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मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १११ जहां अशुभ की निवृत्ति और शुभ की प्रवृत्ति हो उसे धार्मिक प्रवृत्ति कहा जाता है। मोक्ष का अर्थ है-दुःख की निवृत्ति। किन्तु दुःख की निवृत्ति ही मोक्ष नहीं है। कोरा अभाव, शून्य या तुच्छ होता है। दुःख की निवृत्ति का अर्थ है-अनन्त सुख की प्राप्ति। मोक्ष में पौद्गलिक सुख दुःख का निवर्तन होता है, इसलिए कहा जाता है-मोक्ष का अर्थ है दुःख की निवृत्ति। मोक्ष में आत्मिक सुख का सतत उदय रहता है। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि मोक्ष का अर्थ है-सुख की प्रवृत्ति। प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों सापेक्ष हैं। जिस पुरुषार्थ का प्रेरक सांसारिक उत्साह होता है और जहां संयम की निवृत्ति होती है, उसे हम प्रवृत्ति कहते हैं और जिस पुरुषार्थ का प्रेरक धार्मिक उत्साह होता है और जहां असंयम की प्रवृत्ति नहीं होती, उसे 'हम निवृत्ति कहते हैं इस प्रकार प्रवृत्ति और निवृत्ति का प्रयोग सापेक्ष दृष्टि से किया जाता है। ____ कहा जाता है कि जीवन का लक्ष्य भावात्मक होना चाहिए, निषेधात्मक नहीं। इसमें जैन-दर्शन की असहमति नहीं है। भोगवादी जैसे जीवन का अन्तिम उद्देश्य भोगात्मक सुखानुभूति मानते हैं वैसा भावात्मक लक्ष्य नहीं होना चाहिए और आत्मवादी जैसे जीवन का अन्तिम उद्देश्य अनन्त सुख की प्राप्ति मानते हैं वैसा भावात्मक लक्ष्य होना चाहिए।
आचार्य भिक्षु जैन-दर्शन के भावात्मक लक्ष्य को आधार मानकर चले। इसलिए उन्होंने असंयम की निवृत्ति और संयम की प्रवृत्ति पर अधिक बल दिया। इसीलिए कुछ लोग कहते हैं कि उनका दृष्टिकोण निषेधात्मक है। उन्होंने 'मत करो' की भाषा में ही तत्त्व का प्रतिपादन किया है।
इस उक्ति में सचाई है भी और नहीं भी है। किसी एक का निषेध है, इसका अर्थ किसी एक का विधान भी है। एक धार्मिक व्यक्ति असंयम की प्रवृत्ति को अस्वीकार करता है, इसका अर्थ निषेध ही नहीं है, संयम की प्रवृत्ति का स्वीकार भी है। असंयम की भूमिका से देखा जाये तो वह निषेध है और संयम की भूमिका से देखने पर वह विधान है। ___ “ आचार्य विनोबा भावे ने निवृत्ति-धर्म पर एक टिप्पणी की है। एक भेंट का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है : ____ “हमें कुछ ऐसे जैन भाई मिले, जो कहते हैं कि दया करना निवृत्तिधर्म के खिलाफ है; आध्यात्मिकता के खिलाफ है। निवृत्ति-धर्म कहता है कि हर
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