नाम लिखा जाता था। फिर वे क्यों उनसे पृथक् होते? किन्तु भिक्षु के मन में और कोई भावना नहीं थी। वे केवल चारित्र-शुद्धि के लिए छटपटा रहे थे। यही था उनका ध्येय और इसी की पूर्ति के लिए वे अपने आचार्य से खेद के साथ पृथक् हुए। जैन परम्परा में अनेक सम्प्रदाय हैं, पर उनमें तात्त्विक मतभेद बहुत १. भिक्षु जस रसायण, ४,१० : जो थे मानो हो सूत्र नी बात, तो थेइज म्हारा नाथ। नहिं तर ठीक लागे नहीं। २. वही, २, दोहा ६ : पटधारक भिक्खू प्रगट, हद आपस में हेत। इतलै कुण विरतन्त हुवो, सुणज्यो सहू सचेत॥ ३. वही ४, ११-१३ : म्हें घर छोड्या हो आतम तारण काम, और नहीं परिणाम। तिण सूं बार बार कहूं आपनें। आप मानों हो स्वामी सूत्रां नी बात, छोड देवा पक्षपात। इक दिन परभव जावणो॥ पूजा-प्रशंसा हो लही अनन्ती बार, दुर्लभ श्रद्धा श्रीकार । निरणय करो आप एहनो!! Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : १३ कम है। अधिकांश सम्प्रदाय आचार-विषयक मान्यताओं को लेकर स्थापित हुए हैं। देश-काल की परिस्थिति से उत्पन्न विचार, आगमिक सूत्रों की व्याख्या में क्वचित्-क्वचित् मतभेद, रुचिभेद आदि-आदि कारण ही जैन साधु-संघ को ओक भागों में विभक्त किए हुए हैं। राजनगर के श्रावकों ने जो प्रश्न उपस्थित किए, वे भी आचार-विषयक थे। उन्होंने कहा-'वर्तमान साधु उद्दिष्ट (साधु के निमित्त बनाया हुआ) आहार लेते हैं, उद्दिष्ट स्थानकों में रहते हैं, वस्त्र-पात्र सम्बन्धी मर्यादाओं का पालन नहीं करते, बिना आज्ञा जिस-तिस को मूंड लेते हैं आदि-आदि आचरण साधुत्व के प्रतिकूल हैं।' भिक्षु मान्यता और आचार-दोनों में त्रुटि अनुभव कर रहे थे। उसी समय उन्हें यह प्रेरणा और मिली। वस्त्र-पात्र के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मतभेद हैं, किन्तु उद्दिष्ट आहार आदि के विषय में कोई मतभेद नहीं है। सैद्धान्तिक दृष्टि से कोई भी जैन मुनि यह नहीं कह सकता कि उद्दिष्ट आहार लिया जा सकता है, उद्दिष्ट स्थानकों में रहा जा सकता है। किन्तु उस समय एक मानसिक परिवर्तन अवश्य हो गया था-'अभी दुःषम समय है, पाचवां आरा है, कलिकाल है। इस समय साधु के कठोर नियमों को नहीं निभाया जा सकता। इस धारणा ने साधु-संघ को शिथिलता की ओर मोड़ दिया। यह एक जटिल पहेली-सी लगती है कि किसे चारित्र-शुद्धि कहा जाए और किसे चारित्र-शिथिलता? क्योंकि आगमिक व्याख्याओं और सूक्ष्म रहस्यों का पार जलधि-तरण से भी अधिक श्रस-साध्य है। १. एक आचार्य ने एक कार्य को शिथिलाचार माना है, दूसरे ने नहीं १. भिक्षु जश रसायण, २, ८.६। आधाकरमी-थानक आदऱ्या, मोल लिया प्रसिद्धि । उपधि वस्त्र पात्र अधिक ही, आ पिण थे थाप कीधी॥ जांण किंवाड जड़ो सदा, इत्यादिक अवलोक। म्हें वनणा करां किण रीत तूं, थे तो थाप्या दोष॥ २. दशवैकालिक १०/४; मूलाचार ६/३। ३. वही, ५, १५ : १६ : रुघनाथजी इसड़ी' कहे रे, सांभल भिक्खु बात। पूरो साधपणो नहीं पले रे, दुखमकाल साख्यात॥ भिक्खु कहे इम भाखियो रे, सूत्र आचारांग माय। ढीला भागल इम भाखसी रे, हिवडां शद्ध न चलाय॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ : भिक्षु विचार दर्शन माना। एक आचार्य ने एक प्रवृति का खण्डन किया हैं, दूसरे ने उसका समर्थन किया है। हरिभद्र सूरि ने साधु को तीसरे पहर के अतिरिक्त गोचरी करने और बार-बार आहार करने को शिथिलाचार बताया है, किन्तु आचार्य भिक्षु ने इसे अस्वीकार किया है।' २. अनेक आचार्यों ने १४ उपकरणों से अधिक उपकरण रखना साधु के लिए निषिद्ध बतलाया है, किन्तु आचार्य भिक्षु ने इसका खण्डन किया ३. कई आचार्य की मान्यता रही है के साधु न लिखे और न चित्र बनाए। आचार्य भिक्षु ने इसका खण्डन किया है। . ४. हरिभद्र सूरि ने साध्वियों द्वारा लाया गया आहार लेने को शिथिलाचार कहा है, किन्तु आचार्य भिक्षु ने इसे शिथिलाचार नहीं माना। ५. कई आचार्यों ने साधुओं के लिए कविता करने का निषेध बतलाया है, आचार्य भिक्षु ने इसे मान्य नहीं किया। ___कहीं-कहीं रूढ़ियों में कठोर आचार और कठोर आचार में रूढ़ि की कल्पना हो जाती है। यद्यपि सामयिक विधि-निषेधों के आधार पर चारित्र शुद्धि या शिथिलता का ऐकान्तिक निर्णय करना कठिन हो जाता है, फिर भी कुछ विषय ऐसे स्पष्ट होते हैं कि उनके आधार पर चारित्र की शुद्धि या शिथिलता का निर्णय करने में कोई विशेष कठिनाई नहीं होती। आचार्य भिक्षु ने चारित्रिक-शिथिलता के जो विषय प्रस्तुत किए हैं उनमें कुछ विषय ऐसे हैं जो प्रचुर मात्रा में व्याप्त थे और जिनके कारण तत्कालीन साधु-समाज को चारित्र-शिथिलता से आक्रान्त कहा जा सकता है। कुछ ऐसे हैं, जो किसी-किसी साधु में मिलते होंगे। भिक्षु का दिशा-सूचक यंत्र आगम थे। उन्हीं के सहारे से उन्होंने शुद्धाचार-अनाचार का निर्णय किया। उनका कहना था-'आगम और जिन-आज्ञा ही मेरे लिए प्रमाण हैं। वे ही मेरे आधार हैं।' उनके सब निर्णय इसी कसौटी पर कसे हुए थे और इसीलिए अपने आप में शुद्ध थे। १. आचार री चौपई : ढाल १७ २. जिनाग्या रो चौढालियो : उपकरण की ढाल ३. वही। ४. आचार री चौपई : ढाल ६ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : १५ तेरापंथ की स्थापना युग की मांग थी। आचार्य भिक्षु के नेतृत्व में तेरह साधु एकत्रित हुए। किसी कवि ने नाम रख दिया - तेरापंथ । वह आचार्य भिक्षु तक पहुंचा। उन्होंने उसे – 'हे प्रभो, यह तेरापंथ' इस रूप में स्वीकार किया और उसकी सैद्धान्तिक व्याख्या यह की - 'जहां पांच महाव्रत - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, पांच समिति - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप, उत्सर्ग और तीन गुप्ति - मनगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति - ये तेरह ( राजस्थान में तेरा ) नियम पाले जाते हैं - वह तेरापंथ है । ' आचार्य भिक्षु ने १८१ बोल की हुण्डी में वर्तमान साधु-समाज की आचार - शिथिलता का पूरा विवरण प्रस्तुत किया है । उस समय निम्न मान्यताएं और क्रिया-कलाप प्रचलित हो गए थे १. भगवान् महावीर का भेख भी वन्दनीय है । २. इस समय शुद्ध साधुपन नहीं पाला जा सकता । ३. व्रत और अव्रत को पृथक्-पृथक् न मानना । ४. मिश्र धर्म की मान्यता - एक ही क्रिया में पुण्य और पाप दोनों का स्वीकार । ५. लौकिक दया और दान को लोकोत्तर दया और दान से पृथक् न मानना । ६. जिस कार्य के लिए भगवान् महावीर की आज्ञा नहीं है, वहां धर्म मानना । ७. दोषपूर्ण आचार की स्थापना करना । ८. स्थापित स्थानक में रहना । १. भिक्षु जश रसायण, पृष्ठ २३ : साध साध से गिलो करै, ते तो आप-आपरो मंत। सुणज्यो रे शहर-रा लोकां, ए तेरापंथी तंत॥ २. वही, ७, ६-७ : लोक कहै तेरापन्थी, भिक्खु संवली भावै हो । हे प्रभु ! ओ तेरौ पन्ध है, और दाय न आवै हो || मन भरम मिटावै हो, सो ही तेरापन्थ पावै हो । पंच महाव्रत पालतां शुद्ध सुमति सुहावै हो ॥ तीन गुप्ति तीखी तरे, भल आतम भावै हो । चित्त सूं तेरा ही चाहवै हो || Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ : भिक्षु विचार दर्शन ६. उद्दिष्ट आहार लेना। १०. साधु के निमित्त खरीदी वस्तुओं का उपयोग करना। ११. नित्य-प्रति एक घर से भोजन लेना। १२. वस्त्र-पात्र पुस्तक का प्रतिलेखन न करना। १३. अभिभावकों की आज्ञा प्राप्त किए बिना गृहस्थ को दीक्षित करना। १४. मर्यादा से अधिक वस्त्र-पात्र रखना। १५. गृहस्थों से अपने लिए प्रतियां लिखवाना। इन्हीं विचारों और आचरणों की प्रतिक्रिया हुई और उसी का परिणाम तेरापंथ है। तेरापंथ का प्रारम्भ वि. सं. १८१७ आषाढ़ी पर्णिमा से होता है। उसी दिन आचार्य भिक्षु ने नए सिरे से व्रत ग्रहण किए। इस प्रकार उनकी दीक्षा के साथ ही तेरापंथ का सहज प्रवर्तन हुआ। महापुरुष का अन्तःकरण परमार्थ से परिपूर्ण होता है। वह जैसे अपना हित चाहता है, वैसे दूसरों का भी। आचार्य भिक्षु को जो श्रेयोमार्ग मिला, उसे उन्होंने दूसरों को भी दिखाना चाहा, पर नए के प्रति जो भावना होती १. १८१ बोल की हुंडी : १२६ । २. भिक्षु जश रसायण : २, दोहा १-५ अल्प दिवस रे आंतर, सिख्या सूत्र सिद्धान्त। तीव्रः शुद्धि भिक्खू तणी: सुखदाई सोभन्त॥ विविध समय-रस बांचता, वारूं कियो. विचार। अरिहन्त वचन आलोचतां, ए असल नहीं अणगार॥ यां थापिता थानक आदा, आधाकर्मी अजोग। मोल लियां माहे रहे, नित्य पिण्ड लिए निरोग।' पडिलेह्यां विण रहै पड्या, पोथ्यां रा गंज पेख। विण आज्ञा दीक्षा दीये, विवेक-विकल विसेख॥ उपधि वस्त्र पात्र अधिक, मर्यादा उपरन्त। दोष थापै जांण-जाण ने, तिण तूं ए नहीं सन्त॥ ३. वही, ८, ३-४ : . संवत् अठारे सतरे समै, मु. पंचांग लेखे पिछाण। ओषाढ़ सुदी पूनम दिने, मु. केलवे दीक्षा-कल्याण हो॥ अरिहन्त नी लेइ आगन्या, मु. पचख्या पाप अठार हो। सिद्ध साखे करी स्वाम जी, मु. लीधो संजम भार हो। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : १७ है, वही होती है। पुराने को जो विश्वास प्राप्त होता है, वह सहसा नए को | नई स्थिति में सर्वप्रथम विरोध का सामना करना पड़ता है । आचार्य भिक्षु का तेरापंथ नया था । उन्होंने जो विचार प्रस्तुत किए, वे नए थे । इसलिए उनका विरोध होने लगा । प्रतिदिन बढ़ते विरोध ने आचार्य भिक्षु की कल्पना को यह रूप दिया- “मेरे गण में कौन साधु होगा और कौन श्रावक-श्राविका ? मुझे आत्मा का कल्याण करना है । दूसरे लोग मुझे न सुनना चाहें, तो मैं अपने कल्याण में लगूं।"" कल्पना को मूर्तरूप मिला । आचार्य भिक्षु ने एकान्तर (एक दिन उपवास और एक दिन आहार) और वन में आतापना लेना प्रारम्भ कर दिया।' लम्बे समय तक यह क्रम चला। एक दिन थिरपाल और फतेहचन्द दोनों साधु आए। उन्होंने प्रार्थना की- "गुरुदेव ! तपस्या का वरदान हमें दें और आप जनता को प्रतिबोध दें । " ३ यह तेरापंथ के विकास का पहला स्वर था । आचार्य भिक्षु ने उनकी प्रार्थना को सुना और फिर एक बार जनता को प्रतिबोध देना शुरू किया । यह प्रयत्न सफल हुआ। लोगों ने आचार्य भिक्षु को सुना । अब क्रमशः तेरापंथ का वट-वृक्ष विस्तार पाने लगा । आचार्य भिक्षु ने परिवर्तित स्थिति को देख ग्रन्थ-निर्माण का कार्य १. भिक्षु जश रसायण : १०, दोहा ६-७ जब भिक्खु मन जाणियो, कर तप करूं किल्याण । मग नहीं दीखे चालतो, अति घन लोग अजाण ॥ घर छोड़ी मुझ गण मझे, संजम कुण ले सोय ? श्रावक नैं बलि श्राविका, हुंता न दीसै कोय | २. वही, १०, दोहा ८-६ एहवी करै आलोचना, एकन्तर अवधार । आतापन बलि आदरी, सन्ता साथे सार ॥ चौविहार उपवास चित्त, उपधि ग्रही सहु संत । आतापन लेवन मझे, तप कर तन तावंत ॥ ३. वही, १०, ६-७ः ! थे बुद्धिमान थारी थिर बुद्धि भली, उत्पत्तिया अधिकाय हो । समझावों बहु जीव सेणां भणी, निर्मल बतावी न्याय हो । तपस्या करां म्हे आतम तारणी, अधिक पौंच नहीं ओर हो। आप तरो नै 'तारो अवर नें, जाझो बुद्धि नो जोर हो || Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ : भिक्षु विचार दर्शन शुरू किया। साधु, साध्वी श्रावक, श्राविका-चारों तीर्थ तेरापंथ को आधार मानकर चलने लगे। सारा कार्य स्थिर भाव में परिणत हुआ, तब आचार्य भिक्षु ने वि. १८३२ में संघ-व्यवस्था की ओर ध्यान दिया और पहला लेख पत्र लिखा। इस प्रकार आचार-शुद्धि के अभियान की दृष्टि से तेरापंथ का उदय वि.१८१७ में हुआ। प्रचार की दृष्टि से उसका उदय मुनि-युगल की प्रार्थना के साथ-साथ हुआ। उसका विस्तार ग्रन्थ-निर्माण के साथ-साथ हुआ और उसका संगठित रूप लेख-पत्र के साथ वि. १८३२ में हुआ। 'साधन बीज है और साध्य वृक्ष, इसलिए जो सम्बन्ध बीज और वृक्ष में है, वही सम्बन्ध साधक और साध्य में हैं। महात्मा गांधी के इस विचार का उद्गम बहुत प्राचीन हो सकता है; किन्तु इसके विशाल प्रवाह आचार्य भिक्षु हैं। आचार्य भिक्षु रहस्यमय पुरुष हैं। अनेक लोगों की धारणा है कि उन्होंने वैसा कहा है, जो पहले कभी नहीं कहा गया। उनके विचारों में विश्वास न रखने वाले कहते हैं- “उन्होंने ऐसी मिथ्या धारणाएं फैलाई हैं जो सब धर्मों से निराली हैं।" उनके विचारों में विश्वास रखने वाले कहते हैं- “उन्होंने वह आलोक दिया है, जो धर्म का वास्तविक रूप है।" इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे अलौकिक पुरुष हैं। उनका तत्त्व-ज्ञान और उनकी व्याख्याएं अलौकिक हैं। लौकिक-पुरुष साध्य की ओर जितना ध्यान देते हैं, उतना साधन की ओर नहीं देते। धर्म इसलिए अलौकिक है कि उसमें साधन का उतना ही महत्त्व है, जितना कि साध्य का। आचार्य भिक्षु ने यह सूत्र प्रस्तुत किया-“अहिंसा के साधन उसके अनुकूल हों तभी उसकी आराधना की जा सकती है, अन्यथा वह हिंसा में परिणत हो जाती हैं।" इस सूत्र ने लोगों को कुछ चौंकाया। किन्तु इसकी व्याख्या ने तो जनमानस को आन्दोलित ही कर दिया। आचार्य भिक्षु ने कहा १. कई लोग कहते हैं-“जीवों को मारे बिना धर्म नहीं होता। यदि १. भिक्षु जस रसायण १०, १०: प्रगट मेवाड़ में पूज पधारिया, जुगत आंचार नी जोड़ हो। अनुकम्पा दया दान रे ऊपरे, जोड़ां करी धर कोड़ हो॥ २. हिन्दी स्वराज्य, पृ. २२० Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : १६ मन के परिणाम अच्छे हों तो जीवों को मारने का पाप नहीं लगता । पर जान-बूझकर जीवों को मारने वाले के मन का परिणाम अच्छा कैसे हो सकता है?" " २. जहां दया है वहां 'जीव-वध किए बिना धर्म नहीं होता' यह सिद्धान्त मान्य नहीं हो सकता । ३. जीव - वध होता है वह जीव की दुर्बलता है, किन्तु उसे धर्म का रूप देना कि 'हिंसा किए बिना धर्म नहीं होता' नितान्त दोष पूर्ण है । ४. एक जीव को मारकर दूसरे जीव की रक्षा करना धर्म नहीं है । धर्म यह हैं कि अधर्मी को समझा-बुझाकर धर्मी बनाया जाए ।' ५. जीवों को मारकर जीवों का पोषण करना लौकिक मार्ग है । उसमें जो धर्म बतातें हैं, वे पूरे मूढ़ और अज्ञानी हैं। ६. कई लोग कहते हैं- 'दया लाकर जीवों को मारने में धर्म और पीप दोनों होते हैं।" किन्तु पाप करने से धर्म नहीं होता और धर्म करने से पाप १. व्रताव्रत : १२, ३४-३८ केई कहे जीवां नें माऱ्यां बिनां धर्म न हुवें ताम हो । जीव माऱ्यां रो पाप लागे नहीं, चोखा चाहीजें निज परिणाम हो । केई कहें जीव माय बिनां, मिश्र न हुवै छे ताम हो । पिण जीव, मारण री सानी करे, ले ले परिणामा रो नाम हो || केई धर्म ने मिश्र करवा भणी, छ काय रो करै घमसाण हो । तिणरा चोखा परिणाम किंहा थकी, पर जीवां रा लूटें छे प्राण हो । कोई जीव खववें छे तेहनां, चोखा कहें छे परिणाम हो । कहे धर्म नें मिश्र हुवें नहीं, जीव खवायां विण ताम हो । जीव खांण रा परिणाम छें अति बुरा, खवावण रा पिण खोटा परिणाम हो । यूं ही भोला नें हांखें भरम में, ले ले परिणामां से नाम हो ॥ २. अणुकम्पा : ५.५ : ३. वही ६.२५ : जीवां नें मारे जीवां ने पोषें, ते तो मारग संसार नों जाणो जी । तिण मांहें साध धर्म बतावै, ते पूरा छे मूढ़ अयाणो जी ॥ ४. निह्नव चौपाई ३, दुहा २ : - कहे दा आण नें जीव मारीयां, हुवे छे धर्म में पाप । ए करम उदे पंथ काढीयो, भगवत वचन उथाप ॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० : भिक्षु विचार दर्शन नहीं होता। एक करणी में दोनों नहीं हो सकते।' ७. पाप और धर्म की करणी भिन्न-भिन्न है। ८. अव्रत का सेवा करना, कराना और अव्रत-सेवन का अनुमोदन करना पाप है। ६. व्रत का सेवन करना, कराना और व्रत-सवन कर अनुमोदन करना धर्म है। १०. सम्यग्-दृष्टि लौकिक और लोकोत्तर मार्ग को भिन्न-भिन्न मानता ११. धर्म त्याग में है, भोग में नहीं। १२. धर्म हृदर्य-परिवर्तन में है, बलात्कार में नहीं। १३. असंयति के जीने की इच्छा करना राग है। १४. उसके मरने की इच्छा करना द्वेष है। १५. उसके संयति होने की इच्छा करना धर्म है। ये सिद्धान्त नए नहीं थे। आचार्य भिक्षु ने कभी नहीं कहा कि मैंने कोई नया मार्ग ढूंढ़ा है। उन्होंने यही कहा-''मैंने भगवान् महावीर की वाणी को जनता के सम्मुख यथार्थरूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।" यह बहुत बड़ा सत्य है। दुनिया में नया तत्त्व कोई है भी नहीं। जो है वह पुराना है, बहुत पुराना है। नए का अर्थ है पुराने को प्रकाश में लाना। जो आलोक बनकर पुराने को प्रकाशित करता है, वही नव-निर्माता है। संसार के जितने १. निह्नव चौपाई ३, दुहा ३ : पाप कीयां .धर्म न नीपजे, धर्म थी पाप न होय। एक करणी में दोय न नीपजे, ए संका म आणो कोय॥ २. व्रताव्रत ११.३२ : मून में पाप धर्म दोनूं कहि कहि, घणां लोकां में विगोया रे। बले सिष सिषणी पोता रा हुंता, त्यांने तो जाबक बोया रे। ३. निह्नव चौपाई २.५ : इविरत सेवायां सेवीयां भलो जांणीयां, तीनूंइ करणा पाप हो। एहवो भगवंत वचन उथाप नें. कीधी छे मिश्र री थाप हो॥ ४. अणुकम्पा, ११-५० Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : २१ भी नव-निर्माता हुए हैं, उन्होंने यहीं किया है- आलोक बनकर प्राचीन को नवीन बनाया है । महात्मा गांधी ने अपने अहिंसक प्रयोगों के सम्बन्ध में लिखा है - मैं कोई नया सत्य प्रदर्शित नहीं करता। मैं बहुत से पुराने सत्यों पर नया प्रकाश डालने का दावा अवश्य करता हूं।' मैंने पहला मौलिक सत्याग्रही होने का दावा कभी नहीं किया। जिसका मैंने दावा किया है, वह है उस सिद्धान्त का लगभग सार्वभौम पैमाने पर उपयोग । २ पुराना सत्य जब नया बन कर आता है तब विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं होती हैं | आचार्य भिक्षु ने जिस सत्य को प्रकाशित किया, वह नया नहीं है, प्राचीन आचार्यों ने इसे प्रकाशित किया है, किन्तु वह नया इसलिए लगता है कि आचार्य भिक्षु ने जिस व्यवस्थित रूप से इसे सैद्धांतिक रूप दिया है, उस रूप में अन्य आचार्यों ने सैद्धांतिक रूप नहीं दिया। यह स्पष्ट शब्दों में कहा जा सकता है कि किसी भी एक आचार्य ने ये सारी बातें नहीं कहीं । विकीर्ण रूप में देखें तो आचार्य धर्मदासगणी ने लिखा है 1 “जो तप और नियम में सुस्थित हैं, उनका जीना भी अच्छा है और मरना भी अच्छा है। वे जीवित रहकर गुणों का अर्जन करते हैं और मरकर सुगति को प्राप्त होते हैं । "३ " जो पाप कर्म करने वाले हैं, उनका जीना भी अच्छा नहीं है और मरना भी अच्छा नहीं है। वे जीवित रहकर वैर की वृद्धि करते हैं और मरकर अन्धकार में जा गिरते हैं ।” आचार्य जिनसेन ने लिखा है ――― "अर्थ और काम से सुख नहीं होता, क्योंकि वे संसार को बढ़ाने वाले हैं। जो धर्म सावद्य की उत्पत्ति करता है, उस धर्म से भी सुख नहीं होता । १. यंग इंडिया, भाग १, पृ. ५६७ २. वही, भाग ३, पृ. ३६७ ३. उपदेशमाला, श्लोक ४४३ तवनियमसुट्ठियाणं कल्याणं जीविअं पि मरणं पि । जीवंतऽऽज्जति गुणा, मयाऽवि पुण सुग्गई जंति॥ ४. वही, श्लोक ४४४ : अहियं मरणं च अहिअं जीवियं पावकम्मकारीणं । तमसम्मि पडति मया, वेरं वडुंति जीवंता ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ : भिक्षु विचार दर्शन ___ प्रधान सुख उससे होता है, जो निःसावध धर्म है।" कुछ व्यक्ति कहते हैं-आचार्य भिक्षु ने धर्म को लौकिक और लोकोत्तर के भेदों में विभक्त कर जीवन के टुकड़े कर डाले। इस आरोप को हम अस्वीकार नहीं करते और साथ-साथ हम यह भी स्वीकार किए बिना नहीं रह सकते कि जीवन को टुकड़ों में बांटे बिना कोई रह भी नहीं सकता। भगवान् महावीर ने निक्षेप व्यवस्था में धर्म को लौकिक-लोकोत्तर भागों में विभक्त किया है। महात्मा बुद्ध ने कहा"भिक्षुओ, ये दो दान हैं।" "कौन से दो? "भौतिक-दान तथा धर्म-दान। भिक्षुओ, इन दोनों में धर्म-दान श्रेष्ठ है।" "भिक्षुओ, ये दो संविभाग (वितरण) हैं।" "कौन से दो?" "भौतिक-संविभाग तथा धार्मिक, संविभाग। भिक्षुओ, ये दो संविभाग हैं। भिक्षुओ, इन दोनों संविभागों में धार्मिक-संविभाग श्रेष्ठ है।" "भिक्षुओ, ये दो सुख हैं।" "कौन से दो?? “लौकिक-सुख और लोकोत्तर-सुख । भिक्षुओ, ये दो सुख हैं। भिक्षुओ, इन दोनों सुखों में लोकोत्तर-सुख श्रेष्ठ है।” "भिक्षुओ, ये दो सुख हैं।" “कौन से दो?' “साश्रव-सुख तथा अनाश्रव-सुख। भिक्षुओ, ये दो सुख हैं। भिक्षुओ, इन दोनों सुखों में अनाश्रव-सुख श्रेष्ठ है।" १. उत्तरपुराण पर्व ५.११०-११ : न तावदर्थकामाभ्यां सुखं संसारवर्धनात्। नामुष्मादपि मे धर्माद् यस्मात् सावधसम्भवः। निःसावधोस्तिधर्मोऽन्यस्ततः सुखमनुत्तमम् । इत्युदर्कोवितर्कोऽस्य विरक्तस्याभवत्ततः।। २. अंगुत्तर निकाय, प्रथम भाग, पृ. ६४ ३. वही, पृ. ६६ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : २३ "भिक्षुओ, ये दो सुख हैं।" "कौन से दो?' "भौतिक-सुख और अभौतिक-सुख । भिक्षुओ, ये दो सुख हैं। भिक्षुओ, इन दोनों सुखों में अभौतिक-सुख श्रेष्ठ है।" आचार्य धर्मदासगणी का अभिमत है-“तीर्थकर भगवान् बलात् हाथ पकड़कर किसी को हित में प्रवृत्त और अहित से निवृत्त नहीं करते। वे उपदेश देते हैं। उत्पथ पर चलने से होने वाले परिणामों का ज्ञान देते हैं। उसे जो सुनता है, वह मनुष्यों का नहीं, देवताओं का भी स्वामी होता है।" आचार्य भिक्षु ने जो कहा, वह उनके पश्चात् भी कहा गया है। महात्मा गांधी ने अहिंसा के ऐसे अनेक तथ्यों को प्रकाशित किया है, जिनका आचार्य भिक्षु के अभिमत से गहरा सम्बन्ध है। उन्होंने लिखा है १. यह यथार्थ है कि मैंने भावना को प्राधान्य दिया है, किन्तु अकेली भावना से अहिंसा सिद्ध नहीं हो सकती। यह सच है कि अहिंसा की परीक्षा अन्त में भावना से होती है, किन्तु य भी उतना ही सच है कि कोरी भावना से ही अहिंसा न मानी जाएगी। भावना का माप भी कार्य पर से ही निकालना पड़ता है और जहां स्वार्थ के वश होकर हिंसा की गयी है, वहां भावना चाहे कितनी ही ऊंची क्यों न हो, तो भी स्वार्थमय हिंसा ही रहेगी। इससे उल्टे जो आदमी मन में वैर-भाव रखता है, किन्तु लाचारी से उसे काम नहीं ला सकता, उसे वैरी के प्रति अहिंसक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उसकी भावना में वैर छिपा हुआ है। इसलिए अहिंसा का माप निकलने में भावना और कार्य दोनों की परीक्षा करनी होती है। . २. धर्म संयम में है, स्वच्छन्दता में नहीं । जो मनुष्य शास्त्र की दी हुई. छूट से लाभ नहीं उठाता, वह धन्यवाद का पात्र है। संयम की कोई १. अंगुत्तर निकाय, प्रथम भाग, पृ. ८२ २. उपदेशमाला, श्लोक ४८८ अरिहंता भगवंतो, अहियं व हियं व न वि इहं किंचि। वारंति कारवंति य, धित्तूण जणं बला हत्थे। ३. उपदेशमाला, श्लोक ४४६ : उवएसं पुणं तं दिति, जेण चरिएण कित्तिनिलयाणं। देवाण वि हुंति पहू, किमंग पुण मणुअमित्ताणं॥ ४. अहिंसा, प्रथम भाग, पृ. ११५ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ : भिक्षु विचार दर्शन मर्यादा नहीं। ___संयम का स्वागत दुनिया के तमाम शास्त्र करते हैं। स्वच्छन्दता के विषय में शास्त्रों में भारी मतभेद है। समकोण सब जगह एक ही प्रकार का होता है। दूसरे कोण अगणित हैं। अहिंसा और सत्य-ये सब धर्मों के समकोण हैं। जो आचार इस कसौटी पर न उतरे, वह त्याज्य है। इसमें किसी को शंका करने की आवश्यकता नहीं। अधूरे आचार की इजाजत चाहे हो । अहिंसा-धर्म का पालन करने वाला निरन्तर जागरूक रहकर अपने हृदय-बल को बढ़ाए और प्राप्त छूटों के क्षेत्र को संकुचित करता जाए। भोग हरगिज धर्म नहीं। संसार का ज्ञानमय त्याग ही मोक्ष-प्राप्ति है। ३. लेकिन उससे यह अर्थ नहीं निकाल सकते कि 'गीता' में हिंसा का ही प्रतिपादन किया गया है। यह अर्थ निकालना उतना ही अनुचित है, जितना यह कहना कि शरीर-व्यापार के लिए कुछ हिंसा अनिवार्य है और इसलिए हिंसा ही धर्म है। सूक्ष्मदर्शी इस हिंसामय शरीर से अशरीरी होने का अर्थात् मोक्ष का ही धर्म सिखाता है। ४. जिसे भय लगता है, जो संग्रह करता है, जो विषय में रत है, वह अवश्य ही हिंसामय युद्ध करेगा। लेकिन उसका वह धर्म नहीं है, धर्म तो एक ही है। अहिंसा के मानी है मोक्ष और मोक्ष सत्यनारायण का साक्षात्कार ___५. सिद्धान्त को ढूंढने में कोई मुश्किल नहीं होती है। उसका केवल अमल करने में ही सभी मुश्किलें आ पड़ती हैं। इसलिए सिद्धान्त तो इस विषय में पूर्ण हैं। उनका अमल करने वाले हम मनुष्य अपूर्ण हैं। अपूर्ण के द्वारा पूर्ण का अमल होना अशक्य होने के कारण, प्रतिक्षण सिद्धान्त के उल्लंघन की नई मर्यादा ठीक करनी पड़ती है। इससे हिन्दूशास्त्र में कह दिया गया है कि यथार्थ की हुई हिंसा, हिंसा नहीं होती। यह अपूर्ण सत्य है। हिंसा तो सभी समय हिंसा ही रहेगी और हिंसा मात्र पाष है। किन्तु जो हिंसा अनिवार्य हो पड़ती है, उसे व्यवहार-शास्त्र पाप नहीं मानता। इसलिए यथार्थ में की गई हिंसा का व्यवहार-शास्त्र अनुमोदन करता है और उसे शुद्ध पुण्य-कर्म मानता है। १. अहिंसा, प्रथम भाग, पृ. ३२ २. वही, पृ. ४१-४२ ३. वही, पृ. ४२ ४. वही, पृ. ५३ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : २५ ६. लेकिन जिस प्रकार लौकिक राजा के कानून में अपराधी अज्ञान के कारण दण्ड से बचता नहीं है, वही हाल अलौकिक राजा के नियमों का भी है। ७. मैं छोटे-से-छोटे सजीव प्राणी को मारने के उतना ही विरुद्ध हैं, जितना लड़ाई के। किन्तु मैं निरन्तर ऐसे जीवों के प्राण इस आशा में लिये चला जाता हूं कि किसी दिन मुझमें यह योग्यता आ जाएगी कि मुझे यह हत्या न करनी पड़े। यह सब होते रहने पर भी अहिंसा का हिमायती होने का मेरा दावा सही होने के लिए यह परमावश्यक है कि मैं इसके लिए सचमुच में जी-जान से और अविराम प्रयत्न करता रहूं। मोक्ष अथवा सशरीरी अस्तित्व की आवश्यकता से मुक्ति की कल्पना का आधार है, संपूर्णता को पहुंचे हुए पूर्ण अहिंसक स्त्री-पुरुषों की आवश्यकता। सम्पत्ति-मात्र के कारण कुछ-न-कुछ हिंसा करनी पड़ती है। शरीररूपी सम्पत्ति की रक्षा के लिए भी चाहे जितनी थोड़ी, किन्तु हिंसा करनी पड़ती है। श्रद्धा के आलोक में जो सत्य उपलब्ध होता है, वह बुद्धि या तर्कवाद के आलोक में नहीं होता। महात्मा गांधी के पास श्रद्धा का अमित बल था। वे ईश्वर के प्रति अत्यन्त श्रद्धाशील थे। उनका ईश्वर था सत्य। आचार्य भिक्षु भी भगवान के प्रति श्रद्धालु थे। उनका भगवान था संयम। जो सत्य है वही संयम है और जो संयम है वही सत्य है। भगवान् महावीर की भाषा में-- “जो सम्यक् है वही मौन है और जो मौन है वही सम्यक है।"३ भगवान महावीर संयम के प्रतीक थे। उन्होंने वही कार्य करने की आज्ञा दी, जिसमें संयम था। उनकी आज्ञा और संयम में कोई भेद नहीं है। जो उनकी आज्ञा है वह संयम है और जो संयम है वही उनकी आज्ञा है। धर्मदासगणी ने लिखा है-"भगवान की आज्ञा से ही चारित्र की आराधना की जाती है। उसका भंग करने पर क्या भग्न नहीं होता? जो १. अहिंसा, प्रथम भाग, पृ. ६१ २. वही, पृ.६८ ३. आयारो, ५/५७ : जं सम्मति पासहा तं मोणंति पासहा, जं मोणंति पासहा तं सम्मति पासहा! Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ : भिक्षु विचार दर्शन आज्ञा का अतिक्रमण करता है, वह शेष कार्य किसकी आज्ञा से करेगा?' __ आचार्य भिक्षु ने आज्ञा को व्यावहारिक रूप दिया। उनके संगठन का केन्द्र-बिन्दु आज्ञा है। उनकी भाषा में आज्ञा की आराधना, संयम की आराधना है और उसकी विराधना संयम की विराधना है। उनका संगठन विश्व के सभी संगठनों से शक्तिशाली है, उसका शक्ति-स्रोत है आचार। आचार्य भिक्ष के शब्दों में भगवान महावीर की आज्ञा का सार है-आचार। आचार शुद्ध होता है तो विचार स्वयं शुद्ध हो जाते हैं। विचारों में आग्रह या अपवित्रता तभी आती है, जब आचार शुद्ध नहीं होता। 'आचारवान् से मिलो, अनाचारी से दूर रहो'-आचार्य भिक्षु के इस घोष ने संगठन को सुदृढ़ बना दिया। 'श्रद्धा या मान्यता मिले तो साथ रहो, जिनसे वह न मिले, उन्हें रखकर संगठन को दुर्बल मत बनाओ'-आचार्य भिक्षु के इस सूत्र ने संगठन को प्राणवान् बना दिया। एक ध्येय, एक विचार, एक आचार और एक आचार्य-यह है संक्षेप में उनके संगठन का आन्तरिक स्वरूप। आचार्य भिक्षु ने इसकी सदा याद दिलाई १. साधुओं का साध्य है आत्म-मुक्ति अर्थात् पूर्ण पवित्रता की उपलब्धि । २. उनकी साधना है अहिंसा, जो स्वयं पवित्र है। ३. उनका साधन है आत्मानुशासन, जो स्वयं पवित्र है। यह साध्य, साधना और साधन की पवित्रता साधु-समाज का नैसर्गिक रूप है। इसमें कोई बाधा उत्पन्न न हो, इसलिए आचार्य भिक्षु ने एक संगठन का सूत्रपात किया। चरित्र विशुद्ध रहे, साधु शिष्यों के लोलुप न बनें और परस्पर प्रगाढ़ प्रेम रहे-यही है उनकी संघ-व्यवस्था का उद्देश्य। संगठन अच्छा भी होता है और बुरा भी। शक्ति का स्रोत होने के कारण वह अच्छा भी होता है। उससे साधना की गति अबाध नहीं रहती; इसलिए वह बुरा भी होता है। साधना कुण्ठित वहां होती है, जहां अनुशासन १. उपदेशमाला, श्लोक ५०५ आणाए च्चिय चरणं तब्भंगे जाण किं न भग्गंति?। आणं च अइक्कतो, कस्साएसा कुणइ सेसंता २. लिखत : १८३२।। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका : २५ आरोपित होता है। आत्मानुशासन से चलने वाला संगठन साधना में कुण्टा नहीं लाता। आचार्य भिक्षु का संगठन केवल शक्ति-प्राप्ति के लिए नहीं है। वह आचार-शुद्धि के लिए है। आचार्य भिक्षु की दृष्टि में आचार की भित्ति पर अवस्थित संगठन का महत्त्व है। उससे विहीन संगठन का धार्मिक मूल्य नहीं है। आचार्य भिक्षु के अनेक रूप हैं। उनमें उनके दो बहुत ही स्पष्ट और प्रभावशाली हैं १. विचार और चारित्र-शुद्धि के प्रवर्तक । २. संघ-व्यवस्थापक। प्रस्तुत ग्रन्थ में इन्हीं दो रूपों की स्पष्ट-अस्पष्ट रेखाएं हैं। इस कार्य में मुनि मिलापचन्दजी, सुमेरमलजी, हीरालालजी, श्रीचन्दजी और दुलहराजजी सहयोगी रहे हैं। मैंने केवल लिखा और शेष कार्य उन्हीं का है। आचार्य तुलसी की प्रेरणा या आशीर्वाद ही नहीं, उनके अन्तःकरण की कामना भी मुझे आलोकित कर रही थी। 'तेरापंथ-द्विशताब्दी-समारोह' पर उसके प्रवर्तक का परम यशस्वी और तेजस्वी रूप रेखांकित हो, यह पूज्य गुरुदेव को तीव्र मनोकामना थी। यह मेरा सौभाग्य है कि उसकी सफलता का निमित्त बनने का श्रेय मुझे दिया। आचार्यश्री की भावना और मेरे शब्दों से निर्मित आचार्य भिक्षु की जीवन-रेखाएं पथिकों के लिए प्रकाश-स्तम्भ बनें। २०१६ मार्गशीर्ष वदि ३ श्रीरामपुर (रामपुरिया कॉटन मिल) आचार्य महाप्रज्ञ कलकत्ता। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. व्यक्तित्व की झांकी जैन-परम्परा में आचार्य भिक्षु का उदय एक नये आलोक की सृष्टि है। वे (वि. १७८३) इस संसार में आए, (वि. १८०८) स्थानकवासी मुनि बने; (वि. १८१७) तेरापंथ का प्रवर्तन किया और (वि. १८६०) इस संसार से चले गए। उनका जीवन तीन प्रकार की विशिष्ट अनुभूतियों का पुंज है। मारवाट की शुष्क-भूमि में उनका मस्तिष्क कल्पतरु बन फल सका, यही उनकी अपनी विशेषता है। वे विद्यालय में छात्र नहीं बने, विद्या ने स्वयं उनका वरण किया। वे काव्यकला के ग्राहक नहीं बने, कविता ने स्वयं उनके चरण चूमे। वे कल्पना के पीछे नहीं दौड़े, कल्पना ने स्वयं उनका अनुगमन किया। मैं श्लाघा के शब्दों में उनके जीवन को ससीम बनाना नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि उनके असीम व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति उनके विचारों से ही हो। मेरे पाठक उनको केवल जैन-आचार्य की भूमिका में ही नहीं पढ़ पाएंगे, मैं उन्हें अनेक भूमिकाओं के मध्य में से लेता चलूंगा; चढ़ाव-उतार के लिए सन्तुलन उन्हें रखना होगा। १. समय की सूझ व्यक्ति में सबसे बड़ा बल श्रद्धा का होता है। श्रद्धा टूटती है तो पैर थक जाते हैं, वाणी रुक जाती है और शरीर जड़ हो जाता है। श्रद्धा बनती है तो ये सब गतिशील बन जाते हैं। एक ठाकुर और भीखणजी मार्ग में साथ-साथ जा रहे थे। ठाकुर साहब को तम्बाकू का व्यसन था। बीच में ही तम्बाकू निबट गई। उनके पैर लड़खड़ाने लगे। “भीखणजी! तम्बाकू के बिना चलना बड़ा कठिन हो रहा Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० : भिक्षु विचार दर्शन है। मुझे कहीं रुकना पड़ेगा'-ठाकुर साहब ने कहा। भीखणजी ने सोचा, आगे दूर जाना है। साथी को जंगल में अकेले छोड़ना भी उचित नहीं। तम्बाकू के बिना ये चल नहीं सकेंगे। भीखणजी ने कहा-"ठाकुर साहब, धीमे-धीमे चलिए, दिन थोड़ा है। मैं तम्बाकू की खोज करता हूं, कहीं आस-पास में किसी पथिक के पास मिल जाए।" ठाकुर साहब को थोड़ा साहस बंधा। वे धीमे-धीमे आगे चले। भीखणजी पीछे रह गए। उन्होंने एक कण्डा लिया और उसकी बुकनी की पुड़िया ठाकुर साहब के हाथ में थमा दी। ठाकुर साहब जम्हाइयां ले ही रहे थे। उस पुड़िया को खोलते ही खिल उठे। भीखणजी ने कहा-'अच्छी तो है नहीं, ऐसी है, पर काम चल जाएगा।' ठाकुर साहव ने थोड़ी-सी-चुटकी भर सूंघी और सहसा बोल उठे- 'भीखणजी! अच्छी ही है।' ठाकुर साहब की गति में वेग आ गया। मार्ग कटता गया। वे दिन रहते-रहते घर पहुंच गए। २. श्रद्धा और बुद्धि का समन्वय कहीं श्रद्धा होती हैं, बुद्धि नहीं होती; कहीं बुद्धि होती है, श्रद्धा नहीं होती। कहते हैं, श्रद्धा अन्धी होती है, बुद्धि लंगड़ी। श्रद्धालु चलता है, बुद्धिमान देखता है। ये दोनों अधूरे हैं। पूर्णता इनके समन्वय से आती है। साधक अपने-आपको पूर्ण नहीं मानता; वह सिद्ध होने पर ही पूर्ण होता है। पर जिसके जीवन में श्रद्धा और बुद्धि का समन्वय हो, उसकी गति साध्य की दिशा में होती है, इसलिए उसे पूर्ण कहा जा सकता है। आचार्य भिक्षु का जीवन श्रद्धा और बुद्धि के समन्वय का सुन्दर उदाहरण है। ___मारवाड़ का यह चाणक्य थोड़े ही समय के बाद धर्मदूत बन गया। जोधपुर के राजा विजयसिंह के मंत्री आचार्य भिक्षु के पास आए। विश्व सादि-सान्त है या अनादि-अनन्त, यह प्रश्न पूछा। आचार्य भिक्षु ने उन्हें इसका समाधान दिया। संतोषजनक समाधान पाकर मंत्री ने कहा--'आपकी बुद्धि कई राज्यों का संचालन करे; वैसी है।' मंत्री की इस प्रशंसा का उत्तर आचार्य भिक्षु ने एक पद्य में दिया, जो इस प्रकार है: बुद्धि जिणां री जाणियै, जे सेवै जिन-धर्म । और बुद्धि किण काम री, जो पड़िया बांधे कर्म॥ १. भिक्खु दृष्टान्त, १११, पृ. ४७ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व की झांकी : ३१ ' -वही बुद्धि सराहने याग्य है, जो धर्म के आचरण में लगे, मुक्ति का मार्ग ढूंढ़े। वह बुद्धि व्यर्थ है जिससे बन्धन बढ़े। ___ सन्त की अमर वाणी आज के बुद्धिमान् को चुनौती दे रही है। ३. रूढ़िवाद पर प्रहार भीखणजी का विवाह हो चुका था। एक बार वे ससुराल गए। भोजन का समय हुआ। खाने की थालियां परोसी गईं। खाना शुरू नहीं हुआ, उसके पहले ही गालियां गायी जाने लगीं। दामाद जब ससुर के घर खाना खाता है तब स्त्रियां उसे गालियों के गीत सुनाती हैं, यह मारवाड़ की चिर-प्रचलित प्रथा है। कुलवधुओं ने गाया-'ओ कुण कालो जी काबरो।' भीखणजी का साला लंगड़ा था। उन्होंने व्यंग्य की भाषा में कहा- 'जहां अन्धे और लंगड़े को अच्छा और अच्छों को अन्धा और लंगड़ा बताया जाता है, वहां का भोजन किया जाए? थाली परोसी ही रही, भीखणजी बिना खाये उठ खड़े हुए। रूढ़िवाद उन्हें अपने बाहुपाश में जकड़ नहीं सका। ४. अन्धविश्वास का मर्मोद्घाटन दूसरे प्रान्तों में 'मारवाड़ी' का अर्थ है राजस्थानी। किन्तु राजस्थान में 'मारवाड़ी' का अर्थ जोधपुर राज्य का वासी है। इस राज्य के एक प्रदेश का नाम कांठा है। वहां एक छोटा-सा कस्बा है कंटालिया। वहां किसी के घर चोरी हो गई। चोर का पता नहीं चला, तब उसने बोर नदी से एक कुम्हार को बुला भेजा। वह अन्धा था। फिर भी चोरी का भेद जानने के लिए लोग उसे बुलाते थे। ‘उसके मुंह से देवता बोलता है', इस रूप में उसने प्रसिद्धि पा ली थी। कुम्हार आया और भीखणजी से पूछा-'चोरी का संदेह किस पर है? भीखणजी उसकी ठग-विद्या की अन्त्येष्टि करना चाहते ही थे। इस अवसर का लाभ उठाकर उन्होंने कहा- 'भाई! सन्देह तो 'मजने' पर है। रात गई और कुम्हार अखाड़े में आया। लोग इकट्ठे हो गए। उसने देवता को अपने शरीर में बुलाया। शरीर कांप उठा। ‘डाल दे, डाल दे' कह कर वह चिल्लाया। उसकी चिल्ल-पों से वातावरण में एक १. भिक्खु दृष्टान्त, ११२ पृ. ४७ २. वही, १०५, पृ. ४५ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ : भिक्षु विचार दर्शन प्रतीक्षा का भाव भर गया, पर चोरी के धन को लौटाने कोई नहीं आया। तब 'नाम प्रकट करो', 'नाम प्रकट करो', की आवाजें आने लगीं। कुम्हार का देवता बोल उठा-“गहना ‘मजने' ने चुराया है, 'मजने' ने चुराया है, 'मजने' ने चुराया है।" वहां एक अतिथि बैठा था। उसने अपने डंडे को आकाश में घुमाते हुए कहा-'मजना मेरे बकरे का नाम है, उस पर झूठा आरोप लगाता है! इस बार उसका नाम लिया तो फिर लोग कुछ और ही देखेंगे।' उसकी ठग-विद्या की कलई खुल गई। लोग उसे कोसने लगे। भीखणजी ने कहा-'इसे कोसने की क्या जरूरत है! मूर्ख तुम हो। चोरी आंखवालों के घर हुई और उसका पता लगाने के लिए तुम अन्धे को बुलाते हो, गहना कैसे आएगा? ठग-विद्या का मर्मोद्घाटन करना भीखणजी का जीवन-मंत्र था। इसका आदि और अन्त नहीं है। जीवन का मंत्र सदा जीवन के साथ चलता है। ५. अदम्य उत्साह धर्म का क्षेत्र ठग-विद्या से अछूता नहीं था। बहुत सारे लोग साधु बनकर भी साधुता को नहीं निभाते थे। वे कलिकाल का नाम ले, लोगों को भरमाते थे। पांचवां आरा है, अभी पूरा साधुपन पाला नहीं जा सकता, इसकी ओट में बहुत-सी बुराइयां पलती थीं। आचार्य भिक्षु ने कहा- 'उधार साहूकार भी लेता है और दिवालिया भी लेता है। खत दोनों लिखते हैं-महाजन जब मांगेगा तभी उसका रुपया लाटा दिया जाएगा। परन्तु साहूकार और दिवालिये की पहचान मांगने पर होती है। जो साहूकार होता है वह ब्याज सहित मूल धन दे देता है। जो दिवालिया होता है वह मूल पूंजी भी नहीं देता। भगवान् ने जो कहा, उसका पालन करने वाला साधु है और पांचवें आरे का नाम लेकर भगवान् की वाणी का उल्लंघन करने वाला असाधु है। ____आचार्य भिक्षु के गुरु आचार्य रुघनाथजी थे। उन्होंने कहा- 'भीखणजी! अभी पांचवां आरा है, इस काल में कोई भी दो घड़ी का साधुपन पाल ले तो वह सर्वज्ञ हो जाए। आचार्य भिक्षु ने कहा- 'यदि दो घड़ी में ही सर्वज्ञता १. भिक्खु दृष्टान्त, १०६, पृ. ४५ २. वही, ७६, पृ. ३१-३२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व की झांकी : ३३ प्राप्त होती है तो इतने समय तक तो मैं श्वास बन्द कर भी रह जाऊं। सदाचार उसी के पीछे चलता है जो देश, काल और परिस्थिति के सामने नहीं झुकता। ६. स्वतन्त्र चिन्तन एक वैद्य ने आंख के रोगी की चिकित्सा शुरू की। कुछ दिन बीते। आंख ठीक हो गई। वैद्य ने बधाई मांगी। रोगी ने कहा- 'मैं पंचों से पूछंगा। वे कहेंगे-मेरी आंखें ठीक हो गई हैं, मुझे दिखाई देने लगा है, तो मैं तुम्हें बधाई दूंगा; नहीं तो नहीं।' वैद्य ने पूछा-'तुझे दीखता है या नहीं? रोगी ने कहा- मुझे भले ही दीखे, पर जब पंच कह देंगे कि तुझे दीखता है, बधाई तब ही मिलेगी।" आचार्य भिक्षु ने इस उदाहरण के द्वारा अन्धानुकरण करने वालों और दूसरों पर ही निर्भर रहने वालों का चित्र ही नहीं खींचा, उन्होंने उनकी पूरी खबर भी ली। __ उनकी विचारधारा स्वतंत्र थी। उन्होंने अनेक धर्माचार्यों को परखा। आखिर स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रुघनाथजी के शिष्य बने। आठ वर्ष तक उनके सम्प्रदाय में रहे। उनकी परीक्षा-पटु बुद्धि को वहां भी संतोष नहीं मिला। वे मुक्त होकर चल पड़े। ज्ञानवान् व्यक्ति केन्द्र होता है। उसके आस-पास समाज स्वयं बन जाता है। आचार्य भिक्षु की अनुभूतियों के आलोक में तेरापंथ नामक गण का प्रारम्भ हो गया। ७. मोह के उस पार बुआ ने कहा- 'भीखण! तू दीक्षा लेगा तो मैं पेट में कटारी खाकर मर जाऊंगी।' आपने कहा-'कटारी पूनी नहीं है, जिसे पेट में खाया जाए। बुआ को मोह से उबारा, वे उसके मोह में नहीं फंसे। भीखणजी के पिता शाह बलूजी इस संसार से चल बसे। माता दीपांबाई उन्हें दीक्षा लेने की अनुमति नहीं दे रही थीं। आचार्य रुघनाथजी ने दीपांबाई १. भिक्खु दृष्टान्त, १०८, पृ. ४६ २. वही, ८०, पृ. ३२ ३. वही, २४०, पृ. ६६ " Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ : भिक्षु विचार दर्शन को समझाया । बहुत चर्चा के बाद उनकी अन्तरात्मा बोल उठी- 'मैंने सिंह का सपना देखा, जब यह मेरे गर्भ में था । यह राजा होगा। मैं इसे मुनि होने की आज्ञा कैसे दे सकती हूं? आचार्य ने कहा- 'मुनि राजा से बहुत बड़ा होता है । तेरा पुत्र मुनि - सिंह बने, इसमें तुझे क्या आपत्ति है? आचार्य की बात दीपांबाई के गले उतर गई और भीखणजी रुघनाथजी के शिष्य बन गए । ८. विश्वास विफल नहीं होता राजनगर मेवाड़ का प्रसिद्ध कस्बा है । उसकी प्रसिद्धि का कारण 'राजसमंद' है। यह बांध बहुत बड़ा नहीं है तो बहुत छोटा भी नहीं है। इसकी अपनी विशेषता है पाल । दुर्ग जैसे अनेक प्राकारों से घिरा होता है वैसे ही उस बांध का जल अनेक सेतुओं से घिरा हुआ है । 'नौ-चौकियां' वास्तु-कला का निदर्शन है । जल की किल्लोलें भीतों से टकराती हैं वैसे ही दर्शक के मन से प्रमोद टकराने लग जाता है । राजनगर सन्त भीखणजी का बोधि-क्षेत्र है । यहां उन्हें नया आलोक मिला और आलोकमय पथ पर चलने का क्षमता मिली। " राजनगर के श्रावकों ने विद्रोह किया । वे मुनियों को वन्दना नहीं करते। उन्हें समझाने के लिए तुम जाओ!" रुघनाथजी ने सन्त भीखणजी को आदेश दिया। वे अपने चार सहयोगी मुनियों के साथ राजनगर की ओर चले । चातुर्मास प्रारम्भ हुआ । सन्त भीखणजी ने श्रावकों को सुना । श्रावक उनकी श्रद्धा, बुद्धि और वैराग्य पर विश्वास करते थे। इसलिए उन्होंने जो कहा उस पर तर्क को आगे नहीं बढ़ाया। विश्वास विफल नहीं होता । श्रावकों की बात सन्त भीखणजी ने सिर पर ओढ़ ली थी। उन्होंने मन ही मन सोचा - क्या हम लोग आचार-शिथिल नहीं हैं? कलिकाल की दुहाई देकर क्या हम महाव्रतों की यत्र-तत्र अवहेलना नहीं करते? उनको कंपन- ज्वर हो गया और उस दशा में उनके संकल्प ने नया मार्ग ढूंढ़ लिया । श्रावकों का विश्वास विफल नहीं हुआ । ६. आलोचना कड़वी दवा भी लोग पीते हैं और वैद्य पिलाते हैं। दवा कड़वी है, यह दोष नहीं है। दवा की कसौटी रोग मिटाने की क्षमता से की जाती है, कड़वापन Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व की झांकी : ३५ पा मिठास से नहीं। “आपके प्रयोग बहुत कड़वे हैं"-एक व्यक्ति ने कहा। आचार्य भिक्षु ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया-“गंभीर बात का रोग है। वह खुजलाने से कैसे मिटे? उसे मिटाने के लिए कुश का ही दाग देना होता है।" ___ आचार्य भिक्षु ने आचार शिथिलता और विचारों के धुंधलेपन पर गहरा प्रहार किया। उनकी भाषा कठोर है, नुकीली है और है चुभनेवाली; पर उसमें आत्मा की आवाज है, वेदना की अभिव्यक्ति है, अन्तर और भीतर की एकता है। १०. जागरण राजस्थान में ब्याह आदि कुछ प्रसंगों पर रात्रि-जागरण-रातिजोगे की प्रथा है। आचार्य भिक्षु ने रूपान्तर में इस प्रथा को निभा ही लिया। पाली की घटना है। रात को व्याख्यान दिया। पूरा हुआ, लोग चले गए। आप चौकी पर बैठे थे। दो आदमी खड़े-खड़े चर्चा करते रहे। आप उन्हें उत्तर देते रहे। अन्य साधु सो रहे थे। रात का पिछला प्रहर आया। आपने साधुओं को जगाया और कहा-'प्रतिक्रमण करो।' साधुओं ने पूछा-'आपकी नींद कब खुली? आपने कहा-'कोई सोया भी तो हो?२ __सोने के लिए जागने वाले बहुत होते हैं, पर जागरण के लिए जागने-वाले विरले ही होते हैं। ११. आचार-निष्ठा संसार में सब एकरूप नहीं होते। कुछ लेने का होता है, कुछ छोड़ने का। जानने का सब होता है। जो छोड़ने का हो उसी को छोड़ा जाए, शेष को नहीं। जीवन की सफलता का यह एक मन्त्र है। __ एक बहन आयी और आचार्य भिक्षु को भिक्षा लेने की प्रार्थना कर चली गयी। यह काम कई दिनों तक चलता रहा। एक दिन आचार्य भिक्षु भिक्षा लेने उसके घर गए। आपने पूछा-'तू भिक्षा देने के बाद हाथ ठंडे जल से धोएगी या गर्म जल से? १. भिक्खु दृष्टान्त, ६६, पृ. २८ २. वही, ५३ पृ. २३ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ : भिक्षु विचार दर्शन बहन-गर्म जल से। आचार्य भिक्षु-कहां धोएगी? बहन-इस नाली में। आचार्य-वह जल कहां जाएगा? बहन-नीचे। आचार्य-इससे तो अनेक जीव मर सकते हैं या मर जाएंगे। इसलिए मैं तेरे हाथ से भिक्षा नहीं ले सकता। बहन-आप भिक्षा ले लें। मैं हाथ कैसे और कहां धोऊंगी, इसकी चिन्ता क्यों करते हैं? मैं भिक्षा देकर हाथ धोती हूं, उसे भला कैसे छोडूंगी? आचार्य-तो रोटी के लिए मैं अपना आचार क्यों तोडूंगा? एक आत्मस्थ व्यक्ति को आनन्दानुभूति आचारनिष्ठ रहने में होती है, वह रोटी जुटाने में नहीं होती। आचार के लिए रोटी को ठुकराने में जो पुरुषार्थ है, वह रोटी के लिए आचार को ठुकराने में समाप्त हो जाता है। १२. व्यक्तिगत आलोचना से दूर आलोचना दोष की होनी चाहिए और प्रशंसा गुण की। किसी व्यक्ति की आलोचना करनेवाला अपने लिए खतरा उत्पन्न करता है, आलोच्य के लिए वह न भी हो। प्रशंसा करनेवाला प्रशस्य व्यक्ति के लिए खतरा उत्पन्न करता है। आचार्य भिक्षु ने बहुत आलोचना की, उनकी हर आलोचना में क्रान्ति का घोष है। पर व्यक्तिगत आलोचना से जितने वे बचे, उतना विरला ही बच सकता है। एक आदमी ने पूछा-'महाराज! इतने सम्प्रदाय हैं जिनमें कौन साधु है और कौन असाधु? आचार्यवर ने कहा-'एक अन्धा मनुष्य था। उसने वैद्य से पूछा-नगर में नग्न कितने हैं और कपड़े पहनने वाले कितने? वैद्य बोला-यह दवा लो, आंख में डाल लो। मैं तुम्हें दृष्टि देता हूं, फिर तुम ही देख लेना-नग्न कितने हैं और कपड़े पहनने वाले कितने।' आपने कहा-'साधु और असाधु की पहचान मैं बता देता हूं, फिर तुम्हीं परख लेना-कौन साधु है और कौन असाधु । नाम लेकर किसी को १. वही, ३२, पृ. १५ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व की झांकी : ३७ असाधु कहने से झगड़ा खड़ा हो जाता है। दृष्टि में देता हूं और मूल्याकन तुम्ही कर लेना। एक समय किसी दूसरे व्यक्ति ने ऊपर का कथन दोहराया। . आपने कहा- 'एक आदमी ने पूछा-इस शहर में साहूकार कौन है और दिवालिया कौन है? उत्तरदाता ने कहा-मैं किसे साहूकार बताऊं और किसे दिवालिया? मैं तुम्हें गुण बता देता हूं-जो लेकर वापस देता हो वह साहूकार, जो लेकर वापस न करता हो और मांगने पर झगड़ा करे, वह दिवालिया। परीक्षा तुम्ही कर लेना-कौन साहूकार है और कौन दिवालिया।' आपने कहा- 'मैं तुम्हें लक्षण बता देता हूं-जो महाव्रतों को ग्रहण कर उनका पालन करे, वह साधु और जो उन्हें न निभाये, वह असाधु । परीक्षा तुम्हीं कर लेना, कौन साधु है और कौन असाधु ।' १३. सिद्धान्त और आचरण की एकता जहां विधान दूसरों के लिए होता है, अपने लिए नहीं, वहां वह जीकर भी निर्जीव बन जाता है। जो महान् होता है वह सबसे पहले विधान को अपने ऊपर ही लागू करता है। एक दूसरे सम्प्रदाय का साधु आया और आचार्य भिक्षु को एकांत में ले गया। आपने थोड़े समय तक बातचीत की और लौट आये। हेमराजजी स्वामी आपके दाएं हाथ थे। उन्होंने पूछा-'गुरुदेव! वह किसलिए आया था और उसने क्या बातचीत की? आपने कहा-'वह किसी दोष का प्रायश्चित्त लेने आया था।' हेमराजजी-किस दोप का? आचार्य-मुझे कहना नहीं कल्पता। व्यवस्था के पालन के लिए अपने प्रिय शिष्य की भी उपेक्षा कर देनी चाहिए, यह बहुत बड़ा सिद्धांत नहीं है, पर बहुत बड़ा कार्य है। जहां सिद्धांत की गुरुता कार्य की गहराई में लीन हो जाती है, वहां कार्य और सिद्धांत एक-दूसरे में चमक ला देते हैं। १. भिक्खु दृष्टान्त, ६६, पृ. ३४ २. वही, १००, पृ. ४३ ३. वही, ५७, पृ. १० Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ : भिक्षु विचार दर्शन १४. अकिंचन की महिमा सामग्री चौंधिया देती है, पर प्रथम दर्शन में । आदि से अन्त तक व्यक्ति का तेज ही चमकता है। उपकरण किसी के अन्तर को नहीं छू सकता । आचार्य भिक्षु पुर से भीलवाड़ा जा रहे थे। उन्होंने बीच में एक जगह विश्राम लिया । ढूंढाड़ का एक आदमी मिला। उसने पूछा- 'आपका नाम क्या है? आपने कहा- 'मेरा नाम भीखण है ।' वह बोला- 'भीखणजी की महिमा तो बहुत सुनी है। फिर आप तो अकेले पेड़ के नीचे बैठे हैं। मेरी कल्पना तो थी कि आपके पास बहुत आडम्बर होगा - हाथी, घोड़े, रथ और पालकियां होंगी; पर कुछ नहीं देखता हूं।' आचार्य - महिमा इसीलिए तो है कि पास में ऐसा आडम्बर नहीं । साधु का मार्ग ऐसा ही है । १ आचार्य भिक्षु उसके अन्तरतम के देवता हो गए। अन्तरतम उसी के लिए सुरक्षित रह सकता है जो बाहरी सुरक्षा की चिन्ता से मुक्त होता है। सच तो यह है कि सुरक्षा बाहर में है भी नहीं । आचार्य भिक्षु अन्तर की सुरक्षा से इतने आश्वस्त थे कि बाहरी सुरक्षा का प्रयत्न उनके लिए मूल्यहीन बन गया था । १५. जहां बुराई भलाई बनती है विश्व में अनेक घटनाएं घटती हैं- कोई अनुकूल और कोई प्रतिकूल । अनुकूल घटना में मनुष्य फूलकर कुप्पा हो जाता है और प्रतिकूल घटना में सिकुड़ जाता है । यह तटस्थ वृत्ति के अभाव में होता है । तटस्थ व्यक्ति समभावी होता है । उसका मन इतना बलवान् हो जाता है कि वह अप्रिय को प्रिय मानता है और असम्यक् को सम्यक् रूप में ग्रहण करता है । आचार्य भिक्षु पाली में चातुर्मास करने आये । एक दुकान में ठहरे। एक सम्प्रदाय के आचार्य दुकान के मालिक के पास गए। उसकी पत्नी से कहा - 'बहिन ! तूने दुकान दी है पर चौमासा शुरू होने के बाद चार मास तक भीखणजी इसे छोड़ेंगे नहीं ।' वह आचार्य भिक्षु के पास आयी । उसने कहा - 'मेरी दुकान से चले जाएं।' आपने कहा- 'हम जबर्दस्ती रहने वाले 1 १. वही, १२५, पृ. ५३ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व की झांकी : ३६ नहीं हैं । तू जब भी कहेगी तभी चले जायेंगे। चातुर्मास में भी हम दुकान को छोड़ सकते हैं।' बहिन ने कहा- मुझे तुम्हारे जैसे ही कह गए हैं कि चौमासा शुरू होने पर दुकान नहीं छोड़ेंगे। इसलिए मैं दुकान में रहने की अनुमति नहीं दे सकती।' आचार्य भिक्षु उस दुकान को खाली कर दूसरी जगह चले गये । दिन में मड़ैया में रहते और रात को नीचे दुकान में व्याख्यान देते। लोग बहुत आते । 