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भूमिका : १३ कम है। अधिकांश सम्प्रदाय आचार-विषयक मान्यताओं को लेकर स्थापित हुए हैं। देश-काल की परिस्थिति से उत्पन्न विचार, आगमिक सूत्रों की व्याख्या में क्वचित्-क्वचित् मतभेद, रुचिभेद आदि-आदि कारण ही जैन साधु-संघ को ओक भागों में विभक्त किए हुए हैं। राजनगर के श्रावकों ने जो प्रश्न उपस्थित किए, वे भी आचार-विषयक थे। उन्होंने कहा-'वर्तमान साधु उद्दिष्ट (साधु के निमित्त बनाया हुआ) आहार लेते हैं, उद्दिष्ट स्थानकों में रहते हैं, वस्त्र-पात्र सम्बन्धी मर्यादाओं का पालन नहीं करते, बिना आज्ञा जिस-तिस को मूंड लेते हैं आदि-आदि आचरण साधुत्व के प्रतिकूल हैं।' भिक्षु मान्यता और आचार-दोनों में त्रुटि अनुभव कर रहे थे। उसी समय उन्हें यह प्रेरणा और मिली।
वस्त्र-पात्र के विषय में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मतभेद हैं, किन्तु उद्दिष्ट आहार आदि के विषय में कोई मतभेद नहीं है। सैद्धान्तिक दृष्टि से कोई भी जैन मुनि यह नहीं कह सकता कि उद्दिष्ट आहार लिया जा सकता है, उद्दिष्ट स्थानकों में रहा जा सकता है। किन्तु उस समय एक मानसिक परिवर्तन अवश्य हो गया था-'अभी दुःषम समय है, पाचवां आरा है, कलिकाल है। इस समय साधु के कठोर नियमों को नहीं निभाया जा सकता। इस धारणा ने साधु-संघ को शिथिलता की ओर मोड़ दिया।
यह एक जटिल पहेली-सी लगती है कि किसे चारित्र-शुद्धि कहा जाए और किसे चारित्र-शिथिलता? क्योंकि आगमिक व्याख्याओं और सूक्ष्म रहस्यों का पार जलधि-तरण से भी अधिक श्रस-साध्य है।
१. एक आचार्य ने एक कार्य को शिथिलाचार माना है, दूसरे ने नहीं १. भिक्षु जश रसायण, २, ८.६।
आधाकरमी-थानक आदऱ्या, मोल लिया प्रसिद्धि । उपधि वस्त्र पात्र अधिक ही, आ पिण थे थाप कीधी॥ जांण किंवाड जड़ो सदा, इत्यादिक अवलोक।
म्हें वनणा करां किण रीत तूं, थे तो थाप्या दोष॥ २. दशवैकालिक १०/४; मूलाचार ६/३। ३. वही, ५, १५ : १६ :
रुघनाथजी इसड़ी' कहे रे, सांभल भिक्खु बात। पूरो साधपणो नहीं पले रे, दुखमकाल साख्यात॥ भिक्खु कहे इम भाखियो रे, सूत्र आचारांग माय। ढीला भागल इम भाखसी रे, हिवडां शद्ध न चलाय॥
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