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१५८ : भिक्षु विचार दर्शन
अनुशासित करते हैं । इसलिए यह न कोरा एकतन्त्र है और न कोरा जनतन्त्र, किन्तु एकतन्त्र और जनतन्त्र का समन्वय है ।
आचार्य भिक्षु ने एक मर्यादा - पत्र में लिखा है - " मैंने जो मर्यादाएं कीं हैं, ये सब साधुओं के मनोभावों को देखकर, उन्हें राजी कर, उनसे कहलाकर कि 'ये होनी चाहिए' की हैं। जिसका आन्तरिक विचार स्वच्छ हो वह इस मर्यादा-पत्र पर हस्ताक्षर करे । इसमें शर्माशर्मी का कोई काम नहीं है। मुंह पर और तथा मन में और यह साधु के लिए उचित नहीं है ।" यह हृदय की स्वतंत्रता ही एकतन्त्र में जनतन्त्र को समन्वित करती है ।
आचार्य भिक्षु ने अनुशासन को जितना महत्त्व दिया है, उतना ही स्वतन्त्रता का सम्मान किया है। एक ओर कोई साधु मर्यादा को स्वीकार करे और दूसरी ओर उसकी आलोचना न करे यह स्वतन्त्रता नहीं किन्तु अनुशासन है | स्वतन्त्रता वह है कि जो न जंचे, उसे स्वीकार ही न करे । स्वीकार कर लेने पर उसकी टीका-टिप्पणी करता रहे, यह अपने मतदान के प्रति भी न्याय नहीं है । ?
एक साधु ने कहा- मुझे प्रायश्चित्त लेना है पर मैं आपके पास नहीं लूंगा। मुझे आपका विश्वास नहीं हैं 1
आपने कहा - 'आलोचना मेरे पास करो, दोष का निवेदन मुझे करो, फिर प्रायश्चित्त भले. उस तीसरे साधु से करो ।
प्रायश्चित्त कम बेशी नहीं देना चाहिए, यह अनुशासन का प्रश्न है । इसलिए आपने आलोचना किसी के पास करने की छूट नहीं दी । आलोचना आपके पास होती है तो प्रायश्चित्त देने वाला कम नहीं दे सकता ।
प्रायश्चित्त आचार्य के पास ही करना चाहिए, पर साधु ने दूसरे साधु के पास करना चाहा । यह उसकी मानसिक दुर्बलता है और आचार्यवर ने उसे यह छूट दी, वह उनकी मानसिक उच्चता है। यह ऊंचाई उन्हें स्वतन्त्रता का सम्मान करने के फलस्वरूप मिली थी ।
उन्होंने एक मर्यादा-पत्र लिखा - " जो साधु मुझसे प्रायश्चित्त ले वह मुझ में भरोसा रखे। मुझे जैसा दोष लगेगा वैसा प्रायश्चित्त मैं दूंगा । प्रायश्चित्त
१. लिखित, १८३२ २. वही, १८३२
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