1 प्रकृति रूप बदलती रहती है। राजस्थान में वर्षा कम होती है, लेकिन इस वर्ष बरसात ने सीमा तोड़ दी । प्रकृति का प्रकोप बहुतों को सहना पड़ा। उस दुकान को भी सहना पड़ा, जिसमें आचार्य भिक्षु पहले ठहरे थे उसका शहतीर टूट गया। दुकान ढह गई। आचार्य भिक्षु ने यह सुना तो बोल उठे - 'दुकान से निकालने की प्रेरणा की, उन पर सहज क्रोध आ सकता है । परन्तु सही माने में उन्होंने हमारा उपकार किया । यदि आज हम उस दुकान में होते तो ?? बुराई करने वाला अवश्य ही बुरा होता है । पर बहुत अच्छा तो वह भी नहीं होता जो बुराई के भार से दब जाए । बुराई को पैरों से रौंदकर चलने वाला ही अपने मन को मजबूती से पकड़ सकता है । १६. क्षमा की सरिता में अमृत को जहर बनाने वाले कितने नहीं होते, किन्तु जहर को - अमृत बनाने वाले विरले ही होते हैं । जहर को अमृत वही बना सकता है जिसमें जहर न हो । एक सम्प्रदाय के साधु और आचार्य भिक्षु के बीच तत्त्व चर्चा हो रही थी । प्रसंगानुसार आपने बताया- 'धर्म के लिए हिंसा करने में दोष नहीं, यह अनार्य - वचन है, यह भगवान् महावीर ने कहा है ।' प्रतिवादी साधु ने अपने शिष्य से कहा - ' अपनी प्रति ला, यह पाठ शुद्ध नहीं है ।' शिष्य से प्रति मंगवाकर देखा तो वही पाठ मिला जो बताया गया था । उनके हाथ कांपने लगे। तब आचार्यवर ने कहा - 'मुनिजी ! हाथ क्यों कांप रहे हैं? जनता पाठ सुनने को उत्सुक है। आप सुनाइए न।' उसने पाठ नहीं सुनाया । १. भिक्खु दृष्टान्त, २, पृ. ३, ४ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० : भिक्षु विचार दर्शन आचार्य भिक्षु ने कहा - 'हाथ में कंपन होने के चार कारण होते हैं : १. कंपन वात २. क्रोध का आवेश ३. मैथुन का आवेश ४. चर्चा में पराजय ।' यह सुनकर मुनिजी ने कहा - 'साले का माथा काट डालूं ।' जहर को अमृत बनाते हुए आचार्य भिक्षु ने कहा - 'मुनिजी ! जगत् की सारी स्त्रियां मेरी बहन हैं। आपके स्त्री है तो मैं आपका भी साला हो सकता हूं, यदि आपके स्त्री नहीं है, आप मुझे साला बनाते हैं तो आपको झूठ बोलने का दोष लगता है । आपने दीक्षा ली तब सभी जीवों को मारने का त्याग किया था। आपकी दृष्टि में मैं साधु भले ही न होऊ, पर मनुष्य तो हूं, एक प्राणी तो हूं, दीक्षा लेते समय क्या मुझे मारने की छूट रखी थी ?" विरोध विनोद में बदल गया, जहर अमृत बन गया । लोग खिलखिला उठे। आवेश का दोष क्षमा की सरिता में बह गया । १७. सत्य का खोजी सत्य उसी के पल्ले पड़ता है जिसकी आत्मा पवित्र होती है । उसमें सत्य का ही आग्रह होता है, बाहरी उपकरणों का नहीं । एक दिन कुछ दिगम्बर जैन आचार्य भिक्षु के पास आये। उन्होंने कहा - 'महाराज, आपका आचार और अधिक चमक उठे, यदि आप वस्त्र न पहनें। आपने कहा- 'आप लोगों की भावना अच्छी है, पर मुझे श्वेताम्बर - आगमों में विश्वास है। उन्हीं के आधार पर मैंने घर छोड़ा है। उसके अनुसार मुनि कुछ वस्त्र रख सकता है, इसलिए मैं रखता हूं। यदि मुझे दिगम्बर-आगमों में विश्वास हो जाए तो मैं उसी समय वस्त्रों को फेंक दूं, नग्न हो जाऊं । २ सत्य का शोधक जितना निश्चल होता है, उतना ही नम्र । आचार्य भिक्षु ने जो नई व्याख्या की, उसके अन्त में लिख दिया कि मुझे यह सही लगता है, इसलिए मैं ऐसा करता हूँ। किसी आचार्य और बहुश्रुत मुनि को १. भिक्खु दृष्टान्त, ६१, पृ. ३६-३६ २. वही, ३१, पृ. १. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व की झांकी : ४१ यह सही न लगे तो वे इसमें परिवर्तन कर दें। यह बात वही लिख सकता है जिसे सत्य के नये उन्मेषों का ज्ञान हो। सत्य अनन्त है, वह शब्दों की पकड़ में नहीं आता। आग्रही मनुष्य उसे रूढ़ि बना देते हैं, किन्तु उसे पा नहीं सकते। १८. जो मन को पढ़ सके मनुष्य की आकृति जैसे भिन्न होती है, वैसे प्रतिभा भी भिन्न होती है। कोई अपने मन की बात को भी पूरा नहीं समझ पाता ओर कोई दूसरों के मन की बात को भी पकड़ लेता है। दूसरों के हृदय को अपने हृदय में उड़ेलने वाला उस दूरी को मिटा देता है जो मनुष्य-मनुष्य के बीच में है। आचार्य भिक्षु आएं तो मैं साध्वी बनूं-एक बहिन ऐसा बार-बार कहती रही। आप केलवा में आये। उस बहिन को ज्वर हो गया। शाम को वह दर्शन करने आयी। उसकी गति और बोली में शिथिलता थी। आपने उससे पूछा- 'बहिन! क्या हुआ, यों' धीमे-धीमे कैसे बोलती हो? वह बोली-'गुरुदेव! आपका तो आना हुआ और मुझे ज्वर हो गया।' आपने कहा---'ज्वर दीक्षा से डर के तो नहीं आया है? बहिन-मन में थोड़ा डर आया तो था। आपने कहा-दीक्षा कोई ऐसा खेल नहीं है जो हर कोई खेल ले। यह यावज्जीवन का कार्य है। एक भाई ने कहा- 'गुरुदेव! साधु बनने की इच्छा है।' आचार्यवर ने कहा- 'तेरा हृदय कोमल है। दीक्षा के समय घरवाले रोयें तब तू भी रोने लग जाए तो? भाई बोला-'गुरुदेव! आप सच कहते हैं, आंसू तो छलक पड़ेंगे।' आप-दामाद ससुराल से अपने घर लौटे तब उसकी स्त्री रोये, वैसे वह भी रो पड़े तो कैसा लगे? कोई साधु बने तब उसके परिवार वाले रोयें, यह स्वार्थ हो सकता है पर परमार्थ-पथ का अनुगामी भी उनके साथ-साथ रोने लगे तो वैराग्य की रीढ़ टूट जाती है। १ मोनें तो कवाइयां रो दोष न भासे, जाणें में सुध व्यवहार। . जो निसंक दोष कवाड्यां में जाणों, ते मत वहरजो लिगार रे।। . (श्रद्धा निर्णय री चौपी १६-५१) २. भिक्खु दृष्टान्त, ३६, पृ. १६ ३. वही, ३७, पृ. १७ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ : भिक्षु विचार दर्शन नेता का अर्थ होता है दूसरों को लेकर चलने वाला । जो व्यक्ति नेता होकर भी दूसरों के मन को नहीं पढ़ सकता, वह दूसरों को साथ लिये नहीं चल सकता। दूसरों को साथ लेकर चलने के लिए जो चलता है, वह दूसरों के मन को नहीं पढ़ सकता । दूसरों के मन को वह पढ़ सकता है जिसके मन की स्वच्छता में दूसरों के मन अपना प्रतिविम्ब डाल सकें । जिसका मन इतना स्वच्छ होता है, उसकी गति के साथ असंख्य कदम चल पड़ते हैं । १६. व्यवहार - कौशल अन्तर की शुद्धि का महत्त्व अपने लिए अधिक होता है, दूसरों के लिए कम । व्यवहार की कुशलता का महत्त्व अपने लिए कम होता है, दूसरों के लिए अधिक । अन्तर की शुद्धि के बिना कोरी व्यवहार कुशलता छलना हो. जाती है और व्यवहार कुशलता के बिना अन्तर की शुद्धि दूसरों के लिए उपयोगी नहीं होती । एक गांव में साधु भिक्षा लेने के लिए गये। एक जाटनी के घर आटे का घावन था । साधुओं के मांगने पर भी उसने नहीं दिया। साधु खाली झाली लिये लौट आये । साधुओं ने कहा - 'जल बहुत है पर मिल नहीं रहा है ।' भिक्षु - क्यों? क्या वह बहिन देना नहीं चाहती ? साधु- वह जो देना चाहती है, वह अपने लिए ग्राह्य नहीं है और जो ग्राह्य है उसे वह देना नहीं चाहती । भिक्षु उसे धोवन देने में क्या आपत्ति है? साधु - वह कहती है-आदमी जैसा देता है वैसा ही पाता है । आटे का धोवन दूं तो मुझे आगे वही मिलेगा । मैं यह नहीं पी सकती । यह साफ पानी है, आप ले लीजिए । आचार्य भिक्षु उठे और साधुओं को साथ लेकर उसी घर में गये । धोवन की मांग करने पर उस बहिन ने वही उत्तर दिया, जो वह पहले दे चुकी थी । - भिक्षु - बहिन ! तेरे घर में कोई गाय है? बहिन- हां, महाराज ! है 1 भिक्षु - तू उसे क्या खिलाती है ? Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व की झांकी : ४३ बहिन-चारा, घास। भिक्षु-वह क्या देती है? बहिन-दूध। भिक्षु-तब बहिन ! जैसा देती हो, वैसा कहां मिलता है? घास के बदले दूध मिलता है। ___अब वह रुक नहीं सकी। जल का पात्र उठा, सारा जल उसने साधुओं के पात्र में उड़ेल दिया। .... इस जगत् में अनेक कलाएं होती हैं। उसमें सबसे बड़ी कला है दूसरों के हृदय का स्पर्श करना। उस कला का मूल्य कैसे आंका जाए जो दूसरों के हृदय तक पहुंच ही नहीं पाती। २०. चमत्कार को नमस्कार दुनिया चमत्कार को नमस्कार करती है। व्यक्ति नहीं पूजा जाता, शक्ति पूजी जाती है। पूर्णिमा के चांद की पूजा नहीं होती, दूज का चांद का पूजा जाता है। सीधी बात पर ध्यान नहीं जाता, वक्रोक्ति सहसा मन को खींच लेती है। कवित्व एक शक्ति है। वक्रोक्ति से बढ़कर और काव्य का क्या चमत्कार होगा? - आचार्य भिक्षु पीपाड़ में चौमासा कर रहे थे। वहां जग्गू गांधी उनके सम्पर्क में आया और उनका अनुयायी बनं गया। कुछ लोगों ने कहा-‘स्वामीजी! जग्गू गांधी आपका अनुयायी बना, इस बात से अमुक सम्प्रदाय वाले सभी लोगों को कष्ट हुआ है पर खेतसी लूणावत को तो बहुत ही कष्ट हुआ है। स्वामीजी बोले-'विदेश से मौत का समाचार आने पर चिन्ता सबको होती है, पर लम्बी कांचुली तो एक ही पहनती है। आचार्य भिक्षु व्याख्यान देते। कुछ लोगों को वह बहुत ही अच्छा लगता और कुछ उसका विरोध करते। जिनका विरोध था, उन्होंने कहा-'भीखणजी व्याख्यान देते हैं तब रात एक पहर से बहुत अधिक चली जाती है। आचार्य भिक्षु ने कहा-'सुख की रात छोटी लगती है, दुःख की रात बड़ी। वैसे ही जिन्हें व्याख्यात सहन नहीं होता उन्हें रात अधिक बड़ी लगती है। १. भिक्खु दृष्टान्त, ३४ पृ. १६ २. वही, १७, पृ. १० ३. वही, १८, पृ. १० Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ : भिक्षु विचार दर्शन एक व्यक्ति ने कहा-'स्वामीजी! इधर आप व्याख्यान देते जा रहे हैं और उधर सामने बैठे हुए कुछ लोग आपकी निन्दा करते जा रहे हैं।' आपने कहा-'यह आदत की लाचारी है। झालर बजने पर कुत्ता भौंकता है। वह यह नहीं समझता है कि यह विवाह के अवसर पर बज रही है या किसी के मर जाने पर। निन्दा करने वाला यह नहीं देखता कि यह ज्ञान की बात की जा रही है या कुछ और। उसका स्वभाव निन्दा करने का है सो कर लेता है। तत्त्व की चर्चा में लम्बाई होती है। काव्य की चर्चा लम्बी नहीं होती। उसकी समाप्ति वह एक ही वाक्य कर देता है जिसमें चुभने की क्षमता हो। २१. विवाद का अन्त एक रस्सी को पकड़कर दो आदमी खींचते हैं--एक इधर और एक उधर । परिणाम क्या हाता है? रस्सी टूटती है। दोनों आदमी गिर जाते हैं। खिंचाव करने वाला अर्थात् गिरनेवाला। जो खिंचाव को मिटाता है वह अपने को गिरने से उबार लेता है। दो साधुओं में खींचातानी हो गई। वे आचार्य भिक्षु के पास आये। एक ने कहा-'इसके पात्र में से इतनी दूर तक जल की बूंदें गिरती गईं।' दूसरे ने कहा-'नहीं, इतनी दूर तक नहीं गिरी ।' तीसरा कोई साथ में नहीं था। दोनों अपनी-अपनी बात पर डटे रहे। विवाद नहीं सुलझा। तब आचार्यवर ने कहा- 'तुम दोनों रस्सी लेकर जाओ और उस स्थान को मापकर वापस आ जाओ।' दोनों के मन की नाप हो गई। पहले ने कहा-'हो सकता है मेरे देखने में भूल रह गई हो।' दूसरे ने कहा-'हो सकता है मैं दूरी को ठीक-ठीक न पकड़ सका होऊं।' दोनों अपने-अपने आग्रह का प्रायश्चित्त कर गिरने से बच गये और शुद्ध हुए। दो साधु एक विवाद को लेकर आये। एक ने कहा- 'गुरुदेव! यह रसलोलुप है।' दूसरा बोला- 'मैं नहीं हूं, रसलोलुपता इसमें है।' वाणी का यह विवाद कैसे निपटे? स्वामीजी के समझाने पर भी वे समझ नहीं सके। १. भिक्खु दृष्टान्त १६, पृ. १० २. वही, १६७, पृ. ६७ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व की झांकी : ४५ आखिर आपने कहा-'तुम दोनों मुझसे स्वीकृति लिये बिना विगय खाने का त्याग करो। जो विगय खाने की स्वीकृति पहले लेगा, वह कच्चा है और दूसरा पक्का। दोनों ने आचार्य की आज्ञा को शिरोधार्य किया। चार मास तक उन्होंने दूध दही, घी, मिठाई आदि कुछ नहीं खाये। पूरा चातुर्मास बीतने पर एक ने विगय खाने की स्वीकृति ली। विवाद की आंच मंद हो चुकी थी। है' और 'नहीं' की चर्चा एक खतरनाक रस्सी है। इसमें हर आदमी के पैर उलझ जाते हैं। एक कहता है कि इसकी लम्बाई-चौड़ाई इतनी है, दूसरा कहता है-'नहीं, इतनी नहीं है।' एक कहता है-'हम आज नौ बजे सोये; दूसरा कहता है-'नहीं, हम सवा नौ बजे सोये।' ऐसे विवादों का कोई अर्थ भी नहीं है तो कोई अन्त भी नहीं है। इसका अन्त वही ला. सकता है, जिसे अन्तर की अनुभूति में स्वाद आ जाए। २२. जिसे अपने पर भरोसा है वहां सारी भाषाएं मूक बन जाती हैं, जहां हृदय का विश्वास बोलता है। जहां हृदय मूक होता है, वहां भाषा मनुष्य का साथ नहीं देती। जहां भाषा हृदय को ठगने का यत्न करती है, वहां व्यक्ति विभक्त हो जाता है। अखंड व्यक्तित्व वहां होता है, जहां भाषा और हृदय में द्वैध नहीं होता। आचार्य भिक्षु की आस्था बोलती थी। उनकी भावना एक ही देव की उपासना में सिमटी हुई थी। एक देव-कोई एक व्यक्ति नहीं, किन्तु वे सब व्यक्ति जो वीतरागमय हों, जिनके चारित्र में राग-द्वेष के धब्बे न हों। लोगों में स्वार्थ होता है। वे उसकी पूर्ति के लिए अनेक देवों की पूजा करते हैं। जिन्हें अपने ऊपर भरोसा नहीं होता, वे पग-पग पर देवों की पूजा करते हैं। उस समय के लोग भी भैरव, शीतला आदि अनेक देवों की मनौती करते थे। आचार्य भिक्षु इसे मानसिक दुर्बलता बताते। प्रवचन-प्रवचन में इसका खंडन करते। ____ एक दिन हेमराजजी स्वामी ने कहा-'गुरुदेव! आप इन लौकिक देवताओं की पूजा का खंडन करते हैं, पर कहीं वे कुपित हो गए तो? आपने व्यंग्य की भाषा में कहा-'यह युग सम्यग्दृष्टि देवताओं का है। ये १. भिक्खु दृष्टान्त, १६८, पृ. ६७, ६८ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ : भिक्षु विचार दर्शन १ भैरव आदि कुपित होकर करेंगे भी क्या ? " दूसरों पर अधिक भरोसा वही करता है जिसे अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं है। मनुष्य जागकर भी सोता है, इसका मतलब है कि उसे अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं है । मनुष्य सोकर भी जागता है, इसका मतलब है कि उसे अपने-आप पर भरोसा है। जिसे अपने पर भरोसा है, वह सब कुछ है । २३. पुरुषार्थ की गाथा कहा जाता है - महापुरुषों की कार्य-सिद्धि उनके सत्त्व में होती है, उपकरणों में नहीं होती। प्राचीन खगोलशास्त्री कहते हैं- सूर्य का सारथी लंगड़ा है । फिर भी वह असीम आकाश की परिक्रमा करता है। पौराणिक कहते हैं- 'राम ने रावण को जीता और उनकी सहायता कर रही थी बन्दर - सेना ।' आचार्य भिक्षु की साधन सामग्री स्वल्पतम थी। एक बार उनके सहयोगी साधु छह ही रह गये । साध्वियां नहीं थीं । जैन - परम्परा में साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका - ये चार तीर्थ कहलाते हैं । । एक व्यक्ति ने कहा- 'भीखणजी का लड्डू खण्डित है - पूरा नहीं है ।' आपने कहा - 'पूरा भले मत हो, पर है असली 'चौगुणी' चीनी का ।' कुछ वर्षों के पश्चात् साध्वियां बनीं। एक बार तेरह साधु थे । इसे लक्षित कर एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु के संघ का नाम 'तेरापंथी' रख दिया। अपने विचारों का अनुगामी समाज होने की परिकल्पना उन्हें नहीं थी । एक सम्प्रदाय खड़ा करना उनका उद्देश्य भी नहीं था । वे आत्मशोधन के लिए चले थे। उनके साथ एक छोटी-सी मंडली थी । आचार्य भिक्षु संख्या नहीं मानते थे । उनका विश्वास गुण में था। उनके अनन्य सहयोगी और अनन्य विश्वासपात्र थे भारीमालजी । ' भारीमाल ! हम आचार्य रुघनाथजी को छोड़ आए हैं। हमें नये सिरे से दीक्षा लेनी है । तुम्हारे पिता की प्रकृति बहुत उग्र है । हमें कठिनाइयों का सामना करना होगा। तुम्हारे पिता में उन्हें झेलने का सामर्थ्य नहीं है । १. भिक्खु दृष्टान्त, २७६, पृ. ११० २. वही, २२, पृ. ११ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व की झांकी : ४७ इसलिए मैं उन्हें अपने साथ नहीं रख सकता। तुम्हारी क्या इच्छा है, मेरे साथ रहना चाहते हो या अपने पिता के साथ? आचार्य भिक्षु ने कहा। ____ भारीमालजी ने दृढ़तापूर्वक आचार्य भिक्षु के साथ रहने की इच्छा व्यक्त की-'मुझे आपका विश्वास है। साधुत्व में मेरी आस्था है। मेरे चरण आपके चरण-चिह्नों का ही अनुगमन करेंगे। मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जा सकता। आचार्य भिक्षु ने कृष्णोजी के सामने वही बात दोहराई। उन्होंने कहा-'आप मुझे साथ नहीं रखेंगे तो मेरा पुत्र भी आपके साथ नहीं रह सकेगा।' ____ आचार्य भिक्षु ने कहा- 'यह रहा तुम्हारा पुत्र, मैं इसे कब रोकता हूं। तुम इसे ले जा सकते हो।' कृष्णोजी हठपूर्वक भारीमालजी को अपने साथ लेकर दूसरी जगह चले गये। भारीमालजी उस समय चौदह वर्ष के थे, पर उनकी आत्मा चौदह वर्ष की नहीं थी। उनके चिर-संचित संस्कार जाग उठे। पुत्र के सत्याग्रह के सामने पिता का आग्रह टूट गया। वे अपने पुत्र को साथ लिये आचार्य भिक्षु के निकट आये। नम्रभाव से कहा-'गुरुदेव! यह आप ही की संपत्ति है। इसे आप ही संभालें। यह दो दिन का भूखा-प्यासा है। इसे आप भोजन करायें, जल पिलायें। यह आपसे बिछुटकर जीवन-पर्यन्त अनशन करने पर तुला हुआ है। यह मेरे साथ नहीं रहना चाहता।' ___फल में जो होता है, वह सारा का सारा बीज में होता है। बीज आकार में ही छोटा होता है, प्रकार में नहीं। तेरापंथ के विकास का बीज आचार्य भिक्षु का जीवन था। उनके जीवन में समस्त-पद की वह सफलता है, जिसमें अनेक विभक्तियां लीन हों। उनके जीवन में सिन्धु की वह गहराई है, जिसमें असंख्य सरिताएं समाहित हो सकती हैं। उनके जीवन में क्षमा, बुद्धि, परीक्षा आदि ऐसे विशेष मनोभावों का संगम शा. जो सहज ही एक धर्म-क्रान्ति की भूमि का निर्माण कर सका। १. भिक्खु दृष्टान्त, २०२, पृ. ८२ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रतिध्वनि १. धर्म - क्रान्ति के बीज' यह उन्नीसवीं सदी के प्रथम चरण की घटना है । राजपूताना की मरुस्थली में एक धर्म - क्रान्ति हुई । भारतीय परम्परा में धर्म राजनीति से भिन्न रहा, इसलिए राज-व्यवस्था पर उसका कोई प्रभाव नहीं हुआ । समाज व्यवस्था भी धर्म द्वारा परिचालितं नहीं थी, इसलिए उस पर भी उसका प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा । किन्तु समाज में रहने वाले उससे सर्वथा अछूते कैसे रह सकते थे? परम्परा के पोषक इसको सहन नहीं कर सके। उन्होंने आचार्य भिक्षु को विद्रोही घोषित कर दिया । इस धर्म - क्रान्ति का निकट सम्बन्ध जैन - परम्परा से था । विरोध की चिनगारी वहीं सुलगी । आचार्य भिक्षु एवं उनके नवजात तेरापंथ पर तीव्र प्रहार होने लगे । प्रहार करना आत्मसंयम की कमी का प्रतीक है । अप्रिय परिस्थिति बनने पर ही व्यक्ति के संयम का मूल्यांकन होता है। आचार्य भिक्षु जिस परम्परा से मुक्त हुए, उसके लिए यह अप्रिय घटना थी और उनका उसके प्रति प्रहार करना भी अस्वाभाविक नहीं था । वह वैसे ही हुआ । पर वह एक अमिट लौ थी। हवा के झोंके उसे बुझा नहीं सके। उसे जिन - वाणी का स्नेह और संयम की सुरक्षा प्राप्त थी । प्रतिरोध के उपरान्त भी वह प्रदीप्त होती गई। उसके आलोक में लोगों को 'तेरापंथ' की झांकी मिली। तेरापंथ और आचार्य भिक्षु आज भी भिन्न नहीं हैं, किन्तु उस समय तो आचार्य भिक्षु ही तेरापंथ और तेरापंथ ही आचार्य भिक्षु थे । तेरापंथ एक विस्फोट है। महावीर वाणी के कुछ बीज तेरापंथ की भूमिका में प्रस्फुटित हुए, वैसे सम्भवतः पहले नहीं हुए। तेरापंथ महावीर की अहिंसा का महाभाष्य Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिध्वनि : ४६ है। उस महाभाष्य की कुछ पंक्तियां आज राजनीति की भूमिका में प्रत्यावर्तन पा रही हैं। समाज भी उन्हें मान्यता दे रहा है। वह शाश्वत-सत्य, जिसकी भगवान् महावीर ने अनुभूति की और जिसे आचार्य भिक्षु ने अभिव्यक्ति दी, आज युग की भाषा में बोल रहा है। उस समय बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों के वध को पण्य माना जाता था। अहिंसा के क्षेत्र में भी बल-प्रयोग मान्य था। पुण्य के लिए धर्म करना भी सम्मत था। अशुद्ध साधन के द्वारा भी शुद्ध साध्य की प्राप्ति मानी जाती थी और दान मात्र को पुण्य माना जाता था। ___आचार्य भिक्षु ने इन मान्यताओं की आलोचना की। बड़े-छोटे के प्रश्न पर उन्होंने सब जीवों की समानता की बात याद दिलाई। बल-प्रयोग के स्थान पर हृदय-परिवर्तन की पुष्टि की। उन्होंने कहा-'धर्म करने पर पुण्य स्वयं होता है, पर पुण्य करने के लिए धर्म करना लक्ष्य से दूर जाना है। शुद्ध साध्य की प्राप्ति शुद्ध साधनों के द्वारा ही हो सकती है और दान का अधिकारी केवल संयमी है, असंयमी नहीं।' उस समय इसकी क्या प्रतिक्रिया हुई, यह बताने से पूर्व यह बताना आवश्यक है कि ये विचार युग की भाषा में कैसे प्रतिध्वनित हो रहे हैं। ___ 'सब मनुष्य समान हैं' यह इस युग का प्रमुख घोष है। बड़ों के लिए छोटों के बलिदान की बात आज निष्प्राण हो चुकी है। समझा-बुझाकर बुराई को दूर किया जाए, इस हृदय-परिवर्तन के सिद्धान्त पर मनोविज्ञान की छाप लग चुकी है। आज अपराधियों के लिए भी दण्ड-व्यवस्था की अपेक्षा सुधार की व्यवस्था पर अधिक ध्यान दिया जाता है। आज के सभ्य राष्ट्र फांसी की सजा को मिटा रहे हैं और अपराध-सुधार के मनोवैज्ञानिक उपायों पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं। महात्मा गांधी ने हृदय-परिवर्तन के सिद्धान्त पर लगभग उतना ही बल दिया, जितना कि आचार्य भिक्षु ने दिया था। इन दोनों धाराओं में अद्भुत सामंजस्य है। _ 'यह तो कहीं नहीं लिखा है कि अहिंसावादी किसी आदमी को मार डाले, उसका रास्ता तो बिल्कुल सीधा है। एक को बचाने के लिए वह दूसरों की हत्या नहीं कर सकता। उसका पुरुषार्थ एवं कर्त्तव्य तो सिर्फ विनम्रता के साथ समझाने-बुझाने में है।'' १. हिन्द स्वराज्य, पृ. ७५-७६ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० : भिक्षु विचार दर्शन पं. नेहरू की यह भाषा कि अधिकार के लिए प्रयत्न न हो, वह हो कर्तव्य के लिए-अधिकार स्वयं प्राप्त होता है-सहसा इसकी याद दिला देती है कि पुण्य के लिए धर्म न हो, वह आत्मशुद्धि के लिए हो, पुण्य स्वयं प्राप्त होता है। ___ साम्यवादी लक्ष्य की पूर्ति के लिए अशुद्ध साधनों को भी प्रयोजनीय मानते हैं। इसी आधार पर असाम्यवादी राजनयिक उनकी आलोचना करते हैं। वे अशुद्ध साधनों के प्रयोग को उचित नहीं मानते। साध्य के सही होने पर भी अगर साधन गलत हों तो वे साध्य को बिगाड देंगे या उसे गलत दिशा में मोड़ देंगे। इस तरह साधन और साध्य में गहरा और अटूट सम्बन्ध है। वे दोनों एक-दूसरे से अलग किये जा सकते हैं। दान सामाजिक तत्त्व है। वर्तमान समाज-व्यवस्था में उसके लिए कोई स्थान नहीं, यह समाज-सम्मत हो चुका है। दान के स्थान पर सहयोग की चर्चा चल पड़ी है। दुनिया में शारीरिक श्रम के बिना भिक्षा मांगने का अधिकार केवल सच्चे संन्यासी को है। जो ईश्वर-भक्ति के रंग में रंगा हुआ है, ऐसे सच्चे संन्यासी को यह अधिकार है। आचार्य भिक्षु अध्यात्म की भूमिका पर बोलते थे। उनका चिन्तन मोक्ष की मान्यता के साथ-साथ चलता था। राजनीति की भूमिका उससे भिन्न है और उसका साध्य भी भिन्न है। इस भूमिका-भेद को ध्यान में रखकर हम सुनें तो हमें यही अनुभव होगा कि वर्तमान युग उसी भाषा में बोल रहा है, जिसमें आचार्य भिक्षु बोले थे। आज उन तथ्यों की घोषणा हो रही है, जिनकी आचार्य भिक्षु ने अभिव्यक्ति दी थी। २. साधना के पथ पर इस अभिव्यक्ति का इतिहास ज्वलंत साधना और कठोर तपस्या का इतिहास है। आचार्य भिक्षु अभिव्यक्ति देने नहीं, किन्तु सत्य की उपलब्धि के लिए चले थे। ईसा को फांसी और सुकरात को विष की प्याली ही नहीं मिली थी, कुछ और भी मिला था। आचार्य भिक्षु को रोटी-यातना ही नहीं मिली १. सर्वोदय का सिद्धान्त, पृ. १३ २. विनोबा के विचार, पृ. १२० Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिध्वनि : ५१ थी, सत्य भी मिला था। प्रायः पांच वर्ष तक उन्हें पेट भर भिक्षा नहीं मिली। एक व्यक्ति ने पूछा-'महाराज! घी-गुड़ मिलता होगा? आपने उत्तर दिया-‘पाली के बाजार में कभी-कभी दीख पड़ता है।'' तेरापंथ की स्थापना उनका लक्ष्य नहीं था। उनका लक्ष्य था संयम की साधना। वे उस मार्ग पर चलने के लिए मृत्यु का वरण करने से भी नहीं हिचकते थे। उनके तथ्यों को लोग पचा सकेंगे, उनकी यह धारणा नहीं थी। उनके विचारों को मान्यता देने वाला कोई समाज होगा, यह कल्पना उन्हें नहीं थी। उनके पास जाना, उनसे धर्म-चर्चा करना सामाजिक अपराध था। लोग उनका विरोध करने में लीन थे। वे अपनी तपस्या करने में संलग्न थे। सतत विरोध और तपस्या ने एक तीसरी स्थिति उत्पन्न की। जन-मानस में आचार्य भिक्षु के महान् व्यक्तित्व के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न हुई। लोग रात में या एकान्त में छिप-छिपकर आने लगे। पर आचार्य भिक्षु अभिव्यक्ति से दूर अपनी साधना में ही रत थे। दो मुनि आये जो पिता और पत्र थे। उनका नाम था थिरपाल और फतेचंद। वे हाथ जोड़कर बोले- 'गुरुदेव! उपवास हम करेंगे, सूर्य की गर्मी से तपी हुई नदी की सिकता में हम लेटेंगे, आप ऐसा मत करें। आपकी प्रतिभा निर्मल है। आपसे सत्य की अभिव्यक्ति होगी। लोगों में जिज्ञासा जागी है। आप उन्हें प्रतिबोध दे।' उनका विनय-भरा अनुरोध उन्होंने स्वीकार किया और मौन को उपदेश में परिणत कर दिया। ___ अपने ध्येय के प्रति आचार्य भिक्षु की गहरी निष्ठा थी। उसी से उनमें तितिक्षा का उदय हुआ। उन्होंने बहुत सहा, शारीरिक कष्ट सहे, तिरस्कार सहा, गालियां सही और कभी-कभी घूसे भी सहे। ठहरने के लिए स्थान की कठिनाई थी। लोग पीछे पड़ रहे थे। नाथद्वारा की घटना है-वे चातुर्मास कर रहे थे। दो मास बीते और राजा का आदेश हुआ कि वे वहां से चले जाएं। उनके शेष दो मास 'कोठारिया' गांव में बीते। __ घाणेराव के कई व्यक्ति मिले। उन्होंने पूछा- 'तुम कौन हो? मैं भीखण १. भिक्षु जस रसायण, १०, सोरठा १ पंच वर्ष पहिछाण रे, अन पिण पूरो नां मिल्यो। बहुल पणे वच जांण रे, घी चौपड़ तौ ज्यांहीई रह्यो। २. भिक्षु जस रसायण, ६, पृ. १० Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ : भिक्षु विचार दर्शन हूं-' आचार्य भिक्षु ने कहा। 'ओह! अनर्थ हो गया'-उन्होंने कहा। उन्होंने पूछा-'सो कैसे? वे बोले-'तुम्हारा मुंह देखने वाला नरक में जाता है।' 'तुम्हारा मुंह देखने वाला तो स्वर्ग में जाता होगा? आचार्य भिक्षु ने पूछा। उन्होंने स्वीकृति-सूचक सिर हिला दिया। आचार्य भिक्षु ने कहा-'तुम्हारे लिए अच्छा नहीं हुआ, मेरे लिए तो अच्छा ही हुआ है-मुझे तो स्वर्ग ही मिलेगा, क्योंकि तुम्हारा मुंह देखा है। .. उदयपुर में एक व्यक्ति आया और कहने लगा-मुझसे तत्त्व-चर्चा का कोई प्रश्न पूछो। आचार्य भिक्षु ने नहीं पूछा। बार-बार अनुरोध किया, तब पूछा-तुम समनस्क हो या अमनस्क? उसने कहा-समनस्क। आचार्य ने पूछा-कैसे? उसने कहा-नहीं, मैं अमनस्क हूं। फिर पूछा-किस न्याय से? वह बोला-नहीं, मैं दोनों ही नहीं हूं। आपने कहा-वह फिर किस न्याय से? वह बोला-नहीं, दोनों ही हूं। फिर पूछा-वह किस न्याय से? वह इस न्याय-न्याय से रुष्ट होकर छाती में धूंसा मार चलता बना। तेरापंथ की शन्तिपूर्ण नीति आचार्य भिक्षु की तितिक्षा की ही परिणति है। इन दो शताब्दियों में तेरापंथ की उत्तेजनापूर्ण और निम्नस्तर की आलोचना कुछ सम्प्रदाय के व्यक्तियों ने की, प्रचुर मात्रा में विरोधी साहित्य भी निकला। पर इन पूरे दो सौ वर्षों में एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है कि विरोध का प्रत्युत्तर उत्तेजनापूर्ण ढंग से दिया गया हो या विरोधपूर्ण दो पंक्तियां ही प्रकाशित की हों। . शान्तिपूर्ण नीति से क्रियात्मक शक्ति का बहुत ही अर्जन हुआ है, इसका श्रेय आचार्य भिक्षु की ध्येय-निष्ठा को है। ___ संसार से आचार्य भिक्षु की सच्ची विरक्ति थी। उनकी दृष्टि में वह बुद्धि असार है, जो धर्म में लीन नहीं होती। उन्होंने जो धर्म-चर्चा की, वह मोक्ष को केन्द्र-बिन्दु मानकर की। समाज की भूमिका पर खड़े व्यक्ति को उसमें कहीं-कहीं अतिवाद या वैराग्य के अन्तिम छोर को पकड़ने जैसा लगता है। यद्यपि समाज के पारस्परिक सहयोग का लोप करना उनका उद्देश्य नहीं था, फिर भी ‘आपातदर्शन' में पाठक को ऐसा अनुभव होता है कि वे सामाजिक सहयोग का निरसन कर रहे हैं। गहराई में जाने पर १. भिक्खु दृष्टान्त, १५, पृ. ६ २. वही, ४७, पृ. २१ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिध्वनि : ५३ अनुभव होता है कि वे मोक्ष-धर्म और जीवन-व्यवहार के बीच भेद-रेखा खींच रहे हैं। धर्म का आधार विरक्ति है और उसकी परिणति है त्याग। त्याग उतना ही होता है जितनी विरक्ति होती है। विरक्तिशून्य त्याग, त्याग ही नहीं होता है और यह भी नहीं होता कि विरक्ति हो और त्याग न हो। सब जीवों का मनोभाव समान नहीं होता। किसी की पदार्थों में अनुरक्ति होती है और किसी की विरक्ति। अनुरक्त के विचार विरक्त को अद्भुत-से लगते हैं और विरक्त के विचार अनुरक्त को। यह अद्भुतता सापेक्ष है। अपनी-अपनी स्थिति में कोई अद्भुत नहीं है। ३. चिन्तन की धारा पांव के रोगी को खुजलाना अच्छा लगता है, पर जिसे पांव नहीं हैं उसे वह अच्छा नहीं लगता। जिसमें मोह है, उसे भोग प्रिय लगता है। जो मोह के जाल से दूर है, उसे लगता है, भोग मोक्ष की बाधा है।' अनुभूति भिन्न होती है और उसका भी हेतु भिन्न होता है। हमारी अनुभूति आत्म-मुक्ति की ओर झुकी हुई होगी तो हम आचार्य भिक्षु के चिन्तन को यथार्थ पाएंगे और हमारी अनुभूति पदार्थोन्मुख होगी तो वह हमें अटपटा-सा लगेगा। आचार्य भिक्षु की वाणी है- “जो सांसारिक उपकार हैं, वे मोहवश किए जाते हैं। सांसारिक जीव उनकी प्रशंसा करते हैं, साधु उनकी सराहना नहीं करते। इन सांसारिक उपकारों में जिन-धर्म का अंश भी नहीं है। जो इनमें धर्म बतलाते हैं, वे मूढ़ हैं।" यह धार्मिक तथ्य है। इसकी अभिव्यक्ति १. नव पदारथ : १२, ३-५ . संसार नां सुख तो छ पुद्गल तणां रे, ते तो सुख निश्चे रोगीला जाण रे। ते करमा वस गमता लागे जीव ने रे, त्यां सुखां री बुधिवंत करो पिछाण रे॥ पांव रोगीलो हुवे तेहने रे, अनंत मीठी लागे छे खाज रे। एहवा सुख रोगीला छे पुन तणां रे, तिण सूं कदेय न सीझे आतम काज रे।। एहवा सुखां सूं जीव राजी हुवे रे, तिणरे लागे छे पाप करम रा पूर रे। पछे दुःख भोगवे छे नरक निगोद में रे, मुगति सुखां सूं पडिये दूर रे॥ २. अणुकम्पा : ११, ३८-३६ जितरा उपगार संसार तणां छे, जे जे करे ते मोह बस जाणों। साध तो त्याने कदे न सरावे, संसारी जीव तिणरा करसी बखाणों। संसार तणां उपगार कीया में, जिण धर्म रो अंस नहीं छे लिगार। संसार तणां उपगार कीयां में. धर्म कहे ते तो मढ गिंवार॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ : भिक्षु विचार दर्शन करते हुए उनकी अन्तरात्मा में कभी कंपन नहीं हुआ। सांसारिक उपकार में जो व्यावहारिक लाभ हैं उनकी उन्हें स्पष्ट अनुभूति थी। उसका उन्होंने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। जो व्यक्ति किसी जीव को मृत्यु से बचाता है, उसके साथ उसका स्नेह-बन्ध हो जाता है। इस जीवन में ही नहीं, किन्तु आगामी जन्म में भी उसे देखते ही स्नेह उत्पन्न होता है। जो व्यक्ति किसी जीव को मारता है उसके साथ उसका द्वेष-बन्ध हो जाता है। पर-जन्म में भी उसे देखकर द्वेष-भाव उभर आता है। मित्र के साथ मित्रता और शत्रु के साथ शत्रुता चलती जाती है। ये दोनों राग-द्वेष के भाव हैं, ये धर्म नहीं कोई अनुकंम्पावश किसी का सहयोग करता है और कोई किसी के कार्य में विघ्न डालता है। ये राग और द्वेष के मनोभाव हैं। इनकी परम्परा बहुत लम्बी होती है। आत्म-मुक्ति का सहयोग ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के द्वारा ही किया जा सकता है। एक दिन मुनि खेतसीजी को अतिसार हो गया। आचार्य भिक्षु उनकी परिचर्या में बैठे थे। खेतसीजी कुछ स्वस्थ हुए। उन्होंने स्वामीजी से कहा-सती रूपांजी का ध्यान विशेष रखियेगा। आपने कहा-बहन की चिन्ता मत करो। तुम अपना मन समाधि में रखो। उन्होंने अन्तिम समय १. अणुकम्पा, ११ ४३ : जीव में जीवां बचावें तिण सुं, बन्ध जावे तिणरो राग सनेह । जो पर भव में ऊ आय मिले तो, देखत पांण जागे तिण सूं नेह।। २. वही, ११, ४४ : जीव में जीव मारे छे तिण सूं, बन्ध जाओ तिण तूं धेष वशेख। ते पर में ऊ आय मिले तो, देखत पांण जागे तिण तूं धेष। ३. वहीः ११, ४५ : मित्री तूं मित्रीपणों चलीयो जावे, वेरी सूं वेरीपणों चलीयो जावे। ओ तो राग धेष कर्मा रा चाला, ते श्री जिण धर्म मांहें नहीं आवे॥ ४. वही : ११, ४६-५० कोइ अणुकम्पा आणी घर मंडावे, कोइ मंडता घर ने देवे भंगाय। ओ प्रतख राग ने धेप उघाडी, ते आगे लगा दोनूं चलीया जाय। कहि-कहि में किंतरो एक कहूं, संसार तणा उपगार अनेक। ग्यांन दरसण चारित ने तप बिना, मोक्ष तणों उपगार नहीं छे एक॥ ५. भिक्ख दष्टांत : २५३. प. १०१ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिध्वनि : ५५ में मुनि रायचन्द जी को यही सीख दी-"तुम बालक हो। मोह मत लाना।" चौबीस वर्ष की युवावस्था में भिक्षु अपनी पत्नी-सहित ब्रह्मचारी बन गए और दोनों ही एकान्तर तप (एक दिन उपवास और एक दिन आहार) करने लगे। बीच में पत्नी का देहान्त हो गया। आप अकेले ही मुनि बने, अपने साध्य की सिद्धि के लिए सतत जागरूक रहे। ४. नैसर्गिक प्रतिभा आचार्य भिक्षु सहज प्रतिभा के धनी थे। उन्हें, पढ़ने को बहुत कम मिला। मनचाही प्रतियां सुलभ नहीं थीं। वह प्रकाशन का युग नहीं था। उन्हें सब जैन आगम भी उपलब्ध नहीं थे। उन्हें 'भगवतीसूत्र' की. प्रति बड़े प्रयत्न के बाद मिली। उन्होंने आगमों को अनेक बार पढ़ा, आगम उनके हृदयंगम-से हो गये। उन्होंने गंभीर तत्त्वों को बड़े सरल ढंग से समझाया। प्रश्नों का समाधान भी वे बड़े अनोखे ढंग से देते। एक व्यक्ति उनसे चर्चा कर रहा था। उसकी बुद्धि स्वल्प थी। लोगों ने बहुत आग्रह किया कि आप इसे समझाइए। आपने कहा-मूंग, मोठ और चने की दाल होती है, पर मेहूं की दाल कैसे हो? जिसमें समझने की क्षमता ही नहीं, उसे कोई कैसे समझाये?' किसी ने कहा-समझदार व्यक्ति बहुत हैं, पर तत्त्व को समझने वाले थोड़े क्यों? आपने कहा-मूर्ति बनाने योग्य पत्थर बहुत हैं; पर कारीगर कम एक व्यक्ति ने पूछा-जीव को नरक में कौन ले जाता है? आपने उत्तर दिया-पत्थर को नीचे कौन ले जाता है? वह अपने ही भार से नीचे चला जाता है। प्रश्न आगे बढ़ा-जीव को स्वर्ग में कौन ले जाता है? उत्तर मिला-काठ के टुकड़े को जल में कौन तिराता है? वह अपनी लघुता से स्वयं तैरता है। पैसे को पानी में डालो, वह डूब जाएगा। उसी को तपा-पीटकर कटोरी बना लो, वह पानी पर तैरने लगेगी। चिन्तन उनके लिए भार नहीं था, किन्तु उनके चिन्तन में गुरुत्व था। उनकी चर्या में भी चिन्तन था। एक व्यक्ति ने कहा-आप वृद्ध हैं, प्रतिक्रमण १. भिक्खु दृष्टान्त : १५७, पृ. ६५ २. वही, १५८, पृ. ६५ १३. वही, १४१-१४२-१४३, पृ. ५६ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ : भिक्षु विचार दर्शन (आलोचना) बैठे-बैठे किया करें। आपने कहा-मैं खड़ा-खड़ा करता हूं तो पिछले साधु बैठे-बैठे तो करेंगे, यदि मैं बैठा-बैठा करूं तो सम्भव है, पिछले साधु लेटे-लेटे करने लगें।' उनकी अनुभूति बड़ी तीव्र थी। वे परिस्थिति का अंकन बड़ी गहराई से करते थे। एक दिन स्वामीजी के साथ कोई व्यक्ति तत्त्व-चर्चा कर रहा था। बीच-बीच में वह अण्ट-सण्ट भी बोलता था। किसी ने कहा-'आप उस व्यक्ति से क्यों चर्चा करते हैं जो अन्ट-सन्ट बोलता है?. आपने कहा-'बेटा नन्हा होता है तब वह पिता की मूंछ भी खींच लेता है, पगड़ी भी बिखेर देता है, किन्तु बड़ा होने पर वही पिता की सेवा-भक्ति करता है। जब तक यह मुझे नहीं पहचान लेता है तब तक बकवास करता है। मुझे समझ लेने पर यही मेरी भाव-भरी भक्ति करेगा। वे अपनी कार्य-प्रणाली में स्वतंत्र चिन्तन उड़ेलते रहते थे। अनुकरणप्रियता उन्हें लुभा न सकी। अनुकरण-प्रेमियों की स्थिति का चित्र उनकी 'दृष्टान्त-शैली' में इस प्रकार है-“एक साहूकार में व्यापारिक समझ नहीं थी। वह पड़ोसी की देखा-देखी करता। पड़ोसी जो वस्तु खरीदता, उसे वह भी खरीद लेता। पड़ोसी ने सोचा-यह मेरी देखा-देखी करता है या इसमें अपनी समझ भी है। उसने उसे परखना चाहा और अपने बेटे से कहा-पंचांगों का भाव तेज है, उन्हें खरीद लो । थोड़े दिनों में दूने दाम हो जाएंगे। पड़ोसी ने सुना और विदेशों से पंचांग मंगवा लिये। दिवाला निकालना पड़ा।" वे मूल को बहुत महत्त्व देते थे। आचारहीनता उनके लिए असह्य थी। उससे भी अधिक असह्य थी श्रद्धाहीनता। कुछ व्यक्तियों ने कहा-भीखणजी हमें साधु या श्रावक नहीं मानते। आपने इस प्रसंग को समझाते हुए कहा-कोयलों की राब काले बर्तन में पकाई गई, अमावस की रात, जीमनेवाले अन्धे और परोसने वाले भी अन्धे। वे खाते जाते हैं और कहते हैं-खबरदार ! कोई काला 'कोंखा' आए तो टाल देना। भला क्या टाले, सारा काला ही काला है। १. भिक्खु दृष्टान्त, २१२, पृ. ८६ २. वही, २८७, पृ. ११२ ३. वही, २८८, पृ. ११३ ४. वही, १४३, पृ. ५६ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. हेतुवाद के पथ पर आचार्य भिक्षु तार्किक-शक्ति से सम्पन्न थे। उन्होंने साध्य-साधन का विवेक केवल आगमों के आधार पर ही नहीं किया, स्थान-स्थान पर उसे तर्क से भी पुष्ट किया है। धर्म को कसौटी परे कसते हुए उन्होंने बताया-धर्म मुक्ति का साधन है। मुक्ति का साधन मुक्ति ही हो सकती है, बन्धन कभी उसका साधन नहीं होता। बन्धन भी यदि मुक्ति का साधन हो जाए तो बन्धन और मुक्ति में कोई भेद ही न रहे। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के सिवाय कोई मुक्ति का उपाय नहीं है। इसलिए ये चार ही धर्म हैं। शेष सब बन्धन के हेतु हैं। जो बन्धन के हेतु हैं, वे मोक्ष-धर्म नहीं हैं। धर्म-मुक्ति का साधन है और स्वयं मुक्ति है। इसलिए कहा जा सकता है कि मुक्ति, मुक्ति के द्वारा ही प्राप्य है, बन्धन के द्वारा बन्धन होता है। उसके द्वारा मुक्ति प्राप्य नहीं है। बन्धन अनादि परिचित है और मुक्ति अपरिचित है। इसलिए संसारी जीव बन्धन की प्रशंसा करते हैं, किन्तु मुमुक्षु प्राणी उसकी सराहना नहीं करते। ... संसार क्या है? शरीर आत्मा का सम्बन्ध ही संसार है। सूक्ष्म शरीर (कार्मण शरीर) के द्वारा स्थल शरीर की पुनरावृत्ति होती रहती है। इन्द्रिय और मन के विषयों का ग्रहण होता है। प्रिय में राग और अप्रिय में द्वेष होता है। राग-द्वेष से कर्म-बन्ध, बन्ध से जन्म-मरण की आवृत्ति होती है। इस प्रकार ही संसार की आवृत्ति होती रहती है। ___मोक्ष क्या है? सूक्ष्म शरीर से मुक्ति। उसके बिना स्थूल शरीर नहीं होता। उसके अभाव में इन्द्रिय और मन नहीं होते। इनके बिना विषय ग्रहण नहीं होता। अभाव में राग-द्वेष नहीं होते। राग-द्वेष बिना कर्म-बन्धन नहीं होता। बन्धन के बिना संसार नहीं होता, जन्म-मरण की आवृत्ति नहीं होती। मोक्ष से संसार नहीं होता और संसार से मोक्ष नहीं होता, इसलिए १. अणुकम्पा : ४.१७ २. वही, ४.१८ : जितरा उपगार संसार नां, ते तो सगलाइ सावध हो। श्री जिन धर्म में आवे नहीं, कूड़ी म करो ताण हो। ३. जम्बूकुमार चरित : २.१५ ४. अणुकम्पा : ११.३८ : Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ : भिक्षु विचार दर्शन मोक्षार्थी व्यक्ति को न जन्म की इच्छा करनी चाहिए और न मृत्यु की। उसके लिए अभिलषणीय है-संयम। संयम से जीवन-मृत्यु की आवृत्ति का निरोध होता है। इसलिए वह मोक्ष का उपाय है। वह मोक्ष का उपाय है, इसलिए मोक्ष है। जो असंयमी जीवन की इच्छा करता है, उसे धर्म का परमार्थ नहीं मिला है। असंयममय जीवन और बाल-मरण-ये दोनों अभिलषणीय नहीं हैं। संयममय जीवन और पंडित-मरण-ये दोनों अभिलषणीय हैं। जिन्हें सब प्रकार से हिंसा करने का त्याग नहीं है, वे असंयमी हैं। सयमी वे हैं जिनका जीवन हिंसा से पूर्णतः विरत हो। लोक-दृष्टि में वह जीवन श्रेष्ठ है जो समाज के लिए उपयोगी हो। मोक्ष-दृष्टि में वह जीवन श्रेष्ठ है जो संयमी हो। असंयमी जीवन की इच्छा समाज की उपयोगिता हो सकती है, धर्म नहीं। आचार्य भिक्षु ने कहा- “अपने असंयमी जीवन की इच्छा करना भी पाप है, तब दूसरे के असंयमी जीवन की इच्छा करना धर्म कैसे होगा? मरने-जीने की इच्छा अज्ञानी करता है। ज्ञानी वह है जो समभाव रखे। आचार्य भिक्षु ने साध्य-साधन का विविध पहलुओं से स्पर्श करके एक सिद्धान्त स्थापित किया कि जो कार्य करना साध्य के अनुकूल नहीं है, उसे करवाना और करने वाले का अनुमोदन करना साध्य के अनुकूल नहीं हो सकता। कृत, कारित और अनुमति-तीनों अभिन्न हैं। १. अणुकम्पा : ८.१७ : इविरती जीवां रो जीवणो वांछे, तिण धर्म रो परमारथ नहीं पायो। आ सरधा अग्यांना री पग पग अटके, ते सांभलजो भवियण चित ल्यायो। २. वही, ६.३६ : असंजम जीतब ने बाल मरण, यां दोयां री बंछा न करणी जी। पिंडत मरण ने संजम जीतब, यारी आसा बंछा मन धरणी जी॥ ३. वही, ६.४० : छ काय रा सस्त्र जीव इविरती, त्यांरो असंजम जीतब जाणो जी। सर्व सावद्य त्याग किया त्यांरो, संयम जीतब एह पिछाणो जी॥ ४. वही, २.१४ : आपणोंई वांछे तो पाप, पर नो कुण घाले संताप। घणो जीवणो वांछे अग्यांनी, समभाव राखे ते ग्यांनी।। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिध्वनि : ५६ १. (क) जो कार्य करना धर्म है, उसे करवाना और उसका अनुमोदन भी धर्म है। (ख) जो कार्य करवाना धर्म है, उसे करना और उसका अनुमोदन भी धर्म है। (ग) जिसका अनुमोदन धर्म है उसे करना और कराना भी धर्म है। २. (क) जो कार्य करना धर्म नहीं, उसे करवाना और उसका अनुमोदन भी धर्म नहीं। (ख) जो कार्य करवाना धर्म नहीं, उसे करना और उसका अनुमोदन भी धर्म नहीं। (ग) जिसका अनुमोदन धर्म नहीं, उसे करना और कराना भी धर्म नहीं। हिंसा करना पाप है, करवाना पाप है और उसका अनुमोदन भी पाप है।' अहिंसा का पालन करना धर्म है, करवाना धर्म है और उसके पालन का अनुमोदन करना भी धर्म है। कुछ लोग कहते हैं, मरते जीवों को बचाना धर्म है। आचार्य भिक्षु ने कहा-धर्म का सम्बन्ध जीवन या मृत्यु से नहीं है। उसका सम्बन्ध संयम से है। एक व्यक्ति स्वयं मरने से बचा, दूसरे ने उसके जीवित रहने में सहयोग दिया और तीसरा उसके जीवित रहने से हर्षित हुआ, इन तीनों में धर्मी कौन-सा होगा? जो जीवित रहा उसका भी अव्रत नहीं घटा और सहयोग करने वाले का भी व्रत नहीं बढ़ा, फिर ये धर्मी कैसे होंगे? जीना, जिलाना और जीने का अनुमोदन करना-ये तीनों समान हैं। १. अणुकम्पा, ४, दू. २ : मार्या मरायां भलो जाणीयां, तीनूंई करणां पाप। देखण वाला में जे कहे, ते खोटा कुगुर सराप॥ २. वही, ५. २२-२५ : एक पोते बच्यो मरवा थकी दूजे कीधो हो तिणरे जीवण रो उपाय। तीजो पिण हरष्यो उण जीवीयां, यां तीनां में हो कुण सुध गति जाय॥ कुसले रह्यो तिणरे इविरत घटी नहीं, तो दूजा में हो तुमे जाणजो एम। भेले जाणे तिणरे विरत न नीपनी, ए तीनूंई ते सुध गति जासी केम। जीवीयां जीवायां भलो जीणीयां तीनूंई हो करण सरपा जाण। कोई चतुर होसी ते परखसी, अण समझ्या हो करसी ताणा ताण॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : भिक्षु विचार दर्शन जिनका खाना धर्म नहीं है, उसे खिलाना भी धर्म नहीं है और उसके खाने का अनुमोदन करना भी धर्म नहीं है। जिसका खाना धर्म है, उसे खिलाना भी धर्म है और उसका अनुमोदन करना भी धर्म है। आचार्य भिक्षु ने कर्त्तव्य के धर्माधर्म-पक्ष का निर्णय करने में उक्त तर्क-शैली का सर्वत्र उपयोग किया है। उन्होंने संयमी या मुनि को मानदंड मानकर सबको मापा। संयमी जिस कार्य का अनुमोदन कर सकता है, वह धर्म है, क्योंकि वह जिस कार्य का अनुमोदन कर सकता है, उसे कर भी सकता है और करा भी सकता है। वह जिस कार्य का अनुमोदन नहीं कर सकता, वह धर्म नहीं हैं, क्योंकि जिस कार्य का वह अनुमोदन नहीं कर सकता, उसे कर भी नहीं सकता और करा भी नहीं सकता। संयमी असंयम और उसके साधनों का अनुमोदन नहीं कर सकता इसलिए असंयम धर्म नहीं है। वह संयम और उसके साधनों का ही अनुमोदन कर सकता है, इसलिए संयम ही धर्म है। कुछ साधु बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों को मारने में धर्म कहते थे। आचार्य भिक्षु ने आश्चर्य के स्वर में कहा-जो साधु कृत, कारित और अनुमति, मनसा, वाचा, कर्मणा अहिंसक हैं, जीव मात्र की दया का पालन करते हैं, वे सभी जीवों के रक्षक होकर जीवों को मारने में किस न्याय से धर्म कहते है? जीवों को मारकर जीवों को पोषा जाता है, यह संसार का मार्ग है, इसमें जो साधु धर्म बतलाते हैं, वे पूरे मूढ़ हैं, अज्ञानी हैं। जो साधु जीव-हिंसा में धर्म बतलाते हैं, उनके तीन महाव्रतों का भंग होता है। जीव-हिंसा में धर्म बतलाना, हिंसा का अनुमोदन है, इसलिए उनका अहिंसा महाव्रत भग्न होता है। भगवान् ने हिंसा में धर्म नहीं कहा है। जीवों का पोषण करना अहिंसा-धर्म नहीं, यह सत्य है। इसके विपरीत एक जीव के पोषण के लिए दूसरे जीव को मारना दया धर्म है, यह कहना असत्य है इस दृष्टि से उनका दूसरा सत्य महाव्रत भग्न होता है। जिन जीवों को छ काया रो वांछे मरणो जीवणो, ते तो रहसी हो संसार मझार । ग्यांन दरसण चारित तप भला, आदरीयां हो आदरायां खेवो पार॥ १. अणुकम्पा, ६.४१ : त्रिविधे त्राइ छ काय रा साध, त्यांरी दया निरंतर राखे जी। ते छ काय रा पीहर छ काय में मार्यो, धर्म किसे भाखे जी॥ २. वही, ६.२५ : Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिध्वनि : ६१ मारने में धर्म की प्ररूपणा करते हैं, वे उन जीवों की चोरी करते हैं। क्योंकि वे जीव अपने प्राणहरण की स्वीकृति नहीं देते और बिना अनुमति के उनके प्राण लेना चोरी है। जीवों को मारने में भगवान् की आज्ञा नहीं है। जीवों को मारने में धर्म बतलाने वाले भगवान् की आज्ञा की चोरी करते हैं इसलिए उनका तीसरा अचौर्य महाव्रत टूटता है। इस प्रकार जीव-हिंसा में धर्म का प्ररूपण करने वालों के तीनों महाव्रत टूटते हैं। जीव-हिंसा में धर्म बताने वाले अपने को दया-धर्मी कहते हैं, पर वास्तव में वे हिंसा-धर्मी हैं। साध्य की मीमांसा में उन्होंने बतलाया-जीवों को बचाना, यह धर्म का साध्य नहीं है। एक व्यक्ति मरते जीवों को बचाता है और एक व्यक्ति जीवों को उत्पन्न कर उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करता है। यदि धर्म होगा तो इन दोनों को होगा और नहीं होगा तो दोनों को नहीं। बचाने वाले की अपेक्षा उत्पन्न करने वाला बड़ा उपकारी है; किन्तु ये दोनों संसार के उपकारी हैं। इन उपकारों में केवली-भाषित धर्म नहीं है। आचार्य भिक्षु ने कहा सावध-दया धर्म नहीं है। तर्क की कसौटी पर कसते हुए उन्होंने कहा-धर्म का मूल दया या अहिंसा है। दान देने के लिए जीव-वध किया जाता है, उस सावद्य-दान से दया उठ जाती है और जीवों को बचाने के लिए दया की जाती है, उस सावद्य-दया से दान उठ जाता है। जो लोग सावद्य-दान १. अणुकम्पा, ६२६३२ : केइ साध रो विड़द धरावे लोकां में, वले वाजे भगवंत रा भगता जी। पिण हिंसा मांहें धर्म परूपे, त्यांरा तीन वरत भांगे लगता जी॥ छ काय माऱ्या मांहें धर्म परूपे, त्याने हिंसा छ काय री लागे जी। तीन काल री हिंसा अणुमोदी, तिण सूं पेहलो महावरत भांगे जी॥ हिंसा में धर्म तो जिण कह्यो नाहीं, हिंसा में धर्म कह्यां झूठ लागे जी। इसड़ी झूठ निरन्तर बोले, त्यांरो तीजोई महावरत भांगे जी॥ ज्यां जीवां ने माऱ्या धर्म परूपे, त्यां जीवां री अदत्त लागे जी। बले आग्या लोपी श्री अरिहंत नी, तिण सूं तीजोई महावरत भांगे जी। २. वही, ६.३४ : - त्यांने पूछ्यां कहे म्हें दयाधर्मी छां, पिण निश्चे छ काय रा घाती जी। त्यां हिंसाधा ने साध सरधे केइ, ते पणि निश्चे मिथ्याती जी। ३. वही, ११.