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संघ-व्यवस्था : १६१
पड़ता है कि एक ही व्यक्ति के आचार्य और उपाध्याय होने की परम्परा पुरानी है। पर सातों पदों का काम एक ही व्यक्ति करे, यह नई परम्परा है। इसका सूत्रपात आचार्य भिक्षु ने किया।
यह प्रथम दर्शन में कुछ अटपटा-सा लगता है। दूसरों के अधिकारों पर प्रहार और व्यक्तिवाद को बढ़ावा देने वाला कार्य-सा लगता है। थोड़े चिन्तन के बाद स्थिति ऐसी नहीं रहती। अधिकार का प्रश्न राज्य-शासन में होता है। धर्म-शासन में केवल धर्म-पालन का ही प्रश्न होता है। जो मुनि बनते हैं वे आचार्य, उपाध्याय आदि-आदि पद प्राप्ति के लिए नहीं बनते। वे आत्म-साधना के लिए मुनि बनते हैं। जहां आत्म-साधना गौण और पद-प्राप्ति प्रधान बन जाती है जहां मुनित्व ढोंग बन जाता है। जहां शासन आत्मा की होती है और पद का काम जिसे करना हो वह करे, वहां साधना प्रधान और सर्वोपरि अभिलषणीय तथा पद गौण बन जाता है। जिस साध-संघ में पद का प्रश्न सर्वोपरि होता है वह प्राणहीन बन जाता है। पद और प्रतिष्ठा की भूख कोई नई बीमारी नहीं है। यह शाश्वत-सी है। इसका समूल उन्मूलन होना तो बहुत ही कठिन है। इतना अवश्य होता है कि परिस्थिति की उत्तेजना मिलती है, तो वह बढ़ जाती है और उसकी उत्तेजना न मिलने पर वह शान्त रहती है। ___ आचार्य भिक्षु ने ऐसी व्यवस्था की, जिससे किसी भी साधु को आचार्य-पद की भूख रखने का अवसर ही न मिले।
उन्होंने लिखा- “वर्तमान आचार्य की इच्छा हो तब वह गुरु-भाई अथवा अपने शिष्य को अपना उत्तराधिकारी चुने, उसे सब साधु-साध्वियां आचार्य मान लें। सब साधु-साध्वियां एक ही आचार्य की आज्ञा में रहें, यह परम्परा मैंने की है।"
इस मर्यादा का तेरापंथ के आत्मार्थी साधु-साध्वियों ने बहुत ही आन्तरिकता से पालन किया है। आचार्य श्री तुलसी नवें आचार्य हैं। इन्हें इनके पूवर्ती आचार्य पूज्यप्रवर कालूगणी ने बाईस वर्ष की अवस्था में अपना उत्तराधिकारी चुना। उस समय पांच सौ के लगभग साधु-साध्वियां थीं। उसमें वय-प्राप्त भी थे, विद्वान् भी थे, सभी प्रकार के थे। यह आंखों-देखा
१. लिखित, १८३२
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