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३. साध्य-साधन के विविध पहलू
जीवन और मृत्यु मनुष्य की पहली जिज्ञासा है जीवन और अन्तिम जिज्ञासा है मृत्यु। शेष जिज्ञासाएं इस द्वन्द्व के बीच में हैं।
जीवन क्या है? इसके पहले क्या था? मौत क्या है? इसके पश्चात् क्या होगा? सत्यान्वेषण की रेखा के ये प्रधान बिन्दु हैं। जीवन से पूर्व और मौत के पश्चात् क्या है और क्या होगा? इन प्रश्नों के समाधान में आचार्य भिक्षु की कोई नई देन है, यह मैं नहीं जानता। जीवन और मृत्यु हमारी दृष्टि के स्पष्ट कोण हैं। इनकी व्याख्या को उन्होंने अवश्य ही आगे बढ़ाया है। सामान्य धारणा के अनुसार जीवन काम्य है और मौत अकाम्य। प्राणियों में तीन एषणाएं हैं, उनमें पहली है 'प्राणैषणा' । वैदिक ऋषियों ने कहा है-"हम सौ वर्ष जिएं।" भगवान् महावीर ने कहा- “सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता।" यही विचार मनोवैज्ञानिक सुखवाद का आधार बन गया। साधना की दृष्टि से भगवान् महावीर ने कहा-“जीवन और मृत्यु की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए।" व्यास भी इसी भाषा में बोलते हैं-जीवन और मृत्यु का अभिनंदन करो।
१. यजुर्वेद, ३६/२४
पश्येम शरदः शतम्
अदीनाः स्याम शरदः शतम्। २. दशवैकालिक, ६/११
सब्वे जीवा वि इच्छति, जीविउं न मरिज्जिउं। ३. सूत्रकृतांग, १/१०/२४ । नो जीवियं नो मरणाभिकखी। ४. महाभारत शांतिपर्व, २४५/१५
नाभिनंदेत मरणं, नाभिनंदेत जीवितम् ।
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