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________________ १०० : भिक्षु विचार दर्शन यह उनकी चाह न भी हो, किन्तु मोह का ऐसा उदय होता है कि वे मोक्ष के बाधक कार्यों को छोड़ने में अपने को असमर्थ पाते हैं। असामर्थ्य के कारण वे जीवन का जो मार्ग चुनते है, उसमें उनके करणीय कार्यों की सीमा विस्तृत हो जाती है। मोक्ष का साधन धर्म है, हिंसा में धर्म नहीं है, भले ही फिर वह आवश्यक हो। आचार्य भिक्षु ने कहा-प्रयोजनवश या निष्प्रयोजन किसी भी प्रकार से हिंसा की जाए उससे हित नहीं होता। जो धर्म के लिए हिंसा को आवश्यक मानते हैं, उनका बोधि-बीज-सम्यक्-दृष्टिकोण ही लुप्त हो जाता है। __ महात्मा गांधी ने आवश्यक हिंसा के विषय में लिखा है-किसान जो अनिवार्य हिंसा करता है, उसे मैंने कभी अहिंसा में गिनाया ही नहीं है। यह यध अनिवार्य होकर क्षम्य भले ही गिना जाए किन्तु अहिंसा तो निश्चय ही नहीं है। ४. अपना-अपना दृष्टिकोण कोई सुई की नोक में रस्सा पिरोये वह आगे कैसे पैठे? वैसे ही कोई आदमी हिंसा में धर्म बताये, वह बुद्धि में कैसे समाये? जो जीवों की हिंसा में धर्म बतलाते हैं, वे जीवों के प्राणों की चोरी करते हैं। वे भगवान की आज्ञा का लोप कर तीसरे व्रत का विनाश करते . कुछ लोग कहते थे-धर्म के लिए हिंसा की जाए, वह विहित है। आचार्य भिक्षु ने कहा-देव, गुरु और धर्म के लिए हिंसा करने वाला मूढ़ १. अणुकम्पा : ६.४८ : . अर्थ अनर्थ हिंसा कीधां, अहेत रो कारण तासो जी। धर्म रे कारण हिंसा कीधां, बोध बीज रो नासो जी॥ २. अहिंसा, पृ. ५० ३. आचार री चौपई : ६.२८ : सूइ नाके सिंधर पोवे, कहो किम आगे पेसे। ज्यूं हिंसा माहे धर्म परूपे, ते सालोसाल न बेसे रे॥ ४. अणुकम्पा : ६.३२ : ज्यां जीवां ने मार्यो धर्म परूपे, त्यां जीवां रो अदत्त लागो जी। वले आग्या लोपी श्री अरिहंत नी, तिण दूँ तीजोइ महावरत भागो जी॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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