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१०२ : भिक्षु विचार दर्शन लूटते हैं और मन को शुद्ध भी बतलाते हैं, यह कैसी विडम्बना है।'
दुनिया में मात्स्य न्याय चल रहा है। बड़ी मछली छोटी मछली को खाती है. वैसे ही बड़े जीव छोटे जीवों को खा रहे हैं। खाना स्वाभाविक-सा है, पर इस कार्य में धर्म बतलाते हैं, उसमें सुबुद्धि नहीं। __नीतिशास्त्र कहता है-जब स्वाभाविक प्रवृत्ति और औचित्य में विरोध होता है, तभी कर्तव्यता की आवश्यकता होती है और कर्त्तव्य-शास्त्र का निर्माण ऐसी ही स्थिति में होता है। यदि मनुष्य का कर्त्तव्य वही मान लिया जाए, जिसकी ओर मनुष्य की सहज प्रेरणा है, तो कर्तव्य-अकर्तव्य के निर्णय की अपेक्षा नहीं रहेगी।
बड़े जीवों में छोटे जीवों का उपभोग करने की सहज प्रवृत्ति है, पर इसमें औचित्य नहीं है, इसलिए यह अकर्त्तव्य है।
कुछ लोग कहते थे-जीवों को जिलाना धर्म है।
आचार्य भिक्षु ने कहा-जो साधु हैं, जिनकी लय मुक्ति से लग चुकी है, वे जीने-मरने के प्रपंच में नहीं फंसते।
गृहस्थ ममता में बैठा है और साधु समता में। साधु धर्म और शुक्ल ध्यान में रत रहते हैं, इसलिए मतों की चिन्ता में नहीं फंसते।' गृहस्थ में ममत्व होता है इसलिए वह जिलाने का यत्न करता है और मृत व्यक्तियों की चिन्ता करता है।
१. व्रताव्रत : १२.३६ :
केइ धर्म ने मिश्र करवा भणी, छ काय रो करे घमसाण हो। तिणरा चोखा परिणाम विहां थकी, पर जीवां रा लूटे छे प्राण हो। २. अणुकम्पा : ७ दू. १:
मछ गलागल लोक में, सबला ते निबला ने खाय। तिण में धर्म परूपीयो, कुगुरां कुबुध चलाया। ३. नीतिशास्त्र, पृ. १६६ ४. अणुकम्पा : २.४ :
जीवणो मरणो नहीं चावे, साध क्याने बंधावे छोडावे।
ज्यारी लागी मुगत सू ताली, नहीं करे तिके रुखवाली। ५. वही, २.१२
गृहस्थ नो सरीर ममता में, साधु बेठो समता में। - रह्या धर्म सुकल ध्यान ध्याई, मुआं गया फिकर न कांई।
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