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अनुभूतियों के महान् स्रोत : १६३ मैं प्रभो! तुम्हारा शरणार्थी हूं, मैं मानता हूं प्रमाण तुम्हारी आज्ञा को। तुम्हीं हो आधार मेरे तो,
तुम्हारी आज्ञा में मुझे परम आनन्द मिलता है। ७. आकाश कैसे सधे? वे पवित्रता के अनन्य भक्त थे। उनका अभिमत था कि सब पवित्र हों। जहां मुखिया अपवित्र हो जाता है, वहां बड़ी कठिनाई होती है
आकाश फट जाए, उसे कौन सांधे? गुरु सहित गण बिगड़ जाए।
उस संघ के छेदों को कौन रोके? ८. क्रोध का आवेग क्रोध के आवेश से परिपूर्ण मनोदशा में एक विचित्र प्रकार की उछल-कूद होती है। उसका वर्णन इन शब्दों में है- क्रोध कर वे लड़ने लग जाते हैं,
इस प्रकार उछलते हैं
जैसे भाड़ में से चने उछलते हों। ६. विनीत-अविनीत विनीत और अविनीत की अनेक परिभाषाएं हैं। आचार्य भिक्षु ने परिभाषाओं के अतिरिक्त उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण भी किया है। उसके कुछेक तथ्य ये हैं
१. वीर सुणो मोरी वीनती री ढाल २. आचार री चौपई, अ६, दू. ४ :
आभे फाटे थीगरी, कुण छ देवणहार।
ज्यूं गुर विगडीयो, त्यारे चिहुं दिस परिया बघार॥ ३. वही, २१-३०.
जो वरतां री चरचा करे त्यां आगे, तो क्रोध करे लडवा लागे। जाणे भाड मा सूं चिणा उछलीया, कर्म जोगे गर माठा मिलिया।
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