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६२ : भिक्षु विचार दर्शन
देने में और जीव बचाने में धर्म मानते हैं, उनके दान के सामने दया का सिद्धान्त नहीं टिकता। दान के लिए जीववध करता है, उसके लिए दिल में दया नहीं रहती और दान देने के लिए वध किए जाने वाले. जीवों को बचाता है तो दान नहीं होता।
सावद्य-दान और सावद्य-दया, ये दोनों मुक्ति के मार्ग नहीं हैं। सावद्य-दान में जीवों का वध होता है, इसलिए वह मुक्ति का मार्ग नहीं है। जीवों की रक्षा के लिए सावद्य-दान में रुकावट डाली जाए तो जिन्हें दान दिया जाता, उनके जीवन-निर्वाह में अन्तराय होता है। इसलिए यह सावध-दया भी मुक्ति का मार्ग नहीं है। सावद्य-दान से दया की उत्थापना होती है और सावद्य-दया से अभय दान का लोप होता है, इसलिए ये दोनों सांसारिक हैं। जहां किसी की हिंसा नहीं होती, वहां दया और संयमी-दान ये ही मोक्ष के मार्ग हैं। भगवान् ने इन्हीं को धर्म-सम्मत कहा है।
किण ही जीव में खप कर में बचायो, किण ही जीव उपजाय ने कीधो मोटो। जो धर्म होसी तो दोयां में धर्म होसी, जो तोटो होसी तो दोयां ने तोटो। बचावण वाला बिचें तो उपजावण वालो, सांप्रत दीसे उपगारी मोटो। यारों निरणो कियां विण धर्म कहे छे, त्यांरो तो मत निकेवल खोटो। बचावण वालो ने उपजावण वालो, ओ तो दोनूं संसार तणां उपगारी।
एहवा उपगार करे आमां साहमां, तिण में केवली रो धर्म नहीं छे लिगारी॥ १. व्रताव्रत, १२.४४-४७ :
भेषधारी थापे सावद्य दान में, तिण दान सूं दया उठ जाय हो। वले दया कहे छ काय बचावीया, तिण सूं दान उथप गयो ताय हो। छ काय जीवां में जीवां मारनें, कई दान दे संसार रे मांय हो। तिणरे छ काय जीवां तणी, घट० में बया रहे. नहीं काय हो। कोई दान देवे तिण में वरज नें, जीवां बचावे छ काय हो। ते जीव बचायां दान उथपे, त्यां सूं न्यारा रह्यां सुख थाय हो। छ काय जीवां में मारे दान दे, तिण दान तूं मुगत न माय हो।
वले फिर बचावे छ काय नें, तिण सूं कर्म कटे नहीं ताय हो। २. वही, १२.४८ :
सावद्य दान दीयां दया उथपे, सावद्य दया सूं उथपे अभयदान हो।
ते सावद्य दया दान संसारना, त्यांने औलखे ते बुधवान हो। ३. वही, १२.४६ : त्रिविधे-त्रिविधे छ काय हणवी नहीं, आ थे दया कही जिण राय हो। दान देणो सुपातर ने कह्यो, तिण सूं मुगत सुखे सुखे जाय हो।।
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