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१५० : भिक्षु विचार दर्शन ७. अनुशासने की भूमिका अनुशासन की पूर्णता के लिए अनुशासन करने वाला योग्य हो, इतना ही पर्याप्त नहीं है, उसकी पूर्णता के लिए इसकी भी बड़ी अपेक्षा होती है कि उसे मानने वाले भी योग्य हों। दोनों की योग्यता से ही अनुशासन को समुचित महत्त्व मिल सकता है। ____ आचार्य भिक्षु शिष्यों के चुनाव को बहुत महत्त्व देते थे। वे हर किसी को दीक्षित बनाने के पक्ष में नहीं थे। अयोग्य-दीक्षा पर उन्होंने तीखे बाण फेंके। जो शिष्य-शिष्याओं के लोभी हैं, केवल सम्प्रदाय चलाने के लिए बुद्धि-विकल व्यक्तियों को मूंड-मूंडकर इकट्ठा करते हैं, उन्हें रुपयों से मोल लेते हैं, वे गुणहीन आचार्य हैं और उनकी शिष्य-मंडली कोरी पेटू।'
कुछ साधु गृहस्थ को इसकी प्रतिज्ञा दिलाते कि दीक्षा मेरे पास ही लेना, और कहीं नहीं। यह ममत्व है। ऐसा करना साधु के लिए अनुचित
विवेक-विकल व्यक्ति को साधु का स्वांग पहनाने वाले और अयोग्य को दीक्षित करने वाले भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करते हैं। १. आचार री चौपई, ३.११-१३
चेला चेली करण रा लोभिया रे, एकंत मत बांधण. सूं काम रे। विकला ने मूंड मूंड भेला करे रे, दिराए गृहस्थ ना रोकड दाम रे॥ पूजरी पदवी नाम धरावसी रे, में छां सासण नायक साम रे। पिण आचारे ढीला सुध नहीं पालसी रे, नहीं कोइ आतम साधन काम रे॥ आचार्य नाम धरासी गुण विना रे, पेटभरा ज्योंरा परवार रे।
लपटी तो हूसी इन्द्री पोषवा रे, कपट कर ल्यासी सरस आहार रे॥ २. वही, १.१८-१६
दिष्या ले तो मो आगे लीजें, और कनें दे पाल जी। . कुगुर एहवो सूंस करावे, ए चोडें उधी चाल जी।।
ए बंधा थी ममता लागे, गृहस्थ सूं भेलप थाय जी।
नशीत रे चोथे उद्देशे, डंड कह्यो जिणराय जी। ३. वही, १.२३-२४ :
ववेक विकल ने सांग पहराए, भेलो करे आहार जी। सामग्री में जाय वंदावे, फिर फिर करे खुवार जी। अजोग ने दिष्या दीधो ते, भगवंत री आग्या बार जी। नसीत रो डंड मूल न मान्यो, ते विटल हुवा बेकार जी।
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