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संघ-व्यवस्था : १५६
देने के पश्चात् इसे थोड़ा दिया, उसे अधिक दिया-यों कहना अनुचित है। जिसे मुझ में विश्वास हो वह यह मर्यादा स्वीकार करे। जिसे मुझ में विश्वास न हो, वह न करे । मैं अपनी बुद्धि से तोलकर प्रायश्चित्त देता हूं। राग-द्वेषवश कम-बेशी दूंगा तो उसका फल मुझे भुगतना होगा। इस पर भी किसी को मेरा विश्वास न हो तो वह किसी दूसरे साधु से प्रायश्चित्त ले ले। पर प्रायश्चित्त लेने के बाद किसी प्रकार का विग्रह खड़ा न करे।' ___एक साधु की भूल ने उनकी छिपी हुई महानता को प्रकाश में ला दिया। किसी भी साधु ने इस भूल को नहीं दुहराया।
। स्वतन्त्रता का सम्मान वही कर सकता है जो अनुभूति की गहराई में डुबकियां ले चुका हो। आचार्य भिक्षु ने बहुत देखा, बहुत सुना और बहुत
सहा।
आप एक बार वायु-रोग से पीड़ित हो गए थे, उन दिनों की बात है। हेमराज जी स्वामी ‘गोचरी' गए। भिक्षा की झोली आचार्यवर के सामने रखी। एक पात्र में दाल थी-चनों और मूंगों की मिली हुई।
आचार्यवर ने पूछा-यह चनों और मूंगों की दाल किसने मिलाई। हेमराजजी-मैंने।
आचार्यश्री-रोगी के लिए मूंग की दाल की खोज करना तो दूर रहा, किन्तु जो सहज प्राप्त हुआ उसे भी मिलाकर. लाया है?
हेमराजजी--ध्यान नहीं रहा, अनजाने ऐसा हो गया। आचार्यश्री-यह ऐसी क्या गहरी बात थी, जो ध्यान नहीं रहा?
हेमराजजी स्वामी को आचार्य भिक्षु की यह बात चुभी। वे उदास हो एकांत स्थान में जा लेट गए। आचार्य भिक्षु ने समय की सूई को कुछ और सरकने दिया। वे आहार कर आए और हेमराजजी स्वामी को सम्बोधित कर कहा-“अपना अवगुण देख रहा है या मेरा?'
हेमराजजी स्वामी ने कहा- “गुरुदेव! अपना ही देख रहा हूं।"
आचार्य भिक्षु बोले- 'मैंने जो कहा है वह चुभन उत्पन्न करने के लिए नहीं कहा है, किन्तु तेरी स्वतन्त्र बुद्धि का सम्मान बढ़े, इसलिए कहा है। ठीक-ठीक निर्णय करने में तू भूल न करे इसलिए कहा है।"
१. लिखित, १८४१ २. भिक्खु दृष्टान्त, १६६, पृ. ६८
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