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१६० : भिक्षु विचार दर्शन ११. संघ-व्यवस्था भगवान् महावीर के समय १४,000 साधु और ३६,००० साध्वियां थीं। ६गण और ११ गणधर थे। उनकी समाचारी एक थी। उनका विभाजन व्यवस्था की दृष्टि से था। प्राचीन समय मैं साधु-संघ में सात पद थे-(१) आचार्य, (२) उपाध्याय, (३) गणी, (४) गणवच्छेदक, (५) स्थविर, (६) प्रवर्तक और (७) प्रवर्तिनी।
इनके द्वारा हजारों-हजारों साधु-साध्वियों का कार्य-संचालन होता था। इनमें आचार्य का स्थान सर्वोपरि है। उपाध्याय का काम है संघ में शिक्षा का प्रसार करना, प्रवचन अविच्छिन्न रहे वैसी व्यवस्था करना।
गणि-मुनि-गण का व्यवस्थापक।
गणावच्छेदक-गण के विकास के लिए साधुओं की मण्डली को साथ लेकर गांव-गांव विहारने वाला और उनके संयम का ध्यान रखने वाला।
स्थविर-बड़ी उम्र वाला विशेष अनुभवी मुनि। प्रवर्तक-संयम की शुद्धि और अभ्यास के लिए प्रेरणा देने वाला। प्रवर्तिनी-साध्वियों की व्यवस्था करने वाली साध्वी। एक व्यक्ति ने पूछा-आपके उपाध्याय कौन हैं? आचार्य भिक्षु ने उत्तर दिया-कोई नहीं। उसने कहा-उपाध्याय के बिना संघ पूर्ण कैसे होगा?
आचार्य भिक्षु ने उत्तर दिया-संघ पूर्ण है। सातों पदों का काम मैं अकेला देख रहा हूं। __आचार्य और उपाध्याय एक होते थे-ऐसा प्राचीन साहित्य में मिलता है। आचार्य कई साधुओं का अर्थ पढ़ाते और कई ग्रन्थों का सूत्रं पढ़ाते। जिस शिष्यों को अर्थ पढ़ाते उनके लिए वे आचार्य होते और जिन्हें सूत्र-पाठ पढ़ाते उनके लिए वे ही उपाध्याय होते। इस प्रकार एक ही व्यक्ति किसी के लिए आचार्य, किसी के लिए उपाध्याय होते।
__ ओघ नियुक्ति के अनुसार यह कोई आवश्यक नहीं कि आचार्य और उपाध्याय भिन्न ही हों। एक ही व्यक्ति शिष्यों को अर्थ और सूत्र दोनों दे सकता है और वह आचार्य और उपाध्याय दोनों हो सकता है। इससे जान १. स्थानांगवृत्ति, ५.२.४३८ २. नावम्यमाचार्योपाध्यायैर्भिन्नैर्भवितव्यम्,
अपितु क्वचिदमावेव सूत्रै शिष्येभ्यः प्रयच्छत्यसावेव चार्थम्। (ओघ. वृ., पृ. ३)
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