४०-४१-४२ : Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : भिक्षु विचार दर्शन देने में और जीव बचाने में धर्म मानते हैं, उनके दान के सामने दया का सिद्धान्त नहीं टिकता। दान के लिए जीववध करता है, उसके लिए दिल में दया नहीं रहती और दान देने के लिए वध किए जाने वाले. जीवों को बचाता है तो दान नहीं होता। सावद्य-दान और सावद्य-दया, ये दोनों मुक्ति के मार्ग नहीं हैं। सावद्य-दान में जीवों का वध होता है, इसलिए वह मुक्ति का मार्ग नहीं है। जीवों की रक्षा के लिए सावद्य-दान में रुकावट डाली जाए तो जिन्हें दान दिया जाता, उनके जीवन-निर्वाह में अन्तराय होता है। इसलिए यह सावध-दया भी मुक्ति का मार्ग नहीं है। सावद्य-दान से दया की उत्थापना होती है और सावद्य-दया से अभय दान का लोप होता है, इसलिए ये दोनों सांसारिक हैं। जहां किसी की हिंसा नहीं होती, वहां दया और संयमी-दान ये ही मोक्ष के मार्ग हैं। भगवान् ने इन्हीं को धर्म-सम्मत कहा है। किण ही जीव में खप कर में बचायो, किण ही जीव उपजाय ने कीधो मोटो। जो धर्म होसी तो दोयां में धर्म होसी, जो तोटो होसी तो दोयां ने तोटो। बचावण वाला बिचें तो उपजावण वालो, सांप्रत दीसे उपगारी मोटो। यारों निरणो कियां विण धर्म कहे छे, त्यांरो तो मत निकेवल खोटो। बचावण वालो ने उपजावण वालो, ओ तो दोनूं संसार तणां उपगारी। एहवा उपगार करे आमां साहमां, तिण में केवली रो धर्म नहीं छे लिगारी॥ १. व्रताव्रत, १२.४४-४७ : भेषधारी थापे सावद्य दान में, तिण दान सूं दया उठ जाय हो। वले दया कहे छ काय बचावीया, तिण सूं दान उथप गयो ताय हो। छ काय जीवां में जीवां मारनें, कई दान दे संसार रे मांय हो। तिणरे छ काय जीवां तणी, घट० में बया रहे. नहीं काय हो। कोई दान देवे तिण में वरज नें, जीवां बचावे छ काय हो। ते जीव बचायां दान उथपे, त्यां सूं न्यारा रह्यां सुख थाय हो। छ काय जीवां में मारे दान दे, तिण दान तूं मुगत न माय हो। वले फिर बचावे छ काय नें, तिण सूं कर्म कटे नहीं ताय हो। २. वही, १२.४८ : सावद्य दान दीयां दया उथपे, सावद्य दया सूं उथपे अभयदान हो। ते सावद्य दया दान संसारना, त्यांने औलखे ते बुधवान हो। ३. वही, १२.४६ : त्रिविधे-त्रिविधे छ काय हणवी नहीं, आ थे दया कही जिण राय हो। दान देणो सुपातर ने कह्यो, तिण सूं मुगत सुखे सुखे जाय हो।। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिध्वनि : ६३ ६. श्रद्धावाद के पथ पर आचार्य भिक्षु के पास श्रद्धा का भी अमित बल था। वे जितने तार्किक थे, उतने ही श्रद्धालु । श्रद्धा और तर्क के संगम में ही व्यक्ति का दृष्टिकोण पूर्ण बनता है। कुसुम्भा स्वयं गलकर दूसरों को रंगता है। भक्त-हृदय का गीलापन दूसरों को स्निग्ध कर देता है। आचार्य भिक्षु की अटल आस्था इस कोटि की है कि वे भगवान् महावीर और उनकी वाणी पर स्वयं को न्यौछावर कर चलते हैं। उनके समर्पण की भाषा यह है- “प्रभो! आपने सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप को मुक्ति का मार्ग कहा है। मैं इनके सिवा और किसी तत्त्व को धर्म नहीं मानता। मैं अर्हन्त को देव, निर्ग्रन्थ को गुरु और आपके द्वारा प्ररूपित-मार्ग को ही धर्म मानता हूं। मेरे लिए और सब भ्रमजाल हैं। मेरे लिए आपकी आज्ञा ही सर्वोपरि प्रमाण है।" "जिसने आपकी आज्ञा को पहचान लिया, उसने आपके मौन को पहचान लिया। जिसने आपके मौन को पहचान लिया, उसने आपको पहचान लिया। जिसने आपको पहचान लिया, वह दुर्गति से बच गया। जिसने आपकी आज्ञा को नहीं पहचाना, उसने आपके मौन को नहीं पहचाना। जिसने आपके मौन को नहीं पहचाना, उसने आपको नहीं पहचाना । जिसने आपको नहीं पहचाना, वह दुर्गति से नहीं बचता। कुछ लोग आपकी आज्ञा के बाहर भी धर्म कहते हैं और आपकी आज्ञा में भी पाप कहते हैं। वे दोनों ओर से डूब रहे हैं। आपका धर्म आपकी आज्ञा में है। आपकी आज्ञा के बाहर आपका धर्म नहीं है। जो जिन-धर्म को जिन-आज्ञा के बाहर बतलाते हैं, वे मूढ़ हैं। आप अवसर देखकर बोले और अवसर देखकर मौन रहे। जिस कार्य में आपकी आज्ञा नहीं है; उस कार्य में धर्म नहीं है।" १. वीर सुनो मोरी वीनती : १.६-७. अध्येन अठाबीसमां उत्तराध्येन में, मोक्ष मार्ग कह्या च्यार। ग्यान दर्शन चरित्र में तप बिना नहिं श्रद्धं धर्म लिगार॥ देव अरहंत निग्रंथ गुरु मांहरे, केवली ए भाषित धर्म। ए तीनई तत्व सेंठाकर झालीया, और छोड़ दिया सहु भन॥ २. व्रताव्रतः १२-३६-४३ : जिण ओलख लीधी आपरी आगन्यां, जिण ओलख लीधी आपरी मून हो। तिण आप ने पिण ओलखे लीया, तिणरी टलगी माठी माठी जून हो। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : भिक्षु विचार दर्शन सरदास और मीरां के सर्वस्व कृष्ण तथा तुलसी के सर्वस्व राम थे. वैसे ही भिक्षु के सर्वस्व महावीर थे। वे स्वयं को महावीर के संदेश का वाहक मानते थे। एक बार एक व्यक्ति ने पूछा-महाराज! आप इतने जनप्रिय क्यों हैं? आपने कहा-एक पतिव्रता स्त्री थी। उसका पति विदेश में था। बहुत दिनों से पति का कोई समाचार नहीं मिला। एक दिन अकस्मात् एक समाचारवाहक आया और उसे उसके पति का सन्देश दिया। उसे अपार हर्ष हुआ। उसके लिए वह आकर्षण का केन्द्र बन गया। हम भगवान् के सन्देशवाहक हैं। लोग भगवान के भक्त हैं, भगवान् का सन्देश सुनने के लिए आतुर हैं। हम गांव-गांव में जाते हैं और लोगों को भगवान् का सन्देश सुनाते हैं। हमारे प्रति जनता के आकर्षण का यही हेतु है।' __ आचार्य भिक्षु की श्रद्धा आलोचक-बुद्धि से जुड़ी हुई थी। उन्होंने अनेक गुरुओं को देखा-परखा। आखिर स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य रुघनाथजी को अपना गुरु चुना। उनके पास जैनी-दीक्षा स्वीकार की। आठ वर्ष तक उनके संघ में रहे। चालू परम्परा और आचार में कुछ मतभेद हुआ। साध्य और साधन की विचारधारा भी नहीं मिल सकी। फलतः वे अपने आचार्य से पृथक् हो गए। गुरु का उनके प्रति स्नेह था और उनका गुरु के प्रति। फिर भी आलोचक-बुद्धि आचार-भेद को सहन न कर सकी। वे अपने आचार्य के प्रति कृतज्ञ रहते हुए भी उनके विचारों की आलोचना किये बिना नहीं रहे। भगवान् महावीर से बढ़कर उनके लिए कोई आराध्य नहीं था। एक ओर उन्होंने कहा-मुझे भगवान् महावीर का ही आधार है, और किसी का जिण आग्या ने ओलखी आपरी, आपरी नहीं ओलखी मून हो। तिण आप ने ओलख्या नहीं, तिणरे वधसी माठी माठी जून हो। कोई जिण आगन्यां वारे धर्म कहे, जिण आग्या माहे कहे छे पाप हो। ते दोनूं विध बूड़े छे बापड़ा, कूड़ो कर अग्यांनी विलाप हो। आपरो धर्म आपरी आग्या. मझे, आपरो धर्म नहीं आपरी आग्या बार हो। जिण धर्म. जिण आग्या बारे कहे, ते पूरा छे मूढ़ गिंवार हो॥ आप अवसर देखीने बोलीया, आप अवसर देखे साझी मून हो। जिहां आप तणी आगन्यां नहीं, ते करणी छे जाबक जबूंन हो। १. भिक्खु दृष्टान्त, ८७, पृ. ३४ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिध्वनि : ६५ नहीं। दूसरी ओर वे भगवान् महावीर की भी एक जगह आलोचना करते हैं। भगवान् ने गोशालक को बचाने के लिए शीतल तेजोलेश्या नामक योगशक्ति का प्रयोग किया और वैशम्पायन ऋषि गोशालक को उष्ण तेजोलेश्या से मार रहा था, उससे उसे उबार लिया। आचार्य भिक्षु की साध्य-साधन की मीमांसा से यह कार्य आत्ममुक्ति का प्रमाणित नहीं होता। इसलिए उन्होंने कहा-इस प्रसंग में भगवान् की वीतराग-साधना में चूक हुई क्योंकि शक्ति का प्रयोग शुद्ध साधन नहीं है। इस आलोचना के लिए उन्हें बहुत कुछ सहना पड़ा है। उनके उत्तराधिकारी आचार्य भारमलजी ने उनसे प्रार्थना की-गुरुदेव! यह पद बहुत ही कटु है। आपने कहा-कटु तो है, पर सच से परे तो नहीं? भारमलजी ने कहा-नहीं, तब आपने कहा-रहने दो। यह निर्भीक आलोचना क्या की, मानो अपने लिए उन्होंने विरोध का मोर्चा खड़ा कर लिया। पर इससे उनकी सचाई का स्रोत फूट पड़ता है। श्रद्धा और आलोचना में कोई खाई नहीं है, यह उन्होंने प्रमाणित कर दिया। 'शत्रोरपि गुणा वाच्याः, दोषा वाच्याः गुरोरपि'-यह विशाल चिन्तन उनकी इस कृति से साकार बन गया। ७. धर्म का व्यापक स्वरूप जैन-धर्म पर आचार्य भिक्षु की अगाध श्रद्धा थी, पर वे जैन-धर्म को संकुचित अर्थ में नहीं मानते। उनकी वाणी है-भगवान् का मार्ग राजमार्ग है। वह कोई पगडंडी नहीं जो बीच में ही रुक जाये। वह तो सीधा मोक्ष का मार्ग वे धर्म को एक मानते थे। मिथ्या दृष्टि की निरवद्य प्रवृत्ति धर्म है, इसका दृढ़तापूर्वक समर्थन कर उन्होंने जैन-परम्परा के उदार दृष्टिकोण को बहुत ही प्रभावशाली बना दिया। अमुक सम्प्रदाय का अनुयायी बनने से ही धर्म होता है अन्यत्र नहीं, इस भ्रमपूर्ण मान्यता का उनकी स्पष्ट वाणी १. अणुकम्पा, ६.१२ : छ लेस्या हूंती जद वीर में जी, हूतां आई कर्म। . छदमस्थ चूका तिण समें जी, मूर्ख थापे धर्म॥ २. आचार्य सन्त भीखणजी, पृ. ८५ . Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : भिक्षु विचार दर्शन से स्वतः खण्डन हो गया। धर्म और सम्प्रदाय एक नहीं हैं, इस सचाई की उन्हें गहरी अनुभूति थी। उन्होंने कहा-निरवद्य प्रवृत्ति धर्म है, भले फिर वह जैन की हो या जैनेतर की। सावध प्रवृत्ति अधर्म है, भले फिर वह जैन की हो या जैनेतर की। ____ जो व्यक्ति जैन-दर्शन की व्याख्या को अक्षरशः न माने, उसमें वैराग्य और सदाचार की भावना नहीं जागती, यह मानना दुराग्रह की चरम सीमा है। जैन-दर्शन सचमुच ही धर्म की अखण्डता को स्वीकार करता है। सम्प्रदाय धर्म को विभक्त नहीं कर सकते। दृष्टिकोण सम्यक् हो जाता है-ज्ञान, चारित्र और तप की सम्यक् आराधना होती है तो व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर लेता है, भले फिर वह किसी भी वेश या सम्प्रदाय में हो। इसके प्रमाण गृहलिंग सिद्ध और अभ्यलिंग सिद्ध हैं। सम्यक् दर्शन, चारित्र आदि की पूर्णता प्राप्त होने पर गृहस्थ के वेश में भी और जैनेतर सम्प्रदाय में भी मुक्ति प्राप्त हो सकती है। जैन-आगमों में 'असोच्चा' केवली का वर्णन है। जिस व्यक्ति को धर्मोपदेश सुनने का अवसर नहीं मिला, किन्तु सहज भाव से ही सरलता, क्षमा, सन्तोष आदि की आराधना करते-करते जो भावना-बल से सम्यक दर्शन, ज्ञान, चारित्र पाकर मुक्त हो जाता है, उसके क्रमिक विकास का हेतु धर्म की आराधना है, सम्प्रदाय विशेष का स्वीकार नहीं। १. सूत्रकृतांग १/१/१६ : आगारमावसन्ता वि अरण्णा वा वि पव्वया । इमं दरिसणमावन्ना सव्वदुक्खा विमुच्चई। भ्रम विध्वंसनम्, मिथ्यात्वी क्रियाधिकार, पृ. १-४६ २. नन्दीसूत्र, ४२ ___ अन्नलिंग सिद्धा, गिहीलिंग सिद्धा। ३. भगवती, ६/३०/३१ ४. मिथ्यात्वी करणी निर्णय, २.४६, ४७, ४६ : इण रीते पहला तो समकत पामीयो रे, विभंग अनांण रो हुवो अवधिगिनांन रे। पछे अनुक्रमे हुवो केवली रे, पछे गयो पांचमी गति परधान रे॥ असोचा केवली हुवा इण रीत सूं रे, मिथ्याती थकां करणी तिण कीध रे। कर्म पतला पडयां मिथ्याती थकां रे, तिण सूं अनुक्रमे शिवपुर लीध रे॥ जो लेस्या परिणाम भला हूंता नहीं रे, तो किण विध पामंत विभंग अनांण रे। इत्यादि कीयां सं हो समकती रे, अनुक्रमें पोंहतो छ निरवाण रे॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिध्वनि : ६७ आचार्य भिक्षु की व्याख्या में जो सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप है वही जैन धर्म है और जो जैन धर्म है वही सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप है। कुछ लोग मिथ्या दृष्टि या जैनेतर व्यक्ति की क्रियामात्र को अशुद्ध मानते थे। आचार्य भिक्षु ने उनके अभिमत की आलोचना की। आपने कहा-जो लोग मिथ्या दृष्टि की निरवद्य क्रिया को भी अशुद्ध मानते हैं, उनकी बुद्धि सही मार्ग पर नहीं है। मिथ्या दृष्टि की निरवद्य क्रिया में कोई गुण नहीं-यों कहने वालों की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। आचार्य भिक्षु ने कहा-भगवान् का धर्म समुद्र की तरह विशाल और आकाश की तरह व्यापक है। जो धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है, भगवान् ने जिसकी व्याख्या की है, वह एक शब्द में है अहिंसा। भगवान् ने कहा-प्रांण, भूत, जीव और सत्त्वों को मत मारो, उन पर अनुशासन मत करो, उन्हें दास-दासी बनाकर अपने अधीन मत करो। उन्हें परिताप मत दो, उन्हें कष्ट मत दो, उन्हें उपद्रव मत करो, यही धर्म ध्रुव, नित्य और शाश्वत है। यह धर्म सबके लिए है-जो धर्म के आचरण के लिए उठे हैं या नहीं उठे हैं, जो धर्म सुनना चाहते हैं या नहीं चाहते हैं, जो प्राणियों को दण्ड देने से निवृत्त हुए हैं या नहीं हुए हैं, जो उपाधि-युक्त हैं या उपाधि-रहित हैं, जो संयोग से बंधे हुए हैं या नहीं हैं। १. मिथ्यात्वी करणी निर्णय, १.२६-३० : निरबद करणी करे पहिले गुण ठाणे, तिण करणी में जाबक जाणे असुध। इसडी परुपणा करे अग्यांनी, तिणरी भिष्ट हुई छे सुधने बुध।। पहिले गुण ठाणे निरबद करणी करे छे, तिणरी करणी सरायां में दोष ण जाणे। अतिचार लागो कहे समकत माही, तिणरो न्याय जाण्यां तिन मूरख ताणे।। २. आयारो, ४/१, २ : से बेमि-जे अईया, जे य पडुप्पन्ना, जे य आगमेस्सा, अरहंता भगवंतो ते सव्वे एवमाइक्खंति, एवं भासंति, एवं पण्णवेंति, एवं परूवेंति सव्वे पाणा, सव्वे भूया, सब्वे जीवा, सव्वे सत्ता, ण हंतव्वा, ण अज्जावेयव्वा, ण परिघेतव्वा, ण परियावेयव्वा, ण उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुद्धे, णिइए, सासए"। ३. आयारो, ४/३: उठिएसु वा, अणुट्ठिएसु वा। उवठिएसु वा, अणुवट्ठिएसु वा। उवरयदंडेसु वा, अणुवरयदंडेसु वा। सोवहिएसु वा, अणोवहिएसु वा। संजोगरएसु वा, असंजोगरएसु वा। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : भिक्षु विचार दर्शन आचार्य भिक्षु ने अपने जीवन को भगवान की इस वाणी का सफल अनुवाद बना डाला। ८. आग्रह से दूर ___ आचार्य भिक्षु में अपने सिद्धान्त के प्रति जितना आग्रह था, उतना ही दुराग्रह से दूर रहने का तीव्र प्रयल। उन्होंने यही सीख दी-खींचातानी से बचो, कोई तत्त्व समझ में न आए तो दुराग्रह मत करो, बहुश्रुत व्यक्तियों से समझो, फिर भी समझ में न आए तो उसे ज्ञानीगम्य कहकर छोड़ दो। चिन्तन भले करो, पर दुराग्रह से बचते रहो। उन्होंने यह सीख ही नहीं दी, उनके चरण भी इसी पथ पर आगे बढ़े। उन्होंने एक दिन कहा-दस प्रकार का श्रमण-धर्म है, तब पास बैठा भाई बोल उठा-नहीं, दस प्रकार का यति-धर्म है। आपने कहा-भले दस प्रकार का महात्मा-धर्म कहो, मुझे क्या आपत्ति है। शब्दों के जाल में फंसने वाला तत्त्व तक नहीं पहुंच पाता। उन्होंने कहा-दया दया सब लोग पुकारते हैं और यह सच है कि दया धर्म है, पर मुक्ति उन्हें ही मिलेगी जो दया को पहचानकर उसका पालन करेंगे। वे शाब्दिक उलझन में पड़ने वालों को सदा सावधान करते रहे। उनकी बोधवाणी है कि गाय, भैंस, आक और थूहर-इन चारों के दूध होता है। शब्द को पकड़ने वाला गाय के दूध की जगह आक का दूध पी ले तो परिणाम क्या होगा? हमें तत्त्व तक पहुंचना चाहिए, भले फिर उसका माध्यम कोई शब्द बने। १. मर्यादा-मुक्तावली २. भिक्खु-दृष्टान्त, २१३, पृ. ८६ ३. अणुकम्पा : ८, दू. १ ४. वहीं, १ दू. १-४ अणुकम्पा में आदरे, कीजो घणा जतन। जिणवर ना धर्म माहिली, समकत पाय रतन।। गाय भैंस आक थोर नों, ए च्यारु ई दूध । तिम अणुकंपा जाणजो, राखे मन में सूध।। आक दूध पीधां थकां, जुदा करे जीव काय। ज्यूं सावध अणुकंपा कीयां, पाप कर्म बंधाय।। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिध्वनि : ६६ कोरे शब्दों को पकड़ने वालों की स्थिति का चित्रण उनकी कृतियों में अनेक स्थलों पर मिलता है। ___ एक सास ने बहू से कहा-जाओ, पीपल ले आओ। बहू गई और मोटी रस्सी से पीपल के तने को बांध उसे खींचने लगी, पर वह एक इंच भी नहीं सरका। उसे खींचते-खींचते उसके हाथ छिल गये। वह साथ-साथ गाती गई कि 'पीपल चलो, मेरी सास तुझे बुला रही है।' गाते-गाते वह रोने लगी। एक समझदार आदमी आया और उसने उससे पूछा-बहन! रोती क्यों हो? उसने सारा हाल कह सुनाया। उसने उसे सास का आशय समझाया और कहा-बहन! पीपल नहीं चलेगा। इसकी एक डाली तोड़ ले जाओ, तुम्हारा काम बन जायेगा।' __ शब्दों की पकड़ न हो, यह अनाग्रह का एक पक्ष है। इसका दूसरा पक्ष है आवेशपूर्ण तत्त्व-चर्चा से बचाव करना। स्वामीजी के पास कुछ लोग आये। उनमें आपस में चर्चा चली कि पर्याप्ति और प्राण जीव हैं या अजीव ? किसी ने कहा-जीव हैं और किसी ने कहा-अजीव । इस प्रकार आपस में खींचातानी होने लगी। उन्होंने अन्त में स्वामीजी से पूछा-गुरुदेव! पर्याप्ति और प्राण जीव हैं या अजीव? स्वामीजी ने उनमें चल रही खींचातानी को देखकर कहा-जिस चर्चा में आग्रह हो, उसे छोड़ देना चाहिए। और चर्चाएं क्या कम हैं? आग्रह से मुक्ति मिल गई। ६. कुशल पारखी आचार्य भिक्षु वैयक्तिक जीवन में जितने आध्यात्मिक थे, उतने ही सामुदायिक जीवन में व्यावहारिक थे। उनके जीवन में विनोद हिलोरें मारता था। वे कभी-कभी तत्त्व की गहराई को विनोद के तत्त्वों से भर देते थे। भोलेई मत भूलजो, अणुकंपा रे नाम। कीजो अंतर पारखा, ज्यूं सीझे आतम काम। १. अणुकम्पा : ८.३२ किण हीक होडें जीव बतावें, किण हीक होड संका मन आंणे। समझ पड्यां विण सरधा परूपे, पीपल बान्धी मूर्ख जयूं तांणे॥ २. भिक्खु दृष्टान्त, २५६, पृ. १०२ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० : भिक्षु विचार दर्शन एक चारण को लोगों ने उभारा कि तू भक्तों को लपसी खिलाता है, उसमें भीखणजी पाप मानते हैं। वह स्वामीजी के पास आया और बोला-भीखणजी! मैं भक्तों को लपसी खिलाता हूं उसमें क्या होता है? स्वामी जी ने कहा-जितना गुड़ डाला जाता है, उतनी ही मिठास होती है।' वह इस तत्त्व को ही पचा सकता था। ____ एक व्यक्ति ने ब्राह्मणों से कहा-भीखणजी दान देने का निषेध करते हैं इसलिए हम तुम्हें दान नहीं देंगे। वे स्वामीजी के पास आये और अपना रोष प्रकट किया। स्वामीजी ने कहा-जिन लोगों ने ऐसा कहा है वे अगर पांच रुपये दें तो भी मेरी मनाही नहीं है। मुझे मनाही करने का त्याग है। उनका रोष खुशी में परिणत हो गया। तत्त्व का रहस्य उतना ही खोलना चाहिए जितना सामने वाले को दीख सके। धर्म को उन्होंने सबके लिए समान माना। धर्म करने का सबको समान अधिकार है, इसका समर्थन किया। फिर भी कहीं-कहीं उनके विचारों में जो जातिवाद के समर्थन की छाया दीख पड़ती है, वह व्यावहारिकता से संघर्ष मोल न लेने की वृत्ति है। उन्होंने सामाजिक व्यवहार को तोड़ने का यत्न नहीं किया। घृणित मानी जाने वाली जातियों के घरों से भिक्षा लेने को अनुचित बतलाया। वे परमार्थ और व्यवहार की सीमा को धूप और छांह की भांति मानते थे, जो साथ रहते हुए भी कभी नहीं मिलते। १०. क्रांत वाणी आचार्य भिक्षु मानव थे। वे मानवीय दुर्बलताओं से सर्वथा मुक्त नहीं थे। उनकी विशेषता इसी में है कि वे उनसे मुक्त होना चाहते थे उनकी वाणी में कटुता है, प्रहार है और बाणों की वर्षा है। वे व्यक्तिगत आक्षेपों से बहुत बचे हैं, पर अवगुण की धज्जियां उड़ाते समय वे बहुत ही उग्र बन जाते हैं। एक व्यक्ति ने कहा-भीखणजी! कुछ लोग आप में बहुत दोष निकालते हैं। आपने कहा-दोषों को रखना नहीं है। उनको निकाल फेंकना १. भिक्खु दृष्टान्त, २० पृ. ११ २. वही : ६५, पृ. ६४, ६५ ३. साधु-आचार की चौपाई ४. अणुकम्पा, ६.७० Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिध्वनि : ७१ है। कुछ प्रयत्न मैं करता हूं और कुछ वे कर रहे हैं। वे मेरा सहयोग ही तो कर रहे हैं। इसमें उनकी दुर्बलताओं पर विजय पाने की सतत साधना बोल रही है। आचार्य भिक्षु असंयम और संयम में भेद रेखा खींचते समय कभी-कभी ऐसा प्रतीत होते हैं, मानो उनका दिल दया से द्रवित न हो। बहुधा प्रश्न ऐसा होता है कि इस विचारधारा का सामाजिक जीवन पर क्या असर होगा? प्रश्न अहेतुक भी नहीं है। संसार के प्रति उदासीनता जाने वाला विचार सामाजिक व्यवस्था ने कहीं बाधा भी डाल सकता है। पर इन सबके उपरान्त हमें यह भी तो समझना होगा जो आचार्य भिक्षु हमें समझाना चाहते थे। संयम और असयंम के बीच भेद-रेखा खींच रहे थे। उस समय जो विचार उन्होंने दिये, उनका उद्देश्य सामाजिक सहयोग का विघटन नहीं, किन्तु संयम और असंयम का पृथक्करण या बन्धन और मुक्ति का विश्लेषण है। उनके दयार्द्र मानस का परिचय हमें तब मिलता है, जब हम उनके सेवा-भाव की ओर दृष्टि डालते हैं। उन्होंने कहा- “जो साधु रोगी, वृद्ध और ग्लान साधुओं की सेवा-शुश्रूषा नहीं करता, वह भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करता है। उसके महामोहनीय कर्म का बन्ध होता है। उसके इहलोक और परलोक-दानों बिगड़ जाते हैं।" एक साधु आहार-पानी की भिक्षा लाए, उसका कर्तव्य है कि वह दूसरे साधुओं को संविभाग दे। किन्तु यह मैं लाया हूं, ऐसा सोच जो अधिक लेता है, उसे चोरी का दोष लगता है और उसका विश्वास उठ जाता है। १. भिक्खु दृष्टान्त, १३, पृ. ६ २. अणुकम्पा : ४.२१-२२ ग्यांन दरसण चारित्त ने तप, यारों करे कोई उपगार हो। ____ आप तिरे पेलो उबरे, दोयां रो खेवो पार हो। - ए च्यार उपगार छे मोटका, तिणमें निश्चेई जाणो धर्म हो। - शेष रह्या कार्य संसार नां, तिण कीधां बधसी कर्म हो। ३. वही, ६.७१-७४ ४. वही, ८.४५ रोगी गरढा गिलाण साध री वीयावच, साध न करे तो श्री जिण आगना बारे। महा मोहणी कर्म तणों बंध पाडें, इह लोक ने परलोक दोनं बिगाडे॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ : भिक्षु विचार दर्शन ___एक बार मुनि खेतसीजी को अतिसार हो गया। स्वामीजी ने स्वयं उन्हें सम्हाला और उनकी परिचर्या की। रोगी साधुओं के लिए दाल मंगवाते और उन्हें चखकर अलग-अलग रख देते। किसी में नमक अधिक होता, किसी में कम। रोगी को कौन-सी जंचे, कौन-सी नहीं, इसका पूरा ध्यान रखते। उनकी शासन-व्यवस्था यह है कि कोई साधु की परिचर्या करने में आना-कानी करे, वह संघ में रहकर भी संघ का नहीं है। उसे संघ से बहिष्कृत कर देना चाहिए। ___ 'जिन शासन में ग्लान की सेवा ही सार है और जो ग्लान की सेवा करता है, वह मुक्ति प्राप्त करता है। जैन परम्परा के इस आदर्श की उन्होंने कभी विस्मृति नहीं की। उनकी भूमिका साधु-जीवन की थी। उनका साध्य आत्ममुक्ति था। इसलिए उन्होंने जो कहा, वह साधु-जीवन को लक्ष्य कर कहा । यह वाणी किसी समाज-नेता की होती तो वह समाज को लक्ष्य कर कहता। यह भूमिका-भेद है। समाज की भूमिका में करुणा प्रधान होती है और अहिंसा गौण। आत्म-मुक्ति की भूमिका में अहिंसा प्रधान होती है और करुणा गौण। सामाजिक प्राणी वहां अहिंसा की उपेक्षा भी कर देता है, जहां उसे करुणा की अपेक्षा होती है। आत्ममुक्ति की साधना करने वाला करुणा की अपेक्षा वहीं रखता है, जहां अहिंसा की उपेक्षा न हो। करुणा के भाव से भावित व्यक्तियों का प्रेरक वाक्य यह रहा-"मैं राज्य की कामना नहीं करता। मुझे स्वर्ग और मोक्ष की भी कामना नहीं है। दुःख से पीड़ित प्राणियों का दुःख दूर करूं, यही मेरी कामना है।" __ इसमें करुणा का अजस्र स्रोत है पर उद्देश्य का अनुगमन नहीं है। कोई भी मुमुक्ष अपवर्ग (मोक्ष) की इन शब्दों में उपेक्षा नहीं कर सकता। समाज की स्थापना का मूल परस्पर-सहयोग है। सहयोग की भित्ति को १. भिक्खु दृष्टान्त, २५३, पृ. १०१ २. वही, १७१, पृ. ६८-६६ ३. उत्तराध्ययन नेमिचन्द्रीय वृत्तिः पत्र १८ 'गिलाणवेयावच्चमेवेत्थ पवयणे सारं, जो गिलाणं जाणइ सो य दंसणेणं पडिवज्जई' ४. न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नापुनर्भवम्। कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनामर्त्तिनाशनम्।। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिध्वनि : ७३ अवस्थित करने के लिए ही यह श्लोक रचा गया है। अपने उद्देश्य की सीमा तक यह बहुत मूल्यवान् है पर मोक्ष के साधनों पर विचार किया जाये तब यह विषय बहुत चिन्तनीय हो जाता है। वस्तुतः दुःख क्या है ? किस प्रकार का दुःख दूर करना मोक्ष के अनुकूल है? दुःख को दूर कैसे किया जाए? किसलिए किया जाए? आदि-आदि। साधारण दृष्टि यह है कि प्रिय वस्तु का वियोग और अप्रिय का संयोग ही दुःख है। प्रतिकूल वेदना ही दुःख है। मोक्ष-दृष्टि यह है कि बन्धन दुःख है। सामान्यतः माना जाता है कि प्रिय वस्तु का संयोग और अप्रिय वस्तु का वियोग सुख है। अनुकूल वेदना सुख है। मुमुक्षु लोग मानते है कि बन्धन-मुक्ति सुख है। मनुष्य का ध्येय मोक्ष होना चाहिए, इस विचार में सभी आत्मवादी एकमत हैं। मोक्ष में राग-द्वेष, स्नेह आदि के बन्धन नहीं हैं। इसमें भी दो मत नहीं हैं। साध्य के निकट पहुंच शरीर से भी मुक्ति पा लेना है, यह भी विवादास्पद नहीं। मतभेद है इस बात में कि मोक्ष का साधन क्या है ? साध्य समान होने पर भी साधन समान नहीं हैं। ___ जो आत्मवादी नहीं हैं, उनका साध्य कोरा सामाजिक अभ्युदय होता है। जिनका विश्वास आत्मवाद में है पर आचरणात्मक शक्ति का जिनमें पर्याप्त विकास नहीं हुआ है, उनका प्रधान साध्य मोक्ष या आत्मा का पूर्ण विकास होता है और गौण साध्य-सामाजिक अभ्युदय या आवश्यक भौतिक विकास। आत्मा में जिनका कोरा विश्वास ही नहीं होता, किन्तु जिनकी आचरणात्मक शक्ति पर्याप्त विकसित होती है, वे केवल आत्म-विकास को ही साध्य मानकर चलते हैं। ये जीवन की तीन कोटियां हैं। इनके विचारों को पृथक-पृथक दृष्टिकोणों से समझा जाये तो कोई उलझन नहीं आती। जीवन के इन तीन प्रकारों को जब एक ही तुला से तोलने का प्रयत्न होता है, तब विसंगति उत्पन्न हो जाती है। आत्म-विकास का साधन है ब्रह्मचर्य । सामाजिक प्राणी विवाह करता है। अब्रह्मचर्य मोक्ष का साधन नहीं है। जिस आत्मवादी का साध्य मोक्ष होता है और वह ब्रहाचारी रह नहीं सकता, इसलिए वह विवाह करता है। चिन्तन-काल में यह विसंगति प्रतीत होती है। आस्था और कर्म में विरोध की अनुभूति होती है। इस विसंगति का निवारण दो प्रकार से किया जाता है। एक विचार है कि समाज के आवश्यक कर्म यदि अनासक्त भाव से किये जाएं तो वे मोक्ष-राधना के प्रतिकूल Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ : भिक्षु विचार दर्शन नहीं होते। दसरा विचार है कि आचरण का पक्ष प्रबल होने पर ही आस्था और कर्म की विसंगति मिटती है। साधना के प्राथमिक चरण में उसका निवारण नहीं होता। जब आचरण का बल विकासशील होता है, तब आस्था और कर्म की दूरी मिट जाती है। आचार्य भिक्षु इस दूसरी विचारधारा के समर्थक थे। उन्होंने आस्था और कर्म की विसंगति को मिटाने के लिए साधन के विचार को गौण नहीं किया। उन्हें यह ज्ञात था कि आस्था का परिपाक आचरण से पहले होता है। आचरण के साथ आस्था अवश्य होती है, पर आस्था के साथ आचरण नहीं भी होता। आचरण के अभाव में आस्था को विपरीत बताना उन्हें अभीष्ट नहीं था। आस्था और कर्म में संगति लाने के लिए वे मोक्ष के असाधन को साधन मानने के लिए प्रस्तुत नहीं हए। इसी भूमिका में उनके विचारों की कुछ महत्त्वपूर्ण रेखाएं निर्मित हुई, जिनकी प्रतिक्रिया प्राचीन भापा में यह है कि भीखणजी ने दया-दान को उठा दिया। ये मरते प्राणी को बचाने की मनाही करते हैं आदि-आदि। आज की भाषा में उनकी प्रतिक्रिया है कि उन्होंने सामाजिक जीवन को लौकिक और लोकोत्तर या आध्यात्मिक रूप में विभक्त कर दिया, आदि-आदि। इन प्रतिक्रियाओं का उत्तर हमें उनके साध्य-साधन की सैद्धान्तिक चर्चा से ही लेना है; इसलिए हमें उनके माध्य-साधनवाद के कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों पर दृष्टिपात करना होगा। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. साध्य-साधन के विविध पहलू जीवन और मृत्यु मनुष्य की पहली जिज्ञासा है जीवन और अन्तिम जिज्ञासा है मृत्यु। शेष जिज्ञासाएं इस द्वन्द्व के बीच में हैं। जीवन क्या है? इसके पहले क्या था? मौत क्या है? इसके पश्चात् क्या होगा? सत्यान्वेषण की रेखा के ये प्रधान बिन्दु हैं। जीवन से पूर्व और मौत के पश्चात् क्या है और क्या होगा? इन प्रश्नों के समाधान में आचार्य भिक्षु की कोई नई देन है, यह मैं नहीं जानता। जीवन और मृत्यु हमारी दृष्टि के स्पष्ट कोण हैं। इनकी व्याख्या को उन्होंने अवश्य ही आगे बढ़ाया है। सामान्य धारणा के अनुसार जीवन काम्य है और मौत अकाम्य। प्राणियों में तीन एषणाएं हैं, उनमें पहली है 'प्राणैषणा' । वैदिक ऋषियों ने कहा है-"हम सौ वर्ष जिएं।" भगवान् महावीर ने कहा- “सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता।" यही विचार मनोवैज्ञानिक सुखवाद का आधार बन गया। साधना की दृष्टि से भगवान् महावीर ने कहा-“जीवन और मृत्यु की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए।" व्यास भी इसी भाषा में बोलते हैं-जीवन और मृत्यु का अभिनंदन करो। १. यजुर्वेद, ३६/२४ पश्येम शरदः शतम् अदीनाः स्याम शरदः शतम्। २. दशवैकालिक, ६/११ सब्वे जीवा वि इच्छति, जीविउं न मरिज्जिउं। ३. सूत्रकृतांग, १/१०/२४ । नो जीवियं नो मरणाभिकखी। ४. महाभारत शांतिपर्व, २४५/१५ नाभिनंदेत मरणं, नाभिनंदेत जीवितम् । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ : भिक्षु विचार दर्शन __आचार्य भिक्षु की चिन्तन-दिशा स्वतन्त्र नहीं थी। उनका चिन्तन जैनागमों की परिक्रमा किए चला, पर परिक्रमा का मार्ग उन्होंने विस्तृत बना दिया। उन्होंने कहा-जीवन और मृत्यु अपने आप में न काम्य है और न अकाम्य। ये परिवर्तन के अवश्यम्भावी चरण हैं। पहले चरण में प्राणी नये जीवन के लिए आता है और दूसरे में नये जीवन के लिए चला जाता है। पुद्गल की भूमिका में जीवन काम्य है और मृत्यु अकाम्य । आत्मा की भूमिका में जीवन और मृत्यु न काम्य है और न अकाम्य । असंयममय जीवन और मृत्यु अकाम्य है, संयममय जीवन और मृत्यु काम्य । निष्कर्ष की भाषा में असंयम अकाम्य है और संयम काम्य। काम्य और अकाम्य सापेक्ष हैं। इनका निर्णय साध्य के आधार पर ही किया जा सकता है। - साध्य दो भागों में विभक्त है-जीवन या जीवन-मुक्ति। प्रवृत्ति का क्षेत्र है जीवन। उसका स्रोत है-रागात्मक या द्वेषात्मक भाव या असंयम। मृत्यु जीवन का अनिवार्य परिणाम है, इसलिए जो जीना चाहता है, वह मरना भी चाहता है। परिणाम की दृष्टि से यही संगत है। जीव जीना चाहता है, मरना नहीं चाहता, यह रुचि की दृष्टि से ही संगत हो सकता है। किन्तु रुचि की अपेक्षा आचरण में अधिक बल होता है। अधर्म करने वाला धर्म का फल चाहता है। आचरण अधर्म का और रुचि धर्म के फल की-यह संघर्ष है। इसमें विजयी आचरण होता है। वह रुचि को परास्त कर जीव को अपने पीछे ले चलता है। सच तो यह है कि जो मरना नहीं चाहता, वह जीना भी नहीं चाहता। मृत्यु से मुक्ति वही पा सकता है, जो जीवन से मुक्ति पा सके। इस विवेक के बाद हम एक बार सिंहावलोकन करेंगे। रुचि की अपेक्षा सत्य यह है कि जीवन काम्य है, मृत्यु अकाम्य। आचरण की अपेक्षा सच यह है कि जिसे जीवन काम्य है. से मृत्यु भी काम्य है और जिसे मृत्यु अकाम्य है, उसे जीवन भी अकाम्य । आचार्य भिक्षु ने इस साध्य की कसौटी पर साधन को परखा। परख का परिणाम उन्होंने इन शब्दों में रखा- “अध्यात्म की भाषा में जीवन साध्य नहीं है। साध्य है जीवन की मुक्ति, उसका साधन है संयम। इसलिए संयम ही काम्य है। असंयम जीवन-मुक्ति का साधन नहीं है, इसलिए वह अकाम्य है। असंयत जीवन भी अकाम्य है और उसे चलाने के साधन भी अकाम्य हैं। संयत जीवन भी काम्य है और उसे चलाने Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य - साधना के विविध पहलू : ७७ के साधन भी काम्य हैं। साधन वही होता है जो साध्य के सर्वथा अनुकूल हो । जीवन-मुक्ति की साधना तभी हो सकती है जबकि जीवन टिके । जीवन अन्न और पानी के बल पर टिकता है। उसका अर्जन प्रवृत्ति से होता है, इसलिए सब काम्यों का मूल प्रवृत्ति है । इस तर्क के आधार पर जीवन - मुक्ति का साधन जीवन, जीवन का साधन अन्न-पानी और उसका साधन प्रवृत्ति है । इसलिए ये सब काम्य हैं।" आचार्य भिक्षु ने इस कारण - परम्परा को पूर्ण सत्य नहीं माना। उन्होंने कहा - जीवन - मुक्ति का साध्य, संयत जीवन और अन्न-पान के अर्जन की प्रवृत्ति संयत हो तो यह क्रम साध्य के अनुकूल है, इसलिए काम्य हो सकता है। जीवन मुक्ति का साध्य, असंयत जीवन और अन्न-पान के अर्जन की प्रवृत्ति असंयत हो तो यह क्रम साध्य के अनुकूल नहीं है, इसलिए यह अकाम्य है । साध्य जीवन-मुक्ति का न हो, जीवन और अन्न-पान के अर्जन की प्रवृत्ति असंयत हो तो वह अकाम्य ही है । यह दिशा साध्य और साधन दोनों से शून्य है | आचार्य भिक्षु के धर्म और अधर्म, अहिंसा और हिंसा के पृथक्करण की भेद-रेखा यही है। उन्होंने कहा : / "जीव जीता है, वह अहिंसा या दया नहीं है । कोई मरता है, वह हिंसा नहीं है । मारने की प्रवृत्ति हिंसा है और मारने की प्रवृत्ति का संयम करना अहिंसा है ।" " उन्होंने दृष्टान्त की भाषा में कहा- चींटी जीवित रहे इसलिए आपने उसे नहीं मारा, यह अहिंसा या दया है तो हवा का झोंका आया, चींटी उड़ गई, आपकी दया भी उड़ गई। किसी का पैर टिका, वह मर गई, आपकी दया भी मर गई । जो अहिंसा किसी जीव को जिलाने के लिए होती है वह उसकी मौत के साथ चली जाती है और जो अपनी जीवन-मुक्ति के लिए होता है वह संयम में परिणत हो जाती है । आचार्य भिक्षु की भाषा में संयम और धर्म अभिन्न हैं । जीवन और मृत्यु की इच्छा असंयम है, इसलिए वह अधर्म है । वह अहिंसा नहीं है, १. अणुकम्पा, ५-११ जीव जीवे ते दया नहीं, मरे ते हो हिंसा मत जाण । मारणवाला नें हिंसा कही नहीं मारे हो ते तो दया गुण खाण ।। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ : भिक्षु विचार दर्शन किन्तु मोह है | मोहात्मक प्रवृत्ति से जीवन की परम्परा का अन्त नहीं होता किन्तु वह बढ़ती ही है। मोह-‍ ह-मूढ़ मानस का साध्य जीवन बन जाता है। जो जीवन को साध्य मानकर जीता है, वह पवित्रता या संयम को प्रधान नहीं मान सकता । संयम को प्रधानता वही दे सकता है जिसका साध्य जीवन - मुक्ति हो । २. आत्मौपम्य एक आदमी लोहे का लाल-लाल तपा हुआ एक गोला सड़ासी से पकड़कर लाता है और कहता है: हे धर्म संस्थापको ! लो, इस गोले को एक क्षण के लिए अपनी हथेली में लो। यह कहकर उस आदमी ने गोले को आगे बढ़ाया, परन्तु सबने अपने हाथ पीछे खींच लिये। यह देख उसने कहाः 'ऐसा क्यों ? हाथ क्यों खींच लिये ? 'हाथ जल उठेंगे' 'क्या होगा जलेंगे तो ?. 'वेदना होगी ।' जैसे तुम्हें वेदना होती है वैसे क्या औरों को नहीं होती ? 'सब जीवों को अपने समान समझो । सब जीवों के प्रति इसी गज और माप से काम लो ।” १. अणुकम्पा, ३. दू. १ : वांछे मरणो जीवणो, तो धर्म तणों नहीं अंस । ए अणुकम्पा कीयां थकां वधे कर्म नों वंस ॥ २. वही, ६, ६०-६५ः अग्यानी केइ जीव मार्यां मांहें धर्म कहे छे, ते पूरा त्यांने जाण पुरुष मिले जिण मारग रो, किण विध बोलावे लोह नों गोलो अगन तपाए, ते अगन वर्ण करे ते पकड़ संडासे आयो त्यां पासे, कह बलतो गोलो थे झालो जब पाषंडीयां हाथ पाछो खांच्यो, जाण पुरुष कहे थे हाथ पाछो खांच्यो किण कारण, थांरी सरधा म राखो जब कहे गोलो म्हें हाथे ल्यां तो, म्हारो हाथ बले लागे तापो तो थारो हाथ बाले तिणने पाप के धर्म, जब कहे उणने लागो पापो जी ॥ जी । छाने जी ॥ जी । उंधा जी । सूधा जी ॥ तातो जी । हाथो त्यानें जी ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य-साधना के विविध पहलू : ७६ भगवान् महावीर ने कहा - " सब जीवों को आत्मतुल्य समझो।"" महात्मा बुद्ध ने कहा - " दण्ड से सब डरते हैं, हैं। दूसरों के अपनी तरह जानकर, मनुष्य किसी मरवाए । २ योगीराज कृष्ण ने कहा था- " जो योगयुक्त आत्मा है, जो सर्वत्र समदर्शी है, वह सब जीवों में अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में सब जीवों को देखता है ।"३ यह आदर्श वाणी है । साधना के पहले सोपान में आदर्श और व्यवहार का पूर्ण सामंजस्य नहीं होता, वह सिद्धि काल में होता है। मान्यता और आचरण में विरोध नहीं होता, ऐसा नहीं मानना चाहिए । मनुष्य जो कुछ मानता है वही करता है, यह एकान्त सत्य नहीं है। मान्यता यथार्थ होने पर भी कुछ ऐसी अनिवार्यताएं या दुर्बलताएं होती हैं कि मनुष्य मान्यता के अनुरूप आचरण नहीं कर पाता । वीतराग आत्मा के सिद्धान्त और आचरण में कोई विसंगति नहीं होती । अवीतराग की पहचान - सात बातों से होती है * - ( १ ) वह हिंसा करता है; (२) असत्य बोलता है; (३) अदत्त थारो हाथ बाले तिने पाप लागे तो, ओरां नें मार्यां धर्म नांहीं जी । थे सर्व जीव सरीषा जाणो, थे सोच देखो मन जी ॥ जे जीव मार्यां में धर्म कहे ते, रूले काल सूयगडा अंग अधेन अठारमे, तिहां भाष गया १. दशवैकालिक, १०/१५ : अत्तसमे मनिज्ज छप्पिकाए । २. धम्मपद दण्ड वर्ग-१: सव्वे तसंति दंडस सव्वे भायन्ति मच्चुनो । अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये ॥ ३. गीता, ६ / २६ : मृत्यु से सब भय करते दूसरे को न मारे, न सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि । ईक्षते योगयुक्तात्मा, सर्वत्र समदर्शनः॥ ४. ठाणं ७/२८ सत्तहिं ठाणेहिं छउमत्थं जाणेज्जा, तंगहा-पाणे अइवा एत्ता भवति । मुसं वइत्ता भवति अदिन्नमादित्ता भवति । सद्दफरिसरसरूवगंधे आसादेत्ता भवति । पूजासक्कारमणुवूहेत्ता भवति । इमं सावज्जन्ति पण्णवेत्ता पडिसेवेत्ता भवति । णो जहावादी तहाकारी यावि भवति । मांहीं अनंतो जी । भगवंतो जी ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० : भिक्षु विचार दर्शन लेता है; (४) इन्द्रिय-विषयों का आस्वादन करता है; (५) पूजा-सत्कार चाहता है; (६) यह सपाप है, यों कहता हुआ भी उसका आचरण करता है; और (७) कथनी के अनुरूप करणी नहीं करता। यह एक बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक तथ्य है, इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। केवल सिद्धान्त और आचरण में गति लाने का प्रयत्न हुआ। फलस्वरूप हिंसा ने अहिंसा का रूप ले लिया। हिंसा उपादेय नहीं है-यह मान्यता-पक्ष रहा। जीवन-निर्वाह के लिए हिंसा अनिवार्य है-यह व्यवहार-पक्ष रहा। यह स्पष्ट विसंगति है, इसे मिटाने का और कोई मार्ग नहीं सूझा, तब ये व्याख्याएं स्थिर होने लगीं १. आवश्यक हिंसा, हिंसा नहीं है। २. बहुतों के लिए थोड़ो की हिंसा, हिंसा नहीं है। ३. बड़ों के लिए छोटों की हिंसा, हिंसा नहीं है। आचार्य भिक्षु ने इस ओर जनता का ध्यान खींचा कि यह दोहरी भूल है। एक तो हिंसा करना और दूसरे हिंसा को अहिंसा मानना। उन्होंने आत्म-विश्वास के साथ कहा-हिंसा कभी और किसी भी परिस्थिति में अहिंसा नहीं हो सकती। इनमें पूर्व और पश्चिम की-सी दूरी हैं। उन्होंने तर्क की भाषा में कहा-आवश्यकता की कोई सीमा नहीं है। आवश्यक हिंसा को अहिंसा माना जाए तो हिंसा कोई रहेगी ही नहीं। आवश्यकता की सृष्टि दुर्बलता के तत्त्वों से होती है। वे हिंसा को अहिंसा में बदल सकें इतनी क्षमता उनमें नहीं है, इसलिए आवश्यक हिंसा भी हिंसा है। ___ . महात्मा गांधी ने जीवन की विसंगति पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-“श्रद्धा और कर्म में विरोध किसलिए? विरोध तो अवश्य है ही। जीवन एक झंखना है। इसका ध्येय पूर्णता अर्थात् आत्म-साक्षात्कार के लिए मंथन करने का है। अपनी निर्बलता और अपूर्णताओं के कारण आदर्श को नीचे गिराना नहीं चाहिए। मुझ में निर्बलता और अपूर्णता दोनों हैं, इसका दुःखद भान मुझे है। हालांकि बोरसद के लोगों के सामने मैंने अपने सहोदर चूहे, चीचड़ के विनाश का समर्थन किया, तथापि मैंने जीव-मात्र के प्रति शाश्वत १. अणुकम्पा, ६.७१ : Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य-साधना के विविध पहलू : ८१ प्रेम-धर्म का शुद्ध रूप भी बतलाया। इसका पूर्णता से पालन मुझसे इस जन्म में न हो सके तथापि इस सम्बन्ध की मेरी श्रद्धा तो अविचल रहेगी।" वर्तमान का नीतिशास्त्र कहता है-'ग्रेटेस्ट गुड ऑफ दी ग्रेटेस्ट नम्बर'-अधिक से अधिक लोगों का अधिक से अधिक सुख या हित हो। इसमें विरोधी हितों की कल्पना है। बहुसंख्यकों के लिए अल्पसंख्यकों के बलिदान को उचित माना गया है। इसी सिद्धान्त ने बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का झगड़ा खड़ा किया है। नीतिशास्त्र की इस मान्यता पर राजनीति का प्रभाव है। एक-तन्त्र की प्रतिक्रिया जनतन्त्र के रूप में हुई। जनतन्त्र का अर्थ है-अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यकों का राज्य और बहुमत के सामने अल्पमत की पराजय। इस भावना का प्रतिविम्ब नीतिशास्त्र पर पड़ा और वह सर्वभूत-आत्मभूत की बात भूल गया। मध्यकालीन धर्मशास्त्र के व्याख्याता भी इस भूल से अपने को बचा नहीं सके। उन्होंने भी बहुमत का साथ दिया। इसलिए आचार्य भिक्षु ने क्रान्ति के स्वर में कहा____ "बहुतों के हित के लिए थोड़ों के हित को कुचल देना उतना ही दोषपूर्ण हैं जितना कि थोड़ों के हित के लिए बहुतों को कुचलना। एक आदमी सौ रोगी मनुष्यों को स्वस्थ करने के लिए 'ममाई' करता है--एक मनुष्य के शरीर को क्षत-विक्षत कर खून निकालता है-एक आदमी सिंह और कसाई को मारकर अनेक जीवों को मृत्यु के मुंह में जाने से बचाता है। इनमें धर्म बताने वालों की श्रद्धा विशुद्ध नहीं है।" राजतन्त्र में राजा के जीवन का असीम मूल्य था। उसकी या उसके परिवार की इच्छा की वेदी पर मनुष्यों तक की बलि हो सकती थी। एक पौराणिक कथा के अनुसार एक राजकन्या की इच्छा पर राजा ने वैश्य-पुत्र को मारने की आज्ञा दे दी। प्रमुख नागरिक राज्यसभा में गए। राजा ने १. व्यापक धर्म भावनाः जीवमात्र की एकता, पृ. ६, १० २. अणुकम्पा : ७. १०-२७ मरता देखी सो रोगला, ममाइ विण होते तो साजा न थाय। कोई ममाइ कर मिनष री, सो जणां रे हो साता कीधी बचाया। कोई नाहर कसाइ मारनें, मरता राख्या हो घणां जीव अनेक। जो गिणे दोयां में सारखा, त्यारी बिगड़ी हो सरधा वात ववेक!! Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ : भिक्षु विचार दर्शन उनकी प्रार्थना के उत्तर में कहा-राजकन्या का आग्रह है कि या तो वह जीएगी अथवा वैश्य-पुत्र। दोनों एक साथ नहीं जी सकते। राजा ने कहा-आप कहिए, मैं किसे मारूं? नागरिक अवाक् हो वापस चले आए। राजकन्या के लिए वैश्य-पत्र मारा गया। राज्यसत्ता शक्ति का जाल है। उसमें जो फंसे उन्होंने इसे क्षम्य मान लिया। पर अहिंसा आत्मा की सहज पवित्रता है। वह एक के लिए दूसरे की बलि को कभी भी क्षम्य नहीं मान सकती। जो लोग अहिंसा के क्षेत्र में राजतन्त्र की परम्परा को निभा रहे थे, उनके विरुद्ध आचार्य भिक्षु ने विद्रोह किया। उनकी वाणी ने घोषित किया : - "छोटे जीवों को मारकर बड़ों का पोषण करने को जो अहिंसा कहते हैं, वे छोटे जीवों के दुश्मन हैं।" उनका दयार्द्र मन कह उठा-"ये छोटे जीव अपने अशुभ कर्म भुगत रहे हैं, लोग इन्हें सता रहे हैं और उनके द्वारा बड़े जीवों के पोषण में पुण्य बतलाने वाले ये भेषधारी उठ खड़े हुए हैं।" छोटे और बड़े जीवों में शरीर और ज्ञान की मात्रा का तारतम्य है। आत्मत्व की दृष्टि से सब जोव समान हैं। अहिंसा और हिंसा की नाप छोटा-बड़ा आकार नहीं है। वह राग-द्वेषात्मक प्रवृति के भाव और अभाव से नापी जाती है। आवश्यक हिंसा, हिंसा नहीं है; बहुतों के लिए थोड़ों की हिंसा, हिंसा नहीं है; बड़ों के लिए छोटों की हिंसा, हिंसा नहीं है-इन धारणाओं का मुल रागात्मक प्रवृत्ति है और इनका आचरण भी रागात्मक है। इसलिए यह सारा हिंसा पक्ष है। जीव जीव का जीवन है-यह प्राणी की विवशता है पर अहिंसा नहीं हैं। बहुसंख्यकों के हित के लिए अल्पसंख्यकों का अहित क्षम्य है, यह जन-तन्त्र का सिद्धान्त है पर अहिंसा नहीं है। १. व्रताव्रत, ७-४ : रांकां ने मार धींगां में पोख्यां, ए तो बात दीसे घणी गेरी। तिण मांहें दुष्टी धर्म बतावे, ते रांक जीवां रा उठ्या वेरी॥ २. वही, ७-५ पाछिल भव पाप उपाया तिण सूं, हुआ एकेन्द्री पुन परवारी। त्यां रांक जीवां रे उसभ उदे तूं, लोकां सहित लागू उठ्या भेषधारी॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य-साधना के विविध पहलू : ८३ बड़ों के लिए छोटों का बलिदान क्षम्य है, यह राजतन्त्र की मान्यता है पर अहिंसा नहीं है। ____ इन सिद्धान्तों से आत्मौपम्य या सर्वभूतात्मभूतवाद की रीढ़ टूटी है। विवशता, बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक तथा छोटे और बड़े के प्रश्न हिंसा के क्षेत्र में उठते हैं। अहिंसा का स्वरूप इन सभी प्रश्नों से मुक्त है। आत्मौपम्य के प्रयोग की भूमिकाएं विभिन्न हैं। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति तीव्र होती है, आत्मौपम्य की बुद्धि मन्द हो जाती है। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति मन्द होती है, आत्मौपम्य की बुद्धि तीव्र हो जाती है। मनुष्य का ज्ञान विशुद्ध होता है तब वह आत्मौपम्य को जानता है। उसकी दृष्टि विशुद्ध होती है तब वह आत्मौपम्य का आचरण करता है। कुछ लोग हिंसा को अनिष्ट जानते हुए भी अहिंसा में विश्वास नहीं कर पाते। यह वह स्थिति है जहां ज्ञान है पर दृष्टि की शुद्धि नहीं है। कुछ लोग हिंसा को आनष्ट जानते हुए और अहिंसा में विश्वास करते हुए भी उसका आचरण नहीं कर पाते। यह भूमिका है जहां ज्ञान और दृष्टि है पर चारित्रिक क्षमता नहीं है। __ इन भूमिका-भेदों को ध्यान में रखकर ही आचार्य भिक्षु ने हिंसा और अहिंसा, व्यवहार और परमार्थ का विश्लेषण किया। ३. संसार और मोक्ष संसार व्यवहार से चलता है। व्यवहार में हिंसा की अनिवार्यता है। यदि हिंसा और अहिंसा में अत्यन्त भेद न हो तो हिंसा करना कौन चाहेगा? उसके बिना व्यवहार नहीं चलेगा। व्यवहार के बिना संसार मिट जाएगा। प्रत्येक आदमी मोक्ष चाहता है, सुख चाहता है। उसका साधन अहिंसा है। सब लोग उसी का आचरण करना चाहेंगे। संसार किसी भी समझदार आदमी का साध्य नहीं है। दुःख कोई नहीं चाहता। वह हिंसा से होता है। उसका आचरण कोई नहीं करेगा, सारा व्यवहार गड़बड़ा जायेगा। इस तर्क की कसौटी पर आचार्य भिक्षु के अभिमत को कसा तो लोगों को संसार का भविष्य अंधकारमय दीखा। ____ आचार्य भिक्षु ने उसे उक्त भेदों के आधार पर सुलझाया। उन्होंने कहा-हिंसा और अहिंसा का सिद्धान्त मोहाणुओं की सक्रियता और Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ : भिक्षु विचार दर्शन निष्क्रियता पर अवलम्बित है। मोहाणु मनुष्य को पदार्थ की ओर आकृष्ट करते हैं। उनकी मात्रा अधिक होती है तब वे आत्मा के सहजभाव को निजी बना देते हैं। जीवन और भोग साध्य बन जाते हैं। उनके लिए हिंसा की जाती है। आपने स्वयं अनुभव किया होगा और अनके लोगों को यह कहते सुना होगा कि बुराई को बुराई जानते हुए भी उसे छोड़ नहीं पा रहे हैं। यह स्थिति मोहाणुओं की सक्रियता से बनती है। उनकी निष्क्रियता के लिए कठोर साधना अपेक्षित है। इसलिए व्यवहार की विशृंखलता के काल्पनिक भय से अहिंसा की यथार्थता को बदलने की आवश्यकता नहीं है। संसार किसी का भी साध्य नहीं होगा, सब लोग अहिंसा का आचरण करना चाहेंगे-यह तर्क हो सकता है, वस्तुस्थिति नहीं। दुःख कोई नहीं चाहता, यह आप और हम सब मानते हैं। अपराधी भी दुःख के लिए अपराध नहीं करता है पर उसका परिणाम सुख नहीं है। जीवन-मुक्ति की दृष्टि से देखा जाए तो भोग भी अपराध है। भोगी दुःख के लिए भोग नहीं करता होगा पर भोग का परिणाम सुख नहीं हैं। साध्य की प्राप्ति केवल मान्यता से नहीं, किन्तु आचरण की पूर्णता से होती है। भोग का परिणाम संसार है इसलिए भोग-दशा का साध्य संसार ही होगा। भोगासक्त लोग यथेष्ट मात्रा में अहिंसा का आचरण करना चाहते भी नहीं और यदि चाहें तो कर नहीं सकते। आसक्ति और अहिंसा के मार्ग दो हैं। अहिंसा के फूल सुकुमारतम हैं। ये शक्ति के धागे में पिरोये नहीं जा सकते। ४. बल प्रयोग एकेन्द्रिय को मारकर पंचेन्द्रिय का पोषण करने में लाभ है, किसी ने कहा। आचार्य भिक्षु बोले-किसी व्यक्ति ने तुम्हारा तौलिया छीनकर दूसरे व्यक्ति को दे दिया, उसमें लाभ है या नहीं? एक व्यक्ति ने गेहूं के कोठों को लूट लिया, उसमें लाभ है या नहीं? वह बोला-नहीं। आचार्य-क्यों? वह बोला-उनके स्वामी के मन बिना दिया गया, इसलिए। आचार्य-एकेन्द्रिय ने कब कहा कि हमारे प्राण लूटकर दूसरों का पोषण करना। यह बलात्कार है, एकेन्द्रिय की चोरी है। इसलिए एकेन्द्रिय Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य-साधना के विविध पहलू : ८५ को मार पंचेन्द्रिय का पोषण करने में धर्म नहीं है । ' . ५. हृदय परिवर्तन मनुष्य की प्रवृत्ति के निमित्त तीन हैं- शक्ति, प्रभाव और सहजवृत्ति । सत्ता से शक्ति, सम्बन्ध से प्रभाव और हृदय परिवर्तन से सहजवृत्ति का उदय होता है । शक्ति राज्य संस्था का आधार है । प्रभाव समाज-संस्था या भौतिक जीवन का आधार है। सहजवृत्ति हृदय की पवित्रता का आधार है । शक्ति प्रेरित हो मनुष्य को कार्य करना पड़ता है । प्रभाव से प्रेरित होकर मनुष्य सोचता है कि यह कार्य मुझे करना चाहिए । सहजवृत्ति से प्रेरित होकर मनुष्य सोचता है कि यह कार्य करना मेरा धर्म है । सब लोग अहिंसा या मोक्षार्थी हो जाएं, यह कल्पना ठीक है । पर सबको अहिंसक या मोक्षार्थी बना देंगे, यह शक्ति का सूत्र है । हमें यह मानने में कोई आपत्ति नहीं होगी कि शक्ति के धागे में सबको एक साथ बांधने की क्षमता है । पर उससे व्यक्ति के स्वतन्त्र मनोभाव का विकास नहीं होता । वह व्यक्ति की चारित्रिक अयोग्यता का निदर्शन है । आपसी सम्बन्धों से प्रभावित होकर जो अहिंसक बनता है वह अहिंसा की उपासना नहीं करता । वह सम्बन्धों को बनाए रखने की प्रक्रिया है । प्रभाव मनुष्यों को बांधता है पर वह मानसिक अनुभूति की स्थूल रेखा है, इसलिए उसमें स्थायित्व नहीं होता । महाणुओं और पदार्थों से प्रभावित व्यक्ति जो कार्य करते हैं उनके लिए हम अहिंसा की कल्पना ही नहीं कर सकते । शक्ति के दबाव और बाहरी प्रभाव से रिक्त मानस में जो आत्मौपम्य का भाव जागता है वह हृदय परिवर्तन कहा जाता है। शक्ति और प्रभाव से दबकर जो हिंसा से बच जाता है, वह हिंसा का प्रयोग भले न हो, किन्तु वह हृदय की पवित्रता नहीं है, इसलिए उसे हृदय परिवर्तन नहीं कहा जा सकता । अहिंसा का आचरण वही कर सकता है जिसका हृदय बदल जाए । अहिंसा का आचरण किया जा सकता है, किन्तु कराया नहीं जा सकता । अहिंसक वही हो सकता है जो अपने को बाहरी वातावरण से सर्वथा अप्रभावित रख सके। बाहरी वातावरण से हमारा तात्पर्य शक्ति, मोहाणु और पदार्थ से है। इनमें से किसी एक से भी प्रभावित आत्मा हिंसा से नहीं १. भिक्खु दृष्टान्त, २६४, पृ. १०५ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ : भिक्षु विचार दर्शन बच सकती। आक्रमण के प्रति आक्रमण और शक्ति-प्रयोग के प्रति शक्ति-प्रयोग कर हम हिंसा के प्रयोगात्मक रूप को टालने में सफल हो सकें, यह सम्भव है। पर वैसा कर हम हृदय को पवित्र कर सकें या करा सकें, यह सम्भव नहीं। आचार्य भिक्षु ने कहा-शक्ति के प्रयोग से जीवन की सुरक्षा की जा सकती है, पर वह अहिंसा नहीं है। अहिंसा का अंकन जीवन या मरण से नहीं होता, उसकी अभिव्यक्ति हृदय की पवित्रता से होती है। अनाचार करने वाले को समझा-बुझाकर अनाचार से छुड़ाना, यही है अहिंसा का मार्ग। हिंसा और वध संर्वथा एक नहीं हैं। अहिंसक के द्वारा भी किंचित् अशक्य कोटि का वध हो सकता है, किन्तु यदि उनकी प्रवृत्ति संयममय हो तो वह हिंसा नहीं होती। वध को बल-प्रयोग से भी रोका जा सकता है, किन्तु वह अहिंसा नहीं होती। अहिंसा तभी होती है जब हिंसा करने वाला समझ-बूझ कर उसे छोड़ता है। आचार्य भिक्षु ने कहा-प्रेरक का काम हिंसा को समझाने का है। अहिंसा के क्षेत्र में वह यहीं तक पहुंच सकता है। हिंसा तो तब छूटेगी जब हिंसा करने वाला उसे छोड़ेगा। ६. साध्य-साधन के बाद साध्य और साधन एक ही हैं, यह सुनकर सम्भव है कि आप पहले क्षण असमंजस में पड़ जाएं। तर्कशास्त्र आपको कार्य-कारण में भेद बतलाता है। वही धारणा आपकी साध्य और साधन के बारे में होगी। दो क्षण के लिए आप तर्कशास्त्र भुला दीजिए। अभी हम आध्यात्मिक क्षेत्र में घूम रहे हैं। हृदय-परिवर्तन का अर्थ ही आध्यात्मिकता है। . दिन हो या रात, अकेला हो या परिषद के बीच, सोया हुआ हो या जागत, प्रत्येक स्थिति में जो हिंसा से दूर रहता है, वह आध्यात्मिक है और दूर रहने की वृत्ति ही अध्यात्म है। १. अणुकम्पा : ५.