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________________ मोक्ष-धर्म का विशुद्ध रूप : ११७ लोगों का कहना था कि लौकिक कर्त्तव्यों को धर्म से पृथक् मानने पर उनके प्रति उपेक्षा का भाव बढ़ता है और दायित्व को निभाने पर कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं । आचार्य भिक्षु का दृष्टिकोण यह था कि इन्हें एक मानने से मोक्ष के सिद्धान्त पर प्रहार होता है । जिस कार्य से संसार चले, बन्धन हो, उसी से यदि मुक्ति मिले तो फिर बन्धन और मुक्ति को पृथक् मानने की आवश्यकता है? बन्धन और मुक्ति यदि एक हों तो उनकी सामग्री भी एक हो सकती है और यदि वे भिन्न हो तो उनकी सामग्री भी भिन्न होगी । राग-द्वेष और मोह से संसार का प्रवाह चलता है तो उससे मुक्ति कैसे प्राप्त होगी? वीतराग भाव से मुक्ति प्राप्त होती है तो उससे संसार कैसे चलेगा? दोनों भिन्न दिशाएं हैं। उन दोनों का एक बनाने का यत्न करने पर भी हम एक नहीं बना सकते। लौकिक दृष्टि से देखा जाए तो कर्त्तव्य का स्थान सर्वोपरि है । आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो सर्वोपरि स्थान है धर्म का । दोनों को एक दूसरे की दृष्टि से देखा जाए तो उलझन बढ़ती है। दोनों को अपनी-अपनी दृष्टि से देखा जाए तो अपने-अपने स्थान में दोनों का महत्त्व है । लौकिक दया के साथ अहिंसा की व्याप्ति नहीं है, इसलिए अहिंसा और दया भिन्न तत्त्व हैं । लोकोत्तर दया और अहिंसा की निश्चित व्याप्ति है । जहां दया है वहां अहिंसा है और जहां अहिंसा है वहां दया है । इस दृष्टि से अहिंसा और दया एक तत्त्व हैं । ७. दया कुछ सम्प्रदाय के साधुओं ने कहा- हम जीव बचाते हैं, भीखणजी नहीं बचाते । आचार्य भिक्षु ने कहा- जीव बचाने की बात रहने दो, उन्हें मारना तो छोड़ो। आपने कहा- एक पहरेदार था । उसने पहरा देना छोड़ दिया और चोरी करने लगा। उसने गांव के लोगों से कहा- मैं पहरा देता हूं इसलिए मुझे पैसा दो। लोग बोले- पहरा देना दूर रहा, चोरी करना ही छोड़ दो ।' प्राणिमात्र के प्रति जो संयम है, वह अहिंसा है। प्राणिमात्र के प्रति जो मैत्रीभाव है, उन्हें पीड़ित करने का प्रसंग आते ही हृदय में एक कंपन हो जाता है, वह दया है। दया के बिना अहिंसा नहीं हो सकती और अहिंसा के बिना दया नहीं हो सकती। इन दोनों में अविनाभाव सम्बन्ध है । सर्व १. भिक्खु दृष्टान्ट, ६५, पृ. २६-२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003095
Book TitleBhikshu Vichar Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages218
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size9 MB
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