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क्षीर-नीर : १२५ होते हैं और दूसरी व्यवस्था में वे बदल जाते हैं। धर्म अपरिवर्तनशील है। उसमें दया, दान और परोपकार की मान्यता व्यवस्था से उत्पन्न नहीं है। वह संयम से जुड़ी हुई है। संयम का विकास हो वहीं दया हो सकती है, वहीं दान और परोपकार। जो वर्तमान के असंयम को सहारा दे, वहां न दया है, न दान और न परोपकार । आचार्य भिक्षु ने कहा-यह लोकोत्तर भाषा है। लौकिक भाषा इससे भिन्न है और बहुत भिन्न है। उसके पास मानदण्ड है, भावों का आवेग या मानसिक कम्पन और लोकोत्तर भाषा संयम के मानदण्ड से माप कर बोलती है। ___ आचार्य भिक्षु के इस अभिमत के स्पष्टीकरण के बाद जो प्रश्न उपस्थित हुए, उनमें सर्वाधिक प्रभावशाली प्रश्न सेवा का है। निःस्वार्थ भाव से सेवा करना क्या धर्म नहीं है? क्या हृदय की सहज स्फूर्त करुणा धर्म नहीं है? इसे अधर्म कहना भी तो बहुत बड़े साहस की बात है। जिस समाज में रहना और उसी की सेवा को धर्म न मानना बहुत ही विचित्र बात है। आपने समाचार-पत्रों में बहुत बार यह शीर्षक पढ़ा होगा-“यह सच है, आप माने या न माने।" बहुत सारी बातें ऐसी होती हैं, जिन पर सहसा विश्वास नहीं होता, पर वास्तव में वे सच होती हैं और कुछ बातें ऐसी होती है जो वस्तुतः सच नहीं होतीं, परन्तु उन पर सहसा विश्वास हो जाता है। समाज सेवा में धर्म नहीं, यह सुनते ही आदमी चौंक उठता है। किसी भी वस्तु के स्थूल दर्शन के साथ सचाई का लगाव इतना नहीं होता, जितना कि संस्कारों का होता है।
जो लोग सेवा मात्र को धर्म मानते थे, उनको लक्षित कर महात्मा गांधी ने कहा-"जो मनुष्य बन्दूक धारण करता है और जो उसकी सहायता करता है, दोनों में अहिंसा की दृष्टि से कोई भेद दिखाई नहीं पड़ता। जो आदमी डाकुओं की टोली में उसकी आवश्यक सेवा करने, उसका भार उठाने, जब वह डाका डालता हो तब उसकी चौकीदारी करने, जब वह घायल हो तो उसकी सेवा करने का काम करता है, वह उस डकैती के लिए उतना ही जिम्मेदार है, जितना कि वह खुद डाकू। इस दृष्टि से जो मनुष्य युद्ध में घायलों की सेवा करता है, वह युद्ध के दोषों से मुक्त नहीं रह सकता।"
१. आत्मकथा, भाग ४
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