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संघ-व्यवस्था : १५१
अयोग्य शिष्यों की बाढ़ आ रही थी, उसका कारण था आचार्य-पद की लालसा। आचार्य भिक्षु ने रोग की जड़ को पकड़ लिया। उन्होंने उस पर दोनों ओर से नियन्त्रण किया। उन्होंने एक मर्यादा लिखी कि मेरे बाद आचार्य भारीमलजी होंगे। तेरापंथ में आचार्य एक ही होगा, दो नहीं हो सकेंगे। दूसरी ओर आपने उसी मर्यादा-पत्र में एक धारा यह लिखी कि जो शिष्य बनाए जाएं, वे सब भारमलजी के नाम से बनाए जाएं। इसके द्वारा शिष्य बनाने पर भी नियन्त्रण हो गया। जो चाहे वह आचार्य भी नहीं हो सकता और जो चाहे वह शिष्य भी नहीं बन सकता। आचार्य हुए बिना शिष्य कैसे बनाए और शिष्यों के बिना आचार्य कैसे बने? यह उभयतः पाश रचकर आचार्यवर अयोग्य दीक्षा की बाढ़ को रोकने में सफल हुए। . आचार्य भिक्षु ने एक अपवाद रखा था-भारमलजी प्रसन्न होकर किसी साधु को शिष्य बनाने की स्वीकृति दें, तो वह बना सकता है। इस विधि का प्रयोग नहीं हुआ। __कुछ वर्षों तक किसी व्यक्ति को दीक्षित कर आचार्य को सौंप देते थे, पर अब वह परम्परा भी नहीं है। वर्तमान में जितनी भी दीक्षाएं होती हैं, उनमें निन्यानवें प्रतिशत आचार्य के हाथों से ही सम्पन्न होती हैं। एक प्रतिशत कहीं अन्यत्र आचार्य की स्वीकृति से दूसरे साधु-साध्वियों द्वारा सम्पन्न होती हैं। आचार्य को दीक्षा का सर्वाधिकार देकर भी उन्हें एक धारा के द्वारा फिर सचेत किया है-आचार्य भी उसे ही शिष्य बनाएं, जिसे अन्य बुद्धिमान् साधु भी दीक्षा के योग्य समझें। दूसरे साधुओं को जिसकी प्रतीति हो उसी को दीक्षा दें, जिसकी प्रतीति न हो उसे दीक्षा न दें। दीक्षा देने के बाद भी कोई अयोग्य हो तो बुद्धिमान् साधुओं की सहमति से उसे संघ से पृथक् कर दें।
दीक्षा लेने का मुख्य हेतु वैराग्य है, किन्तु कोरे वैराग्य से संयम की साधना नहीं हो सकती। विरक्त आदमी इन्द्रिय और मन का संयम कर सकता है किन्तु संयम की मर्यादा इससे भी आगे है। भगवान् ने कहा
१. लिखित, १८३२ २. वही, १८३२ ३. वही, १८३२
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