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प्रतिध्वनि : ७१ है। कुछ प्रयत्न मैं करता हूं और कुछ वे कर रहे हैं। वे मेरा सहयोग ही तो कर रहे हैं। इसमें उनकी दुर्बलताओं पर विजय पाने की सतत साधना बोल रही है।
आचार्य भिक्षु असंयम और संयम में भेद रेखा खींचते समय कभी-कभी ऐसा प्रतीत होते हैं, मानो उनका दिल दया से द्रवित न हो। बहुधा प्रश्न ऐसा होता है कि इस विचारधारा का सामाजिक जीवन पर क्या असर होगा? प्रश्न अहेतुक भी नहीं है। संसार के प्रति उदासीनता जाने वाला विचार सामाजिक व्यवस्था ने कहीं बाधा भी डाल सकता है। पर इन सबके उपरान्त हमें यह भी तो समझना होगा जो आचार्य भिक्षु हमें समझाना चाहते थे। संयम और असयंम के बीच भेद-रेखा खींच रहे थे। उस समय जो विचार उन्होंने दिये, उनका उद्देश्य सामाजिक सहयोग का विघटन नहीं, किन्तु संयम और असंयम का पृथक्करण या बन्धन और मुक्ति का विश्लेषण है।
उनके दयार्द्र मानस का परिचय हमें तब मिलता है, जब हम उनके सेवा-भाव की ओर दृष्टि डालते हैं। उन्होंने कहा- “जो साधु रोगी, वृद्ध और ग्लान साधुओं की सेवा-शुश्रूषा नहीं करता, वह भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन करता है। उसके महामोहनीय कर्म का बन्ध होता है। उसके इहलोक और परलोक-दानों बिगड़ जाते हैं।"
एक साधु आहार-पानी की भिक्षा लाए, उसका कर्तव्य है कि वह दूसरे साधुओं को संविभाग दे। किन्तु यह मैं लाया हूं, ऐसा सोच जो अधिक लेता है, उसे चोरी का दोष लगता है और उसका विश्वास उठ जाता है।
१. भिक्खु दृष्टान्त, १३, पृ. ६ २. अणुकम्पा : ४.२१-२२
ग्यांन दरसण चारित्त ने तप, यारों करे कोई उपगार हो। ____ आप तिरे पेलो उबरे, दोयां रो खेवो पार हो। - ए च्यार उपगार छे मोटका, तिणमें निश्चेई जाणो धर्म हो। - शेष रह्या कार्य संसार नां, तिण कीधां बधसी कर्म हो। ३. वही, ६.७१-७४ ४. वही, ८.४५
रोगी गरढा गिलाण साध री वीयावच, साध न करे तो श्री जिण आगना बारे। महा मोहणी कर्म तणों बंध पाडें, इह लोक ने परलोक दोनं बिगाडे॥
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