________________
प्रतिध्वनि : ७३
अवस्थित करने के लिए ही यह श्लोक रचा गया है। अपने उद्देश्य की सीमा तक यह बहुत मूल्यवान् है पर मोक्ष के साधनों पर विचार किया जाये तब यह विषय बहुत चिन्तनीय हो जाता है। वस्तुतः दुःख क्या है ? किस प्रकार का दुःख दूर करना मोक्ष के अनुकूल है? दुःख को दूर कैसे किया जाए? किसलिए किया जाए? आदि-आदि। साधारण दृष्टि यह है कि प्रिय वस्तु का वियोग और अप्रिय का संयोग ही दुःख है। प्रतिकूल वेदना ही दुःख है। मोक्ष-दृष्टि यह है कि बन्धन दुःख है। सामान्यतः माना जाता है कि प्रिय वस्तु का संयोग और अप्रिय वस्तु का वियोग सुख है। अनुकूल वेदना सुख है। मुमुक्षु लोग मानते है कि बन्धन-मुक्ति सुख है।
मनुष्य का ध्येय मोक्ष होना चाहिए, इस विचार में सभी आत्मवादी एकमत हैं। मोक्ष में राग-द्वेष, स्नेह आदि के बन्धन नहीं हैं। इसमें भी दो मत नहीं हैं। साध्य के निकट पहुंच शरीर से भी मुक्ति पा लेना है, यह भी विवादास्पद नहीं। मतभेद है इस बात में कि मोक्ष का साधन क्या है ? साध्य समान होने पर भी साधन समान नहीं हैं। ___ जो आत्मवादी नहीं हैं, उनका साध्य कोरा सामाजिक अभ्युदय होता है। जिनका विश्वास आत्मवाद में है पर आचरणात्मक शक्ति का जिनमें पर्याप्त विकास नहीं हुआ है, उनका प्रधान साध्य मोक्ष या आत्मा का पूर्ण विकास होता है और गौण साध्य-सामाजिक अभ्युदय या आवश्यक भौतिक विकास। आत्मा में जिनका कोरा विश्वास ही नहीं होता, किन्तु जिनकी आचरणात्मक शक्ति पर्याप्त विकसित होती है, वे केवल आत्म-विकास को ही साध्य मानकर चलते हैं। ये जीवन की तीन कोटियां हैं। इनके विचारों को पृथक-पृथक दृष्टिकोणों से समझा जाये तो कोई उलझन नहीं आती। जीवन के इन तीन प्रकारों को जब एक ही तुला से तोलने का प्रयत्न होता है, तब विसंगति उत्पन्न हो जाती है। आत्म-विकास का साधन है ब्रह्मचर्य । सामाजिक प्राणी विवाह करता है। अब्रह्मचर्य मोक्ष का साधन नहीं है। जिस आत्मवादी का साध्य मोक्ष होता है और वह ब्रहाचारी रह नहीं सकता, इसलिए वह विवाह करता है। चिन्तन-काल में यह विसंगति प्रतीत होती है। आस्था और कर्म में विरोध की अनुभूति होती है। इस विसंगति का निवारण दो प्रकार से किया जाता है। एक विचार है कि समाज के आवश्यक कर्म यदि अनासक्त भाव से किये जाएं तो वे मोक्ष-राधना के प्रतिकूल
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org