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प्रतिध्वनि : ६१
मारने में धर्म की प्ररूपणा करते हैं, वे उन जीवों की चोरी करते हैं। क्योंकि वे जीव अपने प्राणहरण की स्वीकृति नहीं देते और बिना अनुमति के उनके प्राण लेना चोरी है। जीवों को मारने में भगवान् की आज्ञा नहीं है। जीवों को मारने में धर्म बतलाने वाले भगवान् की आज्ञा की चोरी करते हैं इसलिए उनका तीसरा अचौर्य महाव्रत टूटता है। इस प्रकार जीव-हिंसा में धर्म का प्ररूपण करने वालों के तीनों महाव्रत टूटते हैं।
जीव-हिंसा में धर्म बताने वाले अपने को दया-धर्मी कहते हैं, पर वास्तव में वे हिंसा-धर्मी हैं।
साध्य की मीमांसा में उन्होंने बतलाया-जीवों को बचाना, यह धर्म का साध्य नहीं है। एक व्यक्ति मरते जीवों को बचाता है और एक व्यक्ति जीवों को उत्पन्न कर उन्हें पाल-पोसकर बड़ा करता है। यदि धर्म होगा तो इन दोनों को होगा और नहीं होगा तो दोनों को नहीं। बचाने वाले की अपेक्षा उत्पन्न करने वाला बड़ा उपकारी है; किन्तु ये दोनों संसार के उपकारी हैं। इन उपकारों में केवली-भाषित धर्म नहीं है। आचार्य भिक्षु ने कहा सावध-दया धर्म नहीं है। तर्क की कसौटी पर कसते हुए उन्होंने कहा-धर्म का मूल दया या अहिंसा है। दान देने के लिए जीव-वध किया जाता है, उस सावद्य-दान से दया उठ जाती है और जीवों को बचाने के लिए दया की जाती है, उस सावद्य-दया से दान उठ जाता है। जो लोग सावद्य-दान
१. अणुकम्पा, ६२६३२ :
केइ साध रो विड़द धरावे लोकां में, वले वाजे भगवंत रा भगता जी। पिण हिंसा मांहें धर्म परूपे, त्यांरा तीन वरत भांगे लगता जी॥ छ काय माऱ्या मांहें धर्म परूपे, त्याने हिंसा छ काय री लागे जी। तीन काल री हिंसा अणुमोदी, तिण सूं पेहलो महावरत भांगे जी॥ हिंसा में धर्म तो जिण कह्यो नाहीं, हिंसा में धर्म कह्यां झूठ लागे जी। इसड़ी झूठ निरन्तर बोले, त्यांरो तीजोई महावरत भांगे जी॥ ज्यां जीवां ने माऱ्या धर्म परूपे, त्यां जीवां री अदत्त लागे जी।
बले आग्या लोपी श्री अरिहंत नी, तिण सूं तीजोई महावरत भांगे जी। २. वही, ६.३४ : - त्यांने पूछ्यां कहे म्हें दयाधर्मी छां, पिण निश्चे छ काय रा घाती जी।
त्यां हिंसाधा ने साध सरधे केइ, ते पणि निश्चे मिथ्याती जी। ३. वही, ११.४०-४१-४२ :
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