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११० : भिक्षु विचार दर्शन ६. प्रवृत्ति और निवृत्ति जो रात को भटक जाए उसे आशा होती है कि दिन में मार्ग मिल जाएगा। पर जो दुपहरी ही में भटक जाए, वह मार्ग मिलने की आशा कैसे रखे?
प्रवृत्ति और निवृत्ति की चर्चा उतनी ही पुरानी है, जितना पुराना धर्म का उपदेश है। यथार्थवादी युग में प्रवृत्ति का पलड़ा भारी होता है और आत्मवादी युग में निवृत्ति का। प्रवृत्ति का अर्थ है चंचलता और निवृत्ति का अर्थ है स्थिरता, चंचलता का अभाव। मनुष्य का सारा प्रयत्न योग और वियोग के अन्तराल में चलता है। वह प्रिय का योग चाहता है. और अप्रिय का वियोग। चाह मन में उत्पन्न होती है। मन को इन्द्रियां प्रेरित करती हैं। वे पांच हैं-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत। स्पर्श, रस, गन्ध, रूप
और शब्द इनके विषय हैं। हमारा ग्राह्य-जगत् इतना ही है। इन्द्रियां अपने-अपने विषय को जानती हैं और अपनी जानकारी मन तक पहुंचा देती हैं। मन के पास कल्पना-शक्ति है। वह इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार ज्ञात पदार्थों में प्रियता और अप्रियता की कल्पना करता है। फिर वह इन्द्रियों को अपने प्रिय विषय की ओर प्रेरित करता है-रत करता है, अप्रिय विषय से विरत करता है-द्विष्ट करता है। यह है इन्द्रिय और मन के विनियम का क्रम। आध्यात्मिक जगत् में इसी को प्रवृत्ति कहा जाता है। निवृत्ति का अर्थ है-इन्द्रिय और मन का संयम; राग द्वेष का नियन्त्रण। निवृत्ति का अर्थ नहीं करना ही नहीं है। इन्द्रिय और मन पर नियन्त्रण करने में भी उतना ही पुरुषार्थ आवश्यक होता है, जितना किसी दूसरी प्रवृत्ति करने में चाहिए। बल्कि कहना यह चाहिए कि निवृत्ति में प्रवृत्ति की अपेक्षा कहीं अधिक उत्साह और पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। निवृत्ति का अर्थ केवल निषेध या निठल्लापन नहीं है। कोरा निषेध हो ही नहीं सकता। आत्मा में प्रवृत्ति होती है, उसका अर्थ है सांसारिक निवृत्ति। आत्मा में निवृत्ति होती है, उसका अर्थ है सांसारिक प्रवृत्ति। प्रवृत्ति धार्मिक भी होती है पर वह न कोरी प्रवृत्ति होती है और न कोरी निवृत्ति।
१. व्रताव्रत, १.६२ :
राते भूला तो आसा राखे, दीयां सूझसी सूला रे। कहो ने आसा राखे किण विध, दीयां दोपारां रा भूला रे॥
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