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४६ : भिक्षु विचार दर्शन
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भैरव आदि कुपित होकर करेंगे भी क्या ? "
दूसरों पर अधिक भरोसा वही करता है जिसे अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं है। मनुष्य जागकर भी सोता है, इसका मतलब है कि उसे अपनी शक्ति पर भरोसा नहीं है । मनुष्य सोकर भी जागता है, इसका मतलब है कि उसे अपने-आप पर भरोसा है। जिसे अपने पर भरोसा है, वह सब कुछ है ।
२३. पुरुषार्थ की गाथा
कहा जाता है - महापुरुषों की कार्य-सिद्धि उनके सत्त्व में होती है, उपकरणों में नहीं होती। प्राचीन खगोलशास्त्री कहते हैं- सूर्य का सारथी लंगड़ा है । फिर भी वह असीम आकाश की परिक्रमा करता है। पौराणिक कहते हैं- 'राम ने रावण को जीता और उनकी सहायता कर रही थी बन्दर - सेना ।'
आचार्य भिक्षु की साधन सामग्री स्वल्पतम थी। एक बार उनके सहयोगी साधु छह ही रह गये । साध्वियां नहीं थीं । जैन - परम्परा में साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका - ये चार तीर्थ कहलाते हैं ।
।
एक व्यक्ति ने कहा- 'भीखणजी का लड्डू खण्डित है - पूरा नहीं है ।' आपने कहा - 'पूरा भले मत हो, पर है असली 'चौगुणी' चीनी का ।' कुछ वर्षों के पश्चात् साध्वियां बनीं।
एक बार तेरह साधु थे । इसे लक्षित कर एक व्यक्ति ने आचार्य भिक्षु के संघ का नाम 'तेरापंथी' रख दिया। अपने विचारों का अनुगामी समाज होने की परिकल्पना उन्हें नहीं थी । एक सम्प्रदाय खड़ा करना उनका उद्देश्य भी नहीं था । वे आत्मशोधन के लिए चले थे। उनके साथ एक छोटी-सी मंडली थी । आचार्य भिक्षु संख्या नहीं मानते थे । उनका विश्वास गुण में था। उनके अनन्य सहयोगी और अनन्य विश्वासपात्र थे भारीमालजी ।
' भारीमाल ! हम आचार्य रुघनाथजी को छोड़ आए हैं। हमें नये सिरे से दीक्षा लेनी है । तुम्हारे पिता की प्रकृति बहुत उग्र है । हमें कठिनाइयों का सामना करना होगा। तुम्हारे पिता में उन्हें झेलने का सामर्थ्य नहीं है ।
१. भिक्खु दृष्टान्त, २७६, पृ. ११०
२. वही, २२, पृ. ११
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