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१८० : भिक्षु विचार दर्शन हमारे दिल में कुछ है ही नहीं। अपने दिल को छिपाकर बोलने की आदत हमने बना ली है। हमारा ऐसा भी खयाल है कि यह आदत सभ्यता, तहजीब की निशानी है या विवेक है। लेकिन वस्तुतः यह विवेक नहीं, चरित्र की कमजोरी है।" ___ इस पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं :
“गांधीजी की यह सलाह ईशु के एक उपदेश की याद दिलाती है। अपने एक उपदेश में ईशु ने अपने शिष्यों से कहा-'तुम मन्दिर में पूजा करने जाओ और पूजा करते-करते तुम्हें याद आए कि तुम्हारे मन में किसी भाई के प्रति बुराई आयी है तो अपनी पूजा अधूरी छोड़कर पहले उसके पास जाओ, खुलासा करो और बाद में आकर अपनी पूजा पूरी करो। पूज्य बापू की इस सलाह पर चलने का मैंने प्रयत्न किया है। परिणाम बहुत अछे आए हैं। बात करने के समय अपने जोश को रोककर शान्त वाणी से बोलने का आत्म-संयम यदि मुझमें हो तो परिणाम और भी अच्छे आ सकते हैं। आत्म-संयम की कमी जोश पर काबू पाने में अड़चन पैदा करती है। फिर भी मेरा अनुभव ऐसा है कि जिसके विषय में आशंका उठी हो उसके साथ सीधी और साफ बात कर लेने से और उसके लिए अपने मन में सच्ची भावना प्रकट कर लेने से यदि उस क्षण उसे बुरा लगे तो भी गलतफहमी, दम्भ और चुगलखोरी फैलने नहीं पाती। 'क' की बात 'क' को कह देने से दूसरों के सामने कहते फिरने की वृत्ति कमजोर हो जाती है।" ___ भाई मश्रूवाला ने उपर्युक्त उद्गारों में महात्माजी के जिस जीवन-सूत्र की चर्चा की है, वह बहुत ही बहुमूल्य है।
आचार्य भिक्षु ने साधुओं और श्रावकों को यही शिक्षा दी थी। निंदा और विषमवाद को मिटाने के लिए उन्होंने लिखा था-“कोई व्यक्ति किसी साधु-साध्वी में दोष देखे, तो तत्काल उसी को कह दे अथवा गुरु को कह दे पर दूसरो को न कहे।"१ ___दो दृष्टिकोण होते हैं-एक सुधारने का और दूसरा अपमानित करने का। जिसने दोष किया हो उसे या गुरु को कहा जाए-यह सुधारने का दृष्टिकोण है। उन्हें न कहकर और-और लोगों को कहा जाए-यह किसी
१. लिखित, १८५०
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