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संघ-व्यवस्था : १७६
गण का साधु था, वह गण से पृथक् होने के पश्चात् उस गण का कैसे रहे.. जो गण में हों, वे भी गण के साधु और जो पृथक् हो जाएं, वे भी गण के साधु माने जाएं तो फिर मण में रहने या उससे पृथक् होने का अर्थ ही क्या हो? गण का साधु वही है जो गण की व्यवस्था का पालन करे। उसका पालन न करे, वह गण का साधु नहीं है। इसलिए आचार्य भिक्षु ने लिखा-“उसे चार तीर्थ में न गिना जाए।"
- वह वास्तव में क्या है? इस चर्चा में हम क्यों जाएं? दूसरे भी हजारों साधु हैं, वैसे ही वह है। गण की व्यवस्था में जिसे विश्वास है, वह उसे गण का साधु न माने, इस मर्यादा का आशय यही है। १६. दोष-परिमार्जन जो चलता है वह स्खलित भी हो जाता है। स्खलित होना बड़ी बात नहीं है, बड़ी बात है चलना। व्यवस्था इसलिए होती है कि व्यक्ति चले और स्खलित न हो। अकेला व्यक्ति चलता है या स्खलित होता है, उसका उत्तरदायी वह स्वयं होता है। समुदाय में कोई चलता है या स्खलित होता है, उसका उत्तरादियत्व समुदाय पर होता है। साधना के क्षेत्र में व्यक्ति समुदाय में रहते हुए भी अकेला होता है, इसलिए उसका दायित्व भी स्वयं पर अधिक होता है। किन्तु समुदाय में रहने वाला अकेला ही नहीं होता, इसलिए उसका दायित्व समुदाय पर भी होता है। समुदाय में कोई दोष-सेवन करे, उसे कोई दूसरा देखे, उस समय देखने वाले का क्या कर्तव्य है, यह विर्मश-योग्य विषय है।
एक बार भाई किशोरलाल घनश्यामदास मश्रूवाला से पूछा गया-“गांधी जी की आपको सबसे बड़ी देन क्या है?' इसका जवाब भाई मश्रूवाला ने इस प्रकार दिया : ___“गांधी जी हमें कहते थे कि अगर किसी आदमी के खिलाफ तुम्हारे मन में कोई बात उठी हो तो उसके बारे में उसी आदमी के साथ बात कर लेनी चाहिए। हम हिन्दुस्तानियों में यह हिम्मत कम है। यदि हमें किसी व्यक्ति पर संदेह हुआ या उसके प्रति असन्तोष हुआ तो उसकी शिकायत या निन्दा हम दूसरों के सामने करते हैं, मगर खुद उसके सामने बात नहीं निकालते बल्कि उसे तो हम ऐसा भी दिखा देते हैं, मानो उसके खिलाफ
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