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५. क्षीर-नीर
१. सम्यक् दृष्टिकोण जीभ की दवा आंख में डालने से और आंख की दवा जीभ में लगाने से
आंख फूट जाती है और जीभ फट जाती हैं, दोनों इन्द्रियां नष्ट हो जाती हैं। इसी प्रकार जो अधर्म के कार्य का धर्म में और धर्म के कार्य का अधर्म में समावेश करता है, वह दोनों प्रकार से अपने आपको बांध लेता है।
दया, दान और परोपकार-ये तीन तत्त्व सामाजिक जीवन के आधार-स्तम्भ रहे हैं। धर्म की आराधना में भी इनका स्थान महत्त्वपूर्ण रहा है। समाज की व्यवस्था बदलती रहती है। जिस समाज में उच्चता और नीचता निसर्ग-सिद्ध मानी जाती थी, उसमें दया, दान और परोपकार को विकसित होने के अवसर मिला। आज समाज की व्यवस्था बदल चुकी है। इसमें समान अधिकार का सिद्धान्त विकास पा रहा है। बड़ों और छोटों के वर्ग-भेद को इसमें स्थान नहीं है। जब बड़ों और छोटों में भेद मिटने लगता है, तब दया, दान और परोपकार सिमटने लग जाते हैं। आचार्य भिक्ष ने जब दया-दान का विश्लेषण किया, उस समय की समाज-व्यवस्था में उन्हें बहुत महत्त्व दिया जाता था। आज की व्यवस्था में 'समान अधिकार' देने का जो है, वह दया दिखाने का नहीं है। जो महत्त्व सहयोग का है, वह दान और परोपकार का नहीं है। समाज-व्यवस्था परिवर्तनशील है, इसलिए परिवर्तन भी स्वाभाविक है एक व्यवस्था में उसके अनुरूप तत्त्व विकसित
१. व्रताव्रत, ४.४-५ :
जीभ रो ओषद आंख्यां में घाल्यो, आंख्यां रो ओषद जीभ में घाल्यो रे। तिण री आंखई फूटी ने जीभई फाटी, दोइ इंद्री खोय चाल्यो रे॥ ज्यूं अधर्म रा कामा धर्म माहे घाल्या, धर्म रा कामा अधर्म में घाल्या रे। दोई विध कर्म बांधे अज्ञानी, दुरगत माहे चाल्या रे।।
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