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मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : १२१
भाषा यह है कि जो पूर्ण अहिंसक हो वह संयमी है और जो मनसा, वाचा, कर्मणा, कृत, कारित और अनुमति से अहिंसा का पालन न करे वह असंयमी है।
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असंयमी मोक्ष दान का अधिकारी नहीं है । जिसमें कुछ व्रत हों, वह संयामा संयमी भी मोक्ष-दान का अधिकारी नहीं है । एक आदमी छह काय के जीवों को मारकर दूसरों को खिलाता है, यह हिंसा का मार्ग है।' जीवों को मारकर खिलाने में पुण्य बत्तलाते हैं, वे सिंह की भांति निर्भय होकर नाद नहीं करते। उन्हें पूछने पर मेमने की भांति कांपने लग जाते है । जो जीवों को मारकर खिलाने में पुण्य बतलाते हैं, उनकी जीभ तलवार की तरह चलती है । ३
एक दादूपंथी सम्प्रदाय का साधु आचार्य भिक्षु का व्याख्यान सुनने आया । वह व्याख्यान सुन बहुत प्रसन्न हुआ। वह बहुत बार आने लगा । एक दिन उसने आचार्य भिक्षु से कहा- आप अपने श्रावकों को कह दें किं मुझे रोटी खिलाएं। भिक्षु बोले- श्रावकों को कहकर तुम्हें रोटी खिलाएं, चाहे हम अपनी रोटी तुम्हें दें इसमें क्या अन्तर है? तब उसने कहा - तो आप दान का निषेध करते हैं? आचार्य भिक्षु ने कहा- देने वालों को मनाही करो चाहे किसी से छीन लो, इसमें क्या अन्तर है?*
लोग कहते हैं - आचार्य भिक्षु ने दान का निषेध किया है। आचार्य भिक्षु का अभिमत है कि निषेध करने में और छीनने में कोई अन्तर नहीं है । उनकी वाणी है-दाता दे रहा हो, लेने वाला ले रहा हो। उस समय
१. व्रताव्रत, १७.६ :
कोइ छ काय जीवां रो गटको करावे, अथवा छ काय भार ने खवावे । ओ जीव हिंसा नो राहज खोटो, तिण में एकंत धर्म ने पुन बतावे ॥ २. वही, १७.२६ :
जीव खवायां में पुन परूपे, ते सीह तणी परे कदे न गूंजे। परगट कहितां मूंडा दीसे, त्यांने प्रश्न पूछ्यां गाडर जिम धूजे || ३. वही, १७.२६ :
जीव खवायां में पुन परूपे, त्यां दुष्ट्यां ने कहिजे निश्चे अनारज । त्यांरी जीभबहे तरवार सूं तीखी, त्यां विकलां रा किण विध सीझसी कारज ॥ ४. भिक्खु दृष्टान्त, २४५, पृ. ६८
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