१५ : २. वही : ८.५१: त्यांसू सरीरादिक रो संभोग टाले ने, ग्यानादिक गुण रो राखे भेलापो । उपदेश देह निरदावे रहिणो, पेलो समझेने टाले तो टलसी पापो॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य - साधना के विविध पहलू : ८७ आध्यात्मिक जगत् का साध्य है आत्मा की पवित्रता और उसका साधन वही है । आत्मा की अपवित्रता कभी भी आत्मिक पवित्रता का साधन नहीं बन सकती। पहले क्षण का साधन दूसरे क्षण में साध्य बन जाता है और वही उसके अगले चरण का साधन बन जाता है। पहले क्षण का जो साध्य है वह अगले क्षण के लिए साधन है। पवित्रता ही साध्य है और वही साधन है 1 साध्य और साधन की एकता के विचार को आचार्य भिक्षु ने जो सैद्धान्तिक रूप दिया, वह उनसे पहले नहीं मिलता । शुद्ध साध्य के लिए साधन भी शुद्ध होने चाहिए। इस विचार को उनकी भाषा में जो अभिव्यक्ति मिली, वह उनसे पहले नहीं मिली । साध्य और साधन की सिद्धि का सिद्धान्त अब राजनीतिक चर्चा में भी उतर आया है। एम्मा गोल्डमैन ने, जिनके विचार बड़े क्रान्तिकारी कहे जाते हैं, हाल में लन्दन में एक भाषण में कहा था - "सबसे हानिकारक विचार यह है कि यदि साध्य ठीक है तो उसके लिए हर तरह के साधन ठीक समझे जाएंगे। अन्त में साधन ही साध्य बन जाते हैं और असली साध्य पर दृष्टि ही नहीं जाती ।" स्वयं ट्राटस्की ने लिखा है - " जिसका लक्ष्य साध्य पर रहता है वह साधनों की उपेक्षा नहीं कर सकता । किन्तु शायद उसने यह नहीं समझा कि साधन का कितना बड़ा प्रभाव साध्य पर पड़ता है। बुरे साधनों से तो बुरा साध्य ही प्राप्त होगा, इसलिए चाहे जैसे साधन प्रयुक्त करने का सिद्धान्त कभी उचित नहीं हो सकता ।" " आचार्य भिक्षु ने दो शताब्दी पूर्व कहा था - "शुद्ध साध्य का साधन अशुद्ध नहीं हो सकता और शुद्ध साधन का साध्य अशुद्ध नहीं हो सकता । मोक्ष साध्य है और उसका साधन है संयम । वह संयम के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है । जो व्यक्ति लड्डुओं के लिए तपस्था करते हैं, वे कभी भी धर्मी नहीं हैं और उद्देश्य से तपस्या करने वालों को जो लड्डू खिलाते हैं, वे भी धर्मी नहीं हैं।"२ १. अहिंसा की शक्ति ( रिर्चड वी. ग्रेग), पृ. ६० २. बारह व्रत की चौपाई : १२ १२ : ते तो अरथी छे एकान्त पेट रो, ते मजूरीया तणी छै पांत जी । त्यांरा जीव से कारज सझै नहीं, उलटी घाटी गला मांहे रांत जी ॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ : भिक्षु विचार दर्शन पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है-“गांधीजी ने हमें सबसे बड़ी शिक्षा यह दी या फिर से याद कराई कि हमारे साधन पवित्र होने चाहिए, क्योंकि जैसे हमारे साधन होंगे, वैसे ही हमारे साध्य और ध्येय भी होंगे। एक योग्य साध्य तक पहुंचने के साधन भी योग्य होने चाहिए। यह बात एका श्रेष्ठ नैतिक सिद्धान्त ही नहीं बल्कि एक स्वस्थ व्यावहारिक राजनीति मालूम पड़ती थी, क्योंकि जो साधन अच्छे नहीं होते, वे अक्सर साध्य का ही अन्त कर देते हैं और उनमें नई समस्याएं तथा कठिनाइयां उठ खड़ी होती हैं।" “जो साधन अच्छे नहीं होते वे अकसर साध्य का ही अन्त कर देते हैं"-इसका उदाहरणं आचार्य भिक्षु ने प्रस्तुत किया है। देव, गुरु और धर्म की उपासना धार्मिक का साध्य है। उपासना का साधन है अहिंसा। किन्तु जो व्यक्ति हिंसा के द्वारा उनकी उपासना करता है, वह मिथ्योदृष्टि है। सम्यग्दृष्टि वह है जो धर्म के लिए हिंसा नहीं करता। वर्तमान राजनीति में दो प्रकार की विचारधाराएं हैं-साम्यवादी और इतरसाम्यवादी। जनता का जीवन-स्तर ऊंचा करना-दोनों का लक्ष्य है। पर पद्धतियां दोनों की भिन्न हैं। __साम्यवादी विचारधारा यह है-लक्ष्य की पूर्ति के लिए साधन की शुद्धि का विचार आवश्यक नहीं है। लक्ष्य यदि अच्छा है तो उसकी पूर्ति के लिए बुरे साधनों का प्रयोग भी आवश्यक हो तो वह करना चाहिए। एक बार थोड़ा अनिष्ट होता है और आगे इष्ट अधिक होता है। गांधीवादी विचार यह है कि जितना महत्त्व लक्ष्य का है उतना ही साधन का। लक्ष्य की पूर्ति येन-केन प्रकारेण नहीं, किन्तु उचित साधनों के द्वारा ही करनी चाहिए। : ___आचार्य भिक्षु के समय में भी साधन-शुद्धि के विचार को महत्त्व न देने वाली मान्यता थी। उसके अनुयायी कहते थे-"प्रयोजनवश धर्म के लिए हिंसा का अवलम्बन किया जा सकता है। एक बार थोड़ी हिंसा होती १. राष्ट्रपिता, पृ. ३६ २. व्रताव्रत : १.३५, ३७ । ३. वहीं: १.४० : कहे म्हे पाप करां थोड़ो सो, पछे होसी धर्म अपारो रे। सावध काम करां इण हेते, तिणथी खेवो पारो रे॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य-साधना के विविध पहलू : ८६ है, किन्तु आगे उससे बहुत धर्म होता है।' - आचार्य भिक्षु ने इसे मान्यता नहीं दी। उन्होंने कहा-बाद में धर्म या पाप होगा, इससे वर्तमान अच्छा या बुरा नहीं बनता। कार्य की कसौटी वर्तमान ही है। कुछ जैन लोग दूसरों को लड्डू खिलाकर उनसे तपस्या कराते थे। उनका विश्वास था कि वे उपवास करेंगे, उसमें हमें धर्म होगा। आचार्य भिक्षु इस अभिमत के आलोचक थे। उनका सिद्धान्त था कि पीछे जो करेगा, उसका फल उसे होगा, किन्तु लड्डू खिलाने में धर्म नहीं है। आगे धर्म करेगा इसलिए वर्तमान में उसके लिए साध्य के प्रतिकूल साधन का प्रयोग किया जाये, यह युक्तिसंगत नहीं। दया उपादेय तत्त्व है। अहिंसा का पालन वही कर सकता हैं, जिसका मन दया से भीगा हुआ हो। पर साधन की विकृति से दया भी विकृत बन जाती है। एक आदमी मूली खा रहा है। दूसरे के मन में मूली के जीवों के प्रति दया उत्पन्न हुई। उसने बल प्रयोग किया और जो मूली खा रहा था उसके हाथ से वह छीन ली। दया का यह साधन शुद्ध नहीं है। हिंसक वही होता है जो हिंसा करे, जिसके मन में हिंसा का भाव हो; और अहिंसक भी वही होता है जो अहिंसा का पालन करे, जिसके मन में अहिंसा का भाव हो। बलात् किसी को हिंसक या अहिंसक नहीं बनाया जा सकता। भोग धर्म नहीं है, यह जानकर यदि कोई बलात् किसी के भोगों का विच्छेद करता है, तो वह अधर्म करता है। जिनके मन में दया का भाव उठा, उसके लिए दया का साधन है उपदेश और जिसके मन में दया का भाव उत्पन्न करना है उसके लिए दया १. बारह व्रतः ७.२६३० : कोइ कहे लाडू खवायां धर्म, ओ तप कर म्हारा काटसी कर्म। तिणसू म्हें ओरां ने लाडूड़ा खवावां, पछे लाडूआं साटे म्हें उवास करावां। पछै तो उ करसी ते उणने होय, पिण लाडू खवायां धर्म न जाणो कोय । लाडू खाधां खवायां तो एकन्त पाप, ते श्री जिण मुख सूं भाख्यो छै आए २. व्रताव्रत : १.३३, ३४ : मूली गाजर ने काचो पाणी, कोइ जोरी दावे ले खोसी रे। जे कोइ वस्त छोड़ावे बिना मन, इण विध धर्म न होसी रे॥ भोगी नां कोई भोगज रूंधे, वले पाडे अन्तरायो रे। महामोहणी कर्मज बान्धे, दसाश्रुतखंध मांहि बतायो रे॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० : भिक्षु विचार दर्शन का साधन है हृदय-परिवर्तन। आत्मवादी का साध्य है मोक्ष-आत्मा का पूर्ण विकास। उसके साधन हैं सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र।' अज्ञानी को ज्ञानी मिथ्यादृष्टि को सम्यक्दृष्टि और असंयमी को संयमी बनाना साध्य के अनुकूल है। यह साध्य और साधन की संगति है। इनकी विसंगती तब होती है जब या तो साध्य अनात्मिक होता है या साधन। यदि कोई व्यक्ति जीवों को मारकर, झूठ बोलकर, चोरी कर, मैथुन सेवन कर और धन देकर-इसी प्रकार अठारह पापों का सेवन कर जीवों की रक्षा करता है, तो यह जीव-रक्षा का सही तरीका नहीं है। यदि हिंसा के द्वारा जीव-रक्षा करने में थोड़ा पाप और बहुत धर्म हो, थोड़े या छोटे जीव मारे जाएं वह थोड़ा पाप और बहुत या बड़े जीवों की रक्षा हुई वह बहुत धर्म हो तो फिर असत्य आदि सभी अकृत कार्यों के द्वारा ऐसा होगा। हिंसा के द्वारा जीव-रक्षा करने में पाप और धर्म दोनों माने जाएं तथा शेष अकृत्य कार्यों द्वारा जीव-रक्षा करने में कोरा पाप माना जाए, यह न्याय नहीं है।' १. (क) तत्त्वार्थ : १/१ सूत्र सम्यन्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : (ख) अणुकम्पा, ४.१७ : ग्यान दरसण चारित तप बिना, और मुगति रो नहीं उपाय हो। छोडा मेला उपगार संसार नां, तिण थी सदगति किण विध जाय हो। २. अणुकम्पा : ४.१६.२० : अग्यानी रो ग्यानी कीयां थकां, हुवो निश्चे पेला रो उधार हो। कीयो मिथ्याती रो समकती, तिण उतरीयो भव पार हो। अस्जती में कीयो संजती, ते तो मोष तणां दलाल हो। तपसी कर पार पोहचावीयो, तिण मेट्या सर्व हवाल हो। ३. वही : ७.२१-२४ : जीव मारे झूठ बोलने, चोरी करने हो पर जीव बचाय। वले करे अकार्य एहवा, मरता राख्या हो मइथुन सेवाय॥ धन दे राखे पर प्राण ने, क्रोधादिक हो अठारे सेव सेवाय। ए सावध काम पोते करी, पर जीवा ने हो मरता राखे ताय॥ जो हिंसा करे जीव राखीयां, तिण में होसी हो धर्म ने पाप दोय। तो इम अठारेइ जाणजो, ए चरचा ने हो विरलो समझे कोय॥ जो एकण में मिश्र कहे, सतरां में हो भाषा बोले ओर। उंधी सरधा रो न्याय मिले नहीं, जब उलटी होकर उठे झोड॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य-साधना के विविध पहलू : ६१ एक जीव को मार दूसरे जीव की रक्षा करना, यह सूत्र में कहीं नहीं कहा गया है। यह भगवान् की वाणी नहीं है। ___अशुद्ध साधन की आलोचग करते हुए महात्मा गांधी ने लिखा है-“यह, तो कहीं नहीं लिखा है कि अहिंसावादी किसी को मार डाले। उसका रास्ता तो बिल्कुल सीधा है। वह एक को बचाने के लिए दूसरे की हत्या नहीं कर सकता।" जैन-धर्म में दया का रहस्य है-दुराचारी को समझा-बुझाकर सदाचारी किया जाए। यदि कोई चोर, हिंसक, व्यभिचारी आदि है तो उसे उपदेश देकर अधर्मी से धर्मी बनाया जाए। ___ महात्मा गांधी के शब्दों में उसका (अहिंसक का) कर्त्तव्य तो सिर्फ विनम्रता के साथ समझाने-बुझाने में है। यदि एक अशुद्ध साधन का प्रयोग किया जाए तो फिर नियन्त्रण की श्रृंखला ढीली हो जाती है। ___ आचार्य भिक्षु ने इस तथ्य को इन शब्दों में व्यक्त किया है-दो वेश्याएं कसाईखाने में गईं, जीवों का संहार होते देख उनका मन अनुकम्पा से भर गया। दोनों ने दो हजार जीवों को बचाने का संकल्प किया। एक ने अपने आभूषण दिए और जीवों की रक्षा की, दूसरी ने अनाचार का सेवन किया और जीवों की रक्षा की। आभूषण देकर जीवों की रक्षा करना, यह अहिंसा का शुद्ध साधन नहीं है। यदि इसे प्रयोजनीय माना जाए तो अनाचार सेवन कर जीवों की रक्षा करने का अप्रयोजनीय कहने का कोई तात्त्विक आधार नहीं रहता। १. अणुकम्पा : ७.२५ : जीव मारे जीव राखण, सूतर में हो नहीं भगवंत वेण। उन्धो पंथ कुगुरां चलावीयो, सुध न सूझे हो फूटा अंतर नेण।। २. हिन्दु स्वराज्य, पृ. ७५-७६ ३. अणुकम्पा : ५.५ : ४. हिन्द स्वराज्य : पृ. ७६ ५. अणुकम्पा, ७.५१-५४ : दोय वेस्या कसाइवाडे गइ, करता देख्या हो जीवां रा संघार । दोनूं. जण्यां मतो करी, मरता राख्या हो जीव एक हजार॥ एकण गेहणो देइ आपणो, तिण छोडाया हो जीव एक हजार । दूजी छोडाया इण विधे, एकां दोयां हो चोथो आश्रव सेवार।। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ : भिक्ष विचार दर्शन ७. धन से धर्म नहीं धन से धर्म नहीं होता, यह वाणी साधन-शुद्धि की भूमिका पर ही आलोकित हुई । भृगु ने अपने पुत्रों से कहा- जिनके लिए लोग तप करते हैं, वे धन, स्त्रियां, स्वजन और कामभोग तुम्हारे अधीन हैं, फिर किसलिए तुम तप करना चाहते हो ।' भृगु पुत्रों ने कहा - पिता ! धर्माचरण में स्त्री, धन, स्वज़न और काम भोगों का क्या प्रयोजन है ? धर्म की आराधना में इनका कोई अर्थ नहीं है । हम श्रमण बनेंगे और अप्रतिबद्ध विहारी होकर धर्म की आराधना करेंगे।' आचार्य भिक्षु ने इसी को आधार मानकर कहा- देव, गुरु और धर्मं- ये तीनों अनमोल हैं। इन्हें धन से खरीदा नहीं जा सकता। जो धन के द्वारा मोक्ष-धर्म की आराधना बतालाते हैं, वे लोगों को फन्दे में डालते हैं । उस समय ऐसी परम्परा हो चली थी कि जैन लोग कसाईखाने में जाते और कसाइयों को धन देकर बकरों को 'अमरिया' करवाते छुड़वाते। आचार्य भिक्षु ने इस परम्परा की इसलिए आलोचना की कि यह दया का सही तरीका नहीं है। उन्होंने कहा- कसाई को समझा-बुझाकर हिंसा से विरत किया जाए, दया का सही साधन वही है । एकण ने पाषंडी मिश्र कहे, तो दूजी ने हो पाप किण विध जीव बरोबर बचावीयो, फेर पडीयो हो ते तो पाप में एकण सेवायो आश्रव पांचमो, तो उण दूजी हो चौथो आश्रव फेर पड्यो तो इण पाप में धर्म होसी हो ते तो सरीषो १. उत्तराध्ययन: १४.१६ भूयं सह इत्थियाहिं सयणा तहा कामगुणा पगामा । तवं कए तप्प जस्स लोगो तं सव्वसाहीणमिहेव तुमं ॥ २. वही, १४:१७ धणे किं धम्मधुराहिगारे, सयणेण वा कामगुणेहि चेव । समणा भविस्सामु गुणोहधारी, बहिंविहारा अभिगम्म भिक्ख ॥। ३. अणुकम्पा : ७.६३-६४ त्रिविधे त्रिविधे छकाय हणवी नहीं, एहवी छे हो भगवन्त री वाय । मोल लीयां धर्म कहे मोष रो, ए फंद मांड्यो हो कुगुरां कुबुद चलाय ॥ देव गुर धर्म रतन तीनूं, सूतर में हो जिण भाष्या अमोल । मोल लीयां नहीं नीपजे, साची सरधो हो आंख हिया री खोल || होय । जोय ॥ . सेवाय । थाय ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य-साधना के विविध पहलू : ६३ चिन्तन की दो धाराएं हैं-लौकिक और आध्यात्मिक। लौकिक धारा का जो साध्य है वह आध्यात्मिक धारा का नहीं है और साधन भी दोनों के भिन्न हैं। पहली का साध्य है जीवन का अभ्युदय और दूसरी का साध्य है आत्मा की मुक्ति । अभ्युदय पदार्थों की वृद्धि से होता है और मुक्ति उनके त्याग से होती है। अभ्युदय का साधन है परिग्रह। परिग्रह के लिए हिंसा करनी होती है। मुक्ति का साधन है त्याग-ममत्व का त्याग, पदार्थ का त्याग और अन्त में शरीर का त्याग। त्याग और अहिंसा में उतना ही संबंध है, जितना भोग और हिंसा में है। यदि हम दोनों धाराओं के साध्यों और साधनों को अलग-अलग समझते हैं, तो हम बहुत सारी उलझनों से बच जाते हैं और उन्हें मिश्रित दृष्टि से देखते हैं तो हम उलझ जाते हैं और धर्म विकृत हो जाता है। . आचार्य भिक्षु ने कहा-धर्म के साधन दो ही हैं-संवर और निर्जरा या त्याग और तपस्या। यदि धन के द्वारा धर्म होता तो महावीर की धर्मदेशना विफल नहीं होती। भगवान् को वैशाख शुक्ला १० को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। सभा में केवल देवताओं की उपस्थिति थी, मनुष्य कोई नहीं था। भगवान् ने धर्मदेशना दी। देवताओं ने धर्म अंगीकर नहीं किया। कोई साधु या श्रावक नहीं बना, इसलिए माना जाता है कि भगवान् की पहली देशना विफल हुई। यदि धन से धर्म होता तो देवता भी धर्म कर लेते। भगवान् की वाणी को विफल नहीं होने देते। देवताओं से व्रतों का आचरण होता नहीं और धन से धर्म नहीं होता, इसलिए भगवान् की वाणी विफल हुई। भगवान् की वाणी तब सफल हुई जब मनुष्यों ने व्रत ग्रहण किया, साधु और श्रावक बने। १. अणुकम्पा : १२, दू. ५ देवता आगे वाणी वागरी, थित साचववा काम। कोई साध श्रावक हुवो नहीं, तिण सूं वाणी निरफल गई आम॥ २. वही : १२, दू. ६, ७ जो धन थकी धर्म नीपजे, तो देवता पिण धर्म करत। वीर वाणी सफली करे, मन मांहें पिण हरष धरंत॥ वरत पचखाण न हुवे देवता थकी, धन सूं पिण धर्म न थाय। तिण सूं वीर वाणी निरफल गई, तिणरो न्याय सुणो चित्त ल्याय॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ : भिक्षु विचार दर्शन धन उपकार का साधन है पर आध्यात्मिक उपकार का साधन बनने की क्षमता उनमें नहीं है। कोई समर्थ व्यक्ति किसी दरिद्र को धन देकर सुखी बना देता है, यह सांसारिक उपकार है। सांसारिक उपकार से संसार की परम्परा चलती है और आध्यात्मिक उपकार से संसार का अन्त होता है अर्थात् मुक्ति होती है। साध्य वही सधता है जिसे अनुकूल साधन मिले। कोई लाखों रुपये देकर मरते हुए जीवों को छुड़ाता है, यह संसार का उपकार है। यह आपका सिखाया हुआ धर्म नहीं है। इससे आत्ममुक्ति नहीं होती। आचार्य भिक्षु के चिन्तन का निचोड़ यह है कि परिग्रह, बल-प्रयोग और असंयम का अनुमोदन-ये अहिंसात्मक तत्त्व नहीं हैं इसलिए मोक्ष के साधन भी नहीं हैं। अपरिग्रह, हृदय-परिवर्तन और संयम का अनुमोदन-ये अहिंसात्मक तत्त्व हैं, इसलिए ये मोक्ष के साधन हैं। आचार्य भिक्षु ने अहिंसा या दया के बारे में जो चिन्तन दिया, वह बहुत विशाल है। उसके कई पहलू हैं। पर उसका मुख्य पहलू साध्य-साधन की चर्चा है। आचार्य भिक्षु के समूचे चिन्तन को हम एक शब्द में बांधना चाहें तो उसे 'साध्य-साधनवाद' कह सकते हैं। १. अणुकम्पा : ११.३-५ : २. व्रताव्रत, १२.५ कोइ जीव छुड़ावे लाखां दाम दे, ते तो आपरो सीखायो नहीं धर्म हो। ओ तो उपगार संसार नो, तिणसूं कटता न जाण्या आप कर्म हो। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप १. चिन्तन के निष्कर्ष जितना प्रयत्न पढ़ने का होता है, उतना उसके आशय को समझने का नहीं होता। जितना प्रयत्न लिखने का होता है उतना तथ्यों के यथार्थ संकलन का नहीं होता। अपने प्रति अन्याय न हो, इसका जितना प्रयत्न होता है, उतना दूसरों के प्रति न्याय करने का नहीं होता। गहरी डुबकी लगाने वाला गोताखोर जो पा सकता है, वह समुद्र की झांकी लगाने वाला नहीं पा सकता। आचार्य भिक्षु के विचारों की गहराई विहंगावलोकन से नहीं मापी जा सकती उन्होंने जो व्याख्याएं दीं, वे व्यवहारिक जगत् को कैसी ही क्यों न लगीं, पर उनमें वास्तविक सच्चाई है। दृष्टान्त और निगमन तत्त्व को सरल ढंग से समझााने के लिए होते हैं। इनका प्रयोग मन्द बुद्धिवालों के लिए होता है। इनके द्वारा उलझनें भी बढ़ती हैं। सिद्धान्त की रोचकता और भयानकता जैसी इनके द्वारा होती है, वैसी उसके स्वरूप में नहीं होती। पक्ष और विपक्ष दोनों कोटि के दृष्टान्तों को छोड़कर सिद्धान्त, की आत्मा का स्पर्श किया जाए, तो आचार्य भिक्षु की सिद्धांत-वाणी के मौलिक निष्कर्ष ये हैं : १. धर्म और अधर्म का मिश्रण नहीं होता। २. अशुद्ध साधन के द्वारा साध्य की प्राप्ति नहीं होती। ३. बड़ों के लिए छोटे जीवों का घात करना पुण्य नहीं है। ४. गृहस्थ और साधु का मोक्ष-धर्म एक है। ५. अहिंसा और दया सर्वथा एक हैं। ६. हिंसा से धर्म नहीं होता। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ : भिक्षु विचार दर्शन ७. लौकिक और आध्यात्मिक धर्म एक नहीं हैं। ८. आवश्यक हिंसा अहिंसा नहीं है। २. मिश्र धर्म कई दार्शनिकों की मान्यता है कि वनस्पति आदि एक इन्द्रियवाले जीवों के घात में जो पाप है, उससे कई गुणा अधिक पुण्य मनुष्य आदि बड़े प्राणियों के पोषण में है। एकेन्द्रिय की अपेक्षा पंचेन्द्रिय जीव बहुत भाग्यशाली हैं। अतः बड़े जीवों के सुख के लिए छोटों का घात करने में दोष नहीं है।' किन्तु हिंसा ली करणी में दया नहीं हो सकती और दया की करणी में हिंसा नहीं हो सकती। जिस प्रकार धूप और छांह भिन्न हैं, उसी प्रकार दया और हिंसा भिन्न हैं। विश्व की व्यवस्था बहुत विचित्र है। इसमें मिलने और बिछुड़ने की व्यवस्था भी है। सब तत्त्व नहीं मिलते-बिछुड़ते हैं। केवल पुद्गल ही एक ऐसा द्रव्य है जो मिलता है, बिछुड़ता है। दूसरे महायुद्ध के बाद मिलों की यात्रा बढ़ी है। यातायात की सुविधाएं बढ़ी हैं। पर्यटन बढ़ा है। एक देश के लोग दूसरे देश के लोगों के अधिक मिलते-जुलते हैं। यह मिलन ही नहीं बढ़ा है, किन्तु वैसे मिलन भी बढ़ा है, जो नैतिकता और स्वास्थ्य दोनों के लिए हानिकारक है। खाद्य में मिलावट होती है। दूध में, घी में, औषधि में, और भी न जाने किन-किन पदार्थों में क्या-क्या मिलाया जाता है। आचार्य भिक्षु के जमाने में मिलावट का यह प्रकार नहीं था। खाद्य शुद्ध मिलता था। घी भी शुद्ध मिलता था। औषधि लेने वाले लोग कम थे। दूध में पानी मिलाने की प्रथा कुछ पुरानी है, पर आज जैसी व्यापक १. अणुकम्पा : ६.१६.२० केइ कहे म्हे हणां एकेन्द्री, पंचेन्द्री जीवां रे ताई जी। एकेन्द्री मार पंचेन्द्री पोष्यां धर्म घणो तिण मांहिं जी॥ एकेन्द्री थी पंचेन्द्री नां, मोटा घणा पुन भारी जी। एकेन्द्री मार पंचेन्द्री पोष्यां, म्हांने पाप न लागे लिगारी जी। २. वही : ६.७० : हिंसा री करणी में दया नहीं छे, दया री करणी में हिंसा नाहीं जी। दया में हिंसा री करणी छे न्यारी, ज्यू ताण्ड़ो में छांही जी॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : ६७ शायद नहीं थी। ऐसा क्यों होता है? यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है और इसीलिए महत्त्वपूर्ण है कि धर्म-प्रधान देश में ऐसा क्यों होता है? यहां इसकी लम्बी चर्चा में नहीं जाना है। संक्षेप में इतना ही बस होगा कि जब स्वार्थ धर्म पर हावी हो जाता है तब ऐसा होता है, जब धर्म रूढ़ि बन जाता है तब ऐसा होता है और जब धर्म पूजा जाता है तब ऐसा होता है। आचार्य भिक्षु के सामने धर्म और अधर्म की मिलावट का प्रश्न था। यह प्रश्न कोई नया नहीं था। याज्ञिक लोग यज्ञ में धर्म और पाप दोनों मानते थे। उनका अभिमत यह रहा कि दक्षिणा देने में पुण्य होता है और पशु-वध में पाप। यज्ञ में पाप थोड़ा होता है और पुण्य अधिक। कई जैन भी मानने लगे कि दया भावना से जीवों को मारने में पाप और धर्म दोनों होते हैं। बड़े जीव पर दया होती है यह धर्म और छोटे जीव की घात होती है यह पाप है। धर्म अधिक होता है और पाप थोड़ा, यह मिश्र दया है। असंयति को दान देने में धर्म-अधर्म दोनों होते हैं। यह मिश्रदान का सिद्धान्त है। खाद्य-पेय में मिलावट का विरोध अणुव्रत के माध्यम से आचार्यश्री तुलसी कर रहे हैं। धर्म और अधर्म की मिलावट का विरोध तेरापंथ के माध्यम से आचार्य भिक्षु ने किया। उन्होंने कहा-प्रवृत्ति के स्रोत दो हैं-रागद्वेषात्मक और वैराग्य भाव। पहले स्रोत से प्रवाहित प्रवृत्ति असम्यक् या अधर्म और दूसरे स्रोत से प्रवाहित प्रवृत्ति सम्यक् या धर्म कहलाती है। अधर्म और धर्म की करनी अलग-अलग है। अधर्म करने से धर्म नहीं होता और धर्म करने से अधर्म नहीं होता। एक करनी में दोनों १. सांख्य तत्त्व कौमुदी, पृ. २८, ३१ २. निन्हव री चौपाई ३ : दू. २ : ३. निन्हव रास : गा. १४५ : एक करणी करे तेहमें, नीपनो कहे धर्म न पाप के। एहवी करे छे परूपणा, मिश्र दान री कीधी छे थाप के। ४. व्रताव्रतः ढा. "१२ दू, २ : - दोय करणी संसार में, सावद्य निरवद' जाण। निरवद करणी में जिण आगन्यां, तिण पामे पद निरवाण। ५. वही, ११.३६ : पाप अठारे सेव्यां एकंत पाप, ते सेव्यां नहीं धर्म होयो रे। पाप धर्म री करणी छे न्यारी, पिण मिश्र करणी नहीं कोयो रे। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ : भिक्षु विचार दर्शन नहीं हो सकते।' धर्म और अधर्म दो ही मार्ग हैं। तीसरा कोई मार्ग नहीं । दो ज्ञान एक साथ नहीं हो सकते। एक व्यक्ति नदी के जल में खड़ा है । सिर पर धूप है। पैरों को ठंडक लग रही है और सिर को गर्मी । धूप और जल का संयोग सतत है । पर सर्दी और गर्मी की अनुभूति सतत नहीं होती । जिस समय गर्मी की अनुभूति होती है, उस समय सर्दी की नहीं होती और जिस समय सर्दी की होती हैं, उस समय गर्मी की नहीं होती । योग्यता की दृष्टि से मनुष्य पांच इन्द्रिय वाला होता है। एक काल में वह एक ही इन्द्रिय से जानता है। जब एक आदमी सूखा लड्डू खाता है, तब उसे शब्द भी सुनाई देता है, उसे देखता भी है, उसकी गन्ध भी आती है, रस भी चखता है । लगता है पांचों की जानकारी या अनुभूति एक साथ हो रही है । परन्तु ऐसा होता नहीं । इन सबका काल भिन्न होता है । दो ज्ञान एक साथ नहीं हो सकते। दो क्रियाएं एक साथ हो सकती हैं, किन्तु अविरोधी हों तो । दो विराधी क्रियाएं एक साथ नहीं हो सकतीं। दो प्रकार के विचार एक साथ नहीं हो सकते । सम्यक् और असम्यक् दोनों क्रियाएं एक साथ नहीं हो सकतीं । अहिंसा और हिंसा, धर्म और अधर्म का आचरण एक साथ नहीं किया जा सकता । सांसारिक उपकार सांसारिक व्यवस्था का मार्ग है। आत्मिक उपकार मोक्ष की साधना का मार्ग है। मिथ्यादृष्टि इन दोनों को एक मानता है, सम्यग्दृष्टि इनको अलग-अलग मानता है । ३ ३. धर्म की अविभक्तता ४ अमृत सबके लिए समान है। झूठी खींचतान मत करो। १. निन्हव चौपाई : ३, दू. ३ : २. श्रद्धा री चौपाई : १.१०५ : धर्म अधर्म मारग दोय रे, पिण तीजो पंथ न कोय रे ! ती मिश्र मिथ्याती झूटो कहे रे, आप डूबे ओरां ने डबोय रे ॥ ३. अणुकम्पा : ११.५२ : संसार ने मोख तणा उपगार, समदिष्टी हुवे ते न्यारा-न्यारम् जाणे । पिण मिथ्याती ने खबर पडे नहीं सुधी, तिण सूं मोह कर्म वस उधी ताणे ॥ ४. वही, २ दू. ३ : साध श्रावक दोनूं तणी, एक अणुकम्पा जाण । इमरत सहु ने सारिषो, कूडी मत करो ताण ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : ६६ मुक्ति का मार्ग सबके लिए एक है। मुमुक्षुभाव गृहस्थ में भी रहता है और मुनि में भी। मुनि गृहवास को छोड़ सर्वारम्भ से विरत रहता है, इसलिए वह मोक्ष - मार्ग की आराधना का पूर्ण अधिकारी होता है। एक गृहस्थ गृहवास में रहकर सर्वारम्भ से विरत नहीं हो पाता, इसलिए वह मोक्ष मार्ग की आराधना के पथ का एक सीमा तक अधिकारी होता है । किन्तु मोक्ष-मार्ग की आराधना का पथ दोनों के लिए एक है ।' अन्तर है केवल मात्रा का । साधु और श्रावक दोनों रत्नों की मालाएं हैं- एक बड़ी और दूसरी छोटी । साधु और श्रावक दोनों लड्डू हैं - एक पूरा और दूसरा अधूरा । साधु केवल व्रती होता है और श्रावक व्रताव्रती । व्रत की अपेक्षा से साधु केवल रत्नों की माला है | श्रावक व्रत की अपेक्षा से रत्नों की माला है, अव्रतों की अपेक्षा वह कुछ और भी है । साधु के लिए अहिंसा महाव्रत है और श्रावक के लिए अहिंसा अणुव्रत है । अणुव्रत महाव्रत का ही एक लघुव्रत है, उससे अतिरिक्त नहीं है । मोक्ष की आराधना के लिए जो साधु करता है या कर सकता है, वही कार्य श्रावक के लिए करणीय है । जो कार्य साधु के लिए करणीय नहीं है, वह मोक्ष मार्ग की आराधना के लिए भी करणीय नहीं है । श्रावक अव्रती भी होता है, इसलिए समाज व्यवस्था की दृष्टि से उसके लिए वैसा भी करणीय होता है, जो एक साधु के लिए करणीय नहीं होता । साधु के लिए हिंसा सर्वथा अकरणीय है, मोक्ष की दृष्टि से श्रावक के लिए भी वह सर्वथा अकरणीय है । किन्तु श्रावक कोरा मोक्षार्थी नहीं होता, अर्थ और काम का भी अर्थी होता है। अर्थ और काम मोक्ष के साधन नहीं हैं । मोक्ष के प्रति तीव्र मनोभाव किसी एक व्यक्ति में होता है और जिसके वह होता है, उसके लिए मोक्ष के प्रतिकूल जो भी है, वह करणीय नहीं रहता । किन्तु जिनका मनोभाव मोक्ष के प्रति इतना तीव्र नहीं होता, वे मोक्ष के बाधक कार्यों को भी करणीय मानते हैं । मोक्ष में बाधा आए, 1 १. व्रताव्रत : १.२८ : साध श्रावक नो एकज मारग, दोय धर्म बताया रे 1 ते तिण दोनूं आग्यां मांहे, मिश्र अणहूंतो ल्याया रे || २. वही : १. १ : साधने श्रावक रतनां री माला, एक मोटी दूजी नानी रे । गुण गूंथ्या च्यारूं तीरथ नां, इवरित रह गई कानी रे।। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० : भिक्षु विचार दर्शन यह उनकी चाह न भी हो, किन्तु मोह का ऐसा उदय होता है कि वे मोक्ष के बाधक कार्यों को छोड़ने में अपने को असमर्थ पाते हैं। असामर्थ्य के कारण वे जीवन का जो मार्ग चुनते है, उसमें उनके करणीय कार्यों की सीमा विस्तृत हो जाती है। मोक्ष का साधन धर्म है, हिंसा में धर्म नहीं है, भले ही फिर वह आवश्यक हो। आचार्य भिक्षु ने कहा-प्रयोजनवश या निष्प्रयोजन किसी भी प्रकार से हिंसा की जाए उससे हित नहीं होता। जो धर्म के लिए हिंसा को आवश्यक मानते हैं, उनका बोधि-बीज-सम्यक्-दृष्टिकोण ही लुप्त हो जाता है। __ महात्मा गांधी ने आवश्यक हिंसा के विषय में लिखा है-किसान जो अनिवार्य हिंसा करता है, उसे मैंने कभी अहिंसा में गिनाया ही नहीं है। यह यध अनिवार्य होकर क्षम्य भले ही गिना जाए किन्तु अहिंसा तो निश्चय ही नहीं है। ४. अपना-अपना दृष्टिकोण कोई सुई की नोक में रस्सा पिरोये वह आगे कैसे पैठे? वैसे ही कोई आदमी हिंसा में धर्म बताये, वह बुद्धि में कैसे समाये? जो जीवों की हिंसा में धर्म बतलाते हैं, वे जीवों के प्राणों की चोरी करते हैं। वे भगवान की आज्ञा का लोप कर तीसरे व्रत का विनाश करते . कुछ लोग कहते थे-धर्म के लिए हिंसा की जाए, वह विहित है। आचार्य भिक्षु ने कहा-देव, गुरु और धर्म के लिए हिंसा करने वाला मूढ़ १. अणुकम्पा : ६.४८ : . अर्थ अनर्थ हिंसा कीधां, अहेत रो कारण तासो जी। धर्म रे कारण हिंसा कीधां, बोध बीज रो नासो जी॥ २. अहिंसा, पृ. ५० ३. आचार री चौपई : ६.२८ : सूइ नाके सिंधर पोवे, कहो किम आगे पेसे। ज्यूं हिंसा माहे धर्म परूपे, ते सालोसाल न बेसे रे॥ ४. अणुकम्पा : ६.३२ : ज्यां जीवां ने मार्यो धर्म परूपे, त्यां जीवां रो अदत्त लागो जी। वले आग्या लोपी श्री अरिहंत नी, तिण दूँ तीजोइ महावरत भागो जी॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १०१ है - वह जिन-मार्ग के प्रतिकूल जा रहा है । वह कुगुरु के जाल में फंसा हुआ है । ' लहू जो सम्यक् दृष्टि होता है, वह धर्म के लिए हिंसा नहीं करता । जैसे से भरा हुआ पीताम्बर लहू से साफ नहीं होता, वैसे ही हिंसा से होने वाली मलिनता हिंसा से नहीं धुलती । कुछ लोग कहते थे- धर्म के लिए जीव मारने में पाप इसलिए नहीं है कि उस समय मन शुद्ध होता है । मन शुद्ध हो तब जीव मारने में हिंसा नहीं है । आचार्य भिक्षु ने कहा- जान-बूझकर प्रयत्नपूर्वक जीवों को मारने वालों के मन को शुद्ध बतलाते हैं और अपने आपको जैन भी कहते हैं, यह कितने आश्चर्य की बात है । कुछ लोग कहते थे - जीवों को मारे बिना धर्म नहीं होता । शुद्ध मन से जीवों को मारने में दोष नहीं है । " कुछ लोग कहते थे - जीवों को मारे बिना मिश्र नहीं होता। जब मरते हैं, उसका थोड़ा पाप होता है, पर दूसरे बडे जीवों को तृप्ति मिलती है, धर्म है। यह आचार्य भिक्षु ने कहा -धर्म या मिश्र करने के लिए जीवों के प्राण भी १. व्रताव्रत : १.३५ : देव गुर धर्म ने कारण, मूढ हणे छ कायो रे । उलटा पडीया जिण मार्ग थी, कुगुरां दीया बेहकायो रे ॥ २. वही, १.३७ : वीर को आचांरंग मांहे, जिण ओलखीयो समदिष्टी धर्म ने कारण, न करे पाप ३. वही, १.३६ : धोवायो रे । लोही खरड्यो जो पितंबर, लोही सूं केम तिमं हिंसा में धर्म कीयां थी, जीव उजतो किम थायो रे॥ ४. वही, ६ दू. ३ : जीव मारे छे उदीर ने, तिणरा चोखा कहे परिणाम | ते विवेक विकल सुधबुध बिना, वले जेती धरावे नाम || ५. वही, १२.३४ : ६. वही, १२.३५ : तंत सारो रे । लिगारो रे ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ : भिक्षु विचार दर्शन लूटते हैं और मन को शुद्ध भी बतलाते हैं, यह कैसी विडम्बना है।' दुनिया में मात्स्य न्याय चल रहा है। बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है. वैसे ही बड़े जीव छोटे जीवों को खा रहे हैं। खाना स्वाभाविक-सा है, पर इस कार्य में धर्म बतलाते हैं, उसमें सुबुद्धि नहीं। __नीतिशास्त्र कहता है-जब स्वाभाविक प्रवृत्ति और औचित्य में विरोध होता है, तभी कर्तव्यता की आवश्यकता होती है और कर्त्तव्य-शास्त्र का निर्माण ऐसी ही स्थिति में होता है। यदि मनुष्य का कर्त्तव्य वही मान लिया जाए, जिसकी ओर मनुष्य की सहज प्रेरणा है, तो कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय की अपेक्षा नहीं रहेगी। बड़े जीवों में छोटे जीवों का उपभोग करने की सहज प्रवृत्ति है, पर इसमें औचित्य नहीं है, इसलिए यह अकर्त्तव्य है। कुछ लोग कहते थे-जीवों को जिलाना धर्म है। आचार्य भिक्षु ने कहा-जो साधु हैं, जिनकी लय मुक्ति से लग चुकी है, वे जीने-मरने के प्रपंच में नहीं फंसते। गृहस्थ ममता में बैठा है और साधु समता में। साधु धर्म और शुक्ल ध्यान में रत रहते हैं, इसलिए मतों की चिन्ता में नहीं फंसते।' गृहस्थ में ममत्व होता है इसलिए वह जिलाने का यत्न करता है और मृत व्यक्तियों की चिन्ता करता है। १. व्रताव्रत : १२.३६ : केइ धर्म ने मिश्र करवा भणी, छ काय रो करे घमसाण हो। तिणरा चोखा परिणाम विहां थकी, पर जीवां रा लूटे छे प्राण हो। २. अणुकम्पा : ७ दू. १: मछ गलागल लोक में, सबला ते निबला ने खाय। तिण में धर्म परूपीयो, कुगुरां कुबुध चलाया। ३. नीतिशास्त्र, पृ. १६६ ४. अणुकम्पा : २.४ : जीवणो मरणो नहीं चावे, साध क्याने बंधावे छोडावे। ज्यारी लागी मुगत सू ताली, नहीं करे तिके रुखवाली। ५. वही, २.१२ गृहस्थ नो सरीर ममता में, साधु बेठो समता में। - रह्या धर्म सुकल ध्यान ध्याई, मुआं गया फिकर न कांई। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १०३ कुछ लोग कहते थे, जिसे उपदेश न दिया जा सके अथवा समझाने पर भी जिसका हृदय न बदले, उसे हिंसा से बलपूर्वक रोकना भी धर्म है । आचार्य भिक्षु ने कहा- एक के चांटा मारना और दूसरे का उपद्रव मिटाना, यह रोगद्वेष का कार्य है । ' I समाज में ऐसा होता है पर इसे धर्म की कोटि में नहीं रखा जा सकता । गृहस्थ जो कुछ करता है, वह धर्म ही करता है, ऐसा नहीं है । सामाजिक जीवन को एक अनात्मवादी सुचारु रूप से चला सकता है। समाज के क्षेत्र में दायित्व और कर्त्तव्य का जितना व्यापक महत्त्व है, उतना धर्म का नहीं । धर्म वैयक्तिक वस्तु है । यद्यपि उसका परिणाम समाज पर भी होता है, पर उसका मूल व्यक्तिहित में सुरक्षित है। उसकी आराधना व्यक्तिगत होती है. और वह व्यक्ति के ही पवित्र हृदय से उत्पन्न होता है । अनात्मवादी की दृष्टि में धर्म का कोई स्वतः सम्मत मूल्य नहीं होता, जबकि समाज के प्रति होने वाले दायित्वों और कर्त्तव्यों का उसकी दृष्टि में भी मूल्य होता है । इसलिए यह तर्क भी बहुत मूल्यवान् नहीं है कि समाज के लिए आवश्यक कर्त्तव्यों को धर्म का चोगा पहनाये बिना समाज-व्यवस्था सुन्दर ढंग से नहीं चल सकती । सम्भव है कभी ऐसा अनुभव किया गया हो, पर आज के बुद्धिवादी युग में ऐसा करना आवश्यक नहीं है. कुछ लोग कहते थे - हम जीवों की रक्षा के लिए उपदेश देते हैं, इससे बहुत जीवों को सुख होता है। आचार्य भिक्षु ने कहा- हम हिंसक को पाप से बचाने के लिए उपदेश देते हैं । एक व्यक्ति समझकर हिंसा को छोड़ता है, तब ज्ञानी जानता है कि इसे सुख मिला है; इसका जन्म-मरण का संकट १. अणुकम्पा : २.१७ : एकण रे दे रे चपेटी, एकण रो दे उपद्रव मेटी । ए तो राग द्वेषनो चालो, दसवैकालिक संभालो ॥ २. वही, ५. १६.१७ : हिवे कोइक अग्यानी इम कहे, छ काय काजे हो द्यां छां धर्म उपदेस । एकण जीव ने समझावीयां मिट जाए हो घणां जीवां रो कलेश ॥ छ काय घरे साता हुइ, एहवो भाप हो अणतीरथी त्यां भेद न पायो जिण धर्म रो, ते तो भूला हो उदे आयो मोह धर्म । कर्म ॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ : भिक्षु विचार दर्शन टला है। एक सेठ की दो पत्नियां थीं। एक धार्मिक थी और दूसरी धर्म का मर्म नहीं जानती थी। सेठ विदेश गया हुआ था। अकस्मात् वहीं उसकी मृत्यु हो गई। घर पर समाचार आया। एक पत्नी फूट-फूटकर रोने लगी। दूसरी पत्नी, जो धार्मिक थी, नहीं रोयी। उसने समभाव रखा। लोग बहुत आए। सबने देखा-एक पत्नी रो रही है, दूसरी शान्त है। लोगों ने उसे सराहा, जो रो रही थी। जो नहीं रो रही थी, उसकी निन्दा की। उन्होंने कहा- 'जो रोती है, वह पतिव्रता है, उसे पति के मरने का कष्ट हुआ है। यह पतिव्रता नहीं है, इसे पति के मरने का कोई कष्ट नहीं है, भला यह क्यों रोये? यह तो चाहती थी कि पति मर जाए, फिर इसके आंसू क्यों आएं?' संयोगवश साधु भी उधर से चले गये। उन्होंने उसे सराहा जो समभाव से बैठी थी। लौकिक दृष्टि से देखने वालों को वह अच्छी लग रही थी जिसकी आंखों में आंसू थे। लोकोत्तर दृष्टि से देखने वालों को वह अच्छी लग रही थी जिसकी आंखों में समभाव लहरा रहा था। यह अपना-अपना दृष्टिकोण है। कोई गृहस्थ किसी साधु से व्रत लेकर अपने घर जाने लगा। बीच में दो मित्र मिले, एक ने कहा-जो व्रत लिया है, वह अच्छी तरह से पालना। दूसरे ने कहा-शरीर का ध्यान रखना, कुटुम्ब का प्रतिपालन करना। इन दोनों मित्रों में जो व्रत में दृढ़ रहने की सलाह देता है, वह धर्म का मित्र है और जो अव्रत के सेवन की सलाह देता है, वह धार्मिक मित्र नहीं है। १. अणुकम्पा, ५.१८, १६ : हिवे साध कहे तुमे सांभलो, छ काया रे हो साता किण विध थाय। सुभ असुभ बांध्या ते. भोगवे, नहीं पाम्या हो त्यां मुगत उपाय।। हणवां सूसकीया छ कायना, तिणरे टलीया हो मेला असुभ कर्म पात । ग्यानी जाणे साता हुई एहने, मिट गया हो जनम मरण संताप। २. भिक्खु दृष्टान्त, १३०, पृ. ५५ ३. व्रताव्रत, २.२३-२७ : जगन मझिम उतकष्टा श्रावक, तीनां री एकज पांतो रे। इविरत छे सगला री माठी, तिणमें म राखो भ्रांतो रे।। कोई श्रावक ना व्रत ले साधां पे, आयो जिण दिस जायो रे। मार्ग मां दोय मिंत्री मिलिया, ते बोल्या जूदी-जूदी वायो रे॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १०५ यह अपना-अपना दृष्टिकोण है। एक राजा की रानी एक दिन गवाक्ष में बैठी-बैठी राजमार्ग की ओर झांक रही थीं उस समय एक युवक उधर से जा रहा था। संयोगवश दोनों की दृष्टि मिल गई। युवक की सुन्दरता से रानी खिंच गई और रानी के सौन्दर्य ने युवक को मोह लिया। दोनों की तड़प ने उपाय निकाल लिया। वह युवक ‘फूला मालिन', जो रनिवास में पुष्पहार लाया करती थी, की पुत्रवधू बनकर महलों में आने लगा। एक दिन षड्यन्त्र का भण्डाफोड़ हो गया। राजा ने रानी और युवक को इसलिए मृत्युदण्ड दिया कि वे दुराचार करते थे; मालिन को इसलिए मृत्युदण्ड दिया कि वह दुराचार करा रही थी। राजाज्ञा से वे बाजार के बीच बिठा दिए गए। राजपुरुष गुप्त रूप से खड़े थे। जो लोग उन्हें धिक्कारते, वे चले जाते और जिन्होंने उनकी प्रशंसा की, उन्हें पकड़ लिया गया। राजा ने उन्हें भी इसलिए मृत्युदण्ड दिया कि वे दुराचार का अनुमोदन कर रहे थे। एक आदमी कोई कार्य करता है, दूसरा उसे करवाता है और तीसरा उसका अनुमोदन करता है-ये तीनों एक ही श्रेणी में आते हैं। करना मन, वाणी और काया से होता है। कराना मन, वाणी और काया से होता है। अनुमोदन मन, वाणी और काया से होता है। इन्हें परिभाषा के शब्दों में करण-योग' कहा जाता है। आचार्य भिक्षु ने कहा-जो लोग असंयम के सेवन में धर्म बतलाते हैं, वे करण-योग का विघटन करते हैं। एक व्यक्ति असंयम का आचरण स्वयं करे, दूसरा दूसरों एक कहे व्रत चोखा पालें, ज्यूं कटे आठोइ कर्मों रे। काल अनादि रे भमते-भमते, पायो जिणवर धर्मो रे॥ एक कहे तूं आगार सेवे, सचित्तादिक सर्व संभाली रे। जतन घणां कीजे डीलां रावले कूटंब तणी प्रतिपाली रे॥ व्रत पालण री आग्या दीधी, ए तो धर्म रो मिंत्री मोटो रे। अविरत आग्या दीधी तिण ने, ग्यानी तो जाणे खोटो. रे।। १. व्रताव्रत, १.६ : करण जोग विगटावे अग्यानी, लाग रह्या मत झूठे रे। न्याय करे समझावे तिण सू, क्रोध करे लडवा उठे रे॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ : भिक्षु विचार दर्शन के करवाये और तीसरा करने वालों का अनुमोदन' करे ये तीनों एक कोटि में हैं। १ मनुष्य तीन प्रकार के होते हैं - असंयमी, संयमासंयामी और संयमी । आचार्य भिक्षु के पास धर्म और अधर्म की कसौटी थी - संयम और असंयम । जो कार्य संयम की कसौटी पर खरा उतरे वह धर्म और खरा न उतरे वह अधर्म । संयम धर्म है और असयंम अधर्म । इस मान्यता में संभवतः मतभेद नहीं है । मतभेद इसमें है कि किस कार्य को संयम में गिना जाए और किस को असंयम में। आचार्य भिक्षु के अनुसार जो संयमी नहीं हैं उनके जीवन-निर्वाह के सारे उपक्रम असंयम में हैं, इसलिए धर्म नहीं हैं । कुछ लोग कहते थे - असंयमी स्वयं खाएं वह पाप है और दूसरों को खिलाए वह धर्म है । आचार्य भिक्षु ने कहा- असंयमी स्वयं खाएं वह पाप और दूसरे असंयमी को खिलाए वह धर्म, यह कैसे ? असंयमी का खाना यदि असंयम में है तो असंयम का सेवन करना, कराना - दोनों एक कोटि के कार्य हैं। इनमें से एक को पाप, एक को धर्म कैसे माना जाए? असंयमी कोई वस्तु अपने अधिकार में रखता है वह पाप है तो उस वस्तु को दूसरे असंयमी के अधिकार में देने से धर्म कैसे होगा ? यह दृष्टिकोण विशुद्ध आध्यात्मिक होने के कारण लौकिक दृष्टि से मेल नहीं खाता है फिर भी उन्होंने जो तर्क उपस्थित किया है, वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है १. व्रताव्रत, ५.११ : इविरत सूं बंधे कर्म, तिणमें नहीं निश्चये धर्म । तीनूं करण सारिखा ए ते विरला पारिखा ए ॥ २. वही, १६, दू. ७-८ : तिण खाणो पीणो ने पेहरणों, वले उपधि उपभोग परिभोग । ते सगलाइ राख्या ते इविरत में, त्यानें भोगव्यां सावध जोग || भोगवे ते पेहले करण पाप छे, भोगवावे ते दूजे करण जाण । सरावे ते करण तीसरे, सारां रे पाप लागे छे आण॥ ३. वहीं, १.७ खायां पाप खवायां धर्म, ए अन्यतीर्थी री वायो रे । विरत इविरत री खबर न कांइ, भोलां ने दे भरमायो रे || Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १०७ जो कोई भी व्यक्ति संयम और असंयम की कसौटी से धर्म और अधर्म को कसेगा उसके सामने वे ही निष्कर्ष आयेंगे जो आचार्य भिक्षु के सामने आए थे। हम करुणा की कसौटी से धर्म और अधर्म को परखें तो उन निष्कर्षों से हमारा मतभेद कैसे नहीं होगा, जो संयम की कसौटी से परखने पर निकलें? ___ खाने वाले और लेने वालों का पाप तथा खिलाने वाले और देने वाले को धर्म होता है, यह विचित्र कसौटी है। - आचार्य भिक्षु ने कहा-भगवान् ! मैंने यह समझा है और इसी तुला से तोला है कि जिसे करना धर्म है उसका कराना और अनुमोदन करना भी धर्म है और जिसे करना अधर्म है उसका कराना और अनुमोदन करना भी अधर्म है। वृक्ष को काटने में पाप है तो उसे काटने के लिए कुल्हाड़ी देने और उसका अनुमोदन करने में भी धर्म नहीं है। गांव जलाने में पाप है तो उसे गांव जलाने के लिए अग्नि देने और उसका अनुमोदन करने में भी धर्म नहीं है। १. व्रताव्रत, ७.१६, २४ जब जीमण वाला ने पाप बतावे, हिंसा करण वाला ने कहे छे पापी। जीमावण वाला ने धर्म कहे छे, आ सरधा भेषधार्थी थापी। ते देण वाला ने तो धर्म बताये, लेवाल ने तो कहे पापज होवे। तो धर्म करण ने मूढ अग्यानी, सर्व सामग्री ने काय डबोवे॥ २. वही, १२.३३ : जीव खाधां खवायां भलो जीणीयां, तीनूई करणां पाप हो। आ सरधा परूपी छे आपरी, ते पिण दीधी आगन्यां उथाप हो। ३. वही, १५.४८ : रूंख बाढणने साझ कुहाडो दीधो, तिण कुहाडा सूं रूंख बाढ छे आणो। रूंख बाढे तिणने साज दीयो छे, त्यां दोयां ने एकंत पापज जाणो। ४. वही, १५-५०, ५३ गाम बालण ने साझ अगन रो दीधो, तिण सूं गाम बोले छे आणो। गाम बाले तिणने साझ देवे तिणने, यां दोयां रो लेखो बरोवर . जाणो॥ पाप करण रो साझ देसी तिणने, एकंत पाप लागे छे जाणो। पाप रो साझ दीयां नहीं धर्म ने मिश्र, समझो रे समझो थे मूढ अयाणो। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ : भिक्षु विचार दर्शन युद्ध करने में घाष है तो युद्ध करने के लिए शस्त्र देने और उसका अनुमोदन करने में भी धर्म नहीं है । कुछ लोगों ने कहा- जीव को मारने में पाप है, मरवाने और मारने वाले का अनुमोदन करने में पाप है, वैसे ही कोई किसी को मार रहा हो तो उसे देखने में भी पाप है। आचार्य भिक्षु ने कहा- तीन बातें ठीक हैं पर देखने वाले को पाप कहना अनुचित है ।' यदि देखने मात्र से पाप लगे तो पाप से बचा ही नहीं जा सकता। मारने, मरवाने और मारने का अनुमोदन करने से आदमी बच सकता हैं पर देखने से बचना उसके हाथ की बात नहीं है । जो सर्वज्ञ है वे सब कुछ देखते हैं । यदि देखने मात्र से पाप लगे तो वे उससे कैसे बच पायेंगे ? आचार्य भिक्षु ने जैन आगमों की इस सीमा का ही समर्थन किया कि करण, करावन और अनुमोदन - ये तीन ही धर्म और अधर्म के साधन हैं, और नहीं । ५. धर्म और पुण्य गेहूं के साथ भूसा होता है, पर भूसे के लिए गेहूं नहीं बोया जाता । धर्म के साथ पुण्य का बन्धन होता है, पर पुण्य के लिए धर्म नहीं किया जाता । जो पुण्य की इच्छा करता है, उसके पाप का बन्ध होता है । धर्म आत्मा की मुक्ति का साधन है, पुण्य शुभ परमाणुओं का बन्धन हैं। बन्धन और मुक्ति एक नहीं हो सकते । धर्म और पुण्य भी एक नहीं हो सकते । पाप लोहे की बेड़ी है और पुण्य सोने की । बेड़ी आखिर बेड़ी है, भले फिर वह लोहे की हो या सोने की । धर्म बेड़ी को तोड़ने वाला है । आत्मा में मन, वाणी और काया की चंचलता होती है, तब तक परमाणु उसके चिपकते रहते हैं । प्रवृत्ति धर्म की होती है तो पुण्य के परमाणु चिपकते हैं और प्रवृत्ति अधर्म की होती है तो पाप के परमाणु चिपकते हैं। आत्मा पर जो अणुओं का आवरण होता है, उसे हर कोई आदमी नहीं जान पाता । १. अणुकम्पा, ४ टू. २ २. नव पदार्थ, पुण्य पदार्थ १.५२ पुन तणी वंछा कीयां लागे है एकंत पाप हो लाल । तिण सूं दुःख पाये संसार में, बधतो जाये सोग-संताप हो लाल ।। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १०६ जिनकी दृष्टि विशुद्ध होती है वे उसे प्रत्यक्ष देख लेते हैं। धर्म इसलिए किया जाना चाहिए कि आत्मा इन दोनों आवरणों से मुक्त हो। . जैन-परम्परा में एक मान्यता थी कि अमुक कार्यों में धर्म होता है और अमुक-अमुक कार्यों में धर्म नहीं होता, कोरा पुण्य होता है। आचार्य भिक्षु ने इसे मान्यता नहीं दी। उन्होंने कहा-कोरा पुण्य नहीं होता। पुण्य का बन्धन वहीं होता है जहां धर्म की प्रवृत्ति होती है। धर्म मुक्ति का हेतु है इसलिए उससे पुण्य का बन्धन नहीं होता। मुक्ति और बन्धन दोनों साथ-साथ चलें तो मुक्ति हो ही नहीं सकती। धर्म की पूर्णता प्राप्त नहीं होती तब तक उसके साथ पुण्य का बन्धन होता है और धर्म की पूर्णता प्राप्त होती है तब पुण्य का बन्धन भी रुक जाता है। बन्धन रुकने के पश्चात् मुक्ति होती है। पुण्य की स्वतंत्र मान्यता के आधार पर जैनों में कई परम्पराएं चल पड़ीं। कुछ लोग खिलाकर उपवास करवाते थे। उनका विश्वास था कि ये उपवास करेंगे, इसका लाभ मिलेगा। आचार्य भिक्षु ने इसका तीव्र प्रतिवाद किया। उन्होंने यह स्मरण कराया कि धर्म खरीदने-बेचने की वस्तु नहीं है। उसका विनियम नहीं होता। दूसरे का किया हुआ धर्म और अधर्म अपना नहीं होता। ऐसा विश्वास इतर धर्मों में भी रहा है। जैसे छ लोग समझने लगते हैं कि धर्मभाव और पुण्य खरीदने-बेचने की चीज है। ब्राह्मण को दक्षिणा दी, उसने यज्ञ और जाप किया और उसका फल दक्षिणा देनेवाले के हिसाब में जमा हो गया। रोम के पोप की ओर से क्षमा-पत्र बेचे जाते थे। खरीदने वाले समझते थे कि वे क्षमा-पत्र उन्हें परलोक में पाप-दण्ड से बचा देंगे। इस प्रकार का विश्वास दाक्षणिक बन्धन है। ____ आचार्य भिक्षु ने इस विचार के विरुद्ध जो क्रान्ति की, वह उनकी एक बहुमूल्य देन है। इससे मनुष्य की अपनी पूर्ण स्वतन्त्र सत्ता और अपने पुरुषार्थ में विश्वास उत्पन्न होता है। - १. व्रताव्रत, १६.