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७४ : भिक्षु विचार दर्शन नहीं होते। दसरा विचार है कि आचरण का पक्ष प्रबल होने पर ही आस्था
और कर्म की विसंगति मिटती है। साधना के प्राथमिक चरण में उसका निवारण नहीं होता। जब आचरण का बल विकासशील होता है, तब आस्था और कर्म की दूरी मिट जाती है।
आचार्य भिक्षु इस दूसरी विचारधारा के समर्थक थे। उन्होंने आस्था और कर्म की विसंगति को मिटाने के लिए साधन के विचार को गौण नहीं किया। उन्हें यह ज्ञात था कि आस्था का परिपाक आचरण से पहले होता है। आचरण के साथ आस्था अवश्य होती है, पर आस्था के साथ आचरण नहीं भी होता। आचरण के अभाव में आस्था को विपरीत बताना उन्हें अभीष्ट नहीं था। आस्था और कर्म में संगति लाने के लिए वे मोक्ष के असाधन को साधन मानने के लिए प्रस्तुत नहीं हए। इसी भूमिका में उनके विचारों की कुछ महत्त्वपूर्ण रेखाएं निर्मित हुई, जिनकी प्रतिक्रिया प्राचीन भापा में यह है कि भीखणजी ने दया-दान को उठा दिया। ये मरते प्राणी को बचाने की मनाही करते हैं आदि-आदि। आज की भाषा में उनकी प्रतिक्रिया है कि उन्होंने सामाजिक जीवन को लौकिक और लोकोत्तर या आध्यात्मिक रूप में विभक्त कर दिया, आदि-आदि। इन प्रतिक्रियाओं का उत्तर हमें उनके साध्य-साधन की सैद्धान्तिक चर्चा से ही लेना है; इसलिए हमें उनके माध्य-साधनवाद के कुछ महत्त्वपूर्ण अंशों पर दृष्टिपात करना होगा।
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