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७६ : भिक्षु विचार दर्शन __आचार्य भिक्षु की चिन्तन-दिशा स्वतन्त्र नहीं थी। उनका चिन्तन
जैनागमों की परिक्रमा किए चला, पर परिक्रमा का मार्ग उन्होंने विस्तृत बना दिया। उन्होंने कहा-जीवन और मृत्यु अपने आप में न काम्य है और न अकाम्य। ये परिवर्तन के अवश्यम्भावी चरण हैं। पहले चरण में प्राणी नये जीवन के लिए आता है और दूसरे में नये जीवन के लिए चला जाता है। पुद्गल की भूमिका में जीवन काम्य है और मृत्यु अकाम्य । आत्मा की भूमिका में जीवन और मृत्यु न काम्य है और न अकाम्य । असंयममय जीवन
और मृत्यु अकाम्य है, संयममय जीवन और मृत्यु काम्य । निष्कर्ष की भाषा में असंयम अकाम्य है और संयम काम्य। काम्य और अकाम्य सापेक्ष हैं। इनका निर्णय साध्य के आधार पर ही किया जा सकता है।
- साध्य दो भागों में विभक्त है-जीवन या जीवन-मुक्ति। प्रवृत्ति का क्षेत्र है जीवन। उसका स्रोत है-रागात्मक या द्वेषात्मक भाव या असंयम। मृत्यु जीवन का अनिवार्य परिणाम है, इसलिए जो जीना चाहता है, वह मरना भी चाहता है। परिणाम की दृष्टि से यही संगत है। जीव जीना चाहता है, मरना नहीं चाहता, यह रुचि की दृष्टि से ही संगत हो सकता है। किन्तु रुचि की अपेक्षा आचरण में अधिक बल होता है। अधर्म करने वाला धर्म का फल चाहता है। आचरण अधर्म का और रुचि धर्म के फल की-यह संघर्ष है। इसमें विजयी आचरण होता है। वह रुचि को परास्त कर जीव को अपने पीछे ले चलता है।
सच तो यह है कि जो मरना नहीं चाहता, वह जीना भी नहीं चाहता। मृत्यु से मुक्ति वही पा सकता है, जो जीवन से मुक्ति पा सके। इस विवेक के बाद हम एक बार सिंहावलोकन करेंगे। रुचि की अपेक्षा सत्य यह है कि जीवन काम्य है, मृत्यु अकाम्य। आचरण की अपेक्षा सच यह है कि जिसे जीवन काम्य है. से मृत्यु भी काम्य है और जिसे मृत्यु अकाम्य है, उसे जीवन भी अकाम्य । आचार्य भिक्षु ने इस साध्य की कसौटी पर साधन को परखा। परख का परिणाम उन्होंने इन शब्दों में रखा- “अध्यात्म की भाषा में जीवन साध्य नहीं है। साध्य है जीवन की मुक्ति, उसका साधन है संयम। इसलिए संयम ही काम्य है। असंयम जीवन-मुक्ति का साधन नहीं है, इसलिए वह अकाम्य है। असंयत जीवन भी अकाम्य है और उसे चलाने के साधन भी अकाम्य हैं। संयत जीवन भी काम्य है और उसे चलाने
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