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१४८ : भिक्षु विचार दर्शन का अविषय। तर्क की अपेक्षा प्रेम और विश्वास अधिक सफल होते हैं। जहां तर्क होता है, वहां जाने-अनजाने दिल सन्देह से भर जाता है। जहां प्रेम होता है, वहां सहज विश्वास बढ़ता है।
अहिंसा और कोरी व्यवस्था के मार्ग दो हैं। अहिंसा के मार्ग में तर्क नहीं आता और कोरी व्यवस्था के मार्ग में प्रेम नहीं पनपता। तर्क की भाषा में दोनों को अपूर्ण कहा जा सकता है, पर प्रेम कभी अपूर्ण नहीं होता। प्रेम की अपूर्णता में ही तर्क का जन्म होता है। प्रेम की गहराई में सारे तर्क लीन हो जाते हैं।
यह विराट् प्रेम ही अहिंसा है, जिसकी गहराई सर्वभूत-साम्य की भावना से उत्पन्न होती है और आत्मौपम्य की सीमा में फिर विलीन हो जाती है। हमारे विश्वास व्यवहारस्पर्शी अधिक हैं, इसलिए यह मार्ग हमें निर्विघ्न नहीं लगता। व्यवहार-कौशल ने हमारी विशुद्ध आन्तरिक प्रवृत्तियों को बुरी तरह दबोच रखा है। आवश्यकता यह है कि हम अपनी स्वतःस्फूर्त अन्तःकरण की प्रवृत्तियों को व्यवहार की संकीर्ण सीमा से बाहर जाने दें। मर्यादा के
औचित्य का दर्शन हमें वहीं होगा। ___आचार्य भारीमालजी ने अपने उत्तराधिकार-पत्र में दो नाम लिखे। मुनि जीतमलजी ने प्रार्थना की-गुरुदेव! इस पत्र में नाम एक ही होना चाहिए, दो नहीं। आपने कहा-जीतमल! खेतसी और रायचंद मामा-भानजे हैं। दो नाम हों तो क्या आपत्ति है? मुनिवर ने फिर अनुरोध किया कि नाम तो एक ही होना चाहिए, रखें आप चाहे जिसका। आचार्यवर ने खेतसी का नाम हटा दिया। उनका नाम लिखा गया, उसे उन्होंने गुरु का प्रसाद माना हटा दिया, उसे भी गुरु का प्रसाद माना। यह प्रेम की पूर्णता है। यदि प्रेम अपूर्ण होता, तो नाम हटने की स्थिति में बहुत बड़ा विवाद उठ खड़ होता। प्रेम की पूर्णता में असह्य कुछ भी नहीं होता। ६. मर्यादा की उपेक्षा क्यों? मर्यादा का भाग्य व्यवस्थापक के हाथों में ही सुरक्षित रहता है। अधिकारी व्यक्ति जब अपना या अपने आस-पास का हित देखने लग जाता है तब मर्यादा पालने वालों की दृष्टि में सन्देह भर जाता है। उनकी अनिवार्यत उनके लिए समाप्त हो जाती है। व्यवस्था की कमी व्यवस्थापक के प्रति
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