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६० : भिक्षु विचार दर्शन
जिनका खाना धर्म नहीं है, उसे खिलाना भी धर्म नहीं है और उसके खाने का अनुमोदन करना भी धर्म नहीं है। जिसका खाना धर्म है, उसे खिलाना भी धर्म है और उसका अनुमोदन करना भी धर्म है। आचार्य भिक्षु ने कर्त्तव्य के धर्माधर्म-पक्ष का निर्णय करने में उक्त तर्क-शैली का सर्वत्र उपयोग किया है। उन्होंने संयमी या मुनि को मानदंड मानकर सबको मापा। संयमी जिस कार्य का अनुमोदन कर सकता है, वह धर्म है, क्योंकि वह जिस कार्य का अनुमोदन कर सकता है, उसे कर भी सकता है और करा भी सकता है। वह जिस कार्य का अनुमोदन नहीं कर सकता, वह धर्म नहीं हैं, क्योंकि जिस कार्य का वह अनुमोदन नहीं कर सकता, उसे कर भी नहीं सकता और करा भी नहीं सकता। संयमी असंयम और उसके साधनों का अनुमोदन नहीं कर सकता इसलिए असंयम धर्म नहीं है। वह संयम और उसके साधनों का ही अनुमोदन कर सकता है, इसलिए संयम ही धर्म है। कुछ साधु बड़े जीवों की रक्षा के लिए छोटे जीवों को मारने में धर्म कहते थे। आचार्य भिक्षु ने आश्चर्य के स्वर में कहा-जो साधु कृत, कारित और अनुमति, मनसा, वाचा, कर्मणा अहिंसक हैं, जीव मात्र की दया का पालन करते हैं, वे सभी जीवों के रक्षक होकर जीवों को मारने में किस न्याय से धर्म कहते है? जीवों को मारकर जीवों को पोषा जाता है, यह संसार का मार्ग है, इसमें जो साधु धर्म बतलाते हैं, वे पूरे मूढ़ हैं, अज्ञानी हैं। जो साधु जीव-हिंसा में धर्म बतलाते हैं, उनके तीन महाव्रतों का भंग होता है। जीव-हिंसा में धर्म बतलाना, हिंसा का अनुमोदन है, इसलिए उनका अहिंसा महाव्रत भग्न होता है। भगवान् ने हिंसा में धर्म नहीं कहा है। जीवों का पोषण करना अहिंसा-धर्म नहीं, यह सत्य है। इसके विपरीत एक जीव के पोषण के लिए दूसरे जीव को मारना दया धर्म है, यह कहना असत्य है इस दृष्टि से उनका दूसरा सत्य महाव्रत भग्न होता है। जिन जीवों को
छ काया रो वांछे मरणो जीवणो, ते तो रहसी हो संसार मझार ।
ग्यांन दरसण चारित तप भला, आदरीयां हो आदरायां खेवो पार॥ १. अणुकम्पा, ६.४१ :
त्रिविधे त्राइ छ काय रा साध, त्यांरी दया निरंतर राखे जी।
ते छ काय रा पीहर छ काय में मार्यो, धर्म किसे भाखे जी॥ २. वही, ६.२५ :
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