२७ पेला रो लगायो तो पाप ने लागे, आपरो लगायो पापज तागे जी। सावध जोग दोयां रा जुआ-जुआ वरत्या, त्यांरो पाप लागो छे सागे जी॥ २. दर्शन संग्रह (डॉ. दीवानचन्द). प. ५६ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० : भिक्षु विचार दर्शन ६. प्रवृत्ति और निवृत्ति जो रात को भटक जाए उसे आशा होती है कि दिन में मार्ग मिल जाएगा। पर जो दुपहरी ही में भटक जाए, वह मार्ग मिलने की आशा कैसे रखे? प्रवृत्ति और निवृत्ति की चर्चा उतनी ही पुरानी है, जितना पुराना धर्म का उपदेश है। यथार्थवादी युग में प्रवृत्ति का पलड़ा भारी होता है और आत्मवादी युग में निवृत्ति का। प्रवृत्ति का अर्थ है चंचलता और निवृत्ति का अर्थ है स्थिरता, चंचलता का अभाव। मनुष्य का सारा प्रयत्न योग और वियोग के अन्तराल में चलता है। वह प्रिय का योग चाहता है. और अप्रिय का वियोग। चाह मन में उत्पन्न होती है। मन को इन्द्रियां प्रेरित करती हैं। वे पांच हैं-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत। स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द इनके विषय हैं। हमारा ग्राह्य-जगत् इतना ही है। इन्द्रियां अपने-अपने विषय को जानती हैं और अपनी जानकारी मन तक पहुंचा देती हैं। मन के पास कल्पना-शक्ति है। वह इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार ज्ञात पदार्थों में प्रियता और अप्रियता की कल्पना करता है। फिर वह इन्द्रियों को अपने प्रिय विषय की ओर प्रेरित करता है-रत करता है, अप्रिय विषय से विरत करता है-द्विष्ट करता है। यह है इन्द्रिय और मन के विनियम का क्रम। आध्यात्मिक जगत् में इसी को प्रवृत्ति कहा जाता है। निवृत्ति का अर्थ है-इन्द्रिय और मन का संयम; राग द्वेष का नियन्त्रण। निवृत्ति का अर्थ नहीं करना ही नहीं है। इन्द्रिय और मन पर नियन्त्रण करने में भी उतना ही पुरुषार्थ आवश्यक होता है, जितना किसी दूसरी प्रवृत्ति करने में चाहिए। बल्कि कहना यह चाहिए कि निवृत्ति में प्रवृत्ति की अपेक्षा कहीं अधिक उत्साह और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। निवृत्ति का अर्थ केवल निषेध या निठल्लापन नहीं है। कोरा निषेध हो ही नहीं सकता। आत्मा में प्रवृत्ति होती है, उसका अर्थ है सांसारिक निवृत्ति। आत्मा में निवृत्ति होती है, उसका अर्थ है सांसारिक प्रवृत्ति। प्रवृत्ति धार्मिक भी होती है पर वह न कोरी प्रवृत्ति होती है और न कोरी निवृत्ति। १. व्रताव्रत, १.६२ : राते भूला तो आसा राखे, दीयां सूझसी सूला रे। कहो ने आसा राखे किण विध, दीयां दोपारां रा भूला रे॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १११ जहां अशुभ की निवृत्ति और शुभ की प्रवृत्ति हो उसे धार्मिक प्रवृत्ति कहा जाता है। मोक्ष का अर्थ है-दुःख की निवृत्ति। किन्तु दुःख की निवृत्ति ही मोक्ष नहीं है। कोरा अभाव, शून्य या तुच्छ होता है। दुःख की निवृत्ति का अर्थ है-अनन्त सुख की प्राप्ति। मोक्ष में पौद्गलिक सुख दुःख का निवर्तन होता है, इसलिए कहा जाता है-मोक्ष का अर्थ है दुःख की निवृत्ति। मोक्ष में आत्मिक सुख का सतत उदय रहता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि मोक्ष का अर्थ है-सुख की प्रवृत्ति। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों सापेक्ष हैं। जिस पुरुषार्थ का प्रेरक सांसारिक उत्साह होता है और जहां संयम की निवृत्ति होती है, उसे हम प्रवृत्ति कहते हैं और जिस पुरुषार्थ का प्रेरक धार्मिक उत्साह होता है और जहां असंयम की प्रवृत्ति नहीं होती, उसे 'हम निवृत्ति कहते हैं इस प्रकार प्रवृत्ति और निवृत्ति का प्रयोग सापेक्ष दृष्टि से किया जाता है। ____ कहा जाता है कि जीवन का लक्ष्य भावात्मक होना चाहिए, निषेधात्मक नहीं। इसमें जैन-दर्शन की असहमति नहीं है। भोगवादी जैसे जीवन का अन्तिम उद्देश्य भोगात्मक सुखानुभूति मानते हैं वैसा भावात्मक लक्ष्य नहीं होना चाहिए और आत्मवादी जैसे जीवन का अन्तिम उद्देश्य अनन्त सुख की प्राप्ति मानते हैं वैसा भावात्मक लक्ष्य होना चाहिए। आचार्य भिक्षु जैन-दर्शन के भावात्मक लक्ष्य को आधार मानकर चले। इसलिए उन्होंने असंयम की निवृत्ति और संयम की प्रवृत्ति पर अधिक बल दिया। इसीलिए कुछ लोग कहते हैं कि उनका दृष्टिकोण निषेधात्मक है। उन्होंने 'मत करो' की भाषा में ही तत्त्व का प्रतिपादन किया है। इस उक्ति में सचाई है भी और नहीं भी है। किसी एक का निषेध है, इसका अर्थ किसी एक का विधान भी है। एक धार्मिक व्यक्ति असंयम की प्रवृत्ति को अस्वीकार करता है, इसका अर्थ निषेध ही नहीं है, संयम की प्रवृत्ति का स्वीकार भी है। असंयम की भूमिका से देखा जाये तो वह निषेध है और संयम की भूमिका से देखने पर वह विधान है। ___ “ आचार्य विनोबा भावे ने निवृत्ति-धर्म पर एक टिप्पणी की है। एक भेंट का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है : ____ “हमें कुछ ऐसे जैन भाई मिले, जो कहते हैं कि दया करना निवृत्तिधर्म के खिलाफ है; आध्यात्मिकता के खिलाफ है। निवृत्ति-धर्म कहता है कि हर Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ : भिक्षु विचार दर्शन एक को अपना प्रारब्ध भोगना चाहिए। हम किसी बीमार की सेवा करने जाते हैं तो उसके प्रारब्ध में दखल देते हैं। मैं बीमार हुआ तो मान लो कि पिछले जन्म की या इस जन्म की कुछ गलती होगी। इस जन्म की गलती हो तो उसे सुधारूंगा। पुराने जन्म की हो तो प्रारब्ध भोगूंगा। इस तरह मैं अपने लिए कह सकता हूं, लेकिन लोग दुःखी या बीमार पड़े हैं और मैं ज्ञानी होकर उनसे यह कहूं कि तुम्हारा प्रारब्ध क्षय हो रहा है; उसमें मैं सेवा करके दखल नहीं दूंगा, क्योंकि मैं निवृत्ति-प्रधान हूं तो क्या कहा जाएगा? आध्यात्मवादी सेवा को ही गलत मानते हैं। यह बात ठीक है कि सेवा में अहंकार हो तो वह सेवा अध्यात्म के खिलाफ होगी, लेकिन क्या यह जरूरी है कि सेवा में अहंकार हो ही? सेवा निष्काम भी हो सकती है। भगवद्गीता ने हमें निष्काम सेवा करना सिखाया है, परन्तु लोगों ने आध्यात्मिक सेवा को यहां तक निवृत्ति-परायण बताया कि उनका सेवा या नीति से कोई सम्बन्ध नहीं रहा है।" "हम किसी बीमार की सेवा करने जाते हैं तो उसके प्रारब्ध में दखल देते हैं"-यह मान्यता किसी भी जैन सम्प्रदाय की नहीं है। जैनों का कर्मवाद कारण-सामग्री को भी मान्यता देता है। सुख के अनुकूल कारण-सामग्री मिलने पर सुख का उदय भी हो सकता है। यही बात दुःख के लिए है। हम किसी के सुख-दुःख के निमित्त बन सकते हैं। विनोबाजी ने जिस तत्त्व की आलोचना की है, वह या तो उसके सामने सही रूप में नहीं रखा गया या उन्होंने उसे अपनी दृष्टि से ही देखा है। इस चर्चा का मूल आचार्य भिक्षु के इस जीवन-प्रसंग में है: एक व्यक्ति ने पूछा-भीखणजी! कोई बकरे को मार रहा हो उससे बकरे को बचाया जाए तो क्या होगा? । ___मारने वाले को समझाकर हिंसा छुड़ाई जाए तो धर्म होगा-आचार्य भिक्षु ने कहा। चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा-'ये दो अंगुलियां हैं। एक को मारने वाला मान लो और एक को बकरा । इन दोनों में कौन डूबेगा-मरने वाला या मारने वाला? नरक में कौन जाएगा-मरनेवाला या मारनेवाला? प्रश्नकर्ता ने उत्तर दिया-मारनेवाला। १. विनोबा प्रवचन, २६ मई, १९५६ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : ११३ साधु डूब रहा हो उसे तारे या नहीं डूब रहा हो उसे? मारने वाले को समझाए या मरने वाले को? मारने वाले को समझाकर हिंसा छुड़ाए, वह धर्म है, मोक्ष का मार्ग है। दूसरा उदाहरण देते हुए आचार्य भिक्षु ने कहाः एक साहूकार के दो पुत्र हैं। एक ऋण लेता है और दूसरा ऋण चुकाता है। पिता किसको वर्जेगा? ऋण लेने वाले को या ऋण चुकानेवाले को? . साधु सब जीवों के पिता के समान हैं। मारने वाला अपने सिर ऋण करता है मरने वाला ऋण चुकाता है। साधु मारने वाले को समझाएगा कि तू ऋण क्यों ले रहा है? इससे भारी होकर डूब जाएगा, अधोगति में चला जाएगा। इस प्रकार मारने या ऋण लेनेवाले को समझााकर हिंसा छुड़ाना धर्म है। यह हृदय-परिवर्तन की मीमांसा है। आचार्य भिक्षु का दुष्टिकोण यह था कि मरने वाले को बचाने का यत्न किया जाए, यह मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है किन्तु मारने वाले को हिंसा के पाप से बचाने का यत्न किया जाए, इसमें धर्म की स्फुरणा है। विनोबाजी ने कहा है-सेवा में अहंकार होगा तो वह सेवा अध्यात्म के खिलाफ होगी। ____ कोई कहता है-सेवा में स्वार्थ हो तो सेवा अध्यात्म के खिलाफ होगी। कोई कहता है-सेवा में असंयम हो तो वह सेवा अध्यात्म के खिलाफ होगी। अध्यात्मवादी सेवा को ही गलत नहीं मानते हैं। वे उसे अनेक दृष्टिकोणों से देखते हैं और उसे अनेक भूमिकाओं में विभक्त करते हैं। डॉक्टर मनुष्य-समाज की सेवा के लिए नये-नये प्रयोग करते हैं। महात्मा गांधी ने उनकी आलोचना की है। वे लिखते हैं- “अस्पताल तो पाप की जड़ हैं। उनके कारण मनुष्य अपने शरीर की तरफ से लापरवाह हो जाता है और अनीति बढ़ती है। अंग्रेज डॉक्टर तो सबसे गये बीते हैं। वे शरीर की झूठी सावधानी के लिए ही हर साल लाखों जीवों की जान लेते हैं। जीवित प्राणियों पर वे विभिन्न प्रयोग करते हैं। यह बात किसी धर्म में नहीं है। १. भिक्ख दृष्टान्त, १२८, पृ. ५४ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ : भिक्षु विचार दर्शन हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी-सभी धर्म यही कहते हैं कि मनुष्य के शरीर के लिए इतने जीवों की जान लेने की जरूरत नहीं है।' .. युद्ध में लड़ने वाले सिपाहियों की सेवा को भी युद्ध को प्रोत्साहन देना माना है। आचार्य भिक्षु ने कहा-असंयमी की सेवा असंयम को और संयमी की सेवा संयम को प्रोत्साहन देती है। इन दृष्टियों से यह स्पष्ट है कि सेवा न तो अध्यात्म के सर्वथा अनुकूल है और न सर्वथा प्रतिकुल। सामाजिक भूमिका में रहनेवालों के लिए समाज-सेवा का निषेध नहीं हो सकता, भले फिर वह असंयम की सीमा में ही क्यों न हो। मनियों के लिए भी समाज-सेवा का सर्वथा विधान नहीं किया जा सकता, क्योंकि उनकी भी अपनी कुछ सीमाएं हैं। समाज और अध्यात्म की रेखाएं समानान्तर होते हुए भी मिलती नहीं है। सामाजिक प्राणी के लिए असंयम की निवृत्ति की उपयोगिता है और वह भी एक सीमा तक। पर आध्यात्मिक प्राणी के लिए असंयम की निवृत्ति परम धर्म है और वह भी निस्सीम रूप में। प्रवृत्ति और निवृत्ति की भाषा और उनका महत्त्व सबके लिए एक-रूप नहीं है। * दया शब्द दो भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। एक भावना सामाजिक है और दूसरी धार्मिक। समर्थ व्यक्ति असमर्थ व्यक्ति के कष्टों से द्रवित हो उठता है, यह दीन के प्रति उत्कृष्ट की सहानुभूति है। इस भावना की अभिव्यक्ति दया शब्द से होती है। एक व्यक्ति समर्थ या असमर्थ सभी जीवों को कष्ट देने का प्रसंग आते ही द्रवित हो जाता है। यह एक आत्मा की शेष सब आत्माओं के प्रति समता की अनुभूति है। इस भावना की अभिव्यक्ति भी दया शब्द से होती है इसलिए यह कहना उचित है कि दया शब्द दो भावओं का प्रतिनिधि है। द्रवित होने के बाद दो कार्य हैं-कष्ट न देना और कष्टों का निवारण करना। कष्ट न देना, यह सर्वसम्मत है और कष्टों का निवारण करना इसमें कई प्रश्न उपस्थित होते हैं। इसलिए आचार्य भिक्षु ने कहा-सब टया-दया पुकारते हैं। दया धर्म सही है पर १. हिन्दी स्वराज्य, पृ. ६२ २. हिन्दी नवजीवन, २० सितम्बर, १६२८ का अंक Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : ११५ मुक्ति उन्हीं को मिलेगी जो उसे पहचान कर उसका पालन करेंगे। दया के नाम के भूलावे में मत आओ। गहराई में पैठो, उसे परखो। कष्ट-निवारण क्यों किया? कैसे किया जाए? और किसका किया जाए? इसका एक उत्तर नहीं है। समाज-धर्म की भूमिका से इनका उत्तर मिलता है-कष्टों का निवारण जीवों को सुखी बनाने के लिए किया जाए, जैसे-तैसे किया जाए और मनुष्यों का किया जाए और जहां मनुष्य-जाति के हित में बाधा न पड़े, वहां औरों का भी किया जाए। ___ आत्म-धर्म की भूमिका से इनका उत्तर मिलता है-कष्टों का निवारण आत्मा को पवित्र बनाने के लिए किया जाए, शुद्ध साधनों के द्वारा किया जाए और सबका किया जाए। व्यास के शब्दों में अष्टादश पुराणों का सार यह है कि परोपकार से पुण्य होता है और पर-पीड़न से पाप। किन्तु यह एक सामान्य सिद्धान्त है दूसरों को पीड़ित नहीं करना चाहिए, यह संयमवाद है। इसलिए आत्म-धर्म की भूमिका में यह सर्वथा स्वीकार्य है, वैसे समाज-धर्म की भूमिका में नहीं है। समाज के क्षेत्र में असंयम को भी स्थान प्राप्त है। दूसरों का उपकार करना चाहिए, यह समाजवाद है। इसलिए समाज-धर्म की भूमिका में यह सर्वथा स्वीकार्य है, वैसे आत्म-धर्म की भूमिका में नहीं है। आत्म-धर्म के क्षेत्र में असंयम को स्थान प्राप्त नहीं है। समाज के क्षेत्र में असंयम का सर्वथा परिहार नहीं हो सकता। और धर्म के क्षेत्र में असंयम का अंशतोऽपि स्वीकार नहीं हो सकता। इस दृष्टि को ध्यान में रखकर आचार्य भिक्षु ने दया और उपकार को दो भागों में विभक्त किया-लौकिक दया और लोकोत्तर दया; लौकिक उपकार और लोकोत्तर उपकार, समाज धर्म और आध्यात्मिक धम् । जिसमें संयम और असंयम का विचार प्रधान न हो, किन्तु करुणा ही प्रधान हो, वह लौकिक दया है। जहां करुणा संयम से अनुप्राणित हो, वह -- १. अणुकम्पा : ८, दू. १: २. वही, १, दू. ४ : Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ : भिक्षु विचार दर्शन लोकोत्तर दया है। अग्नि में जलते हुए को किसी ने बचाया, कुएं में गिरते हुए को किसी ने उबारा-वह लौकिक उपकार है। ___जन्म-मृत्यु की अग्नि में झूलसते हुए को संयमी बना किसी ने बचाया, पाप के कुएं में गिरते हुए को उपदेश देकर किसी ने उबारा-यह लोकोत्तर उपकार है। किसी दरिद्र को धन-धान्य से संपन्न कर सुखी बना देना लौकिक उपकार है। एक आदमी तृष्णा की आग में झुलस रहा है, उसे उपदेश देकर शांत बना देना लोकोत्तर उपकार है। एक आदमी अपने माता-पिता की दिन-रात सेवा करता है, उन्हें मनचाहा भोजन कराता है, यह लौकिक उपकार है। एक आदमी अपने माता-पिता को ज्ञान, श्रद्धा और चारित्र की प्राप्ति हो वैसा यत्न करता है, उन्हें धार्मिक सहयोग देता है, यह लोकोत्तर उपकार है। कहा जाता है-लौकिक और आध्यात्मिक का भेद डालकर जीवन को विभक्त करना अच्छा नहीं है। इससे लौकिक कर्तव्य और धर्म के बीच खाई हो जाती है। आचार्य भिक्षु-का दृष्टिकोण था कि इनके बीच खाई है। कुछ १. अणुकम्पा, ८.२ : कोई द्रवे लाय सूं बलतो राखे, द्रवे कूवो पड़ता ने झाल बचाओ। ओ तो उपगार कीयो इण भव रो, जे विवेक विकल त्यांने खबर न कांयो। २. वही, ८.३: घट में ग्यान घाल ने पाप पचखावे, तिण पड़तो राख्यो भव कूआ मांझो। भावे लाय सूं बलता ने काढ़े रिषेश्वर, ते पिण गेहलां भेद न पायो॥ ३. वही, ११.४ : ४. वही, ११.१५ : किणरे तिसणा लाय लागी घर भीतर, ग्यानादिक गुण बले तिण माय। उपदेश देइ तिणरो लाय बुझावे, रूम रूम में साता दीधी वपराध। ५. वही, ११.१८ : मात पितारी सेवा करे दिन रात, वले मन मान्या भोजन त्यांने खवावे। वले कावड कांधे लीयां फिर त्यांरी, वले बेहूं टंका रो सिनान करावे॥ ६. वही, ११.१६ : कोइ मात पिता ने रूडी रीते, भिन भिन कर ने धर्म सुणावे। ग्यान दरसन चारित त्यांने पभावे, काम भोग शब्दादिक सर्व छोड़ावे॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : ११७ लोगों का कहना था कि लौकिक कर्त्तव्यों को धर्म से पृथक् मानने पर उनके प्रति उपेक्षा का भाव बढ़ता है और दायित्व को निभाने पर कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं । आचार्य भिक्षु का दृष्टिकोण यह था कि इन्हें एक मानने से मोक्ष के सिद्धान्त पर प्रहार होता है । जिस कार्य से संसार चले, बन्धन हो, उसी से यदि मुक्ति मिले तो फिर बन्धन और मुक्ति को पृथक् मानने की आवश्यकता है? बन्धन और मुक्ति यदि एक हों तो उनकी सामग्री भी एक हो सकती है और यदि वे भिन्न हो तो उनकी सामग्री भी भिन्न होगी । राग-द्वेष और मोह से संसार का प्रवाह चलता है तो उससे मुक्ति कैसे प्राप्त होगी? वीतराग भाव से मुक्ति प्राप्त होती है तो उससे संसार कैसे चलेगा? दोनों भिन्न दिशाएं हैं। उन दोनों का एक बनाने का यत्न करने पर भी हम एक नहीं बना सकते। लौकिक दृष्टि से देखा जाए तो कर्त्तव्य का स्थान सर्वोपरि है । आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो सर्वोपरि स्थान है धर्म का । दोनों को एक दूसरे की दृष्टि से देखा जाए तो उलझन बढ़ती है। दोनों को अपनी-अपनी दृष्टि से देखा जाए तो अपने-अपने स्थान में दोनों का महत्त्व है । लौकिक दया के साथ अहिंसा की व्याप्ति नहीं है, इसलिए अहिंसा और दया भिन्न तत्त्व हैं । लोकोत्तर दया और अहिंसा की निश्चित व्याप्ति है । जहां दया है वहां अहिंसा है और जहां अहिंसा है वहां दया है । इस दृष्टि से अहिंसा और दया एक तत्त्व हैं । ७. दया कुछ सम्प्रदाय के साधुओं ने कहा- हम जीव बचाते हैं, भीखणजी नहीं बचाते । आचार्य भिक्षु ने कहा- जीव बचाने की बात रहने दो, उन्हें मारना तो छोड़ो। आपने कहा- एक पहरेदार था । उसने पहरा देना छोड़ दिया और चोरी करने लगा। उसने गांव के लोगों से कहा- मैं पहरा देता हूं इसलिए मुझे पैसा दो। लोग बोले- पहरा देना दूर रहा, चोरी करना ही छोड़ दो ।' प्राणिमात्र के प्रति जो संयम है, वह अहिंसा है। प्राणिमात्र के प्रति जो मैत्रीभाव है, उन्हें पीड़ित करने का प्रसंग आते ही हृदय में एक कंपन हो जाता है, वह दया है। दया के बिना अहिंसा नहीं हो सकती और अहिंसा के बिना दया नहीं हो सकती। इन दोनों में अविनाभाव सम्बन्ध है । सर्व १. भिक्खु दृष्टान्ट, ६५, पृ. २६-२७ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ : भिक्षु विचार दर्शन जीवों के प्रणातिपात से दूर रहना पहला महाव्रत है। इसमें समूची दया समायी हुई है। किसी भी प्राणी को भयाकुल न करना यह अभयदान है। यह भी दया या अहिंसा का ही दूसरा नाम है। . स्वयं न मारना, दूसरों से न मरवाना और मारने वाले को अच्छा न समझना-यह अभयदान है और यही दया है। जिसे अभयदान की पहचान नहीं है, वह दया को नहीं पहचानता। ८. दान कुछ लोग आकर बोले-भीखणजी! आपका अभिमत ही ऐसा है कि आपके श्रावक दान नहीं देते। आचार्यवर ने कहा-एक शहर में चार बजाज दुकान करते थे। उनमें से तीन बजाज बारात में गए, पीछे एक बजाज रहा। कपड़े के ग्राहक बहुत आए। कहिए, इससे बजाज राजी होगा या नाराज? वे बोले-वह तो प्रसन्न ही होगा। आचार्यवर ने कहा-तुम कहते हो, भीखणजी के श्रावक दान नहीं देते, तो जितने याचक हैं वे सब तुम लोगों के पास ही आयेंगे। धर्म और पुण्य का लाभ सारा का सारा तुम्हीं को प्राप्त होगा, यह तुम लोगों के लिए १. अणुकम्पा , ६.८ आहिज दया छे महावरत पहलो, तिण में दया दया सर्व आई जी। ते पूरी दया तो सायो पाले, बाकी दया रही नहीं कार्ड जी॥ २. वही, ६.४: त्रिविधे त्रिविधे छ काय जीवां ने, भय नहीं उपजावे तामो जी। ए अभयदान कह्यो भगवंते, ते पिण दया रो नामो जी। ३. वही, ६, दू: १-२ पोते हणे हणावे नहीं, पर जीवां ना प्राण । हणे जिणने भलो जाणे नहीं, ए नव कोटी पचखाण॥ ए अभय दान दया कही, श्री जिण आगम माय। तो पिण वंध उठावीयो, जेनी नाम धराय॥ ४. वही, ६, दू. ३ अभय दान न ओलख्यो, दया री खबर न कांय। भोला लोकां आगले, कूडा चोज लगाय॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : ११६ खुशी की बात है। फिर तुम किसलिए कोसने आए हो कि भीखणजी के श्रावक दान नहीं देते? ___दान भारतीय साहित्य का. सुपरिचित शब्द है। इसके पीछे अनुग्रह का मनोभाव रहा है। एक समर्थ व्यक्ति दूसरे असमर्थ व्यक्ति को दान देता है, इसका अर्थ है, वह उस पर अनुग्रह करता है। दान की परम्परा में असंख्य परिवर्तन हुए हैं। प्रत्येक परिवर्तन के पीछे एक विशिष्ट मान्यता रही है। प्राचीन काल में राजाओं की ओर से दानशालाएं चलती थीं। दुर्भिक्ष आदि में उनकी विशेष व्यवस्था की जाती थी। पद-यात्रियों को भी आहार आदि का दान दिया जाता था। सार्वजनिक कार्यों के लिए दान देने की प्रथा सम्भवतः नहीं जैसी थी। उस समय दान समांज-व्यवस्था का एक प्रधान अंग था। उससे पूर्वकाल में जाते हैं तो दान जैसा कोई तत्त्व था ही नहीं। न कोई देने वाला था और न कोई लेनेवाला। भगवान् ऋषभनाथ ने दीक्षा से पूर्व दान देना चाहा, पर कोई लेने वाला नहीं मिला। भगवान् ऋषभनाथ श्रमण बने। एक वर्ष तक उन्हें कोई भिक्षा देने वाला नहीं मिला, उसके पश्चात् श्रेयांसकुमार ने उन्हें इक्षुरस का दान दिया। __साधुओं को दान देने का प्रवर्तन हुआ तब यह प्रश्न मोक्ष से जुड़ गया, धर्म का अंग बन गया। समाज में दीन-वर्ग की सृष्टि हुई तब दान करुणा से जुड़ गया। - याचकों ने दान की गाथाएं गायीं। दान सर्वोपरि तत्त्व बन गया। इससे अकर्मण्यता बढ़ने लगी, तब दान के लिए पात्र, अपात्र की सीमाएं बनने लगीं। इससे दाताओं का गर्व बढ़ने लगा, तब दाता के स्वरूप की मीमांसा की जाने लगी। मांगने वालों का लोभ बढ़ गया, तब देय की मीमांसा होने लगी। दान के कारणों का विशद विवेचन हुआ। भारतीय साहित्य के हजारो-लाखों पृष्ठ इन मीमांसाओं से भरे हैं। आचार्य भिक्षु ने इस अध्याय में कुछ पृष्ठ और जोड़ दिए। उन्होंने दान का मोक्ष और संसार की दृष्टि से विश्लेषण किया। उनका अभिमत है कि जो लोग समूचे दान को धर्म मानते हैं, वे धर्म की १. भिक्खु दृष्टान्त, १४६, पृ. ६० Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० : भिक्षु विचार दर्शन शैली को नहीं जान पाए हैं। वे आक और गाय के दूध को एक मान रहे हैं।' मोक्ष का मार्ग संयम है। असंयमी को दान दिया जाए और उसे मोक्ष का मार्ग बताया जाए - यह विरोध है । दान को धर्म बताए बिना लोग नहीं देते, इसलिए सम्भव है दान को धर्म बताया जाता है । ' आचार्य भिक्षु की समूची दान-मीमांसा का सार इन शब्दों में है कि संयमी को दिया जाए, वह दान मोक्ष का मार्ग है और असंयमी को दिया जाए, वह दान संसार का मार्ग है। संयमी को दान देने से संसार घटता है और असंयमी को दान देने से संसार बढ़ता है। दाता वहीं होता है जो संयमी या असंयमी सभी को दे । वह पग-पग पर संयमी असयमी की परख करने नहीं बैठता । अपने व्यवहार में जिसे संयमी मानता है, उसे मोक्ष मार्ग की बुद्धि से देता है और जिसे असंयमी मानता है, उसे संसार - मार्ग की बुद्धि से देता है । 1 निश्चय - दृष्टि का निर्णय व्यवहार-दृष्टि से भिन्न भी हो सकता है । सम्भव है जिसे संयमी माना जाए, वह वास्तव में असंयमी हो और जिसे असंयमी माना जाए, वह वास्तव में संयमी हो । यह व्यक्तिगत बात है सिद्धान्त की भाषा में यही कहा जा सकता है कि संयमी को दान देना मोक्ष का मार्ग है और असंयमी को दान देना संसार का मार्ग है। संयमी और असंयमी की परिभाषा अपनी-अपनी हो सकती है। आचार्य भिक्षु की १. व्रताव्रत, २.१४ : समुचे दान में धर्म कहे तो, नाइ जिण धर्म सेली रे । . आक ने गाय रो दूध अग्यानी, कर दीयो भेल संभेल रे || २. वही, २.१५ : इविरत में दान ले पेलां रो, मोष रो मार्ग बतावे रे। धर्म कह्यांविण लोक नहीं दे, जब कूर कपट चलावे रे || ३. वही, १६.५७ : सुपारत ने दीयां संसार घटे छे, कुपातर ने दीयां वधे संसार | ए वीर वचन साचा कर जाणो, तिणमें संका नहीं छे लिगार रे || ४. वही, १६.५० : देवे, तिणने कहीजे दातार । पातर कुपातर हर कोइ ने तिणमें पातर दान मुगत से पावडीयो, कुपातर सूं रूले संसार रे॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १२१ भाषा यह है कि जो पूर्ण अहिंसक हो वह संयमी है और जो मनसा, वाचा, कर्मणा, कृत, कारित और अनुमति से अहिंसा का पालन न करे वह असंयमी है। 1 असंयमी मोक्ष दान का अधिकारी नहीं है । जिसमें कुछ व्रत हों, वह संयामा संयमी भी मोक्ष-दान का अधिकारी नहीं है । एक आदमी छह काय के जीवों को मारकर दूसरों को खिलाता है, यह हिंसा का मार्ग है।' जीवों को मारकर खिलाने में पुण्य बत्तलाते हैं, वे सिंह की भांति निर्भय होकर नाद नहीं करते। उन्हें पूछने पर मेमने की भांति कांपने लग जाते है । जो जीवों को मारकर खिलाने में पुण्य बतलाते हैं, उनकी जीभ तलवार की तरह चलती है । ३ एक दादूपंथी सम्प्रदाय का साधु आचार्य भिक्षु का व्याख्यान सुनने आया । वह व्याख्यान सुन बहुत प्रसन्न हुआ। वह बहुत बार आने लगा । एक दिन उसने आचार्य भिक्षु से कहा- आप अपने श्रावकों को कह दें किं मुझे रोटी खिलाएं। भिक्षु बोले- श्रावकों को कहकर तुम्हें रोटी खिलाएं, चाहे हम अपनी रोटी तुम्हें दें इसमें क्या अन्तर है? तब उसने कहा - तो आप दान का निषेध करते हैं? आचार्य भिक्षु ने कहा- देने वालों को मनाही करो चाहे किसी से छीन लो, इसमें क्या अन्तर है?* लोग कहते हैं - आचार्य भिक्षु ने दान का निषेध किया है। आचार्य भिक्षु का अभिमत है कि निषेध करने में और छीनने में कोई अन्तर नहीं है । उनकी वाणी है-दाता दे रहा हो, लेने वाला ले रहा हो। उस समय १. व्रताव्रत, १७.६ : कोइ छ काय जीवां रो गटको करावे, अथवा छ काय भार ने खवावे । ओ जीव हिंसा नो राहज खोटो, तिण में एकंत धर्म ने पुन बतावे ॥ २. वही, १७.२६ : जीव खवायां में पुन परूपे, ते सीह तणी परे कदे न गूंजे। परगट कहितां मूंडा दीसे, त्यांने प्रश्न पूछ्यां गाडर जिम धूजे || ३. वही, १७.२६ : जीव खवायां में पुन परूपे, त्यां दुष्ट्यां ने कहिजे निश्चे अनारज । त्यांरी जीभबहे तरवार सूं तीखी, त्यां विकलां रा किण विध सीझसी कारज ॥ ४. भिक्खु दृष्टान्त, २४५, पृ. ६८ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ : भिक्षु विचार दर्शन साधु उसे रोके तो लेने वाले का अन्तराय होता है, इसलिए साधु वैसा नहीं कर सकता। साधु वर्तमान में असंयमी-दान की न तो प्रशंसा करे और न उसका. निषेध करे, किन्तु मौन रहे।-धर्म-चर्चा के प्रसंग में दान के यथार्थस्वरूप का विश्लेषण करे। इस पर भी कुछ लोगों ने कहा-दान को धर्म न मानने का अर्थ ही उसका निषेध है। आचार्य भिक्षु ने इसका समाधान किया कि दान देने वाले को कोई कहे कि तू मत दे, वह दान का निषेध करने वाला है। किन्तु दान जिस कोटि का हो उसी कोटि का बतलाया जाए, वह निषेध नहीं है, वह ज्ञान की निर्मलता है। भगवान् ने असंयमी को दान देने में धर्म नहीं कहा, इसका अर्थ यह नहीं कि भगवान् ने दान का निषेध किया है। इसका अर्थ इतना ही है कि जिसका जो स्वरूप था, वही बतला दिया। किसी व्यक्ति ने साधु से कहा-तुम मेरे घर भिक्षा लेने मत आना। दूसरे व्यक्ति ने साधु को गालियां दीं। जिसने निषेध किया, उसके घर साधु भिक्षा लेने नहीं जाता है। जिसने गालियां दी उसके घर भिक्षा लेने जाता है : कारण यह है कि निषेध करना और कठोर वचन बोलना एक भाषा में नहीं समाते। इसी प्रकार दान देने का निषेध करना और दान को अधर्म १. भिक्खु दृष्टान्त, ३.१७-२१ : दाता र दान देवे तिण काले, लेवाल लेवे धर पीतो रे। जब साध कहे तूं मत दे इणने, नपेधणो नहीं इण रीतो. रे॥ जो दान देता ने साध नपेदे तो, लेवाल रे पडे अंतरायो रे। अंतराय दीयां फल कडवा लागे, तिणसूं नषेध न करे इण न्यायो रे।। अंतराय सूं डरतो साधु न बोले, और परमारथ मत जाणो रे। ते पिण मून छे वरतमान काले, बुधवंत कीजो पिछाणो रे॥ उपदेश देवे साध तिण काले, दूध पाणी ज्यूं करे जीवेरो रे। विनां बतायां च्यार तीरथ में, किण विध मिटे अंधेरो रे॥ टोनं भापा साधु नहीं बोले, पुन छे अथवा पुन नाहीं रे। ते धरज्यो वरतमानं काल आसरी, थे च देखो मन माहीं रे॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १२३ बतलाना भिन्न-भिन्न भाषाएं हैं। इनका एक ही भाषा में समावेश नहीं होता। २. व्रताव्रत, ३.३६-४३: दान देतां कहे तूं , मत दे इण ने, तिण पाल्यो निषेध्यो दानो । पाप हुतो ने पाप बतायो, तिणरो छे निरमल ग्यानो रे॥ असंजती ने दांन दीयां में, कहि दीयो भगवंत पापो रे। त्यां दान ने वरज्यो निषेध्यो नाही, हुंती जिसी कीधी थापो रे॥ किण ही साधु कह्यो आज पछे तू, म्हारे घर कदे मत आयो रे। किण ही एक करडा वचनज बोल्यो, हिवे साधु किसे घर माहे जावे रे॥ साधां ने वरज्यों तिण घर में न पेसे, करडा कह्या तिण घर माहे जावे रे। निषेध्यो ने करडो बोल्यो ते, दोन एकण भाषा में न समावे रे॥ ज्यूं कोई दान देतां वरज राखे, कोइ दीधां में पाप बतावे रे। ए दोनई भाषा जुदी-जुदी छे, ते पिण एकण भाषा में न समावे रे॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. क्षीर-नीर १. सम्यक् दृष्टिकोण जीभ की दवा आंख में डालने से और आंख की दवा जीभ में लगाने से आंख फूट जाती है और जीभ फट जाती हैं, दोनों इन्द्रियां नष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार जो अधर्म के कार्य का धर्म में और धर्म के कार्य का अधर्म में समावेश करता है, वह दोनों प्रकार से अपने आपको बांध लेता है। दया, दान और परोपकार-ये तीन तत्त्व सामाजिक जीवन के आधार-स्तम्भ रहे हैं। धर्म की आराधना में भी इनका स्थान महत्त्वपूर्ण रहा है। समाज की व्यवस्था बदलती रहती है। जिस समाज में उच्चता और नीचता निसर्ग-सिद्ध मानी जाती थी, उसमें दया, दान और परोपकार को विकसित होने के अवसर मिला। आज समाज की व्यवस्था बदल चुकी है। इसमें समान अधिकार का सिद्धान्त विकास पा रहा है। बड़ों और छोटों के वर्ग-भेद को इसमें स्थान नहीं है। जब बड़ों और छोटों में भेद मिटने लगता है, तब दया, दान और परोपकार सिमटने लग जाते हैं। आचार्य भिक्ष ने जब दया-दान का विश्लेषण किया, उस समय की समाज-व्यवस्था में उन्हें बहुत महत्त्व दिया जाता था। आज की व्यवस्था में 'समान अधिकार' देने का जो है, वह दया दिखाने का नहीं है। जो महत्त्व सहयोग का है, वह दान और परोपकार का नहीं है। समाज-व्यवस्था परिवर्तनशील है, इसलिए परिवर्तन भी स्वाभाविक है एक व्यवस्था में उसके अनुरूप तत्त्व विकसित १. व्रताव्रत, ४.४-५ : जीभ रो ओषद आंख्यां में घाल्यो, आंख्यां रो ओषद जीभ में घाल्यो रे। तिण री आंखई फूटी ने जीभई फाटी, दोइ इंद्री खोय चाल्यो रे॥ ज्यूं अधर्म रा कामा धर्म माहे घाल्या, धर्म रा कामा अधर्म में घाल्या रे। दोई विध कर्म बांधे अज्ञानी, दुरगत माहे चाल्या रे।। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीर-नीर : १२५ होते हैं और दूसरी व्यवस्था में वे बदल जाते हैं। धर्म अपरिवर्तनशील है। उसमें दया, दान और परोपकार की मान्यता व्यवस्था से उत्पन्न नहीं है। वह संयम से जुड़ी हुई है। संयम का विकास हो वहीं दया हो सकती है, वहीं दान और परोपकार। जो वर्तमान के असंयम को सहारा दे, वहां न दया है, न दान और न परोपकार । आचार्य भिक्षु ने कहा-यह लोकोत्तर भाषा है। लौकिक भाषा इससे भिन्न है और बहुत भिन्न है। उसके पास मानदण्ड है, भावों का आवेग या मानसिक कम्पन और लोकोत्तर भाषा संयम के मानदण्ड से माप कर बोलती है। ___ आचार्य भिक्षु के इस अभिमत के स्पष्टीकरण के बाद जो प्रश्न उपस्थित हुए, उनमें सर्वाधिक प्रभावशाली प्रश्न सेवा का है। निःस्वार्थ भाव से सेवा करना क्या धर्म नहीं है? क्या हृदय की सहज स्फूर्त करुणा धर्म नहीं है? इसे अधर्म कहना भी तो बहुत बड़े साहस की बात है। जिस समाज में रहना और उसी की सेवा को धर्म न मानना बहुत ही विचित्र बात है। आपने समाचार-पत्रों में बहुत बार यह शीर्षक पढ़ा होगा-“यह सच है, आप माने या न माने।" बहुत सारी बातें ऐसी होती हैं, जिन पर सहसा विश्वास नहीं होता, पर वास्तव में वे सच होती हैं और कुछ बातें ऐसी होती है जो वस्तुतः सच नहीं होतीं, परन्तु उन पर सहसा विश्वास हो जाता है। समाज सेवा में धर्म नहीं, यह सुनते ही आदमी चौंक उठता है। किसी भी वस्तु के स्थूल दर्शन के साथ सचाई का लगाव इतना नहीं होता, जितना कि संस्कारों का होता है। जो लोग सेवा मात्र को धर्म मानते थे, उनको लक्षित कर महात्मा गांधी ने कहा-"जो मनुष्य बन्दूक धारण करता है और जो उसकी सहायता करता है, दोनों में अहिंसा की दृष्टि से कोई भेद दिखाई नहीं पड़ता। जो आदमी डाकुओं की टोली में उसकी आवश्यक सेवा करने, उसका भार उठाने, जब वह डाका डालता हो तब उसकी चौकीदारी करने, जब वह घायल हो तो उसकी सेवा करने का काम करता है, वह उस डकैती के लिए उतना ही जिम्मेदार है, जितना कि वह खुद डाकू। इस दृष्टि से जो मनुष्य युद्ध में घायलों की सेवा करता है, वह युद्ध के दोषों से मुक्त नहीं रह सकता।" १. आत्मकथा, भाग ४ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ : भिक्षु विचार दर्शन "अहिंसा की दष्टि से शस्त्र धारण करने वालों में और निःशस्त्र रहकर घायलों की सेवा करने वालों में कोई फर्क नहीं देखता हूं। दोनों ही लड़ाई में शामिल होते हैं और उसी का काम करते हैं, दोनों ही लड़ाई के दोष के दोषी हैं।" गांधीजी ने युद्ध के सम्बन्ध में जो विचार व्यक्त किए, वे ही विचार आचार्य भिक्षु ने जीवन-युद्ध के बारे में व्यक्त किए। सामाजिक क्रांति की दृष्टि से जहां मनुष्यों को दूसरे मनुष्यों को मारने की खुली छूट होती है, वह युद्ध है। मोक्ष की दृष्टि से जहां एक जीव में दूसरे जीव को मारने की भावना या वृत्ति होती है, वह युद्ध है। अर्थात् जीवन ही युद्ध है। युद्ध में लगे जीवों की सहयात करने वाला युद्ध के दोषों से मुक्त नहीं रह सकता-यह महात्मा गांधी की वाणी है। आचार्य भिक्षु की वाणी है- असंयममय जीवन-युद्ध में संलग्न जीवों की सहायता करने वाला असंयममय जीवन-युद्ध के दोषों से मुक्त नहीं रह सकता। पहली बात सूक्ष्म है और दूसरी सूक्ष्मतर। इसलिए इन पर सहसा विश्वास नहीं होता, पर इनकी सचाई में संदेह नहीं किया जा सकता। आचार्य भिक्षु ने कहा-कोई व्यापारी घी और तम्बाकू दोनों का व्यापार करता था। एक दिन वह किसी कार्यवश दूसरे गांव गया। उसका पुत्र दुकान में बैठा। उसने देखा कि एक बर्तन में घी पड़ा है और दूसरे में तम्बाकू। दोनों आधे-आधे थे। उसने सोचा-पिताजी कितने कम समझदार हैं, बिना मतलब दो पात्र रोक रखे हैं। उसने घी का पात्र उठाया और तम्बाकू में उड़ेल दिया। उन्हें मिलाकर राब-सी बना ली। ग्राहक आया तम्बाक लेने। उसने वह राब दी। ग्राहक बिना लिए लौट गया। दूसरा ग्राहक आया घी लेने। वही राब उसके सामने आयी। वह भी खाली लौट गया। जितने भी ग्राहक आए, वे सारे के सारे रीते हाथ लौट गए। वह पात्र खाली न हो तब तक दूसरा पात्र निकालने की पिताजी मनाही कर गए थे, उसे समूचे दिन इस समस्या का सामना करना पड़ा। १. हिन्दी नवजीवन, २० सितम्बर, १६२८ २. व्रताव्रत, ४.१ : जिम कोइ प्रत तंबाकू विणजे पिण वासण विगत न पाडे रे। व्रत लेइ तंबाखू में घाले, ते दोई वसत विगाडे रे॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीर-नीर : १२७ उस व्यक्ति को भी इसी प्रकार की कठिनाई का सामना करना पड़ता है, जो आध्यात्मिक और लौकिक कार्यों का मिश्रण करता है। ____ आचार्य भिक्षु के अभिमत में "मिश्रण' अनुचित है। इसका विरोधी विचार समाज-सेवियों का है। उनके अभिमत में सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक पहलुओं को अलग-अलग मानना अनुचित है। इन दिनों हम लोगों में जीवन के टुकड़े करने की आदत पड़ गई है। सामाजिक पहलू अलग, नैतिक पहलू अलग, आध्यात्मिक पहलू अलग-इस तरह अलग-अलग पहलू बनाए गए हैं। उसका परिणाम यह हुआ है कि सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले नीति-विचार के बारे में सोचते नहीं, नीति का काम करने वाले समाज के मसले हाथ में नहीं लेते और अध्यात्मवादी दोनों तरफ ध्यान नहीं देते। इस तरह टुकड़े करके हमने जीवन को छिन्न-विछिन्न कर दिया ये दोनों विचार परस्पर-विरोधी हैं। एक की दिशा है कि सामाजिक और आध्यात्मिक कार्यों का मिश्रण मत करो, दूसरे की दिशा है कि इन्हें बांटकर जीवन के टुकड़े मत करो। इन दोनों दिशाओं में से प्रश्न उठते हैं-क्या जीवन विभक्त ही है? क्या जीवन अविभक्त ही है? एकान्त की भाषा में इसका उत्तर नहीं दिया जा सकता और यदि दिया जाए तो वह सच नहीं होगा। इसका यथार्थ उत्तर होगा कि वह विभक्त भी है और अविभक्त भी। वह विभक्त इसलिए है कि सारी प्रवृत्तियां एक ही जीवन में होती हैं। विभाजन प्रवृत्तियों का होता है, उनके आधार का नहीं। एकता आधार में होती है, उनकी प्रवृत्तियों में नहीं। दोनों के समन्वय की भाषा यह होगी कि आधार होने के नाते जीवन एक है अविभक्त है और उसमें अनेक कार्य होते हैं, इस दृष्टि से वह अनेक है, विभक्त है। भगवान् महावीर ने तीन पक्ष बतलाए-अधर्म-पक्ष, धर्म-पक्ष और मिश्र-पक्ष। हिंसा और परिग्रह से जो किसी प्रकार निवृत्त नहीं हैं वे अधर्म-पक्ष में समाते हैं, उनसे जो सर्वथा निवृत्त हैं, वे धर्म-पक्ष में हैं और जो लोग किसी सीमा तक उनसे निवृत्त भी हैं और शेष सीमा में निवृत्त नहीं भी है, वे भी अधर्म-पक्ष में ही १. विनोबा प्रवचन, पृ. ४४० २. सूत्रकृतांग, २-१ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ : भिक्षु विचार दर्शन हैं। मिश्र-पक्ष में अहिंसा और हिंसा दोनों हैं। आवश्यक हिंसा का जितना संवरण किया है, वह जीवन का अहिंसा-पक्ष है और जीवन में आवश्यक हिंसा का जितना प्रयोग है, वह उसका हिंसा-पक्ष है। ये दोनों जीवन में मिश्रित हैं, क्योंकि इनका आधार एक ही जीवन है। पर ये दोनों मिश्रित नहीं हैं, क्योंकि इनका स्वरूप सर्वथा भिन्न है। जीवन में सारी प्रवृत्तियां अहिंसक ही होती हैं-ऐसा कौन कहेगा? और सारी प्रवृत्तियां हिंसक ही होती हैं, ऐसा भी कौन कहेगा? अहिंसक और हिंसक दोनों प्रकार की प्रवृत्तियां होती हैं, उन्हें एक कोटि की कौन कहेगा? आचार्य भिक्षु ने जीवन-विभाजन की जो रेखा खींची, वह यही है। व्यापारी व्यापार करते समय आध्यात्मिक भावना को भूल जाए, चाहे जितना क्रूर व्यवहार करे, धर्म-स्थान में वह धार्मिक और कर्म-स्थान में निर्दय हो, यह आशय उस विभाजन की रेखा का नहीं है। उसका आशय है-व्यापार और दया-भाव एक नहीं हैं। दया-भाव धर्म है और व्यापार सांसारिक कर्म । दोनों को एक मानने का अर्थ होता है, धर्म और सांसारिक कर्म का मिश्रण। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-ये चार वर्ग हैं। इनमें दो साध्य हैं और दो साधन। मोक्ष साध्य है, धर्म उसका साधन। काम साध्य है, अर्थ उसका साधन। आर्थिक विकास और काम का आसेवन जीवन का एक पहलू है और दूसरा पहलू है-धार्मिक विकास और मुक्ति की उपलब्धि। ये चारों एक ही जीवन में होते हैं, पर ये सब स्वरूप-दृष्टि से एक नहीं हैं। आचार्य भिक्षु ने जीवन के टुकड़े नहीं किए, उन्होंने जीवन की प्रवृत्तियों के मिश्रण से होने वाली क्षति से लोगों को सावधान किया। उनकी वाणी है-- 'सावद्य-दान' संसार-संवर्धन का हेतु है, और 'निरवद्य-दान' संसार-मुक्ति १. विनोबा प्रवचन, पृ. ४४६ (मंगलवार, २६ मई, १६५६) व्यापारी इधर भगवान् की भक्ति करता है, पूजा-पाठ करता है और उधर व्यवहार में झूठ चलता है, इस तरह वह तीर्थ-यात्रा, ध्यान, जप-जाप आदि करेगा, लेकिन सत्य व्यापार के खिलाफ है, ऐसा अवश्य कहेगा। व्यापार अलग और सत्य, प्रेम दया अलग। व्यापारी दुखियों के वास्ते दान दंगा, लेकिन व्यापार में दया नहीं रखेगा। यह नहीं सोचेगा कि व्यापार में भी दया पड़ी है। हम गलत ढंग से व्यापार करते हैं, तो समाज को दुःख पहुंचता है। इस तरह हमने व्यवहार को नीति से अलग रखा और नीति को अध्यात्म से अलग रखा। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीर-नीर : १२६ का हेतु है। संसार और मोक्ष के मार्ग भिन्न हैं। वे समानान्तर रेखा की तरह एक साथ रहते हुए भी कहीं नहीं मिलते। उनकी वाणी है-जो संसारिक उपकार करता है उसके संसार बढ़ता है, और जो मोक्ष के अनुकूल उपकार करता है उसके मोक्ष निकट होता कोई गृहस्थ किसी गरीब को धन देकर सुखी बनाता है, यह सांसारिक उपकार है। वीतराग उसकी प्रशंसा नहीं करते। उनकी वाणी है-एक लौकिक दया है। उसके अनेक प्रकार हैं। एक कुआं जल से भरा है, कोई उसमें गिर रहा था, उसे बचा लिया। कहीं लाय-आग लगी, कोई उसमें जल रहा था, उसे बचा लिया। यह दया है, उपकार है, पर है सांसारिक। एक व्यक्ति पाप का आचरण कर रहा हो, उसे कोई समझाए, उसका हृदय बदल दे, वह जन्म-मरण के कुएं में गिरने से बचता है। यह दया है, उपकार है, पर है आध्यात्मिक। सामाजिक प्राणी समाज में रहता है। सामाजरूपी धमनियां उसमें रक्त का संचार करती हैं इसलिए वह सांसारिक उपकार करता है। १. व्रताव्रत, ३.३ ते सावद्य दान संसार ना कारण, तिण में निरवद रो नहीं भेलो रे। संसार ने मुगत रा मारग . न्यारा, ते कठे न खावे मेलो रे॥ २. अणुकम्पा, ११,३ संसार तणो उपगार करे छ, तिणरे निचश्चेइ संसार बधतो जाणो। मोष तणो उपगार करे छे, तिणरे निश्चेइ . नेडी दीसे निरवाणो॥ ३. वही, ११.४-५ कोइ दलदरी जीव ने धनवंत कर दे, नव जात रो परिग्रहो देइ भर पूर। वले विविध प्रकारे साता उपजावे, उणरो जाबक दलदर कर दे दूर॥ छ काय रा सस्त्र जीव इविरति, त्यांरी साता पूछी ने साता उपजावे। त्यांरी करे वीयावच विवध प्रकारे, तिणने तीर्थंकर देव तो नहीं सरावे॥ ४. वही, ८ दू. ५ एक नाम दया लोकिक री, तिणरा भेद अनेक। तिणमें भेषधारी भूला घणा, ते सुणजी आण ववेक॥ ५. वही, ८ दू. १२-३ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० : भिक्षु विचार दर्शन आत्मवादी का सर्वोपरि ध्येय मोक्ष होता है। उसकी साधना करना व्यक्ति का सहज धर्म है। इसलिए वह आध्यात्मिक उपकार करता है। जो मिथ्या दृष्टि होता है, वह इन दोनों को एक मानता है और सम्यक्दृष्टि इन्हें भिन्न-भिन्न मानता है। ___ आम और धतूरे के फल एक सरीखे नहीं होते। किसी के बाग में वे दोनों प्रकार के वृक्ष हों, वह आम की इच्छा से धतूरे को सींचे तो उसका परिणाम क्या होगा? आम का वृक्ष सूखेगा और धतूरे का पौधा फलेगा। ठीक उसी प्रकार गहस्थ जीवन में व्रत-रूपी आम का वृक्ष और अव्रत-रूपी धतूरे का पौधा होता है। जो व्यक्ति व्रतों की दृष्टि से अव्रत को सींचेगा, उसे आम की जगह धतूरे का फल मिलेगा। अमरीकी वायु सेना के चीफ ऑफ स्टाफ जनरल थामस ह्वाइट सीनेट वैदेशिक सम्बन्ध समिति की एक बैठक में ६ मई, १६५६ को कोई गवाही आ दया तो पहिलो व्रत छे, साध श्रावक नौ धर्म । पाप रुके तिणसूं आवता, नवा न लागे कर्म॥ छ काय हणे हणावे नहीं, हणीयां भलो न जाणे ताय। मन वचन काया करी, आ दया कही जिणराय॥ १. व्रताव्रत, ५,५-११: हिवे सुणजो चतुर सुजान, श्रावक रत्ना री खाण। व्रतां कर जाणजो ए, उलटी मत ताणजो ए॥ केइ रूंख . बाग में होय, आंव धतूरा दोय। फल नहीं सारिखा ए, करजो पारिखा ए॥ आंबा सूं लिव लाय, सींचे धतूरो आय। आसा मन अति घणी ए, अब लेवा तणी ए॥ पिण अब गयो कुमलाय, धतूरो रह्यो डहिडाय। आय ने जोवे जरे ए नेणां नीर झरे ए॥ इण दिष्टंते जाण, श्रावक व्रत अंब समाण। इविरत अलगी रही ए, धतूरा सम कहीं ए॥ सेवारे इविरत कोय, · व्रतां साह्मो जोय। ते भूला भर्म - में ए, हिंसा धर्म में ए॥ इविरत सूं बंधे कर्म, तिणमें नहीं निश्चे धर्म। तीनूं करण सारखां ए, ते विरला पारिखा ए॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीर-नीर : १३१ दे रहे थे, उसके कुछ प्रसंग इस प्रकार हैं : सीनेट गोरे : मैं पाकिस्तान को इतनी ज्यादा बड़ी रकम सैनिक सहायता के रूप में देने का समर्थन करना कठिन पाता हूं। - श्री मैक एल. रायः यह रक्षा-व्यवस्था निःसन्देह भारत के विरुद्ध नहीं, बल्कि उसे रूस और चीन के विरुद्ध दी गई है। सीनेटर गोरेः अच्छा, आपका यह उद्देश्य हो सकता है, किन्तु हमारा जो अफसर उस कार्यक्रम का इंचार्ज है, वह कहता है कि पाकिस्तानी सैनिक अस्त्र-शस्त्र सहायता भारत के विरुद्ध चाहते हैं। श्री मैक एल. रायः हम उनसे सहमत नहीं। सीनेटर : किन्तु फिर भी आप उन्हें यह सहायता देते हैं और इसका उपयोग तो वे ही करेंगे, आप नहीं। दूसरे शब्दों में हम उन्हें सहायता एक उद्देश्य से देते हैं और वे उसे लेते हैं, दूसरे उद्देश्य से। जनरल हाइटः मैं नहीं समझता कि ऐसा कहना न्याय-संगत है। निःसन्देह पाकिस्तानियों के ख्याल भारतीयों की तरफ से बिगड़े हुए हैं, किन्तु रूस के विरुद्ध भी उनके ऐसे ही भाव हैं। सीनेटर चर्चः हम पाकिस्तानी को रूसी आक्रमण के विरुद्ध सहायता दे रहे हैं, किन्तु पाकिस्तानी भावना है कि खतरा मुख्यतः हिन्दुस्तान की ओर से है। मैं बहुत गम्भीरता से पूछता हूं कि क्या एक मित्र देश को, दूसरे के विरुद्ध शस्त्र-सज्जित करने में अमरीकी रुपये खर्च करना उचित हैं। ___यह संवाद आचार्य भिक्षु के उस उदाहरण की याद दिलाता है, जिसका प्रयोग उन्होंने असंयमपूर्ण सहयोग की स्थिति को समझाने के लिए किया था। एक राजा ने दस चोरों को मारने का आदेश दिया। एक दयालु सेठ ने राजा से निवेदन किया कि आप चोरों को प्राण-दान दें तो मैं प्रत्येक चोर के लिए पांच सौ-पांच सौ रुपये दे दूं। राजा ने कहा-ये चोर बहुत दुष्ट हैं, छोड़ने योग्य नहीं हैं। सेठ ने कहा-सबको नहीं तो कुछेक को प्राणदान दें। सेठ का आग्रह देख कर राजा ने पांच सौ रुपये ले एक चोर को छोड़ा। नगर के लोग सेठ की प्रशंसा करने लगे। उसके परोपकार को बखानने लगे। चोर भी बहुत प्रसन्न हुआ। चोर अपने गांव गया। नौ चोरों के १. हिन्दुस्तान, २३ जून १६५६ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ : भिक्षु विचार दर्शन घरवालों को सारे समाचार सुनाए। वे बहुत कुपित हुए। वे उस चोर को साथ लेकर नगर में आए। दरवाजे पर चिट्ठी चिपका दी। उसमें निन्यानबे नागरिकों को मारकर नौ का बदला लेने की बात लिखी हुई थी और चोर को बचाने वाले साहूकार को छूट दी गई थी। अब नगर में चोरों का आतंक फैला। हत्याओं पर हत्याएं होने लगीं। किसी का बेटा मारा गया, किसी का बाप, किसी की पत्नी। नगर में कोलाहल मचा। लोग उस साहूकार की निन्दा करने लगे, उसे कोसने लगे-“सेठ के पास धन अधिक था तो उसे कुएं में क्यों नहीं डाल दिया? चोर को सहायता दे, हमारे प्रियजनों की हत्याएं क्यों करवाई?' उस साहूकार की दशा दयनीय हो गई। उसे अपने बचाव के लिए नगर छोड़ दूसरी जगह जाना पड़ा। सेठ ने चोर को प्राणदान दिया और अमरीका पाकिस्तान को सुरक्षा-साधन दे रहा है। अमरीका, रूस और चीन के विरुद्ध पाकिस्तान को सैनिक सहायता दे रहा है। सेठ ने उन निन्यानवें व्यक्तियों के विरुद्ध, जो चोरों द्वारा मारे गए, उस चोर की सहायता की। असंयमी प्राणी कभी भी किसी भी प्राणी को मार सकता है, उसे सहायता देना सब जीवों के विरुद्ध है। इसी दृष्टि से आचार्य भिक्षु ने कहा-मैं असंयमी जीवों को सांसारिक सहयोग देने का समर्थन करने में अपने को असमर्थ पाता हूं। यह तर्क हो सकता है कि सेठ ने निन्यानवे के विरुद्ध चोर की सहायता नहीं की, केवल चोर को जीवित रखने के लिए प्रयत्न किया। इसी तरह का अंश इस संवाद में मिलता है कि अमरीका भारत के विरुद्ध पाकिस्तान को सहयोग नहीं दे रहा है। चोर निन्यानबे व्यक्तियों की हत्या कर सकता है, पाकिस्तान उस सैनिक सहायता का प्रयोग भारत के विरुद्ध भी कर सकता है। जिस प्रकार इन सहयोगों से हत्या और आक्रमण की कड़ी जुड़ी हुई है, उसी प्रकार असंयमी का सहयोग देने के साथ भी सूक्ष्म हिंसा का मनोभाव जुड़ा हुआ है। इसलिए परिणाम की दृष्टि से चोर का सहयोग करने के कार्य को महत्त्व नहीं दिया जा सकता। जिस प्रकार राजनैतिक दूरदर्शित की दृष्टि से सैनिक सहयोग का समर्थन नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार १. भिक्खु दृष्टान्त, १४०, पृ. ५८ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीर-नीर : १३३ आत्मिक दृष्टि से संयम को दिए जानेवाले सांसारिक सहयोग को धार्मिक उच्चता नहीं दी जा सकती! ___ तर्क की पद्धति एक होती है, उसके क्षेत्र भले ही भिन्न हों। राजनीति के क्षेत्र में एक दूसरे देश के विरुद्ध शस्त्र-सज्जित करना यदि चिन्तनीय हो सकता है तो आत्मिक क्षेत्र में एक जीव को दूसरे जीवों के विरुद्ध शस्त्र-सज्जित करना क्या चिन्तनीय नहीं होता? भगवान् ने कहा-असंयम शस्त्र है। एक जीव दूसरे जीवों की हिंसा इसलिए करता है कि वह असंयमी है। संयमी अपने खानपान के लिए भी किसी जीव की हिंसा नहीं करता। वह माधुकरी वृत्ति के द्वारा सहज प्राप्त भिक्षा से अपना जीवन चलाता है। असंयमी को भिक्षा लेने का अधिकार नहीं। वह अपने को एक सीमा तक ही संयत कर सकता है। यदि हम सैनिक सहयोग पर केवल सामरिक दृष्टि से विचार करते हैं तो उन अमरीकी अधिकारियों की दृष्टि में 'पाकिस्तान को जो सहयोग दिया जा रहा है वह उचित है, किन्तु उन पर नैतिक दृष्टि से विचार करने वाले और चर्च सीनेटर गोरे की दृष्टि में वह उचित नहीं है। उसे उचित मानने के पीछे भी एक दृष्टिकोण है और अनुचित मानने के पीछे भी एक दृष्टिकोण है। उचित मानने का दृष्टिकोण स्वार्थपूर्ण है और अनुचित मानने का दृष्टिकोण वस्तुस्थिति से संबंधित है। आचार्य भिक्षु ने कहा-मैं असंयमी को सांसारिक सहयोग देने का समर्थन करने में अपने को असमर्थ पाता हूं। इसमें आध्यात्मिक तथ्यों का विश्लेषण है। केवल सामाजिक स्वार्थ की दृष्टि से सोचने वाले, सम्भव है, इस विशुद्ध आध्यात्मिक विचार से सहमत न भी हो सकें। २. अहिंसा का ध्येय कोई आदमी नीम, आम आदि वृक्षों को न काटने का व्रत लेता है। वृक्ष सुरक्षित रहते हैं; कोई आदमी तालाब, सर आदि न सुखाने का नियम १. ठाणं, १०/६, ३: दस विधे सत्थे पं. तं.