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व्यक्तित्व की झांकी : ४५ आखिर आपने कहा-'तुम दोनों मुझसे स्वीकृति लिये बिना विगय खाने का त्याग करो। जो विगय खाने की स्वीकृति पहले लेगा, वह कच्चा है और दूसरा पक्का। दोनों ने आचार्य की आज्ञा को शिरोधार्य किया। चार मास तक उन्होंने दूध दही, घी, मिठाई आदि कुछ नहीं खाये। पूरा चातुर्मास बीतने पर एक ने विगय खाने की स्वीकृति ली। विवाद की आंच मंद हो चुकी थी।
है' और 'नहीं' की चर्चा एक खतरनाक रस्सी है। इसमें हर आदमी के पैर उलझ जाते हैं। एक कहता है कि इसकी लम्बाई-चौड़ाई इतनी है, दूसरा कहता है-'नहीं, इतनी नहीं है।' एक कहता है-'हम आज नौ बजे सोये; दूसरा कहता है-'नहीं, हम सवा नौ बजे सोये।' ऐसे विवादों का कोई अर्थ भी नहीं है तो कोई अन्त भी नहीं है। इसका अन्त वही ला. सकता है, जिसे अन्तर की अनुभूति में स्वाद आ जाए। २२. जिसे अपने पर भरोसा है वहां सारी भाषाएं मूक बन जाती हैं, जहां हृदय का विश्वास बोलता है। जहां हृदय मूक होता है, वहां भाषा मनुष्य का साथ नहीं देती। जहां भाषा हृदय को ठगने का यत्न करती है, वहां व्यक्ति विभक्त हो जाता है। अखंड व्यक्तित्व वहां होता है, जहां भाषा और हृदय में द्वैध नहीं होता। आचार्य भिक्षु की आस्था बोलती थी। उनकी भावना एक ही देव की उपासना में सिमटी हुई थी। एक देव-कोई एक व्यक्ति नहीं, किन्तु वे सब व्यक्ति जो वीतरागमय हों, जिनके चारित्र में राग-द्वेष के धब्बे न हों। लोगों में स्वार्थ होता है। वे उसकी पूर्ति के लिए अनेक देवों की पूजा करते हैं। जिन्हें अपने ऊपर भरोसा नहीं होता, वे पग-पग पर देवों की पूजा करते हैं। उस समय के लोग भी भैरव, शीतला आदि अनेक देवों की मनौती करते थे। आचार्य भिक्षु इसे मानसिक दुर्बलता बताते। प्रवचन-प्रवचन में इसका खंडन करते। ____ एक दिन हेमराजजी स्वामी ने कहा-'गुरुदेव! आप इन लौकिक देवताओं की पूजा का खंडन करते हैं, पर कहीं वे कुपित हो गए तो? आपने व्यंग्य की भाषा में कहा-'यह युग सम्यग्दृष्टि देवताओं का है। ये १. भिक्खु दृष्टान्त, १६८, पृ. ६७, ६८
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