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मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : ६६
मुक्ति का मार्ग सबके लिए एक है। मुमुक्षुभाव गृहस्थ में भी रहता है और मुनि में भी। मुनि गृहवास को छोड़ सर्वारम्भ से विरत रहता है, इसलिए वह मोक्ष - मार्ग की आराधना का पूर्ण अधिकारी होता है। एक गृहस्थ गृहवास में रहकर सर्वारम्भ से विरत नहीं हो पाता, इसलिए वह मोक्ष मार्ग की आराधना के पथ का एक सीमा तक अधिकारी होता है । किन्तु मोक्ष-मार्ग की आराधना का पथ दोनों के लिए एक है ।' अन्तर है केवल मात्रा का । साधु और श्रावक दोनों रत्नों की मालाएं हैं- एक बड़ी और दूसरी छोटी । साधु और श्रावक दोनों लड्डू हैं - एक पूरा और दूसरा अधूरा । साधु केवल व्रती होता है और श्रावक व्रताव्रती । व्रत की अपेक्षा से साधु केवल रत्नों की माला है | श्रावक व्रत की अपेक्षा से रत्नों की माला है, अव्रतों की अपेक्षा वह कुछ और भी है । साधु के लिए अहिंसा महाव्रत है और श्रावक के लिए अहिंसा अणुव्रत है । अणुव्रत महाव्रत का ही एक लघुव्रत है, उससे अतिरिक्त नहीं है । मोक्ष की आराधना के लिए जो साधु करता है या कर सकता है, वही कार्य श्रावक के लिए करणीय है । जो कार्य साधु के लिए करणीय नहीं है, वह मोक्ष मार्ग की आराधना के लिए भी करणीय नहीं है । श्रावक अव्रती भी होता है, इसलिए समाज व्यवस्था की दृष्टि से उसके लिए वैसा भी करणीय होता है, जो एक साधु के लिए करणीय नहीं होता ।
साधु के लिए हिंसा सर्वथा अकरणीय है, मोक्ष की दृष्टि से श्रावक के लिए भी वह सर्वथा अकरणीय है । किन्तु श्रावक कोरा मोक्षार्थी नहीं होता, अर्थ और काम का भी अर्थी होता है। अर्थ और काम मोक्ष के साधन नहीं हैं । मोक्ष के प्रति तीव्र मनोभाव किसी एक व्यक्ति में होता है और जिसके वह होता है, उसके लिए मोक्ष के प्रतिकूल जो भी है, वह करणीय नहीं रहता । किन्तु जिनका मनोभाव मोक्ष के प्रति इतना तीव्र नहीं होता, वे मोक्ष के बाधक कार्यों को भी करणीय मानते हैं । मोक्ष में बाधा आए,
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१. व्रताव्रत : १.२८ :
साध श्रावक नो एकज मारग, दोय धर्म बताया रे 1
ते तिण दोनूं आग्यां मांहे, मिश्र अणहूंतो ल्याया रे || २. वही : १. १ :
साधने श्रावक रतनां री माला, एक मोटी दूजी नानी रे । गुण गूंथ्या च्यारूं तीरथ नां, इवरित रह गई कानी रे।।
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