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संघ व्यवस्था : १४६
अश्रद्धा लाती है । इसे इस प्रकार भी कहा जा सकता है कि व्यवस्थापक की कमी से व्यवस्था वीर्य-हीन बन जाती है । व्यवस्था की अप्रामाणिकता भी उसमें अश्रद्धा उत्पन्न करती है । व्यवस्था के प्रति विश्वास तभी स्थिर होता है, जब वह कभी अधिक और कभी कम साधन प्रस्तुत न करे । व्यवस्था को प्राणवान् बनाए रखने के लिए उसे किसी भी व्यक्ति से अधिक मूल्य मिलना चाहिए ।
आचार्य भिक्षु की व्यवस्था इसलिए प्राणवान् है कि वे अनुशासन के पक्ष में बहुत ही सजग थे। एक बार की घटना है, आचार्य भिक्षु ने मुनि वेणारामजी को बुलाने के लिए शब्द किया । उत्तर नहीं मिला । दो-तीन बार आवाज देने पर भी उत्तर नहीं मिल रहा था । 'लगता है, वेणीराम संघ से अलग होगा' - आचार्य भिक्षु ने गुमानजी लुणावत से कहा । गुमानजी तत्काल उठे और सामने की दुकान में वेणीरामजी स्वामी के पास जा वह सब सुना दिया, जो आचार्यवर ने कहा था। वे उसी क्षण आचार्यवर के पास आए और वन्दना की । आपने कहा- ' शब्द करने पर भी नहीं बोलता है?" वेणीरामजी ने कहा - "गुरुदेव ! मैंने सुना नहीं था ।" उनके नम्र व्यवहार ने आचार्यवर को प्रसन्न कर लिया, किन्तु इस घटना से सब साधुओं को अनुशासन की एक सजीव शिक्षा मिल गई । '
आचार्य भिक्षु अनुशासन में कभी शिथिलता नहीं आने देते थे । सिंहजी गुजराती साधु थे । वे आचार्य भिक्षु के शिष्य बन गए। कुछ दिन वे अनुशासन में रहे, फिर मर्यादा की अवहेलना करने लगे। यह देख आचार्यवर ने उन्हें संघ से अलग कर दिया। वे दूसरे गांव चले गये। पीछे से खेतसीजी स्वामी ने कहा- उन्हें प्रायश्चित्त दें, मैं वापस ले आता हूं । आचार्यवर ने कहा- वह फिर लाने योग्य नहीं है । खेतसीजी ने आचार्यवर की बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया। वे उन्हें लाने के लिए तैयार हुए। आचार्यवर ने अनुशासन की डोर को खींचते हुए कहा- खेतसी ! तूने उनके साथ आहार का सम्बन्ध जोड़ा, तो तेरे साथ हमें आहार का सम्बन्ध रखने का त्याग है । खेतसीजी कं पैर जहां थे, वहीं रह गए। फिर सिंहजी की अयोग्यता और अनुशासनहीनता के अनेक प्रमाण सुनने को मिले।
१. भिक्खु दृष्टान्त, १६३, पृ. ६६
२. वही, ११६, पृ. ६७
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