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६० : भिक्षु विचार दर्शन का साधन है हृदय-परिवर्तन। आत्मवादी का साध्य है मोक्ष-आत्मा का पूर्ण विकास। उसके साधन हैं सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र।' अज्ञानी को ज्ञानी मिथ्यादृष्टि को सम्यक्दृष्टि और असंयमी को संयमी बनाना साध्य के अनुकूल है।
यह साध्य और साधन की संगति है। इनकी विसंगती तब होती है जब या तो साध्य अनात्मिक होता है या साधन। यदि कोई व्यक्ति जीवों को मारकर, झूठ बोलकर, चोरी कर, मैथुन सेवन कर और धन देकर-इसी प्रकार अठारह पापों का सेवन कर जीवों की रक्षा करता है, तो यह जीव-रक्षा का सही तरीका नहीं है। यदि हिंसा के द्वारा जीव-रक्षा करने में थोड़ा पाप और बहुत धर्म हो, थोड़े या छोटे जीव मारे जाएं वह थोड़ा पाप और बहुत या बड़े जीवों की रक्षा हुई वह बहुत धर्म हो तो फिर असत्य आदि सभी अकृत कार्यों के द्वारा ऐसा होगा। हिंसा के द्वारा जीव-रक्षा करने में पाप
और धर्म दोनों माने जाएं तथा शेष अकृत्य कार्यों द्वारा जीव-रक्षा करने में कोरा पाप माना जाए, यह न्याय नहीं है।' १. (क) तत्त्वार्थ : १/१ सूत्र
सम्यन्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : (ख) अणुकम्पा, ४.१७ : ग्यान दरसण चारित तप बिना, और मुगति रो नहीं उपाय हो।
छोडा मेला उपगार संसार नां, तिण थी सदगति किण विध जाय हो। २. अणुकम्पा : ४.१६.२० :
अग्यानी रो ग्यानी कीयां थकां, हुवो निश्चे पेला रो उधार हो। कीयो मिथ्याती रो समकती, तिण उतरीयो भव पार हो। अस्जती में कीयो संजती, ते तो मोष तणां दलाल हो। तपसी कर पार पोहचावीयो, तिण मेट्या सर्व हवाल हो। ३. वही : ७.२१-२४ :
जीव मारे झूठ बोलने, चोरी करने हो पर जीव बचाय। वले करे अकार्य एहवा, मरता राख्या हो मइथुन सेवाय॥ धन दे राखे पर प्राण ने, क्रोधादिक हो अठारे सेव सेवाय। ए सावध काम पोते करी, पर जीवा ने हो मरता राखे ताय॥ जो हिंसा करे जीव राखीयां, तिण में होसी हो धर्म ने पाप दोय। तो इम अठारेइ जाणजो, ए चरचा ने हो विरलो समझे कोय॥ जो एकण में मिश्र कहे, सतरां में हो भाषा बोले ओर।
उंधी सरधा रो न्याय मिले नहीं, जब उलटी होकर उठे झोड॥ Jain Education International
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