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१६४ : भिक्षु विचार दर्शन ___“एक साधु विनीत है और दूसरा अविनीत । विनीत अच्छा गाता है और जो अविनीत है वह गाना नहीं जानता। गाने वाले की लोग सराहना करते हैं तब वह मन में जलता है और लोगों को कहता है :____वह गा-गाकर जनता को प्रसन्न करता है और मैं तत्त्व सिखाता हूं।
वह गुरु का गुणानुवाद सुनकर भी प्रसन्न नहीं होता। गुरु का अवगुण सुनता है तो वह खिल उठता है। .
वह गुरु की बराबरी करता है। सड़ा हुआ पान जैसे दूसरे पानों को बिगाड़ देता है, वैसे ही अविनीत व्यक्ति दूसरों में सड़ान पैदा कर देता है।
अविनीत को जब गण में रहने की आशा नहीं होती, तब वह डकौत की भांति बोलता है। डकौत जैसे गर्भवती स्त्री को कहता है-तुम्हारे सुन्दर बेटा होगा और पड़ौसिन को कह जाता है-इसके बेटी होगी और वह भी अत्यन्त कुरूप। इसी प्रकार गुरु के भक्त-शिष्यों के सामने वह गुरु की प्रशंसा करता है और जिसे अपने अधीन हुआ जानता है उसके सामने गुरु की निन्दा करता है।
जो दूसरे की विशेषता को अपनी विशेषता की ओट में छिपाने का प्रयत्न करता है और जो गुण सुनकर अप्रसन्न और निंदा सुनकर प्रसन्न होता है, वह व्यक्ति-विशेष को महत्त्व देता है, गुण को नहीं। जो गुण की
१. विनीत-अविनीत, १.२२-२३ :
कोइ उपगारी कंठ कला धर साधु री रे, प्रशंशा जश कीरति बोले लोग रे। अविनीत अभिमानी सुण सुण परजले, अणरे हरष घटे ने वधे सोग रे॥ जो कंठ कला न हुवे न अविनीत री रे, तो लोकां आगे बोले विपरीत रे।
यां गाय-गाय रीझाया लोक ने रे, कहे हुं तत्त्व ओलखाउं रूडी रीत रे॥ २. वही, १.२५
ओ गुर रा पिण गुण सुण ने विलसो हुवे रे, ओगुण सुणे तो हरसत थाय रे ।
एहवा अभिमानी अविनीत तेहने रे, ओलखाउं भव जीवां ने इण न्याय रे॥ ३. वही, १.२८
वले करे अभिमानी गुर सूं बरोबरी रे, तिणरे प्रबल अविनो ने अभिमान रे।
ओ जद तद टोला में आछो नहीं रे, ज्यूं विगड्यो विगाडे सडियो पान रे॥ ४. वही, २, दू. ३
गुर भगता श्रावक श्रावका कने, गुर रा गुण बोले ताभ। आप रे वश हुओ जाणे तिण कने, ओगुण बोले तिण ठाम।।
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