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साध्य-साधना के विविध पहलू : ८६
है, किन्तु आगे उससे बहुत धर्म होता है।' - आचार्य भिक्षु ने इसे मान्यता नहीं दी। उन्होंने कहा-बाद में धर्म या पाप होगा, इससे वर्तमान अच्छा या बुरा नहीं बनता। कार्य की कसौटी वर्तमान ही है। कुछ जैन लोग दूसरों को लड्डू खिलाकर उनसे तपस्या कराते थे। उनका विश्वास था कि वे उपवास करेंगे, उसमें हमें धर्म होगा। आचार्य भिक्षु इस अभिमत के आलोचक थे। उनका सिद्धान्त था कि पीछे जो करेगा, उसका फल उसे होगा, किन्तु लड्डू खिलाने में धर्म नहीं है।
आगे धर्म करेगा इसलिए वर्तमान में उसके लिए साध्य के प्रतिकूल साधन का प्रयोग किया जाये, यह युक्तिसंगत नहीं। दया उपादेय तत्त्व है। अहिंसा का पालन वही कर सकता हैं, जिसका मन दया से भीगा हुआ हो। पर साधन की विकृति से दया भी विकृत बन जाती है। एक आदमी मूली खा रहा है। दूसरे के मन में मूली के जीवों के प्रति दया उत्पन्न हुई। उसने बल प्रयोग किया और जो मूली खा रहा था उसके हाथ से वह छीन ली। दया का यह साधन शुद्ध नहीं है। हिंसक वही होता है जो हिंसा करे, जिसके मन में हिंसा का भाव हो; और अहिंसक भी वही होता है जो अहिंसा का पालन करे, जिसके मन में अहिंसा का भाव हो। बलात् किसी को हिंसक या अहिंसक नहीं बनाया जा सकता। भोग धर्म नहीं है, यह जानकर यदि कोई बलात् किसी के भोगों का विच्छेद करता है, तो वह अधर्म करता है।
जिनके मन में दया का भाव उठा, उसके लिए दया का साधन है उपदेश और जिसके मन में दया का भाव उत्पन्न करना है उसके लिए दया
१. बारह व्रतः ७.२६३० :
कोइ कहे लाडू खवायां धर्म, ओ तप कर म्हारा काटसी कर्म। तिणसू म्हें ओरां ने लाडूड़ा खवावां, पछे लाडूआं साटे म्हें उवास करावां। पछै तो उ करसी ते उणने होय, पिण लाडू खवायां धर्म न जाणो कोय ।
लाडू खाधां खवायां तो एकन्त पाप, ते श्री जिण मुख सूं भाख्यो छै आए २. व्रताव्रत : १.३३, ३४ :
मूली गाजर ने काचो पाणी, कोइ जोरी दावे ले खोसी रे। जे कोइ वस्त छोड़ावे बिना मन, इण विध धर्म न होसी रे॥ भोगी नां कोई भोगज रूंधे, वले पाडे अन्तरायो रे। महामोहणी कर्मज बान्धे, दसाश्रुतखंध मांहि बतायो रे॥
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