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१५२ : भिक्षु विचार दर्शन है-जो जीवों को नही जानता, अजीवों को नहीं जानता, वह संयम को कैसे जानेगा? जो जीवों को जानता है, अजीव को जानता है, वही संयम को जान सकेगा।' जीव है, अजीव है, बंधन है, उसके हेतु हैं, मुक्ति है, उसके हेतु हैं। साधक के लिए ये मौलिक तत्त्व हैं। इन्हीं के विस्तार को नव-तत्त्व कहा जाता है।
आचार्य भिक्षु ने लिखा कि दीक्षार्थी को नव-तत्त्वों की पूरी जानकारी कराने के बाद दीक्षा दी जाए। आचार्य भिक्षु अपने जीवन में सदा सतर्क रहे। उन्होंने अन्तिम शिक्षा में भी यही कहा-"जिस-तिस को मत मूंड लेना, दीक्षा देने में पूरी सावधानी रखना।" इस प्रकार अयोग्य दीक्षा पर कड़ा प्रतिबन्ध लगा उन्होंने अनुशासन की भूमिका को सुदृढ़ बना दिया। ८. अनुशासन के दो पक्ष अनुशासन आत्म-शुद्धि के लिए भी आवश्यक होता है और सामदायिक व्यवस्था के लिए भी। इनमें एक नैश्चयिक पक्ष है और दूसरा व्यावहारिक। मुनि जीवन-भर के लिए पांच महाव्रतों को अंगीकार करता है, यह नैश्चयिक अनुशासन का पक्ष है।
__ महाव्रतों को एक-एक कर स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसका स्वीकार एक ही साथ होता है। आचार्य भिक्षु के शब्दों में महाव्रत उस धागे में पिरोई हुई माला है जिसमें मनकों के बीच-बीच में गांठ नहीं होती। वे एक ही सरल धागे में एक ही साथ रहते हैं और धागा टूटता है तो सारे के सारे मनके गिर जाते हैं। अणुव्रत उस धागे में पिरोई हुई माला है, जिसमें प्रत्येक मनके के बीच गांठ होती है। वह एक गांठ के बाद एक होता है और धागा टूटता है तो एक ही मनका गिरता है, सारे के सारे नहीं गिरते। १. दशवैकालिक, ४.१२-१३
जो जीवे वि न याणाइ, अजीवे वि न याणइ। जीवाजीवे अयाणंतो, कहं सो नाहीइ संजम॥ जो जवे वि वियाणाइ, अजीवे वि वियाणइ।
जीवाजीवे वियाणतो, सो हु नाहीइ संजमं॥ . २. लिखित, १८३२ ३. वही, १८५६
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