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________________ संघ-व्यवस्था : १५७ मर्यादाएं की हैं। शिष्य-शाखा का सन्तोष कराकर सुखपूर्वक संयम पालने का उपाय किया। १०. विचार-स्वातन्त्र्य का सम्मान भारत में गणतन्त्र का इतिहास पुराना है। गणतन्त्र का अर्थ है-अनेक शासकों द्वारा चालित राज्य। जनतंत्र जनता का राज्य होता है। गणतन्त्र की अपेक्षा जनतंत्र अधिक विकासशील है। विकास की कसौटी है स्वतन्त्रता। स्वतंत्रता का मूल्य है आध्यात्मिक विचार। जैन दर्शन के अनुसार प्रत्येक आत्मा की स्वतंत्र सत्ता है। वह अपने ही कार्यों द्वारा स्वयं चालित होती है। उसकी व्यवस्था अपने आप में निहित है। प्रत्येक आत्मा स्वयं ब्रह्मा है, स्वयं विष्णु और स्वयं शंकर। . स्वतन्त्रता का वास्तविक मूल्यांकन धार्मिक जगत् में ही होता है। राजनीति में गणतन्त्र या जनतन्त्र हो सकता है, पर स्वतन्त्रता का विकास नहीं हो सकता। राज्य का मूल मन्त्र है-शक्ति और धर्म का मूल मंत्र है-पवित्रता। जहां शक्ति है वहां विवशता होगी और जहां पवित्रता है वहां हृदय की शुद्धि होगी। हृदय की शुद्धि जिस अनुशासन को स्वीकार करती है वह है धर्मशासन। विवशता से जो अनुशासन स्वीकार करना होता है वह है राज्यशासन। धर्म-शासन हृदय का शासन है। इसलिए उसे एकतन्त्र, गणतन्त्र, जनतन्त्र जैसी राजनीतिक संज्ञा नहीं दी जा सकती। फिर भी यदि हम नामकरण का लोभ संवरण न कर सकें तो आचार्य भिक्षु की शासन-प्रणाली को एकतन्त्र और जनतंत्र का समन्वय कह सकते हैं। एकतन्त्र इसलिए कि उसमें आचार्य का महत्त्व सर्वोपरि है। आचार्य महत्त्व सर्वोपरि है इसलिए इसे 'एकतन्त्र' की संज्ञा मिल जाती, यदि यह राजनीतिवाद होता। किन्तु यह धर्म-शासन का एक प्रकार है। इसमें आचार्य को मानने के लिए दूसरे विवश नहीं किये जाते, किन्तु साधना करने वाले स्वयं आचार्य को महत्त्व देते हैं। उनके निर्देश में ही अपनी यात्रा को निर्बाध समझते हैं। जनतन्त्र इसलिए कि आचार्य अपने शिष्यों पर अनुशासन लादते नहीं किन्तु उन्हें उन्हीं के हित के लिए उसकी आवश्यकता समझाकर १. लिखित, १८३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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