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१७. गुटबन्दी
साधना और गुटबन्दी का भला क्या मेल । गुटबन्दी वे करते हैं, जिन्हें अधिकार हथियाना हो । गुटबन्दी वे करते हैं जिन्हें सत्ता हथियानी हो । साधना धर्म है। जहां धर्म होता है, वहां न अधिकार होता है और न सत्ता । फिर भी समुदाय आखिर समुदाय है । वह गुटबन्दी की परिस्थिति है ।
जिनके विचार और स्वार्थ एक रेखा पर पहुंचते हैं वे स्नेह-सूत्र में बन्ध जाते हैं और परमार्थ को कुछ विस्मृत-सा कर देते हैं । साधु-संघ में गुटबन्दी के कारण जो बनते हैं उनका उल्लेख आचार्य भिक्षुन ने किया -
किसी " साधु को विहार क्षेत्र साधारण-सा सौंपा गया अथवा कपड़ा साधारण दिया गया-इन कारणों तथा ऐसे ही दूसरे कारणों से कुपित होकर वे आचार्य की निन्दा करते हैं; अवगुण बोलते हैं, परस्पर मिलकर गुटबन्दी करते हैं । '
" किन्तु गण में रहते हुए भी दूसरे साधुओं के मन में भेद डालकर जो गुटबन्दी करते हैं, वे विश्वासघाती हैं। ऐसा करने वाले चिर काल तक संसार में परिभ्रमण करते हैं ।" "
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संघ - व्यवस्था : १७७
गुटबन्दी राजनीति का चक्र है। इसमें फंसने वाला साधक अपनी साधना को जीर्ण-शीर्ण कर देता है ।
अपमान उसी के लिए है, जिसके चित्त का विक्षेप होता है। जिसके चित्त का विक्षेप नहीं होता उसके लिए अपमान जैसी कोई वस्तु है ही नहीं: अपमानादयस्तस्य, विक्षेपो यस्य चेतसः॥
नापमानादयस्तस्य, न क्षेपो यस्य चेतसः ॥
जिस चित्त का विक्षेप नहीं छोड़ा वह कैसा है साधक और कैसी है उसकी साधना ?
मन-मुटाव का प्रमुख कारण है स्वार्थ की क्षति । जो स्वार्थ में लिप्त होता है, यह निर्लेप नहीं बन सकता। आचार्य के अनुग्रह का महत्त्व यही है कि उससे साधु को साधना का सहयोग मिले। उसे भी किसी स्वार्थ की पूर्ति में लगाए तो वह अनुग्रह कोई विशेष मूल्य नहीं रखता । आचार्य का
१. लिखित, १८५० २. वही, १८४५
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