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________________ ७२ : भिक्षु विचार दर्शन ___एक बार मुनि खेतसीजी को अतिसार हो गया। स्वामीजी ने स्वयं उन्हें सम्हाला और उनकी परिचर्या की। रोगी साधुओं के लिए दाल मंगवाते और उन्हें चखकर अलग-अलग रख देते। किसी में नमक अधिक होता, किसी में कम। रोगी को कौन-सी जंचे, कौन-सी नहीं, इसका पूरा ध्यान रखते। उनकी शासन-व्यवस्था यह है कि कोई साधु की परिचर्या करने में आना-कानी करे, वह संघ में रहकर भी संघ का नहीं है। उसे संघ से बहिष्कृत कर देना चाहिए। ___ 'जिन शासन में ग्लान की सेवा ही सार है और जो ग्लान की सेवा करता है, वह मुक्ति प्राप्त करता है। जैन परम्परा के इस आदर्श की उन्होंने कभी विस्मृति नहीं की। उनकी भूमिका साधु-जीवन की थी। उनका साध्य आत्ममुक्ति था। इसलिए उन्होंने जो कहा, वह साधु-जीवन को लक्ष्य कर कहा । यह वाणी किसी समाज-नेता की होती तो वह समाज को लक्ष्य कर कहता। यह भूमिका-भेद है। समाज की भूमिका में करुणा प्रधान होती है और अहिंसा गौण। आत्म-मुक्ति की भूमिका में अहिंसा प्रधान होती है और करुणा गौण। सामाजिक प्राणी वहां अहिंसा की उपेक्षा भी कर देता है, जहां उसे करुणा की अपेक्षा होती है। आत्ममुक्ति की साधना करने वाला करुणा की अपेक्षा वहीं रखता है, जहां अहिंसा की उपेक्षा न हो। करुणा के भाव से भावित व्यक्तियों का प्रेरक वाक्य यह रहा-"मैं राज्य की कामना नहीं करता। मुझे स्वर्ग और मोक्ष की भी कामना नहीं है। दुःख से पीड़ित प्राणियों का दुःख दूर करूं, यही मेरी कामना है।" __ इसमें करुणा का अजस्र स्रोत है पर उद्देश्य का अनुगमन नहीं है। कोई भी मुमुक्ष अपवर्ग (मोक्ष) की इन शब्दों में उपेक्षा नहीं कर सकता। समाज की स्थापना का मूल परस्पर-सहयोग है। सहयोग की भित्ति को १. भिक्खु दृष्टान्त, २५३, पृ. १०१ २. वही, १७१, पृ. ६८-६६ ३. उत्तराध्ययन नेमिचन्द्रीय वृत्तिः पत्र १८ 'गिलाणवेयावच्चमेवेत्थ पवयणे सारं, जो गिलाणं जाणइ सो य दंसणेणं पडिवज्जई' ४. न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्ग नापुनर्भवम्। कामये दुःखतप्तानां, प्राणिनामर्त्तिनाशनम्।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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