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१२० : भिक्षु विचार दर्शन
शैली को नहीं जान पाए हैं। वे आक और गाय के दूध को एक मान रहे हैं।' मोक्ष का मार्ग संयम है। असंयमी को दान दिया जाए और उसे मोक्ष का मार्ग बताया जाए - यह विरोध है । दान को धर्म बताए बिना लोग नहीं देते, इसलिए सम्भव है दान को धर्म बताया जाता है । '
आचार्य भिक्षु की समूची दान-मीमांसा का सार इन शब्दों में है कि संयमी को दिया जाए, वह दान मोक्ष का मार्ग है और असंयमी को दिया जाए, वह दान संसार का मार्ग है। संयमी को दान देने से संसार घटता है और असंयमी को दान देने से संसार बढ़ता है।
दाता वहीं होता है जो संयमी या असंयमी सभी को दे । वह पग-पग पर संयमी असयमी की परख करने नहीं बैठता । अपने व्यवहार में जिसे संयमी मानता है, उसे मोक्ष मार्ग की बुद्धि से देता है और जिसे असंयमी मानता है, उसे संसार - मार्ग की बुद्धि से देता है ।
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निश्चय - दृष्टि का निर्णय व्यवहार-दृष्टि से भिन्न भी हो सकता है । सम्भव है जिसे संयमी माना जाए, वह वास्तव में असंयमी हो और जिसे असंयमी माना जाए, वह वास्तव में संयमी हो । यह व्यक्तिगत बात है सिद्धान्त की भाषा में यही कहा जा सकता है कि संयमी को दान देना मोक्ष का मार्ग है और असंयमी को दान देना संसार का मार्ग है। संयमी और असंयमी की परिभाषा अपनी-अपनी हो सकती है। आचार्य भिक्षु की
१. व्रताव्रत, २.१४ :
समुचे दान में धर्म कहे तो, नाइ जिण धर्म सेली रे । . आक ने गाय रो दूध अग्यानी, कर दीयो भेल संभेल रे || २. वही, २.१५ :
इविरत में दान ले पेलां रो, मोष रो मार्ग बतावे रे। धर्म कह्यांविण लोक नहीं दे, जब कूर कपट चलावे रे || ३. वही, १६.५७ :
सुपारत ने दीयां संसार घटे छे, कुपातर ने दीयां वधे संसार | ए वीर वचन साचा कर जाणो, तिणमें संका नहीं छे लिगार रे || ४. वही, १६.५० :
देवे, तिणने कहीजे दातार ।
पातर कुपातर हर कोइ ने तिणमें पातर दान मुगत से पावडीयो, कुपातर सूं रूले संसार रे॥
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