सत्थमग्गी विसं लोणं, सिणेहो खरमविलं। दुप्पउत्तो भणो वाया, काओ भावो य अविरती॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ : भिक्षु विचार दर्शन करता है, तालाब जल से परिपूर्ण रहता है; कोई आदमी मिठाई न खाने का व्रत करता है, मिठाई बचती है; कोई आदमी दव-आग लगाने और गांव जलाने का त्याग करता है, गांव और जंगल की सुरक्षा होती है; कोई आदमी चोरी करने का त्याग करता है, दूसरों के धन की रक्षा होती है। ... वृक्ष आदि सुरक्षित रहते हैं, वह अहिंसा का परिणाम है, उद्देश्य नहीं है। जीव-रक्षा अहिंसा का परिणाम हो सकता है, होता ही है, ऐसी बात नहीं। पर उसका प्रयोजन नहीं है। नदी के जल से भूमि उपजाऊ हो सकती है। पर नदी इस उद्देश्य से बहती है, यह नहीं कहा जा सकता। ' अहिंसा का उद्देश्य क्या है? आत्मशुद्धि या जीव-रक्षा? इस प्रश्न पर सब एकमत नहीं हैं। कई विचारक अहिंसा के आचरण का उद्देश्य जीव रक्षा बतलाते हैं और कई आत्मशुद्धि। ऐसा भी होता है कि जीव-रक्षा होती है, और आत्मशुद्धि नहीं होती, संयम नहीं होता और ऐसा भी होता है कि आत्मशुद्धि होती है, संयम होता है, जीव-रक्षा नहीं होती। अहिंसा जीव-रक्षा के लिए हो तो आत्मशुद्धि या संयम की बात गौण हो जाती है। आचार्य भिक्षु ने कहा-अहिंसा में जीव-रक्षा की बात गौण है, मुख्य बात है, आत्मशुद्धि की। एक संयमी सावधानीपूर्वक चल रहा है। उसके पैर से कोई जीव मर गया तो भी वह हिंसा का भागी नहीं होता, उसके पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता। एक संयमी असावधानीपूवर्क चल रहा है। उसके द्वारा किसी भी १. अणुकम्पा, ५.१२-१५ : नींब आंबादित निरष नो, किण ही कीधो हो वाढण रो नेम। सर द्रह तलाव फोडण तणों, सूंस लेइ हो मेट्या आवता कर्म। इविरत घटी तिण जीव नी, विरष उभो हो तिणरो धर्म केम। सर द्रह तालाब भा रहें, तिण माहि हो नहीं जिणजी रो धर्म॥ लाडू घेवर आदि पकवान ने, खाणा छोड्या हो आतम आणी तिण ठाय। वेराग वध्यो तिण जीव रे, लाडू रह्यो हो तिणरो धर्म ना थाय॥ दव देवो गांम जलायवो, इत्यादिक हो सावध कार्य अनेक। ए सर्व छोडावे समझाय नें, सगला री हो विध जाणो तूमें एक। २. जिन आज्ञारी चौपाई, ३.३० इरजा सुमत चालंतां साधने, कदा जीव तणी हुवे घात। ते जीव मूंआ रो पाप साध ने, लागे नहीं अंसमात रे॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीर-नीर : १३५ जीव का घात नहीं हुआ, फिर भी वह हिंसक है, उसके पाप-कर्म का बन्धन होता है। जहां जीवों का घात हुआ, वहां पाप का बन्धन नहीं हुआ और जहां जीवों का घात नहीं हुआ, वहां पाप का बन्धन हुआ, यह आश्चर्य की बात है। परन्तु भगवान् की वाणी का यही रहस्य है। ___संयमी मुनि नदी को पार करते हैं। उसमें जीव-घात होता है। उस कार्य में हिंसा का दोष होता तो भगवान उसकी अनुमति नहीं देते। जहां भगवान् की अनुमति हैं वहां हिंसा का दोष नहीं है। जहां आत्मा का प्रयोग प्रशस्त होता है, हिंसा का दोष नहीं होता, वहीं भगवान् की अनुमति होती देह के रहते हुए जीव-घात से नहीं बचा जा सकता, किन्तु अहिंसा की पूर्णता आ सकती है। वीतराग या सर्वज्ञ के द्वारा भी जीव-घात हो जाता है। पर उनका संयम अपूर्ण नहीं होता, उनकी अहिंसा अधूरी नहीं होती। अवीतराग-संयमी के भी पूर्ण अहिंसा की साधना होती है। हिंसा और अहिंसा का मूल स्रोत, आत्मा की असत और सत प्रवृत्ति है। जीव-घात या जीव-रक्षा उनकी कसौटी नहीं है। यह व्यवहारिक दृष्टि है। जहां प्रवृत्ति असत् होती है और जीव-घात भी होता है, वहां व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से हिंसा होती है। जहां प्रवृत्ति सत् होती है और जीव-घात भी नहीं होता वहां व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से अहिंसा होती है। जहां १. जिन आज्ञारी चौपाई, ३.३१ : जो ईर्या सुमत विण साधु चाले, कदा जीव मरे नहीं कोय। तो पिण साध ने हिंसा छकाय री लागी, पाप तणो बन्ध होय॥ २. वही, ३.३२ : जीव मूंआ तिहां पाप न लागो, न मूंआ तिहां लागो "पापो। जिण आगम संभालो जिन आगना जोवो, जिण आग्या में पापो म थापो रे॥ ३. वही, ३.१८-२० साध नदी उतऱ्या माहे दोष हुवे तो, जिण आगन्यां दे नाहि। जिण आगन्यां देतां पाप नहीं छे, थे सोच देखो मन मांहि रे॥ नदी उतरे त्यांरो ध्यान कीसो छे, किसी लेश्या किसा परिणाम। जोगं किसा अधवसाय किसो छे, भला भंडां री करो पिछाण रे।। ए पांचूं भला छे तो जिण आगना छे, माठा में जिण आग्या न कोय। ए पांचूं माठा तूं पाप लागे छे, भला सूं पाप न होय रे॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ : भिक्षु विचार दर्शन प्रवृत्ति सत् होती है और जीव-घात हो जाता है, वहां निश्चय-दृष्टि से अहिंसा और व्यवहार- दृष्टि हिंसा होती है। जहां प्रवृत्ति असत् होती है और जीव-घात नहीं होता, वहां निश्चय दृष्टि से हिंसा और व्यवहार-दृष्टि से अहिंसा होती है । जैसे व्यवहार- दृष्टि की अहिंसा से धर्म नहीं होता, वैसे ही व्यवहार-दृष्टि की हिंसा से पाप नहीं होता । जैसे जीव - घात होने पर भी व्यावहारिक हिंसा बन्धन - कारक नहीं होती, वैसे ही जीव रक्षा होने पर भी व्यावहारिक अहिंसा मुक्ति-कारक नहीं होती । कई लोग इसीलिए सिंह आदि हिंस्र जीवों को मारने में धर्म मानते हैं कि एक को मारने में अनेकों की रक्षा होती है । दूसरी बात, जो जीव- रक्षा को अहिंसा का उद्देश्य बतलाते हैं, उन्हें पग-पग पर रुकना पड़ता है I जीव रक्षा के लिए जीवों को मारने का भी प्रसंग आ जाता है। अहिंसा का ध्येय जीव रक्षा हो तो साधन-शुद्धि का विचार सुरक्षित नहीं रहता । आत्मशुद्धि का साधन शुद्ध ही होता है । जीव-रक्षा को अहिंसा का ध्येय मानने वालों की कठिनाई का आचार्य भिक्षु ने इन शब्दों में चित्र खींचा है - "कभी तो वे जीवों की रक्षा में पुण्य कहते हैं और कभी वे जीवों की घात में पुण्य कहते हैं, यह बड़ा विचित्र मत है ।' चोर चोरी की वस्तु को लुक-छिपाकर बेचता है, वह प्रकट रूप में नहीं बेच सकता। उसी प्रकार एक जीव की रक्षा के लिए दूसरे जीवों का घात करने में पुण्य मानते हैं, वे इस मत को प्रकट करते हुए सकुचाते हैं। जो जीवों की रक्षा को अहिंसा का ध्येय मानते हैं, उन्हें बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों की घात में पुण्य मानना पड़ता है और वे मानते भी हैं इसीलिए आचार्य भिक्षु ने जीव- रक्षा को अहिंसा का ध्येय नहीं माना । जर्मन विद्वान् अलबर्ट स्वीजर भी इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि भगवान् महावीर के अनुसार अहिंसा संयम की उपज है । संयम या आत्मिक पवित्रता से सम्बन्धित होने के कारण ही वह पवित्र है । अहिंसा का सिद्धान्त जहां । १. व्रताव्रत, १७.३८ : कदे तो पुन कहे जीव खवायां, कदे कहे जीव बचायां पुन । यां दोयां रो निरणो न कीयो विकलां, यूं ही बके गेहला ज्यूं हीयांसून || वही, १७.३६ २. चोर चोरी री वसत छाने छाने बेचे, चोडे धाडे तिण सूं बेचणी नावे | ज्यूं जीव खवायां पुन कहे त्यासूं, चोडे लोकां में बतावणी नावे ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीर-नीर : १३७ करुणा या जीव-रक्षा से जुड़ जाता है, वहां अहिंसा लोकप्रिय बनती है, पर पवित्र नहीं रह सकती। आत्म-शुद्धि का मतलब है, असंयम से बचना। असंयम से बचने और अहिंसा को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। जहां असंयम से बचाव है, वहां अहिंसा है और जहां अहिंसा है, वहा असंयम से बचाव है, किन्तु जीव-रक्षा का अहिंसा के साथ ऐसा संबंध नहीं है। अहिंसा में जीव-रक्षा हो सकती है, पर उसकी अनिवार्यता नहीं है। आचार्य भिक्षु ने इस दृष्टिकोण को तीन उदाहरणों द्वारा स्पष्ट किया है। १. एक सेठ की दुकान में साधु ठहरे हुए थे। करीब रात के बारह बज रहे थे। गहरा सन्नाटा था। निःस्तब्ध वातावरण में चारों ओर मूक शांति थी। चोर आए, सेठ की दुकान में घुसे । ताला तोड़ा। धन की थैलियां ले, मुड़ने लगे। इतने में उनकी निःस्तब्धता भंग करने वाली आवाज आयी-भाई! तुम कौन हो? उनको कुछ कहने या करने का मौका ही नहीं मिला कि तीन साधु सामने आ खड़े हो गए। चोरों ने देखा-साधु हैं, उनका भय मिट गया और उत्तर में बोले-महाराज! हम हैं। उन्हें यह विश्वास था कि साधुओं के द्वारा हमारा अनिष्ट होने का नहीं। इसलिए उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा-महाराज! हम चोर हैं। साधुओं ने कहा-भाई! इतना बुरा काम करते हो, यह ठीक नहीं। साधु बैठ गये और चोर भी। अब दोनों का संवाद चला। साधुओं ने चोरी की बुराई बताई और चोरों ने अपनी परिस्थिति। बहुत समय बीत गया। दिन हो चला। आखिर चोरों पर उपदेश असर कर गया। उनके हृदय में परिवर्तन आया। उन्होंने चोरी को आत्म-पतन का कारण मान उसे छोड़ने का निश्चय कर लिया। चोरी न करने का नियम भी कर लिया। अब वे चोर नहीं रहे। इसलिए उन्हें भय भी नहीं रहा। कुछ उजाला हुआ, लोग इधर-उधर घूमने लगे। वह सेठ भी घूमता-घूमता अपनी दुकान के पास से निकला। टूटे ताले और खुले किवाड़ देख कर अवाक्-सा हो गया। तुरन्त ऊपर आया और देखा कि दुकान की एक बाजू में चोर बैठे साधुओं से वातचीत कर रहे हैं और उनके पास धन की थैलियां पड़ी हैं। सेठ को वहुत आशा बंधी। कुछ कहने जैसा हुआ, इतने में चोर बोले-सेठजी! यह आपका धन सुरक्षित है, चिन्ता न करें। यदि आज ये साधु यहां न होते तो आप भी करीव-करीब साधु जैसे बन जाते। यह मुनि के उपदेश का Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ : भिक्षु विचार दर्शन प्रभाव है कि हम लोग सदा के लिए इस बुराई से बच गए और इसके साथ-साथ आपका यह धन भी बच गया। सेठ बड़ा प्रसन्न हुआ। अपना धन सम्भाल मुनि को धन्यवाद देता हुआ अपने घर चला गया। यह पहला, चोर का दृष्टान्त है। इसमें दो बातें हुई-एक तो साधुओं का उपदेश सुन चोरों ने चोरी छोड़ी, इसमें चोरों की आत्मा चोरी के पाप से बची और दूसरी-उसके साथ सेठजी का धन भी बचा। अब सोचना यह है कि अहिंसा क्या है? चोरों की आत्मा चोरी के पाप से बची वह है या सेठजी का धन बचा वह? २. कसाई बकरों को आगे लिए जा रहे थे। उन्हें मार्ग में साधु मिले। उनमें से प्रथम साधु ने कसाइयों को सम्बोधित करते हुए कहा-भाई! इन बकरों को भी मौत से प्यार नहीं, यह तुम जानते हो? इनको भी कष्ट होता है, पीड़ा होती है, तुम्हें मालूम है? खैर! इसे जाने दो। इनको मारने से तुम्हारी आत्मा मलिन होगी, उसका परिणाम दूसरा कौन भोगेगा? मुनि का उपदेश सुन कसाइयों का हृदय बदल गया। उन्होंने उसी समय बकरों को मारने का त्याग कर दिया और आजीवन निरपराध-त्रस जीवों की हिंसा का भी प्रत्याख्यान किया। कसाई अहिंसक-स्थूल हिंसा-त्यागी बन गए। यह दूसरा कसाइयों का दृष्टान्त है। इसमें भी साधु के उपदेश से दो बातें हुई-एक तो कसाई हिंसा से बचे। दूसरी-उनके साथ-साथ बकरे मौत से बचे। अब सोचना यह है कि अहिंसा क्या है? कसाई हिंसा से बचे वह है या बकरे बचे वह? चोर चोरी के पाप से बचे और कसाई हिंसा से, यहां उनकी आत्मशुद्धि हुई। इसलिए यह निःसन्देह अहिंसा. है। चोरी और जीव-वध के त्याग से अहिंसा हुई, किन्तु इन दोनों के साथ-साथ दो कार्य और हुए। धन और बकरे बचे। यदि इन्हें भी अहिंसा से जोड़ दिया जाए तो तीसरे दृष्टान्त पर ध्यान देना होगा। ३. अर्द्ध रात्रि का समय था। बाजार के बीच एक दुकान में तीन साधु स्वाध्याय कर रहे थे। संयोगवश तीन व्यक्ति उस समय उधर से ही निकले। साधुओं ने उन्हें देखा और पूछा-भाई! तुम कौन हो? इस घोर बेला में कहां जा रहे हो? यह प्रश्न उनके लिए एक भय था। वे मन ही मन सकचाए और उन्होंने देखने का यत्न किया कि प्रश्नकर्ता कौन है। देखा तब पता Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीर-नीर : १३६ चला कि हमें इसका उत्तर साधुओं को देना है-सच कहें या झूठ? आखिर सोचा-साधु सत्य-मूर्ति हैं, इनके सामने झूठ बोलना ठीक नहीं! कहते संकोच. होता है, न कहें यह भी ठीक नहीं, क्योंकि इससे इनकी अवज्ञा होती है। यह सोच वे बोले-'महाराज! क्या कहें! आदत की लाचारी है। हम पापी जीव हैं, वेश्या के पास जा रहे हैं। साधु बोले-'तुम भले मानस दीखते हो, सच बोलते हो, फिर भी ऐसा अनार्य कर्म करते हो? तुम्हें यह शोभा नहीं देता। विषय-सेवन से तुम्हारी वासना नहीं मिटेगी। घी की आहुति से आग बुझती नहीं।' साधु का उपदेश हृदय तक पहुंचा और ऐसा पहुंचा कि उन्होंने तत्काल उस जघन्य वृत्ति का प्रत्याख्यान कर डाला। वह वेश्या कितनी देर तक उनकी बाट जोहती रही। आखिर वे आए ही नहीं तब वह उनकी खोज में चल पड़ी और घूमती-फिरती वहीं आ पहुंची। अपने साथ चलने का आग्रह किया, किन्तु उन्होंने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। वह व्याकुल हो रही थी। उसने कहा-'आप चलें, नहीं तो मैं कुएं में गिरकर आत्महत्या कर लूंगी।' उन्होंने कहा-'हम जिस नीच कर्म को छोड़ चुके, उसे फिर नहीं अपनाएंगे।' उसने तीनों की बात सुनी-अनसुनी कर कुएं में गिरकर आत्महत्या कर ली। यह तीसरा व्यभिचारियों का दृष्टान्त है। दो बातें इसमें भी हुई। एक तो साधु के उपदेश से व्यभिचारियों का दुराचार छूटा और दूसरी-उनके कारण वह वेश्या कुएं में गिरकर मर गई। अब कुछ ऊपर की ओर चलें। यदि चोरी-त्याग के प्रसंग में बचने वाले धन से चोरों को, हिंसा-त्याग के प्रसंग में बचानेवाले बकरों से कसाइयों को अहिंसा हुई मानी जाए तो व्यभिचार-त्याग के प्रसंग में वेश्या के मरने के कारण उन तीनों व्यक्तियों को हिंसा हुई, यह भी मानना होगा। १. अणुकम्पा, ५.१-१० एक चोर चोरे धन पार को, वले दूजो हो चोरावे आगेवाण। तीजो कोई करे अनुमोदन, ए तीनां रा हो खोटा किरतब जाण॥ एक जीव हणे तसकाय ना, हणावे हो बीजो पर ना प्राण। तीजो पिण हरषे मारीयां, ए तीनूंई हो जीव हिंसक जाण! एक कुसील सेवे हरष्यो थको, सेवाडे हो ते तो दूजे करण जोय। तीजो पिण भलो जाण सेवीयां, ए तीनां रे हो कर्म तणो बंध होय॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० : भिक्षु विचार दर्शन जीव-रक्षा को अहिंसा का ध्येय मानने वालों के सामने दूसरी कठिनाइयां भी हैं। बहुत सारे प्रसंग ऐसे होते हैं जिनमें जीव-रक्षा का प्रश्न दूसरे जीवों के हितों का विरोधी होता है। आचार्य भिक्षु ने ऐसे सात प्रसंग उपस्थित किए, वे इस प्रकार हैं १. तलाई मेंढक और मछलियों से भरी है। उसमें काई जमी हुई है। अनेक प्रकार के जीव-जन्तु तैर रहे हैं। २. पुराने अनाज के ढेर पड़े हैं। उनमें कीड़े विचर रहे हैं। अनेक जीवों के अंडे रखे हुए हैं। ३. जमीकन्द से गाड़ी भरी है। जमीकन्द में अनन्त जीव हैं। उन्हें मारने से कष्ट होता है। ४. कच्चे जल के घड़े भरे हैं। जल की एक बूंद में असंख्य जीव होते हैं। जहां जल होता है, वहां वनस्पति होती है। इस दृष्टि से उसमें अनन्त जीव हैं। ५. कूड़े के ढेर में भीनी खात पड़ी है। उसमें अनेक जीव-जन्तु तिल-मिल कर रहे हैं। अपने किए हुए कर्मों से उन्हें ऐसा अधर्म जीवन मिला है। ६. किसी जगह बहुत चूहे हैं। वे इधर-उधर आ-जा रहे हैं। थोड़ा-सा शब्द सुनते ही वे भाम जाते हैं। ए सगला ने सतगुर मिल्या प्रतिबोध्या हो आण्या मारण ठाय । किण किण जीवां ने साधां उधया, तिणरो सुणजो हो विवरा सुधन्याय।। चोर हिंसक ने कुसीलीया, यारे ताई रे साधां उपदेस। त्यांने सावध रा निरवद किया, एहवो छे हो जिण दया धर्म रेस। ग्यांन दरसण चारित तीनूं तणो, साधां कीधो हो जिण थी उपगार। न तो तिरण तारण हुआ तेहना, उताऱ्या हो त्यांने संसार थी पार॥ ए तो चोर तीनूं समझ्या थका, धन रह्यो रे धणी ने कुसले खमे। हिंसक तीनूं प्रतिबोधीयां, जीव बचीया हो कीधो मारग रो नेम।। सील आदरीयो तेहनी, अस्त्री पड़ी हो कूआ माहे जाय। यारो पाप धर्म नहीं साध ने, रह्या मूंआ हो ती, इविरत माय।। धन रो धणी राजी हुवो धन रह्यां, जीव बचीया हो ते पिण हरषतथाय। साध तिरण तारण नहीं तेहना, नारी ने पिण हो नहीं डबोई आय। कोइ मूढ मिथ्याती इम कहे, जीव वचीया हो धन रह्यो ते धर्म। रो उणरी सरधा रे लेखे अस्त्री मुई हो तिणरा लागे कर्म॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीर-नीर : १४१ ७. गुड़, चीनी आदि मीठी चीजों पर अनेक जीव मंडरा रहे हैं। मक्खियां भिनभिना रही हैं। वे आपस में एक दूसरे को मार डालते हैं। मक्खा, मक्खी को मार डालता है। तलाई में भैंस आदि पशु जल पीने को आ रहे हैं। अनाज का ढेर देख बकरियां आ रही हैं। जमीकन्द की गाड़ी पर बैल ललचा रहे हैं। जल का घड़ा देख गाय जल पीने आ रही है। कूड़े के जीवों को चुगने के लिए पक्षी आ रहे हैं। चूहों पर बिल्ली झपट रही है। मक्खा मक्खी को पकड़ रहा है। भैंसों को हांकने से तलाई के जीवों की रक्षा होती है। बकरियों को दूर करने से अनाज के जीवों की रक्षा होती है। बैलों को हांक देने से जमीकन्द के जीव बचते हैं। गाय को हांकने से जल के जीवों की रक्षा होती है। पक्षियों को उड़ा देने से कूड़े के जीव जीवित रह सकते हैं। बिल्ली को भगा दिया जाए तो चूहे के घर शोक नहीं होता। मक्खे को थोड़ा इधर-उधर कर देने से मक्खी बच जाती है। . पर अहिंसा के क्षेत्र में सब जीव समान हैं। कठिनाई यह है कि किसको भगाया जाए और किसको बचाया जाए? भैंस को हांका जाए तो उसे कष्ट होता है और न हांका जाए तो तलाई के जीव मरते हैं। ऐसे प्रसंगों में अहिंसक का धर्म यही है कि वह समभाव रखे। किसी के बीच में न पड़े। १. अणुकम्पा, ४. १-१३ नाडो भरीयो छे डेडक माछल्यां, माहे नीलण फूलण रो पूर हो। लट फूहारा आदि जलोक सूं, तस थावर भरीया अरूड हो। सुलीया धान तणो ढिगलो पर्यो, माहे लटां ने इल्यां अथाय हो। सुलसल्यां इंडादिक अति घणा, किल विल करे तिण माय हो। एक गाडो भी जमीकन्द सूं तिणमें जीव घणा छे अनन्त हो। च्यार प्रज्या च्यार प्रण छे मार्यो कष्ट कह्यो भगवंत हो। काचा पाणी तणा माटा भऱ्या, घणा जीव छे अणगल नीर हो। नीलण फूलन आदि लटां घणी त्यांमें अनन्त बताया छे वीर हो॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ : भिक्षु विचार दर्शन जीव-रक्षा को प्रधान मानने वाले इन कठिनाइयों का पार नहीं पा सकते, तब बड़ों के लिए छोटे और बहुतों के लिए थोड़े जीवों की हिंसा को निर्दोष मान लेते हैं। किन्तु इस मान्यता से अहिंसा का सिद्धान्त टूट जाता है। महात्मा गांधी ने भी ऐसे प्रसंग की चर्चा में बताया है- “एक भाई पूछे छे-नाना जन्तुओं एक बीजा नो आहार करतां अनेक बार जोइए छीए। मारे त्यां एक घरोली ने एवां शिकार करता रोज जोऊं डूं, अने बिलाड़ी ने पक्षीओ नो। शुं ए मारे जोया करवो? अने अटकावतां बीजानी हिंसा करवी? आवी हिंसा अनेक थयाज करे छे, आमां आपणे शुं करवू? में आवी हिंसा नयी जोइ शृं? घणीए बार घरोली ने वादानो शिकार करती अने वांदा ने बीजा जन्तुओं ना शिकार करता में जोया छे। पण ऐ 'जीवो जीवस्य जीवनम्' नो प्राणी जगत् नो कायदो अटकाववायूँ मने कदी कर्त्तव्य नथी जणायुं। ईश्वरनी ए अगम्य गूंज उकेलवानो हूं दावो नथी करतो।" __ अहिंसक सब जीवों के प्रति संयम करता है, इसलिए वह सब जीवों की रक्षा करता है। सामाजिक प्राणी समाज की उपयोगिता को ध्यान में खात भीनी उकरडी तटा घणी, गोंडोला गधईया जाण हो। टलबल टलबल कर रह्या, याने कर्मा नाख्या छे आण हो। कायेक जायगां में उंदर घणां, फिरे आमा साहमा अथाग हो। थोडो सो खडको सांभले, तो जाओ दिशोदिश भाग हो॥ गुड़ खांड आदि मिसटान में, जीव चिहूं दिस दोड्या जाय हो। माख्यां ने मांका फिर रह्या, ते तो हुचके माहोमा आय हो॥ नाड़ो देखी में आवे भैंसीयां, धान ढूके बकरा आय हो। गाडे आवे बलद पाधरा, माटो आय उभी छे गाय हो। पंखी चूगे उकरली उपरे, उंदर पासे मिनकी जाय हो। माखी ने माका पकड़ ले साधु किणने बचावे छोडाय हो। भेस्यां हाकाल्यां नाडा माहिला, सगला रे साता थाय हो। बकरां ने अलगा कीयां, इंडादिक जीव ते बच जाय हो॥ थोड़ा सा बलदां ने हाकल्या, तो न मरे अनंत काय हो। पाणी फूहारादिक किण विध मरे, नेडी आवण न दे गाय हो। लट गींडोलादिक कुसले रहे, जो पंखी ने दीये उडाय हो। मिनकी छछकार नसार दे, तो उंदर घर सोग न थाय हो। मांका ने आघो पाछो करे, तो माखी उड नाठी जाय हो। साधां रे सगला सारिखा, ते तो विचे न पड़े जाय हो। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षीर-नीर : . १४३ रखकर चलते हैं। वे अपने उपयोगी जीवों को बचाते हैं और अनुपयोगी जीवों की उपेक्षा करते हैं । उपयोगिता और अहिंसा का सिद्धान्त एक नहीं । गांधीजी ने जो उत्तर दिया, ' वह काका कालेलकर को नहीं जंचा। तब किशोरीलाल भाई ने इसके साथ अपनी व्याख्या और जोड़ दी, वह यह है " मन तटस्थ या उदासीन हो तो बचाने का प्रयत्न न किया जाए । जीव को बचाने की वृत्ति जागृत हो जाए, दया भाव उमड़ पड़े तो उसे दबाने की अपेक्षा जीवों को बचाने का प्रयत्न करना अच्छा है"" यह करुणा के उभार की बात है। गांधी जी ने जो कहा वह प्रकृति के नियम और सामाजिक उपयोगिता की बात है । अहिंसा की बात इससे भिन्न है और सूक्ष्म है। · अहिंसावादी और उपयोगितावादी अपने रास्ते पर कई बार मिलेंगे किन्तु अन्त में ऐसा अवसर भी आएगा जब उन्हें अलग-अलग रास्ते पकड़ने होंगे और किसी-किसी दिशा में एक-दूसरे का विरोध भी मानना होगा । १. धर्मोदय, पृ. ६३ । बधा ज प्राणिओने बचावानो आपणो धर्म नथी । गरोली जीवडांने खाय छे से शूं आना पहेला में कोई काबे जोयुं नथी ? गरोली पोतानी शोधे छे अमां ओटले के कुदरती व्यवस्थामां पड़वानु में मारुं कर्त्तव्य मान्युं नथी । जे जानवरों ने आपणे स्वार्थ खातर के शोख पीलाए छीए तेमने बचाववानो धर्म आपणे माथे लीधो छे अथी आगल आपणाथी जवाय नहीं । २. वही, पृ. ६३ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. संघ-व्यवस्था १. यह मार्ग कब तक चलेगा? किसी व्यक्ति ने पूछा-"महाराज? आपका मार्ग बहुत ही संयत है, यह कब तक चलेगा?' आचार्य भिक्षु ने कहा- “उसका अनुगमन करने वाले साधु-साध्वी जब तक श्रद्धा और आचार में सुदृढ़ रहेंगे, वस्त्र पात्र आदि उपकरणों की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेंगे और स्थानक बांध नहीं बैठेंगे, तब तक यह मार्ग चलेगा।' अपने लिए स्थान बनाने वाले वस्त्र-पात्र आदि की मर्यादा का लोप करते हैं और एक ही स्थान में पड़े रहते हैं-इस प्रकार वे शिथिल हो जाते हैं। मर्यादा को बहुमान देकर चलने वाले शिथिल नहीं होते। धर्म आराधना है। वह स्वतन्त्र मन से होती है। मन की स्वतन्त्रता का अर्थ है-वह बाहरी बन्धन से मुक्त हो और अपनी सहज मर्यादा में बंधा हुआ हो । कानून बाहरी बन्धन है। धार्मिक नियम कानून नहीं हैं। वे मनवाये नहीं जाते। धर्म की आराधना करने वाले उन्हें स्वयं अंगीकार करते हैं। आचार्य भिक्षु ने तेरापथ-संघ को संगठित किया। उसकी सुव्यवस्था के लिए अनेक मर्यादाएं निर्धारित की। जब उन्होंने विशेष मर्यादाएं बनानी चाही तब साधु-साध्वियों को पूछा। उन्होंने भी यह इच्छा प्रकट की कि ये होनी चाहिए। फलित की भाषा में कहा जा सकता है कि मर्यादाओं के निर्माण में सूझ आचार्य भिक्षु की थी और सहमति सबकी। मर्यादा किसी के द्वारा किसी पर थोपी नहीं गई, बल्कि सबने उसे स्वयं अपनाया। .. आचार्य भिक्षु सूझ-बूझ के धनी थे। उन्होंने व्यवस्था के लिए अनेक १. भिक्खु दृष्टान्त, ३०७, पृ. १२१ २. लिखित, १८३२ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १४५ बातें सुझाईं, इसलिए वे मर्यादा के कर्ता कहलाए। पर धर्म-शासन की दृष्टि से मर्यादा की सृष्टि उन सबसे हुई है जिन्होंने उसे अंगीकार किया। धर्म वैयक्तिक ही होता है, किन्तु जब उसकी सामूहिक आराधना की जाती है तब वह शासन का रूप ले लेता है। २. मर्यादा क्यों? शासन व्यवस्था पर अवलम्बित हैं। साधना का स्रोत अकेले में अधिक स्वच्छ हो सकता है, किन्तु अकेले चलने की क्षमता सबमें नहीं होती। दूसरों का सहयोग लिए-दिए बिना अकेले रहकर आगे बढ़ना महानु पुरुषार्थ का काम है। जैन-परम्परा में एक कोटि एकल-विहारी साधुओं की रही है। उस कोटि के साधु शरीरबल, मनोबल, तपोबल और ज्ञानबल से विशिष्ट सामर्थ्यवान् होते हैं। दूसरी कोटि के साधु संघ-बद्ध होकर रहते हैं। जहां संघ है वहां बन्धन तो होगा ही। अकेले के लिए भी बन्धन न हो, ऐसा तो नहीं होता। उसका आत्मानुशासन परिपक्व होता है और वह अकेला होता है, इसलिए उसे व्यावहारिक बन्धनों की अपेक्षा नहीं होती। सामुदायिक जीवन में रहने वाले साधुओं में अधिकांश मनोबल वाले होते हैं, तो कुछ दुर्बल भी होते हैं। सबका आत्मानुशासन, विवेक और वैराग्य एक सरीखा नहीं होता। आत्मिक विकास में तारतम्य होता है, उसे किसी व्यवस्था के निर्माण से सम नहीं बनाया जा सकता। जीवन-यापन और व्यवहार के कौशल में जो तारतम्य होता है, उसे मर्यादाओं द्वारा सम किया जा सकता है। एक गृहस्थ तम्बाकू सूंघता है और दूसरा नहीं सूंघता। दोनों साधु बनते हैं। तम्बाकू सूंघने वाला साधु हो ही नहीं सकता-ऐसा नहीं है। फिर भी यह एक व्यसन है। व्यसन साधु के लिए अच्छा नहीं होता। उसे मिटाने के लिए मर्यादा का निर्माण किया जाता है। हमारे संघ में कोई भी साधु तम्बाकू सूंघने वाला नहीं है। पहले कुछ थे। उनके इस व्यसन को मिटाने के लिए मर्यादा बनी कि विशेष प्रयोजन के बिना कोई साधु तम्बाकू न सूंघे और किसी विशेष प्रयोजन से सूंघे तो जितने दिन सूंघे उतने दिन दूध, दही, मिठाई आदि 'विगय' न खाए। इस मर्यादा ने तम्बाकू सूंघने वालों और न सूंघने वालों का भेद मिटा दिया। आज कोई भी साधु तम्बाकू सूंघने वाला नहीं है। १. मर्यादावलि Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ : भिक्षु विचार दर्शन ३. मर्यादा क्या? आचार्य संघ के लिए मर्यादाओं का निर्माण करते हैं। वे थोपी नहीं जाती। थोपी हुई हों तो सम्भव है, हिंसा हो जाए। बलपूर्वक कुछ भी मनवाना अहिंसा नहीं हो सकता। धर्म-शासन की मर्यादाओं को अहिंसा की भाषा में मार्गदर्शन ही कहना चाहिए। साधनाशील मुनि साधना के पथ में निर्विघ्न भाव से चलना चाहते हैं। निर्विघ्नता अपने आप नहीं आती। उसके लिए वे आचार्य का मार्ग-दर्शन चाहते हैं। आचार्य उन्हें अमुक-अमुक प्रकार से आत्मनियन्त्रण के निर्देश देते हैं। वे ही मर्यादा बन जाती हैं। ४. मर्यादा का मूल्य मर्यादा का मूल्य साधक के विवेक पर निर्भर होता है। साधक का मनोभाव साधना की ओर झुका हुआ होता है, तब वह स्क्यं नियन्त्रण चाहता है। मर्यादाएं मूल्यवान बन जाती हैं। साधक साधना से भटकता है तब मर्यादाओं का मूल्य घट जाता है। आत्मानुशासन की मर्यादा का अवमूल्यन होता देख अल्पविकसित साधकों के लिए कभी-कभी आचार्य को बाहरी नियन्त्रण भी करना पड़ता है। यह करना चाहिए या नहीं, यह अहिंसा की दृष्टि से विचारणीय है, किन्तु संघीय जीवन में ऐसा हो ही जाता है। बाहरी नियन्त्रण पर आधारित मर्यादाएं संघ के लिए आवश्यक होती होंगी, किन्तु साधना की दृष्टि से उनका कोई मूल्य नहीं है। साधना की दृष्टि से मूल्यवान् मर्यादाएं वे ही हैं, जो आत्मानुशासन से उपजी हों। ५. मर्यादा की पृष्ठिभूमि श्रद्धा के युग में प्रत्येक मर्यादा की सुरक्षा अपने आप होती है। तर्क के युग में सहज कार्यकर नहीं रहती। जिस स्थिति को जब बदलना चाहिए, वह ठीक समय पर बदल जाए, तो परिणाम अच्छा आता है और उसे आगे सरकाने का यत्न होता है, तो वह बदलती अवश्य है, किन्तु प्रतिक्रिया के साथ। सफल मर्यादा वही है, जिसे पालने वालों की श्रद्धा प्राप्त हो। जिसके प्रति निभाने वालों का अधिकांश भाग अश्रद्धाशील हो, आलोचक हो, वह बहुत समय तक नहीं टिक सकती, और टिककर भी हित नहीं कर सकती। तार्किक दृष्टिकोण से न तो मर्यादाओं का पालन किया जा सकता है और Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १४७ न कराया जा सकता है। उसका पालन करने वाला श्रद्धावान् हो, हृदयवान् हो तभी उसका निर्वाह हो सकता है। आचार्य भिक्षु ने अपने प्रिय शिष्य भारीमलजी से कहा-यदि तुझमें किसी ने खामी बताई, तो प्रत्येक खामी के लिए तेला (त्रिदिवसीय उपवास) करना होगा।" उन्होंने उसे स्वीकार करते हुए कहा-“गुरुदेव! यदि कोई झूठमूठ ही खामी बता दे तो?' आचार्यवर ने कहा-"तेला तो करना ही है। खामी होने पर कोई उसे बताए, तो 'तेला' उसका प्रायश्चित्त हो जाएगा। खामी किए बिना भी कोई उसे बताए, तो मान लेना कि यह किये हुए कर्मों का परिणाम है।" - भारीमलजी ने आचार्य की वाणी को सहर्ष शिरोधार्य कर लिया। तर्क से यह कभी शिरोधार्य नहीं किया जा सकता था। एक आचार्य ने अपने शिष्य से कहा-“जाओ, सांप की लम्बाई को नाप आओ।" शिष्य गया, एक रस्सी से उसकी लम्बाई को नाप लाया। आचार्य जो चाहते थे वह नहीं हुआ। आचार्य ने फिर कहा- “जाओ, सांप के दांत गिन आओ।" शिष्य गया, उसके दांत गिनने के लिए मुंह में हाथ डाला कि सांप ने उसे काट खाया। आचार्य ने कहा-"बस काम हो गया।" उसे कम्बल उढ़ा सुला दिया। विष की गर्मी ने उसके शरीर में से सारे कीड़ों को बाहर फेंक दिया। अधिकांश लोग जो अपने आपको कूटनीतिक मानते हैं, अहिंसा में विश्वास नहीं करते। जहां हिंसा है, बल-प्रयोग है, राजसी वृत्तियां हैं, वहां हृदय नहीं होता, छलना होती है। छलना और श्रद्धा के मार्ग दो हैं। श्रद्धा निश्छल भाव में उपजती है। जहां नेता के तर्क के प्रति अनुगामी का तर्क आता है, वहां बड़े-छोटे का भाव नहीं होता, वहां होता है-तर्क की चोट से तर्क का हनन। आज का चतुर राजनयिक तर्क को कवच मानकर चलता है, पर यह भूल है। प्रत्यक्ष या सीधी बात के लिए तर्क आवश्यक नहीं होता। तर्क का क्षेत्र है अस्पष्टता। स्पष्टता का अर्थ है प्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष का अर्थ है, तर्क १. भिक्षु जस रसायण, ११, ६-१० . Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ : भिक्षु विचार दर्शन का अविषय। तर्क की अपेक्षा प्रेम और विश्वास अधिक सफल होते हैं। जहां तर्क होता है, वहां जाने-अनजाने दिल सन्देह से भर जाता है। जहां प्रेम होता है, वहां सहज विश्वास बढ़ता है। अहिंसा और कोरी व्यवस्था के मार्ग दो हैं। अहिंसा के मार्ग में तर्क नहीं आता और कोरी व्यवस्था के मार्ग में प्रेम नहीं पनपता। तर्क की भाषा में दोनों को अपूर्ण कहा जा सकता है, पर प्रेम कभी अपूर्ण नहीं होता। प्रेम की अपूर्णता में ही तर्क का जन्म होता है। प्रेम की गहराई में सारे तर्क लीन हो जाते हैं। यह विराट् प्रेम ही अहिंसा है, जिसकी गहराई सर्वभूत-साम्य की भावना से उत्पन्न होती है और आत्मौपम्य की सीमा में फिर विलीन हो जाती है। हमारे विश्वास व्यवहारस्पर्शी अधिक हैं, इसलिए यह मार्ग हमें निर्विघ्न नहीं लगता। व्यवहार-कौशल ने हमारी विशुद्ध आन्तरिक प्रवृत्तियों को बुरी तरह दबोच रखा है। आवश्यकता यह है कि हम अपनी स्वतःस्फूर्त अन्तःकरण की प्रवृत्तियों को व्यवहार की संकीर्ण सीमा से बाहर जाने दें। मर्यादा के औचित्य का दर्शन हमें वहीं होगा। ___आचार्य भारीमालजी ने अपने उत्तराधिकार-पत्र में दो नाम लिखे। मुनि जीतमलजी ने प्रार्थना की-गुरुदेव! इस पत्र में नाम एक ही होना चाहिए, दो नहीं। आपने कहा-जीतमल! खेतसी और रायचंद मामा-भानजे हैं। दो नाम हों तो क्या आपत्ति है? मुनिवर ने फिर अनुरोध किया कि नाम तो एक ही होना चाहिए, रखें आप चाहे जिसका। आचार्यवर ने खेतसी का नाम हटा दिया। उनका नाम लिखा गया, उसे उन्होंने गुरु का प्रसाद माना हटा दिया, उसे भी गुरु का प्रसाद माना। यह प्रेम की पूर्णता है। यदि प्रेम अपूर्ण होता, तो नाम हटने की स्थिति में बहुत बड़ा विवाद उठ खड़ होता। प्रेम की पूर्णता में असह्य कुछ भी नहीं होता। ६. मर्यादा की उपेक्षा क्यों? मर्यादा का भाग्य व्यवस्थापक के हाथों में ही सुरक्षित रहता है। अधिकारी व्यक्ति जब अपना या अपने आस-पास का हित देखने लग जाता है तब मर्यादा पालने वालों की दृष्टि में सन्देह भर जाता है। उनकी अनिवार्यत उनके लिए समाप्त हो जाती है। व्यवस्था की कमी व्यवस्थापक के प्रति Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ व्यवस्था : १४६ अश्रद्धा लाती है । इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि व्यवस्थापक की कमी से व्यवस्था वीर्य-हीन बन जाती है । व्यवस्था की अप्रामाणिकता भी उसमें अश्रद्धा उत्पन्न करती है । व्यवस्था के प्रति विश्वास तभी स्थिर होता है, जब वह कभी अधिक और कभी कम साधन प्रस्तुत न करे । व्यवस्था को प्राणवान् बनाए रखने के लिए उसे किसी भी व्यक्ति से अधिक मूल्य मिलना चाहिए । आचार्य भिक्षु की व्यवस्था इसलिए प्राणवान् है कि वे अनुशासन के पक्ष में बहुत ही सजग थे। एक बार की घटना है, आचार्य भिक्षु ने मुनि वेणारामजी को बुलाने के लिए शब्द किया । उत्तर नहीं मिला । दो-तीन बार आवाज देने पर भी उत्तर नहीं मिल रहा था । 'लगता है, वेणीराम संघ से अलग होगा' - आचार्य भिक्षु ने गुमानजी लुणावत से कहा । गुमानजी तत्काल उठे और सामने की दुकान में वेणीरामजी स्वामी के पास जा वह सब सुना दिया, जो आचार्यवर ने कहा था। वे उसी क्षण आचार्यवर के पास आए और वन्दना की । आपने कहा- ' शब्द करने पर भी नहीं बोलता है?" वेणीरामजी ने कहा - "गुरुदेव ! मैंने सुना नहीं था ।" उनके नम्र व्यवहार ने आचार्यवर को प्रसन्न कर लिया, किन्तु इस घटना से सब साधुओं को अनुशासन की एक सजीव शिक्षा मिल गई । ' आचार्य भिक्षु अनुशासन में कभी शिथिलता नहीं आने देते थे । सिंहजी गुजराती साधु थे । वे आचार्य भिक्षु के शिष्य बन गए। कुछ दिन वे अनुशासन में रहे, फिर मर्यादा की अवहेलना करने लगे। यह देख आचार्यवर ने उन्हें संघ से अलग कर दिया। वे दूसरे गांव चले गये। पीछे से खेतसीजी स्वामी ने कहा- उन्हें प्रायश्चित्त दें, मैं वापस ले आता हूं । आचार्यवर ने कहा- वह फिर लाने योग्य नहीं है । खेतसीजी ने आचार्यवर की बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया। वे उन्हें लाने के लिए तैयार हुए। आचार्यवर ने अनुशासन की डोर को खींचते हुए कहा- खेतसी ! तूने उनके साथ आहार का सम्बन्ध जोड़ा, तो तेरे साथ हमें आहार का सम्बन्ध रखने का त्याग है । खेतसीजी कं पैर जहां थे, वहीं रह गए। फिर सिंहजी की अयोग्यता और अनुशासनहीनता के अनेक प्रमाण सुनने को मिले। १. भिक्खु दृष्टान्त, १६३, पृ. ६६ २. वही, ११६, पृ. ६७ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० : भिक्षु विचार दर्शन ७. अनुशासने की भूमिका अनुशासन की पूर्णता के लिए अनुशासन करने वाला योग्य हो, इतना ही पर्याप्त नहीं है, उसकी पूर्णता के लिए इसकी भी बड़ी अपेक्षा होती है कि उसे मानने वाले भी योग्य हों। दोनों की योग्यता से ही अनुशासन को समुचित महत्त्व मिल सकता है। ____ आचार्य भिक्षु शिष्यों के चुनाव को बहुत महत्त्व देते थे। वे हर किसी को दीक्षित बनाने के पक्ष में नहीं थे। अयोग्य-दीक्षा पर उन्होंने तीखे बाण फेंके। जो शिष्य-शिष्याओं के लोभी हैं, केवल सम्प्रदाय चलाने के लिए बुद्धि-विकल व्यक्तियों को मूंड-मूंडकर इकट्ठा करते हैं, उन्हें रुपयों से मोल लेते हैं, वे गुणहीन आचार्य हैं और उनकी शिष्य-मंडली कोरी पेटू।' कुछ साधु गृहस्थ को इसकी प्रतिज्ञा दिलाते कि दीक्षा मेरे पास ही लेना, और कहीं नहीं। यह ममत्व है। ऐसा करना साधु के लिए अनुचित विवेक-विकल व्यक्ति को साधु का स्वांग पहनाने वाले और अयोग्य को दीक्षित करने वाले भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करते हैं। १. आचार री चौपई, ३.११-१३ चेला चेली करण रा लोभिया रे, एकंत मत बांधण. सूं काम रे। विकला ने मूंड मूंड भेला करे रे, दिराए गृहस्थ ना रोकड दाम रे॥ पूजरी पदवी नाम धरावसी रे, में छां सासण नायक साम रे। पिण आचारे ढीला सुध नहीं पालसी रे, नहीं कोइ आतम साधन काम रे॥ आचार्य नाम धरासी गुण विना रे, पेटभरा ज्योंरा परवार रे। लपटी तो हूसी इन्द्री पोषवा रे, कपट कर ल्यासी सरस आहार रे॥ २. वही, १.१८-१६ दिष्या ले तो मो आगे लीजें, और कनें दे पाल जी। . कुगुर एहवो सूंस करावे, ए चोडें उधी चाल जी।। ए बंधा थी ममता लागे, गृहस्थ सूं भेलप थाय जी। नशीत रे चोथे उद्देशे, डंड कह्यो जिणराय जी। ३. वही, १.२३-२४ : ववेक विकल ने सांग पहराए, भेलो करे आहार जी। सामग्री में जाय वंदावे, फिर फिर करे खुवार जी। अजोग ने दिष्या दीधो ते, भगवंत री आग्या बार जी। नसीत रो डंड मूल न मान्यो, ते विटल हुवा बेकार जी। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १५१ अयोग्य शिष्यों की बाढ़ आ रही थी, उसका कारण था आचार्य-पद की लालसा। आचार्य भिक्षु ने रोग की जड़ को पकड़ लिया। उन्होंने उस पर दोनों ओर से नियन्त्रण किया। उन्होंने एक मर्यादा लिखी कि मेरे बाद आचार्य भारीमलजी होंगे। तेरापंथ में आचार्य एक ही होगा, दो नहीं हो सकेंगे। दूसरी ओर आपने उसी मर्यादा-पत्र में एक धारा यह लिखी कि जो शिष्य बनाए जाएं, वे सब भारमलजी के नाम से बनाए जाएं। इसके द्वारा शिष्य बनाने पर भी नियन्त्रण हो गया। जो चाहे वह आचार्य भी नहीं हो सकता और जो चाहे वह शिष्य भी नहीं बन सकता। आचार्य हुए बिना शिष्य कैसे बनाए और शिष्यों के बिना आचार्य कैसे बने? यह उभयतः पाश रचकर आचार्यवर अयोग्य दीक्षा की बाढ़ को रोकने में सफल हुए। . आचार्य भिक्षु ने एक अपवाद रखा था-भारमलजी प्रसन्न होकर किसी साधु को शिष्य बनाने की स्वीकृति दें, तो वह बना सकता है। इस विधि का प्रयोग नहीं हुआ। __कुछ वर्षों तक किसी व्यक्ति को दीक्षित कर आचार्य को सौंप देते थे, पर अब वह परम्परा भी नहीं है। वर्तमान में जितनी भी दीक्षाएं होती हैं, उनमें निन्यानवें प्रतिशत आचार्य के हाथों से ही सम्पन्न होती हैं। एक प्रतिशत कहीं अन्यत्र आचार्य की स्वीकृति से दूसरे साधु-साध्वियों द्वारा सम्पन्न होती हैं। आचार्य को दीक्षा का सर्वाधिकार देकर भी उन्हें एक धारा के द्वारा फिर सचेत किया है-आचार्य भी उसे ही शिष्य बनाएं, जिसे अन्य बुद्धिमान् साधु भी दीक्षा के योग्य समझें। दूसरे साधुओं को जिसकी प्रतीति हो उसी को दीक्षा दें, जिसकी प्रतीति न हो उसे दीक्षा न दें। दीक्षा देने के बाद भी कोई अयोग्य हो तो बुद्धिमान् साधुओं की सहमति से उसे संघ से पृथक् कर दें। दीक्षा लेने का मुख्य हेतु वैराग्य है, किन्तु कोरे वैराग्य से संयम की साधना नहीं हो सकती। विरक्त आदमी इन्द्रिय और मन का संयम कर सकता है किन्तु संयम की मर्यादा इससे भी आगे है। भगवान् ने कहा १. लिखित, १८३२ २. वही, १८३२ ३. वही, १८३२ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ : भिक्षु विचार दर्शन है-जो जीवों को नही जानता, अजीवों को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा? जो जीवों को जानता है, अजीव को जानता है, वही संयम को जान सकेगा।' जीव है, अजीव है, बंधन है, उसके हेतु हैं, मुक्ति है, उसके हेतु हैं। साधक के लिए ये मौलिक तत्त्व हैं। इन्हीं के विस्तार को नव-तत्त्व कहा जाता है। आचार्य भिक्षु ने लिखा कि दीक्षार्थी को नव-तत्त्वों की पूरी जानकारी कराने के बाद दीक्षा दी जाए। आचार्य भिक्षु अपने जीवन में सदा सतर्क रहे। उन्होंने अन्तिम शिक्षा में भी यही कहा-"जिस-तिस को मत मूंड लेना, दीक्षा देने में पूरी सावधानी रखना।" इस प्रकार अयोग्य दीक्षा पर कड़ा प्रतिबन्ध लगा उन्होंने अनुशासन की भूमिका को सुदृढ़ बना दिया। ८. अनुशासन के दो पक्ष अनुशासन आत्म-शुद्धि के लिए भी आवश्यक होता है और सामदायिक व्यवस्था के लिए भी। इनमें एक नैश्चयिक पक्ष है और दूसरा व्यावहारिक। मुनि जीवन-भर के लिए पांच महाव्रतों को अंगीकार करता है, यह नैश्चयिक अनुशासन का पक्ष है। __ महाव्रतों को एक-एक कर स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसका स्वीकार एक ही साथ होता है। आचार्य भिक्षु के शब्दों में महाव्रत उस धागे में पिरोई हुई माला है जिसमें मनकों के बीच-बीच में गांठ नहीं होती। वे एक ही सरल धागे में एक ही साथ रहते हैं और धागा टूटता है तो सारे के सारे मनके गिर जाते हैं। अणुव्रत उस धागे में पिरोई हुई माला है, जिसमें प्रत्येक मनके के बीच गांठ होती है। वह एक गांठ के बाद एक होता है और धागा टूटता है तो एक ही मनका गिरता है, सारे के सारे नहीं गिरते। १. दशवैकालिक, ४.१२-१३ जो जीवे वि न याणाइ, अजीवे वि न याणइ। जीवाजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहीइ संजम॥ जो जवे वि वियाणाइ, अजीवे वि वियाणइ। जीवाजीवे वियाणतो, सो हु नाहीइ संजमं॥ . २. लिखित, १८३२ ३. वही, १८५६ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १५३ महाव्रतों की युगपत् प्राप्ति को आचार्यवर ने संवादात्मक शैली से समझाया है गुरु-हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह-ये पांच महान् दोष हैं। इनके द्वारा जीव दुःख की परम्परा को बनाए रखता है। शिष्य-भगवन्! सुख की प्राप्ति के उपाय क्या हैं? गुरु-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पांच महान् गुण हैं। इसके द्वारा जीव असीम सुख को प्राप्त होता है। . शिष्य-गुरुदेव! मैं अहिंसा महाव्रत को अंगीकार करता हूं। मैं आज से किसी भी प्रकार की हिंसा नहीं करूंगा। किन्तु गुरुदेव! वाणी पर मेरा इतना नियन्त्रण नहीं कि मैं असत्य बोलना छोड़ सकू। गुरु-शिष्य! इस प्रकार महाव्रत अंगीकार नहीं किये जा सकते। असत्य बोलने का त्याग किये बिना तुम अहिंसा-महाव्रती कैसे बन पाओगे? असत्य बोलने वाला हिंसा में धर्म बताने में क्या संकोच करेगा? ___ असत्य-भाषी इस सिद्धांत का भी प्रचार कर सकता है कि हिंसा में भी धर्म है तो उसे कौन रोकेगा? असत्य और हिंसा दोनों साथ-साथ रहते हैं। जहां हिंसा है, वहां असत्य वचन नहीं भी हो सकता, किन्तु जहां असत्य वचन है, वहां हिंसा अवश्य है। इसलिए असत्यभाषी रहकर तुम अहिंसा के महाव्रती नहीं बन सकते। शिष्य-गुरुदेव! मैं हिंसा और असत्य दोनों का त्याग करूंगा, परन्तु मैं चोरी नहीं छोड़ सकता। धर्म के प्रति मेरी अत्यन्त लालसा है। गुरु-तु हिंसा नहीं करेगा, असत्य भी नहीं बोलेगा तो चोरी कसे कर सकेगा? तू चोरी कर के सत्य बोलेगा तो चोरी का धन तेरे पास कैसे रहेगा लोग तुझे चोरी करने भी कब देंगे? - दूसरों का धन चुराने से कष्ट होता हैं। किसी को कष्ट देना हिंसा है। इस प्रकार तेरा पहला महाव्रत टूट जाएगा और तू यह कहे कि धन चुराने में हिंसा नहीं है तो दूसरा महाव्रत भी टूट जाएगा। शिष्य-अच्छा गुरुदेव! मैं इन तीनों महाव्रतों को अंगीकार कर लूंगा. पर मैं ब्रह्मचारी नहीं बन सकता। भोग मुझे बहुत प्रिय हैं। गुरु-अब्रह्मचारी पहले तीनों महाव्रतों को तोड़ देता हैं। अब्रह्मचर्य सभी गुणों को इस प्रकार जला डालता है जिस प्रकार धुनी हुई रुई को Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ : भिक्षु विचार दर्शन आग। अब्रह्मचर्य के सेवन से जीवों की हिंसा होती है-पहला महाव्रत टूट जाता है। हिंसा नहीं होती-ऐसा कहने पर दूसरा महाव्रत टूट जाता है। अब्रह्मचर्य का सेवन भगवान की आज्ञा के विरुद्ध है, इसलिए तीसरा महाव्रत टूट जाता है। इस प्रकार अब्रह्मचर्य-सेवन से पहले तीनों महाव्रत टूट जाते हैं। शिष्य-गुरुदेव! मैं अपनी आत्मा को वश में करूंगा। आप मुझे ये चारों महाव्रत अंगीकार करा दीजिए। पर पांचवें महाव्रत को अंगीकार करने में मैं अपने को असमर्थ पाता हूं। ममत्व को त्यागना मेरे लिए बहुत कठिन है। परिग्रह के बिना मेरा काम नहीं चल सकता। गुरु-यदि परिग्रह नहीं छोड़ा तो तूने छोड़ा ही क्या? हिंसा, असत्य चोरी और अब्रह्मचर्य-इन सब रोंगों की जड़ परिग्रह ही तो है। परिग्रह की छूट रख-कर तू अन्य महाव्रतों का पालन कैसे करेगा? मनुष्य परिग्रह के लिए हिंसा करता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है और भोग स्वयं परिग्रह है। इसलिए परिग्रह रखने वाला शेष महाव्रतों को अंगीकार नहीं कर सकता। शिष्य-गुरुदेव! केवल परिग्रह के कारण यदि मेरे चारों महाव्रत टूटते हैं तो मैं उसे भी त्याग दूंगा। मैं हिंसा आदि पांचों दोषों का मनसा, वाचा, कर्मणा सेवन नहीं करूंगा। अब तो मैं महाव्रती हूं न। गुरु-नहीं हो। शिष्य-यह कैसे? गुरु-तुम केवल हिंसा करने का त्याग करते हो, कराने का नहीं। इसका अर्थ हुआ कि तुम हिंसा करा सकते हो। तब भला महाव्रती कैसे? हिंसा करने वाला हिंसक है तो क्या कराने वाला हिंसक नहीं? घर मे तो पूरा अनाज ही खाने को नहीं मिलता और साधु बनकर बहुत सारे लोग राजसी ठाट भोगने लग जाते हैं। यह महाव्रत की आराधना का मार्ग नहीं है। शिष्य-गुरुदेव! मैं हिंसा कराने का त्याग करता हूं, फिर तो कुछ शेष नहीं होगा? गुरु-हिंसा के अनुमोदन का त्याग किए बिना महाव्रत कहां हैं? हिंसा करने, कराने वाला हिंसक है तो उसका अनुमोदन करने वाला अहिंसक कैसे होगा? Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १५५ शिष्य-समझ गया हूं, गुरुदेव! हिंसा आदि दोषों का सेवन करने, कराने और उनका अनुमोदन करने का मनसा, वाचा, कर्मणा त्याग करने वाला ही महाव्रती हो सकता है। भगवन् ! मैं ऐसा ही होना चाहता हूं। गुरु-जैसी तुम्हारी इच्छा। शिष्य-इनके टूटने का क्रम क्या है? यदि कदाचित् कोई महाव्रत टूट जाए तो शेष तो बचे रहेंगे? गुरु-यह कैसे हो सकता है? शिष्य-तो फिर यह कैसे हो सकता है कि एक के टूटने पर सभी टूट जाए। गुरु-एक भिखारी को पांच रोटी जितना आटा मिला। वह रोटी बनाने बैठा। उसने एक रोटी बना चूल्हे के पीछे रख दी। दूसरी रोटी तवे पर सिक रही थी, तीसरी अंगारों पर, चौथी रोटी का आटा उसके हाथ में था और पांचवी रोटी का आटा कठौती में पड़ा था। एक कुत्ता आया। कठौती से आटे को उठाकर ले गया। उसके पीछे-पीछे वह भिखारी दौड़ा। वह ठोकर खाकर गिर पड़ा। उसके हाथ में जो एक रोटी का आटा था वह धूल से भर गया। उसने वापस आकर देखा तवे के पीछे रखी हुई रोटी बिल्ली ले जा रही है। तवे पर रखी हुई रोटी तवे पर और अंगारों पर रखी हुई अंगारों पर जल गई। एक रोटी का आटा ही नहीं गया, पांच रोटियां चली गई। गुरु ने कहा-यह अकस्मात् हो सकता है, पर यह सुनिश्चित है कि एक महाव्रत के टूटने पर सभी महाव्रत टूट जाते हैं।' ____ महाव्रत मूल गुण हैं। इनकी सुरक्षा के लिए ही उत्तर-गुणों की सृष्टि होती है। मर्यादाएं उत्तर-गुण हैं। मूल पूंजी ही न रहे तो उसकी सुरक्षा का प्रश्न ही मूल्यहीन हो जाता है। अनुशासन और विनय का मूल्य महाव्रती जीवन में ही बढ़ता है। इसीलिए आचार्य भिक्षु ने एकाधिक बार कहा है कि मैंने जो मर्यादाएं की हैं, उनका मूल्य इसीलिए है कि वे महाव्रतों की सुरक्षा के उपाय हैं। ६. अनुशासन का उद्देश्य तीन प्रकार की नौकाएं हैं१. आचार री चौपाई, २४ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ : भिक्षु विचार दर्शन १. एक काठ की, जिसमें छेद नहीं होता। २. एक काठ की, किन्तु फूटी हुई। ३. एक पत्थर की। पहली नौका के समान साधु होते हैं, जो स्वयं तरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं। दूसरी कोटि की नौका के समान साधु का वेश धारण करने वाले हैं, जो स्वयं डूबते हैं और दूसरों को इबोते है। . तीसरी कोटि के समान पांखडी हैं, जो प्रत्यक्ष विरुद्ध हैं, इसलिए उसके जाल में लोग सहसा नहीं फंसते। वेशधारी प्रत्यक्ष विरुद्ध नहीं होते। इसलिए उनके जाल में लोग सहसा फंस जाते हैं। आचार्य भिक्षु ने अनुभव किया कि अनुशासन का भंग उच्छृखल वृत्तियों से होता है। अंकुश के बिना जैसे हाथी चलता है, लगाम के बिना जैसे घोड़ा चलता है, वैसे ही जो अनुशासन के बिना चलता है वह नामधारी साधु है। . इस युग में श्रमण थोड़े हैं और मुंडी अधिक हैं। वे साधु का भेख (वेश) पहनकर माया-जाल बिछा रहे हैं। इस माया-जाल की अन्त्येष्टि के लिए उन्होंने मर्यादाएं कीं। उनकी वाणी है-"शिष्यों! वस्त्रों और सुविधाकारी गांवों की ममता में बंधकर असंख्य जीव चरित्र से भ्रष्ट हो गए हैं। इसलिए मैंने शिष्यों की ममता को मिटाने व शुद्ध चरित्र को पालने का उपाय किया है, विनय मूल धर्म व न्याय-मार्ग पर चलने का प्रण किया है। वेशधारी विकल शिष्यों को मूंड इकट्ठा कर लेते हैं। वे शिष्यों के भूखे होकर परस्पर एक-दूसरे में दोष बतलाते हैं, एक-दूसरे के शिष्यों को फंटा पृथक् कर लेते हैं, कलह करते हैं, मैंने ये चरित्र देखे हैं। इसलिए मैंने साधुओं के लिए ये १. भिक्खु दृष्टिान्त ३०१, पृ. १२० २. आचार री चौपाई, १.३५ विण अंकुस जिम हाथी चाले, घोड़ो विगर लगाम जी। एहवी चाल कुगुरु री जाणो, कहिवा ने साध नाम जी|| ३. वही, २ दू. २ समण थोड़ा ने मुंड घणा, पांचमें आरे चेन। भेष लेइ साधां तणो, करसी कूडा फैन।। