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१२ : भिक्षु विचार दर्शन सम्मुख उपस्थित करूंगा।' किन्तु वीरभाणजी बात को पचा नहीं सके। वे पहले पहुंचे और राजनगर की घटना को भी आचार्य त पहुंचा दिया। भिक्षु ने आचार्य के पास पहुंचकर सारा घटना-चक्र बदला हुआ पाया। उन्होंने परिस्थिति को संभाला। आचार्य को प्रसन्न कर सारी स्थिति उनके सामने रखी। कोई सन्तोषजनक समाधान नहीं मिला। भिक्षु ने उनसे सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। . जैन परम्परा में एक नया सम्प्रदाय जन्म लेगा-यह कल्पना न आचार्य रुघनाथ को थी और न स्वयं भिक्षु को ही। यह कोई गुरुत्व और शिष्यत्व का विवाद नहीं था।' भिक्षु के मन में रुघनाथजी को गुरु और स्वयं को उनका शिष्य मानने की भावना नहीं होती तो वें दूसरा संप्रदाय खड़ा करने की वात रखते। किन्तु वे ऐसा क्यों सोचते? आचार्य रुघनाथजी से उन्हें बहुत स्नेह था। आचार्य रुघनाथजी एक बड़े सम्प्रदाय के महान् नेता थे। उनके उत्तराधिकारी के रूप में भिक्षु का नाम लिखा जाता था। फिर वे क्यों उनसे पृथक् होते? किन्तु भिक्षु के मन में और कोई भावना नहीं थी। वे केवल चारित्र-शुद्धि के लिए छटपटा रहे थे। यही था उनका ध्येय और इसी की पूर्ति के लिए वे अपने आचार्य से खेद के साथ पृथक् हुए।
जैन परम्परा में अनेक सम्प्रदाय हैं, पर उनमें तात्त्विक मतभेद बहुत
१. भिक्षु जस रसायण, ४,१० :
जो थे मानो हो सूत्र नी बात, तो थेइज म्हारा नाथ।
नहिं तर ठीक लागे नहीं। २. वही, २, दोहा ६ :
पटधारक भिक्खू प्रगट, हद आपस में हेत।
इतलै कुण विरतन्त हुवो, सुणज्यो सहू सचेत॥ ३. वही ४, ११-१३ :
म्हें घर छोड्या हो आतम तारण काम, और नहीं परिणाम। तिण सूं बार बार कहूं आपनें। आप मानों हो स्वामी सूत्रां नी बात, छोड देवा पक्षपात। इक दिन परभव जावणो॥ पूजा-प्रशंसा हो लही अनन्ती बार, दुर्लभ श्रद्धा श्रीकार । निरणय करो आप एहनो!!
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