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१७८ : भिक्षु विचार दर्शन पर्याप्त अनुग्रह न हो, उससे खिन्न होकर गण में भेद डालने का यत्न करता है उसने साधना का मर्म नहीं समझा। गुटबन्दी का अर्थ है-साधना की अपरिपक्वता। आचार्य भिक्षु ने गुटबन्दी को साधना के लिए सद्योघाती आतंक कहा है। १८. क्या माना जाए? साधु-समुदाय के लिए कुल, गण और संघ-ये तीन शब्द व्यवहत होते हैं। कुल से गण और गण से संघ व्यापक है। एक आचार्य के शिष्य-समूह को कुल, दो आचार्यों के सहवर्ती शिष्य-समूह को गण और अनेक आचार्यों के सहवर्ती शिष्य-समूह को संघ कहा जाता है।
तेरापंथ साधु-समूह के लिए प्रायः गण शब्द का प्रयोग होता है। कुछ लोग साथ में रहते हैं-इतने मात्र से उनका गण नहीं होता। गण तब होता है जब वे एक व्यवस्था-सूत्र में आबद्ध होकर रहें। गण का मूल आधार व्यवस्था है। जिस व्यवस्था में जो रहे वह उस गण का सदस्य होता है और उस व्यवस्था से अलग होने पर वह उसका सदस्य नहीं होता। आचार्य भिक्षु ने कहा-“जो कोई साधु गण से अलग हो जाए, उसे साधु न माना जाए, चार तीर्थ में उसकी गिनती न की जाए। उसे वन्दना करना जिनाज्ञा के प्रतिकूल है।"
चारित्र को निभाने की अक्षमता, स्वभाव की अयोग्यता, मन-भेद और मत-भेद आदि-आदि गण से पृथक् होने या करने के कारण है। जो मतभेद के कारण गण से अलग होते हैं, उनको लेकर यह तर्क आता है कि उन्हें साधु क्यों न माना जाए? एक व्यक्ति बीस वर्ष तक गण में रहे तब तक वह साधु और गण से अलग होते ही वह साधु नहीं-यह कैसे हो सकता है? तर्क अकारण नहीं है। क्योंकि साधुत्व कोई लोह नहीं है, जो गणरूपी लोहचुम्बक से चिपटा रहे और उसे छोड़ बाहर न जा सके। वह मुक्त-हृदय की उन्मुक्त साधना है। किन्तु आचार्य भिक्षु ने जो कहा वह भी तो अपेक्षा से मुक्त नहीं है। आगम का प्रत्येक वचन अपेक्षा से युक्त होता है तब आचार्य भिक्षु का वचन अपेक्षा से मुक्त कैसे होगा? गुण से पृथक् हुए साधु को साधु न माना जाए-यह यथार्थ दृष्टिकोण है। जो साधु पहले तेरापंथ १. लिखित, १८३२
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