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मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १०१
है - वह जिन-मार्ग के प्रतिकूल जा रहा है । वह कुगुरु के जाल में फंसा हुआ है । '
लहू
जो सम्यक् दृष्टि होता है, वह धर्म के लिए हिंसा नहीं करता । जैसे से भरा हुआ पीताम्बर लहू से साफ नहीं होता, वैसे ही हिंसा से होने वाली मलिनता हिंसा से नहीं धुलती ।
कुछ लोग कहते थे- धर्म के लिए जीव मारने में पाप इसलिए नहीं है कि उस समय मन शुद्ध होता है । मन शुद्ध हो तब जीव मारने में हिंसा नहीं है ।
आचार्य भिक्षु ने कहा- जान-बूझकर प्रयत्नपूर्वक जीवों को मारने वालों के मन को शुद्ध बतलाते हैं और अपने आपको जैन भी कहते हैं, यह कितने आश्चर्य की बात है ।
कुछ लोग कहते थे - जीवों को मारे बिना धर्म नहीं होता । शुद्ध मन से जीवों को मारने में दोष नहीं है । "
कुछ लोग कहते थे - जीवों को मारे बिना मिश्र नहीं होता। जब मरते हैं, उसका थोड़ा पाप होता है, पर दूसरे बडे जीवों को तृप्ति मिलती है, धर्म है।
यह
आचार्य भिक्षु ने कहा -धर्म या मिश्र करने के लिए जीवों के प्राण भी
१. व्रताव्रत : १.३५ :
देव गुर धर्म ने कारण, मूढ हणे छ कायो रे ।
उलटा पडीया जिण मार्ग थी, कुगुरां दीया बेहकायो रे ॥ २. वही, १.३७ :
वीर को आचांरंग मांहे, जिण ओलखीयो समदिष्टी धर्म ने कारण, न करे पाप ३. वही, १.३६ :
धोवायो रे ।
लोही खरड्यो जो पितंबर, लोही सूं केम तिमं हिंसा में धर्म कीयां थी, जीव उजतो किम थायो रे॥ ४. वही, ६ दू. ३ :
जीव मारे छे उदीर ने, तिणरा चोखा कहे परिणाम | ते विवेक विकल सुधबुध बिना, वले जेती धरावे नाम || ५. वही, १२.३४ :
६. वही, १२.३५ :
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तंत सारो रे । लिगारो रे ॥
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