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प्रतिध्वनि : ६६ कोरे शब्दों को पकड़ने वालों की स्थिति का चित्रण उनकी कृतियों में अनेक स्थलों पर मिलता है। ___ एक सास ने बहू से कहा-जाओ, पीपल ले आओ। बहू गई और मोटी रस्सी से पीपल के तने को बांध उसे खींचने लगी, पर वह एक इंच भी नहीं सरका। उसे खींचते-खींचते उसके हाथ छिल गये। वह साथ-साथ गाती गई कि 'पीपल चलो, मेरी सास तुझे बुला रही है।' गाते-गाते वह रोने लगी। एक समझदार आदमी आया और उसने उससे पूछा-बहन! रोती क्यों हो? उसने सारा हाल कह सुनाया। उसने उसे सास का आशय समझाया और कहा-बहन! पीपल नहीं चलेगा। इसकी एक डाली तोड़ ले जाओ, तुम्हारा काम बन जायेगा।' __ शब्दों की पकड़ न हो, यह अनाग्रह का एक पक्ष है। इसका दूसरा पक्ष है आवेशपूर्ण तत्त्व-चर्चा से बचाव करना। स्वामीजी के पास कुछ लोग आये। उनमें आपस में चर्चा चली कि पर्याप्ति और प्राण जीव हैं या अजीव ? किसी ने कहा-जीव हैं और किसी ने कहा-अजीव । इस प्रकार आपस में खींचातानी होने लगी। उन्होंने अन्त में स्वामीजी से पूछा-गुरुदेव! पर्याप्ति
और प्राण जीव हैं या अजीव? स्वामीजी ने उनमें चल रही खींचातानी को देखकर कहा-जिस चर्चा में आग्रह हो, उसे छोड़ देना चाहिए। और चर्चाएं क्या कम हैं?
आग्रह से मुक्ति मिल गई। ६. कुशल पारखी
आचार्य भिक्षु वैयक्तिक जीवन में जितने आध्यात्मिक थे, उतने ही सामुदायिक जीवन में व्यावहारिक थे। उनके जीवन में विनोद हिलोरें मारता था। वे कभी-कभी तत्त्व की गहराई को विनोद के तत्त्वों से भर देते थे।
भोलेई मत भूलजो, अणुकंपा रे नाम।
कीजो अंतर पारखा, ज्यूं सीझे आतम काम। १. अणुकम्पा : ८.३२ किण हीक होडें जीव बतावें, किण हीक होड संका मन आंणे।
समझ पड्यां विण सरधा परूपे, पीपल बान्धी मूर्ख जयूं तांणे॥ २. भिक्खु दृष्टान्त, २५६, पृ. १०२
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