________________
भूमिका : १६ मन के परिणाम अच्छे हों तो जीवों को मारने का पाप नहीं लगता । पर जान-बूझकर जीवों को मारने वाले के मन का परिणाम अच्छा कैसे हो सकता है?" "
२. जहां दया है वहां 'जीव-वध किए बिना धर्म नहीं होता' यह सिद्धान्त मान्य नहीं हो सकता ।
३. जीव - वध होता है वह जीव की दुर्बलता है, किन्तु उसे धर्म का रूप देना कि 'हिंसा किए बिना धर्म नहीं होता' नितान्त दोष पूर्ण है ।
४. एक जीव को मारकर दूसरे जीव की रक्षा करना धर्म नहीं है । धर्म यह हैं कि अधर्मी को समझा-बुझाकर धर्मी बनाया जाए ।'
५. जीवों को मारकर जीवों का पोषण करना लौकिक मार्ग है । उसमें जो धर्म बतातें हैं, वे पूरे मूढ़ और अज्ञानी हैं।
६. कई लोग कहते हैं- 'दया लाकर जीवों को मारने में धर्म और पीप दोनों होते हैं।" किन्तु पाप करने से धर्म नहीं होता और धर्म करने से पाप
१.
व्रताव्रत : १२, ३४-३८
केई कहे जीवां नें माऱ्यां बिनां धर्म न हुवें ताम हो । जीव माऱ्यां रो पाप लागे नहीं, चोखा चाहीजें निज परिणाम हो । केई कहें जीव माय बिनां, मिश्र न हुवै छे ताम हो । पिण जीव, मारण री सानी करे, ले ले परिणामा रो नाम हो || केई धर्म ने मिश्र करवा भणी, छ काय रो करै घमसाण हो । तिणरा चोखा परिणाम किंहा थकी, पर जीवां रा लूटें छे प्राण हो । कोई जीव खववें छे तेहनां, चोखा कहें छे परिणाम हो । कहे धर्म नें मिश्र हुवें नहीं, जीव खवायां विण ताम हो । जीव खांण रा परिणाम छें अति बुरा, खवावण रा पिण खोटा परिणाम हो । यूं ही भोला नें हांखें भरम में, ले ले परिणामां से नाम हो ॥ २. अणुकम्पा : ५.५ : ३. वही ६.२५ :
जीवां नें मारे जीवां ने पोषें, ते तो मारग संसार नों जाणो जी । तिण मांहें साध धर्म बतावै, ते पूरा छे मूढ़ अयाणो जी ॥ ४. निह्नव चौपाई ३, दुहा २ :
-
कहे दा आण नें जीव मारीयां, हुवे छे धर्म में पाप । ए करम उदे पंथ काढीयो, भगवत वचन
उथाप ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org