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १५७ मर्यादाएं की हैं। शिष्य-शाखा का सन्तोष कराकर सुखपूर्वक संयम पालने का उपाय किया। १०. विचार-स्वातन्त्र्य का सम्मान भारत में गणतन्त्र का इतिहास पुराना है। गणतन्त्र का अर्थ है-अनेक शासकों द्वारा चालित राज्य। जनतंत्र जनता का राज्य होता है। गणतन्त्र की अपेक्षा जनतंत्र अधिक विकासशील है। विकास की कसौटी है स्वतन्त्रता। स्वतंत्रता का मूल्य है आध्यात्मिक विचार। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्र सत्ता है। वह अपने ही कार्यों द्वारा स्वयं चालित होती है। उसकी व्यवस्था अपने आप में निहित है। प्रत्येक आत्मा स्वयं ब्रह्मा है, स्वयं विष्णु और स्वयं शंकर। . स्वतन्त्रता का वास्तविक मूल्यांकन धार्मिक जगत् में ही होता है। राजनीति में गणतन्त्र या जनतन्त्र हो सकता है, पर स्वतन्त्रता का विकास नहीं हो सकता। राज्य का मूल मन्त्र है-शक्ति और धर्म का मूल मंत्र है-पवित्रता। जहां शक्ति है वहां विवशता होगी और जहां पवित्रता है वहां हृदय की शुद्धि होगी। हृदय की शुद्धि जिस अनुशासन को स्वीकार करती है वह है धर्मशासन। विवशता से जो अनुशासन स्वीकार करना होता है वह है राज्यशासन। धर्म-शासन हृदय का शासन है। इसलिए उसे एकतन्त्र, गणतन्त्र, जनतन्त्र जैसी राजनीतिक संज्ञा नहीं दी जा सकती। फिर भी यदि हम नामकरण का लोभ संवरण न कर सकें तो आचार्य भिक्षु की शासन-प्रणाली को एकतन्त्र और जनतंत्र का समन्वय कह सकते हैं। एकतन्त्र इसलिए कि उसमें आचार्य का महत्त्व सर्वोपरि है। आचार्य महत्त्व सर्वोपरि है इसलिए इसे 'एकतन्त्र' की संज्ञा मिल जाती, यदि यह राजनीतिवाद होता। किन्तु यह धर्म-शासन का एक प्रकार है। इसमें आचार्य को मानने के लिए दूसरे विवश नहीं किये जाते, किन्तु साधना करने वाले स्वयं आचार्य को महत्त्व देते हैं। उनके निर्देश में ही अपनी यात्रा को निर्बाध समझते हैं। जनतन्त्र इसलिए कि आचार्य अपने शिष्यों पर अनुशासन लादते नहीं किन्तु उन्हें उन्हीं के हित के लिए उसकी आवश्यकता समझाकर १. लिखित, १८३२ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ : भिक्षु विचार दर्शन अनुशासित करते हैं । इसलिए यह न कोरा एकतन्त्र है और न कोरा जनतन्त्र, किन्तु एकतन्त्र और जनतन्त्र का समन्वय है । आचार्य भिक्षु ने एक मर्यादा - पत्र में लिखा है - " मैंने जो मर्यादाएं कीं हैं, ये सब साधुओं के मनोभावों को देखकर, उन्हें राजी कर, उनसे कहलाकर कि 'ये होनी चाहिए' की हैं। जिसका आन्तरिक विचार स्वच्छ हो वह इस मर्यादा-पत्र पर हस्ताक्षर करे । इसमें शर्माशर्मी का कोई काम नहीं है। मुंह पर और तथा मन में और यह साधु के लिए उचित नहीं है ।" यह हृदय की स्वतंत्रता ही एकतन्त्र में जनतन्त्र को समन्वित करती है । आचार्य भिक्षु ने अनुशासन को जितना महत्त्व दिया है, उतना ही स्वतन्त्रता का सम्मान किया है। एक ओर कोई साधु मर्यादा को स्वीकार करे और दूसरी ओर उसकी आलोचना न करे यह स्वतन्त्रता नहीं किन्तु अनुशासन है | स्वतन्त्रता वह है कि जो न जंचे, उसे स्वीकार ही न करे । स्वीकार कर लेने पर उसकी टीका-टिप्पणी करता रहे, यह अपने मतदान के प्रति भी न्याय नहीं है । ? एक साधु ने कहा- मुझे प्रायश्चित्त लेना है पर मैं आपके पास नहीं लूंगा। मुझे आपका विश्वास नहीं हैं 1 आपने कहा - 'आलोचना मेरे पास करो, दोष का निवेदन मुझे करो, फिर प्रायश्चित्त भले. उस तीसरे साधु से करो । प्रायश्चित्त कम बेशी नहीं देना चाहिए, यह अनुशासन का प्रश्न है । इसलिए आपने आलोचना किसी के पास करने की छूट नहीं दी । आलोचना आपके पास होती है तो प्रायश्चित्त देने वाला कम नहीं दे सकता । प्रायश्चित्त आचार्य के पास ही करना चाहिए, पर साधु ने दूसरे साधु के पास करना चाहा । यह उसकी मानसिक दुर्बलता है और आचार्यवर ने उसे यह छूट दी, वह उनकी मानसिक उच्चता है। यह ऊंचाई उन्हें स्वतन्त्रता का सम्मान करने के फलस्वरूप मिली थी । उन्होंने एक मर्यादा-पत्र लिखा - " जो साधु मुझसे प्रायश्चित्त ले वह मुझ में भरोसा रखे। मुझे जैसा दोष लगेगा वैसा प्रायश्चित्त मैं दूंगा । प्रायश्चित्त १. लिखित, १८३२ २. वही, १८३२ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १५६ देने के पश्चात् इसे थोड़ा दिया, उसे अधिक दिया-यों कहना अनुचित है। जिसे मुझ में विश्वास हो वह यह मर्यादा स्वीकार करे। जिसे मुझ में विश्वास न हो, वह न करे । मैं अपनी बुद्धि से तोलकर प्रायश्चित्त देता हूं। राग-द्वेषवश कम-बेशी दूंगा तो उसका फल मुझे भुगतना होगा। इस पर भी किसी को मेरा विश्वास न हो तो वह किसी दूसरे साधु से प्रायश्चित्त ले ले। पर प्रायश्चित्त लेने के बाद किसी प्रकार का विग्रह खड़ा न करे।' ___एक साधु की भूल ने उनकी छिपी हुई महानता को प्रकाश में ला दिया। किसी भी साधु ने इस भूल को नहीं दुहराया। । स्वतन्त्रता का सम्मान वही कर सकता है जो अनुभूति की गहराई में डुबकियां ले चुका हो। आचार्य भिक्षु ने बहुत देखा, बहुत सुना और बहुत सहा। आप एक बार वायु-रोग से पीड़ित हो गए थे, उन दिनों की बात है। हेमराज जी स्वामी ‘गोचरी' गए। भिक्षा की झोली आचार्यवर के सामने रखी। एक पात्र में दाल थी-चनों और मूंगों की मिली हुई। आचार्यवर ने पूछा-यह चनों और मूंगों की दाल किसने मिलाई। हेमराजजी-मैंने। आचार्यश्री-रोगी के लिए मूंग की दाल की खोज करना तो दूर रहा, किन्तु जो सहज प्राप्त हुआ उसे भी मिलाकर. लाया है? हेमराजजी--ध्यान नहीं रहा, अनजाने ऐसा हो गया। आचार्यश्री-यह ऐसी क्या गहरी बात थी, जो ध्यान नहीं रहा? हेमराजजी स्वामी को आचार्य भिक्षु की यह बात चुभी। वे उदास हो एकांत स्थान में जा लेट गए। आचार्य भिक्षु ने समय की सूई को कुछ और सरकने दिया। वे आहार कर आए और हेमराजजी स्वामी को सम्बोधित कर कहा-“अपना अवगुण देख रहा है या मेरा?' हेमराजजी स्वामी ने कहा- “गुरुदेव! अपना ही देख रहा हूं।" आचार्य भिक्षु बोले- 'मैंने जो कहा है वह चुभन उत्पन्न करने के लिए नहीं कहा है, किन्तु तेरी स्वतन्त्र बुद्धि का सम्मान बढ़े, इसलिए कहा है। ठीक-ठीक निर्णय करने में तू भूल न करे इसलिए कहा है।" १. लिखित, १८४१ २. भिक्खु दृष्टान्त, १६६, पृ. ६८ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० : भिक्षु विचार दर्शन ११. संघ-व्यवस्था भगवान् महावीर के समय १४,000 साधु और ३६,००० साध्वियां थीं। ६गण और ११ गणधर थे। उनकी समाचारी एक थी। उनका विभाजन व्यवस्था की दृष्टि से था। प्राचीन समय मैं साधु-संघ में सात पद थे-(१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) गणी, (४) गणवच्छेदक, (५) स्थविर, (६) प्रवर्तक और (७) प्रवर्तिनी। इनके द्वारा हजारों-हजारों साधु-साध्वियों का कार्य-संचालन होता था। इनमें आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। उपाध्याय का काम है संघ में शिक्षा का प्रसार करना, प्रवचन अविच्छिन्न रहे वैसी व्यवस्था करना। गणि-मुनि-गण का व्यवस्थापक। गणावच्छेदक-गण के विकास के लिए साधुओं की मण्डली को साथ लेकर गांव-गांव विहारने वाला और उनके संयम का ध्यान रखने वाला। स्थविर-बड़ी उम्र वाला विशेष अनुभवी मुनि। प्रवर्तक-संयम की शुद्धि और अभ्यास के लिए प्रेरणा देने वाला। प्रवर्तिनी-साध्वियों की व्यवस्था करने वाली साध्वी। एक व्यक्ति ने पूछा-आपके उपाध्याय कौन हैं? आचार्य भिक्षु ने उत्तर दिया-कोई नहीं। उसने कहा-उपाध्याय के बिना संघ पूर्ण कैसे होगा? आचार्य भिक्षु ने उत्तर दिया-संघ पूर्ण है। सातों पदों का काम मैं अकेला देख रहा हूं। __आचार्य और उपाध्याय एक होते थे-ऐसा प्राचीन साहित्य में मिलता है। आचार्य कई साधुओं का अर्थ पढ़ाते और कई ग्रन्थों का सूत्रं पढ़ाते। जिस शिष्यों को अर्थ पढ़ाते उनके लिए वे आचार्य होते और जिन्हें सूत्र-पाठ पढ़ाते उनके लिए वे ही उपाध्याय होते। इस प्रकार एक ही व्यक्ति किसी के लिए आचार्य, किसी के लिए उपाध्याय होते। __ ओघ नियुक्ति के अनुसार यह कोई आवश्यक नहीं कि आचार्य और उपाध्याय भिन्न ही हों। एक ही व्यक्ति शिष्यों को अर्थ और सूत्र दोनों दे सकता है और वह आचार्य और उपाध्याय दोनों हो सकता है। इससे जान १. स्थानांगवृत्ति, ५.२.४३८ २. नावम्यमाचार्योपाध्यायैर्भिन्नैर्भवितव्यम्, अपितु क्वचिदमावेव सूत्रै शिष्येभ्यः प्रयच्छत्यसावेव चार्थम्। (ओघ. वृ., पृ. ३) Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १६१ पड़ता है कि एक ही व्यक्ति के आचार्य और उपाध्याय होने की परम्परा पुरानी है। पर सातों पदों का काम एक ही व्यक्ति करे, यह नई परम्परा है। इसका सूत्रपात आचार्य भिक्षु ने किया। यह प्रथम दर्शन में कुछ अटपटा-सा लगता है। दूसरों के अधिकारों पर प्रहार और व्यक्तिवाद को बढ़ावा देने वाला कार्य-सा लगता है। थोड़े चिन्तन के बाद स्थिति ऐसी नहीं रहती। अधिकार का प्रश्न राज्य-शासन में होता है। धर्म-शासन में केवल धर्म-पालन का ही प्रश्न होता है। जो मुनि बनते हैं वे आचार्य, उपाध्याय आदि-आदि पद प्राप्ति के लिए नहीं बनते। वे आत्म-साधना के लिए मुनि बनते हैं। जहां आत्म-साधना गौण और पद-प्राप्ति प्रधान बन जाती है जहां मुनित्व ढोंग बन जाता है। जहां शासन आत्मा की होती है और पद का काम जिसे करना हो वह करे, वहां साधना प्रधान और सर्वोपरि अभिलषणीय तथा पद गौण बन जाता है। जिस साध-संघ में पद का प्रश्न सर्वोपरि होता है वह प्राणहीन बन जाता है। पद और प्रतिष्ठा की भूख कोई नई बीमारी नहीं है। यह शाश्वत-सी है। इसका समूल उन्मूलन होना तो बहुत ही कठिन है। इतना अवश्य होता है कि परिस्थिति की उत्तेजना मिलती है, तो वह बढ़ जाती है और उसकी उत्तेजना न मिलने पर वह शान्त रहती है। ___ आचार्य भिक्षु ने ऐसी व्यवस्था की, जिससे किसी भी साधु को आचार्य-पद की भूख रखने का अवसर ही न मिले। उन्होंने लिखा- “वर्तमान आचार्य की इच्छा हो तब वह गुरु-भाई अथवा अपने शिष्य को अपना उत्तराधिकारी चुने, उसे सब साधु-साध्वियां आचार्य मान लें। सब साधु-साध्वियां एक ही आचार्य की आज्ञा में रहें, यह परम्परा मैंने की है।" इस मर्यादा का तेरापंथ के आत्मार्थी साधु-साध्वियों ने बहुत ही आन्तरिकता से पालन किया है। आचार्य श्री तुलसी नवें आचार्य हैं। इन्हें इनके पूवर्ती आचार्य पूज्यप्रवर कालूगणी ने बाईस वर्ष की अवस्था में अपना उत्तराधिकारी चुना। उस समय पांच सौ के लगभग साधु-साध्वियां थीं। उसमें वय-प्राप्त भी थे, विद्वान् भी थे, सभी प्रकार के थे। यह आंखों-देखा १. लिखित, १८३२ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ : भिक्षु विचार दर्शन विवरण है कि आचार्य तुलसी को संघ ने वही सम्मान दिया, जो महान् यशस्वी पूर्ववर्ती आचार्य को देता था। छठे आचार्य माणकलालजी अपने उत्तराधिकारी का निर्वाचन नहीं कर सके। उनका अकस्मात् स्वर्गवास हो गया। फिर साधु-संघ मिला। सब साधुओं ने मुनि कालूजी को भार सौंपा। उन्होंने मुनि डालचन्दजी के नाम की घोषणा की। सब साधु-साध्वियों ने उन्हें अपना आचार्य स्वीकार कर लिया। हमारा इतिहास यह है कि आचार्य-पद के लिए कभी कोई विवाद नहीं हुआ। व्यवस्था आखिर व्यवस्था होती है। वह प्राणवान् साधना से बनती है। हमारा आचार्य और साधु जब तक साधना को महत्त्व देंगे, तब तक आचार्य-पद का प्रश्न जटिल नहीं बनेगा। साधना के गौण होने पर जो होता है सो होता ही है। ___ आचार्य-पद के निर्वाचन का प्रश्न जटिल न बने-इसका सम्बन्ध औरों की अपेक्षा आचार्य से अधिक है। आचार्य-पद व्यक्तिवाद से जितना अस्पृष्ट रह पाए उतना ही वह विवादास्पद बनने से बचता रहेगा। साधु साध्वियों से भी इसका सम्बन्ध न हो, ऐसा नहीं है। उनका दृष्टिकोण संघ की अपेक्षा अपना महत्त्व साधने में लग जाए तो आचार्य-पद की समस्या जटिल बने बिना नहीं रह पाती। स्वार्थ की दृष्टि खुलते ही सामुदायिकता का रूप धुंधला दीखने लगता है। १२. गण और गणी आचार्य भिक्षु की व्यवस्था में गणी की अपेक्षा गण का स्थान महत्त्वपूर्ण है। गणी गण में से ही आते हैं। गण स्थायी है, गणी बदलते रहते हैं। वे गण के प्रति उत्तरदायी होते हैं। गण के प्रति जैसी निष्ठा एक साधु की होती है, वैसी ही गणी की होती है। वे गण की सुव्यवस्था के लिए होते हैं। गण न हो तो गणी का अर्थ ही क्या? गण अवयवी है। गणी और साधु उसके अवयव हैं। गणी की तुलना पेट से की जाती है और साधु-साध्वियों की शेष अवयवों से। पेट से समूचे शरीर को पोष मिलता है; सभी अवयव उससे रस लेते हैं। सभी बीमारियां भी पेट से होती हैं। आचार्य की स्वस्थता सबसे अधिक अपेक्षित हैं। इसलिए Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १६३ आचार्य अपने उत्तराधिकारी के निर्वाचन में बहुत सूक्ष्मता से पर्यालोचन करते हैं। आचार्य के निर्वाचन में इन बातों पर विशेष ध्यान दिया जाता है (१) आचार-कुशलता, (२) गण-निष्ठा, (३) अनुशासन की क्षमता, (४) दूसरों को साथ लिये चलने की योग्यता और (५) ज्ञान और व्यावहारिक निपुणता। ___वर्तमान आचार्य को विश्वास हो जाता है और वे अपनी आयु के अन्तिम समय के लगभग या उससे पहले भी जब उचित लगे, तब वे एक पत्र लिख निर्वाचित मुनि को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर देते हैं। आचार्य भिक्षु ने भारमलजी को अपना उत्तराधिकारी चुनते समय जो लिखत' लिखां, उसी में वर्तमान युवाचार्य का नाम जोड़ एक प्रति लिखी जाती है और उसमें वर्तमान के सभी साधु-साध्वियां अपने हस्ताक्षर करते हैं। यह कार्य उनकी सहर्ष स्वीकृति का सूचक होता है। वर्तमान आचार्य की उपस्थिति में युवाचार्य का कार्य आचार्य जो आज्ञा दे उसी को क्रियान्वित करना होता है। आचार्य के स्वर्गवास होने के पश्चात् उनके सारे अधिकार युवाचार्य के हस्तगत हो जाते हैं। गण द्वारा विधिपूर्वक एक ‘पट्टोत्सव' मनाया जाता है और आचार्य का बहत सम्मान किया जाता है। आचार्य का इतना सम्मान, मेरी कल्पना नहीं है, कहीं देखने को मिले। आचार्य गण के साधु-साध्वियों को उसी शरीर के अवयव मानते हैं। पेट और शेष अवयवों में संघर्ष हो तो समूचे शरीर को क्लेश होता है। आहार जुटाना पेट का काम नहीं है तो आहार को पचाकर पोष देना शेष अवयवों का काम नहीं है। दोनों अपना-अपना कार्य करते हैं तब शरीर स्वस्थ रहता है, शक्ति बढ़ती है और सौन्दर्य खिलता है। आचार्य भिक्षु की व्यवस्था का प्राण यह सापेक्षता ही है। गणी का कार्य है, गण में समान आचार, समान विचार और समान प्ररूपणा को बनाए रखना। आचार और प्ररूपणा की समानता का मूल विचारों की समानता है। जैसा विचार होता है वैसा आचार बनता है और वैसी ही प्ररूपणा को बनाए रखना। आचार और प्ररूपणा की समानता का मूल विचारों की समानता है। जैसा विचार होता है वैसा आचार बनता है और वैसी ही प्ररूपणा की जाती है। विचारों में अन्तर आता है तब आचार और प्ररूपणा में भी भेद आ जाता है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ : भिक्षु विचार दर्शन विचार समान कैसे हो ? यह बहुत बड़ा प्रश्न है कि सब आदमी एक ही प्रकार से कैसे सोचें ? शरीर पर नियन्त्रण हो सकता है, पर विचारों पर नियन्त्रण कैसे हो ? विचारों पर नियन्त्रण किया जायें तो व्यक्ति की स्वतन्त्रता नष्ट होती है । विचारों को खुली छूट दी जाए तो एकता नष्ट होती है । ये दोनों अपूर्ण हैं । साम्यवादी स्वतन्त्र विचारों की अभिव्यक्ति पर नियन्त्रणं लगाते हैं तो जनतन्त्र में विचारों की उच्छृंखलतापूर्वक अभिव्यक्ति होती है । दोनों ही दोषमुक्त नहीं हैं। विचारों की स्वतन्त्रता की हत्या न हो और उच्छृंखलता न बढ़े, एकता का धागा न टूटे, इसलिए किसी तीसरी धारा की आवश्यकता है । जहां सिद्धांतवादिता कम होती है, वहां विचार-भेद भी कम होता है । सिद्धान्तों की गहराई में विचारों के भेद पनपते रहते हैं । जैन-दर्शन सिद्धान्तवादी अधिक है । उसमें तत्त्वों की छानबीन बड़ी सूक्ष्मता से की गई है । अहिंसा और संयम की ऐसी सूक्ष्म रेखाएं हैं कि जिनसे थोड़े में ही विचार-भेद की सृष्टि हो जाती है। इसके साथ अनेकान्त का ठीक-ठीक उपयोग किया जाए तो विवाद खड़े भी न हों और क्वचित् हो भी जाएं तो वे सहसा मिट जाएं पर उसका उपयोग बहुत कम किया जाता है 1 जैन-धर्म के सम्प्रदायों का इतिहास देखिए । उनकी स्थापना के मूल में जितना एकान्त है, उतना अनेकान्त नही । सम्प्रदाय बहुत है, यह कोई बहुत बड़ा दोष नहीं है । सम्प्रदायों में अनेकता बहुत है, यह बड़ा दोष है वीर - निर्वाण के पश्चात् शताब्दियों तक संघ में एकता रही। यद्यपि व्यवस्था की दृष्टि से कुल और गण अनेक थे, पर संघ एक था । वीर- निर्वाण की दसवीं शदी या देवर्धिगणी के पश्चात् संघ की एकता विच्छिन्न-सी होती गई। वर्तमान में केवल सम्प्रदाय हैं । संघ जैसी वस्तु आज नहीं है । पहले जो स्थिति संघ की थी वहीं आगे चलकर सम्प्रदायों की होने लगी। एक ही सम्प्रदाय में अनेक मत और अनेक परम्पराएं स्थापित होने लगीं। जैनों में आपसी मतभेद होने का मुख्य विषय आगम हैं । उनकी धार्मिक मान्यता का सर्वोपरि आधार आगम हैं। दिगम्बर जैन कहते हैं - आगम लुप्त हो गए। श्वेताम्बर जैन कहते हैं-कुछ आगम लुप्त हो गए और कुछ आगम अभी भी विद्यमान हैं। कुछ श्वेताम्बर सम्प्रदाय ४५ आगमों को और कुछ ३२ आगमों को प्रमाण मानते हैं । ४५ को प्रमाण मानने वालों में भी मतैक्य Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ व्यवस्था : १६५ I नहीं है और मतैक्य उनमें भी नहीं हैं जो ३२ को प्रमाण मानते है । इसका कारण भी कोई बहुत गहराई में नहीं है । आगम स्वयं अर्थ नहीं देते। वे अपनी अपेक्षाओं को खोलकर हमारे सामने नहीं रख देते । उनका अर्थ करने वाले हम ही होते हैं। उनकी अपेक्षाओं का निर्णय भी हम ही करते हैं । अन्तिम निर्णय हमारी ही बुद्धि करती है । हम अपनी बुद्धि द्वारा जिस सूत्र - पाठ की जैसे संगति बिठा सकते हैं, उसे उसी रूप में मान्य करते हैं । शब्द - ज्ञान को प्रमाण मानने में लाभ यह है कि उससे हमारे उच्छृंखल तर्क पर एक अंकुश लग जाता है। बहुश्रुतों द्वारा संचित ज्ञान-राशि से हमें अपूर्व आलोक मिलता है। हेय उपादेय का अपूर्व चिन्तन मिलता है और वह सब कुछ मिलता है जो साधना के लिए एक साधक को चाहिए। किन्तु पाने वाला केवल प्रकाश ही नहीं पाता, कुछ-न-कुछ अन्धकार भी पाता है । ज्ञान-र‍ न राशि में अन्धकार नहीं होता । हम कोरे ज्ञान को नहीं लेते, आगम के आशय को नहीं लेते, साथ-साथ शब्दों को भी पकड़ते हैं और शब्दों की पकड़ जितनी मजबूत होती है, उतनी आशय की होती ही नहीं । चतुर्मास में मुनि को एक जगह रहना चाहिए, यह आगमिक विधान है । वर्षाकाल में हरियाली और जीव-जन्तु अधिक उत्पन्न होते हैं, मार्ग जल से भर जाते हैं, पानी गिरता है - इन कारणों से चतुर्मास में विहार करने का निषेध है । दक्षिण भारत में कुछ प्रदेश ऐसे हैं जहां कार्तिक के पश्चात् बरसात शुरू होती है । आशय को पकड़ा जाए तो वहां चतुर्मास शरद् और हेमन्त में होना चाहिए । किन्तु शब्दों की पकड़ ऐसा नहीं होने देती । शब्दों को पकड़कर विचार-भेद खड़ा कर देने की समस्या नई नहीं है । इसका सामना भी सभी को करना पड़ता है। इसके द्वारा अनेकता भी उत्पन्न हुई है। आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ की व्यवस्था को इस अनेकता के दोष से बचाना चाहा। उन्होंने लिखा है- 'किसी साधु को आचार, श्रद्धा, सूत्र या कल्प सम्बन्धी किसी विषय की समझ न पड़े तो वह, आचार्य तथा बहुश्रुत साधु कहे, उसे मान ले । उनके समझाने पर भी बुद्धि में न बैठे तो उसे केवलीगम्य कर दे। किन्तु दूसरे साधुओं को सन्देह में डालने का यत्न न करे।"" “श्रद्धा या आचार का कोई नया विषय ध्यान में आए तो उसे बड़ों के सामने चर्चा जाए, औरों से न चर्चा जाए। औरों से उसकी चर्चा कर १. लिखित, १८४५ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ : भिक्षु विचार दर्शन उन्हें सन्देह में डालने का यत्न न किया जाए। बड़े जो उत्तर दें, वह अपने हृदय में बैठे तो मान लिया जाए और यदि न बैठे तो उसे केवलीगम्य कर दिया जाए। पर उसकी खींचतान बढ़ाकर गण में भेद न डाला जाए।" आचार्य भिक्षु का यह विधान संघ की एकता को अक्षुण्ण रखने का अमोघ उपाय है। वास्तविक सत्य क्या है? इसका समाधान हमारी बुद्धि के पास नहीं है। हम व्यावहारिक सत्य के आधार पर ही सारा कार्य चलाते हैं। हमने जो निर्णय किया, वही अन्तिम संत्य है-इतना आग्रह रखने जैसा सुदृढ़ साधन हमें उपलब्ध नहीं है। व्यावहारिक सत्य की स्वरूप-मीमांसा कविवर 'प्रसाद' ने बड़े प्रांजल ढंग से की है "और 'सत्य यह एक शब्द तू कितना गहन हुआ है। मेधा के क्रीड़ा पंजर का पाला हुआ सुआ है। सब बातों में खोज तुम्हारी रट-सी लगी हुई है। किन्तु स्पर्श यदि करते हम बनता छुईमुई है।" हम जिसे सत्य मानते हैं, सम्भव है वह सत्य न भी हो। हम जिसे सत्य नहीं मानते, संभव है वह सत्य हो। सीमित शब्दों में अनन्त सत्य को बांधना भी कठिन है और उसे सीमित बुद्धि द्वारा पकड़ना तो और भी अधिक कठिन है। इसीलिए आचार्य भिक्षु ने कहा-"हम जो कर रहे हैं वह उत्तरवर्ती आचार्यों को सही लगे तो करें और सही न लगे तो उसे छोड़ दें।" इस उक्ति के आधार पर अनेक परिवर्तन भी हुए। कुछ लोगों ने प्रश्न उपस्थित किया कि प्रचलित परम्परा में परिवर्तन जो किया है, उसका अर्थ यह हुआ कि या तो वे सही नहीं थे, या आप सही नहीं हैं, या तो उनकी मान्यता सही नहीं थी या आपकी सही नहीं है। इसका समाधान इन शब्दों १. लिखित, १८५० Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १६७ में किया जाता रहा है- “पूर्वी आचार्यों ने जो किया, उसे उन्होंने व्यवहार सत्य दृष्टि से सही मानकर किया, इसलिए वे भी सही हैं और अभी जो हम कर रहे हैं, उसे भी व्यवहार सत्य की दृष्टि से सही समझकर कर रहे है, इसलिए हम भी सही हैं। उनकी सत्य-निष्ठा में हमें विश्वास है, इसलिए हमारी दृष्टि से भी वे सही हैं और हमारी सत्य-निष्ठा में उनको विश्वास था, तभी तो उन्होंने हमें यह अधिकार दिया, इसलिए उनकी दृष्टि में हम सही हैं।" .. सत्य पूवर्ती आचार्यों या साधुओं की पकड़ में ही आ सकता है, यह कोई महत्त्व की बात नहीं है और वह आधुनिक आचार्यों या साधुओं की पकड़ में नहीं आ सकता, इसका भी कोई महत्त्व नहीं है। जो सत्य पहले नहीं पकड़ा गया, वह आज पकड़ा जा सकता है और जो आज नहीं पकड़ा गया, वह पहले पकड़ा गया है। यह विरोध नहीं है। यह सापेक्षता है। ज्ञान, बौद्धिक निर्मलता, चारित्रिक विशुद्धि, दृष्टि-सम्पन्नता और साधन-सामग्री अधिक उपलब्ध होते हैं तो सत्य के निकट पहंचने में सलभता होती है और इनकी उपलब्धि कम हो तो उसके निकट पहंचना दुर्लभ होता है। इनकी उपलब्धि किसी समय में सब की होती है, यह भी सच नहीं है और किसी समय में किसी को भी नहीं होती, यह भी सत्य से परे है। वह बहत ही महत्त्वपूर्ण है और सैद्धान्तिक मतभेदों को तान-तान कर आग्रह के गड्ढों में गिरने से बचाता है। इससे न तो विचार-स्वातन्त्र्य का हनन होता है और न आग्रह को वैसा बढ़ावा ही मिलता है, जिससे गण में कोई दरार पड़ सके। इतका सारांश यह है कि मनुष्य अपने विचार को व्यवहार में सत्य मानकर चले, किन्तु उसका इतना आग्रह न रखे, जिससे संगठन की एकता का भंग हो जाए। जो सत्य लगता है उसे छोड़ा भी कैसे जाए और जो सत्य नहीं लगता है, उसे स्वीकार भी कैसे किया जाए-यह समस्या है और यह जटिलतम समस्या है। पर यह भी उतनी ही बड़ी समस्या है कि जिससे मैं सत्य मानता हूं, वह सत्य ही है, इसका निर्णय मैं कैसे करता हूं? आखिर सीमित बुद्धि, १. श्रद्धा री चौपई, १६.५१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ : भिक्षु विचार दर्शन सीमित साधनों और देश-काल की सीमित मर्यादाओं के द्वारा ही तो मैं उसे सत्य मान रहा हूं। इसलिए इतना आग्रह कैसे रख सकता हूं कि जो मैंने पाया वही अन्तिम सत्य है। जो व्यक्ति अकेला हो या अकेला रहना चाहता हो, वह फिर भी ऐसा आग्रह रख सकता है, किन्तु जो किसी समुदाय में रहना चाहे और रहे, वह ऐसा आग्रह कैसे रखे? उसके लिए ऋजुपन्था यह है कि बहुश्रुत साधुओं व आचार्य के सामने अपना विचार रख दे, फिर वे जी मार्ग सुझाएं, उसका अनुगमन करे। ___ यह विचार-स्वतन्त्रता का हनन नहीं है। यह सामंजस्य का मार्ग है। यह किसी स्वार्थ या मानसिक दुर्बलता से किया जाए तो वह दोष हैं। यह निर्दोष तभी है, जबकि अपनी अपूर्णता और सत्य-शोध की विनम्र भावना से प्रेरित हो किया जाए। ___ आचार्य भिक्षु ने अन्तिम निर्णायक आचार्य को माना है। फिर भी उन्होंने बहुश्रुत साधुओं को उचित स्थान दिया है। उन्होंने लिखा है-“किसी विषय को प्रामाणिक या अप्रामाणिक ठहराने का अवसर आए तो उसके लिए बहुश्नुत साधुओं को भी पूछा जाए।'' किसी साधारण बुद्धि वाले साधु के जैसे कोई विचार-भेद हो सकता है, वैसे बहुश्रुत साधुओं में भी विचार-भेद हो सकता है। सामान्य साधु के लिए यह निर्देश पर्याप्त हो सकता है कि वह बहश्रुत के मार्ग का अनुगमन करे, किन्तु जब दो या अनेक बहुश्रुतों में परस्पर विचार-भेद हो जाए तब क्या किया जाए? . इसके समाधान का पहला सोपान तो यह है कि बहुश्रुत साधु परस्पर बातचीत कर, उस चर्चनीय विषय का समाधान ढूंढें । जैसा कि आचार्य भिक्षु ने लिखा है-“कोई चर्चा या श्रद्धा का प्रश्न उपस्थित हो तो बहुश्रुत या बुद्धिमान् साधु सोच-विचारकर उसका समाधान ढूंढ सामंजस्य बिठाए। किसी विषय का सामंजस्य न बैठे तो खींचतान न करें, उसे केवलीगम्य कर दें, किन्तु अंश मात्र भी खींचतान न करें।"२ । इससे भी काम पूरा न हो तो फिर आचार्य जो निर्णय दे, उसे मान्य १. लिखित, १८३२ २. वही, १८५६ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ व्यवस्था : १६६ 1 कर लें | आचार्य भिक्षु ने इस विषय की, अपने अनेक मर्यादा-पत्रों में चर्चा की है । उसका उद्देश्य विचार - स्वातन्त्र्य का लोप करना नहीं है। उसका उद्देश्य है, विचारों के संघर्ष को उपशान्त किये रखना । वैचारिक पराधीनता जैसे अच्छी बात नहीं है, वैसे ही वैचारिक संघर्ष भी अच्छा नहीं है। अच्छी बात है मन की शांति और शांति में से ही अच्छे विचार निकलते हैं । 1 जिसका मन दूसरों को शंकाशील बनाकर अपने गुट में लेने का होता है, जो गण में भेद डाल अपना नया गण खड़ा करना चाहता है, यह सब अशान्त मन की प्रतिक्रिया है । आचार्य भिक्षु इसको रोकना चाहते थे इसलिए उन्होंने पुनरुक्ति का विचार किए बिना बार-बार इसे दोहराया - "कोई श्रद्धा या आचार का नया विषय निकल जाए तो उसकी चर्चा बड़ों से की जाए, पर औरों से न की जाए। औरों से उसकी चर्चा कर उनको संदिग्ध न बनाया जाए। बड़े जो उत्तर दें वह अपने हृदय में बैठे तो उसे मान लिया जाये और न बैठे तो उसे केवलीगम्य कर दिया जाए। पर उस विवादास्पद विषय को लेकर गण में भेद न डाला जाए ।"" I समूचे का सारांश इतना है - " अपने विचारों का एकान्तिक आग्रह सामान्य साधु भी न करे, बहुश्रुत साधु भी न करे और आचार्य भी न करे तर्क की पूंछ को बहुत लम्बी न बनाए। सामान्य साधु बहुश्रुत और आचार्य पर विश्वास करे और आचार्य बहुश्रुतों की बात पर समुचित ध्यान दे।" इस प्रकार यह एक ऐसी शृंखला गूंथी है, जिसमें न कोई पूरा स्वतंत्र है और न कोई पूरा परतंत्र । स्वतंत्रता उतनी ही है कि जिससे साधना का मार्ग अवरुद्ध न हो और परतन्त्रता उतनी ही है कि जिससे साथ में रहने में बाधा उत्पन्न न हो । गण की शक्ति, सौहार्द और विकास का पथ अवरुद्ध न हो । १३. निर्णायकता के केन्द्र शास्त्रों में 'आचार्य' शब्द के अनेक निरुक्त और परिभाषाएं हैं। उनके पीछे अनेक अभिप्राय और अनेक कल्पनाएं हैं । कुछ वर्ष पहले मर्यादा - महोत्सव के अवसर पर मैंने एक कविता लिखी । उसमें आचार्य की परिभाषा इन शब्दों में है : १. लिखित, १८५० Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० : भिक्षु विचार दर्शन तू जो कहता सत्य नहीं हैं, मैं कहता हूं सत्य वही है। 'त'- 'मैं' के इस झगड़े का जो शांति-पाठ आचार्य वही है। संगठन की दृष्टि से यह परिभाषा मुझे बहुत अच्छी लगी। परिभाषा की सूझ मेरी नहीं है। मेरी अपनी वस्तु केवल कविता की पंक्तियां हैं। यह मौलिक तत्त्व आचार्य भिक्षु और उनके महान् भाष्यकार जयाचार्य से मिला। - जहां संगठन होता है, वहां अनेक व्यक्ति होते हैं और जहां अनेक व्यक्ति हैं वहां अनेक विचार होते हैं। अनेक विचार संगठन को एक कैसे बनाए रख सकते हैं? संगठन आचार और विचार एकरूपता के आधार पर ही टिक सकता है। जितने व्यक्ति उतने ही प्रकार के विचार-यह स्थिति संगठन के अनुकूल नहीं होती है। व्यक्तिगत विचारों की स्वतन्त्रता होती है और वह होनी ही साहिए, किन्तु उनकी भी एक सीमा है। जैसे एक व्यक्ति अपने विचारों के दिए स्वतन्त्र है वैसे दूसरा भी है। वैयक्तिक स्थिति में ऐसा हो सकता है ५. मिलकर चलने की स्थिति में ऐसा नहीं हो सकता। _संगठन व्यावहारिक होता है। व्यवहार की स्थिति का अनुमापन व्यवहार से ही होता है। वहां विचारों पर अंकुश नहीं लगता, किन्तु एकरूपता में खलल डालने वाले विचार पर नियन्त्रण अवश्य होता है। इसे भले ही संगठन की दुर्बलता मान जाए। पर यह किसी एक व्यक्ति की दुर्बलता नहीं है। जिन्होंने संगठन करना चाहा है, उन्होंने यह भी चाहा है कि हम एक-रूप रहें। इस एकरूपता की चाह में से ही तत्त्व प्रकट होता है कि उसमें बाधा डालने वाले विचारों पर नियन्त्रण रहे। साथ-साथ यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि कोरी एकरूपता भी अभीष्ट नहीं है। मूल सूखने लगे तब सौन्दर्य का मूल्य ही क्या है और वह टिकता भी कब है? सत्य, आचार और संयम की निष्ठा बनी रहे, उसी स्थिति से संगठन का महत्त्व है और उसी स्थिति में इसका महत्त्व है कि साधारण-सी बातों को लेकर अनेकता का बीज न बोया जाए। कोई नया विचार आए तो उसका प्रयोग संघ या संघपति-जहां निर्णायकता केन्द्रित हो, उन्हीं की स्वीकृति से किया जाए। ___ एकतन्त्रीय अनुशासन में निर्णायक एक होता है और बहुतन्त्र में कुछेक। सब-के-सब निर्णायक कहीं भी नहीं होते। एकतन्त्र में एक के सामने निन्यानवे की उपेक्षा हो सकती है और बहुतन्त्र में ५१ के सामने Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ - व्यवस्था : १७१ ४६ की। सर्वसम्मति निर्णय की स्थिति श्रद्धा ही है । विचार, तर्क या बुद्धि के प्रवाह से वह स्थिति नहीं बनती । श्रद्धा का अर्थ है - आग्रहहीनता, नम्रता और सत्य- शोध की सतत साधना । सत्य का शोधक कभी भी आग्रही नहीं होता । वह अपने विश्वास को दृढ़ता के साथ निभाता है, फिर भी नम्रता को नहीं छोड़ता । व्यक्ति-व्यक्ति की रुचि विचित्र होती है । संस्कार भी निराले होते हैं । अधिकांश व्यक्ति अपनी रुचि और संस्कारों को जितना महत्त्व देते हैं, उतना वस्तुस्थिति को नहीं देते । परन्तु साधना का मार्ग संस्कारों से ऊपर उठकर चलने का है। श्रद्धा की यही विशेषता है कि उसमें सारी शंकाएं लीन हो जाती हैं। नदियां कहीं सीधी चलती हैं और कहीं टेढ़ी । आखिर वे समुद्र के गर्भ में लीन हो जाती हैं। विचारों के प्रवाह कहीं ऋजु होते हैं और कहीं वक्र । आखिर वे आचार्य के निर्णय में लीन हो जाते हैं । यही है आचार्य भिक्षु की मर्यादा का माहात्म्य । रुचीनां वैचित्र्याद् ऋजुकुटिल नाना पथजुषां । नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ॥ दार्शनिक - कवि की वाणी में अद्वैत का जो काल्पनिक चित्र है उसे आचार्य भिक्षु ने साकार बना दिया । उसकी 'मर्यादावली' के 'अनुसार आचार्य सबके गम्य बन गए । १४. गण में कौन रहे? सम-विचार, आचार और निरूपणा के प्रकार में जिन्हें विश्वास होता है वे गण के सदस्य होते हैं । गण किसी एक-दो से नहीं बनता । वह अनेकों की सम - जीवन - परिपाटी से बनता है । गण तब बनता है जब एक-दूसरे में विश्वास हो । गण तब बनता है जब एक-दूसरे में आत्मीयता हो गण तब बनता है, जब सब में ध्येय की निष्ठा हो । आचार्य भिक्षु ने लिखा- "सब साधु शुद्ध आचार का पालन करें और परस्पर में प्रगाढ़ प्रेम रखें।" प्रेम परस्पर में रखना चाहिए - यह इष्ट बात है । इसका उपदेश देना भी इष्ट है । पर इष्ट की उपलब्धि कैसे हो? आचार्य भिक्षु ने उसके कई मार्ग सुझाएं हैं Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ : भिक्षु विचार दर्शन १. साधु गण के साधु-साध्वियों को साधु माने। २. जो अपने आपको भी साधु माने, वह गण में रहे। ३. कपटपूर्वक गण में साधुओं के साथ न रहे। ४. साधु नाम धराकर असाधुओं के साथ रहना अनुचित है। ५. जिसका मन शुद्ध हो वह ऐसा विश्वास दिलाए। ६. वह गण के किसी भी साधु-साध्वी का अवगुण बोलने का, आपस में एक-दूसरे के मन में भेद डालने का, एक-दूसरे को असाधु मनवाने का त्याग करे। ७. मेरी इच्छा होगी तब तक गण में बैठा हूं, इच्छा नहीं होगी तब यहां से चला जाऊंगा-इस अनास्था से गण में न रहे। ८. संकोचवश गण में न रहे। इसमें गण, गणी और गण के सभी सदस्यों के प्रति और अपने प्रति भी आस्था की अभिव्यंजना है। जिसकी ऐसी आस्था होती है, वह दूसरों का प्रेम ले सकता है और अपना प्रेम दूसरों को दे सकता है। प्रेम तभी टूटता है जब एक-दूसरे में मास्था का भाव होता है। १५. गण में किसे रखा जाए? योग्यता और अयोग्यता का अंकन कई दृष्टियों से होता है। स्वस्थ व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से योग्य होता है और अस्वस्थ व्यक्ति अयोग्य। बौद्धिक योग्यता किसी में होती है, किसी में नहीं होती। कोमल प्रकृति वाला व्यक्ति स्वभाव से योग्य होता है और कठोर प्रकृति वाला अयोग्य। शारीरिक अशक्ति की स्थिति में दूसरों को कष्ट होता है। सेवा का कष्ट शारीरिक है। पर वह वस्तुत; कष्ट नहीं, श्रम है। बौद्धिक योग्यता हो तो बहुत लाभ होता है। वह न हो तो उतना लाभ नहीं होता, पर उससे किसी को क्लेश भी नहीं होता। स्वभाव की चण्डता जो है वह दूसरों में क्लेश उत्पन्न करती है। आचार्य भिक्षु ने शारीरिक अयोग्यता वाले व्यक्ति को गण में रखने योग्य बतलाया है। उन्होंने वैसे व्यक्ति को गण में रखने के अयोग्य बतलाया १. लिखित, १८५० २. वही, १८४५ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १७३ है जो अपने स्वभाव पर नियन्त्रण न रख सके। उन्होंने लिखा १. कोई साधु रुग्ण हो या बूढ़ा हो तब दूसरे साधु अग्लान भाव से वैयावृत्त्य-सेवा करें। २. उसे संलेखना-विशिष्ट तपस्या करने को न उकसाएं। ३. वह विहार करना चाहे और उसकी आंखें दुर्बल हो तो दूसरा साधु उसे देख-देख चलाए। ४. वह रुग्ण हो तो उसका बोझ दूसरे साधु लें। ५. उसका मन चढ़ता रहे वैसा कार्य करें। ६. उसमें साधुपन हो तो उसे 'छेह' न दें-छोड़ें नहीं। ७. वह अपनी स्वतन्त्र भावना से वैराग्यपूर्वक संलेखना करना चाहे तो उसे सहयोग दें, उसकी सेवा करें। ८. कदाचित् एक साधु उसकी सेवा करने में अपने को असमर्थ माने तो सभी साधु अनुक्रम से उसकी सेवा करें। ६. कोई सेवा न करे तो उसे टोका जाए और उससे कराई जाए। . १०. रुग्ण साधु को सब साधु इकट्ठे होकर जो कहें, वह आहार दिया जाए। . ११. किसी साधु का स्वभाव अयोग्य हो, जिसे कोई निभा न सके, जिसे कोई साथ न ले जाए, तब उसे विनम्र व्यवहार करना चाहिए। बड़े साधु जैसे चलाएं वैसे चले । विनम्र व्यवहार में न लग सके तो वह तपस्या में लग जाए। इन दोनों में से कोई कार्य न करे तो उसके साथ फिर कौन क्लेश करता रहेगा? १२.रोगी की अपेक्षा स्वभाव का अयोग्य अधिक दुःखदायी होता है। उसे गण में रखना अच्छा नहीं है। १३. जो मर्यादाओं को स्वीकार करे उसे गण में रखा जाए। योग्य व्यक्ति गण में होते हैं, उससे गण की शोभा बढ़ती है और साधना का पथ भी सरल बनता है। अयोग्य व्यक्ति में साधना का भाव नहीं होता, अपनी प्रकृति पर वह नियन्त्रण करना नहीं चाहता या कर नहीं पाता। उससे गण की अवहेलना होती है और दूसरों को भी बुरा बनने का १. लिखित : १८४५ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ : भिक्षु विचार दर्शन अवसर मिलता है। कुछ व्यक्ति निसर्ग से ही अयोग्य होते हैं और कुछेक अपने आप पर नियंत्रण न रखने के कारण अयोग्य बन जाते हैं। आचार्य भिक्षु ने उन कारणों का उल्लेख किया है जिनसे अयोग्यता आती है और बढ़ती है। उनकी वाणी है-“शिष्यो! कपड़े और सुख-सुविधा मिले, वैसे गांवों की ममता कर बहुत जीव चरित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं।" कुछ कारण ऐसे होते हैं कि किसी साधु को गण से पृथक् करना पड़ता है और कुछ प्रसंगों में साधु स्वयं गण से पृथक् हो जाते हैं। अकल्पनीय कार्य करने वाले साधु को गण से पृथक् करने की विधि बहुत ही प्राचीन है। दीक्षित करने का अधिकार जैसे मूलतः आचार्य के हाथों में है, वैसे ही किसी को गण से पृथक् करने का अधिकार भी आचार्य के हाथों में है। परम्परा यह हो गई कि पहले कोई व्यक्ति योग्य जान पड़ता तो साधु उसे दीक्षित कर लेते, पर अब ऐसा नहीं होता। गण से पृथक् करने अधिकार इससे अधिक व्यापक है। कोई साधु गण की मर्यादा के प्रतिकूल चले तो उसे गण से पृथक् करने का अधिकार सबको है। ऐसे भी प्रसंग आए हैं कि गृहस्थों ने भी साधुओं को पृथक् कर दिया। परन्तु इस कार्य में विवेक की बहुत आवश्यकता है। अधिकार होने पर भी उपयोग वही करता है और उसे करना भी चाहिए कि जो परिस्थिति का सही-सही अंकन कर सके। कोई व्यक्ति जैन-मुनि बनता है, यह बहुत बड़ी बात है। मुनि कुछेक वर्षों के लिए नहीं बनता, उसे जीवन भर मुनि-धर्म का पालन करना होता है। गृहस्थ-जीवन से उसके सारे सम्बन्ध छूट जाते हैं। उसके पास भावी जीवन की कोई निधि नहीं होती। वह निरालम्ब मार्ग में ही चलता है। वैसी स्थिति में पूर्ण चिन्तन किए बिना किसी को गण से पृथक् कर देना न्याय नहीं होता। इसलिए सामान्य स्थिति में इस विषय में अधिकार का उपयोग करने से पूर्व आचार्य की सहमति प्राप्त करना अपेक्षित-सा लगता है। गण से स्वयं पृथक् होने के अनेक कारण हैं। कुछ कारणों का उल्लेख आचार्य भिक्षु ने किया है। जैसे १. कोई साधुपन का पालन न कर सके। २. किसी भी साधु से स्वभाव न मिले। - १. लिखित, १८३२ २. स्थानांग, ३१७३ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १७५ ३. क्रोधी या ढीठ जानकर कोई भी अपने पास न रखे। ४. विहार करने के लिए सुविधाजनक गांव में न भेजा जाए। ५. कपड़ा मनचाहा न दिया जाए। ६. अयोग्य जानकर दूसरे साधु मुझे गण से पृथक् करने वाले हैं-ऐसा मालूम हो जाए। ये तथा ऐसे और भी अनेक कारण हैं, जिनसे प्रभावित हो कर कोई साधु गण से पृथक् हो जाता है। १६. पृथक् होते समय साधु-जीवन साधना का जीवन है। उसमें बल से कुछ भी नहीं होता। साधना हृदय की पूर्ण स्वतन्त्रता से ही हो सकती है। आचार्य साधुओं पर अनुशासन करते हैं पर तभी, जबकि साधु ऐसा चाहें। मार्गदर्शन या शिक्षा प्रार्थी को दी जाती है। कोई प्रार्थी ही न हो तो उसे कौन क्या मार्ग दिखाए और कौन क्या सीख दे? शिष्य आचार्य के अनुशासन का प्रार्थी होता है। इसलिए आचार्य उसे अनुशासन देते हैं। जब वह प्रार्थी न रहे तव आचार्य भी अपना हाथ खींच लेते हैं। फिर वह स्वतन्त्र है, जहां चाहे वहां रहे और जो चाहे सो करे। गण से पृथक् होने का यही अर्थ है। __ आचार्य भिक्षु ने इसके लिए कुछ निर्देश दिए हैं। उनके अभिमत में गण से पृथक् होते समय और होने के पश्चात् भी कुछ शिप्टंताओं का पालन करना चाहिए १. किसी का मन गण से उचट जाए अथवा किसी से साधु-जीवन न निभे, उस सयम वह गण से पृथक् हो तो किसी दूसरे साधु को साथ न ले जाए। २. किसी को शिष्य बनाने के लिए गण से पृथक् हो तो शिष्य बनाकर नया मार्ग या नया सम्प्रदाय न चलाए। __ ३. गण से पृथक् होने का मन हो जाने पर गृहस्थों के सामने दूसरे साधुओं की निंदा न करे। ४. गण में रहकर ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करे या कराए अथवा किसी के पास से ले, वे तब तक ही उसकी हैं जब तक गण में रहे। गण से १. लिखित : १८५० Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ : भिक्षु विचार दर्शन पृथक् होने के समय उन्हें साथ न ले जाए; क्योंकि वे सब गण के साधुओं की “निश्रा' में हैं। ५. कोई पुस्तक आदि गृहस्थों से ले, उन्हें आचार्य की, गण की 'निश्रा' में ले, अपनी 'निश्रा' में न ले। अनजाने में कोई ले भी ले तो वे पुस्तक-पन्ने आचार्य के हैं, गण के हैं, उन्हें गण से पृथक् होते समय साथ न ले जाए। ६. पात्र आदि भी गण में रहता हुआ ले, वे भी आचार्य गण की 'निश्रा' में ले, आचार्य दे वह ले। पृथक् होते समय उसे साथ न ले जाए। ७. नया कपड़ा ले, वह भी आचार्य और गण की 'निश्रा' में ले। गण से पृथक् होते समय उसे साथ न ले जाए। ८. गण से पृथक् होने के पश्चात् गण के साधु-साध्वियों के अवगुण न बोले। ६. शंका बढ़े, आस्था घटे, वैसी बात न कहे। १०. गण में से किसी साधु को फंटाकर साथ न ले जाए, वह आए तो भी न ले जाए।' ११. गण से पृथक् कर देने पर या स्वयं हो जाने पर वहां न रहे, जहां इस गण के अनुयायी रहते हैं। चलते-चलते मार्ग में वह गांव आ जाए तो एक रात से अधिक न रहे। कारण विशेष में रहे तो 'विगय' न खाए। (कोई पूछे यह निषेध क्यों, तो उसका कारण आचार्य भिक्षु ने इन शब्दों में बताया है-"राग-द्वेष और क्लेश बढ़ने तथा उपकार घटने की सम्भावना को ध्यान में रखकर ऐसा किया है।") गण से पृथक होते समय एक पुराना 'चोलपट्टा', एक ‘पछेवड़ी', चद्दर मुखवस्त्रिका, पुराने कपड़े और पुराना रजोहरण-इनके सिवाय और कोई उपकरण या पुस्तक साथ में न ले जाए। इन निर्देशों में सामुदायिक जीवन-प्रणाली की एक स्पष्ट रूपरेखा है आचार्य भिक्षु ने जितना बल संविभाग पर दिया है उतना ही बल प्रत्येक धर्मोपकरण के संघीयकरण पर दिया है। साधु किसी भी धर्मापकरण पर ममत्व न रखे-यह आगमिक सिद्धान्त है। इसे उन्होंने व्यवस्था के द्वार व्यावहारिक रूप प्रदान किया। १. लिखित, १८५० २. वही, १८५६ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. गुटबन्दी साधना और गुटबन्दी का भला क्या मेल । गुटबन्दी वे करते हैं, जिन्हें अधिकार हथियाना हो । गुटबन्दी वे करते हैं जिन्हें सत्ता हथियानी हो । साधना धर्म है। जहां धर्म होता है, वहां न अधिकार होता है और न सत्ता । फिर भी समुदाय आखिर समुदाय है । वह गुटबन्दी की परिस्थिति है । जिनके विचार और स्वार्थ एक रेखा पर पहुंचते हैं वे स्नेह-सूत्र में बन्ध जाते हैं और परमार्थ को कुछ विस्मृत-सा कर देते हैं । साधु-संघ में गुटबन्दी के कारण जो बनते हैं उनका उल्लेख आचार्य भिक्षुन ने किया - किसी " साधु को विहार क्षेत्र साधारण-सा सौंपा गया अथवा कपड़ा साधारण दिया गया-इन कारणों तथा ऐसे ही दूसरे कारणों से कुपित होकर वे आचार्य की निन्दा करते हैं; अवगुण बोलते हैं, परस्पर मिलकर गुटबन्दी करते हैं । ' " किन्तु गण में रहते हुए भी दूसरे साधुओं के मन में भेद डालकर जो गुटबन्दी करते हैं, वे विश्वासघाती हैं। ऐसा करने वाले चिर काल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं ।" " २ संघ - व्यवस्था : १७७ गुटबन्दी राजनीति का चक्र है। इसमें फंसने वाला साधक अपनी साधना को जीर्ण-शीर्ण कर देता है । अपमान उसी के लिए है, जिसके चित्त का विक्षेप होता है। जिसके चित्त का विक्षेप नहीं होता उसके लिए अपमान जैसी कोई वस्तु है ही नहीं: अपमानादयस्तस्य, विक्षेपो यस्य चेतसः॥ नापमानादयस्तस्य, न क्षेपो यस्य चेतसः ॥ जिस चित्त का विक्षेप नहीं छोड़ा वह कैसा है साधक और कैसी है उसकी साधना ? मन-मुटाव का प्रमुख कारण है स्वार्थ की क्षति । जो स्वार्थ में लिप्त होता है, यह निर्लेप नहीं बन सकता। आचार्य के अनुग्रह का महत्त्व यही है कि उससे साधु को साधना का सहयोग मिले। उसे भी किसी स्वार्थ की पूर्ति में लगाए तो वह अनुग्रह कोई विशेष मूल्य नहीं रखता । आचार्य का १. लिखित, १८५० २. वही, १८४५ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ : भिक्षु विचार दर्शन पर्याप्त अनुग्रह न हो, उससे खिन्न होकर गण में भेद डालने का यत्न करता है उसने साधना का मर्म नहीं समझा। गुटबन्दी का अर्थ है-साधना की अपरिपक्वता। आचार्य भिक्षु ने गुटबन्दी को साधना के लिए सद्योघाती आतंक कहा है। १८. क्या माना जाए? साधु-समुदाय के लिए कुल, गण और संघ-ये तीन शब्द व्यवहत होते हैं। कुल से गण और गण से संघ व्यापक है। एक आचार्य के शिष्य-समूह को कुल, दो आचार्यों के सहवर्ती शिष्य-समूह को गण और अनेक आचार्यों के सहवर्ती शिष्य-समूह को संघ कहा जाता है। तेरापंथ साधु-समूह के लिए प्रायः गण शब्द का प्रयोग होता है। कुछ लोग साथ में रहते हैं-इतने मात्र से उनका गण नहीं होता। गण तब होता है जब वे एक व्यवस्था-सूत्र में आबद्ध होकर रहें। गण का मूल आधार व्यवस्था है। जिस व्यवस्था में जो रहे वह उस गण का सदस्य होता है और उस व्यवस्था से अलग होने पर वह उसका सदस्य नहीं होता। आचार्य भिक्षु ने कहा-“जो कोई साधु गण से अलग हो जाए, उसे साधु न माना जाए, चार तीर्थ में उसकी गिनती न की जाए। उसे वन्दना करना जिनाज्ञा के प्रतिकूल है।" चारित्र को निभाने की अक्षमता, स्वभाव की अयोग्यता, मन-भेद और मत-भेद आदि-आदि गण से पृथक् होने या करने के कारण है। जो मतभेद के कारण गण से अलग होते हैं, उनको लेकर यह तर्क आता है कि उन्हें साधु क्यों न माना जाए? एक व्यक्ति बीस वर्ष तक गण में रहे तब तक वह साधु और गण से अलग होते ही वह साधु नहीं-यह कैसे हो सकता है? तर्क अकारण नहीं है। क्योंकि साधुत्व कोई लोह नहीं है, जो गणरूपी लोहचुम्बक से चिपटा रहे और उसे छोड़ बाहर न जा सके। वह मुक्त-हृदय की उन्मुक्त साधना है। किन्तु आचार्य भिक्षु ने जो कहा वह भी तो अपेक्षा से मुक्त नहीं है। आगम का प्रत्येक वचन अपेक्षा से युक्त होता है तब आचार्य भिक्षु का वचन अपेक्षा से मुक्त कैसे होगा? गुण से पृथक् हुए साधु को साधु न माना जाए-यह यथार्थ दृष्टिकोण है। जो साधु पहले तेरापंथ १. लिखित, १८३२ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १७६ गण का साधु था, वह गण से पृथक् होने के पश्चात् उस गण का कैसे रहे.. जो गण में हों, वे भी गण के साधु और जो पृथक् हो जाएं, वे भी गण के साधु माने जाएं तो फिर मण में रहने या उससे पृथक् होने का अर्थ ही क्या हो? गण का साधु वही है जो गण की व्यवस्था का पालन करे। उसका पालन न करे, वह गण का साधु नहीं है। इसलिए आचार्य भिक्षु ने लिखा-“उसे चार तीर्थ में न गिना जाए।" - वह वास्तव में क्या है? इस चर्चा में हम क्यों जाएं? दूसरे भी हजारों साधु हैं, वैसे ही वह है। गण की व्यवस्था में जिसे विश्वास है, वह उसे गण का साधु न माने, इस मर्यादा का आशय यही है। १६. दोष-परिमार्जन जो चलता है वह स्खलित भी हो जाता है। स्खलित होना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है चलना। व्यवस्था इसलिए होती है कि व्यक्ति चले और स्खलित न हो। अकेला व्यक्ति चलता है या स्खलित होता है, उसका उत्तरदायी वह स्वयं होता है। समुदाय में कोई चलता है या स्खलित होता है, उसका उत्तरादियत्व समुदाय पर होता है। साधना के क्षेत्र में व्यक्ति समुदाय में रहते हुए भी अकेला होता है, इसलिए उसका दायित्व भी स्वयं पर अधिक होता है। किन्तु समुदाय में रहने वाला अकेला ही नहीं होता, इसलिए उसका दायित्व समुदाय पर भी होता है। समुदाय में कोई दोष-सेवन करे, उसे कोई दूसरा देखे, उस समय देखने वाले का क्या कर्तव्य है, यह विर्मश-योग्य विषय है। एक बार भाई किशोरलाल घनश्यामदास मश्रूवाला से पूछा गया-“गांधी जी की आपको सबसे बड़ी देन क्या है?' इसका जवाब भाई मश्रूवाला ने इस प्रकार दिया : ___“गांधी जी हमें कहते थे कि अगर किसी आदमी के खिलाफ तुम्हारे मन में कोई बात उठी हो तो उसके बारे में उसी आदमी के साथ बात कर लेनी चाहिए। हम हिन्दुस्तानियों में यह हिम्मत कम है। यदि हमें किसी व्यक्ति पर संदेह हुआ या उसके प्रति असन्तोष हुआ तो उसकी शिकायत या निन्दा हम दूसरों के सामने करते हैं, मगर खुद उसके सामने बात नहीं निकालते बल्कि उसे तो हम ऐसा भी दिखा देते हैं, मानो उसके खिलाफ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० : भिक्षु विचार दर्शन हमारे दिल में कुछ है ही नहीं। अपने दिल को छिपाकर बोलने की आदत हमने बना ली है। हमारा ऐसा भी खयाल है कि यह आदत सभ्यता, तहजीब की निशानी है या विवेक है। लेकिन वस्तुतः यह विवेक नहीं, चरित्र की कमजोरी है।" ___ इस पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं : “गांधीजी की यह सलाह ईशु के एक उपदेश की याद दिलाती है। अपने एक उपदेश में ईशु ने अपने शिष्यों से कहा-'तुम मन्दिर में पूजा करने जाओ और पूजा करते-करते तुम्हें याद आए कि तुम्हारे मन में किसी भाई के प्रति बुराई आयी है तो अपनी पूजा अधूरी छोड़कर पहले उसके पास जाओ, खुलासा करो और बाद में आकर अपनी पूजा पूरी करो। पूज्य बापू की इस सलाह पर चलने का मैंने प्रयत्न किया है। परिणाम बहुत अछे आए हैं। बात करने के समय अपने जोश को रोककर शान्त वाणी से बोलने का आत्म-संयम यदि मुझमें हो तो परिणाम और भी अच्छे आ सकते हैं। आत्म-संयम की कमी जोश पर काबू पाने में अड़चन पैदा करती है। फिर भी मेरा अनुभव ऐसा है कि जिसके विषय में आशंका उठी हो उसके साथ सीधी और साफ बात कर लेने से और उसके लिए अपने मन में सच्ची भावना प्रकट कर लेने से यदि उस क्षण उसे बुरा लगे तो भी गलतफहमी, दम्भ और चुगलखोरी फैलने नहीं पाती। 