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१५६ : भिक्षु विचार दर्शन
१. एक काठ की, जिसमें छेद नहीं होता। २. एक काठ की, किन्तु फूटी हुई। ३. एक पत्थर की।
पहली नौका के समान साधु होते हैं, जो स्वयं तरते हैं और दूसरों को भी तारते हैं।
दूसरी कोटि की नौका के समान साधु का वेश धारण करने वाले हैं, जो स्वयं डूबते हैं और दूसरों को इबोते है। .
तीसरी कोटि के समान पांखडी हैं, जो प्रत्यक्ष विरुद्ध हैं, इसलिए उसके जाल में लोग सहसा नहीं फंसते।
वेशधारी प्रत्यक्ष विरुद्ध नहीं होते। इसलिए उनके जाल में लोग सहसा फंस जाते हैं।
आचार्य भिक्षु ने अनुभव किया कि अनुशासन का भंग उच्छृखल वृत्तियों से होता है। अंकुश के बिना जैसे हाथी चलता है, लगाम के बिना जैसे घोड़ा चलता है, वैसे ही जो अनुशासन के बिना चलता है वह नामधारी साधु है। . इस युग में श्रमण थोड़े हैं और मुंडी अधिक हैं। वे साधु का भेख (वेश) पहनकर माया-जाल बिछा रहे हैं। इस माया-जाल की अन्त्येष्टि के लिए उन्होंने मर्यादाएं कीं। उनकी वाणी है-"शिष्यों! वस्त्रों और सुविधाकारी गांवों की ममता में बंधकर असंख्य जीव चरित्र से भ्रष्ट हो गए हैं। इसलिए मैंने शिष्यों की ममता को मिटाने व शुद्ध चरित्र को पालने का उपाय किया है, विनय मूल धर्म व न्याय-मार्ग पर चलने का प्रण किया है। वेशधारी विकल शिष्यों को मूंड इकट्ठा कर लेते हैं। वे शिष्यों के भूखे होकर परस्पर एक-दूसरे में दोष बतलाते हैं, एक-दूसरे के शिष्यों को फंटा पृथक् कर लेते हैं, कलह करते हैं, मैंने ये चरित्र देखे हैं। इसलिए मैंने साधुओं के लिए ये १. भिक्खु दृष्टिान्त ३०१, पृ. १२० २. आचार री चौपाई, १.३५ विण अंकुस जिम हाथी चाले, घोड़ो विगर लगाम जी।
एहवी चाल कुगुरु री जाणो, कहिवा ने साध नाम जी|| ३. वही, २ दू. २
समण थोड़ा ने मुंड घणा, पांचमें आरे चेन। भेष लेइ साधां तणो, करसी कूडा फैन।।
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