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मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : ११६ खुशी की बात है। फिर तुम किसलिए कोसने आए हो कि भीखणजी के श्रावक दान नहीं देते? ___दान भारतीय साहित्य का. सुपरिचित शब्द है। इसके पीछे अनुग्रह का मनोभाव रहा है। एक समर्थ व्यक्ति दूसरे असमर्थ व्यक्ति को दान देता है, इसका अर्थ है, वह उस पर अनुग्रह करता है। दान की परम्परा में असंख्य परिवर्तन हुए हैं। प्रत्येक परिवर्तन के पीछे एक विशिष्ट मान्यता रही है। प्राचीन काल में राजाओं की ओर से दानशालाएं चलती थीं। दुर्भिक्ष आदि में उनकी विशेष व्यवस्था की जाती थी। पद-यात्रियों को भी आहार आदि का दान दिया जाता था। सार्वजनिक कार्यों के लिए दान देने की प्रथा सम्भवतः नहीं जैसी थी। उस समय दान समांज-व्यवस्था का एक प्रधान अंग था। उससे पूर्वकाल में जाते हैं तो दान जैसा कोई तत्त्व था ही नहीं। न कोई देने वाला था और न कोई लेनेवाला। भगवान् ऋषभनाथ ने दीक्षा से पूर्व दान देना चाहा, पर कोई लेने वाला नहीं मिला।
भगवान् ऋषभनाथ श्रमण बने। एक वर्ष तक उन्हें कोई भिक्षा देने वाला नहीं मिला, उसके पश्चात् श्रेयांसकुमार ने उन्हें इक्षुरस का दान दिया। __साधुओं को दान देने का प्रवर्तन हुआ तब यह प्रश्न मोक्ष से जुड़ गया, धर्म का अंग बन गया। समाज में दीन-वर्ग की सृष्टि हुई तब दान करुणा से जुड़ गया। - याचकों ने दान की गाथाएं गायीं। दान सर्वोपरि तत्त्व बन गया। इससे अकर्मण्यता बढ़ने लगी, तब दान के लिए पात्र, अपात्र की सीमाएं बनने लगीं। इससे दाताओं का गर्व बढ़ने लगा, तब दाता के स्वरूप की मीमांसा की जाने लगी।
मांगने वालों का लोभ बढ़ गया, तब देय की मीमांसा होने लगी। दान के कारणों का विशद विवेचन हुआ। भारतीय साहित्य के हजारो-लाखों पृष्ठ इन मीमांसाओं से भरे हैं। आचार्य भिक्षु ने इस अध्याय में कुछ पृष्ठ और जोड़ दिए। उन्होंने दान का मोक्ष और संसार की दृष्टि से विश्लेषण किया। उनका अभिमत है कि जो लोग समूचे दान को धर्म मानते हैं, वे धर्म की १. भिक्खु दृष्टान्त, १४६, पृ. ६०
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