'क' की बात 'क' को कह देने से दूसरों के सामने कहते फिरने की वृत्ति कमजोर हो जाती है।" ___ भाई मश्रूवाला ने उपर्युक्त उद्गारों में महात्माजी के जिस जीवन-सूत्र की चर्चा की है, वह बहुत ही बहुमूल्य है। आचार्य भिक्षु ने साधुओं और श्रावकों को यही शिक्षा दी थी। निंदा और विषमवाद को मिटाने के लिए उन्होंने लिखा था-“कोई व्यक्ति किसी साधु-साध्वी में दोष देखे, तो तत्काल उसी को कह दे अथवा गुरु को कह दे पर दूसरो को न कहे।"१ ___दो दृष्टिकोण होते हैं-एक सुधारने का और दूसरा अपमानित करने का। जिसने दोष किया हो उसे या गुरु को कहा जाए-यह सुधारने का दृष्टिकोण है। उन्हें न कहकर और-और लोगों को कहा जाए-यह किसी १. लिखित, १८५० Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १८१ को अपमानित करने का दृष्टिकोण है। दूसरों को अपमानित कर स्वयं आगे आने की जो भावना है, वह दोष-पूर्ण पद्धति है। इसमें एक दूसरे को दोषी ठहराकर गिराने की परिपाटी हो जाती है। जिस संस्था या सभा के सदस्यों में एक-दूसरे को ओछा दिखाने की भावना या प्रवृत्ति नहीं होती, केवल एक-दूसरे को शुद्ध रखने के लिए ही दोषी को उसके दोष की ओर ध्यान दिलाने की कर्त्तव्य-भावना होती है, उस संस्था या समाज के चरित्र, प्रेम और संगठन दृढ़तम होते हैं। दोष थोपना भी पाप है, उसका प्रचार करना भी पाप है और उसकी उपेक्षा करना भी पाप है। सत्पुरुष का कर्तव्य यह है कि वह कोरी सन्देह-भावना से किसी को दोषी न ठहराए। दोष देखे तो उसे या गुरु को जताए, और कहीं उसका प्रचार न करे। . इस विषय में दो महत्त्वपूर्ण बातें ये हैं-१. दोष देखे तो तत्काल कह दे। तत्काल का अर्थ उसी समय नहीं है किन्तु लम्बे समय तक दोष को छिपाए न रखे। २. दोषों को इकट्ठा न करे। ___आचार्य भिक्षु ने कहा-“बहुत दिनों के बाद कोई किसी में दोष बताए तो प्रायश्चित्त का भागी वही है, जो दोष बताता है। जिसने दोष किया हो, उसे याद हो तो, उसे प्रायश्चित्त करना ही चाहिए।" बहुत दिनों के बाद जो दोष बताए उसकी बात कैसे मानी जाए? उसकी बात में सचाई हो तो ज्ञानी जाने, परन्तु व्यवहार में उसका विश्वास नहीं होता। जो दोषों को इकट्ठा करता है, वह अन्यायवादी है। जब आपस में प्रेम होता है तब तो उसके दोषों को छिपाता है और प्रेम टूटने पर दोषों की गठरी खोल फेंकता है, उस व्यक्ति का विश्वास कैसे हो? यह विपरीत १. लिखित १८५० २. (क) आचार री चौपाई, १५.८ : घणा दिना रा दोष बतावे, ते तो मानवा में किम आवे। साच झूठ तो केवली जाणे, छदमस्थ प्रतीत न आणे।। (ख) लिखित, १८५० ३. लिखित, १८५० Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ : भिक्षु विचार दर्शन बुद्धि है। दोष बताने वाला ही दोषी नहीं है, उसे सुनने वाला भी दोषी है। सुनने वालों का कर्तव्य क्या होना चाहिए? इसे भी आचार्य भिक्षु ने स्पष्ट किया है- “कोई गृहस्थ साधु-साध्वियों के स्वभाव या दोष के सम्बन्ध में कुछ बताए तो श्रोता उसे यह कहे कि मुझे क्यों कहते हो या तो उसी को कहो या गुरु को कहो, जिससे प्रायश्चित्त देकर उसे शुद्ध करें। गुरु को नहीं कहोगे तो तुम भी दोष के भागी हो, तुममें भी वक्रता है। मुझे कहने का अर्थ क्या होगा? यह कहकर उस झमेले से अलग हो जाए, उस पंचायत में न फंसे। दोष के प्रकरण को लेकर आचार्य भिक्षु ने एक पूरा ‘लिखित' लिखा। उसका सारांश इस प्रकार है १. साधु परस्पर साथ में रहे, उस स्थिति में किसी से कोई दोष हुआ हो तो उसे अवसर देखकर शीघ्र ही जता दे, पर दोषों का संग्रह न करे। २. जिसने दोष किया हो वह प्रायश्चित्त करे तो भी गुरु को जता दे। ३. वह प्रायश्चित्त न करे तो दोष को पन्ने पर लिख उससे स्वीकृत करा, उसे सौंप दे और कह दे कि इसका प्रायश्चित्त कर लेना। इसका प्रायश्चित्त न आए तो भी गुरु को कह देना। इसे टालना मत। जो तुमने नहीं कहा तो मुझे कहना होगा। मैं दोषों को दबाकर नहीं रखूगा। जिस दोष के बारे में मुझे संदेह है, उसे मैं सन्देह की भाषा में कहूंगा और जिसे निःसन्देह जानता हूं, उसे असंदिग्ध रूप से कहूंगा। अब भी तुम संभलकर चलो। ४. आवश्यकता हो तो उसी के सामने गृहस्थ को जताए। ५. शेष-काल हो तो गृहस्थ को न कहे। जहां आचार्य हों, वहां आ जाए। ६. गुरु के समीप आकर अडंगा खड़ा न करे। ७. गुरु किसे सच्चा ठहराए और किसे झूठा ठहराए ? लक्षणों से किसी को सच्चा जाने और किसी को झूठा, परन्तु निश्चय कैसे हो सकता है? १. आचार री चौपाई, १५.६ : हेत मांहि तो दोषण ढांके, हेत टूटां कहतो नहिं सांके। तिणरी किम आवे परतीत, उणमें जाण लेणो विपरीत॥ २. लिखित, १८५० Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संघ-व्यवस्था : १८३ आलोचना किए बिना वे प्रायश्चित्त कैसे दें? उन्हें द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर न्याय तो करना ही है। ६. किन्तु दोष बताने वाला सावधान रहे। वह दोषों का संग्रह न करे। जो बहुत दोषों को एकत्रित कर आएगा, वह झूठा प्रामाणित होगा। वास्तव में क्या हैं वह तो सर्वज्ञ जाने, पर व्यवहार में दोषी वह है, जो दोषों का संग्रह करता है। जिसके बारे में मन शंकाओं से भरा हो, उससे सीधा सम्पर्क स्थापित कर ले-यह मन का समाधान पाने की महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसके अतिरिक्त ये सूत्र भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है १. किसी में कोई दोष देखो तो उसे एकांत में जताओ। २. गुरु या मुखिया को भी जताओ। ३. उसे शुद्ध करने की दृष्टि से जताओ, द्वेषवश दोष मत बताओ। ४. अवसर देखकर तत्काल जताओ। ५. बहुत दिनों के बाद दोष मत बताओ। ६. दोषों को इकट्ठा करके मत रखो। ७. दोषों को छिपाओ मत। ८. दोषों का प्रचार मत करो। ६. दोष बताने में हिचक मत करो। अहिंसा की अभय-वृत्ति पर विश्वास करते हुए आचार्य भिक्षु ने लिखा है-"गुरु, शिष्य अथवा गुरु-भाई-किसी में भी दोष देखे तो उसे जता दे। किसी से भी संकोच न करे। दोष की शुद्धि का प्रयत्न करे। जो शिष्य गुरु का दोष छिपाता है, गुरु के सम्मुख कहने में संकोच करता है, वह बहुत ही भ्रम में है, वह घर छोड़कर खोटी हुआ है।"२ २०. विहार तेरापंथ आचार्य-केन्द्रित-गण है। इसके सदस्यों में एक आचार्य होते हैं और १. लिखित, १८४१ २: आचार री चौपाई, १५.३ गुर चेला ने गुर भाई माइ, दोष देखे तो देणो बताई। त्यांसू पिण करणो नहीं टालो, तिणरो काढणो तुरत निकालो। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ : भिक्षु विचार दर्शन शेष सब शिष्य । आचार्य संयम से अनुशासित होते हैं और शिष्य-वर्ग संयम और आचार्य के अनुशासन से अनुशासित होता है। अनुशासन की पृष्ठभूमि में सत्ता का बल नहीं है, किन्तु प्रेम और वात्सल्य है। शिष्यों का विनय और आचार्य का वात्सल्य-दोनों मिलकर अनुशासन को संचालित करते हैं। कुछ आधुनिक सुधारक हमारी प्रणाली को सामन्तशाही प्रणाली कहने. में गर्व अनुभव करते हैं, इसमें उनका दोष भी नहीं है। श्रद्धा का स्पर्श भी जो न कर सकें, उनके लिए सब जगह सामन्तशाही है। तर्क सदा संग्रह की परिक्रमा करता है। श्रद्धा में समर्पण होता है। श्रद्धालु के लिए श्रद्धा सुधा होती है और श्रद्धेय के लिए विष। श्रद्धेय वही होता है जो उस विष को पचा सके। श्रद्धालु श्रद्धा करना जानता है पर कैसे टिके, यह नहीं जानता। यह श्रद्धेय को जानना होता है कि वह कैसे टिके? यह श्रद्धा का ही चमत्कार है कि आचार्य आदेश देते जाते हैं और साधु-साध्वियां खड़े होकर उसे स्वीकार करते जाते हैं। माघ शुक्ला सप्तमी का दिन, जो मर्यादा-महोत्सव का दिन है, बड़ा कुतूहल का दिन होता है। उस दिन साधु-साध्वियों के विहार-क्षेत्र का निर्णय होता है। किस साधु-साध्वी को आगामी वर्ष कहां जाना है, कहां रहना है, कहां चतुर्मास बिताना है, यह प्रश्न तब तक उसके लिए भी प्रश्न होता है, जब तक आचार्य उसके विहार-क्षेत्र की घोषणा नहीं करते हैं। तब दर्शक आनन्द-विभोर हो जाते हैं, जब आचार्य साधु-साध्वियों को विहार का आदेश देते हैं और वे सम्मान के साथ उसे स्वीकार करते हैं। आचार्य भिक्षु ने अनुभव किया कि छोटे-छोटे गांव खाली हैं और बड़े-बड़े गांव साधुओं से भरे हैं। साधुओं की दृष्टि उपकार से हटकर सुविधा पर टिक रही है। उन्होंने व्यवस्था की-"सब साधु-साध्वियां विहार, शेषकाल या चतुर्मास भारमलजी (वर्तमान आचाय) की आज्ञा से करें, आज्ञा के बिना कहीं न रहे।"१ उन्होंने बताया-"सुख-सुविधा वाले क्षेत्रों की ममता कर बहुत जीव चारित्र से भ्रष्ट हो जाते हैं। इसलिए “सरस आहार मिले वहां भी आज्ञा - १. लिखित : १८५६ २. वही : १८५६ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - संघ-व्यवस्था : १८५ शेष-काल में तातो उसे बड़े कहें लोलुपतावश घूमत बहुत साथ के बिना न रहे। कुछ साधु क्या करते हैं- “रूखे क्षेत्र में उपकार होता है तो भी वहां नहीं रहते। अच्छे क्षेत्र में उपकार नहीं होता है तो भी पड़े रहते हैं। ऐसा नहीं करना है। चतुर्मास अवसर हो तो किया जाए पर शेष-काल में तो रहना ही चाहिए। किसी के खान-पान सम्बन्धी लोलुपता की शंका पड़े तो उसे बड़े कहें वैसा करना चाहिए। दो साधु विहार करें, बड़े-बड़े, सुख-सुविधाकारी क्षेत्रों में लोलुपतावश घूमते रहें, आचार्य जहां रखें, वहां न रहे-इस प्रकार करना अनुचित है। जहां बहत साथ रहें वहां दुःख माने और दो में सुख माने-लोलुपतावश यह नहीं करना चाहिए।" ग्राम और नगर की जो समस्या आज है उसका अंकन वे तभी कर चुके थे। गांवों की अपेक्षा शहरों में आकर्षण-शक्ति अधिक होती है। पदार्थों को साज-सज्जा जितनी शहरों में होती है, उतनी गांवों में नहीं होती। धार्मिक उपकार जितना गांवों में होता है, उतना शहरों में नहीं होता। महात्मा गांधी ने भी गांवों पर अपनी दृष्टि केन्द्रित की थी। राजनीतिक संस्थाएं भी बार-बार ग्राम-सम्पर्क के लिए पदयात्रा को व्यवस्था किया करती हैं। ___ आचार्य भिक्षु का ग्राम विहार का सूत्र हमारे आचार्यों ने क्रियान्वित किया है। साधु-साध्वियों को विहार-क्षेत्र का जो पत्र सौंपा जाता है, उसमें चतुर्मास के लिए एक क्षेत्र निश्चित होता है और उसमें उसके आसपास के गांवों के नाम भी लिखे होते हैं। उस क्षेत्र में चतुर्मास करने वाला साधु उसके समीपवर्ती गांवों में जाता है, रहता है और कहां कितनी रात रहा, उसकी तालिका आचार्य से मिलने पर उन्हें निवेदित करता है। आचार्य भिक्षु ने गांवों में विहार करने की ओर गण का ध्यान खींचकर साधु-संघ पर बहुत उपकार किया है। विहार के सम्बन्ध में उन्होंने दूसरी बात यह कही-“आचार्य की आज्ञा या विशेष स्थिति के बिना साधु-साध्वियां एक क्षेत्र में विहार न करें।" जिस गांव में पहले साध्वियां हों वहां साधु न जाएं और जहां साधु हों वहां साध्वियां न जाएं। पहले पता न हो और वहां चले जाएं तो एक रात से १. लिखित : १८५० २. वही, १८५० ३. वही. १८५० Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ : भिक्षु विकार दर्शन अधिक न रहें कारणवश रहना पड़े तो भिक्षा के घरों को बांट लें।" . इस व्यवस्था के अनुसार जहां आचार्य हों अथवा उनकी आज्ञा हो, वहां एक गांव में साधु-साध्वियां दोनों रहते हैं उसके सिवाय गांव में नहीं रहते। __ आचार्य भिक्षु ने गण की व्यवस्था में भगवान् महावीर के आठ सूत्रों को क्रियान्वित किया। भगवान् ने कहा था-इन आठ स्थानों में भली-भांति सावधान रहो, प्रयत्न करो, प्रमाद मत करो। वे ये हैं १. अश्रुत धर्मों को सुनने के लिए प्रयत्नशील रहो।। २. श्रुत धर्मों का ग्रहण और निश्चय करने के लिए प्रयत्नशील रहो। ३. संयम के द्वारा पाप-कर्म न करने के लिए प्रयत्नशील रहो। ४. तपस्या के द्वारा पुराने पाप-कर्मों को नष्ट करने के लिए प्रयत्नशील रहो। ५. अनाश्रित शिष्य-वर्ग को आश्रय देने के लिए प्रयत्नशील रहो। ६. नव-दीक्षित साधु को आचार-गोचर सिखाने के लिए प्रयत्नशील रहो। - ७. ग्लान की अग्लान भाव से सेवा करने के लिए प्रयत्नशील रहो। ८. साधार्मिकों में कोई कलह उत्पन्न होने पर आहार और शिष्य-कुल के प्रलोभन से दूर, पक्षपात से दूर, तटस्थ रहकर चिन्तन के लिए कि मेरे साधार्मिक कलह मुक्त कैसे हों, प्रयत्नशील रहो। उस कलह को उपशान्त करने के लिए प्रयत्नशील रहो। १. लिखित, १८५०, १८५२ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. अनुभूतियों के महान् स्रोत आचार्य भिक्षु चिन्तन के सतत प्रवहमान स्रोत थे। उनसे अनेक धाराएं प्रस्फुटित हुई हैं। हम किसी एक धारा को पकड़कर उसके स्रोत को सीमित नहीं बना सकते। उनके एक में सब और सब में एक है। अनुभूति की धारा में से सब धाराएं निकली हैं और सब धाराओं में अनुभूति का उत्कर्ष है। उनकी अनुभूति में शाश्वत सत्यों और युग के भूत, भावी और वर्तमान के तथ्यों का प्रतिबिम्ब है। १. कथनी और, करनी और कथनी और करनी का भेद जो होता है, यह नई समस्या नहीं है। यह मानव-स्वभाव की दुर्बलता है, जो सदा से चली आ रही है। इस.ध्रुवसत्य को आचार्यवर ने इन शब्दों में गाया है : जो स्वयं आचरण नहीं करते, अज्ञानी बने हुए चिल्लपों मारते हैं, वे गायों के समूह में, गधे की भांति रेंकते हैं। २. भेद का भुलावा. जीवन के बनने-बिगड़ने में तीन वर्गों का प्रमुख हाथ होता है-माता-पिता, मित्र और गुरु। इनमें सर्वोपरि प्रभावशाली व्यक्ति गुरु होते हैं। गुरु कलाचार्य को भी कहा जाता है और धर्माचार्य को भी। गुरु का भावात्मक अर्थ है, शिक्षा का स्रोत। वह पवित्र होता है, व्यक्ति को पावन प्रेरणाएं मिलती हैं। वह अपवित्र होता है, व्यक्ति को अपवित्र प्रेरणाएं मिलती हैं। जो धर्म-गुरु का वेश पहने हुए होता है और कर्तव्य में कुगुरु होता है उनके सम्पर्क-जनित Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ : भिक्षु विचार दर्शन परिणामों को इन शब्दों में गूंथा है कुएं पर जाजिम बिछी है, चारों कोनों पर भार रखा हुआ है, कोई भुलावे में आ, उस पर बैठ जाए उसकी क्या गति होती है? वह कुएं में डूब जाता है। कुगुरु कुएं के समान है, जाजिम के समान उसका वेश है। जो वेश के भूलावे में आ जाता है, वह उसकी कुशिक्षाओं में डूब जाता है। कुगुरु भड़भूजे के समान है, उसकी मान्यता भाड़ के समान है अज्ञानी जीव घास-फूस के समान है कुगुरु उन्हें मिथ्या विश्वासों के भाड़ में झोंकते हैं।' ३. बहुमत नहीं, पवित्र श्रद्धा चाहिए जन साधारण में बहुमत का अनुकरण करने की परम्परा रही है। सत्य के अन्वेषकों ने इस पर सदा प्रहार किया है। “मैं तो सबके साथ होऊंगा"-भगवान् महावीर ने कहा-यह बाल चिन्तन है। महात्मा गांधी ने कहा-बहुमत नास्तिकता है। आचार्य भिक्षु की उक्ति है बहुमत के भरोसे कोई न रहे। निर्णय करो, परखो। लोक-भाषा में भी कहा जाता है'घी खाओ, घृत-पात्र नहीं। १. आचार री चौपाई, १०,६-८ जाजम बिछाइ कूवा उपरे, चिहूं कांनी रे मेल्यो उपर भार। भोला वेसे तिण उपरे, ते डूब मरे रे तिण कूवा मझार॥ तिम कुगुर छे कूवा सारिषा, जाजम सम रे कने साधां रो भेष। त्यांने गुर लेख व बंदणा करे, ते डूबे रे मूरख अन्ध अदेख रे॥ कुगुर भडभुंजा सारिषा, त्यांरी सरधा हो खोटी भाड समाण। भारीकरमां जीव चिणा सारिषा, त्यांने झोखे हो खोटी सरधा में आण॥ २. उत्तराध्ययन. ५/७ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभूतियों के महान् स्रोत : १८६ थोड़ी या अधिक संख्या में नहीं। आत्म-कल्याण साधना में है। समाधान उन्हें मिलता है, जिनके हृदय में पवित्र श्रद्धा होती है।' ४. अनुशासन और संयमी तमिल भाषा के कवि मुन्सरै मरुदनाट ने कहा है- “यदि किसी मनुष्य के पास अपार धन-सम्पत्ति हो, पर उसमें सच्चा संयम न हो, ऐसे व्यक्ति को अधिकार देना बन्दर के हाथ में मशाल देने के बराबर है। __ मशाल न मुझे और न दूसरों को जलाये-यह तभी हो सकता है जब वह योग्य व्यक्ति के हाथ में हो। संयमहीन भी और साधु भी, ये दोनों विरोधी दिशाएं हैं अंकुश के बिना जैसे हाथी चलता है लगाम के बिना जैसे घोड़ा चलता है, वैसे ही संयम के बिना कुगुरु चलता है, वह केवल कहने के लिए साधु है।' ५. श्रद्धा दुर्बल है भगवान् महावीर ने कहा-श्रद्धा दुर्लभ है। स्वामीजी ने इसे अपने हृदय की अनुभूति के रंग में रंगकर नया सौंदर्य प्रदान किया है यह जीव अनन्त जीवों को सिद्धान्त पढ़ा चुका है, अनंत जीवों से सिद्धांत पढ़ चुका है। १. निन्हव री चौपाई, ४, २७-२८ घणारे भरोसे कोइ रहिजो मती रे, सरधा ने चलगति मीढी जोय रे, लोक भाषा मांहि पिण इम कहे रे, घी खाधो पिण कुलडो न गयो कोय रे, बले थोडा घणां रो कारण को नहीं रे, सुध करणी. सूं पांमे सदा समाध रे। २. तिम साहित्य और संस्कृति, पृ. ८६ ३. आचार री चौपाई, १.३५ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० : भिक्षु विचार दर्शन यह जीव सब जीवों का गुरु बन चुका है, यह जीव सब जीवों का शिष्य बन चुका है, पर सम्यक्-श्रद्धा के बिना भ्रांति नहीं मिटी। बीज के बिना हल चलता है, पर खेत खाली रह जाता है। वैसे ही शून्य चित्त से पढ़ने वाला परमार्थ को नहीं पाता।' जो परमार्थ को नहीं पाता वह प्रतिबिम्ब को पकड़ बैठ जाता है। उसे मूल नहीं मिलता लाखों कुंड जल से भरे हैं, उनमें चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब है, मूर्ख सोचता है चन्द्रमा को पकड़ लूं, परन्तु चन्द्रमा आकाश में रहता है। प्रतिबिम्ब को चन्द्रमा मानता है, वह बुद्धि से विकल है। वैसे ही बाह्याचार को जो मूल मानता है. वह अज्ञान-तिमर में डूबा हुआ है। ६. जैन-धर्म की वर्तमान दशा का चित्र आचार्य भिक्षु ने जैन-धर्म की वर्तमान अवस्था का सजीव चित्रण किया है भगवान् महावीर के निर्वाण होने पर घोर अन्धकार छा गया है, जिन-धर्म आज भी अस्तित्व में है, १. निन्हव रो चौपाई, ४.१३ कोई भणे भणावे करवा नाम रे, केइ प्रसंसा मान बडाइ हेत रे। सूने चित परमार्थ पायो नहीं रे, ए बीज विण रहि गयो खाली खेत रे॥ २. वही, ४.२३-२४ कुंडा भरीया जल सूं लाखां गमे रे, चन्द्रमा रो सगले छे प्रतिबिंब रे। मूर्ख जाणे गिरलूं चन्द्रमा रे, पिण ते तो आकासे अंतर लम्ब रे॥ प्रतिबिंब ने जे कोइ माने चन्द्रमा रे, ते तो कहिजे विकल समान रे। ज्यूं गुण विण सरधे साधु भेष ने र, ते खूता मिथ्याती पूर अग्यान रे॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभूतियों के महान् स्रोत : १६१ पर जुगनू के चमत्कार जैसा, जैसे जुगनू का प्रकाश क्षण में होता है, क्षण में मिट जाता है, साधुओं की पूजा अल्प होती है, असाधु पूजे जा रहे हैं। यह सूर्य कभी उग रहा है, कभी अस्त हो रहा है। भेख-धारी बढ़ रहे हैं, वे परस्पर कलह करते हैं। उन्हें कोई उपदेश दे तो वे क्रोध कर लड़ने को प्रस्तुत हो जाते हैं। वे शिष्य-शिष्याओं के लालची हैं। सम्प्रदाय चलाने के अर्थी। बुद्धि-विकल व्यक्तियों को मूंड इकट्ठा करते हैं। गृहस्थों के पास से रुपये दिलाते हैं। शिष्यों को खरीदने के लिए, वे पूज्य की पदवी को लेंगे, शासन के नायक बन बैठेंगे; पर आचार में होंगे शिथिल, वे नहीं करेंगे आत्म-साधन का कार्य । गुणों के बिना आचार्य नाम धराएंगे, उनका परिवार पेटू होगा, वे इन्द्रियों का पोषण करने में रत रहेंगे, सरस आहार के लिए भटकते रहेंगे। वैराग्य घटा है, वेश बढ़ा है, हाथी का भार गधों पर लदा हुआ है, धे थक गए, बोझ नीचे डाल दिया, १. आचार री चौपाई, ३६-१४ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ : भिक्षु विचार दर्शन इस काल में ऐसे भेखधारी हैं। उनका भगवान् महावीर के प्रति आत्म-निवेदन भी बड़ा मार्मिक हैभगवान् आज यहां कोई सर्वज्ञ नहीं है और श्रुतकेवली भी विच्छिन्न हो चुके। आज कुबुद्धि कदाग्रहियों ने जैन-धर्म को बांट दिया है। छोड़ चुके हैं जैन-धर्म को राजा, महाराजा सब। प्रभो! जैन-धर्म आज विपदा में है, केवलज्ञान-शून्य भेख बढ़ रहा है। . इन नामधारी साधुओं ने पेट पूर्ति के लिए, दूसरे दर्शनों की शरण ले ली है। इन्हें कैसे फिर मार्ग पर लाया जाए? इनकी विचारधारा का कोई सिर-पैर नहीं है, न्याय की बात कहने पर ये कलह करने को तैयार हो जाते हैं। प्रभो! तुमने कहा हैसम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपमुक्ति के मार्ग ये ही हैं। मैं इनके सिवाय किसी को मक्ति-मार्ग नहीं मानता। मैं अरिहंत को देव, और मानता हूं गुरु निर्गन्थ को ही। धर्म वही है सत्य सनातन, जो कि अहिंसा कहा गया है। . शेष सब मेरे लिए भ्रम-जाल है। १. आचार री- चौपाई, ६.२८ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभूतियों के महान् स्रोत : १६३ मैं प्रभो! तुम्हारा शरणार्थी हूं, मैं मानता हूं प्रमाण तुम्हारी आज्ञा को। तुम्हीं हो आधार मेरे तो, तुम्हारी आज्ञा में मुझे परम आनन्द मिलता है। ७. आकाश कैसे सधे? वे पवित्रता के अनन्य भक्त थे। उनका अभिमत था कि सब पवित्र हों। जहां मुखिया अपवित्र हो जाता है, वहां बड़ी कठिनाई होती है आकाश फट जाए, उसे कौन सांधे? गुरु सहित गण बिगड़ जाए। उस संघ के छेदों को कौन रोके? ८. क्रोध का आवेग क्रोध के आवेश से परिपूर्ण मनोदशा में एक विचित्र प्रकार की उछल-कूद होती है। उसका वर्णन इन शब्दों में है- क्रोध कर वे लड़ने लग जाते हैं, इस प्रकार उछलते हैं जैसे भाड़ में से चने उछलते हों। ६. विनीत-अविनीत विनीत और अविनीत की अनेक परिभाषाएं हैं। आचार्य भिक्षु ने परिभाषाओं के अतिरिक्त उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी किया है। उसके कुछेक तथ्य ये हैं १. वीर सुणो मोरी वीनती री ढाल २. आचार री चौपई, अ६, दू. ४ : आभे फाटे थीगरी, कुण छ देवणहार। ज्यूं गुर विगडीयो, त्यारे चिहुं दिस परिया बघार॥ ३. वही, २१-३०. जो वरतां री चरचा करे त्यां आगे, तो क्रोध करे लडवा लागे। जाणे भाड मा सूं चिणा उछलीया, कर्म जोगे गर माठा मिलिया। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ : भिक्षु विचार दर्शन ___“एक साधु विनीत है और दूसरा अविनीत । विनीत अच्छा गाता है और जो अविनीत है वह गाना नहीं जानता। गाने वाले की लोग सराहना करते हैं तब वह मन में जलता है और लोगों को कहता है :____वह गा-गाकर जनता को प्रसन्न करता है और मैं तत्त्व सिखाता हूं। वह गुरु का गुणानुवाद सुनकर भी प्रसन्न नहीं होता। गुरु का अवगुण सुनता है तो वह खिल उठता है। . वह गुरु की बराबरी करता है। सड़ा हुआ पान जैसे दूसरे पानों को बिगाड़ देता है, वैसे ही अविनीत व्यक्ति दूसरों में सड़ान पैदा कर देता है। अविनीत को जब गण में रहने की आशा नहीं होती, तब वह डकौत की भांति बोलता है। डकौत जैसे गर्भवती स्त्री को कहता है-तुम्हारे सुन्दर बेटा होगा और पड़ौसिन को कह जाता है-इसके बेटी होगी और वह भी अत्यन्त कुरूप। इसी प्रकार गुरु के भक्त-शिष्यों के सामने वह गुरु की प्रशंसा करता है और जिसे अपने अधीन हुआ जानता है उसके सामने गुरु की निन्दा करता है। जो दूसरे की विशेषता को अपनी विशेषता की ओट में छिपाने का प्रयत्न करता है और जो गुण सुनकर अप्रसन्न और निंदा सुनकर प्रसन्न होता है, वह व्यक्ति-विशेष को महत्त्व देता है, गुण को नहीं। जो गुण की १. विनीत-अविनीत, १.२२-२३ : कोइ उपगारी कंठ कला धर साधु री रे, प्रशंशा जश कीरति बोले लोग रे। अविनीत अभिमानी सुण सुण परजले, अणरे हरष घटे ने वधे सोग रे॥ जो कंठ कला न हुवे न अविनीत री रे, तो लोकां आगे बोले विपरीत रे। यां गाय-गाय रीझाया लोक ने रे, कहे हुं तत्त्व ओलखाउं रूडी रीत रे॥ २. वही, १.२५ ओ गुर रा पिण गुण सुण ने विलसो हुवे रे, ओगुण सुणे तो हरसत थाय रे । एहवा अभिमानी अविनीत तेहने रे, ओलखाउं भव जीवां ने इण न्याय रे॥ ३. वही, १.२८ वले करे अभिमानी गुर सूं बरोबरी रे, तिणरे प्रबल अविनो ने अभिमान रे। ओ जद तद टोला में आछो नहीं रे, ज्यूं विगड्यो विगाडे सडियो पान रे॥ ४. वही, २, दू. ३ गुर भगता श्रावक श्रावका कने, गुर रा गुण बोले ताभ। आप रे वश हुओ जाणे तिण कने, ओगुण बोले तिण ठाम।। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभूतियों के महान् स्रोत : १६५ पूजा करना नहीं जानता, वह बहुत पढ़कर भी शायद कुछ भी नहीं जानता इसलिए उसे अविनीत ही नहीं, अज्ञानी भी कहा जा सकता है। जो बड़ों का सम्मान नहीं करता और दूसरों को उभारकर विद्रोहपूर्ण भावना फैलाने में ही रस लेता है, उसे क्या पता कि साधना में क्या रस होता है? वह अविनीत ही नहीं, नीरस भी है। उसने साधना का स्वाद चखा ही नहीं । जो मुख के सामने कुछ कहता है, तथा पीठ पीछे कुछ और। वह विष का घड़ा है, ढक्कन अमृत का लगा हुआ है। वह अविनीत ही क्या है, जीता-जागता विश्वासघात है । अविनीत को अविनीत का संयोग मिलता है । तब यह वैसे ही अप्रसन्न होता है । जैसे डायन जरख को पाकर प्रसन्न होती है । ' अविनीत अपने सम्पर्क से विनीत को भी अविनीत बना देता है जैसे एक व्यक्ति ने अपने बेटे का विवाह किया। दहेज में सुसरालवालों ने कई गधे दिए। उनमें एक गधा अविनीत था । वह जल पात्र को गिरा फोड़ देता । उसने हैरान होकर उसे छोड़ दिया । वह जंगल में स्वतंत्र रहने लगा । एक दिन वहां एक गाड़ीवान आया । वृक्ष की छांह में विश्राम के लिए उतरा। बैलों को एक पेड़ से बांध दिया और स्वयं रसोई पकाने लगा । गधा घूमता फिरता उन बैलों के पास जा पहुंचा । वह बोला - देखो ! मेरी बात मानो तो तुम इस भार ढोने के कष्ट से मुक्त हो सकते हो । दो बैलों में एक मामा था और दूसरा भानजा । मामा - बैल को उसकी बात रुचि । किन्तु भानजे ने फटकार बताते हुए कहा- हम भार ढोते हैं वह तुम देखते हो, हमारा स्वामी हमारी कितनी सेवा करता है, वह नहीं देखते । गधा बोला- आखिर हो तो परतन्त्र ही न ! भानजे ने कहा- हम स्वतन्त्र होकर कर ही क्या सकते हैं? भानजे के समझाने के बाद भी मामा गधे के १. विनीत - अविनीत, ५.२८ अविनीत ने अविनीत श्रावक मिले ए, ते पामें घणो मन हरख । ज्यू डाकण राजी हुवे ए, चढवा ने मिलिया जरख ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ : भिक्षु विचार दर्शन जाल में फंस गया। गाड़ी चली और मामा के कुबुद्धि का प्रयोग शुरू किया। वह चलते-चलते गिर पड़ा, उठाया और फिर गिर पड़ा। जोर-जोर से सांस लेने लगा। गाड़ीवान ने सोचा-बैल मरने वाला है। उसने उसे मार गाड़ी में डाल दिया। अब एक बैल से गाड़ी कैसे चले? आस-पास गधा घूम रहा था, उसे पकड़ गाड़ी में जोत दिया। वे दोनों दुःखी हुए-बैल मारा गया और गधे को जुतना पड़ा। उसी प्रकार कुबुद्धि सिखानेवाला और सीखने वाला दोनों दुःखी होते हैं। १०. गिरगिट के रंग ___ व्यक्तित्व की पहली कसौटी है-सहिष्णुता। इसे पाए बिना कोई भी व्यक्ति मन का संतुलन नहीं रख पाता। जो परिस्थिति के बहाव में ही बहता है, थोड़े में प्रसन्न और थोड़े में अप्रसन्न हो जाता है, उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं होता। एक संस्कृत कवि ने कहा है जो क्षण में रुष्ट और क्षण में तुष्ट होता है, क्षण में तुष्ट और क्षण में रुष्ट होता है, इस प्रकार जिसका चित्त अनवस्थित है, उसकी प्रसन्नता भी डराने वाली होती है। आचार्य भिक्षु ने ऐसे मनोभाव की तुलना सोरे से की है सोरा मुंह में डालने पर ठंडा लगता है, अग्नि में डालने पर वह भभक जाता है। क्षण में प्रसन्न और क्षण में अप्रसन्न होता है। वह सोरे के समान है। भोजन, जल, वस्त्र मिलने पर १. विनीत-अविनीत, २.१३-१४ बुटकने गधेडे दुराचारी, तिण कीधी घणी खोटाइ रे। आप छांदे रह्यो उजाड में, एक बलद ने कुबद सीखाई रे॥ तिण अविनीत बलद ने तुरकियां, मार गाडा में घाल्यो रे। बुटंकनां ने आण जोतर्यो हिवे जाय उतावल सूं चाल्यो रे॥ ज्यूं अविनीत ने अविनीत मिल्या, अविनीतपणो सिखावे रे। पछे बुटकना ने बलद ज्यूं, दोनूं जणा दुःख पावे रे॥ २. क्षणे रुष्टः तुष्टः, रुष्टः तुष्टः क्षणे-क्षणे। अनवस्थितचित्तानां, प्रसादोऽपि भयंकरः॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभूतियों के महान् स्रोत : १६७ जो कुत्ते की भांति पूंछ हिलाता है, और उलाहना मिलने पर जो संघ से अलग हो जाता है। सोरा स्वयं जलता है, दूसरे को जलाता है फिर राख होकर उड़ जाता है। वैसे ही अविनीत व्यक्ति अपने और दूसरों के गुणों को राख कर डालता है। क्षण-क्षण में रुष्ट-तुष्ट होने का मनोभाव अच्छा नहीं है। उससे व्यक्ति को असंतोषपूर्ण जीवन बिताना पड़ता है, पर स्वभाव का परिवर्तन भी कोई सहज सरल नहीं है। __किसी के हृदय को बदलने का साधन है समझाना-बुझाना। किन्तु किसी का समझना समझाने वाले पर निर्भर नहीं है। समझाने और समझने वाले दोनों योग्य हों, तभी वह कार्य पूर्ण होता है, अन्यथा नहीं। इस तथ्य को प्याज के उदाहरण से समझाया है प्याज को सौ बार जल से धोया पर उसकी गंध नहीं गई। अविनीत को बार-बार उपदेश दिया पर उसका हृदय नहीं बदला। प्याज की गंध धोने पर . कुछ मंद पड़ जाती है, परन्तु अविनीत को उपदेश देने का फल नहीं होता। १. विनीत-अविनीत, २.३१-३३ सोर ठंडो लागे मुख में घालियां, अग्नि माहें घाल्या हवे तातो रे। ज्यूं अविनीत ने सोर री ओपमा, सोर ज्यूं अलगो पडे जातो रे॥ आहार पाणी वस्त्रादिक आपियां, तो उ श्वास ज्यूं पूछ हलावे रे । करडो कलां उठे सोर अग्नि जयं, गण छोड़ी एकल उठ जावे रे। सोर आप बले बाले ओर न, पले राख थई उड जावे रे। ज्यूं अविनीत आप ने तरतणा, ग्यानादिक गुण गमावे रे॥ २. वही, ३.२६-३० कांदा ने सो वार पाणी तूं धोवियां, तो ही न मिटे तिणरी वास हो। ज्यूं अविनीत ने गुर उपदेश दीये घणो, पिण मूल न लागे पास हो। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ : भिक्षु विचार दर्शन ११. गुरु का प्रतिबिम्ब एक व्यक्ति को विनीत शिक्षक मिलता है और दूसरे को शिक्षक मिलता है अविनीत। एक जो विनीत के पास सीखा और दूसरा अविनीत के पास, उन दोनों में कितना अन्तर है? यह प्रश्न उपस्थित कर आचार्य ने स्वयं इसका समाधान किया है एक ने विनीत से बोध पाया और एक ने पाया अविनीत से। उनमें उतना ही अन्तर है जितना धूप और छांह में। जो विनीत के द्वारा प्रतिबद्ध है वह चावल-दाल की भांति सबसे घुल जाता है। जो अविनीत के द्वारा प्रतिबद्ध है वह 'काचर' की भांति अलग रहता है। १२. उत्तरदायित्व की अवहेलना आचार्य भिक्षु संघ-व्यवस्था के महान् प्रवर्तक थे। वे व्यवहार के क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग को बहुत महत्त्व देते थे। जो व्यक्ति स्वार्थी होते हैं, वे केवल लेना ही जानते हैं, देना नहीं और जो सामुदायिक उत्तरदायित्व की अवहेलना करते हैं, वे संघ की जड़ों को उखाड़ने जैसा प्रयत्न करते हैं। इसे एक कथा के द्वारा समझाया है किसी व्यक्ति ने चार याचकों को एक गाय दी। वे क्रमशः एक-एक दिन उसे दुहते हैं। कांदा री तो वास धोयां मुधरी पड़े, निरफल छे अविनीत ने उपदेश हो। जो छोडवे तो अविनीत अंवलो पडे घणो, उणरे दिन-दिन इधक कलेश हो। १. विनीत-अविनीत, ५.१५ समझाया विनीत अविनीत रा ए, त्यांमे फेर कितोयक होय। ज्यूं तावडो ने छांहडी ए, इतरो अन्तर जोय।। २. वही, ५.१४ विनीत तणा समझाविया ए, साल दाल ज्यूं भेला होय जाय। अविनीत रा समझाविया ए, ते कोकला ज्यूं कानी थाय॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभूतियों के महान् स्रोत : १६६ पर उसे चारा कोई नहीं खिलाता। वे सोचते हैं एक दिन नहीं खिलाएंगे तो क्या? कल जिसे दूध लेना है वह स्वयं खिलाएगा। उनकी स्वार्थ-वृत्ति का फल यह हुआ कि गाय मर गई। रहस्य खुला तो लोगों ने धिक्कारा । दूध भी अब कहां से मिले उन्हें ? इसी प्रकार जो संघ या आचार्य से बहुत लेना चाहते हैं, परन्तु उनके प्रति अपना दायित्व नहीं निभाते, वे स्वयं नष्ट होते हैं और संघ को भी विनाश की ओर ढकेल देते हैं।' जिस समाज, जाति और देश में निःस्वार्थभावी लोग होते हैं, उस समाज, जाति और देश का उत्कर्ष होता है। स्वार्थी लोग संगठन को अपकर्ष की ओर ले जाते हैं। स्वार्थी की दृष्टि स्वार्थ पर टिकती है, दायित्व उसके ओट में छिप जाता है। स्वार्थ कोई बुरा नहीं है, परन्तु संघ के हितों को गौण बनाकर जो प्रमुख बन जाए, वैसा स्वार्थ अवश्य ही बुरा है। आचार्य भिक्षु ने इसी तथ्य को उक्त पंक्तियों में अंकित किया है। १३. चौधराई में खींच-तान आचार्य भिक्षु की अनुभूति की धारा कहीं तटों की सीमा में प्रवाहित हुई है तो कहीं उन्मुक्त। तटों के मध्य में बहने वाली धारा का सुखद-स्पर्श १. विनीत-अविनीत, ४.११-१५ किण ही गाय दीधी च्यार ब्राह्मणां भणी रे, ते वारे वारे दूहे ताय रें। तिणनें चारे न नीरे लोभी थकां रे, म्हार काले न दूजे आ गाय रे॥ त्यार माहोमा लागो ईसको रे, तिण सूं दूखे मूइ गाय रे। ते फिट फिट हुवा ब्राह्मण लोक में रे, ते दिप्टंत अविनीत ने ओलखाय रे॥ गाय सारिखा आचारज मोटका रे, दूध सारिखो दे ग्यान अमोल रे। कुशिष्य मिल्या ते ब्राह्मण सारिखा रे, ते ग्यान तो लेवे दिल खोल रे॥ आहार पाणी आदि वीयावच तणी रे, ए न करे सार संभाल रे। एहवा अवनीतां रे बस गुंर पड्या रे, त्यां पिण दुखे-दुखे कियो काल रे॥ ब्राह्मण तो फिट-फिट हुवा घणां रे, ते तो एकण भव मझार रे। तो गुर रा अविनीत रो कहिवो किसूं रे, तिणरो भव भव हुसी विगाड रे॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० : भिक्षु विचार दर्शन हम कर चुके हैं। अब उन्मुक्त धारा में भी कुछ डुबकियां लगा लें। - एक खरगोश के पीछे दो बाघ दौड़े। वह भागकर एक खोह में घुस गया। वहां एक लोमड़ी बैठी थी। उसने पूछा-तू प्राणों को हथेली पर लिए कैसे दौड़ आया? 'बहन! जंगल के सभी जानवर मिलकर मुझे चौधरी बनाना चाहते थे। मैं इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहता था। इसलिए बड़ी कठिनाई से उनके चुंगल से निकल आया हूं।'-खरगोश ने अपनी भयपूर्ण भावना को छिपाते हुए कहा। लोमड़ी-भैया! चौधराई में तो बड़ा स्वाद है। खरगोश-बहन! यह पद तुम ले लो, मुझे तो नहीं चाहिए। लोमड़ी का मन ललचाया और वह चौधराई का पद लेने खोह के बाहर निकली। वहां बाघ खड़े ही थे। उन्होंने उसके दोनों कान पकड़ लिए। वह कानों को गंवाकर तुरंत लौट आई। खरगोश-अभी वापस क्यों चली आयी? लोमड़ी-चौधराई में खींचतान बहुत है। यह सच है, चौधराई में खींचतान बहुत है। पर उसकी भूख किसको नहीं है? जनतन्त्र के युग में वह और अधिक उभर जाती है। किन्तु लोग इससे बोधपाठ लें। अपनी योग्यता को विकसित किये बिना चौधरी बनने का यत्न न करें। १४. तांचे पर चांदी का झोल एक साहूकार की दुकान में एक आदमी आया। उसने एक पैसे का गुड़ लेना चाहा। सेठ ने पैसा ले उसे गुड़ दे दिया। उसने सोचा-प्रारम्भ अच्छा हुआ है, पहले-पहल तांबे का पैसा मिला। - दूसरे दिन वह एक चांदी के रुपये को भुनाने को आया। साहूकार ने वह ले लिया और उसको रेजगारी दे दी। साहूकार ने आरंभ को शुभ माना। तीसरे दिन वह खोटा रुपया भुनाने को आया। साहूकार ने उसे लेकर देखा तो वह खोटा रुपया था-नीचे तांबा और ऊपर चांदी का झोल था। साहूकार ने रुपये को नीचे डालते हुए कहा-आज तो बहुत बुरा हुआ। १. भिक्खु दृष्टान्त, २६८, पृ. ११८-१६ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभूतियों के सूर्योदय होते-होते खोटे रुपये के दर्शन हुए हैं। ग्राहक बोला - सेठजी ! नाराज क्यों होते हैं? परसों मैं तांबे का पैसा लाया था, तब आप बहुत प्रसन्न हुए और उसकी वंदना की। कल मैं चांदी का रुपया लाया था तब भी आप प्रसन्न हुए और उसकी वंदना की। आज मैं जो रुपया लाया हूं उसमें तांबा और चांदी दोनों हैं । आज तो आपको अधिक प्रसन्न होना चाहिए, इसको दो बार वंदना करनी चाहिए । महान् स्रोत : २०१ साहूकार ने झल्लाते हुए कहा - मूर्ख ! परसों तू पैसा लाया, वह कोरे तांबे का था, इसलिए खुश था। कल रुपया लाया, वह कोरी चांदी का था, इसलिए वह भी खरा था। आज तू जो लाया है, वह न कोरा तांबा है और न कोरी चांदी । यह तो धोखा है। नीचे तांबा है और ऊपर चांदी का पानी चढ़ाया हुआ है, इसलिए यह खोटा है। गृहस्थ पैसे के समान है । साधु रुपये के समान है । साधु का धारण करने वाला उस खोटे रुपये के समान है, जो न कोरा तांबा है और न कोरी चांदी है। गृहस्थ मोक्ष की आराधना कर सकता है, साधु मोक्ष की आराधना करता है, पर केवल वेशधारी मोक्ष की आराधना नहीं कर सकता ।' अपने रूप में सब वस्तुएं शुद्ध होती हैं । अशुद्ध वह होती है, जिसका अपना रूप कुछ दूसरा हो और वह दीखे दूसरे रूप में । यह अन्दर और बाहर का भेद जनता को भुलावे में डालता है । इसीलिए मनुष्य को पारखी बनने की आवश्यकता हुई । परीक्षा के लिए शरीर - बल अपेक्षित नहीं है । वह बुद्धि-बल से होती है । शरीर - बल जहां काम नहीं देता, वहां बुद्धि-बल सफल हो जाता है । १५. बुद्धि का बल एक जाट ने ज्वार की खेती की। फसल पक गई थी। एक रात को चार चोर खेत में घुसे । ज्वार के भुट्टों को तोड़ चार गट्ठर बांध लिए । इतने में जाट आ गया और उसने सारा करतब देख लिया । वह उनके पास आया और हंसते हुए पूछा- भाई साहब! आप किस जाति के होते हैं? उनमें से एक ने कहा- मैं राजपूत हूं। दूसरा -- मैं साहूकार हूं, तीसरा- मैं १. भिक्खु दृष्टान्तः २६५, पृ. ११६-१७ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ : भिक्षु विचार दर्शन ब्राह्मण हूं। चौथा-मैं जाट हूं। जाट ने राजपूत से कहा-आप मेरे स्वामी हैं, इसलिए कोई बात नहीं, जो लिया सो ठीक है। साहूकार ऋण देता है, इसलिए उसने लिया, वह भी ठीक है। ब्राह्मण ने लिया, उसे मैं दक्षिणा मान लूंगा, पर यह जाट किस न्याय से लेगा? चल तुझे अपनी मां से उलाहना दिलाऊंगा। उसका हाथ पकड़ ले गया और उसी की पगड़ी से कसकर उसे एक पेड़ के तने से बांध दिया। वह फिर आकर बोला-मेरी मां ने कहा है-राजपूत हमारा स्वामी है, साहूकार ऋण देता है सो ये लेते हैं वह न्याय; पर ब्राह्मण किस न्याय से लेगा? वह तो दिए बिना लेता नहीं। चल मेरी मां के पास। वह उसे भी ले गया और उसी प्रकार दूसरे पेड़ के तने से बांध आया। उन्हीं पैरों लौट आया और बोला-मेरी मां ने कहा है-राजपूत हमारा स्वामी है, वह ले सो न्याय है, पर साहूकार ने हमें ऋण कब दिया था? चल, मेरी मां तुझे बुलाती है। उसको भी हाथ पकड़ कर ले गया और उसी भांति बांध आया। अब राजपूत की बारी थी। उसने आते ही कहा-ठाकुर साहब! जो स्वामी होते हैं, वे रक्षा करने को होते हैं या चोरी करने को? उसे भी ले गया और उसी भांति बांध दिया। चोरों को बांध थाने में गया और चारों को गिरफ्तार करवा दिया। बुद्धि से काम लिया तब सफल हो गया। यदि वह शरीर-बल से काम लेता तो स्वयं पिट जाता और अनाज भी चला जाता। १६. विवेक शक्ति परीक्षा-शक्ति नहीं होती तब तक सब समान होते हैं। सब समान हों, किसी के प्रति रोग-द्वेष न हो-यह अच्छा ही है, पर ज्ञान की कमी के कारण सब समान हों-यह अच्छा नहीं है। आचार्य भिक्षु 'विवेक' को बहुत महत्त्व देते थे। अविवेकी के लिए कांच और रत्न समान होते हैं। जब विवेक जागता है तब कांच कांच हो जाता है रत्न रत्न। दो भाई रत्नों का व्यापार करते थे। एक दिन बड़ा भाई अकस्मात् संसार से चल बसा। पीछे वह पत्नी और एक पुत्र को छोड़ गया। एक १. भिक्खु दृष्टान्त : ११७, पृ. ५१ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभूतियों के महान् स्रोत : २०३ दिन उसकी मां ने कहा-बेटा, जाओ! यह पोटली अपने चाचा के पास ले जाओ। रुपयों की जरूरत है, इसलिए कह देना-ये रत्न बेच दें। लड़का दौड़ा। रत्नों की पोटली चाचा को सौंप दी और मां ने जो कहा वह सुना दिया। चाचा ने उसे खोल देखा तो सारे रत्न नकली थे। उसने पोटली को बांध उसे उसी क्षण लौटा दिया और कहला दिया कि अभी रत्नों के भाव मंदे हैं, जब तेज होंगे तब बेचेंगे। चाचा ने उस बच्चे को रत्नों की परख का काम सिखाना शुरू किया। थोड़े समय में ही वह इस कला में निपुण हो गया। एक दिन चाचा ने उसके घर आकर कहा-बेटा! रत्नों के भाव तेज हैं, वे रत्न बेचने हों तो अपनी मां से कह दो। वह पोटली आयी। उसने तत्परता से उसे खोला। देखते ही उन रत्नों को फेंक दिया। मां देखती रही। उसके लिए वे रत्न थे, किन्तु उसके पुत्र के लिए, जो रत्नों का पारखी बन चुका था, अब वे रत्न नहीं रहे। १७. उछाला पत्थर तो गिरेगा ही किसी ने पूछा-गुरुदेव! साधुओं को असुख क्यों होता है, जबकि वे किसी को भी दुःख नहीं देते? . आचार्य भिक्षु ने कहा-जिसने पत्थर उछालकर सिर नीचे किया है, उसके सिर पर वह गिरेगा ही। आगे नहीं उछालेगा तो नहीं गिरेगा। पहले दुःख दिया है वह तो भुगतना ही है। अब दुःख नहीं देते हैं तो आगे दुःख नहीं पाएंगे। विवेक का अर्थ है-पृथक्करण । भलाई और बुराई दो हैं । विवेक उन्हें बांट देता है। कोई आदमी आज भला है, पर वह पूर्व-संचित बुराई का फल भोगता है। प्रश्न हो सकता है-यह क्यों? इसका उत्तर यही है कि विश्व की व्यवस्था में विवेक है। __ कोई आदमी आज बुरा है पर वह पूर्व-संचित भलाई का फल भोगता १. अणुकम्पा, ७.१६ काच तणा देखी, मिणकला, अण समझा हो जाणे रतन अमोल। ते निजर पड्यो सराफ री, कर दीधो हो त्यांरो कोड्यां मोल॥ २. भिक्खु दृष्टान्त, १२२, पृ. ५२ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ : भिक्षु विचार दर्शन है तब सन्देह होता है। उसके समाधान के लिए यह पर्याप्त है कि विश्व की व्यवस्था में विवेक है। उक्त संवाद में इसी ध्रुव-सत्य की व्याख्या है। १८. राग-द्वेष ध्रुव-सत्य को पकड़ने में सबसे बड़ी बाधा है राग-द्वेषपूर्ण मनः स्थिति। आचार्य भिक्षु के अनुसार द्वेष की अपेक्षा राग अधिक बाधक है। किसी आदमी ने बच्चे के मुंह पर एक चपत लगाया। लोगों ने उसे उलाहना दिया। किसी आदमी ने बच्चे को लड्डू दिया। लोगों ने उसे सराहा। द्वेष पर दृष्टि सीधी जाती है, पर राग पर नहीं जाती। द्वेष की अपेक्षा राग को छोड़ना कठिन है। द्वेष मिटाने पर भी राग रह जाता है। इसीलिए वीतराग कहा जाता है, वीतद्वेष नहीं।' _राग वस्तुओं का ही नहीं होता, विचारों का भी होता है। आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार-काम-राग, स्नेह-राग को थोड़े प्रयत्न से मिटाया जा सकता है, पर दृष्टि-राग-विचारों के राग का उच्छेद करना बड़े-बड़े पुरुषों के लिए भी कठिन है। आचार्य भिक्षु को एक ऐसे ही रागी को कहना पड़ा-चर्चा चोर की भांति मत करो। एक आदमी चर्चा करने आया। एक प्रश्न पूछा। वह पूरा हुआ ही नहीं कि दूसरा प्रश्न छेड़ दिया। दूसरे को छोड़ तीसरे में हाथ डाला। तब आचार्य भिक्षु ने कहा-चोर की भांति चर्चा मत करो। खेत का स्वामी भुट्टों को श्रेणीबद्ध काटता है और चोर आ घुसे तो वे एक कहीं से काटते हैं और दूसरा कहीं से । तुम खेत के स्वामी की तरह क्रमशः चलते चलो। एक-एक प्रश्न को पूरा करते जाओ। चोर की भांति चर्चा मत करो। १६. विराम प्रारम्भ और विराम प्रत्येक वस्तु के दो पहलू हैं। मनुष्य की कोई कृति अनादि-अनन्त नहीं होती। विश्व अनादि-अनन्त है। जिसका आदि न हो और अन्त भी न हो, १. भिक्खु दृष्टान्त, ६ पृ. ५ २. वही, १३२, पृ. ५६ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभूतियों के महान् स्रोत : २०५ उसका मध्य कैसे हो? मनुष्य की कृति की आदि भी होती है और अन्त भी होता है। इसलिए उसका मध्य भी होता है। ____ 'भिक्षु विचार दर्शन' यह एक मनुष्य की कृति है। इसके आदि में एक महापुरुष के जीवन का परिचय है और इसके अन्त में एक महापुरुष की सफलता की कहानी है तथा इसके मध्य में सफलता के साधन-सूत्रों का विस्तार है। आदि का महत्त्व होता है और अन्त का उससे भी अधिक, पर ये दोनों संक्षिप्त होते हैं। लम्बाई-चौड़ाई मध्य में होती है। सफलता जीवन में होती है, पर मृत्यु सबसे बड़ी सफलता है। जिनकी मृत्यु उत्कर्ष में न हो, आनन्द की अनुभूति में न हो, उनके मध्य-जीवन की सफलता विफलता में परिणत हो जाती है। ___ आचार्य भिक्षु का सूत्र था-ज्योतिहीन जीवन भी श्रेय नहीं है और ज्योतिहीन मृत्यु भी श्रेय नहीं है। ज्योतिर्मय जीवन भी श्रेय है और ज्योतिर्मय मृत्यु भी श्रेय है। वीर-पत्नी विदुला ने अपने पुत्र से कहा-“बिछौने पर पड़े-पड़े सड़ने की अपेक्षा यदि तू एक क्षण भी अपने पराक्रम की ज्योति प्रकट करके मर जाएगा तो अच्छा होगा।"२ प्रमादपूर्ण जीवन और मृत्यु में क्या अन्तर है? आचार्य भिक्ष रात्रिकालीन प्रवचन कर रहे थे। आसोजी नाम का श्रावक सामने बैठा-बैठा नींद ले रहा था। आपने कहा--"आसोजी! नींद लेते हो?' ओसोजी बोले-"नहीं, महाराज!' और फिर नींद शुरू कर दी। आपने फिर कहा-“आसोजी, नींद लेते हो?' वही उत्तर मिला--"नहीं महाराज?' नींद में घूर्णित आदमी सच कब बोलता है? अनेक बार चेताने पर भी आसोजी ने नकारात्मक उत्तर दिया। नींद फिर गहरी हुई और आपने कहा-“ओसोजी! जीते हो?' उत्तर मिला “नहीं महाराज!'३ इस उत्तर में कितनी सचाई है। आदमी प्रमादपूर्ण जीवन जीकर भी कब जीता है? १. (क) नैवाग्रं नावरं यस्य, तस्य मध्यं कुतो भवेत्। (माध्यमिक कारिका ११/२) (ख) जस्स नत्थि पुरातच्छा, मज्झे तस्स कओ सिया। (आचारांग १/४/४) (ग) आदांवन्ते च यन्नास्ति, वर्तमानेऽपि तत्तथा। (माण्डूक्य कारिका २/६) २. मुहूर्त ज्वलितं श्रेयो, न च धूमायितं चिरम्। (महाभारत, उद्योग पर्व १३२/१५) ३. भिक्खु दृष्टान्त, ४८, पृ. २१ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ : भिक्षु विचार दर्शन आचार्य भिक्षु अप्रमत्त जीवन जीते रहे और उनका मरण भी अप्रमत्त दशा में हुआ । मध्य जीवन में भी वे अप्रमत्त रहे इसलिए उनका आदि, मध्य और अन्त - ये तीनों ही ज्योतिर्मय हैं । 1 यह मेरी कृति उनके कुछेक ज्योतिकणों से आलोकित है। उनके प्रकाशपुंज जीवन और ज्योतिर्मय विचारों को शब्दों के संदर्भ में रखना सहज-सरल नहीं है । मैंने ऐसा यत्न करने का सोचा ही नहीं । परम श्रद्धेय आचार्य श्री तुलसी की अन्तःप्रेरणा थी कि मैं महामना आचार्य भिक्षु के विचार- दर्शन पर कुछ लिखूं। उनके शुभाशीर्वाद का ही यह सुफल है कि मैं आचार्य भिक्षु के विचार - दर्शन की एक झांकी प्रस्तुत कर सका और तेरापंथ द्विशताब्दी के पुण्य अवसर पर उसके प्रवर्तक को मैं अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित कर सका । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अंगुत्तर निकाय २. अहिंसा ३. अहिंसा की शक्ति ४. आचारांग ५. आचार्य सन्त भीखणजी ६. आत्मकथा (भाग ४) ७. उत्तरपुराण परिशिष्ट टिप्पणियों में प्रयुक्त ग्रन्थ-सूची उत्तराध्ययन सूत्र ( नेमिचन्द्रीय वृत्ति) ८. ६. उपदेश- माला १०. एक सौ उनहत्तर बोल की हुण्डी । ११. एक सौ इक्यासी बोल की हुण्डी १२. ओघ नियुक्ति वृत्ति १३. गीता १४. जम्बूकुमार चरित १५. जिनाज्ञा रो चोढालियो १६. जैन साहित्य और इतिहास १७. जैन साहित्य संशोधन (खण्ड ३, अंक ४) १८. तत्त्वार्थ सूत्र १६. त्रिवर्णाचार २०. दर्शन - संग्रह (डॉ. दीवानचन्द्र ) २१. दशवैकालिक Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ : भिक्षु विचार दर्शन २२. धम्मपद २३. धर्म रसिक २४. धर्मसागर कृत पट्टावली २५. धर्मोदय २६. नन्दी सूत्र २७. निशीथ सूत्र चूर्णि २८. नीतिशास्त्र २६. भगवती सूत्र ३०. भ्रमविध्वंसनम् ३१. भारतीय संस्कृति और अहिंसा ३२. भिक्खु-दृष्टान्त ३३. भिक्खु-ग्रन्थ रत्नाकर (प्रथम खण्ड) : अणुकम्पा आचार री चौपाई जिन आज्ञा री चौपाई नव पदारथ निह्नव चौपाई निह्नव रास मिथ्यात्वी री करणी-निर्णय व्रताव्रत विनीत अविनीत री चौपाई श्रद्धा री चौपाई (श्रद्धा निर्णय री चौपई) श्रावक नां बारे व्रत री चौपई ३४. भिक्षु जश रसायण ३५. मर्यादा मुक्तावती ३६. मर्यादावली ३७. महाभारत ३८. माण्डूक्य कारिका ३६. माध्यमिक कारिका ४०. मूलाचार Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैसे-जैसे काल की लम्बाई बढ़ती है वैसे-वैसे उसका आवरण सबको आवृत करता जाता है। किन्तु उन्हें अनावृत करता है, जिनका जीवन तपःपूत रहा है। आचार्य भिक्षु महान् तपस्वी थे। उनकी तपस्या का वलय इतना शक्तिशाली था कि उसके परमाणु हजारों वर्षों तक अपना प्रभाव सुरक्षित रख पाएंगे। आचार्य भिक्षु द्वारा जो सत्य अभिव्यक्त हुआ, वह इतना चिरन्तन था कि उसे शाश्वत की तुला में तोला जा सकता है, वह इतना सामयिक है कि उसे वर्तमान की धारा का स्रोत कहा जा सकता है। . 'भिक्षु-विचार दर्शन' आचार्य भिक्षु के विचार-बिन्दुओं का एक लघुसमाकलन है। यह मैंने उस समय लिखा जब आचार्य भिक्षु जनता की दृष्टि में सांप्रदायिक अधिक, दार्शनिक कम थे / वर्तमान संस्करण उस समय हो रहा है, जब आचार्य भिक्षु जनता की दृष्टि में दार्शनिक अधिक, साम्प्रदायिक कम हैं। जनता ने आचार्य भिक्षु के विचारों को समझने में रुचि ली है। इसका अर्थ है कि लोग व्यवहार के धरातल से उतरकर नैश्चयिक सत्य तक पहुंचना चाहते हैं। -आचार्य महाप्रज्ञ