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७० : भिक्षु विचार दर्शन
एक चारण को लोगों ने उभारा कि तू भक्तों को लपसी खिलाता है, उसमें भीखणजी पाप मानते हैं। वह स्वामीजी के पास आया और बोला-भीखणजी! मैं भक्तों को लपसी खिलाता हूं उसमें क्या होता है? स्वामी जी ने कहा-जितना गुड़ डाला जाता है, उतनी ही मिठास होती है।' वह इस तत्त्व को ही पचा सकता था। ____ एक व्यक्ति ने ब्राह्मणों से कहा-भीखणजी दान देने का निषेध करते हैं इसलिए हम तुम्हें दान नहीं देंगे। वे स्वामीजी के पास आये और अपना रोष प्रकट किया। स्वामीजी ने कहा-जिन लोगों ने ऐसा कहा है वे अगर पांच रुपये दें तो भी मेरी मनाही नहीं है। मुझे मनाही करने का त्याग है।
उनका रोष खुशी में परिणत हो गया। तत्त्व का रहस्य उतना ही खोलना चाहिए जितना सामने वाले को दीख सके।
धर्म को उन्होंने सबके लिए समान माना। धर्म करने का सबको समान अधिकार है, इसका समर्थन किया। फिर भी कहीं-कहीं उनके विचारों में जो जातिवाद के समर्थन की छाया दीख पड़ती है, वह व्यावहारिकता से संघर्ष मोल न लेने की वृत्ति है। उन्होंने सामाजिक व्यवहार को तोड़ने का यत्न नहीं किया। घृणित मानी जाने वाली जातियों के घरों से भिक्षा लेने को अनुचित बतलाया। वे परमार्थ और व्यवहार की सीमा को धूप और छांह की भांति मानते थे, जो साथ रहते हुए भी कभी नहीं मिलते। १०. क्रांत वाणी
आचार्य भिक्षु मानव थे। वे मानवीय दुर्बलताओं से सर्वथा मुक्त नहीं थे। उनकी विशेषता इसी में है कि वे उनसे मुक्त होना चाहते थे उनकी वाणी में कटुता है, प्रहार है और बाणों की वर्षा है। वे व्यक्तिगत आक्षेपों से बहुत बचे हैं, पर अवगुण की धज्जियां उड़ाते समय वे बहुत ही उग्र बन जाते हैं। एक व्यक्ति ने कहा-भीखणजी! कुछ लोग आप में बहुत दोष निकालते हैं। आपने कहा-दोषों को रखना नहीं है। उनको निकाल फेंकना
१. भिक्खु दृष्टान्त, २० पृ. ११ २. वही : ६५, पृ. ६४, ६५ ३. साधु-आचार की चौपाई ४. अणुकम्पा, ६.७०
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