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११८ : भिक्षु विचार दर्शन
जीवों के प्रणातिपात से दूर रहना पहला महाव्रत है। इसमें समूची दया समायी हुई है। किसी भी प्राणी को भयाकुल न करना यह अभयदान है। यह भी दया या अहिंसा का ही दूसरा नाम है। . स्वयं न मारना, दूसरों से न मरवाना और मारने वाले को अच्छा न समझना-यह अभयदान है और यही दया है। जिसे अभयदान की पहचान नहीं है, वह दया को नहीं पहचानता।
८. दान कुछ लोग आकर बोले-भीखणजी! आपका अभिमत ही ऐसा है कि आपके श्रावक दान नहीं देते।
आचार्यवर ने कहा-एक शहर में चार बजाज दुकान करते थे। उनमें से तीन बजाज बारात में गए, पीछे एक बजाज रहा। कपड़े के ग्राहक बहुत आए। कहिए, इससे बजाज राजी होगा या नाराज?
वे बोले-वह तो प्रसन्न ही होगा।
आचार्यवर ने कहा-तुम कहते हो, भीखणजी के श्रावक दान नहीं देते, तो जितने याचक हैं वे सब तुम लोगों के पास ही आयेंगे। धर्म और पुण्य का लाभ सारा का सारा तुम्हीं को प्राप्त होगा, यह तुम लोगों के लिए
१. अणुकम्पा , ६.८
आहिज दया छे महावरत पहलो, तिण में दया दया सर्व आई जी।
ते पूरी दया तो सायो पाले, बाकी दया रही नहीं कार्ड जी॥ २. वही, ६.४:
त्रिविधे त्रिविधे छ काय जीवां ने, भय नहीं उपजावे तामो जी।
ए अभयदान कह्यो भगवंते, ते पिण दया रो नामो जी। ३. वही, ६, दू: १-२
पोते हणे हणावे नहीं, पर जीवां ना प्राण । हणे जिणने भलो जाणे नहीं, ए नव कोटी पचखाण॥ ए अभय दान दया कही, श्री जिण आगम माय।
तो पिण वंध उठावीयो, जेनी नाम धराय॥ ४. वही, ६, दू. ३
अभय दान न ओलख्यो, दया री खबर न कांय। भोला लोकां आगले, कूडा चोज लगाय॥
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